ओशो साहित्य >> नये समाज की खोज नये समाज की खोजओशो
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प्रस्तुत है नये समाज की खोज...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘उनके शब्द निपट जादू है।’’
--अमृता प्रीतम
‘‘भारत ने अब तक जितने भी विचारक पैदा किये हैं, वे
उनमें
सबसे मौलिक, सबसे उर्वर, सबसे स्पष्ट और सर्वाधिक सृजनशील विचारक थे। उनके
जैसा कोई व्यक्ति हम सदियों तक न देख पाएंगे। ओशो के जाने से भारत ने अपने
महानतम सपूतों में से एक खो दिया है। विश्वभर में जो भी खुले दिमाग वाले
लोग हैं, वे भारत की इस हानि के भागीदार होंगे।’’
निमंत्रण
जीवन प्रतिपल नया है। जीवन हर सांस में बदल रहा है। लेकिन हम और हमारा
समाज-विशेषकर भारत में-ठहर सा गया है। इसमें कोई प्रवाह नहीं, कोई
गतिशीलता नहीं। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हम जीवन से ही कट गये हैं। हम
पुराने से पुराने हो गये हैं। एकदम ठूंठ। हम विकासमान विश्व के प्रवाह से
अलग-थलग हो गये हैं और हम बुरी तरह पिछड़ गये हैं।
इस पुस्तक में ओशो हमें झकझोरते हुए कहते हैं : सारी दुनिया में नए को लाने का आमंत्रण है। हम नये को स्वीकार करते हैं ऐसे, जैसे कि पराजय हो ! इसीलिए पांच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति तीन सौ वर्ष, पचास वर्ष पुरानी संस्कृतियों के सामने हाथ जोड़ कर भीख मांगती है, और हमें कोई शर्म भी मालूम नहीं होती है। हम पांच हज़ार वर्षों में इस योग्य भी न हो सके, कि गेहूं पूरा हो सके, कि मकान पूरे हो सकें। अमरीका की कुल उम्र तीन सौ वर्ष है। तीन सौ वर्ष में अमरीका इस योग्य हो गया और कि सारी दुनिया के पेट को भरे।
और रूस की उम्र तो केवल सत्तर वर्ष ही है। सत्तर वर्ष की उम्र में रूस गरीब मुल्कों की कतार से हट कर अमीर मुल्कों की आखिरी कतार में खड़ा हो गया है। सत्तर वर्ष पहले जिसके बच्चे भूखे थे, आज उसके बच्चे चांद तारों पर जाने की योजनाएं बना रहे हैं। सत्तर सालों में क्या हो गया है ? कोई जादू सीख गये हैं वे ? जादू नहीं सीख गया है, उन्होंने एक राज़ सीख लिया है कि पुराने से चिपके रहने वाली कौम धीरे-धीरे मरती है, सड़ती है, गलती है।
भारत में हमारा चिंतन पुरातनवादी है, लेकिन हम एक बात भूल गए हैं कि यह जीवन का स्वभाव नहीं है। जीवन का विराट प्रवाह प्रतिपल परिवर्तनशील है, प्रगतिशील है। जीवन निरंतर नये प्रश्न खड़े करता है, नयी समस्याएं लाता है। लेकिन हम उन प्रश्नों और समस्याओं के उत्तर और समाधान गीता और कुरान में ढूंढ़ते हैं। इन ग्रंथों को कंठस्थ करके हम ज्ञानी तो हो जाते हैं, लेकिन हमारी एक भी समस्या का समाधान नहीं हुआ है।
ओशो कहते हैं कि हमें फिर से अज्ञानी होने की हिम्मत जुटानी होगी। और यह सूत्र साधना के जगत में तो सर्वाधिक जरूरी है: हम मन के भीतर सब संगृहीत ज्ञान से मुक्त हों। पूरी तरह शून्य हों। मन, उसे पूरी तरह विदा कर दें।
पुराना जाना-पहचाना होत है, इसलिए मन उससे चिपके रहने का आग्रह करता है। उसमें उसकी सुरक्षा है।
जीवन प्रतिपल न केवल नया है बल्कि अनजाना भी है; मन को इसका सामना करने में असुरक्षा प्रतीत होती है। इसलिए हज़ारों वर्षों से हमारे देश को नये का साक्षात्कार करने का साहस नहीं रहा। आक्रमणकारी आते रहे, इसे गुलाम बनाते रहे और हम अपने घरों के बंद कमरों में बैठे गीता और वेद पढ़ते रहे, यज्ञ-हवन करते रहे। और जो दुर्गति होनी भी वह हुई।
प्रस्तुत पुस्तक नये का आग्रहपूर्वक निमंत्रण है। अगर भारत को नया होना है तो इस पुस्तक को प्रत्येक भारतीय के पास पहुंचना अत्यावश्यक है। आओ हम इस निमंत्रण को स्वीकार करें और जीवन का आलिंगन करने का साहस जुटाएं।
जीवन हमारी प्रतिपल प्रतीक्षा कर रहा है। हम इससे पलायन न करें। आओ हम जीवन के साथ लयबद्ध हों, नाचें, गाएं और उत्सव मनाएं। और स्मरण रहे ओशो कहते हैं; अगर हम अस्तित्व के सत्य को खोजने चले हैं तो सत्य भी आतुर है कि कोई आवश्यकता नहीं है। जितना विराट अज्ञात हो उसमें उतरने से उतनी ही विराट आत्मा तुम्हारी हो जाएगी। जितनी बड़ी चुनौती स्वीकार करोगे उतना ही बड़ा तुम्हारा नवजन्म हो जाएगा। तैयारी हो जीवन के आनंद को अंगीकार करने की तो आओ, द्वार खुले हैं; तो ओ, स्वागत है, तो आओ, बुलावा है, निमंत्रण है।
इस पुस्तक में ओशो हमें झकझोरते हुए कहते हैं : सारी दुनिया में नए को लाने का आमंत्रण है। हम नये को स्वीकार करते हैं ऐसे, जैसे कि पराजय हो ! इसीलिए पांच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति तीन सौ वर्ष, पचास वर्ष पुरानी संस्कृतियों के सामने हाथ जोड़ कर भीख मांगती है, और हमें कोई शर्म भी मालूम नहीं होती है। हम पांच हज़ार वर्षों में इस योग्य भी न हो सके, कि गेहूं पूरा हो सके, कि मकान पूरे हो सकें। अमरीका की कुल उम्र तीन सौ वर्ष है। तीन सौ वर्ष में अमरीका इस योग्य हो गया और कि सारी दुनिया के पेट को भरे।
और रूस की उम्र तो केवल सत्तर वर्ष ही है। सत्तर वर्ष की उम्र में रूस गरीब मुल्कों की कतार से हट कर अमीर मुल्कों की आखिरी कतार में खड़ा हो गया है। सत्तर वर्ष पहले जिसके बच्चे भूखे थे, आज उसके बच्चे चांद तारों पर जाने की योजनाएं बना रहे हैं। सत्तर सालों में क्या हो गया है ? कोई जादू सीख गये हैं वे ? जादू नहीं सीख गया है, उन्होंने एक राज़ सीख लिया है कि पुराने से चिपके रहने वाली कौम धीरे-धीरे मरती है, सड़ती है, गलती है।
