लोगों की राय

ओशो साहित्य >> ध्यान और प्रेम के मसीहा

ध्यान और प्रेम के मसीहा

स्वामी ज्ञानभेद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3612
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

11 पाठक हैं

ध्यान और प्रेम के मसीहा

DHYAN AUR PREM KE MASIHA

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैं तो एक कागजी फूल था, वह मुझे कौन खुशबू से भर गया ? मैं कहाँ हूँ ? मुझे खबर नहीं, मुझे कौन छू के गुजर गया ? ये गुलाब भी मेरा अक्स है, यह सितारा भी मेरा अक्स है, मैं कभीं जमीं में दफन हूं, मैं कभी आसमां से गुजर गया।

-बशीर बद्र

इसके बारे में


एक फक्कड़ मसीहा: ओशो के पांच खण्डों का ओशो प्रेमियों ने जो हार्दिक स्वागत किया है, मैं इसके लिए उनका आभारी हूं। बिहार, म.प्र., राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब तथा उ.प्र. के कई प्रेमी पाठकों न पत्रों एवं दूरभाष के द्वारा अपनी हृदय की भावनाएं सम्प्रेषित कीं। मैं उनके प्रेम के प्रति कृतज्ञ हूँ और उन्हें नमन करता हूं।
प्रस्तुत ग्रंथ ‘ध्यान और प्रेम के मसीहा: ओशो’ की विशेषता है कि इसमें ओशो के बाल सखा श्री श्याम सोनी से हुई विस्तृत वार्ता सम्मल्ति है। श्री सोनी ने सक्कर नदी और उसके आस-पास के स्थलों में मुझे स्वयं ले जाकर ओशो के अनछुए सर्वथा नए प्रसंग बतलाये हैं। इस बात की पुष्टि गाडरवारा के कई संन्यासियों ने की कि ओशो सोनी जी पर इतना प्रेम और विश्वास करते थे कि उन्होंने उन्हें बम्बई आकर अपने सचिव का भार संभालने का आमंत्रण दिया था पर अपनी माताजी की अस्वस्थता के कारण सोनी जी गाडरवारा (गोटेवाला) नहीं छोड़ सके। सोनी जी अपनी ध्यानवस्था में अब भी ओशो को सदेह अपने पास अनुभव करते हैं, इसका उन्होंने एक दुर्लभ प्रसंग सुनाया। उसका चरित्र मुझे बहुत कुछ विमलकीर्ति जैसा लगा। इस खण्ड में ‘ओशो का मार्ग रहित मार्ग’ का लेख ओशो प्रेमियों को विकसित, प्रेरित व अनुप्राणित करेगा, यह विश्वास है।

कई प्रेमी पाठकों के आग्रह पर मैं स्वयं ओशो से जुड़ने की अपनी दस्तान की पहली कड़ी प्रस्तुत कर रहा हूं। इस बारे में मैं केवल यही कह सकता हूँ कि मुझ अपात्र पर ओशो और अस्तित्व का जो अनुग्रह बरसा, उससे मेरा जीवन धन्य हो गया। जो आनन्द मुझे मिला है, वही आप सभी को इस ग्रंथ द्वारा बांट देना चाहता हूं।
ओशो हम सभी को अपना सपना सौंप गये हैं, जिससे प्रत्येक संन्यासी का दायित्व हो जाता है कि वह स्वयं आनंदित होकर उस आनन्द को अपने चारों ओर बांटते हुए, ओशो के समग्र जीवन में क्रांति के सपने को पूरा करने के लिए नींव का पत्थर बनने के लिये तैयार रहे। चार-छ: संन्यासी आपस में मिलकर प्यारे ओशो की चर्चा करते हुए सत्संग द्वारा अपने को किस प्रकार विकसित करें, इसके लिए मैं ओशो को तन, मन, प्राणों से समर्पित ओशो के पुराने संन्यासी, अपने सखा व पथ प्रदर्शक स्वामी धर्मवेदान्त के साथ हुए विभिन्न सत्संगों की रोचक रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहा हूं, जो अनेक प्रेमी मित्रों के संदेहों का निवारण करते हुए उन्हें आनंदित एवं विकसित करेगी।

