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मेघदूत

कालिदास

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3613
आईएसबीएन :9788171829477

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कालिदास कृत मेघदूत

Meghdoot

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संस्कृत भाषा ही आर्यों की मातृ-भाषा थी। कहतें हैं-उस समय संस्कृत भाषा को ही लोक-व्यहार के प्रयोग में लाया जाता था। इसलिए संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वानों की भी कमी नहीं थी। कुछ विद्वान वीणा पाणि मां सरस्वती के कृपा-पात्र भी थे, उनमें से एक कवि कालिदास का नाम भी आता है। संचार के साधनों में पशु-पक्षी भी आते थे। इसलिए विरही यक्ष का संदेश-वाहक कवि ने मेघ (बादल) को बनाया जिसमें विरह-व्यथा के मार्मिक वर्णन का प्राकृतिक चित्रण भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

तारक नामक असुर का वध भगवान शंकर के अंश द्वारा ही सम्भव था। इसलिए परम विरक्त शिवजी को वैवाहिक बंधन में बंधने हेतु कामदेव को भेजना, शिव-कोप से कामदेव का भस्म होना, पार्वतीजी के अखंड तप से शिव का प्रसन्न होना, पार्वती-विवाह और काम का पुनर्जीवित होना, शिव का दाम्पत्य सुख-भोग और सुकुमार (स्वामी कार्तिकेय) की उत्पत्ति, पुनः कुमार के सेनापतित्व में तारक असुर का वध आदि का वर्णन ‘कुमार संभवम्’ काव्य में बहुत ही सरस एवं अलंकृत भाषा में किया गया है।
महाकवि कालिदास के उक्त दोनों काव्य-ग्रन्थों का एकल समावेश मेघदूत नामक अनुवाद-पुस्तक में किया गया है।

भूमिका


किसी ग्रन्थ की महत्ता और उपादेयता उसकी लोकप्रियता पर निर्भर करती है। विद्वान और अविद्वान दोनों को ही ग्रन्थ समान रूप से प्रिय होते हैं। वे ही ग्रन्थ प्रशंसनीय होते हैं और उन्हीं की महत्ता तथा उपादेयता भी स्वतः सिद्ध है।
संस्कृत साहित्य और कालिदास का सम्बन्ध अटूट है। संस्कृत साहित्य का सारा सौष्ठव बहुत कुछ इन ग्रन्थों पर निर्भर है। यदि संस्कृत साहित्य से कालिदास को हटा दिया जाये तो उसमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के रहते हुए भी संस्कृत साहित्य की लोकप्रियता में कमी आ जाएगी।

कालिदास अथवा उनकी कृतियों के प्रशंसक भारत ही में  नहीं अपितु विश्व-भर में पाये जाते हैं। अमेरिकी विद्वान राइडर ने उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए अन्त में यही कहा था, ‘कालिदास महान् साहित्यकार थे।’ जर्मन कवि गेटे ने तो उनकी प्रशंसा में बहुत कुछ कह डाला था और कालिदास की अनन्य कृति ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ को पढ़कर उनके मुखे से बरबस निकल पड़ा था ‘यदि तुम स्वर्ग और मृत्युलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है—‘शाकुन्तलम’।’

कालिदास का ‘मेघदूत’ यद्यपि छोटा-सा काव्य-ग्रन्थ है किन्तु इसके माध्यम से प्रेमी के विरह का जो वर्णन उन्होंने किया है उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना असंभव है। आषाढ़ और श्रावण का प्रेम और रति के प्रसंग में बड़ा महत्त्व माना गया है। न केवल संस्कृत में अपितु कालान्तर में उर्दू कवियों ने भी इस पर अपनी लेखनी चलायी है। किसी उर्दू कवि ने कहा है—


तौबा की थी, मैं न पियूंगा कभी शराब।
बादल का रंग देख नीयत बदल गयी।।


कालिदास ने जब आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर मेघ उमड़ते देखे तो उनकी कल्पना ने उड़ान भरकर उनसे यक्ष और मेघ के माध्यम से विरह-व्यथा का वर्णन करने के लिए ‘मेघदूत’ की रचना करवा डाली। उनका विरही यक्ष अपनी प्रियतमा के लिए छटपटाने लगा और फिर उसने सोचा कि शाप के कारण तत्काल अल्कापुरी लौटना तो उसके लिए सम्भव नहीं है। इसलिए क्यों न संदेश भेज दिया जाए। कहीं ऐसा न हो कि बादलों को देखकर उनकी प्रिया उसके विरह में प्राण दे दे। और कालिदास की यह कल्पना उनकी अनन्य कृति बन गयी।

