जीवनी/आत्मकथा >> बच्चन यात्री अग्निपथ का बच्चन यात्री अग्निपथ कागोपालदास नीरज
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महान कवि साहित्यकार डॉ. हरिवंशराय बच्चन के व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी गीति-काव्य के पर्याय बन चुके कवि गोपालदास नीरज और सुपरिचित
कवि-साहित्यकार सुरेश कुमार द्वारा सम्पादित यह कृति महान कवि साहित्यकार
डॉ. हरिवंशराय बच्चन के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने का एक उल्लेखनीय
प्रयास है।
प्रतिष्ठित कथाकार कमलेश्वर और ‘कादम्बिनी’ के पूर्व सम्पादक, प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र प्रसाद अवस्थी सहित अनेक जाने-माने साहित्यकारों के आलेख इस कृति को संग्रहणीय बनाते हैं।
‘मधुशाला’ के अमर कवि को समग्रता में देखने-समझने की कोशिश करती, एक महत्वपूर्ण कृति।
बच्चन जी की लोकप्रियता का कारण उनकी कविता पाठ की कर्णप्रिय शैली नहीं; बल्कि मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण सामान्य-साधारणता में चित्रित करना है। हर संवेदनशील व्यक्ति को जो उनकी कविता पढ़ता है उसे उनकी कविता में अपने ही हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। बच्चन को समूह अपने से भिन्न नहीं, बल्कि अपने ही बीच का एक व्यक्ति मानकर चाहता है। इसीलिए वह बच्चन को जहाँ अतुल अमित प्यार दे सका वहाँ उन्हें वह आदर न दे सका जिसके वह अधिकारी थे। आदर पाने के लिए थोड़ी दूर और थोड़ा भय जरूरी होता है। लेकिन जो मनुष्य को खोजने निकला था वह कोई भी दूरी कैसे बर्दाश्त कर सकता था। उसका धर्म तो पर्दा उठाना और हर दूरी समाप्त करना था। कवि, कविता और समूह के बीच की जो खाई बच्चन जी ने भरी उसके कई लाभ हुए।
प्रतिष्ठित कथाकार कमलेश्वर और ‘कादम्बिनी’ के पूर्व सम्पादक, प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र प्रसाद अवस्थी सहित अनेक जाने-माने साहित्यकारों के आलेख इस कृति को संग्रहणीय बनाते हैं।
‘मधुशाला’ के अमर कवि को समग्रता में देखने-समझने की कोशिश करती, एक महत्वपूर्ण कृति।
बच्चन जी की लोकप्रियता का कारण उनकी कविता पाठ की कर्णप्रिय शैली नहीं; बल्कि मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण सामान्य-साधारणता में चित्रित करना है। हर संवेदनशील व्यक्ति को जो उनकी कविता पढ़ता है उसे उनकी कविता में अपने ही हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। बच्चन को समूह अपने से भिन्न नहीं, बल्कि अपने ही बीच का एक व्यक्ति मानकर चाहता है। इसीलिए वह बच्चन को जहाँ अतुल अमित प्यार दे सका वहाँ उन्हें वह आदर न दे सका जिसके वह अधिकारी थे। आदर पाने के लिए थोड़ी दूर और थोड़ा भय जरूरी होता है। लेकिन जो मनुष्य को खोजने निकला था वह कोई भी दूरी कैसे बर्दाश्त कर सकता था। उसका धर्म तो पर्दा उठाना और हर दूरी समाप्त करना था। कवि, कविता और समूह के बीच की जो खाई बच्चन जी ने भरी उसके कई लाभ हुए।
सम्पादकीय
बच्चन जी हिंदी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने खुद कविता नहीं लिखी है बल्कि
कविता ने ही स्वयं जिन्हें लिखा है। वह ज्ञान के बल पर किताबें पढ़कर या
काव्य के सिद्धांत सीखकर नहीं लिखी गई है, वह सीधे उनके जीवन से फूटकर आई
है। वह लिखी इसलिए गई कि वह न लिखने पर बच्चन जी जीवित नहीं रह सकते थे।
वह अनिवार्यता थी, विवशता थी यानी उनके जीने की शर्त। तुलसी ने जिस आस्था
और विश्वास के साथ स्वयं को राम के चरणों में समर्पित किया था उसी आस्था
और विश्वास के साथ बच्चन जी ने खुद को कविता के हाथों सौंपा है। और तुलसी
ने जैसे हर कठिन क्षण में राम को पुकारा था उसी प्रकार हर आघात पर, हर चोट
