विविध >> महामात्य चाणक्य महामात्य चाणक्यअश्विनी पाराशर
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चाणक्य के जीवन पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1.लक्ष्मी, प्राण, जीवन, शरीर सबकुछ चलायमान है। केवल धर्म ही स्थिर है।
2. एक गुणवान पुत्र सैकड़ों मूर्ख पुत्रों से अच्छा है। एक ही चन्द्रमा अन्धकार को नष्ट कर देता है, किन्तु हजारों तारे ऐसा नहीं कर सके।
3. माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
4. पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे।
5. दुष्ट के सारे शरीर में विष होता है।
6. दुष्टों तथा काँटों को या तो जूतों से कुचल दो या उनके रास्ते से हट जाओ।
7. जिसके पास धन है, उसके अनेक मित्र, भाई-बन्धु और रिश्तेदार होते हैं।
8. अन्न, जल तथा सुभाषित ही पृथ्वी के तीन रत्न हैं। मूर्खों ने व्यर्थ ही पत्थर के टुकड़े को रत्न का नाम दिया है।
9. सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल, चन्दन में फूल नहीं होते। विद्वान धनी नहीं होता और राजा दीर्घजीवी नहीं होते।
10. समान स्तर वाले से ही मित्रता शोभा देती है।
11. कोयल का रूप उसका स्वर है। पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है।
राजनीतिक शिक्षा का यह दायित्व है कि वह मानव समाज को राज्य-संस्थापन, संचालन, राष्ट्र-संरक्षण तीनों काम सिखाए। चाणक्य ने इन तीनों कामों की शिक्षा अपने साहित्य द्वारा दी। मगध के शासक नन्द द्वारा चाणक्य को अपमानित कर दरबार से निकाल देने पर चाणक्य ने शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की कि वह नन्द को मगध की राजगद्दी से हटाकर नये राज्य की नींव जिस दिन रख लेगा तभी उसकी शिखा बन्धेगी। एक होनहार युवक चन्द्रगुप्त को भावी राजा मानकर चाणक्य ने कैसे-कैसे राजनीति के मोहरे चले कि नन्द का पतन हो ही गया। चन्द्रगुप्त मगध-सम्राट बना और चाणक्य बने उसके महामात्य।
प्रस्तुत है चाणक्य के जीवन एवं उनके कुशल शासन प्रबन्ध पर विस्तार से प्रकाश डालने वाली औपन्यासिक शैली में पुस्तक महामात्य चाणक्य
2. एक गुणवान पुत्र सैकड़ों मूर्ख पुत्रों से अच्छा है। एक ही चन्द्रमा अन्धकार को नष्ट कर देता है, किन्तु हजारों तारे ऐसा नहीं कर सके।
3. माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
4. पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे।
5. दुष्ट के सारे शरीर में विष होता है।
6. दुष्टों तथा काँटों को या तो जूतों से कुचल दो या उनके रास्ते से हट जाओ।
7. जिसके पास धन है, उसके अनेक मित्र, भाई-बन्धु और रिश्तेदार होते हैं।
8. अन्न, जल तथा सुभाषित ही पृथ्वी के तीन रत्न हैं। मूर्खों ने व्यर्थ ही पत्थर के टुकड़े को रत्न का नाम दिया है।
9. सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल, चन्दन में फूल नहीं होते। विद्वान धनी नहीं होता और राजा दीर्घजीवी नहीं होते।
10. समान स्तर वाले से ही मित्रता शोभा देती है।
11. कोयल का रूप उसका स्वर है। पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है।
