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आप भी तनाव मुक्त हो सकते हैं

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3603
आईएसबीएन :81-288-0874-5

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तनाव से मुक्त रहने के उपाय....

Aap Bhi Tanav Mukt Ho Sakte Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह पुस्तक तनाव ग्रस्त लोगों के लिए एक सच्चे मित्र की तरह है। सर्वप्रथम यह एक सच्चे और अनुभवी मित्र की तरह यह बताती है कि मानसिक तनाव कहाँ-कहाँ और किन-किन परिस्थितियों में उत्पन्न होता है। दूसरे स्तर पर यह पुस्तक यह भी सुझाती है कि व्यक्ति स्वयं अपने प्रयास से अपना इलाज कर मानसिक तनाव से मुक्ति कैसे पा सकता है ? यह बताती है कि आप अपने इस दुश्मन से कैसे लड़ें और किस तरह उसे पराजित करें ?
यह पुस्तक तनावग्रस्त लोगों के लिए एक सच्चे मित्र की तरह है। सर्वप्रथम यह एक सच्चे और अनुभवी मित्र की तरह यह बताती है कि मानसिक तनाव कहाँ-कहाँ और किन-किन परिस्थितियों में उत्पन्न होता है।
दूसरे स्तर पर यह पुस्तक यह भी सुझाती है कि व्यक्ति स्वयं अपने प्रयास से अपना इलाज कर मानसिक तनाव से मुक्ति कैसे पा सकता है ? यह बताती है कि आप अपने इस दुश्मन से कैसे लड़ें और किस तरह उसे पराजित करें ?

पुस्तक में मानसिक तनाव का व्यावहारिक पक्ष सामने रखा गया है तथा पाठकों को यह बताया गया है कि वे स्वयं में बदलाव लाकर, अपना वातावरण बदलकर या एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाकर किस प्रकार तनाव जैसे शत्रु पर विजय पा सकते हैं। इसमें कल्पना को नहीं व्यावहारिकता को माध्यम बनाया गया है। इसमें उन महान् व्यक्तियों के अनुभवों का निचोड़ है, जिन्होंने अवसाद और तनाव जैसे मनोरोगों को गहराई से समझा और व्यक्ति को इनसे मुक्ति की राह बताई। तो फिर आप भी तनावमुक्त हो सकते हैं

तनाव समस्या और निदान

मानसिक तनाव, अपनी प्रत्येक स्थिति में एक व्यक्ति की वह प्रतिक्रिया है, जो मस्तिष्क में किसी अन्य कारण से होती है। दिन-रात ऐसी अनगिनत घटनाएँ, अवस्थाएँ एवं परिस्थितियाँ सामने आती रहती हैं, जो हमारे लिए अप्रिय ही नहीं असहनीय भी होती हैं। दिन-रात हमें ऐसे सवालों और ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ता रहता है, जिनके कारण मन की शांति भंग हो जाती है और मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, हम परेशान या चिंतित हो उठते हैं। चिंता और परेशानी से भरी यही स्थिति मानसिक तनाव कहलाती है। आधुनिक जीवन में जैसे-जैसे जटिलताएँ बढ़ रही हैं, कठिनाइयाँ बढ़ रही हैं, समस्याएँ बढ़ रही हैं, वैसे-ही-वैसे समाज का एक बड़ा वर्ग तनाव जैसे मानसिक रोग से ग्रस्त होता जा रहा है। पुरुष, महिलाएँ या बच्चे, कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है, जो किसी-न-किसी कारण मानसिक तनाव से पीड़ित न हो। आज नगरों और महानगरों के रहनेवाले ही नहीं, ग्रामीण अंचलों के निवासी भी समान रूप से इस रोग की चपेट में आ जाते हैं। शिक्षित ही नहीं, अशिक्षित भी। गरीब भी और अमीर भी। आज का समाज व्यापक स्तर पर तनावग्रस्त होता जा रहा है। हम कह सकते हैं कि जिस तरह प्राकृतिक वातावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है, उसी तरह सामाजिक वातावरण को यह बढ़ता हुआ मानसिक तनाव प्रदूषित करता जा रहा है। इससे उत्पन्न शारीरिक रोगी की रोकथाम यदि शीघ्र ही नहीं की गई तो स्थिति भयावह हो सकती है।

