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ओशो साहित्य >> सत्य की पहली किरण

सत्य की पहली किरण

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3615
आईएसबीएन :81-7182-437-4

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ओशो पर आधारित पुस्तक...

Satya Ki Pahli Kiran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ओशो स्वयं तूफान के पाले हुए थे।
और उनका अक्षर-अक्षर मुहब्बत का दीया बनकर
उन तूफानों में जलता रहा....जलता रहेगा ।
जिस ओशो से मैंने बहुत कुछ पाया है, यह अक्षर उन्हीं के नाम
-अर्पित करती हूँ-

‘कह दो मुख़ालिफ हवाओँ से कह दो
मुहब्बत का दीया तो जलता रहेगा


भगवान श्री रजनीश अब केवल ‘ओशो’ नाम से जाने जाते हैं। ओशो के अनुसार उनका नाम विलियम जेम्स के शब्द ‘ओशोनिक’ से लिया गया है, जिसका अभिप्राय है सागर में विलीन हो जाना। ‘ओशनिक’ से अनुभूति की व्याख्या तो होती है, लेकिन वे कहते हैं कि अनुभोक्ता के सम्बन्ध में क्या ? उसके लिए हम ‘ओशो’ शब्द का प्रयोग करते हैं। बाद में उन्हें पता चला कि ऐतिहासिक रूप से सुदुर पूर्व में भी ‘ओशो’ शब्द प्रयुक्त होता रहा है, जिसका अभिप्राय हैः भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति, जिस पर आकाश फूलों की वर्षा करता है।


ओशो परम कल्याण मित्र हैं, अस्तित्व का माधुर्य है।
उनकी करुणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई है।

ओशो जिसका न कभी जन्म हुआ, न कभी मृत्यु
जो इस पृथ्वी गृह पर 11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990
तक केवल एक आगंतुक रहे।
प्रस्तुत प्रवचन सम्मुख-उपस्थित श्रोताओं के प्रति
ओशो के सहज प्रतिसंवेदन हैं, जिनका मूल्य शाश्वत व संबंध-मानव से है।
 

प्रथम प्रवचन


जीवन-क्रांति की दिशा



जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं। जो जीवन को जीने की कला को जान लेते हैं। वे प्रभु मन्दिर के निकट पहुंच जाते हैं। और जो जीवन से भागते हैं वे जीवन से तो वंचित होते ही हैं, परमात्मा से भी वंचित हो जाते हैं। परमात्मा अगर कहीं है तो जीवन के मंदिर में विराजमान है और जिन्हें भी उस मंदिर में प्रवेश करना है वे जीवन के प्रति धन्यता का बोध, आनन्द और अनुग्रह का भाव लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन आज तक ठीक इससे उल्टी बात समझायी गयी है। आज तक समझाया गया है, जीवन पलायन (एस्केप) जीवन से पीठ फेर लेना, जीवन से दूर हट जाना, जीवन से मुक्ति की कामना। आज तक यही सब सिखाया गया है और इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके कारण ही पृथ्वी एक नरक और दुख का स्थान बन गयी है। जो पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी, वह नरक बन गयी है।

मैंने सुना है, एक सन्ध्या स्वर्ग के द्वार पर किसी व्यक्ति ने जाकर दस्तक दी पहरेदार ने पूछा-तुम कहां से आये हो ? उसने कहा मंगल ग्रह से आ रहा हूँ। पहरेदार ने कहा, तुम नरक में जाओ। यह द्वार तुम्हारे लिए नहीं है। स्वर्ग के दरवाजे तुम्हारे लिए नहीं हैं। अभी नरक जाओ। वह आदमी गया भी न था कि उसके पीछे एक आदमी ने भी द्वार खटखटाया। पहरेदार ने फिर पूछा-तुम कौन हो ? उसने कहा मैं मनुष्य हूँ और पृथ्वी से आया हूं। द्वारपाल ने दरवाजा खोल दिया और कहा, तो तुम आ जाओ, तुम नरक से ही रहकर आ रहे हो, (यू हेव बीन थ्रू हेल ऑलरेडी।) अब तुम्हें और किसी नरक में जाने की जरूरत नहीं।