राजनीतिक शिक्षा का यह दायित्व है कि वह मानव समाज को राज्य-संस्थापन, संचालन, राष्ट्र-संरक्षण तीनों काम सिखाए। चाणक्य ने इन तीनों कामों की शिक्षा अपने साहित्य द्वारा दी। मगध के शासक नन्द द्वारा चाणक्य को अपमानित कर दरबार से निकाल देने पर चाणक्य ने शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की कि वह नन्द को मगध की राजगद्दी से हटाकर नये राज्य की नींव जिस दिन रख लेगा तभी उसकी शिखा बन्धेगी। एक होनहार युवक चन्द्रगुप्त को भावी राजा मानकर चाणक्य ने कैसे-कैसे राजनीति के मोहरे चले कि नन्द का पतन हो ही गया। चन्द्रगुप्त मगध-सम्राट बना और चाणक्य बने उसके महामात्य।
प्रस्तुत है चाणक्य के जीवन एवं उनके कुशल शासन प्रबन्ध पर विस्तार से प्रकाश डालने वाली औपन्यासिक शैली में पुस्तक महामात्य चाणक्य
भूमिका
महामात्य चाणक्य भारतीय इतिहास का अत्यन्त विशिष्ट चरित्र है। यह चरित्र,
व्यक्ति, व्यक्तित्व और इन सबको अतिक्रमण करता हुआ एक युग बन जाता है।
चाणक्य के नाम के साथ एक और महान् नीति-ग्रन्थ जुड़ा हुआ है, दूसरी ओर
उसके तत्वरूप में अर्थशास्त्र की संस्कृति सम्बद्ध है। एक स्थान पर चाणक्य
ने अपने सूत्र में लिखा है :
इन्द्रिजयस्य मूलं विनयः
और इसी के साथ आगे चाणक्य कहते हैं-
जिवात्मा सर्वार्थे संयुज्यते
अर्थात् :-जितात्मा सभी सम्पत्तियाँ प्राप्त करता है। अर्थात् इन्द्रिय जय
का मूल विनय है। जो विनीत, विनम्र होगा वही अपनी इन्द्रियों को वश में रख
सकेगा और वही व्यक्ति जितात्मा होता है तथा जितात्मा ही हमारी सारी
सम्पत्तियां प्राप्त करता है।
इसका सीधा सम्बन्ध जीवन की उस व्यावहारिकता से जुड़ता है जो धर्म, अर्थ और काम को एक संस्कृति परिवेश का रूप देती है। यहां सम्पत्ति सम्पन्नता का पर्याय है जो आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की होती हैं इसीलिए महामात्य चाणक्य का मत है—‘‘प्रजा के सम्पन्न होने पर नेताहीन राज्य भी चलता है।’’ इसी से यह आभास हो जाता है कि प्रजा का और उसकी सम्पन्नता का कितना महत्त्व है।
आपका चाणक्य से, नीतिज्ञ चाणक्य से जो परिचय होता है उसने हजारों वर्षों पूर्व राजनीति, धर्म, और अर्थ के विषय में ऐसी बातें कही हैं जो मानव मूल्य के लिए आधारशिला हैं और आज भी वे सब कसौटी पर बिल्कुल खरी उतरती हैं।
किन्तु यहा नीतिज्ञ चाणक्य एक नीतिज्ञ ही नहीं था, एक सदायश मनुष्य, उसके पूर्व एक शिष्य और अपनी जन्मभूमि की प्रतिभा, कुसुमपुर का एक उद्वेगी युवा भी था। यही चाणक्य गुप्त राज्य को स्थिरता देने वाला-गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त का रचयिता था—रचयिता इसलिए कि अनेक गुरु होते हैं जो अपने शिष्यों को शिक्षा देते हैं पर अपने शिष्यों की रचना करने वाले गुरु कम होते हैं। शायद इस अर्थ में चाणक्य गुरु संदीपन, महामना परशुराम, आचार्य द्रोण की परम्परा में आते हैं।
और यह शिष्य और गुरु चाणक्य अपने जीवन में कितनी द्वन्द्वात्मक स्थितियों में रहा ? मान, अपमान, उपेक्षा, सत्कार पाने और न पाने की कितनी गुंजलको में जीता रहा और फिर किस तरह से उसने एक सशक्त राज्य की स्थापना का स्वप्न साकार किया-यह सब मैंने औपन्यासिक शैली में चित्रित करने का प्रयास किया है।