भारत में हमारा चिंतन पुरातनवादी है, लेकिन हम एक बात भूल गए हैं कि यह जीवन का स्वभाव नहीं है। जीवन का विराट प्रवाह प्रतिपल परिवर्तनशील है, प्रगतिशील है। जीवन निरंतर नये प्रश्न खड़े करता है, नयी समस्याएं लाता है। लेकिन हम उन प्रश्नों और समस्याओं के उत्तर और समाधान गीता और कुरान में ढूंढ़ते हैं। इन ग्रंथों को कंठस्थ करके हम ज्ञानी तो हो जाते हैं, लेकिन हमारी एक भी समस्या का समाधान नहीं हुआ है।
ओशो कहते हैं कि हमें फिर से अज्ञानी होने की हिम्मत जुटानी होगी। और यह सूत्र साधना के जगत में तो सर्वाधिक जरूरी है: हम मन के भीतर सब संगृहीत ज्ञान से मुक्त हों। पूरी तरह शून्य हों। मन, उसे पूरी तरह विदा कर दें।
पुराना जाना-पहचाना होत है, इसलिए मन उससे चिपके रहने का आग्रह करता है। उसमें उसकी सुरक्षा है।
जीवन प्रतिपल न केवल नया है बल्कि अनजाना भी है; मन को इसका सामना करने में असुरक्षा प्रतीत होती है। इसलिए हज़ारों वर्षों से हमारे देश को नये का साक्षात्कार करने का साहस नहीं रहा। आक्रमणकारी आते रहे, इसे गुलाम बनाते रहे और हम अपने घरों के बंद कमरों में बैठे गीता और वेद पढ़ते रहे, यज्ञ-हवन करते रहे। और जो दुर्गति होनी भी वह हुई।
प्रस्तुत पुस्तक नये का आग्रहपूर्वक निमंत्रण है। अगर भारत को नया होना है तो इस पुस्तक को प्रत्येक भारतीय के पास पहुंचना अत्यावश्यक है। आओ हम इस निमंत्रण को स्वीकार करें और जीवन का आलिंगन करने का साहस जुटाएं।
जीवन हमारी प्रतिपल प्रतीक्षा कर रहा है। हम इससे पलायन न करें। आओ हम जीवन के साथ लयबद्ध हों, नाचें, गाएं और उत्सव मनाएं। और स्मरण रहे ओशो कहते हैं; अगर हम अस्तित्व के सत्य को खोजने चले हैं तो सत्य भी आतुर है कि कोई आवश्यकता नहीं है। जितना विराट अज्ञात हो उसमें उतरने से उतनी ही विराट आत्मा तुम्हारी हो जाएगी। जितनी बड़ी चुनौती स्वीकार करोगे उतना ही बड़ा तुम्हारा नवजन्म हो जाएगा। तैयारी हो जीवन के आनंद को अंगीकार करने की तो आओ, द्वार खुले हैं; तो ओ, स्वागत है, तो आओ, बुलावा है, निमंत्रण है।
स्वामी चैतन्य कीर्ति
संपादक: ओशो टाइम्स इंटरनेशनल
ओशो परम कल्याणमित्र हैं, अस्तित्व का माधुर्य हैं।
उनकी करुणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई है।
ओशो जिनका न कभी जन्म हुआ, न कभी मृत्यु,
जो इस पृथ्वी ग्रह पर
11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक
केवल एक आगंतुक रहे।
प्रस्तुत प्रवचन सम्मुख-उपस्थित श्रोताओं के प्रति ओशो के सहज प्रतिसंवेदन हैं, जिनका मूल्य शाश्वत व संबंध मानव-मानव से है।
उनकी करुणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई है।
ओशो जिनका न कभी जन्म हुआ, न कभी मृत्यु,
जो इस पृथ्वी ग्रह पर
11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक
केवल एक आगंतुक रहे।
प्रस्तुत प्रवचन सम्मुख-उपस्थित श्रोताओं के प्रति ओशो के सहज प्रतिसंवेदन हैं, जिनका मूल्य शाश्वत व संबंध मानव-मानव से है।
1
जीवन मूल्य और संघर्ष
कई बार कोई चीज जागते-जागते हमारे भीतर किसी कोने में पड़ी रह जाती है।
भूल जाते हैं, दूसरे काम में लग जाते हैं। कई दफा-बीस वर्ष तक नहीं,
बीस-बीस जन्म तक कोई चीज हमारे भीतर रोक कर पड़ी रहती है और कभी भी उस पर
चोट पड़ जाये, वह फिर जिंदा हो जाती है, क्योंकि भीतर कुछ मरता ही नहीं
है। जन्मों-जन्मों तक नहीं मरता, प्रतीक्षा ही करता है और मौका देखता है
कि अब ठीक पानी पड़ जायेगा और बीज फूट जायेगा। पर जब वैसा होगा तो बहुत
फर्क पड़ेगा। जिस आदमी के भीतर वैसी कोई बात नहीं हुई है कभी, वह भी
सुनेगा, उसे यह बिलकुल फॉरेन मालूम पड़ेगा; विजातीय बात है, पता नहीं क्या
बात है। लेकिन जिसके भीतर कुछ सजातीय स्वर जग जायेगा, उसे लगेगा कि यह
मुझे कहनी थी, आपने कैसे कह दी। बस ऐसा ही लगेगा।
प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है कि सारे क्राउड में शायद...।
हां, बिलकुल ही ऐसा लगेगा। ठीक कहते हैं आप। पर सच बात तो यह है कि क्राउड से तो कोई बात हो ही नहीं सकती। होती तो एक-एक ही से है-चाहे वहां कितने ही लोग मौजूद हों।
प्रश्न : (अस्पष्ट टेप-रिकार्डिंग)
महीपाल जी से बात हुई थी, वह हैं नहीं, कल चले गये, नहीं तो इसके ऊपर खयाल था। आपकी भी बात हुई थी जो अचानक उन्होंने कहा, तो मैंने कहा, आज ही बुला लो। काम तो बहुत है। क्योंकि असल में हर युग का अभिव्यक्ति का माध्यम है, और हर युग का अलग है। हर युग का माध्यम अलग है। जिसे हम लोक मान्यता कहते हैं, वह माध्यम का ही अर्थ है। जब तक हम बोलकर ही पूछ सकते थे, कोई रास्ता नहीं था। और जो बात कान से पहुंचती है, उससे हजार गुना आंख से पहुंचती है, अगर वह देखी जा सके। क्योंकि सुने हुए के सच होने का कोई भरोसा नहीं है। वह मुश्किल है। देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास करना मुश्किल है। और जिस मृत्यु की आप बात कर रहे हैं वह उसमें चीजों को देखने का मौका दे दिया है।
देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता, देखने का बल इतना है। सुने हुए सच पर भी विश्वास करना बहुत मुश्किल है। सुनने का कोई बल नहीं है। देखे हुए झूठ का भी बल है और देखे हुए झूठ का भी बहुत बल है। और आंख को कुछ पता नहीं है कि वह सच में देख रही है कि पर्दे पर देख रही है। आंख सिर्फ देखती है और उसकी लाखों करोड़ों वर्षों की देखी हुई बात पर विश्वास करने की आदत है। वह जो देख लेती है उसको सच मान लेती है। इन्ट्यूटिव है वह बात। उसको पता नहीं है।
और इसीलिए तो आप फिल्म में देख रहे हैं कि एक आदमी दुखी हो रहा है, और एक आदमी बैठकर रोने लगा है। वह बिलकुल भूल गया है कि जो वह पर्दा है। वह भूल ही गया, क्योंकि आंख को पता ही नहीं है। आंख तो देखना जानती है, देखने से विश्वास करना जानती है। करोड़ों वर्ष की आंख की आदत है। हमको कभी पता नहीं कि हम झूठा पर्दा भी बना लेंगे और उस पर हम देख लेंगे। अब क्या हुआ- और हमेशा यह होता है कि जब भी कोई आविष्कार होता है तो सबसे पहले हमारे नये आविष्कार का उपयोग हमारी निम्नतम जरूरतों के लिए बना है।
कहावत है अरब में कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है तो शैतान उस पर पहले कब्जा कर लेता है। भगवान को बहुत मुश्किल है। मौका मिलता है ! उस पर कब्जा कर लेता है, नये आविष्कार पर; तो नये आविष्कार तो रोज होते चले जा रहे हैं हमारी जो निम्नतम वृत्ति है, वह उस पर कब्जा कर लेती है। और इसलिए निम्रतम वृत्तियां बिलकुल पागल हो गयी हैं, और उनको पागल करके शोषण भी किया जा सकता है, किया जा रहा है।
अब इस.....सारी की सारी दुनिया आदमी के सेक्स का शोषण कर रही है पूरी तरह। हमें दिखायी नहीं पड़ता। हम पेंटिग पर भी वही कर रहे हैं, हम फिल्म पर भी वही कर रहे हैं, संगीत पर भी वही कर रहे हैं। हम घूम-फिर कर आदमी के सेक्स का एक्सप्लायटेशन कर रहे हैं। और अगर सेक्स का इतना एक्सप्लायटेशन होगा तो निश्चित ही खतरे में पड़ते चले जायेंगे। क्योंकि वहां से जितनी शक्ति एक्सप्लायट होगी, उतनी कन्वर्ट नहीं होगी।
और यह मजे की बात है कि सेक्स में एब्सल्यूटली इतनी इनर्जी आपकी व्यय नहीं होती, जितनी सेक्स एमेजिनेशन से व्यय होती है। क्योंकि इमेजिनेशन पर्वशन है। सेक्स तो प्रकृति है। इमेजिनेशन बिलकुल पर्वशन है। और इमेजिनेशन का शोषण होता है। तो मेरा कहना यह है कि इस इमेजिनेशन का शोषण क्या खुद के लिए नहीं हो सकता है ?
इस दिशा में बहुत प्रयोग हुए हैं। जैसे दरवेश होते हैं....एक फकीर था गुरजिएफ, वह आठ-दस साल पहले मरा है। उसने कुछ दरवेश नृत्य खोजे हुए थे। जिनको आप घण्टे भर सिर्फ देखें, आप देखते-देखते ध्यान में चले जायेंगे। सिर्फ ध्यान से देखते जायें, उसके सारे आस्पेक्ट्स, उसकी सारी थ्रिल, उसका पूरा संगीत। और जो आपके भीतर था, आपके ऊपर उठ आना शुरू होगा। और घंटे भर में आप बिलकुल ही आप जगत को अनुभव करेंगे, जो आपने कभी नहीं जाना। एक बार उसकी जरा भी अनुभूति हो जाये तो फिर उसकी पुकार आपका पीछा करेगी। वह आपको चौबीस घंटे बुलायेगी कि वहां भी एक दुनिया है, जो अनजानी रह गयी है। उसमें कुछ दरवेश नृत्य हैं।
अब दरवेश नृत्य के द्वारा बहुत काम किया है सूफी फकीरों ने। जो लोग कुछ और नहीं समझ सकते, किताब नहीं समझ सकते, ज्ञान नहीं समझ सकते, वह भी नृत्य देख तो सकते हैं और हम उनसे समझने के लिए कुछ कह नहीं रहे। उनकी आंख देखने में जो पकड़ जाती है, उससे उनके सारे स्नायुओं पर भी असर हो जाता है और उनकी सारी चेतना तक जो प्रवेश हो जाता है, वह बिलकुल ही सहज है। उससे उनको कहने को हम कुछ कह नहीं रहे हैं।
और पहला अनुभव अगर सहज हो जाये तो दूसरा अनुभव आदमी साधना से करना चाहता है। यह सब जो कठिनाई पड़ गयी है, पहला अनुभव ही साधना से करवाने की दिक्कत में पड़े हुए हैं। पहला अनुभव अगर सहज हो जाये तो दूसरा अनुभव आप कितने ही कष्ट को उठाकर, श्रम को उठाकर करते हैं।
संगीत अद्भुत है। इधर मेरा खयाल है, एक थोड़े से मित्रों को जो अलग-अलग दिशाओं को सोचते हैं, संगीत में हों, फिल्म में हों या पेंटिग में हों काव्य में हों-क्या यह नहीं हो सकता कि हम सारे लोग मिलकर सोचें कि हम आदमी को उस ऊंचाई तक ले जाने के लिए अलग-अलग दिशाओं से क्या दर्शन दे सकते हैं ? अगर एक पेंटिंग को देखकर एक आदमी कामातुर हो सकता है तो एक पेंटिंग को देखकर एक आदमी आनंदित क्यों नहीं हो सकता ? और अगर एक संगीत को सुनकर सेक्सुअलिटी जगती हो और आदमी फुलफिल हो जाता हो, तो यह क्यों नहीं हो सकता कि एक दूसरे संगीत को सुनकर सेक्सुअलिटी खोती हो और आदमी आध्यात्मिक हो जाये।
तो वह जो आप कहते हैं न कि क्या काम कर सकते हैं, काम तो बहुत है। काम तो इस वक्त इतना है...और मेरा मानना है हमेशा कि जो लोग नये माध्यम में काम करते हैं, उन्हीं के लिए सबसे ज्यादा काम होता है। पुराने माध्यम पिट गये होते हैं। और जो चीज पिट गयी होती है, जिसके हम आदी हो गये होते हैं, वह हमारे भीतर किसी नये दरवाजे को तोड़ने में असमर्थ हो जाती है। कभी उसने तोड़ा, जब वह नयी थी। अब तोड़ना बहुत मुश्किल हो गया।
और एक मजा हो गया, दुनिया की जितनी पुरानी कलाएं थीं, वे एक अर्थ में एक्टिव थीं। उसमें आपके पार्टिसिपेट करना पड़ता था। नृत्य का पूरा मजा नाचने में था। संगीत का पूरा मजा बजाने-गाने में था, पैदा करने में था। नयी दुनिया ने क्या कर रखा है कि सारी एक्टिव कलाओं को पैसिव आर्ट बना दिया है। न आपको नाचना है, न आपको गाना है। आपको सिर्फ देखना है, सुनना है, बैठे रहना है। एक मुर्दे की तरह आप बैठे रहें तीन घंटे, बाकी सब दूसरा कर रहा है !
