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अभिनव धर्म

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3642
आईएसबीएन :000000

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ओशो के प्रवचनों का संकलन...

Abhinav Dharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मेरा संदेश हैः संसार को इतना प्रेम करो कि संसार में परमात्मा को पा सको। कहीं और कोई परमात्मा नहीं है। अपने को अंगीकार करो। अपने को अस्वीकार मत करो। तुम जैसे हो भले हो। उसके हस्ताक्षर तुम्हारे ऊपर हैं। तुम उसकी निर्मित्ति हो। इसलिए जीवन का परम स्वीकार है मेरा संदेश।

1

पीए बिना कोई मार्ग नहीं

पहला प्रश्न

भगवान, सजनां ने फूल मारया सानूं पीड़ अंदरां तक होई लोकां दे पत्थरां दी सानूं पीड़ रता न होई ‘साजन ने फूल मारा और हमें भीतर तक चोट लगी और लोगों ने पत्थर मारे और हमें रत्तीभर पीड़ा नहीं हुई।’
प्रेम संगीता,
अपेक्षा जहां है वहीं दुःख की सम्भावना है। जहां अपेक्षा नहीं वहां विषाद का कोई उपाय नहीं। जिनसे तुम्हारी अपेक्षा है कि प्रीति मिलेगी, पत्थर नहीं; उनसे अगर फूल भी फेंका जाए तो घाव लगेगा। घाव फूल के कारण नहीं लगता, फूल तो बेचारा कैसे घाव करेगा ? घाव लगता है तुम्हारी अपेक्षा के अनुपात से। जितनी बड़ी अपेक्षा उतनी गहरी चोट। हां, जिनसे तुम्हें कोई अपेक्षा नहीं है, वे पत्थर भी मारें तो भी दुख नहीं होता, तो भी पीड़ा नहीं होती।
इस छोटी सी कहावत में महत्त्वपूर्ण बात छिपी है, कि यदि चाहते हो कि जीवन में आनंद ही आनंद हो जाए, कि कोई भी चोट चोट न रहे, कि कोई पत्थर भी मारे तो फूल की बर्षा हो, कि कोई जहर भी पिलाए तो अमृत हो जाए-तो उसका एक ही रास्ता है: अपेक्षाओं को छोड़ दो, निरपेक्ष होकर जीओ। और निरपेक्षता तुम्हारे हाथ में है, कोई दूसरा तुम्हें दे न सकेगा। और छोटे-छोटे लोगों की बात तो छोड़ दो, जिनको तुम बहुत बड़ा कहते हो, उनमें भी अपेक्षा का कहीं न कहीं, कोई न कोई सूक्ष्म धागा बना ही रहता है।