महामात्य चाणक्य ! अर्थशास्त्री चाणक्य, एक मनुष्य चाणक्य से किस तरह संवेदात्मक यात्रा करता है—इसकी चित्रात्मक झांकी ही मिलेगी आपको इस रचना में। मुझे आशा है कि उपन्यास में चित्रित चाणक्य आपकी संवेदना का स्पर्श कर पायेगा।
इसका सीधा सम्बन्ध जीवन की उस व्यावहारिकता से जुड़ता है जो धर्म, अर्थ और काम को एक संस्कृति परिवेश का रूप देती है। यहां सम्पत्ति सम्पन्नता का पर्याय है जो आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की होती हैं इसीलिए महामात्य चाणक्य का मत है—‘‘प्रजा के सम्पन्न होने पर नेताहीन राज्य भी चलता है।’’ इसी से यह आभास हो जाता है कि प्रजा का और उसकी सम्पन्नता का कितना महत्त्व है।
आपका चाणक्य से, नीतिज्ञ चाणक्य से जो परिचय होता है उसने हजारों वर्षों पूर्व राजनीति, धर्म, और अर्थ के विषय में ऐसी बातें कही हैं जो मानव मूल्य के लिए आधारशिला हैं और आज भी वे सब कसौटी पर बिल्कुल खरी उतरती हैं।
किन्तु यहा नीतिज्ञ चाणक्य एक नीतिज्ञ ही नहीं था, एक सदायश मनुष्य, उसके पूर्व एक शिष्य और अपनी जन्मभूमि की प्रतिभा, कुसुमपुर का एक उद्वेगी युवा भी था। यही चाणक्य गुप्त राज्य को स्थिरता देने वाला-गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त का रचयिता था—रचयिता इसलिए कि अनेक गुरु होते हैं जो अपने शिष्यों को शिक्षा देते हैं पर अपने शिष्यों की रचना करने वाले गुरु कम होते हैं। शायद इस अर्थ में चाणक्य गुरु संदीपन, महामना परशुराम, आचार्य द्रोण की परम्परा में आते हैं।
और यह शिष्य और गुरु चाणक्य अपने जीवन में कितनी द्वन्द्वात्मक स्थितियों में रहा ? मान, अपमान, उपेक्षा, सत्कार पाने और न पाने की कितनी गुंजलको में जीता रहा और फिर किस तरह से उसने एक सशक्त राज्य की स्थापना का स्वप्न साकार किया-यह सब मैंने औपन्यासिक शैली में चित्रित करने का प्रयास किया है।
महामात्य चाणक्य ! अर्थशास्त्री चाणक्य, एक मनुष्य चाणक्य से किस तरह संवेदात्मक यात्रा करता है—इसकी चित्रात्मक झांकी ही मिलेगी आपको इस रचना में। मुझे आशा है कि उपन्यास में चित्रित चाणक्य आपकी संवेदना का स्पर्श कर पायेगा।
अश्विन पाराशर
महामात्य चाणक्य
बाल्यकाल
कुसुमपुर ! हां, यह वही कुसुमपुर है, यहीं मेरे जीवन की पहली किरण धरती पर
उतरकर खिली थी। यहीं कहीं होगी मेरी झोंपड़ी, चणी ब्राह्मण का घर। और मेरी
मां ! वह तो कब की अग्नि समाधि ले चुकी हैं। कहां गया वहा सारा सुख ? अभाव
में तो लगता था हमारा एक अपनापन है और हमारे आस-पास। लेकिन दुष्ट नन्द ने
सभी कुछ तहस-नहस कर दिया। गर्क कर दिया हमारा सुख-विलास और वासना के
समुद्र में। और मेरे पिता का मित्र शकटार ! वह तो राज्य का सेवक था। नन्द
ने उसे भी नहीं छोड़ा। काल-कोठरी में डाल दिया।
कितना छोटा-सा था गांव ! आज भरी-पूरी बस्ती होकर भी यातना के बादलों से घिरी एक उजाड़ बस्ती लग रही है। यहां कितनी चिताएं जली हैं !