ओशो के विभिन्न अंग्रेजी प्रवचनों से चुने उनके बहुमूल्य अमृत को हिन्दी अनुवाद के साथ भी इस बार प्रस्तुत किया जा रहा है, जिन्हें कतिपय कठिनाइयों के साथ द्वितीय खण्ड में प्रस्तुत नहीं किया जा सका था। ओशो की जीवनी, जो कथा-उपन्यास शैली में ‘एक फक्कड़ मसीहा: ओशो’ के नाम से लिख रहा था, उसका सातवां और अंतिम भाग इसी वर्ष पूर्ण हुआ है। उसके पांच खंड डायमण्ड पॉकेट बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। तथा छठा भाग शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। अन्य दो खण्ड भी वर्ष 1999 तक आप तक पहुंचेंगे।
ओशो का कार्य करते हुए मैं ध्यान और प्रेम की मस्ती में आनंदित हूं, और यही आनंद आपको भी मिले, यह अस्तित्व से प्रार्थना है।
अंत में मैं डायमण्ड पॉकेट बुक्स के प्रबंध निर्देशक श्री नरेन्द्र कुमार के प्रति अनुगृहीत हूं जो ओशो साहित्य को इतने सुंदर व कलात्मक रूप में आप तक पहुंचाने में प्रारम्भ ही से प्रतिबद्ध हैं और इस पुस्तक का भी प्रकाशन कर रहे हैं।

विनीत
स्वामी ज्ञानभेद

ओशो के बाल सखा श्री श्याम सोनी से एक यादगार भेंट


ओशो ने अपने बचपन के मित्रों में कनछेदी सुकुल, श्याम सोनी तथा सुखराज का नाम कई बार लिया है। उनकी माता जी ने भी अपने संस्मरणों में श्याम सोनी का उल्लेख कई बार किया है। श्याम सोनी उनके घर के पड़ोस में ही रहते थे और ओशो परिवार में एक सदस्य के रूप में रहते हुए परिवार के छोटे-मोटे कार्य करते रहते थे। परिवार के लिए सौदा सुलभ लाना, ओशो के छोटे भाई-बहिनों के अस्वस्थ होने पर उन्हें डॉक्टर को दिखाना जैसे छोटे-बड़े कार्य वह स्वेच्छा से स्वयं करते रहते थे। वह आयु में ओशो से लगभग एक वर्ष बड़े थे इसलिए अन्य मित्रों की अपेक्षा वह उनका सम्मान करते हुए उन्हें अपना बड़ा भाई जैसा ही मानते थे।

पिछली बार गाडरवारा जाने पर उनके दो सप्ताह के लिए गोटे वाला चले जाने के कारण उनसे भेंट नहीं हो पाई थी। इस बार गाडरवारा जाने पर उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ठहरने का स्थान था-वही प्रभुनिवास, जहां रहते हुए ओशो के ध्यान के कमरे में ध्यान करने का सुअवसर भी प्राप्त था।