मनुष्य ने पृथ्वी की जो दुर्गति कर दी है वह बड़ी हास्यजनक और देखने जैसी है। और बहुत भले लोगों ने इस दुर्गति में हाथ बंटाया है। वे सारे लोग जिन्होंने जीवन की निन्दा की है और जीवन को तिरस्कृत, (क्रन्डेम) किया है, जिन्होंने जीवन को असार और बुरा कहा है, जिन्होंने जीवन के प्रति घृणा  सिखायी है, उन सारे लोगों ने पृथ्वी को नरक बनाने में हाथ बंटाया है। जीवन के प्रति दुर्भाव छोड़ना होगा। धार्मिक मनुष्य को मन में जीवन के प्रति एक धन्यता का, एक कृतज्ञता (ग्रेटीट्यूड) का भाव लेना होगा। जीवन उसे असार नहीं दिखाई पड़ेगा। और अगर कहीं जीवन असार मालूम होता है तो वह समझेगा कि मेरी कोई भूल होगी जिससे जीवन गलत दिखाई पड़ रहा है। जब भी जीवन गलत दिखाई पड़ता है तो धार्मिक आदमी अपने को गलत समझते हैं। लेकिन मनुष्य की पुरानी भूलों में से एक यह है कि अपनी भूल दूसरे पर थोप देने की उसकी पुरानी प्रवृत्ति है। अपनी गलती को, अपने दोष को, अपनी व्यर्थता, (मीनिंगलेसनेस) को हम जीवन पर थोपकर मुक्त हो जाते हैं कि जीवन ही दुःख है, हम क्या करें ?

सचाई दूसरी है। हम जिस चित्त को लिए बैठे हैं वह दुःख को सृजन करने वाला चित्त है। हम जिस मन को लिए बैठे हैं, जिन प्रवृत्तियों को लिए बैठे हैं, वे प्रवृत्तियां दुःख को पैदा करने वाली और दुःख को जन्म देने वाली वृत्तियां हैं। पृथ्वी वैसी ही हो जाती है जैसे हम हैं। हम मौलिक रूप से केन्द्रिय हैं, पृथ्वी नहीं।

इस पृथ्वी को आप वैसा ही पायेंगे, जैसे आप हैं। इस पृथ्वी को आप आनन्दपूर्ण पायेंगे, अगर आपके हृदय में आनन्द की वीणा बजनी शुरू हो गयी हो। और इसी पृथ्वी को आप दुःख से भरा हुआ पायेंगे, अगर आपके हृदय का दिया बुझा है और अंधकारपूर्ण है। आपके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पृथ्वी जरूर वही है जो आप हैं। जीवन को हम जिस दृष्टि से देखते हैं इस पर ही सब-कुछ निर्भर करता है। धार्मिक व्यक्ति जीवन से भागने वाला व्यक्ति नहीं है। भागने वाले होंगे सुस्त और आलसी, भागने वाले होंगें डरपोक और कायर, जिनमें जीवन का सामना करने का साहस और हिम्मत नहीं है। धार्मिक व्यक्ति से ज्यादा साहसी तो कोई होता ही नहीं। उससे ज्यादा साहस, (करेज) तो किसी के भीतर होता ही नहीं। धार्मिक व्यक्ति भागता नहीं है, स्वयं को बदलता है और स्वयं की बदलाहट के साथ ही पाता है कि सारा जीवन बदल गया है। जिस दिन वह खुद को बदल लेता है उस दिन वह पाता है कि सारे जीवन की पूरी स्थिति बदल गयी है। जीवन और हो गया है। हमारी आँखों पर निर्भर है वह, जिसे देखते हैं। हमारे प्राणों पर निर्भर है वह, जिसका हम अनुभव करते हैं। और इसलिए मैं कहता हूं जीवन के प्रति आनन्द का भाव, जीवन के प्रति अहोभाव, जीवन के प्रति अनुग्रह का बोध, यह धार्मिक व्यक्ति की जीवन-क्रान्ति का पहला सूत्र है।