जीसस ने सूली पर अंतिम क्षण में आकाश की तरफ सिर उठाया और कहा कि हे प्रभु, क्या तूने मुझे छोड़ दिया ? क्या तू भी मुझे धोखा दे दिया ? यह तू मुझे क्या दिखला रहा है ?
यह वक्तव्य किस बात की घोषणा है ? यह वक्तव्य इस बात की घोषणा है कि जीसस अभी भी प्रबुद्धता को उपलब्ध नहीं हुए थे, अभी अपेक्षा बाकी थी। नहीं था संसार से, तो परमात्मा से थी। इससे क्या फर्क पड़ता है कि किससे अपेक्षा। आखिरी घड़ी में बात छिपाते-छिपाते भी छिपी नहीं, प्रगट हो गई। आखिरी घड़ी में सचाइयां प्रगट हो जाती हैं। जिंदगीभर छिपाए हों जो राज, वे भी उघड़ जाते हैं। जीसस के मुंह से अनायास इस बात का निकल जाना कि हे प्रभु, क्या तूने भी मुझे छोड़ दिया, किस बात की खबर दे रहा है ? इस बात की कि कहीं भीतर आशा थी कि चमत्कार होगा, आकाश से फूल बरसेंगे, कि उतरेगा कोई हाथ परमात्मा का और उठा लेगा मुझे। सूली सिंहासन बन जाएगी, इसका कहीं कोई सपना जरूर किसी गहन तल में मौजूद था। साधारण लोगों की जो भीड़ इकट्ठी हुई थी, एक लाख आदमी इकट्ठे थे, देखने इकट्ठे थे कि देखें अब क्या चमत्कार होता है। क्योंकि सुनते थे कि यह आदमी चमत्कारी है, कि पानी पर चलता है, कि पत्थरों से इसने रोटियां बना दी हैं, कि अंधों को आंखें दे दी हैं, कि मुर्दों को जिंदा कर दिया है। तो आज आ गई परम घड़ी। तमाशा देखने लोग इकट्ठे हुए थे। वे भी सब निराश लौटे। जब कुछ भी न हुआ, सूली लग गई, कोई न आकाश से हाथ उतरा, न पृथ्वी फटी, न भूकंप आया, न बाढ़ आई, न तूफान उठे, कहीं पत्ता भी न हिला, प्रकृति वैसे ही चलती रही जैसी चलती थी, प्रकृति ने कोई अपवाद न किया-ये सारे लोग भी निराश होकर लौटे। घर जाकर इन्होंने कहा होगा कि दिन व्यर्थ खराब किया। धूप-धाप में पहाड़ी पर चढ़कर गए, दिनभर भूखे रहे और हाथ कुछ न लगा।
इनमें और जीसस में अभी बुनियादी फर्क नहीं है। जीसस की यह अपेक्षा है ईश्वर से कि हो कुछ। कुछ अनूठा। नहीं हुआ तो शिकायत निकल आई। और जहां शिकायत है, वहां कैसी प्रार्थना ? शिकायत कभी प्रार्थना नहीं बनती। शिकायत कैसे बन सकती है ? प्रार्थना तो धन्यवाद है।

लेकिन जीसस बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे। क्षण में ही उन्हें होश आ गया कि यह मैंने क्या कहा। निकला था उनके ही अचेतन से, दबा था उनके ही अचेतन में शायद सूली के बिना निकलता भी नहीं: शायद सूली ही उसे निकालने का कारण बनी; शायद सूली ने जो पीड़ा दी और जो अपमान लाखों लोगों के सामने देखना पड़ा, लोग पत्थर मार रहे थे, सड़े हुए टमाटर फेंक रहे थे, लोग गालियां दे रहे थे कि अब दिखाओ चमत्कार, लोग हर तरह की मजाक कर रहे थे-इस अपमान में, अचेतन में दबी हुई, गहन अचेतन में दबी हुई कोई आकांक्षा तैरकर ऊपर आ गई होगी। इतने दबाव में ही या संभव था। साधारण जिंदगी चलती जाती तो शायद जीसस प्रबुद्ध हुए बिना ही इस जगह से विदा होते। लेकिन इस सूली ने चमत्कार किया। वह चमत्कार बड़ा भीतरी है। वह चमत्कार बाहर नहीं हुआ, वह भीतर हुआ।