स्नान आदि करने के बाद एक ओशो संन्यासी के साथ मैंने सोनी जी के घर पर जाकर दस्तक दी थी। वह अपने कमरे में भोजन करने के बाद विश्राम कर रहे थे। सूचना मिलते ही उन्होंने मुझे अपने कमरे में ही बुलवा लिया। मैंने उन्हें ‘एक फक्कड़ मसीहा- ओशो’ का हाल ही में प्रकाशित भाग-2 तथा ‘ओशो-ही-ओशो’ पुस्तकें भेंट करते हुए अपने आने का उद्देश्य बताया। पुस्तकें उलटते-पलटते हुए उन्होंने कहा- ‘‘स्वामी जी ! मैं प्राय: किसी को अपना साक्षात्कार देने से बचता हूं, क्योंकि मैं जो बात जिस रूप में कहता हूं, साक्षात्कार लेने वाले उसे अपनी दृष्टि से भिन्न रूप देकर प्रकाशित कर देते हैं। यहां तक कि ‘ज्योतिशिखा’ और ‘युक्रान्त’ ने भी ओशो के संबंध में मेरे द्वारा बताई बातों को ठीक उसी रूप में प्रस्तुत नहीं किया, जैसा कि मैंने बताया था। ओशो पर मेरे लिखे लेख में भी उन्होंने कलम चलाकर उसे यथावत नहीं रहने दिया।
मैं उनकी पीड़ा महसूस करते हुए उन्हें आश्वस्त करता हुआ बोला- ‘मैं ओशो पर लिखे यह ग्रंथ जिन्हें मैं समझता हूं कि किसी अदृश्य शक्ति ने मुझमें प्रवेश कर मुझसे लिखवाये हैं, आपके पास छोड़ जा रहा हूं। इन्हें पढ़कर यदि आप मुझे अपना साक्षात्कार देने का पात्र समझें तो कल सुबह मैं पुन: आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। मैं चाहता था कि आप मेरे साथ स्वयं अक्कर नदी और उसके आस-पास के स्थलों पर चलकर उन प्रसंगों को सुनाने की कृपा करें, जिसमें आप ओशो के साथ उनके साक्षी रहे हैं।

सोनी जी कुछ देर मेरे दिये ग्रंथों के पृष्ठ उलटते और यत्र-तत्र उन्हें पढ़ते हुए कुछ देर बाद सहज भाव से स्वयं ही वार्ता का सूत्रपात करते हुए बोले, ‘‘ओशो को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि का उल्लेख करना आवश्यक है, जिसमें ओशो पले और बड़े हुए। अपने परिवार में रहते हुए ओशो का तीन धाराओं से एक साथ परिचय हुआ, वह थीं- धर्म, राजनीति और साहित्य। उनके पिता जी का रुझान धर्म की ओर था। वह नित्य दिगम्बर जैन मंदिर जाते थे और रोज ध्यान करने के साथ जैन शास्त्रों का पठन-पाठन भी करते थे। उनके छोटे चाचा शिखरचंद की रुचि राजनीति में थी। वह कांग्रेस आंदोलन में जेल भी गए थे और उनके पिता जी भी गांधी जी के भक्त होने के कारण कांग्रेसी भी थे। उनके बड़े चाचा अमृतलाल की रुचि साहित्य में थी। वह स्वयं कविताएं भी लिखते थे। ओशो ने जैन शास्त्रों का ही नहीं, सभी धर्मो के गाडरवारा में उपलब्ध धर्मग्रंथों का अध्ययन किया। पर उनकी प्रवृत्ति संदेह और शंकाएं उठाने की थी। वह अपने पिता जी से भी जैन शास्त्रों में उल्लिखित रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर तर्क-वितर्क करते थे। उनका मानना था कि जो धर्म शंकाओं का समाधान नहीं कर सकता, संदेह का निवारण नहीं कर सकता, उस पर श्रद्धा हो कैसे सकती है ? श्रद्धा तो तभी जन्मती है, जब सारे संदेह दूर हो जायें। गाडरवारा में उपदेश देने कोई हिन्दू सन्यासी भी आ जाये तब भी वह ऐसे प्रश्न उठाते थे जिनका उत्तर देना उनके लिए कठिन हो जाता था। हम दोनों ने स्वामी दयानंद की ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी पढ़ा था और आर्य समाज के अधिवेशनों में उनके प्रचारकों के लेक्चर भी सुने थे। आर्य समाज को हम लोग सुधारवादी आंदोलन तो मानते थे पर वेदों के अंधाअनुयायी होने के कारण तथा यज्ञों में घी सामग्री के दुरुपयोग के विरुद्ध उनकी आलोचना भी करते थे। वह कहा करते थे कि सभी धर्मों का इतिहास हिंसा और शोषण का इतिहास है। कर्मवाद का सिद्धान्त गरीबों को गरीब बने रहने के लिए, उन्हें अपने में संतुष्ट और राजी रखने का एक फार्मूला है।