इसके परिणाम बड़े खतरनाक हुए। इसका तत्क्षण क्या परिणाम हुआ, सुबह से लेकर रात तक आदमी को हम पैसिव एनटाइटी बना रहे हैं। हम उससे कहते हैं, तुम्हें कुछ नहीं करना है। हां, हम सब कर देंगे-किराये के आदमी, हम कर देंगे। तुम सिर्फ देख लो, बस काफी है। तुम्हारे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक संगीतज्ञ जिंदगी भर मेहनत करेगा; वह गा लेगा, तुम सुन लेना; वह नाचेगा, तुम देख लेना। धीरे-धीरे सारी गतिविधि...और यह मजे की बात है कि जितना आदमी पैसिव हो, उतना आदमी सेक्सुअल हो जायेगा। और आदमी एक्टिव हो, उतना ही स्प्रीचुअल हो जायेगा।
ये सारे जितने नये माध्यम आ गये हैं...नये माध्यम को भी हम मनुष्य की पुरानी आत्मा को उठाने के लिए कैसे काम में लायें, यह तो बहुत ही बड़ा सवाल है। और नहीं हम लाते हैं, तो वह तो काम में लाया जा रहा है। नीचे ले जाने के तो काम में लाया जा रहा है।
और यह ध्यान रहे, सब पुरानी बातें पिट जाती हैं। उसके लोग आदी हो जाते हैं। फिर उसको लोग देखते ही नहीं। एक आदमी शादी कर लाता है। शादी के पहले उसने अपनी पत्नी को देखा होगा। फिर बीस साल हो गये। अगर वह आज खयाल करेगा तो चौंक जायेगा। बीस साल उसने देखा ही नहीं ! वह आदी हो गया है। रोज निकला है, पत्नी को गले भी लगाया है, उससे बात भी की है, सुबह शाम उससे लड़ा-झगड़ा भी है, लेकिन देखा नहीं है ! देखने का कोई मौका ही नहीं आया, कोई जरूरत ही नहीं पड़ी। वह आदी हो गया। हां, कोई नयी औरत को सड़क पर आज देख लेता है, आज भी देख लेता है और देखने की वजह से वह आज भी लालायित हो जाता है। और अपनी पत्नी अब उसको आकर्षित नहीं करती, क्योंकि उसको अब वह देखता ही नहीं। उसकी पत्नी को भी कोई देखकर उत्सुक हो जाता है। कोई देखता है तब न ! पर हम आदी हो जाते हैं। और धीरे-धीरे सारे माध्यम आदत हो जाते हैं।
अभी मैं पटना था, तो जो जालान फैमिली है, बहुत अच्छा उन्होंने म्यूजियम बनाया हुआ है घर पर। बहुत शौक है। वहां मैं गया। एक मेडीटेशन राउण्ड रखा हुआ है। देखा है आपने कभी ? वह जैसा हम घण्टा मंदिर में रखते हैं, वैसा ही यह मेडीटेशन राउण्ड, गोल रखा हुआ है। एक लकड़ी का डंडा होता है तो उसे राउण्ड में जोर से घुमाते हैं, तीन बार घुमाते हैं, फिर जोर से उसको मारते हैं। फिर तीन बार चोट और तीन बार घुमाने से उसमें चोट करने से ‘ओम मणि पद्मे हुं’ उसकी पूरी आवाज करता है। वह राउण्ड जो है, पूरी आवाज करता है। इतनी अद्भुत आवाज करता है कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। पूरा सूत्र बोल देता है वह। तीन दफा उस गोले के अंदर डंडे को घुमाया और तब परिधि को मारा। वह ‘ओम मणि पद्म हुं’-वह जो चोट है वह करते हैं और वह आवाज गूंजती है !
वह मंदिर में जहां पगोड़े में गूंजती है, वह ध्यान के लिए काम में लायी जाती थी। और वह हजारों वर्षों से लायी जा रही थी, और उसको कोई नहीं समझा ! न किसी की मतलब है, न किसी को प्रयोजन है। जैसे मंदिर में जाकर हम घण्टा ठोंक देते हैं, वैसे ही वे जाकर ठोंककर अपने घर चले आते हैं। वह सुनता ही नहीं, उसको मतलब ही नहीं है ! वह कभी डिवाइस थी। और जिसने, पहली दफा जिस चेतना ने, और आज भी जिस चेतना ने, आज भी जो चेतना उसको पहली दफा सुनेगी, तो पूरे प्राणों में वह ओम मणि पद्मे हुं’ की आवाज अंदर तक गूंजती मालूम पड़ेगी। और फिर जहां वह खोने लगती है उस खोने पर ही काम करना है, और वह जहां वह खोते-खोते शून्य हो जाती है, उसी शून्य में डूब जाना है। लेकिन वह आदत हो गयी है ! उसको रोज सुन रहा है ! गांव में दिन-रात वह बज रहा है, किसी को फुर्सत नहीं है ! सब चीजें पुरानी पड़ जाती हैं और इसलिए हमेशा मनुष्य की चेतना को रोज नये-नये माध्यम खोजने पड़ते हैं।
तो निम्नतम प्रवृत्तियां तो रोज नये माध्यम खोज लेती हैं और श्रेष्ठतम प्रवृत्तियां पुराने माध्यमों पर जोर दिये जाती हैं, इसलिए हार जाती हैं। तो मेरा मानना है कि इस दौड़ में निम्न प्रवृत्तियां हमेशा नया खोज लेती है, नया कम्पटीशन ले आती है। पुरानी प्रवृत्ति पुराने को दोहराती चली जाती है। बस वह मुश्किल में पड़ जाती है, वह हार जाती है। जिस दिन भी हम श्रेष्ठ के लिए रोज-रोज नया खोज सकेंगे-रोज नया गीत, रोज नया संगीत रोज नया माध्यम, उस दिन मनुष्य की चेतना में बड़ी क्रांति हो जायेगी-और सब तरफ से।
वह जो आप कहते हैं, क्या उपयोग है ? उपयोग तो बहुत हो सकता है। अब कुछ लोगों को सोचना चाहिए। साधु-संत अब नहीं जीत सकेंगे। वे हार चुके हैं। उनसे कुछ हो नहीं पाता। वह बिलकुल मरी हुई बाजी पर खड़े हुए हैं। अब तो साधुता को बिलकुल नये पाठ खोजकर लड़ाई लड़नी पड़ेगी-नहीं तो गया, एकदम गया। इस बुरी तरह से हार रही है श्रेष्ठता, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। और हर वर्ष कितने जोर से सब नीचे उतर रहा है, उसकी भी कल्पना नहीं कर सकते। और धीरे-धीरे कुछ बातें याद ही नहीं रह जायेंगी कि थीं भी। आज भी हम नहीं मान सकते।
प्रश्न : (अस्पष्ट टेप-रिकार्डिंग)
हां, वह जायेगा, वह जायेगा ! क्योंकि क्लासिकल संगीत को समझने वाला चेतना के साधना के स्तर पर कहां है। वह मैंने कहा न, वह जो मामला था। वह सिर्फ पैसिव होने का नहीं था। अब क्लासिकल संगीत को भी आप सुनेंगे। लेकिन सुनने की भी ट्रेनिंग चाहिए। यानी सुनना भी एक एक्टिव पार्टिसिपेशन है। पैसिव नहीं है कि आप गये और जाकर सुन लिया। आप जाकर तो वही सुन सकते हैं, जो उस लेवल पर हो और जिस पर सब आदमी हैं। तो एक जॉज़ है या और कुछ है, धूम-धड़ाका है, कोई भी जाकर सुन सकता है, क्योंकि हम सब उस जगह हैं। उसे समझने के लिए सीखना जरूरी नहीं है। उसे सीखने के लिए पहले कहीं से गुजरना जरूरी रहा है। हम वहां हैं। और मेरा कहना है कि सब तरफ से करना जरूरी है-नाच भी और गीत भी; और चित्र भी और पेंटिंग भी। सब तरफ से चोट करनी जरूरी है। अगर यह हो सकती है तो एक हारती हुई बाजी बच सकती है, नहीं तो गयी एकदम। और मजा यह है, जो हमें अनुभव में न हो, उसको हम विश्वास ही कैसे करें ?