पर-चाहे वह चोट साहित्य के द्वारा की गई हो अथवा भाग्य के द्वारा बच्चन जी
ने कविता को ही पुकारा है। यही कारण है कि लोगों के सामूहिक विरोध के
बावजूद भी बच्चन जी टूटे नहीं, उखड़े नहीं। सफर एकाकी था, रास्ता बड़ा
ऊबड़-खाबड़ दाँये बाँये सर्पों के फूत्कार, बिच्छुओं के डंक, न कोई साथी न
कोई संगी, न कहीं विश्रामालय, न कहीं पड़ाव मंजिल तक का निशान नहीं। मगर
बच्चन जी जिस राह पर निकल पड़े थे उसी राह पर चलते रहे, चलते रहे।
धर्मधुरीण चौंके साहित्य के पंडितों ने कानाफूँसी की, कुछ ने रास्ते
सुझाये-फूलों वाले, छाया वाले, सुख सुविधा वाले। कुछ ने फतवे दिये-आवारा
है, शराबी है, पथभ्रष्ट है। कांटों की बदतमीज़ियों से कमीज़ तार तार हो गई
थी, पाँव लहू-लुहान तन-मन जर्जर क्लान्त-लग रहा था बच्चन अब गिरे, तब
गिरे। मगर कंठ अवरुद्ध नहीं था वह गाता जा रहा था, गाता जा रहा
था-‘अग्नि पथ’, ‘अग्नि पथ।’ और
एक दिन अग्नि पथ
समाप्त हुआ, ठंडी हवाओं का देश आ गया। बच्चन जीत गए, समय हार गया।
बच्चन जी अजेय समय को पराजित कर सके इसके दो कारण थे।
पहला तो यह कि बच्चन जी कविता लिखने वाले कवि नहीं बल्कि कविता को जीने वाले, कविता के हाथों पूरी तरह समर्पित कवि थे। दूसरा कारण यह था कि बच्चन जी ने जो रास्ता चुना था वह न तो मधुशाला की ओर जाता था, न पार्लियामेंट की ओर। उसकी मंजिल में न तो कोई वाद था, न कोई सिद्धांत। वह रास्ता केवल आदमी की ओर ले जाने वाला रास्ता था। मधुशाला शराब पीकर नहीं लिखी गई थी, वह ज़िन्दगी का सबसे कड़वा जहर पीकर लिखी गई थी। बहुतों को यह जहर पीना पड़ा है। कुछ इसे मुँह बनाकर पीते हैं, कुछ इसे मुस्कराकर पीते हैं। मुस्कराकर पीने पर जहर अमृत बन जाता है, मुँह बनाकर पीने पर वह और भी अधिक मारक हो जाता है। बच्चन की सम्पूर्ण कविता जहर को अमृत बनाने की एक अटूट साधना है।
बच्चन न हाला के कवि हैं, न प्याला के, न हिन्दू के, न मुसलमान के, न इस वाद के, न उस वाद के, वे एक मात्र-मनुष्य के कवि हैं-उसी मनुष्य के जो प्यार भी करता है और नफ़रत भी, जो हँसता भी है और रोता भी, जो जीता भी है और मरता भी, जो गिरे तो इतना गिरे कि पाताल तक शरमा जाये और जो उठे तो इतना उठे कि आसमान तक छू ले। बच्चन ने इसी इनसान को अपनी कविताओं में तरह तरह से गाया है इसीलिए उनकी कविताओं में हमें विरोधी दृष्टियाँ मिलती हैं। एक ओर मधुशाला है तो दूसरी ओर हलाहल, कभी वे ‘एकान्त संगीत’ छेड़ते हैं तो कभी ‘मिलन यामिनी’ का श्रृंगार करते दिखाई देते हैं। बच्चन जी ने खुद कुछ नहीं लिखा, उनका जीवन जो कुछ उनसे लिखवाता गया वे लिखते गए। एक रूप में उन्होंने अपने जीवन का ही अविकल अनुवाद किया है। मगर यह अनुवाद इतनी सच्चाई और ईमानदारी से किया गया है कि आप उनकी कविता पढ़कर उनके जीवन की छोटी से छोटी गुह्य घटना को पकड़ सकते हैं। व्यक्ति-मन की ऐसी कौन सी अनुभूति है जो बच्चन जी ने नहीं लिखी ? पालने से पलंग तक, पनघट से मरघट तक, आँगन से चौराहे तक, एकान्त से भीड़ तक जहाँ तक जितना कुछ जीवन है वह सब बच्चन जी की कविता है। छोटे-बड़े, रूप कुरूप, सबके लिए वहाँ स्थान है। यही कारण है कि उनकी कविता महल से झोंपड़ी तक समान रूप से आहत हुई। बच्चन जी की लोकप्रियता का कारण उनकी कविता पाठ की कर्णप्रिय शैली नहीं; बल्कि मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण सामान्य साधारणता में चित्रित करना है।