‘‘वह कहा करते थे कि धर्म में रूढ़िवादिता और कट्टरता नहीं होनीं चाहिये। ईसाइयों और मुसलमानों द्वारा वह लालच या तलवार के बल पर किये गए धर्मान्तरण को बर्बर और अमानुषिक मानते थे।’’

दो क्षण रुककर उन्होंने कहा- ‘‘मैं धर्म के संबंध में उनके तब के विचारों से आपको इसलिए अवगत करा रहा हूँ, क्योंकि हाई स्कूल में आने पर उन्होंने राजनीति और साहित्य को छोड़कर धर्म का मार्ग ही चुना था, उन दिनों कभी दद्दा जी अस्वस्थ होने पर अपने मित्र श्री भागीरथ प्रसाद वैद्य के पास जाते थे और दवा लेने के दौरान रजनीस जी उनसे प्रश्न कर-कर के उन्हें परेशान कर देते थे। उनकी अच्छाई यह थी कि वह निरुत्तर होने पर स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेते थे कि वह उसका उत्तर नहीं जानते। इसलिए जब कभी कस्बे में शंकराचार्य जी या कोई अन्य संत आता तो वैद्य जी स्वयं रजनीश को बुलाकर उनसे उनकी भेंट करवाते थे। वह शास्त्रों और धर्म ग्रंथों के उद्धरण देकर उनसे भी ऐसे-ऐसे प्रश्न पूंछते थे कि उन्हें उत्तर देते न बनता था और वे उन्हें नास्तिक कहकर उन्हें झिड़क देते थे। पर झिड़की का बुरा न मानकर उनसे रजनीश कहते थे- ‘‘मैं नास्तिक हूं –यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है। या तो आप उसका ठीक-ठीक उत्तर दीजिये, वरना कह दीजिये-इसका उत्तर आप नहीं दे सकते।’’ वह इस बात पर और बिगड़ उठते थे और हम दोनों उसका मजा लेते थे।

कुछ देर मौन रहने के बाद जैसे वह अतीत की पुस्तक के बर्फ उलटते हुए बोले - ‘‘और हाई स्कूल से नहीं, धर्म के बारे में तो उनकी जिज्ञासा शुरू से ही थी। जब वह मिडिल में पढ़ रहे थे तभी उन दिनों उन्होंने वेदान्त पूरा पढ़ लिया था और उनके अंदर अनेक जिज्ञासाएं उठी थीं- कि ईश्वर क्या है ? धर्म क्या है ? मृत्यु के बाद क्या है ? निर्भयता की तो वह प्रतिमूर्ति थे। अक्कर नदी के मरघट में हम लोग रात बारह-बारह बजे तक टार्च लेकर घूमते रहते थे। अंधेरे में जब किसी चीज से ठोकर लग जाती थी तो वह तुरन्त टार्च जलाकर देखते थे। कभी कोई हड्डी का टुकड़ा या जब कभी मुर्दे की खोपड़ी से ठोकर लग जाने पर वह कहते थे- ‘देखो सोनी ! यह रहा हमारे भय का भूत। इसी से हम डर भी सकते थे। पर यह बेचारा खुद ठोकरें खा रहा है, यह भला हम लोगों को कैसे डरा सकता है ? और असली बात यह है कि हमारा अज्ञान ही हमारा भय है।’ इस प्रकार उन्होंने हम लोगों को वस्तुओं के भय से मुक्त किया।

