योग >> योग पुरुषों के लिए योग पुरुषों के लिएआचार्य भगवान देव
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पुरुषों के लिए स्वास्थ्य लाभ व दीर्घायु प्राप्ति हेतु योग...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
राष्ट्र का गौरव जनता के आरोग्य पर अवलंबित है। सशक्त रहकर मानव ही अपना
तथा देश का हित कर सकता है। तन्दुरुस्ती अर्थात् उत्साह, कार्य-क्षमता यश,
आनन्द और जीवन सांख्य ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ धर्म,
अर्थ, काम, मोक्ष—इस जगत के चतुर्विध कार्य-क्षेत्रों में पुरुषार्थ
की सिद्धि हेतु सशक्त और कसा हुआ सुदृढ़ शरीर और निरोगी मन अनिवार्य साधन
है।
सुबह शरीर अर्थात मानसिक स्वस्थता, इस प्रकार का रहस्य-ज्ञान अति प्राचीनकाल से लोगों को प्राप्त था। जिसमें अग्रगण्य ग्रीक लोगों का पांच हजार वर्ष से स्वस्थ मन व सुदृढ़ शरीर परिणाम है। यह कहावत युगानुयुग से प्रचलित थी कि भारत की महान विभूतियों ने इतिहास के आरम्भ काल से ही शारीरिक और मानसिक अभ्यास के पाठों की योगासन पद्धति से रचना की है।
आसन दो प्रकार के हैं। प्रथम क्षेणी के आसनों को ध्यानासन और द्वितीय श्रेणी के आसनों को स्वास्थ्यासन कहते हैं। जिस आसन में बैठ कर मन को स्थिर करने का प्रयत्न किया जाता है, उसको ध्यानासन कहते हैं और जो आसन व्यायाम निमित्त किये जाते हैं, उनको स्वास्थ्यासन कहते हैं।
यह निश्चित है कि शरीर और मन को निरोग और सशक्त रखने के लिए उन्हें व्यायाम द्वारा और सदाचार से सुगठित रखना चाहिए। अनेक साधनों से युक्त कई कसरतें और खेल शरीर और मन को दृढ़ और चपल तो बनाते हैं परंतु उनकी क्रियाओं से स्वांसोच्छवास की गति बंद हो जाने से वायु मर्यादा कम हो जाती है। योगासनों की विशिष्टता यह है कि इसकी क्रियायें जितनी शरीर हो सकती हैं, उससे अधिक अंश में मन की एकाग्र शक्ति को बढ़ाती हैं, और मन की एकाग्रता में से पैदा होने वाली मेधाशक्ति, साधारण शक्ति आदि बौद्धिक शक्तियों का भी विकास करती है। अतः सहज ही है कि आसनों से स्थिरता प्राप्त होने से और श्वासोच्छवास निर्मित होने से आयु-मर्यादा लम्बी होती है।
इस पुस्तक में हमने पुरुषों को योग-सम्बन्धी कुछ ऐसा ज्ञान देने का प्रयत्न किया है जिससे वह सौ वर्ष तक सशक्त रहकर आरोग्यमय जीवन जीते हुए ‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’ की साकार मूर्ति बनकर परम आनन्द को प्राप्त कर सकें।
सुबह शरीर अर्थात मानसिक स्वस्थता, इस प्रकार का रहस्य-ज्ञान अति प्राचीनकाल से लोगों को प्राप्त था। जिसमें अग्रगण्य ग्रीक लोगों का पांच हजार वर्ष से स्वस्थ मन व सुदृढ़ शरीर परिणाम है। यह कहावत युगानुयुग से प्रचलित थी कि भारत की महान विभूतियों ने इतिहास के आरम्भ काल से ही शारीरिक और मानसिक अभ्यास के पाठों की योगासन पद्धति से रचना की है।
आसन दो प्रकार के हैं। प्रथम क्षेणी के आसनों को ध्यानासन और द्वितीय श्रेणी के आसनों को स्वास्थ्यासन कहते हैं। जिस आसन में बैठ कर मन को स्थिर करने का प्रयत्न किया जाता है, उसको ध्यानासन कहते हैं और जो आसन व्यायाम निमित्त किये जाते हैं, उनको स्वास्थ्यासन कहते हैं।