दूसरा सूत्र है जीवन के प्रति आश्चर्य का बोध। तीन हजार वर्षों में अगर मनुष्य ने कोई चीज खो दी है तो आश्चर्य खो दिया है। आश्चर्य के साथ ही खो गया है-धर्म। आश्चर्य के साथ खो गया है जीवन का रहस्य; आश्चर्य के साथ ही खो गया है वह सब जो रहस्यपूर्ण (मिस्टिरिअस) है। आश्चर्य हमने कैसे खो दिया है ? छोटे बच्चे तो आज भी आश्चर्य को लेकर पैदा होते हैं।, लेकिन माँ-बाप उनके आश्चर्य का गला घोंट देते हैं। छोटे बच्चे तो आज भी वैसे ही पैदा होते हैं जैसे पहले होते थे। लेकिन उनके आश्चर्य को हम उनके बोध के पहले ही नष्ट कर देते हैं। हमारी सारी शिक्षा संस्थाएं, हमारे सारे संस्कार देने वाली व्यवस्था, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति एक चीज की बुनियादी शत्रु है और वह चीज है आश्चर्य का भाव। पहले तो धर्मों ने आश्चर्य के भाव को नष्ट कर दिया। कैसे किया ? जीवन में जो-जो अज्ञात, (अननॉन) था, और अज्ञात ही नहीं, जो अज्ञेय, (अन नोएबल) था, धर्मों ने यह घोषणा कर दी है कि वह सब जानते हैं।

धर्मों ने कह दिया कि सृष्टि कैसे किस सन् में बनी है, हमें पता है। परमात्मा ने कैसे प्रकृति और सृष्टि बनायी है, यह हमें पता है। धार्मिक लोगों ने बहुत असत्य बोला है। क्या दुनिया में इससे बड़ा कोई असत्य हो सकता है कि हमें पता है जीवन कैसे जन्मा, कि हमें पता है कि परमात्मा क्या है ? परमात्मा और जीवन है अज्ञात, अज्ञात ही नहीं अज्ञेय। लेकिन धर्मों ने यह घोषणा की है हमें पता है। धर्म गुरुओं ने यह घोषणा की हमें मालूम है। उन्होंने इतने जोर से दावा किया हमें पता है और फिर उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई कहेगा हमें पता नहीं है और यह कोई अगर सिद्ध करना चाहेगा कि तुम अज्ञानी हो तो हम अपनी दलील को तलवार से सिद्ध करके बता देंगे कि हम जो कहते हैं वह ठीक है। जिसके हाथ में तलवार है, वह जो कहता है सब ठीक है।

मनुष्य को पता नहीं है कुछ भी। मनुष्य का अज्ञान बहुत गहरा है, लेकिन कुछ अहंकारी लोगों ने, कुछ ऐसे लोगों ने जो यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि हम नहीं जानते हैं, जानने का भ्रम पैदा किया। क्योंकि न जानने की स्वीकृति बहुत बड़ी विनम्रता (ह्यूमिलिटी) है। जो वस्तुतः धार्मिक होता है उसी में यह विनम्रता होती है कि मैं नहीं जानता हूं। लेकिन पण्डित में यह विनम्रता नहीं होती है कि मैं नहीं जानता हूं। उसकी घोषणा होती है कि मैं जानता हूं। न केवल यहीं, बल्कि यह कि दूसरे जो जानते हैं वह गलत जानते हैं। ठीक तो केवल मैं ही जानता हूँ। मेरी किताब ठीक, मेरा सम्प्रदाय ठीक, मेरा तीर्थंकर ठीक, मेरा पैगम्बर ठीक, मेरा अवतार ठीक। मैं जो जानता हूँ वह ठीक है और बाकी सब गलत है। इस तरह की घोषणाओं की निरन्त पुनरुक्ति से और बच्चों के मन में बचपन से ही इन बातों को प्रविष्टि करा देने से वह जो जीवन में अज्ञात था, वह विलीन हो गया और छिप गया। हमें लगने लगा कि हम सब-कुछ जानते हैं और जब मनुष्य को लगने लगता है कि मैं सब-कुछ जानता हूं तो आश्चर्य की कोई सम्भावना नहीं रह जाती। तब विस्मय का कोई कारण नहीं होता। तब रहस्य के प्रविष्ट होने का कोई द्वार नहीं रह जाता। आदमी अपने ज्ञान के कारागृह में बंद हो जाता है और चारों तरफ को अज्ञात मौजूद है उसके लिए कोई दरवाजा, कोई खिड़की नहीं रह जाती कि उससे वह प्रवेश करे।