मरने के बाद क्या होता है ? यह जानने की उनकी तीव्र अभीप्सा थी। इसलिए इस बात की पुष्टि करने के लिए कि मर कर व्यक्ति भूत-प्रेत या जिन्न बनता है या नहीं, वह कब्रिस्तान और मरघट पर अकेले या हम लोगों के साथ घूमा करते थे। यही जिज्ञासा उन्हें अध्यात्म की ओर ले आई। एक दिन वह बोले- ‘सोनी ! जब मरने के बाद दुष्टात्माएं प्रेत योनि में जाती हैं तो निश्चित ही अच्छी आत्माएं होती होंगी, जो सत्कार्य में सहायता करती हैं। उस दिन देख लो, जब हमारा नया बना घर एकाएक गिरा, तो दो दिन पहले हम लोग उस घर में प्रवेश करनेवाले थे। पर न जाने किस अज्ञान प्रेरणा से हम लोगों ने एक सप्ताह बाद प्रवेश करने का निश्चय किया। वह निश्चित ही कोई सद्आत्मा रही होगी’ जिसने हम सभी को गृह- प्रवेश करने से रोक दिया। और मैं जानता था कि वह जिद रजनीश की ही थी कि घर में एक सप्ताह बाद प्रवेश किया जाए।
एकाएक मैंने प्रश्न किया- ‘‘अच्छा सोनी जी ! भगवान आपमें, कनछेदी सुकुल और सुखराज में किसे सबसे अधिक पसंद करते थे और किसके साथ सबसे अधिक समय गुजारते थे ?’’

सोनीजी ने तुरन्त उत्तर दिया-‘‘मैं ही उनका अच्छे बुरे हर समय का साथी था। सुखराज से तो दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही रही। एक बार हम दोनों लाइब्रेरी से रात घर लौट रहे थे। स्कूल में सुखराज से उनका झगड़ा हो गया था। सुखराज ने भगवान को देख लेने की धमकी दी थी। सुखराज ने एक और बलिष्ठ लड़के इन्द्रदेव चोपड़ा के साथ हम दोनों को छड़ी से पीटा। भगवान ने मुझ पर किया वार अपने ऊपर झेलकर छड़ी चोपड़ा से छीनकर उसके दो टुकड़े कर एक ओर फेंक दी। मैंने पूछा भी- ‘‘तुमने बदला नहीं लिया ?’’
उन्होंने कहा- ‘‘बैर से बैर बढ़ता है और क्षमा से बैर का शमन होता है। सुखराज बहुत शर्मिन्दा हुआ पर उन्होंने उसे अपनी छाती से चिपटा लिया।’’
कहां तो सोनी जी संस्मरण सुनाने में हिचक रहे थे और कहां वह स्वयं संस्मरणों के अमूल्य कोष का द्वार एक-एक कर खोलते चले गए।
तभी उनके भतीजे की बहू चाय, नाश्ता लेकर आ गई, भतीजे की ओर संकेत करते हुए बोले- ‘‘यही मेरा भतीजा है, और वह रही मेरी बतीज बहू। यही मेरा परिवार है। मैंने और भगवान ने अक्कर नदी के किनारे गर्रा घाट की जिस शिला पर बैठ कर शपथ खाई थी कि हम लोग आजन्म विवाह नहीं करेंगे, और वही व्रत मैं आज तक निभा रहा हूं। कल सुबह नदी के किनारे चलकर आपको वह स्थान दिखाऊंगा। वह स्थान हम लोगों को बहुत प्रिय था। हम प्रात: उसी पत्थर पर घंटों मौन बैठे रहते थे।’’

कब दोपहरी शाम में ढल गई, बातचीत में कुछ पता ही नहीं चला। सोनी जी उठते हुए बोले- ‘‘अच्छा स्वामी जी ! आपसे कल सुबह भेंट होगी। आज रात मैं आपके इन दोनों ग्रंथों का अध्ययन और मनन करूंगा।’’
भगवान के बचपन की कथा प्रसंग सुनाते हुए उनका चेहरा अनोखे तेज से चमक रहा था।
मैं प्रभु निवास लौट कर सोनी जी के बारे में ही सोचता रहा कि सोनी जी बाहर से जो रुक्ष दिखाई देते हैं, पर अंदर से उतने ही अधिक सहज और सरल हैं। ठीक नारियल की तरह। पांच-सात मिनट की बातचीत में ही वह इस प्रकार खुल गए थे, जैसे हम लोगों की वर्षों पुरानी ही नहीं, युगों पुरानी गहरी जान-पहचान हो।
रात्रि सुखराज भारती से भेंट की। सोनी जी का प्रसंग आने पर उन्होंने कहा- ‘‘वह भगवान को चूक गए। उन्होंने भगवान से संन्यास ही नहीं लिया। और जब उन्होंने संन्यास ही नहीं लिया तो फिर भगवान के प्रति उनका कैसा प्रेम और कैसा समर्पण ?’’