यह निश्चित है कि शरीर और मन को निरोग और सशक्त रखने के लिए उन्हें व्यायाम द्वारा और सदाचार से सुगठित रखना चाहिए। अनेक साधनों से युक्त कई कसरतें और खेल शरीर और मन को दृढ़ और चपल तो बनाते हैं परंतु उनकी क्रियाओं से स्वांसोच्छवास की गति बंद हो जाने से वायु मर्यादा कम हो जाती है। योगासनों की विशिष्टता यह है कि इसकी क्रियायें जितनी शरीर हो सकती हैं, उससे अधिक अंश में मन की एकाग्र शक्ति को बढ़ाती हैं, और मन की एकाग्रता में से पैदा होने वाली मेधाशक्ति, साधारण शक्ति आदि बौद्धिक शक्तियों का भी विकास करती है। अतः सहज ही है कि आसनों से स्थिरता प्राप्त होने से और श्वासोच्छवास निर्मित होने से आयु-मर्यादा लम्बी होती है।
इस पुस्तक में हमने पुरुषों को योग-सम्बन्धी कुछ ऐसा ज्ञान देने का प्रयत्न किया है जिससे वह सौ वर्ष तक सशक्त रहकर आरोग्यमय जीवन जीते हुए ‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’ की साकार मूर्ति बनकर परम आनन्द को प्राप्त कर सकें।
-भगवान देव
मनुष्य जहाँ यह चाहता है कि सुखी जीवन व्यतीत करे, उसके पास पर्याप्त धन
हो ऐश्वर्य हो, समाज में उसकी मान-प्रतिष्ठा हो, वहाँ उसकी यह भी प्रबल
इच्छा रहती है कि उसका शरीर निरोग रहे और वह दीर्घजीवी हो। इस लक्ष्य की
प्राप्ति किन उपायों से सम्भव है, उस पर विचार करना चाहिए। यदि हम अपने
स्वास्थ्य को सुदृढ़ बनाकर अपनी आयु को बढ़ाना चाहते हैं तो इसके दो उपाय
हैं, आहार और व्यायाम।
विद्वान लेखक ने सुन्दर एवं सरल भाषा में अनुभव सिद्ध इस पुस्तक में जो दिया है। हमें पूर्ण विश्वास है कि ‘योग-पुरुषों के लिए’ द्वारा स्वास्थ्य लाभ व दीर्घायु प्राप्ति में यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।
विद्वान लेखक ने सुन्दर एवं सरल भाषा में अनुभव सिद्ध इस पुस्तक में जो दिया है। हमें पूर्ण विश्वास है कि ‘योग-पुरुषों के लिए’ द्वारा स्वास्थ्य लाभ व दीर्घायु प्राप्ति में यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।
मनुष्य शरीर क्या है ?
सृष्टि में मनुष्य शरीर संभवतः सबसे आश्चर्यजनक है। इसकी कलात्मक और
वैज्ञानिक रचना को देखकर महान कौतूहल होता है। मनुष्य शरीर कला की दृष्टि
से कितना सुन्दर है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। इसकी रचना को वैज्ञानिक
इसलिए कहा जाता है कि एक बुद्धिसंगत सुनिश्चित योजना के आधार पर इसका
निर्माण हुआ है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से मालूम होता है कि रीढ़ वाले सभी
प्राणियों में ठीक दो सौ छः अस्थियाँ होती हैं, जिनका स्वरूप सभी
प्राणियों में एक समान है। गिबन जाति का बन्दर अभी तक अपनी प्रारम्भिक
अवस्था में है। गुरिल्ला ने पर्याप्त विकास किया और मनुष्य ने निरन्तर
विकास के द्वारा वर्तमान अवस्था पाई है। परन्तु रीढ़ वाले प्राणियों की
शरीर-रचना जानने के लिए इनमें से किसी के भी शरीर की परीक्षा समान रूप से
लाभदायक है, क्योंकि स्वरूप सबका एक ही योजना के आधार पर बना है।
योगाभ्यास और शारीरिक विकास के नियमों को जानने के लिए शरीर की मनोरंजक रचना और क्रिया-विधि को भली प्रकार समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है। जिस प्रकार एक घड़ी साज के लिए घड़ी की सूक्ष्म मशीनरी का प्रारम्भिक ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार व्यायाम-चर्या के विद्यार्थी के लिए शरीर का।