वह चमत्कार यह था कि एक आखिरी वासना दबी रह गई थी, उसका भी दर्शन हो गया। आकाश से उतरा हुआ हाथ इतना बड़ा चमत्कार न होता। पृथ्वी फट जाती कि आकाश फट जाता, तो भी इतना बड़ा चमत्कार न होता। कि सूरज भर दुपहरी में डूब जाता, तो भी इतना बड़ा चमत्कार न होता। चमत्कार मेरी दृष्टि में जो हुआ, वह यह है कि खुद के अचेतन में, आखिरी, बस आखिरी जंजीर थी, वह भी प्रगट हो गई। उसके प्रगट होते ही बोध की घड़ी आ गई। तत्क्षण जीसस ने कहा, नहीं नहीं, मुझे क्षमा कर। यह मैंने क्या कहा ! मैं कौन हूँ ? मेरी अपेक्षा नहीं, तेरी आकांक्षा पूरी हो। तू जो चाहे वह पूरा हो। तेरी मर्जी पूरी हो। मेरी क्या मर्जी ! मैं तेरी मर्जी से राजी हूं। तेरा राज्य उतरे पृथ्वी पर और तेरी मर्जी के फूल खिल जाएं।
बस, इस घड़ी में जीसस बुद्ध हुए। सूली पर लटके-लटके बुद्ध हुए।
और ऐसा, ठीक ऐसी घटना अलहिल्लाज मंसूर के जीवन में घटी। उसे भी लोग मार रहे थे, हाथ-पैर काट रहे थे, पत्थर मार रहे थे। उसके सारे शरीर से खून बह रहा था। उसके साथ जो दुर्व्यवहार हुआ वैसा दुर्व्यवहार न तो सुकरात के साथ हुआ, न जीसस के साथ हुआ, न सरमद के साथ हुआ। अल्हिल्लाज मंसूर के साथ जैसा दुर्व्यवहार हुआ बैसा पृथ्वी पर कभी किसी मनुष्य के साथ नहीं हुआ था।
और प्रेम संगीता, तेरी कहावत ठीक-ठीक अलहिल्लाज मंसूर के जीवन में घटी-

सजनां ने फूल मारया मानूं पीड़ अंदरां तक होई
लोकां दे पत्थरां दी सानूं पीड़ रता न होई

लोग जब पत्थर मार रहे थे और मंसूर के खून की धाराएं फूट रही थीं, जल्लादों ने पैर काट दिए, हाथ काट दिए, आंखें फोड़ दीं, अंग-अंग तोड़े, सीधा भी नहीं मरा, जितना कष्ट दे सकते थे उतना कष्ट दिया। लेकिन मंसूर हंसता रहा। उसकी आंखों में वही चमक, वही ज्योति बनी रही, कुछ भेद न पड़ा। न अनलहक का वही गुंजार कि मैं परमात्मा हूं कि मैं ब्रह्म हूं ! अहं ब्रह्मास्मि की वही उदघोषणा जारी रही। भीड़ में अलहिल्लाज मंसूर का गुरु, जत्रैद भी मौजूद था। लोग जब पत्थर मार रहे थे तो जुत्रैद ने एक फूल फेंककर मारा। जुत्रैय ने इसलिए फूल फेंककर मारा, ताकि लोग यह न समझें कि मैं लोगों के साथ नहीं, कि मैं भी कुछ फेंककर मार रहा हूं। अब इस भीड़-भाड़ में जहां पत्थर फेंके जा रहे हैं, कौन देखेगा कि मैंने फूल मारा कि पत्थर मारा ! जुत्रैद दो काम कर रहा था-एक, कि ताकि भीड़ यह समझ ले कि मैं भी विरोध में हूं मंसूर के। था मेरा शिष्य, लेकिन मेरी उसने सुनी नहीं, मैंने मना किया था कि यह उद्घोषणा मत कर, उसने मानी नहीं। तो मैं भी विरोध में हूँ। ताकि भीड़ समझ ले कि जुत्रैद का सहारा नहीं है मंसूर को।