हर संवेदनशील व्यक्ति को जो उनकी कविता पढ़ता है उसे उनकी कविता में अपने ही हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। बच्चन को समूह अपने से भिन्न नहीं, बल्कि अपने ही बीच का एक व्यक्ति मानकर चाहता है। इसीलिए वह बच्चन को जहाँ अतुल अमित प्यार दे सका वहाँ उन्हें वह आदर न दे सका जिसके वह अधिकारी थे। आदर पाने के लिए थोड़ी दूरी और थोड़ा भय जरूरी होता है। लेकिन जो मनुष्य को खोजने निकला था वह कोई भी दूरी कैसे बर्दाश्त कर सकता था। उसका धर्म तो पर्दा उठाना और हर दूरी समाप्त करना था। कवि कविता और समूह के बीच की जो खाई बच्चन जी ने भरी उसके कई लाभ हुए। आकाश की ओर जाती हुई कविता जमीन पर उतर आई, सिद्धातों के पीछे दौड़ने वाली कविता जीवन से एकाकार हो गई। कॉलेजों तथा लाइब्रेरियों के कमरों में मुक्ति के लिए छटपटाती हुई कविता खुले मैदान में आकर समूह के आमने सामने खड़ी हो गई। बच्चन से पूर्व कविता की स्थिति यह थी कि यदि वह पढ़ी जाती थी तो केवल उन लोगों द्वारा जिन्हें परीक्षा पास करने के लिए विवश होकर उसे पढ़ना पड़ता था और यदि वह सुनी जाती थी तो केवल उनके द्वारा जिन्हें डिनर या चाय के प्रलोभन से उसे सुनना पड़ता था। बच्चन जी ने पहली बार कविता को परीक्षा की विवशता के बजाय जीवन की विवशता बना दिया और फिर वह बेधड़क बेखौफ होठों-होठों घर बाहर घूम-घूमकर गुनगुनाने लगी। हिंदी कविता को उर्दू शायरी की समकक्षता में लोकप्रिय बनाने का एकमात्र श्रेय बच्चन जी को है। आज जो हिंदी कविता की लाखों लाख प्रतियाँ बिकती और छपती हैं (हाँ कुछ लोगों की ज़रूर नहीं बिकती) और नगर नगर, गाँव गाँव रात रात जाग जाग कर हजारों लोगों के बीच जो वह सुनी और सराही जाती हैं-यह सब देन बच्चन जी की ही है। मगर उनकी यह लोकप्रियता राधेश्याम रामायण वाली लोकप्रियता नहीं तुलसी की रामायण वाली लोकप्रियता है।
उन्होंने केवल कविता का ही समाजीकरण नहीं किया है, बल्कि कवि का भी समाजीकरण किया है। वे केवल कवि नहीं, कवि निर्माता भी हैं। अकेले बच्चन जी ने जितने कवि बनाये और कविता पर जितना गहरा एवं स्थायी प्रभाव छोड़ा केवल अज्ञेय जी को छोड़कर पूरी, आधुनिक हिंदी कविता पर उतना स्थायी प्रभाव अन्य किसी कवि ने नहीं छोड़ा है। इस दृष्टि से बच्चन जी एक युग हैं, एक इतिहास हैं। वर्तमान हिंदी कविता जिस भाषा के माध्यम से स्वयं को व्यक्त करती है और आधुनिक गीत जिस शैली का विकसित रूप है उसकी जड़ें न छायावादी कविता में ही हैं और न प्रगतिवादी कविता में ही। उसकी जड़ें प्रेमचन्द के उपन्यासों और बच्चन जी की कविता में ही मिलेंगी। बशर्ते पूर्वाग्रह मुक्त होकर आप उन्हें ढूँढ़ना चाहेंगे।
केवल भाषा तथा गीति शैली की दष्टि से ही बच्चन जी ने युगान्तर उपस्थित नहीं किया है, बल्कि काव्य के मूल्यों की खोज में भी उनका योगदान मौलिक एवं अक्षुण्य है। मूल्यों की तलाश में छायावाद गया था आकाश की ओर या प्रकृति की ओर; प्रगतिवाद दौड़ा था एक सिद्धान्तबद्ध प्राणहीन स्थूलता की ओर। मगर बच्चन जी कहीं गए नहीं-न पूरब न पश्चिम उन्हें काव्य का मूल्य सामने ही खड़ा मिल गया-और उन्होंने जो पाया न वह ब्रह्म था न ब्रह्मांड, न प्रकृति न ईश्वर, न द्यौ न द्यावा, न भूमा-वह मात्र था जीवन सुख की तलाश में भटकता हुआ मनुष्य, उपाधियुक्त मनुष्य नहीं, केवल मनुष्य, जो जीना चाहता है। मानववाद की दुहाई छायावादियों ने भी दी थी, प्रगतिवादियों ने भी दी थी-मगर एक का मानव केवल आत्मा (सूक्ष्म) और दूसरे का केवल शरीर (स्थूल) था। बच्चन ने मनुष्य को टुकड़ों में नहीं देखा, उसे उसकी सम्पूर्णता में ग्रहण किया। ‘निशानिमंत्रण’ मनुष्य के प्यासे हृदय का गीत है और ‘बंगाल का काल’ उसके शरीर का पीड़ित आक्रोश है।
बच्चन जी ने बहुत कुछ लिखा है। मगर इस बहुत कुछ में ऐसा भी बहुत कुछ है जो निरर्थक है। किन्तु इस निरर्थक के बाद जो कुछ सार्थक बच रहता है, वह इतना श्रेष्ठ, इतना प्रभविष्णु, इतना प्राणवान है कि किसी भी साहित्य की प्रथम पंक्ति में स्थान पा सकता है। सूक्ष्मता, सहजता, भावान्वित तथा प्रभाव क्षमता की दृष्टि से ‘निशानिमंत्रण’ हिंदी गीति काव्य की एक अमूल्य निधि है। गीत के विकास की वह अन्तिम परिणति है। इतना छोटा मगर साथ ही इतना गहरा प्रभाव छोड़ने वाला गीत न तो बच्चन से पहले ही लिखा गया और न बाद में। सच पूछिये तो ‘निशानिमंत्रण’ सौ गीतों का एक महाकाव्य है।