यदि शरीर का विश्लेषण किया जाये तो हमें उसका कार्य कई विभागों में बंटा हुआ मिलेगा। एक प्रकार के कार्य को करने वाले अवयवों के समूह को ‘संस्थान’ कहते हैं। हर एक संस्थान में अलग-अलग अवयव होते हैं और ये अवयव मिलकर उस संस्थान का कार्य पूरा करते हैं। जैसे—पाचक संस्थान की लाल ग्रंथियां, आमाशय, पक्वाशय, क्षुद्रान्त्र और वृहदान्त्र आदि अवयव हैं।
अवयव भी असंख्य छोटे-छोटे तन्तुओं से मिलकर बनते हैं। इन तन्तुओं की रचना कोषों से होती है। ये अति सूक्ष्म कोष हमारे शरीर रूपी मकान को बनाने वाली ईंटें हैं। इन अति सूक्ष्म कोषों का कार्य-विधि देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। ये कोष शिक्षित समझदार नागरिकों की तरह अपने समाज से प्राप्त कर्तव्यों को ईमानदारी व योग्यता से करते हैं। इसलिए शरीर को ‘कोषो का समाज’ नाम दिया गया है।
योगाभ्यास और शारीरिक विकास के नियमों को जानने के लिए शरीर की मनोरंजक रचना और क्रिया-विधि को भली प्रकार समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है। जिस प्रकार एक घड़ी साज के लिए घड़ी की सूक्ष्म मशीनरी का प्रारम्भिक ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार व्यायाम-चर्या के विद्यार्थी के लिए शरीर का।
यदि शरीर का विश्लेषण किया जाये तो हमें उसका कार्य कई विभागों में बंटा हुआ मिलेगा। एक प्रकार के कार्य को करने वाले अवयवों के समूह को ‘संस्थान’ कहते हैं। हर एक संस्थान में अलग-अलग अवयव होते हैं और ये अवयव मिलकर उस संस्थान का कार्य पूरा करते हैं। जैसे—पाचक संस्थान की लाल ग्रंथियां, आमाशय, पक्वाशय, क्षुद्रान्त्र और वृहदान्त्र आदि अवयव हैं।
अवयव भी असंख्य छोटे-छोटे तन्तुओं से मिलकर बनते हैं। इन तन्तुओं की रचना कोषों से होती है। ये अति सूक्ष्म कोष हमारे शरीर रूपी मकान को बनाने वाली ईंटें हैं। इन अति सूक्ष्म कोषों का कार्य-विधि देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। ये कोष शिक्षित समझदार नागरिकों की तरह अपने समाज से प्राप्त कर्तव्यों को ईमानदारी व योग्यता से करते हैं। इसलिए शरीर को ‘कोषो का समाज’ नाम दिया गया है।
जीवन क्या है ?
जीवित शरीर के अध्ययन के सिलसिले में, जीवन क्या है, इस बात का उत्तर भी
खोजना आवश्यक है। निम्न पाँच बातें ऐसी हैं जो जीव और निर्जीव में अन्तर
बताती हैं। ये विशेषताएं सिर्फ जीवित पदार्थों में ही पाई जा सकती हैं।
1. गति अर्थात चलना-फिरना
2. भोज्य पदार्थों को खाकर हजम कर अपने शरीर का हिस्सा बना लेना।
3. वृद्धि अर्थात बढ़ते जाना।
4. सन्तान-उत्पादन या नस्ल को आगे बढ़ाना।
5. शरीर में नष्ट हुए या विद्यमान व्यर्थ पदार्थों को बाहर निकाल देना।
इन पाँचों बातों में संख्या 2 और 5 अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विचार करने से ज्ञात होगा कि जीवन निर्माण और क्षय का समन्वय करने का प्रयत्न करता है। इसलिए जीवन की कुछ क्रियायें निरन्तर बनाने का कार्य करती हैं, शेष विनाश की परिचायक हैं। जीवन की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को हम ‘प्राणापान प्रक्रिया’ के नाम से पुकार सकते हैं। अंग्रेजी में इसे मेटाबोलिज्म कहते हैं। यह भी स्पष्ट है कि मेटाबोलिज्म की पहली प्रक्रिया जो निर्माणात्मक है, प्राण है और बाद की विनाशात्मक क्रिया को ‘अपान’ कह सकते हैं।