अब मुझे सोनी जी का दर्द समझ में आया। उनसे लिए गए साक्षात्कार ज्यों-की-त्यों क्यों नहीं छपे ? उनके लेख जो ‘युक्रान्त’ या ‘ज्योतिशिखा’ में प्रकाशित हुए, उनमें क्यों परिवर्तन और संशोधन किया गया ? जब भगवान व्यक्ति के विचारों की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे तो सोनी जी की अपने विचारों के प्रति दृढ़ता देख मुझे उनके प्रति विकर्षक नहीं आकर्षण ही हुआ। यदि दद्दा जी या माताजी भगवान से संन्यास नहीं लेते तो क्या उनका कुछ महत्त्व होता ही नहीं ? जो व्यक्ति भगवान के साथ अजन्म विवाह न करने का संकल्प दृढ़ता से सहज रूप में निभाता रहा, उसके प्रति मेरे हृदय में सम्मान और बढ़ गया। यह जीवन एक बहुत उलझी हुई पहेली है। इसे ज्यों-ज्यों सुलझाने की कोशिश करो वह और उलझती जाती है। और सुलझाने के सारे प्रयास छोड़ दो तो एक दिन अचानक वो अपने आप सुलझ जाती है। मैंने इस संबंध में कुछ सोचना व्यर्थ समझते हुए दो-एक मित्रों से और भेंट की। तत्पश्चात् सामने रजनीशी भोजनालय में भोजन करने चल पड़ा।

भोजन करते हुए एक संन्यासी से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि वे नरेन्द्र बोधिसत्त्व जी के संबंधी भी हैं। जाने कैसे चर्चा प्रभु निवास के कमरा नं.-6 की चल पड़ी जिसमें भगवान कुछ भी सामना न रख केवल ध्यान किया करते थे, और जिसके कोनों को सूंघकर एक बार एक सूफी ने कहा था कि इस कमरे में एक दैवी खुशबू आ रही है।

उन्होंने बताया- पिछले वर्ष जब नेपाल से स्वामी अरुण शिविर लेने आये थे तो उन्होंने शिखरचंद चाचा जी से अनुरोध किया था कि वह कृपया इस कमरे को किराये पर न उठाया करें क्योंकि लोग उस कमरे में रात रुककर वहां शराब पीते हैं। उन्होंने साल भर का किराया एडवांस में देने की पेशकश करते हुए यह आग्रह भी किया था कि वह इस कमरे को रोज धुलवा कर चार अगरबत्तियां जलवा दिया करें, और वह कमरा केवल ध्यान के लिए ही प्रयुक्त किया जाये।
यही निवेदन चाचाजी से मैं दो साल पूर्व कर चुका था। अत: आगे जानने की सहज उत्सुकता हुई। उन्होंने बताया कि चाचा जी ने एडवांस किराया तो नहीं लिया पर वह इस बात पर सहमत हो गए कि अब वो कमरा किराये पर नहीं उठायेंगे। पर उनके जाने के दूसरे ही दिन उनके मैनेजर ने वह कमरा रात भर के लिए एक सरपंच को दे दिया, जिसने अपने मित्र के साथ वहां रात भर खूब शराब पी और सो गया। सुबह करीब तीन बजे जब मैनेजर की आँख पेशाब करने के लिए खुली तो उसने उस कमरे से धुंआ व लपट निकलते देखी। उसने भड़भड़ा कर जैसे-तैसे दरवाजा खुलवाया। सरपंच तो बुरी तरह जल गए थे। और आश्चर्य यह कि आग लगने पर भी उनकी आंख नहीं खुली थी। अब मामले की जांच पुलिस कर रही है और तब से मेरी जानकारी में उस दिन से वह कमरा किराये पर नहीं उठाया गया।