कितनों को अग्नि भी प्राप्त नहीं हुई। कितने चील-कौओं के भोजन बन गये कोई हिसाब नहीं।
चलते-चलते चाणक्य एक वृक्ष के नीचे आकर खड़े हो गये। सांझ ढल चुकी थी लेकिन दूर-दूर तक कहीं दीये की कोई किरण नहीं झलक रही थी। घना अन्धकार ग्रसने जा रहा था पूरे गांव को।
यकायक चाणक्य अट्टहास कर उठा। उसकी गूंज से पत्ते कांप उठे। शाखाएं आपस में टकरा-टकरा कर चटकने लगीं। समीप ही सरसराहट हुई और वहीं पेड़ के नीचे बने मिट्टी के थमले का सहारा लेकर बैठ गया चाणक्य। उसके सामने अतीत का वह पन्ना फरफराकर खुल गया।
छोटा-सा यह गांव कुसुमपुर ! कुल जमा दस-बीस घरों की बस्ती। थोड़े से खेत। झोंपड़ी नुमा मकान। झोंपड़ी भी क्या घास-फूस को मोटी लकड़ियों पर इस प्रकार डाल रखा था मानो नीचे सूरज की गर्मी से बचने के लिए छाया भर हो। लेकिन कहां रुक सकती थी धूप ! नन्द के सैनिकों की भान्ति हठपूर्वक फूस के पंख चीरती घुस जाती थी घर में, ताकि रहने वालों को उसके होने का अहसास हो सके।
और इसी तरह बेरोक-टोक बरसता था पानी। भीतर तक का सब कुछ भीग जाता था। और रहने वाले मानो इस प्राकृति विपदा को सहने का आदी हो गया था। क्या करता, रहना जो था। दांतों के बीच में जीभ भी रहती है। इसी तरह रहते रहे लोग धूप पानी के दबाव में। ऊपर से नन्द के सैनिकों का दबदबा। कौन जाने कब धूप या बदल की तरह नन्द सैनिक फूस में छेदकर घुस जाएँ झोंपड़ी में और किसी के घर में खिली कोई भी चटकती गुलाब की कली टहनी उखाड़कर ले जाएं और भेंट चढ़ा दें अपने देवताओं को। वर्षा और धूप के देवता इन्द्र और सूर्य एक बार को यह दुष्ट भेंट स्वीकार न करें लेकिन मनुष्य की भेंट से अट्ठहास करने वाला यह दानवीय वृत्तियों वाला राक्षस नन्द, इसे तो नवयुवतियों के गर्म लहू को पीने का चसका पड़ चुका था।
कितनी माताओं के आंसू उस खून की गर्माहट में हिलमिल गये-नन्द कभी नहीं जान पाया।
उसका पिता चणी भी ब्राह्मण था। सन्तोष की मूर्ति-नितान्त धर्म-निष्ट। न धन पाने की इच्छा न सुख की लालसा। पिता का सुख सीमित था अपने कर्म-काण्ड में, अपने घर में, परिवार में। पिता ने कभी किसी का हृदय नहीं दुखाया जो मिला सारा कुछ साधु-संन्यासियों पर खर्च कर दिया लेकिन स्वयं की आवश्यकता के लिए किसी के आगे कभी हाथ नहीं पसारे।
और तब चाणक्य का जन्म हुआ ! एक पत्थर मानो दरक गया और जिसकी झिर्रियों में से एक हल्की-सी प्रकाश की किरण पूरे झोंपड़े को प्रकाशित कर गई। पुत्र को पाकर चणी और उसकी पत्नी दोनों ही फूले नहीं समाये। चणी और उसकी पत्नी दोनों सुन्दर थे। तब राज्य के अत्याचारों की कालिमा, क्रूर सैनिकों का आतंक और भय काले बादलों की तरह राज्य के भविष्य रूपी आकाश में छाए हुए थे। शायद इस कालिमा का प्रभाव हुआ कि चाणक्य शरीर से स्वस्थ होने पर भी घनश्याम वर्ण का उत्पन्न हुआ। मां के लिए तो पुत्र घर में प्रकाश लाने वाला होता है फिर चाहे वह काला ही क्यों न हो !