हिंदी बच्चन जी के साथ न्याय नहीं कर सकी और उसका एक मात्र कारण रहा है उनकी ईर्ष्या उत्पन्न करने वाली लोकप्रियता। लोकप्रियता का शाप यदि उन्हें न लगा होता तो बच्चन जी ने जो कुछ हिंदी को दिया है उसके आधार पर उनकी गणना पंत, प्रसाद व निराला के साथ ही होती। मगर हमें विश्वास है कि आज नहीं तो कल इतिहास यह गलती जरूर ही सुधारेगा क्योंकि समय किसी अन्याय को ज्यादा सहन नहीं करता।
बच्चन जी अजेय समय को पराजित कर सके इसके दो कारण थे।
पहला तो यह कि बच्चन जी कविता लिखने वाले कवि नहीं बल्कि कविता को जीने वाले, कविता के हाथों पूरी तरह समर्पित कवि थे। दूसरा कारण यह था कि बच्चन जी ने जो रास्ता चुना था वह न तो मधुशाला की ओर जाता था, न पार्लियामेंट की ओर। उसकी मंजिल में न तो कोई वाद था, न कोई सिद्धांत। वह रास्ता केवल आदमी की ओर ले जाने वाला रास्ता था। मधुशाला शराब पीकर नहीं लिखी गई थी, वह ज़िन्दगी का सबसे कड़वा जहर पीकर लिखी गई थी। बहुतों को यह जहर पीना पड़ा है। कुछ इसे मुँह बनाकर पीते हैं, कुछ इसे मुस्कराकर पीते हैं। मुस्कराकर पीने पर जहर अमृत बन जाता है, मुँह बनाकर पीने पर वह और भी अधिक मारक हो जाता है। बच्चन की सम्पूर्ण कविता जहर को अमृत बनाने की एक अटूट साधना है।
बच्चन न हाला के कवि हैं, न प्याला के, न हिन्दू के, न मुसलमान के, न इस वाद के, न उस वाद के, वे एक मात्र-मनुष्य के कवि हैं-उसी मनुष्य के जो प्यार भी करता है और नफ़रत भी, जो हँसता भी है और रोता भी, जो जीता भी है और मरता भी, जो गिरे तो इतना गिरे कि पाताल तक शरमा जाये और जो उठे तो इतना उठे कि आसमान तक छू ले। बच्चन ने इसी इनसान को अपनी कविताओं में तरह तरह से गाया है इसीलिए उनकी कविताओं में हमें विरोधी दृष्टियाँ मिलती हैं। एक ओर मधुशाला है तो दूसरी ओर हलाहल, कभी वे ‘एकान्त संगीत’ छेड़ते हैं तो कभी ‘मिलन यामिनी’ का श्रृंगार करते दिखाई देते हैं। बच्चन जी ने खुद कुछ नहीं लिखा, उनका जीवन जो कुछ उनसे लिखवाता गया वे लिखते गए। एक रूप में उन्होंने अपने जीवन का ही अविकल अनुवाद किया है। मगर यह अनुवाद इतनी सच्चाई और ईमानदारी से किया गया है कि आप उनकी कविता पढ़कर उनके जीवन की छोटी से छोटी गुह्य घटना को पकड़ सकते हैं। व्यक्ति-मन की ऐसी कौन सी अनुभूति है जो बच्चन जी ने नहीं लिखी ? पालने से पलंग तक, पनघट से मरघट तक, आँगन से चौराहे तक, एकान्त से भीड़ तक जहाँ तक जितना कुछ जीवन है वह सब बच्चन जी की कविता है। छोटे-बड़े, रूप कुरूप, सबके लिए वहाँ स्थान है। यही कारण है कि उनकी कविता महल से झोंपड़ी तक समान रूप से आहत हुई। बच्चन जी की लोकप्रियता का कारण उनकी कविता पाठ की कर्णप्रिय शैली नहीं; बल्कि मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण सामान्य साधारणता में चित्रित करना है।
हर संवेदनशील व्यक्ति को जो उनकी कविता पढ़ता है उसे उनकी कविता में अपने ही हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। बच्चन को समूह अपने से भिन्न नहीं, बल्कि अपने ही बीच का एक व्यक्ति मानकर चाहता है। इसीलिए वह बच्चन को जहाँ अतुल अमित प्यार दे सका वहाँ उन्हें वह आदर न दे सका जिसके वह अधिकारी थे। आदर पाने के लिए थोड़ी दूरी और थोड़ा भय जरूरी होता है। लेकिन जो मनुष्य को खोजने निकला था वह कोई भी दूरी कैसे बर्दाश्त कर सकता था। उसका धर्म तो पर्दा उठाना और हर दूरी समाप्त करना था। कवि