मानसिक तनाव चाहे सामाजिक एवं सामूहिक कारणों से हो, विपरीत एवं अप्रिय परिस्थितियों के कारण हो अथवा किसी और कारण से, होता व्यक्तिगत ही है। यानी व्यक्ति को इससे अपने स्तर पर ही निबटना पड़ता है। वह या इससे मुक्त होने के उपाय खोजता है या विवश होकर स्वयं को इसके आगे समर्पित कर देता है। जो व्यक्ति मानसिक तनाव के आगे हथियार डाल देते हैं, दरअसल, वे अपने मन या अपने मस्तिष्क का रक्त उस जौंक को पीते रहने की अनुमति दे देते हैं, जो उसके जीवन को नरक बना देती है। तनाव अन्य शारीरिक रोगों की तुलना में भिन्न है। ज्वर, निमोनिया, क्षय रोग आदि प्रत्यक्ष शारीरिक रोग हैं। किसी भी रोग से पीड़ित व्यक्ति डाक्टर के पास जाता है, अपने रोग की पहचान कराता है, उपचार पूछता है, औषधियाँ लेता है, उन्हें प्रयोग में लाता है और स्वस्थ हो जाता है, किंतु मानसिक तनाव उस श्रेणी का शारीरिक रोग नहीं है। डाक्टर से अधिक इसका इलाज व्यक्ति को स्वयं करना होता है।

रोग चाहे शारीरिक हो या मानसिक, वह एक शत्रु की तरह होता है। शारीरिक रोगों का उपचार करने के लिए हम वैद्य या डाक्टर से परामर्श लेते हैं, वे जो भी निर्देश देते हैं, हम निष्ठापूर्वक उन पर अमल करते हैं, परंतु इस शत्रु का मुकाबला करने के लिए हमें अपनी तलवार स्वयं खींचनी होती है। स्वयं ही इसका मुकाबला करना होता है। यह एक ऐसी लड़ाई है, जिसे लड़ने के लिए हमें अपनी इच्छाशक्ति से काम लेना होता है। उपचारकों का सहयोग काम तो आता है, किंतु बहुत अधिक नहीं।
यह पुस्तक तनावग्रस्त लोगों के लिए एक सच्चे मित्र की तरह है। सर्वप्रथम यह एक सच्चे और अनुभवी मित्र की तरह यह बताती है कि मानसिक तनाव कहाँ-कहाँ और किन-किन परिस्थितियों में उत्पन्न होता है। इसके सामाजिक, सामूहिक, राजनीतिक एवं व्यक्तिगत कारण क्या हैं ? साथ ही यह भी बताती है कि मानसिक तनाव से व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य पर क्या-क्या विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। यह मनोरोग मनुष्य को किस प्रकार शारीरिक रोगों से पीड़ित कर देता है और एक ऐसा व्यक्ति, जो लंबे समय तक मानसिक पीड़ाएँ झेलता रहता है, किस तरह जटिल शारीरिक रोगों की पकड़ में आ जाता है।

दूसरे स्तर पर यह पुस्तक एक मित्र की तरह यह भी सुझाती है कि व्यक्ति स्वयं अपने प्रयास से अपना इलाज कर मानसिक तनाव से मुक्ति कैसे पा सकता है ? यह बताती है कि आप अपने इस दुश्मन से कैसे लड़ें और किस तरह उसे पराजित करें ?
मानसिक तनाव इन दिनों जिस तेज़ी से विकराल रूप धारण करता जा रहा है, उसे देखते हुए यह नितांत आवश्यक है कि तनाव-पीड़ितों को इस रोग से मुक्त होने के उपायों की जानकारी दी जाए। पुस्तक में यही जानकारी देने का प्रयास हुआ है। इस रोग की सामान्य जानकारी न होने के कारण तनावग्रस्त रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। उनमें से बहुत से लोग मादक पदार्थ का सेवन कर सुख-शांति प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं, जो अपने दुःखद परिणामों के कारण उन्हें और भी बुरी स्थिति में पहुँचा देते हैं। मादक औरषधियाँ तनाव दूर करने की सामायिक विधि तो हो सकती है; वे स्थायी इलाज नहीं हैं। फिर यह विधि अपने अंतिम परिणाम में पहले से भी अधिक घातक हो जाती है।