मैंने कहा- ‘‘स्वामी जी ! यह एक संयोग भी तो हो सकता है कि अधिक शराब पीने के कारण आग लगने के बावजूद उन लोगों की आंख न खुली हो ? और वह आग उनके ही बीड़ी पीने से लग गई हो।’’
पर राजेन्द्र स्वामी पूरे विश्वास से बोले- ‘‘अरे, नहीं स्वामी जी ! वह अस्तित्व द्वारा प्रकट हुई आकस्मिक आग थी।’’
तभी एक अन्य सज्जन बोल पड़े- ‘‘यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि करुणामय आशा की चेतना किसी को केवल इसीलिए जला नहीं सकती, क्योंकि वह अनजाने में कमरे किराये पर लेकर शराब पी रहा था। वह उसकी मूर्च्छा को तोड़ने के लिए कोई दूसरा अहिंसक उपाय अपनाते।’’

जाने कैसे मेरे मुँह से निकल पड़ा- ‘‘ओशो तो इस पृथ्वी पर अब तक हुए बुद्धों में बेजोड़ हैं। उनके निवास स्थान को तो एक राष्ट्रीय संग्रहालय बनाना उचित होता। मैंने पाण्डुचेरी में देखा कि दो लेखकों की मृत्यु के बाद उनका निवास स्थान एक भव्य संग्रहालय बना दिया गया, जहां उनके उपयोग की हर चीज सुरक्षित रखी हुई है।’’
उन सज्जन ने उत्तर दिया- ‘‘यह तो विजय भैया को मकान बेचते समय सोचना चाहिये था। जब ओशो ने उनको सपरिवार पूना आश्रम में स्थान दिया था तो उन्हें इस मकान को चाचा जी के बेचने की आवश्यकता क्या थी ? और उन्होंने मकान ही नहीं, घर गृहस्थी की एक-एक चीज़ बेच दी। अब भगवान के लेटने का पलंग और थाली मेरे पास है। क्या आप उसे देखना चाहेंगे ?’’

मैं तुरंत रजनीशी भोजनालय के सामने वाले मुरारी लाल जी की दुकान कम मकान में गया। पलंग वैसा ही था, जैसे सभी पलंग होते हैं। पर वहां बैठते ही पलंग से एक फुट के फासले पर बैठे हुए ही मुझे अदृश्य ऊर्जा तरंगों ने रोमांचित कर दिया। यह मेरे प्रेम की भाव दशा का प्रतिफल भी हो सकता है। न जाने क्यों मेरी आंखें भर आईं और गला रुंध गया। मैंने पलंग को मन-ही-मन नमन किया। वह जड़ काष्ठ जैसे मेरे लिए चेतन हो गया। एक दिन उस पलंग ने अपनी गोद में ओशों को विश्राम दिया होगा ओशो की ऊर्जा तरंगों से जैसे वह जड़ पलंग मेरे लिए चेतन हो गया।
तभी उन्होंने मेरे हाथों में एक स्टील की थैली रख दी, जिसमें उन्होंने बताया कि ओशो बचपन में भोजन किया करते थे। उस थाली को हाथ में लेकर मैं आंखें बंद किये हुए कुछ देर मौन बैठा रहा। उस थाली से भी मुझे निकलती ऊर्जा तरंगों का अनुभव हुआ और उस थाली में भी मैंने चैतन्य की अनुभूति की।’’