और इसमें और राजनीति भी थी कि मंसूर भी समझ ले कि आखिरी क्षण मे मैं तुझे विदा देने आया हूं, देख, फूल से तुझे विदा दे रहा हूं ! राजनीति बड़ी दुधारी तलवार होती है। इधर भीड़ भी राजी हो जाएगी कि चलो जुत्रैद भी हमारे साथ खड़ा है और मंसूर भी प्रसन्न होगा कि गुरु विदा देने आया और एक फूल की वर्षा की मेरी ऊपर।
लेकिन जुत्रैद को आश्चर्य हुआ यह जानकर कि मंसूर को धोखा देना आसान न था। मंसूर की आंखें खुल चुकी थीं, उसे धोखा देना असंभव था। उसका दर्पण साफ हो चुका था। उस दर्पण में अब सत्यों का ही सीधा प्रतिबिंब बनता था। मंसूर खिलखिलाकर हंसा और उसने कहा कि जिसने यह फूल मारा है वह समझ ले कि लोगों के पत्थरों से मुझे इतनी चोट नहीं पहुंत रही जितनी इस फूल से पहुंच रही है। क्योंकि लोग तो नासमझ हैं; पत्थर मार रहे हैं तो ठीक, समझा जा सकता है। लेकिन जिसने यह फूल मारा है, वह समझ ले ठीक से कि इससे मुझे बहुत घाव पहुंचा है, इससे मुझे बहुत चोट पहुंची है। क्योंकि लोग तो नासमझ हैं; पत्थर मार रहे हैं तो ठीक, समझा जा सकता है। लेकिन जिसने यह फूल मारा है, वह समझ ले कि ठीक से कि इससे मुझे बहुत घाव पहुंचा है, इससे मुझे बहुत चोट पहुंची है। क्यों यह फूल उसने मारा है जिसे मैं सोचता हूं कि समझदार है; जिसे मैं सोचता हूं कि मुझे प्रेम करता था; जिससे मैंने यह कभी आशा न की थी, अपेक्षा न की थी।

मगर मंसूर को इतनी सी अपेक्षा भी अगर शेष है तो भी वासना का अभी एक पतला सा धागा उसे बांधे हुए है-जरा सा, बहुत सूक्ष्म, बहुत अदृश्य, दिखाई भी न पड़े, पकड़ में भी न आए। लेकिन धागा मौजूद है। अपेक्षा अभी है तो दुख हो गया। हंसा तो, लेकिन हंसी ऊपर-ऊपर थी, उसकी आंख से आंसू भी झलक आए। मंसूर की आंख से आंसू झलक आया क्योंकि जुत्रैद ने फूल मारा। जुत्रैद से ऐसी आशा न थी, कम से कम जुत्रैद तो समझेगा ! शास्त्रों का ज्ञाता, जिसके पास बैठकर ज्ञान की इतनी बातें सुनीं, वह तो समझेगा ! लोग नासमझ हैं, ठीक, माफ किए जा सकते हैं, मगर जुत्रैद को कैसे माफ करो ? लेकिन मंसूर को भी वही घटना घटी जो जीसस को। उसे भी होश आ गया कि यह मेरी अपेक्षा ही है, जिसके कारण फूल भी चोट कर रहा है। उसने जो प्रार्थना की आखिरी, उस प्रार्थना में उसने कहा कि हे प्रभु, उनको भी माफ कर देना जिन्होंने पत्थर मारे और उसको भी माफ कर देना जिसने फूल मारा और मुझे भी माफ कर देना कि मैंने शिकायत की। बस, इसी घड़ी में मंसूर भी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ।

मृत्यु की घड़ी बड़ी कीमती घड़ी है। कोई ठीक उपयोग कर ले तो जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मृत्यु है। क्योंकि जीवन तो छितरा होता है, बिखरा होता है-सत्तर साल, अस्सी साल। लेकिन मौत सघन होती है। मौत प्रगाढ़ होती है। एक क्षण में सब कुछ हो जाता है। मौत कुछ लंबाई नहीं रखती, गहराई रखती है। लंबाई में चूक सकते हो। फिर जिंदगी में हजार काम हैं, आदमी उलझ सकता है, व्यस्त हो सकता है, स्वाभाविक है। लेकिन मृत्यु के क्षण में तो कोई काम बचता नहीं; कल ही नहीं बचता तो काम क्या बचेगा ! अगला क्षण नहीं बचता तो काम क्या बचेगा ! पूर्णविराम आ गया। उस घड़ी तो सारा जीवन संगृहीत हो जाता है, सारी चेतना एक झील बन जाती है। उसका जो सदुपयोग कर ले तो मृत्यु से बड़ा वरदान नहीं है।