पुस्तक में मानसिक तनाव का व्यावहारिक पक्ष रखा गया है तथा पाठकों को यह बताया गया है कि वे स्वयं में बदलाव लाकर, अपना वातावरण बदलकर या एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाकर किस प्रकार तनाव जैसे शत्रु पर विजय पा सकते हैं। इसमें कल्पना को नहीं, व्यावहारिकता को माध्यम बनाया गया है। इसमें उन महान् व्यक्तियों के अनुभवों का निचोड़ है, जिन्होंने अवसाद और तनाव जैसे मनोरोगों को गहराई से समझा और व्यक्ति को इनसे मुक्ति की राह बताई।
आओ, अब देखें, हम तनावमुक्त कैसे हो ?
डा॰ गिरिराजशरण अग्रवाल

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मानसिक तनाव घातक रोगों का जनक

तनावग्रस्त कोई व्यक्ति केवल मानसिक रूप से ही प्रभावित नहीं होता वरन् तनाव उसके स्वास्थ्य अथवा शारीरिक व्यवस्था को भी प्रवाहित करता है। तनावग्रस्त व्यक्ति अनेक प्रकार की जटिल शारीरिक बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं।
जो लोग अपने आपको स्वस्थ रखना चाहते हैं, अथवा जो मानसिक अवसादों के कारण उत्पन्न रोगों से बचना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले मानसिक तनाव की स्थिति से बाहर निकलना होगा।
जहाँ भीड़ है, प्रदूषण है, शोर है, समस्याएँ हैं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने् की होड़ है, आर्थिक अवसरों की छीना-झपटी है, बढ़ती हुई नई आवश्यकताएँ हैं, साधनों की कमी है, असंतोष है, भाग-दौड़ है, श्रम है किंतु उपलब्धियाँ लक्ष्य से कम हैं, परिवारों की टूटन है, अविश्वास है, भविष्य की अनिश्चितता है, वहाँ मानसिक तनाव भी अवश्य है। यह समझना भारी भूल होगी कि मानसिक तनाव से कोई व्यक्ति केवल दिमाग़ी तौर पर ही प्रभावित होता है। तनाव का प्रभाव उसके स्वास्थ्य अथवा शारीरिक व्यवस्था को भी प्रभावित करता है। लंबे समय तक तनावग्रस्त रहने के कारण व्यक्ति कितनी ही ऐसी जटिल शारीरिक बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं, जिनका उपचार आसानी से नहीं हो पाता।

उस पुरानी कहावत से कौन परिचित नहीं है, जिसमें कहा गया है कि ‘चिंता से चिता बेहतर।’ इस छोटी-सी कहावत में गहरा सामूहिक अनुभव छिपा है। इसी सामूहिक अनुभव ने शताब्दियों पहले मनुष्य को इस वास्तविकता से परिचित कराया था कि चिंतित रहने की अपेक्षा व्यक्ति का मर जाना बेहतर है, क्योंकि मृत्यु का कष्ट तो मनुष्य को एक ही बार भोगना पड़ता है, जबकि चिंता अथवा मानसिक तनाव से अनेकानेक कष्टों का जन्म होता है। ये कष्ट अपने परिणामों में ऐसे दुःखदायी होते हैं कि जीवन मौत से बदतर हो जाता है। तनावग्रस्त व्यक्ति महसूस तो ऐसा करता है कि वह केवल मानसिक रूप से परेशान है, किंतु उसकी यह मानसिक व्यग्रता धीरे-धीरे उसकी संपूर्ण शारीरिक व्यवस्था को विकृत कर देती है। कितनी ही शारीरिक बीमारियाँ केवल मानसिक तनाव, टेंशन, डिप्रेशन, अवसाद अथवा चिंता के कारण उत्पन्न हो जाती हैं। हम यहाँ एक-एक करके ऐसी शारीरिक बीमारियों का वर्णन करेंगे, जो मूल रूप से मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती हैं।

विचारों का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है :