तभी मुरारीलाल जी बोल उठे- ‘‘विजय भैया तो घर का ईधन तक बेच गए। जब मैंने पूछा तो कहने लगे कि भगवान का यही आदेश है कि सब बेच बाचकर यहां आ जाओं।’’
मैं विचार में पड़ गया। क्या मुरारी जो सत्य कह रहे हैं ? पड़ोसी होने के नाते वह किसी कारण विजय भैया को नापसंद करते रहे हैं और इसीलिए यह आरोप उन पर लगा रहे हों, अथवा हो सकता है ऐसे आदेश भगवान ने ही विजय भैया को दिये हों। या भगवान का तात्पर्य केवल मकान जायदाद बेचने से ही रहा हो ? यह आदेश देकर भगवान शायद अतीत से सारे बंधन तोड़ लेना चाहते हों ? और विजय भैया को गलत समझ रहे हों। सत्य वही नहीं होता, जो प्राय: दिखाई देता है। देखने वाला वही देख लेता है जो वह देखना चाहता है।

शायद ओशो चाहते हों कि उनकी प्रयोग की गई वस्तुएं उनके आस-पास मित्रों, संबंधियों के पास पहुँच कर उन्हें उनकी उपस्थिति का बोध कराती रहें या उनकी रक्षा करती रहें। तभी मैंने उनसे प्रश्न किया है- ‘‘अच्छा भाई साहब, आप तो इस पलंग का वर्षों से प्रयोग कर रहे हैं। इस पर लेटकर आपको कभी कुछ विशेष अनुभव हुआ ?’’
वह कुछ विचार करते हुए बोले- ‘‘इतना जरूर है, जो भी पलंग पर लेटा वह कभी बीमार नहीं हुआ। और परिवार के जिस बीमार सदस्य को इस पर लिटाया वह शीघ्र स्वस्थ हो गया।’’
मैं कुछ देर बैठकर विश्राम करने होटल में चला गया। उस रात सुबह मैंने स्वप्न देखा- ओशो मेरे सिरहाने खड़े हैं। और उनकी दाढ़ी के लंबे बालों के नाक पर स्पर्श से मेरी आँखें खुल गईं।
काफी देर तक मैं अपने आप ओशो की उपस्थिति महसूस करता रहा। यह मानने के लिए मैं तैयार नहीं था कि वह एक सपना था। मेरा पूरा शरीर रामांचित और ऊर्जामय हो रहा था।

पर आज का सूर्योदय तो कई रहस्यों के उद्घाटन के लिए ही उदय हुआ था। झटपट तैयार होकर मैं सोनी जी के घर पहुंच गया। कुछ देर मे ओशो पर लिखे मेरे सद्ग्रंथों की चर्चा करते रहे फिर स्मरण दिलाने पर तुरंत सहज भाव से मेरे साथ पैदल सक्कर नदी की ओर चल पड़े। सत्या साहिब का कबीर आश्रम दिखाते हुए वह नदी के किनारे स्थित शिव मंदिर के खण्डहर की ओर बढ़ते हुए बोले- ‘‘आप वह टीला देख रहे हैं। वहां उन दिनों एक आश्रम था। वहां के साधु को लोग परमहंस कहते थे। रजनीश जी उनके पास प्राय: जाया करते थे और चुपचाप मौन में बैठे रहते थे। वह साधु बहुत कम बातें करते थे। जब रजनीश जी नवीं कक्षा में पहुंचे तो एक दिन अचानक परमहंस जी आश्रम छोड़, रात-ही-रात न जाने कहां चले गए थे ? हम लोग आगे बढ़ते हुए अब सक्कर नदी के सड़क के पुल के ऊपर गुजर रहे थे। सोनी जी ने बताया कि उन दिनों यहां गर्मी में पीपे वाला अस्थाई पुल बन जाता था।
मैंने प्रश्न किया कि ओशो सक्कर नदी में किस पुल से कूदकर ड्राइव करते थे ?’’
उन्होंने बताया कि वह सक्कर नदी पर रेलवे का पुल है। उसी पुल पर पुलिस गार्ड का पहरा दिया करते थे, क्योंकि वह आजादी के आंदोलन के दिन थे और क्रांतिकारियों से सरकार को यह खतरा बराबर बना रहता था कि वह कहीं उसे बारूद से उड़ा न दें।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book