अभी मैं पढ़ रहा था। एक मनोवैज्ञानिक कहता है कि सौ वर्ष बाद सभ्यता इतनी तनावग्रस्त हो सकती है कि कुछ बच्चे बचपन से ही अनिद्रा के रोग से ग्रसित पैदा हों। और जैसे ही वह पैदा हों, उन्हें नींद की दवा देनी पड़े। वे बच्चे बड़े होंगे। लेकिन अगर उनसे कोई कहेगा कि सौ वर्ष पहले ऐसे लोग थे जो बिस्तर पर सिर रखते थे और सो जाते थे-वे बच्चे नहीं मानेंगे-क्यों मानें ? मानें भी क्यों ? तो वे कहेंगे, यह हो ही नहीं सकता। यह कभी हुआ ही नहीं, ये झूठ बातें लिख दीं इन किताबों में। यह कैसे हो सकता है कि कोई आदमी बस लेटे और सो जाये, और कुछ न करे ! यह हो ही नहीं सकता है। सच में ही जिसको बचपन से नींद न आयी हो, वह कैसे विश्वास करे कि कोई दूसरा आदमी आंख बंद करके, और बस सो जाता है ! कुछ भी नहीं बीच में करना होता है, बस सो जाता है ! हम भी आज विश्वास नहीं कर सकते कि वक्त था कि लोग बस आंख बंद करके बैठे और समाधि में चले गये ! हम विश्वास नहीं कर सकते। यह कैसे हो सकता है, हम तो मरे जाते हैं। और कहां की समाधि, कहां का ध्यान ! कैसे हम मानें इस बात को। या तो आदमी झूठ बोलता है, या कोई पौराणिक कथा है। यह हो भी नहीं सकता। और हमारा ठीक भी है कहना। हम कहते हैं इस बात को।
कुछ चीजें एकदम खो गयी हैं और इस बुरी तरह खो गई हैं कि उनकी संभावना के द्वार ही जैसे बंद हो रहे हैं। जैसे दरवाजा ही बंद हो गया, अब उनका पता ही नहीं कि वह है। और यह चेष्टा साधु संन्यासी के वश में अब नहीं है, क्योंकि पहली तो बात यह है कि उसे खुद ही कुछ पता नहीं है। और दूसरी बात यह है कि चेतना इतने द्वारों से उल्टी गयी है कि अब एक द्वार से तुम वापस नहीं ला सकते हो उसे। उसे बहुत द्वारों से वापस लाना पड़ेगा। और मेरा मानना यह है कि जिन द्वारों से पतन होता है, उन्हीं द्वारों से उत्थान हो सकता है। तो आज चेतना किन-किन मार्गों से नीचे चली जा रही है उन्हीं-उन्हीं मार्गों से उसे वापस बुलाने की जरूरत है और वही मैथडालॉजी खोजनी पड़ेगी।–उसी मीडियम में, तो उसे हम वापस कर सकते हैं। और यह हो सकता है, इसमें अड़चन जरा भी नहीं है सिवाय इसके, कि न किया जाये तो नहीं होगा।
इधर मैं सोचता हूं यह अलग-अलग माधमय में काम करने वाले लोग, जो लोग जिन-जिन दिशाओं में सारा जीवन लगा दिये हों, उन-उन दिशाओं से कुछ..सब तरफ से हम फेंकते हैं एक इमपेक्ट ! और मेरा मानना यह है कि समझने का माध्यम सबसे पुराना हो गया। और समझाते भी हम थे, तो समझाना अंततः अंदर बहुत-बहुत सजेशन, पर्सुएशन है, और कुछ भी नहीं है। मैं आपको समझाकर क्या समझा सकता हूं ? पर्सुएड कर सकता हूं, किसी बात के लिए कि वहां भी कुछ है, चलें देख लें। इतना ही कर सकता हूं, और क्या कर सकता हूं। समझेंगे तो आप देखकर, पर्सुएड कर सकता हूं। पर्सुएशन के पुराने रास्ते सब गलत हो गये अब। वह काम नहीं करते अब। पर्सुएशन के नये रास्ते अब उपयोग किये जा रहे हैं।
अभी मैं देख रहा था एक रिसर्च। न्यूयार्क के एक सुपर मार्केट में किसी ने कुछ रिसर्च वर्क किया तो उसने जितनी स्त्रियां आती हैं वहां-सारी दुकान में कैमरे लगे हुए हैं, वह जो स्त्रियां वहां प्रवेश करती हैं, वह उनके आंखों के चित्र ले रहे हैं-वह सब यह देख रहे हैं स्त्रियां किस बात से आकर्षित होती हैं। तो उन्होंने एक हिसाब लगाया कि जो डिब्बे लाल रंग से रंगे हुए हैं, दस स्त्रियों में से सात को आकर्षित करते हैं।
उस दुकानदार को उन्होंने सलाह दी कि डिब्बे लाल रंग में रंग डालो। कोई भी दूसरा और रंग हार जायेगा। कन्टेंट क्या है, यह सवाल नहीं है। पहले स्त्री लाल रंग के डिब्बे को उठाकर देखती है। फिर उन्होंने यह देखा कि वह कितनी ऊंचाई पर रखा हुआ है डिब्बा, आंख की कितनी ऊंचाई पर है जिससे स्त्री आकर्षित होती है।
उन्होंने देखा कि अगर बहुत ज्यादा ऊंचाई पर है तो आंख से चूक जाता है। बहुत, बहुत नीचाई पर है तो चूक जाता है। एक खास लेवल है, स्त्री की ऊंचाई का जो आंख का लेवल है, उसका एक फोकस है, एक फीट का। उसके भीतर जो डिब्बे पड़ते हैं, वे उसे आकर्षित करते हैं। तो जो चीज सबसे सस्ती है, और सबसे ज्यादा फायदा देने वाली हो, वह इस ऊंचाई पर रख दी जानी चाहिए और जो चीज महंगी और कम फायदा देने वाली है और उसके बिकने से कोई फायदा नहीं है, वह उतनी ऊंचाई पर रखना है। वे डिब्बे उस हिसाब से रख दिये गये और इसका परिणाम हुआ।
प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है कि सारे क्राउड में शायद...।
हां, बिलकुल ही ऐसा लगेगा। ठीक कहते हैं आप। पर सच बात तो यह है कि क्राउड से तो कोई बात हो ही नहीं सकती। होती तो एक-एक ही से है-चाहे वहां कितने ही लोग मौजूद हों।
प्रश्न : (अस्पष्ट टेप-रिकार्डिंग)
महीपाल जी से बात हुई थी, वह हैं नहीं, कल चले गये, नहीं तो इसके ऊपर खयाल था। आपकी भी बात हुई थी जो अचानक उन्होंने कहा, तो मैंने कहा, आज ही बुला लो। काम तो बहुत है। क्योंकि असल में हर युग का अभिव्यक्ति का माध्यम है, और हर युग का अलग है। हर युग का माध्यम अलग है। जिसे हम लोक मान्यता कहते हैं, वह माध्यम का ही अर्थ है। जब तक हम बोलकर ही पूछ सकते थे, कोई रास्ता नहीं था। और जो बात कान से पहुंचती है, उससे हजार गुना आंख से पहुंचती है, अगर वह देखी जा सके। क्योंकि सुने हुए के सच होने का कोई भरोसा नहीं है। वह मुश्किल है। देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास करना मुश्किल है। और जिस मृत्यु की आप बात कर रहे हैं वह उसमें चीजों को देखने का मौका दे दिया है।
देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता, देखने का बल इतना है। सुने हुए सच पर भी विश्वास करना बहुत मुश्किल है। सुनने का कोई बल नहीं है। देखे हुए झूठ का भी बल है और देखे हुए झूठ का भी बहुत बल है। और आंख को कुछ पता नहीं है कि वह सच में देख रही है कि पर्दे पर देख रही है। आंख सिर्फ देखती है और उसकी लाखों करोड़ों वर्षों की देखी हुई बात पर विश्वास करने की आदत है। वह जो देख लेती है उसको सच मान लेती है। इन्ट्यूटिव है वह बात। उसको पता नहीं है।
और इसीलिए तो आप फिल्म में देख रहे हैं कि एक आदमी दुखी हो रहा है, और एक आदमी बैठकर रोने लगा है। वह बिलकुल भूल गया है कि जो वह पर्दा है। वह भूल ही गया, क्योंकि आंख को पता ही नहीं है। आंख तो देखना जानती है, देखने से विश्वास करना जानती है। करोड़ों वर्ष की आंख की आदत है। हमको कभी पता नहीं कि हम झूठा पर्दा भी बना लेंगे और उस पर हम देख लेंगे। अब क्या हुआ- और हमेशा यह होता है कि जब भी कोई आविष्कार होता है तो सबसे पहले हमारे नये आविष्कार का उपयोग हमारी निम्नतम जरूरतों के लिए बना है।
कहावत है अरब में कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है तो शैतान उस पर पहले कब्जा कर लेता है। भगवान को बहुत मुश्किल है। मौका मिलता है ! उस पर कब्जा कर लेता है, नये आविष्कार पर; तो नये आविष्कार तो रोज होते चले जा रहे हैं हमारी जो निम्नतम वृत्ति है, वह उस पर कब्जा कर लेती है। और इसलिए निम्रतम वृत्तियां बिलकुल पागल हो गयी हैं, और उनको पागल करके शोषण भी किया जा सकता है, किया जा रहा है।
अब इस.....सारी की सारी दुनिया आदमी के सेक्स का शोषण कर रही है पूरी तरह। हमें दिखायी नहीं पड़ता। हम पेंटिग पर भी वही कर रहे हैं, हम फिल्म पर भी वही कर रहे हैं, संगीत पर भी वही कर रहे हैं। हम घूम-फिर कर आदमी के सेक्स का एक्सप्लायटेशन कर रहे हैं। और अगर सेक्स का इतना एक्सप्लायटेशन होगा तो निश्चित ही खतरे में पड़ते चले जायेंगे। क्योंकि वहां से जितनी शक्ति एक्सप्लायट होगी, उतनी कन्वर्ट नहीं होगी।
और यह मजे की बात है कि सेक्स में एब्सल्यूटली इतनी इनर्जी आपकी व्यय नहीं होती, जितनी सेक्स एमेजिनेशन से व्यय होती है। क्योंकि इमेजिनेशन पर्वशन है। सेक्स तो प्रकृति है। इमेजिनेशन बिलकुल पर्वशन है। और इमेजिनेशन का शोषण होता है। तो मेरा कहना यह है कि इस इमेजिनेशन का शोषण क्या खुद के लिए नहीं हो सकता है ?
इस दिशा में बहुत प्रयोग हुए हैं। जैसे दरवेश होते हैं....एक फकीर था गुरजिएफ, वह आठ-दस साल पहले मरा है। उसने कुछ दरवेश नृत्य खोजे हुए थे। जिनको आप घण्टे भर सिर्फ देखें, आप देखते-देखते ध्यान में चले जायेंगे। सिर्फ ध्यान से देखते जायें, उसके सारे आस्पेक्ट्स, उसकी सारी थ्रिल, उसका पूरा संगीत। और जो आपके भीतर था, आपके ऊपर उठ आना शुरू होगा। और घंटे भर में आप बिलकुल ही आप जगत को अनुभव करेंगे, जो आपने कभी नहीं जाना। एक बार उसकी जरा भी अनुभूति हो जाये तो फिर उसकी पुकार आपका पीछा करेगी। वह आपको चौबीस घंटे बुलायेगी कि वहां भी एक दुनिया है, जो अनजानी रह गयी है। उसमें कुछ दरवेश नृत्य हैं।
अब दरवेश नृत्य के द्वारा बहुत काम किया है सूफी फकीरों ने। जो लोग कुछ और नहीं समझ सकते, किताब नहीं समझ सकते, ज्ञान नहीं समझ सकते, वह भी नृत्य देख तो सकते हैं और हम उनसे समझने के लिए कुछ कह नहीं रहे। उनकी आंख देखने में जो पकड़ जाती है, उससे उनके सारे स्नायुओं पर भी असर हो जाता है और उनकी सारी चेतना तक जो प्रवेश हो जाता है, वह बिलकुल ही सहज है। उससे उनको कहने को हम कुछ कह नहीं रहे हैं।
और पहला अनुभव अगर सहज हो जाये तो दूसरा अनुभव आदमी साधना से करना चाहता है। यह सब जो कठिनाई पड़ गयी है, पहला अनुभव ही साधना से करवाने की दिक्कत में पड़े हुए हैं। पहला अनुभव अगर सहज हो जाये तो दूसरा अनुभव आप कितने ही कष्ट को उठाकर, श्रम को उठाकर करते हैं।
संगीत अद्भुत है। इधर मेरा खयाल है, एक थोड़े से मित्रों को जो अलग-अलग दिशाओं को सोचते हैं, संगीत में हों, फिल्म में हों या पेंटिग में हों काव्य में हों-क्या यह नहीं हो सकता कि हम सारे लोग मिलकर सोचें कि हम आदमी को उस ऊंचाई तक ले जाने के लिए अलग-अलग दिशाओं से क्या दर्शन दे सकते हैं ? अगर एक पेंटिंग को देखकर एक आदमी कामातुर हो सकता है तो एक पेंटिंग को देखकर एक आदमी आनंदित क्यों नहीं हो सकता ? और अगर एक संगीत को सुनकर सेक्सुअलिटी जगती हो और आदमी फुलफिल हो जाता हो, तो यह क्यों नहीं हो सकता कि एक दूसरे संगीत को सुनकर सेक्सुअलिटी खोती हो और आदमी आध्यात्मिक हो जाये।
तो वह जो आप कहते हैं न कि क्या काम कर सकते हैं, काम तो बहुत है। काम तो इस वक्त इतना है...और मेरा मानना है हमेशा कि जो लोग नये माध्यम में काम करते हैं, उन्हीं के लिए सबसे ज्यादा काम होता है। पुराने माध्यम पिट गये होते हैं। और जो चीज पिट गयी होती है, जिसके हम आदी हो गये होते हैं, वह हमारे भीतर किसी नये दरवाजे को तोड़ने में असमर्थ हो जाती है। कभी उसने तोड़ा, जब वह नयी थी। अब तोड़ना बहुत मुश्किल हो गया।
और एक मजा हो गया, दुनिया की जितनी पुरानी कलाएं थीं, वे एक अर्थ में एक्टिव थीं। उसमें आपके पार्टिसिपेट करना पड़ता था। नृत्य का पूरा मजा नाचने में था। संगीत का पूरा मजा बजाने-गाने में था, पैदा करने में था। नयी दुनिया ने क्या कर रखा है कि सारी एक्टिव कलाओं को पैसिव आर्ट बना दिया है। न आपको नाचना है, न आपको गाना है। आपको सिर्फ देखना है, सुनना है, बैठे रहना है। एक मुर्दे की तरह आप बैठे रहें तीन घंटे, बाकी सब दूसरा कर रहा है !