मनुष्य के विचारों का प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर अवश्य पड़ता है। यदि व्यक्ति कुंठाग्रस्त है, लंबे समय से मानसिक तनाव में जी रहा है, किसी प्रकार की चिंता से पीड़ित है तो इस बात की आशंका हो सकती है कि वह कुपचन, भूख न लगने, गैस या वायु रोग, कब्ज अथवा पेट की किसी अन्य बीमारी की चपेट में आ जाए। ऐसे में रोगी प्रत्यक्ष लक्षणों को उदर-रोग मानकर उनका उपचार कराता है। वैद्य या डाक्टर प्रत्यक्ष लक्षणों के आधार पर रोगी को पाचनक्रिया सुधारने के लिए दवाइयाँ देता है, किंतु ये दवाइयाँ रोगी पर कोई असर नहीं करतीं।, क्योंकि दिखाई देनेवाले लक्षण मूल बीमारी के वास्तविक कारण नहीं होते। मूल कारण तो वह मानसिक तनाव अथवा अवसाद होता है, जिसके फलस्वरूप उक्त व्यक्ति में उदर रोग उत्पन्न हुए थे। रोगी जीवन-भर पाचनक्रिया को ठीक करने के लिए दवाइयाँ खाता रहता है, किंतु स्वस्थ नहीं होता। रोग वैसा ही बना रहता है जैसा कि था। यदि रोग मूल कारण का पता लगाकर उसका निदान कर ले तो लंबे समय तक भिन्न-भिन्न प्रकार की दवाइयाँ खाने से बच सकता है।

मस्तिष्क और शारीरिक व्यवस्था के बीच घनिष्ठ संबंध है :

विशेषज्ञों की राय है कि मस्तिष्क और शारीरिक व्यवस्था के बीच घनिष्ठ रिश्ता है। मस्तिष्क में उभरने वाले विचारों का सीधा प्रभाव शरीर-सरंचना पर पड़ता है। विशेषज्ञों का विचार है कि यौन-दुर्बलता के सौ रोगियों में से अस्सी रोगी मानसिक विकृति के कारण यौन-दुर्बलता के शिकार होते हैं। वे स्वयं को यौनक्रिया में अक्षम महसूस करने लगते हैं। धीरे-धीरे लगता है कि वे नपुसंक हो गए हैं। ऐसे रोगी लोकलाज के कारण अपना इलाज नहीं कराते, एकांतवास में रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं अथवा आत्महत्या कर लेते हैं। अमरीका के एक प्रसिद्ध डाक्टर जॉन स्नो ने अपनी डायरी में लिखा था कि उन्होंने इलाज के दौरान ऐसे 150 रोगियों की जाँच की, जिन्हें किसी भी औषधि से लाभ नहीं पहुँच रहा था। इन रोगियों की पृष्ठभूमि और उनका इतिहास जाँचा-परखा गया तो ज्ञात हुआ कि ये सब अत्यधिक चिंतित तथा मानसिक तनाव से ग्रस्त रहनेवाले लोग थे।

मानसिक परेशानियाँ मानव के स्वास्थ्य को दीमक की तरह चाटती हैं : अनिंद्रा, घबराहट, स्नायविक दुर्बलता, पेचिश, डायरिया, कुपचन, सिरदर्द, हृदय की धड़कन में वृद्धि, मधुमेह, हाजमे की अधिकतर समस्याएँ, दमा, श्वास, माइग्रेन तथा स्त्रियों की यौन-समस्याएँ प्रायः किसी-न-किसी प्रकार का मानसिक दबाव झेलते रहने के कारण ही पैदा होती हैं। आठ घंटे के शारीरिक श्रम से मनुष्य की इतनी शक्ति नष्ट नहीं होती, जितनी आधे घंटे की मानसिक व्यग्रता अनिंद्रा, घबराहट, स्नायविक दुर्बलता, पेचिश डायरिया, कुपचन, सिरदर्द, हृदय की धड़कन का बढ़ जाना, मधुमेह, हाजमे की अधिकतर समस्याएँ, दमा श्वास, माइग्रेन तथा स्त्रियों की यौन-समस्याएँ प्रायः किसी-न-किसी का मानसिक दबाव झेलते रहने के कारण ही पैदा होती हैं। आठ घंटे के शारीरिक श्रम से मनुष्य की इतनी शक्ति नष्ट नहीं होती, जितनी आधे घंटे की मानसिक व्यग्रता से क्षीण हो जाती है। समझा जा सकता है कि मानसिक परेशानियाँ किस तरह मानव के स्वास्थ्य को दीमक की तरह चाटती रहती है। समझा जा सकता है कि मानसिक परेशानियाँ किस तरह मानव के स्वास्थ्य को दीमक की तरह चाटती है।