‘कुमार संभवम्’ में यद्यपि कालिदास का कथानक तारक के अत्याचार से देवताओं को मुक्ति दिलाने का है। किन्तु इसमें भी शिव और पार्वती का जो प्रेमाख्यान है, वही मुख्य है। इस प्रसंग में उन्होंने स्वयं कहा है—‘तथाविधं प्रेम पतिश्च तादृशः’ पार्वती का जैसा प्रेम और शंकर जैसा पति, ये दोनों ही अलभ्य हैं। इसी आधार पर उन्होंने ‘कुमार संभवम्’ की रचना कर डाली।

पहली बार जब शंकर भगवान तपस्या कर रहे थे तो हिमालय के निर्देश पर उनकी कन्या पार्वती उनकी सेवा-सुश्रूषा करने लगी। क्योंकि नारदजी ने उनके मन में शंकर के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया था। किंतु जब शिवजी कामदेव का दहन कर अपनी तपस्या बीच में ही छोड़कर वहाँ से चले गये तो पार्वती को लगा कि वह रूप किस काम का जो अपने प्रिय को रिझा न सके। तब उन्होंने तपस्या द्वारा अपने प्रिय को रिझाने का संकल्प किया और उसके अनुसार वे कठोर तप में निरत हुई।
पार्वती की तपस्या और शिवजी का छद्म रूप में आकर उसको शिव से विरत करना और अन्य में स्वयं को प्रकट कर उसका पाणिग्रहण करना तथा उसके साथ प्रेम-लीला कर कुमार की उत्पत्ति करना, यही इसका मुख्य उपादेय है। कुमार की देवसेना का सेनापतित्व ग्रहण कर तारक राक्षस से देवताओं का त्राण करना, इसका अपर उपादेय माना जाता है। यही ‘कुमार संभवम्’ की कहानी है।

‘मेघदूत’ और ‘कुमार संभवम्’ का यही हिन्दी रुपान्तर डायमण्ड संचालक नरेन्द्रजी की अन्यतम इच्छा के आधार पर पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस श्रृंखला में कालिदास की दो अन्य कृतियां ‘रघुवंश’ और ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ पहले प्रकाशित हो चुकी हैं तथा भविष्य में उनके अन्य नाटकों के सरलीकरण भी शीघ्र ही पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जाएगा।

-अशोक कौशिक

उद्धरण


अलकापुरी की कन्यायें इतनी सुन्दर हैं कि देवता भी उनको प्राप्त करने के लिए तरसते हैं। वे कन्यायें मन्दाकिनी के जल की फुहार से शीतल पवन में, तट पर स्थित कल्पवृक्ष की छाया में अपनी तपन मिटाती हुई, अपनी मुट्ठियों में रत्न लेकर सुनहलें बालों में डालकर लुका-छिपी खेला करती हैं।

अलकापुरी के प्रेमीजन संभोग के लिए अपने चंचल हाथों से प्रेमिकाओं की कमर की गांठें खोलकर उनकी ढीली साड़ियों को हटाने लगते हैं तब वे प्रेमिकाएं लज्जा से इतना सकुचा जाती हैं कि उस समय कुछ और वस्तु न पाकर मुट्ठी में गुलाल भरकर जगमगाते रत्नदीपों पर फेंकने लगती हैं। किन्तु उनका इस प्रकार गुलाल फेंकना व्यर्थ सिद्ध होता है, क्योंकि उससे दीपों की ज्योति न बुझती है और न कम हो सकती है।

अलकापुरी की कामिनियां जब रात्रि के समय लम्बे-लम्बे डग भरती हुई जल्दी-जल्दी में अपने-अपने प्रेमियों के पास जाने लगती हैं तो उस समय उनकी चोटियों में गुंथें हुए कल्पवृक्षों के फूल खिसककर निकल जाते हैं। उनके कानों के सोने के कमल गिर जाते हैं। हारों के टूटे हुए मोती बिखर जाते हैं। दिन निकलने पर इन वस्तुओं को मार्ग में बिखरा हुआ देखकर लोग समझ जाते हैं कि कामिनियां किस ओर को अपने प्रेमियों के पास गयी होंगी।