कविता और समूह के बीच की जो खाई बच्चन जी ने भरी उसके कई लाभ हुए। आकाश की ओर जाती हुई कविता जमीन पर उतर आई, सिद्धातों के पीछे दौड़ने वाली कविता जीवन से एकाकार हो गई। कॉलेजों तथा लाइब्रेरियों के कमरों में मुक्ति के लिए छटपटाती हुई कविता खुले मैदान में आकर समूह के आमने सामने खड़ी हो गई। बच्चन से पूर्व कविता की स्थिति यह थी कि यदि वह पढ़ी जाती थी तो केवल उन लोगों द्वारा जिन्हें परीक्षा पास करने के लिए विवश होकर उसे पढ़ना पड़ता था और यदि वह सुनी जाती थी तो केवल उनके द्वारा जिन्हें डिनर या चाय के प्रलोभन से उसे सुनना पड़ता था। बच्चन जी ने पहली बार कविता को परीक्षा की विवशता के बजाय जीवन की विवशता बना दिया और फिर वह बेधड़क बेखौफ होठों-होठों घर बाहर घूम-घूमकर गुनगुनाने लगी। हिंदी कविता को उर्दू शायरी की समकक्षता में लोकप्रिय बनाने का एकमात्र श्रेय बच्चन जी को है। आज जो हिंदी कविता की लाखों लाख प्रतियाँ बिकती और छपती हैं (हाँ कुछ लोगों की ज़रूर नहीं बिकती) और नगर नगर, गाँव गाँव रात रात जाग जाग कर हजारों लोगों के बीच जो वह सुनी और सराही जाती हैं-यह सब देन बच्चन जी की ही है। मगर उनकी यह लोकप्रियता राधेश्याम रामायण वाली लोकप्रियता नहीं तुलसी की रामायण वाली लोकप्रियता है।
उन्होंने केवल कविता का ही समाजीकरण नहीं किया है, बल्कि कवि का भी समाजीकरण किया है। वे केवल कवि नहीं, कवि निर्माता भी हैं। अकेले बच्चन जी ने जितने कवि बनाये और कविता पर जितना गहरा एवं स्थायी प्रभाव छोड़ा केवल अज्ञेय जी को छोड़कर पूरी, आधुनिक हिंदी कविता पर उतना स्थायी प्रभाव अन्य किसी कवि ने नहीं छोड़ा है। इस दृष्टि से बच्चन जी एक युग हैं, एक इतिहास हैं। वर्तमान हिंदी कविता जिस भाषा के माध्यम से स्वयं को व्यक्त करती है और आधुनिक गीत जिस शैली का विकसित रूप है उसकी जड़ें न छायावादी कविता में ही हैं और न प्रगतिवादी कविता में ही। उसकी जड़ें प्रेमचन्द के उपन्यासों और बच्चन जी की कविता में ही मिलेंगी। बशर्ते पूर्वाग्रह मुक्त होकर आप उन्हें ढूँढ़ना चाहेंगे।
केवल भाषा तथा गीति शैली की दष्टि से ही बच्चन जी ने युगान्तर उपस्थित नहीं किया है, बल्कि काव्य के मूल्यों की खोज में भी उनका योगदान मौलिक एवं अक्षुण्य है। मूल्यों की तलाश में छायावाद गया था आकाश की ओर या प्रकृति की ओर; प्रगतिवाद दौड़ा था एक सिद्धान्तबद्ध प्राणहीन स्थूलता की ओर। मगर बच्चन जी कहीं गए नहीं-न पूरब न पश्चिम उन्हें काव्य का मूल्य सामने ही खड़ा मिल गया-और उन्होंने जो पाया न वह ब्रह्म था न ब्रह्मांड, न प्रकृति न ईश्वर, न द्यौ न द्यावा, न भूमा-वह मात्र था जीवन सुख की तलाश में भटकता हुआ मनुष्य, उपाधियुक्त मनुष्य नहीं, केवल मनुष्य, जो जीना चाहता है। मानववाद की दुहाई छायावादियों ने भी दी थी, प्रगतिवादियों ने भी दी थी-मगर एक का मानव केवल आत्मा (सूक्ष्म) और दूसरे का केवल शरीर (स्थूल) था। बच्चन ने मनुष्य को टुकड़ों में नहीं देखा, उसे उसकी सम्पूर्णता में ग्रहण किया। ‘निशानिमंत्रण’ मनुष्य के प्यासे हृदय का गीत है और ‘बंगाल का काल’ उसके शरीर का पीड़ित आक्रोश है।
बच्चन जी ने बहुत कुछ लिखा है। मगर इस बहुत कुछ में ऐसा भी बहुत कुछ है जो निरर्थक है। किन्तु इस निरर्थक के बाद जो कुछ सार्थक बच रहता है, वह इतना श्रेष्ठ, इतना प्रभविष्णु, इतना प्राणवान है कि किसी भी साहित्य की प्रथम पंक्ति में स्थान पा सकता है। सूक्ष्मता, सहजता, भावान्वित तथा प्रभाव क्षमता की दृष्टि से ‘निशानिमंत्रण’ हिंदी गीति काव्य की एक अमूल्य निधि है। गीत के विकास की वह अन्तिम परिणति है। इतना छोटा मगर साथ ही इतना गहरा प्रभाव छोड़ने वाला गीत न तो बच्चन से पहले ही लिखा गया और न बाद में। सच पूछिये तो ‘निशानिमंत्रण’ सौ गीतों का एक महाकाव्य है।