बचपन में हम देखते हैं कि निरन्तर शरीर विकसित होता जाता है। इसका मतलब यह है कि बचपन में प्राण की क्रिया तेजी से होती है। वृद्धावस्था में अपान की क्रिया तीव्र हो जाती है। इसलिए यत्न करने पर भी शरीर क्षीण हो जाता है। युवावस्था में शरीर न बढ़ता है और न घटता है। अर्थात दोनों काम समान शक्ति से होते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध किया है कि इस समय शरीर से निकलने वाला मल ग्रहण किए जाने वाले पदार्थों के भार से सर्वथा समान होता है।
जीवन की प्राण और अपान क्रियाएँ अत्यन्त आवश्यक हैं। इनके सुचारु रूप से होते रहने से ही शरीर स्वस्थ रह सकता है। अनुभव द्वारा मनुष्य इस निश्चित परिणाम पर पहुंचता है कि योगाभ्यास एक ऐसा साधन है, जिससे शरीर की प्राण प्रक्रिया, भोजन हजम करना, भूख लगना, रक्त में औषजन मिलना आदि और अपान-प्रक्रियाएं-मलविसर्जन, रक्त-संचार द्वारा शरीर के आन्तरिक दूषित पदार्थों की सफाई होना बलवती होती हैं। इसलिए योग का उद्देश्य केवल मांसपेशियों को संकोच और विकास द्वारा मोटा बना देना ही नहीं है, अपितु उसका मुख्य उद्देश्य यह है कि शरीर के सम्पूर्ण अवयव जो प्राण और आपान की प्रक्रिया में संलग्न हैं उनके समन्वयात्मक विकास और पारस्परिक सहयोग द्वारा शरीर को पूर्ण स्वास्थ्य और व्यायाम आवश्यक बताये गए हैं।
जीवन के जितने लक्षण ऊपर गिनाए गए हैं, उनका आधारभूत तत्त्व प्रटोप्लाज्म हैं। इसे हम ‘जीवन सत्’ नाम दे सकते हैं। शरीर रूपी मकान की अति सूक्ष्म ईंटें रूपी कोष इसी प्रोटोप्लाज्म के द्वारा बनी है। अमीबा नामक एक कोष से बने सूक्ष्म प्राणी के शरीर का आकार इंच का 12,000 वां भाग होता है। प्रोटोप्लाज्म में प्रत्यामीन प्रोटीन नामक तत्त्व अधिकता से पाया जाता है। प्रोटीनों में नेत्रजन आवश्यक रूप से रहता है। प्रोटीन जीवित पदार्थों या जीवित कोषों द्वारा प्रस्तुत पदार्थों में ही पाया जाता है। जड़ पदार्थों में प्रोटीन नहीं होता, अतः जीवन की एक बड़ी विशेषता प्रोटीन का ग्रहण करना या उत्पन्न करना है। हम पहले कह चुके हैं कि कोषों से अवयवों का निर्माण हुआ है। कई अवयव मिलकर संस्थान बनाते हैं। हमारे शरीर में निम्न संस्थान हैं—(1) अस्थि संस्थान (2) मांसपेशी संस्थान (3) श्वास संस्थान (4) रक्त वाहन संस्थान (5) पाचक संस्थान (6) मल विसर्जक संस्थान (7) उत्पादक संस्थान (8) वात संस्थान।
कोषों द्वारा शरीर निर्माण का काम आप एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं।
रुई के रुओं से धागा बनता है। कोष रुओं के समान हैं, जो तन्तुओं को बनाते हैं। अनेक प्रकार के धागे, विविध प्रकार का कपड़ा तैयार करते हैं। वैसे ही विविध प्रकार के अंगों को बनाने के उपयुक्त उत्पादन जिससे किसी वस्तु का निर्माण होता है, तैयार करते हैं। इन तंतुओं के उत्पादन से अनेक एवं विविध कार्य करने में समर्थ अंग बनते हैं। इन अंगों का जब किसी एक कार्य करने के लिए संगठन हो जाता है, उसे संस्थान कहते हैं।
1. गति अर्थात चलना-फिरना
2. भोज्य पदार्थों को खाकर हजम कर अपने शरीर का हिस्सा बना लेना।
3. वृद्धि अर्थात बढ़ते जाना।
4. सन्तान-उत्पादन या नस्ल को आगे बढ़ाना।
5. शरीर में नष्ट हुए या विद्यमान व्यर्थ पदार्थों को बाहर निकाल देना।