महादेवजी के पार्वती के साथ रहते हुए जब धीरे-धीरे पार्वती को भी सम्भोग का रस मिलने लगता है, तो उनकी झिझक जाती रही। उसी अवस्था में जब महादेवजी उनको कसकर अपनी छाती से चिपका लेते तो वे भी अपने दोनों हाथों को कस लेतीं। शिवजी जब उनके ओठ का चुम्बन लेने लगते, तो वे अपना मुख हटाती नहीं थीं और जब शंकरजी उनकी करधनी पकड़कर खींचते, तो आधे मन से केवल दिखावे के लिए उनका हाथ रोकने का बहाना करतीं।

मदिरा पान कर लेने पर पार्वतीजी की आंखें इतनी चंचल हो जातीं मानो नर्तन कर रही हों। मद के कारण उनका स्वर खंडित हो जाता, मुख पर पसीने की बूंदें झलक पड़ती और बिना बात के ही वह हंस देतीं। उनके ऐसे मुख को भगवान शंकरजी उस समय चूमते नहीं  थे, अपितु बहुत देर तक अपलक अपनी आंखों से ही उस सुंदरता का पान करते रहते थे।


मेघदूतम्


पूर्वमेघ


यक्ष का प्रमाद


कुबेर की राजधानी अलकापुरी में एक यक्ष की नियुक्ति यक्षराज कुबेर की प्रातःकालीन पूजा के लिए प्रतिदिन मानसरोवर से स्वर्ण कमल लाने के लिए की गयी थी। यक्ष का अपनी पत्नी के प्रति बड़ा अनुराग था, इस कारण वह दिन-रात अपनी पत्नी के वियोग में विक्षिप्त-सा रहता था। उसका यह परिणाम हुआ कि एक दिन उससे अपने नियत कार्य में भी प्रमाद हो गया और वह समय पर पुष्प नहीं पहुंचा पाया। कुबेर को यह सहन नहीं हो सका और उन्होंने यक्ष को क्रोध में एक वर्ष के लिए देश निकाल दिया और कहा दिया कि जिस पत्नी के विरह में उन्मत्त होकर तुमने उन्माद किया है अब तुम उससे एक वर्ष तक नहीं मिल सकते।

अपने स्वमी का शाप सुनकर तो यक्ष बड़ा छटपटाया, उसका सारा राग-रंग जाता रहा। अपने शाप की अवधि बिताने के लिए उसने रामगिरि पर्वत पर स्थित आश्रमों की शरण ली। उन आश्रमों के समीप घनी छायावाले हरे-भरे वृक्ष लहलहाते थे और वहां जो तालाब तथा सरोवर थे उनमें कभी सीताजी ने स्नान किया था। इस कारण उनका महत्त्व बढ़ गया था।
रामगिरि से अलकापुरी दूर थी। अपनी पत्नी का एक क्षण का भी वियोग जिसके लिए असह्य था, वह यक्ष अब इन आश्रमों में रहते हुए सूखकर कांटा हो गया था। उसके शरीर पर जितने आभूषण थे वह ढीले होकर इधर-उधर गिरने लगे थे। इस प्रकार वियोग में व्याकुल उस यक्ष ने कुछ मास तो उन आश्रमों में किसी-न-किसी प्रकार बिताए, किन्तु जब गर्मी बीती और आषाढ़ का पहला दिन आया तो यक्ष ने देखा कि सामने पहाड़ी की चोटी बादलों से लिपटी हुई ऐसी लग रही थी कि कोई हाथी अपने माथे की टक्कर से मिट्टी के टीले को ढोने का प्रयत्न कर रहा है।

उन बादलों को देखकर यक्ष के मन में प्रेम उमड़ पड़ा। वह बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा उन बादलों को एकटक देखता ही रहा। क्योंकि बादलों को देखकर जब जो जन सुखी हैं और जो अपनी पत्नी के समीप हैं, उनका ही मन डोल जाता है, फिर उस विरह-व्याकुल यक्ष की तो बात ही क्या है ! वह बेचारा तो बहुत दूर देश में पड़ा हुआ अपनी पत्नी के वियोग में तड़प रहा था।

 


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