प्रेम संगीता, अपेत्रा छोड़। अपेक्षा दुख लाती है। आशा रखोगी, निराशा हाथ लगेगी। अपेक्षा रहेगी, उपेक्षा हाथ लगेही। सुख मांगोगी, दुख पाओगी। न सुख मांगो, न उपेक्षा रखो, न आशा बाधो। फिर देखो ! जैसे ही आशा छूटी कि सब आशांए पूरी हो जाती हैं। और जैसे ही अपेक्षा गई कि सब दुख गए और सुखों की वर्षा हो जाती है।
मत मांगो जीत, फिर हारने का कोई उपाय नहीं। और लाओत्सु कहता है : मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीत मांगता नहीं। मैं जीतना चाहता नहीं, मुझे कोई हराएगा कैसे ?

उसको हराया जा सकता है जो जीत मांगता हो। उसे दुखी किया जा सकता है जो सुख मांगता हो। उसका अपमान किया जा सकता है जो सम्मान मांगता हो लेकिन जिसे कुछ फर्क ही न रहा अपमान और सम्मान में, जिसे कांटे और फूल बराबर हुए, जिसे जिंदगी और मौत समान हो गई-अब उसे कैसी पीड़ा ? कोई उपाय न रहा। और यही क्षण है, यही घड़ी है जब व्यक्ति अतिक्रमण करता है संसार का। इसको कहो निर्वाण, समाधि, बुद्धत्व।

दूसरा प्रश्न :

भगवान, आपने सच ही मुझे निराश किया, क्योंकि आपने मेरी शंकाओं का पर्याप्त समाधान नहीं किया।
मैं मान लेता हूं कि आपके जैसा संन्यास पृथ्वी पर पहले कभी न था, परंतु ये गैरिक वस्त्र तथा आपके शिष्यों का गले में आपके लाकेट वाली माला पहनना,
यह सब धारणा नहीं तो क्या है ? वह तो भारतीय संस्कृति ही लगती है।
और आप जिस ध्यान और समाधि का वर्णन करते हैं वैसा ही वर्णन शब्दों के थोड़े अलग प्रयोग से अष्टावक्र से लेकर कृष्णमूर्ति तक सभी बुद्धिपुरुषों ने किया है और उन पर बोलते हुए आप भी सहमत हुए हैं।
बुद्धपुरुषों की इस लंबी श्रृंखला को ही मैं भारतीय संस्कृति की दीपमालिका कहता हूं,
जिसके जगमागते वर्तमान दीपक आप हैं।
निवेदन है कि आप मुझे अपना आलोचक न समझें, क्योंकि मैं भलीभांति समझता हूं कि आप जो कर रहे हैं उससे ही मनुष्यमात्र का कल्याण संभव है।

भारत भूषण,
मैंने तुम्हें निराश नहीं किया। तुमने आशा बांधी होगी। वही आशा तुम्हें निराश करेगी, मैंने तो पर्याप्त समाधान किया था; तुम्हारा नहीं हुआ, यह और बात है। क्योंकि तुमने जो-जो पूछा था उसका मैंने उत्तर दे दिया था। अब तुम जो पूछ रहे हो, यह तो तुमने पूछा ही नहीं था। न तो तुमने गैरिक वस्त्रों की बात उठाई थी, न माला की; न तुमने अष्टावक्र की बात उठाई थी, न कृष्णमूर्ति की। और यूं अगर तुम बातें उठाते जाओगे तो समाधान कभी भी न होगा। चलो, आज फिर कोशिश करें।
तुम कहते हो, ‘मैं मान लेता हूं...।’