उदर अथवा आंत्र-संबंधी रोग पचास वर्ष पहले इतने नहीं थे, जितने आज हैं। दमे के रोगी इतने पहले नहीं थे, जितने अब हैं। अनिंद्रा की बीमारी अब जितनी आम हो गई है, इतनी पहले कभी नहीं थी। नगरों तथा महानगरों में रहनेवाले अधिकांश पुरुष एवं नारियाँ, विशेष रूप से संभ्रांत परिवारों के सदस्य जितनी बड़ी संख्या में अब नींद की गोलियों का प्रयोग कर रहे हैं, उतना पहले कभी नहीं करते थे। पेट में अत्यधिक गैस पैदा होने की बीमारी अब जितनी सामान्य है, पहले कभी नहीं थी। भूख न लगने या कम लगने की शिकायत जितने लोगों को अब है, उतनी पहले कभी नहीं थी। हृदय से संबंधित बीमारियों का जितना विस्तार अब हुआ है, उतना पहले नहीं था। मधुमेह से जितने लोग अब पीड़ित हैं, उतने पहले नहीं थे। चिंता की बात यह है कि उक्त रोगों से पीड़ित लोगों के आँकड़े दिन-पर-दिन बढ़ते जा रहे हैं। बाज़ार में रोगों की नित नई दवाइयाँ आ रही हैं, बिक रही हैं, पीड़ित व्यक्ति सेवन भी कर रहे हैं, किंतु लाभ नहीं हो पा रहा है। रोगों का दायरा बढ़ रहा है। रोगियों की संख्या बढ़ रही है, औषधियों असफल होती जा रही हैं। क्यों ?

कारण यही है कि उपचार प्रत्यक्ष लक्षणों के आधार पर किया जा रहा है, मूल कारणों को जानकर नहीं, सिर-दर्द, अपच, गैस-संबंधी रोग, अनिंद्रा, यौन-दुर्बलता, हृदय से संबंधित बहुत से रोग, मधुमेह, श्वास या दमा के अधिकतर मामलों में इनका मूल कारण मानसिक तनाव, चिंता, भय, अवसाद होता है। यदि लोग इस तनाव से मुक्त हो जाएँ, चिंता से मुक्त हो जाएँ, तनाव तथा अवसाद से छुटकारा पा लें तो वे बिना किसी औषधि-उपचार के स्वस्थ हो सकते हैं।

दिमागी व्यग्रता के समाप्त होते ही शारीरिक रोग स्वतः दूर हो जाते हैं :

आधुनिक समाज में असंख्य लोग तरह-तरह की शारीरिक बीमारियों से पीड़ित हैं। वे अपनी गाढ़े पसीने की कमाई इलाज और चिकित्सकों पर ख़र्च कर रहे हैं पर वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि उनका रोग वह नहीं है, जिसके लक्षण उन्हें सामने से दिखाई दे रहे हैं, बल्कि रोग के मूल में वह अवसाद अथवा मानसिक अवस्था है, जिससे छुटकारा पाकर वे स्वस्थ और सुखी जीवन बिता सकते हैं। यह एक बड़ी त्रासदी है। रोगी नहीं जानता कि उसके रोग का मूल कारण क्या है, उपचारक नहीं जानता कि जिस रोग की दवा वह रोगी को दे रहा है, वह रोग उसे है ही नहीं। पेट की बीमारियाँ पेट की नहीं हैं, हृदय से संबंधित बीमारियाँ हृदय ही नहीं है, इनका मुख्य केंद्र मस्तिष्क में है। मानसिक स्थिति ठीक हो जाए, व्यक्ति दिमागी व्यग्रता से बाहर निकल आए तो उसके बहुत से शारीरिक रोग स्वतः दूर हो सकते हैं।

परिस्थितियों को बदलना मनुष्य के वश में है :

निष्कर्ष यह है कि जो लोग स्वयं को स्वस्थ रखना चाहते हैं और मानसिक अवसादों के कारण उत्पन्न रोगों से बचना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले मानसिक तनाव से बाहर निकलना होगा। यहाँ यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि मानसिक तनाव या अवसाद परिस्थितिजन्य होता है और कई बार परिस्थितियाँ आदमी के बस में नहीं होतीं, तब मानसिक तनाव पैदा करनेवाली परिस्थितियों के रहते मनुष्य इनसे मुक्त कैसे हो सकता है ? प्रश्न ठीक है, लेकिन इसके साथ-साथ यह बात भी ठीक है कि परिस्थितियों को बदलना या बदल न पाने की स्थिति में उनके बीत सामान्य बने रहना तो मनुष्य के वश में है।

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