हिंदी बच्चन जी के साथ न्याय नहीं कर सकी और उसका एक मात्र कारण रहा है उनकी ईर्ष्या उत्पन्न करने वाली लोकप्रियता। लोकप्रियता का शाप यदि उन्हें न लगा होता तो बच्चन जी ने जो कुछ हिंदी को दिया है उसके आधार पर उनकी गणना पंत, प्रसाद व निराला के साथ ही होती। मगर हमें विश्वास है कि आज नहीं तो कल इतिहास यह गलती जरूर ही सुधारेगा क्योंकि समय किसी अन्याय को ज्यादा सहन नहीं करता।
अब न रही वह मधुशाला
कमलेश्वर
बच्चन जी को याद करना उस युग को याद करना है जिसमें हम आँखें खोल रहे थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तब दिग्गज गुरुजनों की उपस्थिति थी। स्वयं
इलाहाबाद शहर तब पंत, महादेवी और निराला की दीप्ति से दैदीप्यमान था।
विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में तब हिंदी के बच्चन जी और उर्दू के
फिराक साहब मौजूद थे। छात्रों और शोध छात्रों के रूप में उतने नये रचनाकार
उभरे या उभर रहे थे कि उनकी गिनती करूँगा तो पूरा पृष्ठ नामों से भर
जाएगा।
यह उत्तर छायावादी युग था। सन् 34 35 36 में तीन बड़ी कृतियां आ चुकी थीं-‘कामायनी’, ‘गोदान’ और ‘मधुशाला’। उसके बाद की तीन अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियां सामने थीं। पंत की ‘ग्राम्या’ महादेवी की दीपशिखा और निराला की राम की शक्तिपूजा।’ यह परतंत्रा का दौर था स्वाधीनता आंदोलन गांधीजी की राह पर चलकर निर्णायक मोड़ ले चुका था भगतसिंह और चंद्रशेखर जैसे तमाम क्रांतिकारियों की जीवित शहादतें सामने थीं। दूसरा विश्वयुद्ध सिर पर था। यूरोप में फासिज्म का उदय हो चुका था, और सोवियत संघ मार्क्सवादी सिद्धांतों के तहत पूंजीवादी, साम्राज्यवादी नस्लवादी शक्तियों से टकरा रहा था।
कुल मिलाकर यह सोच और साहित्य के संक्रमण का समय था, जिसकी नब्ज पर बच्चन जी की कविता ने हाथ धरा था। छायावादी पारलौकिकता से अलग हटकर लौकिकता के पवित्र अवसाद के जरिए उन्होंने समय के असमंजस को तोड़ा था। हम बच्चन जी की छाया में जब पहुँच, तब तक वे अपने जीवन के श्यामा-समय के ‘एकांत संगीत’ और ‘निशा-निमंत्रण’ से निकलकर ‘मिलन-यामिनी’ तक आ चुके थे। तब हम यूनिवर्सिटी में उनके विद्यार्थी थे।
वे हमारे सेमिनार क्लासेज लिया करते थे। के.पी.यू.सी. में डॉ. रामकुमार वर्मा भी सेमिनार लिया करते थे। मैं के.पी.यू.सी. छात्रावास में तो नहीं रहता था पर उससे संबद्ध था। यहीं के.पी.यू.सी. (कायस्थ पाठशाला यूनिवर्सिटी कॉलेज) छात्रावास में तब कथाकार ओंकारनाथ श्रीवास्तव और कवि अजित कुमार भी थे। कवि राजनारायण बिसारिया तब शोध छात्र के रूप में उसी छात्रावास में थे। ओंकार-अजित ने अमिताभ बच्चन के नाम पर अमिताभ गोष्ठी बना रखी थी। इसमें कहानी कविताएं पढ़ी जातीं और साहित्यिक विमर्श हुआ करता था। ‘अमिताभ पत्रिका निकलती थी जिसके संपादक ओंकार अजित ही थे। सेमिनार (ट्टूटोरियल) क्लोसेज से अलग छात्रावास की इन गोष्ठियों में फिराक, नरेंद्र शर्मा, रामकुमार वर्मा, इलाचंद्र जोशी, प्रकाश चंद्र गुप्ता अंचल आदि सभी आते थे। बच्चन जी तो आते ही थे। हम तब बच्चन जी के सांचे में पक रहे थे। वे न छायावाद से ग्रस्त थे न प्रयोगवाद से त्रस्त थे। पर वे कहां थे, बातों-बातों में बता देते थे। अपनी ही पंक्तियों के सहारे। यह सिलसिला सन् 1952 तक चलता रहा। बहुत से मौके याद आते हैं। बड़ी परेशानियों के दिन थे। लिखा तो शुरू कर दिया पर जीने के लिए कोई भविष्य नहीं था, तब गुरुवर बच्चनजी ने बातों-बातों में गुरुमंत्र दिया था-