इस खुशी के माहौल में जब चणी ने अपने पुत्र के भविष्य रेखाओं को जानने के लिए साधु-संन्यासियों और ज्योतिषियों को बुलाया तो वह गरीब ब्राह्मण मानो आकाश से उतरता हुआ जमीन पर आ गया। चाणक्य के मुंह में बचपन से ही दो दान्त निकले हुए थे और जब वह हंसता था तो उसके यही दान्त मानो उसके शरीर की कालिमा को बादलों की तरह चीरकर शुभ्र चांदनी के समान प्रकाश फैला देते थे।
ज्योतिषयों और साधु-संन्यासियों ने जब देखा कि इस बालक के मुख में दान्त बचपन से विद्यमान है तो उनकी दृष्टि उसके हाथ की रेखाओं से हटकर दान्तों पर आ टिकी। उसके मस्तक का फैलाव, भृकुटियों का बांकपन, सांस लेते समय नाक के नथुनों का फूलना और सब पर अघोषित तनाव सभी कुछ मानो भविष्य की मूर्ति को गढ़ रहे थे और वह बालक इन सबसे बेखबर अपनी मां की गोद में बैठा हुआ निहार रहा था आश्चर्य से अपने भविष्य द्रष्टाओं की ओर जैसे वह कहता हो छोटे-छोटे हाथ फेंकता हुआ कि मेरा भविष्य मेरे हाथ में नहीं मेरे मस्तक में उठने वाले विचारों में छुपा है।
ज्योतिषियों के मन में यह सारा दृश्य उथल-पुथल मचाए हुए था। वह जानते थे कि यह गरीब ब्राह्मण, जिसने श्रद्धा भक्ति से उनका आतिथ्य किया है, इसे क्या मालूम कि इसकी ‘कल’ कैसी विचित्र होगी। फिर भी ज्योतिषियों में चणी के बार-बार पूछने पर उसे बताया-
‘‘हे ब्राह्मण ! तुम्हारे बालक का जन्म-कुण्डली और हाथ की रेखाएं जो बता रही हैं, उनके आधार पर यह बालक बड़ा होकर एक बहुत बड़े राज्य का स्वामी होगा। इसके मुख में जो जन्म के दान्त निकले हैं ऐसा बालक तो शताब्दियों बाद किसी भाग्यशाली के घर पैदा होता है। सुख इसके चारों तरफ नर्तकियों की तरह नर्तन करेगा। वैभव इसके आगे-आगे चाकरों की तरह बिछता हुआ जाएगा और राजा होकर भी यह युगपुरुष कहलाएगा चणी।’’
ज्योतिषी भविष्यवाणी कर रहे थे और चणी संकोच में डूबा जा रहा था, कहीं कोई राजा का सैनिक न सुन ले। और अपने हथेलियों की ओट से जो दीप उसने झंझावतों के बावजूद अभी तक बचा रखा है, वह कहीं झटके में बुझ न जाए और राज-सैनिकों का क्रोध उसकी छोटी-सी तिनकों की झोंपड़ी को तहस-नहस न कर दे।
कितना छोटा-सा था गांव ! आज भरी-पूरी बस्ती होकर भी यातना के बादलों से घिरी एक उजाड़ बस्ती लग रही है। यहां कितनी चिताएं जली हैं !