मान लेने से काम नहीं चलेगा। मान लेने से तो और नए-नए तर्क उठेंगे, और नई-नई शंकाएं उठेंगी। समझो, मानो मत। समझने में समाधान है, मानने में नहीं। मानना तो यूं होता है कि चलो तर्क करने के लिए माने लेते हैं। तर्क करने के लिए ही माना जाता है कि चलो विवाद करने के लिए मान लेते हैं। मगर उस मानने में ही सूचना की कोशिश की।
तुम कहते हो, ‘मैं मान लेता हूं कि आपके जैसा संन्यास पृथ्वी पर पहले कभी न था...।’
यह भी तुम मान ही रहे हो, मानना नहीं चाहते हो। यह भी तुम न कह सके कि ठीक, यह बात ठीक, इतना मेरा समाधान हुआ। चलो कुछ मात्रा में ही समाधान होता। मगर वह भी हुआ नहीं। वह भी अभी तुमने कामचलाऊ, जिसको हाइपोथेटिकल कहते हैं, मान लिया कि अब इसे मानकर आगे सवाल उठाएंगे तो फिर सवाल उठने शुरू हो गए।
अब तुम पूछते हो, ‘ये गैरिक वस्त्र...।’

जिस तरह के गैरिक वस्त्र मेरे संन्यासी पहने हुए हैं, इस तरह के गैरिक वस्त्र कभी नहीं पहने गए। जब मेरा संन्यास ही भिन्न है, जब मेरा संन्यास ही एक नया आयाम है, तो फिर तुम्हें समझ अगर आ गई होती तो तुम्हें गैरिक वस्त्रों का भेद भी समझ में आ जाता।

गैरिक वस्त्र सदियों से इस देश में पलायनवादियों के वस्त्र रहे हैं। मैं गैरिक रंग को पलायनवादियों से छुटकारा दिलाने की कोशिश कर रहा हूं। यूं मुझे कुछ अड़चन न थी, कोई और रंग भी चुन ले सकता था। नीला भी काम देता, पीला भी काम देता, हरा भी काम देता, काला भी काम दे सकता था, सफेद भी काम दे सकता था। जानकर ही मैंने गैरिक वस्त्र चुने हैं। इसलिए गैरिक वस्त्र चुने हैं कि गैरिक वस्त्रों के नाम से जो पलायनवादी परंपरा है, उसको खंडित किया जा सके।
इसलिए तो हिंदू संन्यासी बहुत बेचैन हैं। उसको बड़ी मुश्किल हो रही है। उसको मुश्किल यह हो रही है कि उसके संबंध में जो लोक-प्रचलित मान्यता थी वे मेरे संन्यासी तोड़े डाल रहे हैं। जल्दी ही लाखों की संध्या में मेरे गैरिक संन्यासी होंगे भारत में। अभी दो लाख हैं, लेकिन भारत के बाहर उनकी बड़ी संख्या है। फिर भी भारत में कोई पचास हजार संन्यासी तो हैं ही।

जल्दी ही ये पचास लाख भी हो सकते हैं। तब इसमें अखंडानंद और स्वरूपानंद खो जाएंगे। और लोगों की जो सदियों-सदियों से एक जड़ धारणा बनी थी कि गैरिक पलायन का, त्याग का, भगोड़ेपन का, जीवन-निषेध का प्रतीक है, वह टूट जाएगी।

गैरिक रंग पर मैं दया करके उसका छुटकारा करवा रहा हूं। ये गैरिक वस्त्र धारण नहीं है, वरन गैरिक वस्त्रों के प्रति जो धारणा थी उसको तोड़ने का प्रयास है। और जब किसी चीज को तोड़ना हो तो बाहर की बजाए भीतर से तोड़ना आसान होता है। गैरिक वस्त्र पहनाकर संन्यासियों के नाम देकर...अब यहां तुम सब तरह के संन्यासी पाओगे-स्वामी अखंडानंद, स्वामी स्वरूपानंद, सरस्वती, भारती, गिरि...सब तरह के संन्यासी मैंने खड़े कर दिए हैं। और जब स्वामी अंखडानंद अपनी प्रेयसी के गले में हाथ डालकर रास्ते पर चलते हैं तो हिन्दू संस्कृति की छाती पर सांप लोटते हैं। और तुम कह रहे हो ये हिंदू संस्कृति के प्रतीक हैं ! जब स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती होटल में बैठकर चाय पीते हैं, गपशप करते हैं, सिनेमा के बाहर क्यू में खड़े होकर टिकट खरीदते हैं, तो तुम सोच रहे हो यह मैं तुम्हारी धारणा को मजबूत कर रहा हूं। यह तुम्हारी धारणा को तोड़ रहा हूं। तुम्हारी धारणा को खंडित कर रहा हूं।