यह उत्तर छायावादी युग था। सन् 34 35 36 में तीन बड़ी कृतियां आ चुकी थीं-‘कामायनी’, ‘गोदान’ और ‘मधुशाला’। उसके बाद की तीन अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियां सामने थीं। पंत की ‘ग्राम्या’ महादेवी की दीपशिखा और निराला की राम की शक्तिपूजा।’ यह परतंत्रा का दौर था स्वाधीनता आंदोलन गांधीजी की राह पर चलकर निर्णायक मोड़ ले चुका था भगतसिंह और चंद्रशेखर जैसे तमाम क्रांतिकारियों की जीवित शहादतें सामने थीं। दूसरा विश्वयुद्ध सिर पर था। यूरोप में फासिज्म का उदय हो चुका था, और सोवियत संघ मार्क्सवादी सिद्धांतों के तहत पूंजीवादी, साम्राज्यवादी नस्लवादी शक्तियों से टकरा रहा था।
कुल मिलाकर यह सोच और साहित्य के संक्रमण का समय था, जिसकी नब्ज पर बच्चन जी की कविता ने हाथ धरा था। छायावादी पारलौकिकता से अलग हटकर लौकिकता के पवित्र अवसाद के जरिए उन्होंने समय के असमंजस को तोड़ा था। हम बच्चन जी की छाया में जब पहुँच, तब तक वे अपने जीवन के श्यामा-समय के ‘एकांत संगीत’ और ‘निशा-निमंत्रण’ से निकलकर ‘मिलन-यामिनी’ तक आ चुके थे। तब हम यूनिवर्सिटी में उनके विद्यार्थी थे।
वे हमारे सेमिनार क्लासेज लिया करते थे। के.पी.यू.सी. में डॉ. रामकुमार वर्मा भी सेमिनार लिया करते थे। मैं के.पी.यू.सी. छात्रावास में तो नहीं रहता था पर उससे संबद्ध था। यहीं के.पी.यू.सी. (कायस्थ पाठशाला यूनिवर्सिटी कॉलेज) छात्रावास में तब कथाकार ओंकारनाथ श्रीवास्तव और कवि अजित कुमार भी थे। कवि राजनारायण बिसारिया तब शोध छात्र के रूप में उसी छात्रावास में थे। ओंकार-अजित ने अमिताभ बच्चन के नाम पर अमिताभ गोष्ठी बना रखी थी। इसमें कहानी कविताएं पढ़ी जातीं और साहित्यिक विमर्श हुआ करता था। ‘अमिताभ पत्रिका निकलती थी जिसके संपादक ओंकार अजित ही थे। सेमिनार (ट्टूटोरियल) क्लोसेज से अलग छात्रावास की इन गोष्ठियों में फिराक, नरेंद्र शर्मा, रामकुमार वर्मा, इलाचंद्र जोशी, प्रकाश चंद्र गुप्ता अंचल आदि सभी आते थे। बच्चन जी तो आते ही थे। हम तब बच्चन जी के सांचे में पक रहे थे। वे न छायावाद से ग्रस्त थे न प्रयोगवाद से त्रस्त थे। पर वे कहां थे, बातों-बातों में बता देते थे। अपनी ही पंक्तियों के सहारे। यह सिलसिला सन् 1952 तक चलता रहा। बहुत से मौके याद आते हैं। बड़ी परेशानियों के दिन थे। लिखा तो शुरू कर दिया पर जीने के लिए कोई भविष्य नहीं था, तब गुरुवर बच्चनजी ने बातों-बातों में गुरुमंत्र दिया था-
राह पकड़ तू एक चला चल
पा जाएगा मधुशाला !
पा जाएगा मधुशाला !
आज सोचता हूं तो लगता है कितनी मूल्यवान थी उनकी मधुशाला की यह पंक्ति। तब
भटके हताश और भविष्यहीन दिनों में बेचैनी से भरे मन के लिए
‘मधुशाला’ ‘मधुबाला’ और
‘मधुकलश’ की
पंक्तियां जीवनदर्शन की तरह हुआ करती थीं। युवा मन का जीवन दर्शन-
‘मिट्टी का तन मस्ती का मन
क्षणभर जीवन मेरा परिचय
मेरा घर है अरमानों से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय
मिट्टी का तन मस्ती का मन...
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी
है पड़ा मुझे बनना प्याला
होना मदिरा का अभिमानी
संघर्ष यहां कितना किससे
यह तो सब खेल तमाशा है
वह देख, यवनिका गिरती है
समझा, कुछ अपनी नादानी !
छिपे जाएंगे हम दोनों ही
लेकर अपने अपने आशय
मिट्टी का तन, मस्ती का मन
क्षणभर, जीवन मेरा परिचय।
क्षणभर जीवन मेरा परिचय
मेरा घर है अरमानों से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय
मिट्टी का तन मस्ती का मन...
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी
है पड़ा मुझे बनना प्याला
होना मदिरा का अभिमानी
संघर्ष यहां कितना किससे
यह तो सब खेल तमाशा है
वह देख, यवनिका गिरती है
समझा, कुछ अपनी नादानी !
छिपे जाएंगे हम दोनों ही
लेकर अपने अपने आशय
मिट्टी का तन, मस्ती का मन
क्षणभर, जीवन मेरा परिचय।
यह न हालावाद था, न रोमांटिकता...