इसके परिणाम बड़े खतरनाक हुए। इसका तत्क्षण क्या परिणाम हुआ, सुबह से लेकर रात तक आदमी को हम पैसिव एनटाइटी बना रहे हैं। हम उससे कहते हैं, तुम्हें कुछ नहीं करना है। हां, हम सब कर देंगे-किराये के आदमी, हम कर देंगे। तुम सिर्फ देख लो, बस काफी है। तुम्हारे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक संगीतज्ञ जिंदगी भर मेहनत करेगा; वह गा लेगा, तुम सुन लेना; वह नाचेगा, तुम देख लेना। धीरे-धीरे सारी गतिविधि...और यह मजे की बात है कि जितना आदमी पैसिव हो, उतना आदमी सेक्सुअल हो जायेगा। और आदमी एक्टिव हो, उतना ही स्प्रीचुअल हो जायेगा।
ये सारे जितने नये माध्यम आ गये हैं...नये माध्यम को भी हम मनुष्य की पुरानी आत्मा को उठाने के लिए कैसे काम में लायें, यह तो बहुत ही बड़ा सवाल है। और नहीं हम लाते हैं, तो वह तो काम में लाया जा रहा है। नीचे ले जाने के तो काम में लाया जा रहा है।
और यह ध्यान रहे, सब पुरानी बातें पिट जाती हैं। उसके लोग आदी हो जाते हैं। फिर उसको लोग देखते ही नहीं। एक आदमी शादी कर लाता है। शादी के पहले उसने अपनी पत्नी को देखा होगा। फिर बीस साल हो गये। अगर वह आज खयाल करेगा तो चौंक जायेगा। बीस साल उसने देखा ही नहीं ! वह आदी हो गया है। रोज निकला है, पत्नी को गले भी लगाया है, उससे बात भी की है, सुबह शाम उससे लड़ा-झगड़ा भी है, लेकिन देखा नहीं है ! देखने का कोई मौका ही नहीं आया, कोई जरूरत ही नहीं पड़ी। वह आदी हो गया। हां, कोई नयी औरत को सड़क पर आज देख लेता है, आज भी देख लेता है और देखने की वजह से वह आज भी लालायित हो जाता है। और अपनी पत्नी अब उसको आकर्षित नहीं करती, क्योंकि उसको अब वह देखता ही नहीं। उसकी पत्नी को भी कोई देखकर उत्सुक हो जाता है। कोई देखता है तब न ! पर हम आदी हो जाते हैं। और धीरे-धीरे सारे माध्यम आदत हो जाते हैं।
अभी मैं पटना था, तो जो जालान फैमिली है, बहुत अच्छा उन्होंने म्यूजियम बनाया हुआ है घर पर। बहुत शौक है। वहां मैं गया। एक मेडीटेशन राउण्ड रखा हुआ है। देखा है आपने कभी ? वह जैसा हम घण्टा मंदिर में रखते हैं, वैसा ही यह मेडीटेशन राउण्ड, गोल रखा हुआ है। एक लकड़ी का डंडा होता है तो उसे राउण्ड में जोर से घुमाते हैं, तीन बार घुमाते हैं, फिर जोर से उसको मारते हैं। फिर तीन बार चोट और तीन बार घुमाने से उसमें चोट करने से ‘ओम मणि पद्मे हुं’ उसकी पूरी आवाज करता है। वह राउण्ड जो है, पूरी आवाज करता है। इतनी अद्भुत आवाज करता है कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते हैं। पूरा सूत्र बोल देता है वह। तीन दफा उस गोले के अंदर डंडे को घुमाया और तब परिधि को मारा। वह ‘ओम मणि पद्म हुं’-वह जो चोट है वह करते हैं और वह आवाज गूंजती है !
वह मंदिर में जहां पगोड़े में गूंजती है, वह ध्यान के लिए काम में लायी जाती थी। और वह हजारों वर्षों से लायी जा रही थी, और उसको कोई नहीं समझा ! न किसी की मतलब है, न किसी को प्रयोजन है। जैसे मंदिर में जाकर हम घण्टा ठोंक देते हैं, वैसे ही वे जाकर ठोंककर अपने घर चले आते हैं। वह सुनता ही नहीं, उसको मतलब ही नहीं है ! वह कभी डिवाइस थी। और जिसने, पहली दफा जिस चेतना ने, और आज भी जिस चेतना ने, आज भी जो चेतना उसको पहली दफा सुनेगी, तो पूरे प्राणों में वह ओम मणि पद्मे हुं’ की आवाज अंदर तक गूंजती मालूम पड़ेगी। और फिर जहां वह खोने लगती है उस खोने पर ही काम करना है, और वह जहां वह खोते-खोते शून्य हो जाती है, उसी शून्य में डूब जाना है। लेकिन वह आदत हो गयी है ! उसको रोज सुन रहा है ! गांव में दिन-रात वह बज रहा है, किसी को फुर्सत नहीं है ! सब चीजें पुरानी पड़ जाती हैं और इसलिए हमेशा मनुष्य की चेतना को रोज नये-नये माध्यम खोजने पड़ते हैं।
तो निम्नतम प्रवृत्तियां तो रोज नये माध्यम खोज लेती हैं और श्रेष्ठतम प्रवृत्तियां पुराने माध्यमों पर जोर दिये जाती हैं, इसलिए हार जाती हैं। तो मेरा मानना है कि इस दौड़ में निम्न प्रवृत्तियां हमेशा नया खोज लेती है, नया कम्पटीशन ले आती है। पुरानी प्रवृत्ति पुराने को दोहराती चली जाती है। बस वह मुश्किल में पड़ जाती है, वह हार जाती है। जिस दिन भी हम श्रेष्ठ के लिए रोज-रोज नया खोज सकेंगे-रोज नया गीत, रोज नया संगीत रोज नया माध्यम, उस दिन मनुष्य की चेतना में बड़ी क्रांति हो जायेगी-और सब तरफ से।
वह जो आप कहते हैं, क्या उपयोग है ? उपयोग तो बहुत हो सकता है। अब कुछ लोगों को सोचना चाहिए। साधु-संत अब नहीं जीत सकेंगे। वे हार चुके हैं। उनसे कुछ हो नहीं पाता। वह बिलकुल मरी हुई बाजी पर खड़े हुए हैं। अब तो साधुता को बिलकुल नये पाठ खोजकर लड़ाई लड़नी पड़ेगी-नहीं तो गया, एकदम गया। इस बुरी तरह से हार रही है श्रेष्ठता, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। और हर वर्ष कितने जोर से सब नीचे उतर रहा है, उसकी भी कल्पना नहीं कर सकते। और धीरे-धीरे कुछ बातें याद ही नहीं रह जायेंगी कि थीं भी। आज भी हम नहीं मान सकते।
प्रश्न : (अस्पष्ट टेप-रिकार्डिंग)
हां, वह जायेगा, वह जायेगा ! क्योंकि क्लासिकल संगीत को समझने वाला चेतना के साधना के स्तर पर कहां है। वह मैंने कहा न, वह जो मामला था। वह सिर्फ पैसिव होने का नहीं था। अब क्लासिकल संगीत को भी आप सुनेंगे। लेकिन सुनने की भी ट्रेनिंग चाहिए। यानी सुनना भी एक एक्टिव पार्टिसिपेशन है। पैसिव नहीं है कि आप गये और जाकर सुन लिया। आप जाकर तो वही सुन सकते हैं, जो उस लेवल पर हो और जिस पर सब आदमी हैं। तो एक जॉज़ है या और कुछ है, धूम-धड़ाका है, कोई भी जाकर सुन सकता है, क्योंकि हम सब उस जगह हैं। उसे समझने के लिए सीखना जरूरी नहीं है। उसे सीखने के लिए पहले कहीं से गुजरना जरूरी रहा है। हम वहां हैं। और मेरा कहना है कि सब तरफ से करना जरूरी है-नाच भी और गीत भी; और चित्र भी और पेंटिंग भी। सब तरफ से चोट करनी जरूरी है। अगर यह हो सकती है तो एक हारती हुई बाजी बच सकती है, नहीं तो गयी एकदम। और मजा यह है, जो हमें अनुभव में न हो, उसको हम विश्वास ही कैसे करें ?