जरूर मेरे संन्यासियों के गले में लाकेट वाली माला है, लेकिन न तो मेरे संन्यासी माला के मनके फेरते हैं...। माला का काम सदियों से यह था कि बैठकर उस पर राम-राम जपो। मेरे संन्यासी तो कुछ माला के मनके फेरते नहीं। लेकिन माला उनको पहना दी है, लाकेट भी उनके गले में डाल दिया है-यह सिर्फ एक गहरा मजाक है, और कुछ भी नहीं। एक व्यंग्य। यह तुम्हारे संन्यास की जो अब तक की धारणा है उसके खंडित करने के लिए एक गहरा मजाक। न माला में कुछ रस है मुझे, न लाकेट में कोई रस है। लेकिन जिन्होंने महावीर को पूजा है, कृष्ण को पूजा है, राम को पूजा है, बुद्ध को पूजा है, इनकी पूजा को कैसे तोड़ूं ? जो सदियों से माला फेरते रहे हैं, इनकी माला को कैसे भ्रष्ट करूं ? ये किसी धारणा की मजबूती के लिए नहीं है। और जिस दिन पाऊंगा कि ये धारणाएं खंडित हो चुकी हैं, उस दिन अपने संन्यासियों को कहूंगा कि अब मजे से सब रंगों के कपड़े पहनो, अब अपना काम खतम हुआ। अब माला वगैरह पहनने की क्या जरूरत, क्यों गले में वजन लटकाते हो ? यह अब लाकेट वगैरह की होली जला दो, इसकी कोई आवश्यकता न रही।

लेकिन अभी थोड़ी देर है। वह दिन भी आएगा कि जब गैरिक वस्त्रों की और माला की और लाकेट की, सबकी होली जलवा दूंगा। तुम जरा ठहरो। तुम जब तक व्यर्थ की शंकाओं में न उलझो...। एक-एक कदम ही उठाना पड़ता है। आहिस्ता-आहिस्ता ही यह सदियों पुरानी धारणाओं पर चोट करनी पड़ती है। चोट करने के मेरे अपने रास्ते हैं। यह भी एक रास्ता है। यह भी एक विधि मात्र है। इसमें कहीं कोई धारणा नहीं है और कहीं कोई भारतीय संस्कृति नहीं है।
और तुम कहते हो, ‘आप जिस ध्यान और समाधि का वर्णन करते हैं वैसा ही वर्णन शब्दों के थोड़े अलग प्रयोग से अष्टावक्र से लेकर कृष्णमूर्ति तक सभी बुद्धपुरुषों ने किया है और उन पर बोलते हुए आप भी सहमत हुए हैं। बुद्धपुरुषों की इस लंबी श्रृंखला को ही मैं भारतीय संस्कृति की दीपमालिका कहता हूं, जिसके जगमगाते दीपक आप हैं।’
फिर तुम जापान में हुए रिझाई, बोकोजू, बासो, इनको भी भारतीय संस्कृति में गिनोगे या नहीं ? क्योंकि इन्होंने भी थोड़े शब्दों के हेर-फेर से यही कहा है, जो अष्टावक्र ने कहा, जो कृष्णमूर्ति कह रहे हैं, जो मैं कह रहा हूं।