इन पाँचों बातों में संख्या 2 और 5 अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विचार करने से ज्ञात होगा कि जीवन निर्माण और क्षय का समन्वय करने का प्रयत्न करता है। इसलिए जीवन की कुछ क्रियायें निरन्तर बनाने का कार्य करती हैं, शेष विनाश की परिचायक हैं। जीवन की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को हम ‘प्राणापान प्रक्रिया’ के नाम से पुकार सकते हैं। अंग्रेजी में इसे मेटाबोलिज्म कहते हैं। यह भी स्पष्ट है कि मेटाबोलिज्म की पहली प्रक्रिया जो निर्माणात्मक है, प्राण है और बाद की विनाशात्मक क्रिया को ‘अपान’ कह सकते हैं।
बचपन में हम देखते हैं कि निरन्तर शरीर विकसित होता जाता है। इसका मतलब यह है कि बचपन में प्राण की क्रिया तेजी से होती है। वृद्धावस्था में अपान की क्रिया तीव्र हो जाती है। इसलिए यत्न करने पर भी शरीर क्षीण हो जाता है। युवावस्था में शरीर न बढ़ता है और न घटता है। अर्थात दोनों काम समान शक्ति से होते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध किया है कि इस समय शरीर से निकलने वाला मल ग्रहण किए जाने वाले पदार्थों के भार से सर्वथा समान होता है।
जीवन की प्राण और अपान क्रियाएँ अत्यन्त आवश्यक हैं। इनके सुचारु रूप से होते रहने से ही शरीर स्वस्थ रह सकता है। अनुभव द्वारा मनुष्य इस निश्चित परिणाम पर पहुंचता है कि योगाभ्यास एक ऐसा साधन है, जिससे शरीर की प्राण प्रक्रिया, भोजन हजम करना, भूख लगना, रक्त में औषजन मिलना आदि और अपान-प्रक्रियाएं-मलविसर्जन, रक्त-संचार द्वारा शरीर के आन्तरिक दूषित पदार्थों की सफाई होना बलवती होती हैं। इसलिए योग का उद्देश्य केवल मांसपेशियों को संकोच और विकास द्वारा मोटा बना देना ही नहीं है, अपितु उसका मुख्य उद्देश्य यह है कि शरीर के सम्पूर्ण अवयव जो प्राण और आपान की प्रक्रिया में संलग्न हैं उनके समन्वयात्मक विकास और पारस्परिक सहयोग द्वारा शरीर को पूर्ण स्वास्थ्य और व्यायाम आवश्यक बताये गए हैं।
जीवन के जितने लक्षण ऊपर गिनाए गए हैं, उनका आधारभूत तत्त्व प्रटोप्लाज्म हैं। इसे हम ‘जीवन सत्’ नाम दे सकते हैं। शरीर रूपी मकान की अति सूक्ष्म ईंटें रूपी कोष इसी प्रोटोप्लाज्म के द्वारा बनी है। अमीबा नामक एक कोष से बने सूक्ष्म प्राणी के शरीर का आकार इंच का 12,000 वां भाग होता है। प्रोटोप्लाज्म में प्रत्यामीन प्रोटीन नामक तत्त्व अधिकता से पाया जाता है। प्रोटीनों में नेत्रजन आवश्यक रूप से रहता है। प्रोटीन जीवित पदार्थों या जीवित कोषों द्वारा प्रस्तुत पदार्थों में ही पाया जाता है। जड़ पदार्थों में प्रोटीन नहीं होता, अतः जीवन की एक बड़ी विशेषता प्रोटीन का ग्रहण करना या उत्पन्न करना है। हम पहले कह चुके हैं कि कोषों से अवयवों का निर्माण हुआ है। कई अवयव मिलकर संस्थान बनाते हैं। हमारे शरीर में निम्न संस्थान हैं—(1) अस्थि संस्थान (2) मांसपेशी संस्थान (3) श्वास संस्थान (4) रक्त वाहन संस्थान (5) पाचक संस्थान (6) मल विसर्जक संस्थान (7) उत्पादक संस्थान (8) वात संस्थान।
कोषों द्वारा शरीर निर्माण का काम आप एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं।
रुई के रुओं से धागा बनता है। कोष रुओं के समान हैं, जो तन्तुओं को बनाते हैं। अनेक प्रकार के धागे, विविध प्रकार का कपड़ा तैयार करते हैं। वैसे ही विविध प्रकार के अंगों को बनाने के उपयुक्त उत्पादन जिससे किसी वस्तु का निर्माण होता है, तैयार करते हैं। इन तंतुओं के उत्पादन से अनेक एवं विविध कार्य करने में समर्थ अंग बनते हैं। इन अंगों का जब किसी एक कार्य करने के लिए संगठन हो जाता है, उसे संस्थान कहते हैं।
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