अभी मैं पढ़ रहा था। एक मनोवैज्ञानिक कहता है कि सौ वर्ष बाद सभ्यता इतनी तनावग्रस्त हो सकती है कि कुछ बच्चे बचपन से ही अनिद्रा के रोग से ग्रसित पैदा हों। और जैसे ही वह पैदा हों, उन्हें नींद की दवा देनी पड़े। वे बच्चे बड़े होंगे। लेकिन अगर उनसे कोई कहेगा कि सौ वर्ष पहले ऐसे लोग थे जो बिस्तर पर सिर रखते थे और सो जाते थे-वे बच्चे नहीं मानेंगे-क्यों मानें ? मानें भी क्यों ? तो वे कहेंगे, यह हो ही नहीं सकता। यह कभी हुआ ही नहीं, ये झूठ बातें लिख दीं इन किताबों में। यह कैसे हो सकता है कि कोई आदमी बस लेटे और सो जाये, और कुछ न करे ! यह हो ही नहीं सकता है। सच में ही जिसको बचपन से नींद न आयी हो, वह कैसे विश्वास करे कि कोई दूसरा आदमी आंख बंद करके, और बस सो जाता है ! कुछ भी नहीं बीच में करना होता है, बस सो जाता है ! हम भी आज विश्वास नहीं कर सकते कि वक्त था कि लोग बस आंख बंद करके बैठे और समाधि में चले गये ! हम विश्वास नहीं कर सकते। यह कैसे हो सकता है, हम तो मरे जाते हैं। और कहां की समाधि, कहां का ध्यान ! कैसे हम मानें इस बात को। या तो आदमी झूठ बोलता है, या कोई पौराणिक कथा है। यह हो भी नहीं सकता। और हमारा ठीक भी है कहना। हम कहते हैं इस बात को।
कुछ चीजें एकदम खो गयी हैं और इस बुरी तरह खो गई हैं कि उनकी संभावना के द्वार ही जैसे बंद हो रहे हैं। जैसे दरवाजा ही बंद हो गया, अब उनका पता ही नहीं कि वह है। और यह चेष्टा साधु संन्यासी के वश में अब नहीं है, क्योंकि पहली तो बात यह है कि उसे खुद ही कुछ पता नहीं है। और दूसरी बात यह है कि चेतना इतने द्वारों से उल्टी गयी है कि अब एक द्वार से तुम वापस नहीं ला सकते हो उसे। उसे बहुत द्वारों से वापस लाना पड़ेगा। और मेरा मानना यह है कि जिन द्वारों से पतन होता है, उन्हीं द्वारों से उत्थान हो सकता है। तो आज चेतना किन-किन मार्गों से नीचे चली जा रही है उन्हीं-उन्हीं मार्गों से उसे वापस बुलाने की जरूरत है और वही मैथडालॉजी खोजनी पड़ेगी।–उसी मीडियम में, तो उसे हम वापस कर सकते हैं। और यह हो सकता है, इसमें अड़चन जरा भी नहीं है सिवाय इसके, कि न किया जाये तो नहीं होगा।
इधर मैं सोचता हूं यह अलग-अलग माधमय में काम करने वाले लोग, जो लोग जिन-जिन दिशाओं में सारा जीवन लगा दिये हों, उन-उन दिशाओं से कुछ..सब तरफ से हम फेंकते हैं एक इमपेक्ट ! और मेरा मानना यह है कि समझने का माध्यम सबसे पुराना हो गया। और समझाते भी हम थे, तो समझाना अंततः अंदर बहुत-बहुत सजेशन, पर्सुएशन है, और कुछ भी नहीं है। मैं आपको समझाकर क्या समझा सकता हूं ? पर्सुएड कर सकता हूं, किसी बात के लिए कि वहां भी कुछ है, चलें देख लें। इतना ही कर सकता हूं, और क्या कर सकता हूं। समझेंगे तो आप देखकर, पर्सुएड कर सकता हूं। पर्सुएशन के पुराने रास्ते सब गलत हो गये अब। वह काम नहीं करते अब। पर्सुएशन के नये रास्ते अब उपयोग किये जा रहे हैं।
अभी मैं देख रहा था एक रिसर्च। न्यूयार्क के एक सुपर मार्केट में किसी ने कुछ रिसर्च वर्क किया तो उसने जितनी स्त्रियां आती हैं वहां-सारी दुकान में कैमरे लगे हुए हैं, वह जो स्त्रियां वहां प्रवेश करती हैं, वह उनके आंखों के चित्र ले रहे हैं-वह सब यह देख रहे हैं स्त्रियां किस बात से आकर्षित होती हैं। तो उन्होंने एक हिसाब लगाया कि जो डिब्बे लाल रंग से रंगे हुए हैं, दस स्त्रियों में से सात को आकर्षित करते हैं।
उस दुकानदार को उन्होंने सलाह दी कि डिब्बे लाल रंग में रंग डालो। कोई भी दूसरा और रंग हार जायेगा। कन्टेंट क्या है, यह सवाल नहीं है। पहले स्त्री लाल रंग के डिब्बे को उठाकर देखती है। फिर उन्होंने यह देखा कि वह कितनी ऊंचाई पर रखा हुआ है डिब्बा, आंख की कितनी ऊंचाई पर है जिससे स्त्री आकर्षित होती है।
उन्होंने देखा कि अगर बहुत ज्यादा ऊंचाई पर है तो आंख से चूक जाता है। बहुत, बहुत नीचाई पर है तो चूक जाता है। एक खास लेवल है, स्त्री की ऊंचाई का जो आंख का लेवल है, उसका एक फोकस है, एक फीट का। उसके भीतर जो डिब्बे पड़ते हैं, वे उसे आकर्षित करते हैं। तो जो चीज सबसे सस्ती है, और सबसे ज्यादा फायदा देने वाली हो, वह इस ऊंचाई पर रख दी जानी चाहिए और जो चीज महंगी और कम फायदा देने वाली है और उसके बिकने से कोई फायदा नहीं है, वह उतनी ऊंचाई पर रखना है। वे डिब्बे उस हिसाब से रख दिये गये और इसका परिणाम हुआ।
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