फिर तुम जेरूसलम में हुए मोजेज, बप्तिस्मा वाले जान, जीसस, इनको भी भारतीय संस्कृति में गिनोगे या नहीं ? क्योंकि इन्होंने भी थोड़े शब्दों के हेर-फेर से वही कहा है। फिर अरब में हुए अलहिल्लाज मंसूर, बहाउद्दीन, मोहम्मद, इनको तुम भारतीय संस्कृति में गिनोगे या नहीं गिनोगे ? क्यों अष्टावक्र और कृष्णमूर्ति को ही गिना ? यह कैसा मोह ? और फिर यूनान में हुए सुकरात, पाइथागोरस, हेराक्लाइस, प्लेटिनस, डायोजनीज, डायोनीसियस इनको तुम भारतीय संस्कृति में क्यों गिनोगे ? अष्टावक्र में ऐसी क्या खूबी है, वही मिट्टी वही हवा, वही पानी, वही आग, वही पांच तत्व और वही आत्मा। इन सबको क्यों छोड़ दिया ? और फिर ईरान में हुए जरथुस्त्र और हाकिम सिनाई और उमर खय्याम और जलालुद्दीन रूमी और नसुरुद्दीन, इनको तुम कहां गिनोगे ? भारतीय संस्कृति में ही गिनना होगा, क्योंकि ये भी जगमगाते दीपक हैं। अगर जगमगाते दीपकों की इस मालिका का नाम ही भारतीय संस्कृति है तो फिर इसका भारत से कोई संबंध न रहा। फिर चीन में हुए लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु, हवांगप्पो हुए-हाई; इनको कहां गिनोगे ? फिर तिब्बत में हुआ मिलरेपा, मारपा; इनको कहां गिनोगे ?

तिलोपा, बोधिधर्म, कणहप्पा सिद्धप्पा; इनको कहां गिनोगे ? अगर भारतीय संस्कृति का नाम केवल जगमगाते दीपकों की मालिका हो, तो फिर इन सबको भी गिन लो, तो मुझे कोई एतराज नहीं, फिर मैं राजी। फिर मैं भी भारतीय संस्कृति का पोषक।

लेकिन तुमने भी सिर्फ अष्टावक्र कृष्णमूर्ति को ही क्यों गिना ? यह बेईमानी क्यों ? और क्या खाक कृष्णमूर्ति में भारतीय संस्कृति है ! सिर्फ इसलिए कि भारत में पैदा हुए ? बस, उसके सिवाय और तो कुछ नहीं। क्योंकि कृष्णमूर्ति को कहते हैं मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैंने भारतीय कोई शास्त्र नहीं पढ़े, न गीता, न वेद, न उपनिषद। सौभाग्यशाली हूं कि इस मूढ़ता से मैं बच गया ! धन्यभाग हैं मेरे कि मैं इस जाल में नहीं पड़ा !

और अष्टावक्र को तुम क्यों भारतीय गिनते हो ? क्योंकि अष्टावक्र न तो वेदों के पक्ष में हैं, न हवन-यज्ञ, पूजा-पाठ, मंदिर-मूर्ति। तुम अष्टावक्र में ऐसा क्या पाते हो जिसको तुम भारतीय कह सकते हो और जिसको तुम लाओत्सु में नहीं पाओगे ? तो या तो भारत की परिभाषा बदल दो, भौगोलिक न रखो। फिर सारे बुद्धपुरुषों का जो गगन-मंडल है, वह भारत है। लेकिन उसको भारत ही क्यों कहो, उसको जापान क्यों न कहो, उसको चीन क्यों न कहो, उसके अरब क्यों न कहो, उसको इजराइल क्यों न कहो ? आखिर भारत कहने का क्या मोह है उसे ? अगर भारत पूरब है तो जापान और भी पूरब है, ठेठ पूरब, जहां सूरज ही उगता है, सूरज का ही देश ! हमसे भी ज्यादा पूरब। जापान के हिसाब से तो हम पश्चिमी हैं। हम पश्चिम में पड़ते हैं। अगर पूरब का ही प्रतीक चुनना है तो जापान को चुन लो। मगर यह बड़ी मुश्किल की बात है। जापान के लिए अमरीका पूरब है। जमीन गोल है। कौन है पूर्वीय और कौन है पाश्चात्य ? इस तरह से देखो तो वही व्यक्ति पाश्चात्य है, इस तरह से देखो तो वही व्यक्ति पूर्वीय है।

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