पहले धर्मों ने मनुष्य के आश्चर्य की हत्या की-धर्म-शास्त्रों ने, धर्म-गुरुओं ने। फिर उनके पीछे आया विज्ञान, और विज्ञान ने और भी मनुष्य को यह ख्याल दे दिया कि हम सब जानते हैं। विज्ञान ने भी फिक्शन खड़े किये। क्रिश्चियन्स कहते हैं कि ईश्वर ने चार हजार चार सौ वर्ष पूर्व दुनिया की सृष्टि की। छह दिन में सृष्टि की और सातवें दिन विश्राम किया, रविवार के दिन। फिर विज्ञान आया और विज्ञान ने पुरानी कल्पनाओं को तो कहा कि यह कल्पनाएं, (फिक्शन) हैं, लेकिन नयी कल्पनाएं खड़ी कर दीं। वैज्ञानिक कहते हैं कि परमात्मा ने सृष्टि की, यह तो पता नहीं। लेकिन अरबों वर्ष पहले धुएं की नीहारिकाएं थीं। उन्हीं नीहारिकाओं से सूरज का जन्म हुआ। सूरज से पृथ्वी का जन्म हुआ। पृथ्वी से चांद पैदा हुआ है। ये सब बातें भी अत्यन्त झूठी और बेबुनियाद हैं। इन बातों के लिए भी न कोई कारण है और न कोई वैज्ञानिक आधार है, इन बातों को कहने का। लेकिन आदमी अपने अज्ञान को स्वीकार ही नहीं करना चाहता। किसी न किसी भांति वह यह भ्रम पैदा करना चाहता है कि हम सब जानते हैं।

एडीसन का नाम आपने सुना होगा। एक हजार अविष्कार किए एडीसन ने शायद दुनिया में किसी एक आदमी ने इतने आविष्कार नहीं किए। विद्युत की बात को एडीसन जितना जानता था शायद कोई नहीं जानता था। एडीसन अमेरिका के एक छोटे से गाँव में गया। उस गांव के स्कूल के बच्चों ने एक प्रदर्शनी सजायी थी। उसमें कुछ विद्युत के खेल-खिलौने बनाए थे जो बिजली से चलते थे। मोटर बनायी थी, जहाज बनाया था। एडीसन भी देखने गया था। बच्चों को क्या पता था जो देखने आया है वह जगत का विद्युत के सम्बन्ध में जानने वाला सबसे बड़ा विचारक है। एडीसन उन बच्चों के खिलौनों को देखकर खूब खुश होने लगा और उसने पूछा, बच्चों ये चलते कैसे हैं ? बच्चों ने कहा इलेक्ट्रिसिटी से विद्युत से। एडीसन ने पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूं, यह विद्युत क्या है वे ठगे रह गये। बच्चों के अध्यापक भी ठगे रह गये। उनमें से किसी को पता नहीं वह आदमी एडीसन है। फिर एडीसन ने कहा आप घबरायें नहीं मेरा नाम है एडीसन। आपने सुना होगा। वह बोले सुना है। आप ही ने तो विद्युत की सब खोजबीन की है। एडीसन ने कहा, तुम निश्चिन्त रहो। चिन्तित मत हो मैं भी नहीं जानता हूँ। मैं भी उत्तर नहीं दे सकता हूँ कि यह विद्युत क्या है, मुझे भी कोई पता नहीं कि विद्युत क्या है ‍?

हम केवल विद्युत का उपयोग करना सीख गये हैं। विद्युत क्या है। हमें पता नहीं। अणु क्या है, हमें पता नहीं। अणुबम जरूर हम बनाना सीख गये हैं। एक माली बगीचे में एक बीज बो देता है और पौधा बड़ा हो जाता है। पूछें माली से पौधा क्या है ? पूछें माली से बीज पौधा कैसे बन जाता है। माली कहेगा मुझे पता नहीं। हालांकि बीज को मैं बो देता हूँ और पौधा बन जाता है। मैं बीज से पौधा बनाना सीख गया हूँ लेकिन पौधा क्या है, बीज क्या है ? मुझे पता नहीं।

विज्ञान भी इस बगीचे में काम करने वाले मालियों की तरह है, जो बीज से पौधा बनाना सीख गया है। लेकिन जीवन क्या है ? विज्ञान के पास भी कोई उत्तर नहीं होता है। और मैं आपसे कहता हूं, इसका मतलब यह मत समझ लेना कि धर्मों के पास उत्तर है। धर्मों के पास भी उत्तर नहीं है। विज्ञान के पास भी उत्तर नहीं है। आज तक आदमी के लिए जीवन के जो चरम प्रश्न हैं उनका कोई भी उत्तर उपलब्ध नहीं है। पहले धार्मिक लोग धोखा देते रहे हैं कि हमें उत्तर पता है। अब वैज्ञानिक धोखा दे रहे हैं कि हमें उत्तर ज्ञात है। और चाहे धार्मिक धोखा दें, चाहे वैज्ञानिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आदमी को धोखा दिया जाता रहा है।

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