एक बार बहुत गंभीर क्षणों में बच्चन जी ने कहा था कि उनकी आत्मकथा ही सारी कविताओं में मौजूद है...शुष्क जीवन-दर्शन में क्या रखा है ? वह तो ज्ञानियों की पाठशाला है...मेरे पास दर्शन नहीं जीवन ही है।’ तभी सुमित्रानंदन पंत ने लिखा था-‘बच्चन की मदिरा चैतन्य की ज्वाला है, जिसे पीकर मृत्यु भी जीवित हो उठती है। उनका सौंदर्य बोध,...अम्लान एवं अनंत यौवन है...।’
एक बार बहुत गंभीर क्षणों में बच्चन जी ने कहा था कि उनकी आत्मकथा ही सारी कविताओं में मौजूद है...शुष्क जीवन-दर्शन में क्या रखा है ? वह तो ज्ञानियों की पाठशाला है...मेरे पास दर्शन नहीं जीवन ही है।’ तभी सुमित्रानंदन पंत ने लिखा था-‘बच्चन की मदिरा चैतन्य की ज्वाला है, जिसे पीकर मृत्यु भी जीवित हो उठती है। उनका सौंदर्य बोध,...अम्लान एवं अनंत यौवन है...।’
पा गया तन आज मैं मन खोजता हूं
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
ध्वनि की यही तलाश बच्चन जी ने अपने शिष्यों को सौंपी थी-प्रतिध्वनियों के
कोलाहल के बीच ध्वनि ! वे तब दिल्ली आ चुके थे। विदेश मंत्रालय में विशेष
अधिकारी के रूप में। मैं दूरदर्शन में पहुँचा, तो उन्हें प्रणाम करने 13,
विलिंग्डन क्रीसेंट गया था। वे बहुत प्रसन्न थे। फिर जब ‘जार्ज
पंचम
की नाक’ कहानी लिखने के बाद दूरदर्शन की नौकरी छोड़ने की नौबत
आई तो
बेहद परेशानी में मैं फिर बच्चन जी के पास गया। तब उन्होंने पूछा था कि
तुम्हारी आत्मा क्या कहती है ? मैंने कहा था, ‘सर। आत्मा तो यह
अपमान बर्दाश्त नहीं करती, पर जिंदा भी तो रहना है...’ तो बच्चन
जी
ने कहा था-‘अग्निपथ ! अग्निपथ ! याद है ? जाओ, उसे एक बार फिर
पढ़ो...और अपना निर्णय लो...’ उनकी कविता की वे पंक्तियां आज भी
मुझे याद हैं :
अग्निपथ ! अग्निपथ ! अग्निपथ !
वृक्ष हो भले खड़े हों, घने, हों बड़े,
एक पत्र छांह भी मांग मत, मांग मत, मांग मत !
तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी
तू न मुड़ेगा कभी। कर शपथ, कर शपथ,
कर शपथ।
यह महान दृश्य है-चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ।
अग्निपथ ! अग्निपथ ! अग्निपथ !
वृक्ष हो भले खड़े हों, घने, हों बड़े,
एक पत्र छांह भी मांग मत, मांग मत, मांग मत !
तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी
तू न मुड़ेगा कभी। कर शपथ, कर शपथ,
कर शपथ।
यह महान दृश्य है-चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ।
अग्निपथ ! अग्निपथ ! अग्निपथ !
और इसी गुरुपंथ वाले ‘अग्निपथ’ पर चलते-चलते अग्नि
परीक्षा की
घड़ी आ गयी थी। बच्चन जी की आत्मकथा ‘क्या भूलूं क्या याद
करूं’ के श्रीमती यशपाल (प्रकाशवती पाल) प्रसंग को लेकर बड़ी
कठिन
स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। यह उन दिनों का प्रसंग है जब यशपाल जी से उनकी
शादी नहीं हुई थी। पर क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण प्रकाशवती जी लाहौर
से भागकर (पढ़ने के लिए) इलाहाबाद आई थीं और बच्चन जी के परिवार के साथ
रहती थीं। ‘वह पगध्वनि मेरी पहचानी’ वाली बच्चन जी की
पंक्ति
से वह सारा प्रसंग जुड़ा हुआ था। उस समय मैं मुंबई में सारिका में था।
अपने छात्र जीवन में मैं क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी का हरकारा (कोरियर
ब्वॉय) रहा था।
तब यशपाल जी पार्टी के कमांडर इन चीफ थे। बच्चन जी मेरे शिक्षा गुरु थे और यशपाल जी मेरे दीक्षा गुरु। प्रकाशवती जी फतेहगढ़ जेल में यशपालजी से शादी कर चुकी थीं। ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ के प्रसंग ने तूल पकड़ लिया था। भाभी प्रकाशवती अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर करने को तत्पर थीं। बच्चन जी अपने सापेक्ष सत्य से डिगने को तैयार नहीं थे। वैसे यशपाल जी बिल्कुल बीतरागी थे, पर मामला बहुत तूल पकड़ता जा रहा था। मेरी और डॉ. धर्मवीर भारती की हालत बहुत नाजुक थी, क्योंकि हमें बीच में पड़ना पड़ा था...मैं तो बहुत बड़े धर्म संकट में फंसा हुआ था। तब बच्चन जी ने मुझे उबार लिया था। कहा था-‘जो वे लिखना चाहें, लिखें....तुम्हें छापना पड़े तो छाप दो...’ और शायद वे धीरे-से गुनगुनाये थे-अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला।’
तब यशपाल जी पार्टी के कमांडर इन चीफ थे। बच्चन जी मेरे शिक्षा गुरु थे और यशपाल जी मेरे दीक्षा गुरु। प्रकाशवती जी फतेहगढ़ जेल में यशपालजी से शादी कर चुकी थीं। ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ के प्रसंग ने तूल पकड़ लिया था। भाभी प्रकाशवती अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर करने को तत्पर थीं। बच्चन जी अपने सापेक्ष सत्य से डिगने को तैयार नहीं थे। वैसे यशपाल जी बिल्कुल बीतरागी थे, पर मामला बहुत तूल पकड़ता जा रहा था। मेरी और डॉ. धर्मवीर भारती की हालत बहुत नाजुक थी, क्योंकि हमें बीच में पड़ना पड़ा था...मैं तो बहुत बड़े धर्म संकट में फंसा हुआ था। तब बच्चन जी ने मुझे उबार लिया था। कहा था-‘जो वे लिखना चाहें, लिखें....तुम्हें छापना पड़े तो छाप दो...’ और शायद वे धीरे-से गुनगुनाये थे-अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला।’
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