कितनों को अग्नि भी प्राप्त नहीं हुई। कितने चील-कौओं के भोजन बन गये कोई हिसाब नहीं।
चलते-चलते चाणक्य एक वृक्ष के नीचे आकर खड़े हो गये। सांझ ढल चुकी थी लेकिन दूर-दूर तक कहीं दीये की कोई किरण नहीं झलक रही थी। घना अन्धकार ग्रसने जा रहा था पूरे गांव को।
यकायक चाणक्य अट्टहास कर उठा। उसकी गूंज से पत्ते कांप उठे। शाखाएं आपस में टकरा-टकरा कर चटकने लगीं। समीप ही सरसराहट हुई और वहीं पेड़ के नीचे बने मिट्टी के थमले का सहारा लेकर बैठ गया चाणक्य। उसके सामने अतीत का वह पन्ना फरफराकर खुल गया।
छोटा-सा यह गांव कुसुमपुर ! कुल जमा दस-बीस घरों की बस्ती। थोड़े से खेत। झोंपड़ी नुमा मकान। झोंपड़ी भी क्या घास-फूस को मोटी लकड़ियों पर इस प्रकार डाल रखा था मानो नीचे सूरज की गर्मी से बचने के लिए छाया भर हो। लेकिन कहां रुक सकती थी धूप ! नन्द के सैनिकों की भान्ति हठपूर्वक फूस के पंख चीरती घुस जाती थी घर में, ताकि रहने वालों को उसके होने का अहसास हो सके।
और इसी तरह बेरोक-टोक बरसता था पानी। भीतर तक का सब कुछ भीग जाता था। और रहने वाले मानो इस प्राकृति विपदा को सहने का आदी हो गया था। क्या करता, रहना जो था। दांतों के बीच में जीभ भी रहती है। इसी तरह रहते रहे लोग धूप पानी के दबाव में। ऊपर से नन्द के सैनिकों का दबदबा। कौन जाने कब धूप या बदल की तरह नन्द सैनिक फूस में छेदकर घुस जाएँ झोंपड़ी में और किसी के घर में खिली कोई भी चटकती गुलाब की कली टहनी उखाड़कर ले जाएं और भेंट चढ़ा दें अपने देवताओं को। वर्षा और धूप के देवता इन्द्र और सूर्य एक बार को यह दुष्ट भेंट स्वीकार न करें लेकिन मनुष्य की भेंट से अट्ठहास करने वाला यह दानवीय वृत्तियों वाला राक्षस नन्द, इसे तो नवयुवतियों के गर्म लहू को पीने का चसका पड़ चुका था।
कितनी माताओं के आंसू उस खून की गर्माहट में हिलमिल गये-नन्द कभी नहीं जान पाया।
उसका पिता चणी भी ब्राह्मण था। सन्तोष की मूर्ति-नितान्त धर्म-निष्ट। न धन पाने की इच्छा न सुख की लालसा। पिता का सुख सीमित था अपने कर्म-काण्ड में, अपने घर में, परिवार में। पिता ने कभी किसी का हृदय नहीं दुखाया जो मिला सारा कुछ साधु-संन्यासियों पर खर्च कर दिया लेकिन स्वयं की आवश्यकता के लिए किसी के आगे कभी हाथ नहीं पसारे।
और तब चाणक्य का जन्म हुआ ! एक पत्थर मानो दरक गया और जिसकी झिर्रियों में से एक हल्की-सी प्रकाश की किरण पूरे झोंपड़े को प्रकाशित कर गई। पुत्र को पाकर चणी और उसकी पत्नी दोनों ही फूले नहीं समाये। चणी और उसकी पत्नी दोनों सुन्दर थे। तब राज्य के अत्याचारों की कालिमा, क्रूर सैनिकों का आतंक और भय काले बादलों की तरह राज्य के भविष्य रूपी आकाश में छाए हुए थे। शायद इस कालिमा का प्रभाव हुआ कि चाणक्य शरीर से स्वस्थ होने पर भी घनश्याम वर्ण का उत्पन्न हुआ। मां के लिए तो पुत्र घर में प्रकाश लाने वाला होता है फिर चाहे वह काला ही क्यों न हो !
इस खुशी के माहौल में जब चणी ने अपने पुत्र के भविष्य रेखाओं को जानने के लिए साधु-संन्यासियों और ज्योतिषियों को बुलाया तो वह गरीब ब्राह्मण मानो आकाश से उतरता हुआ जमीन पर आ गया। चाणक्य के मुंह में बचपन से ही दो दान्त निकले हुए थे और जब वह हंसता था तो उसके यही दान्त मानो उसके शरीर की कालिमा को बादलों की तरह चीरकर शुभ्र चांदनी के समान प्रकाश फैला देते थे।
ज्योतिषयों और साधु-संन्यासियों ने जब देखा कि इस बालक के मुख में दान्त बचपन से विद्यमान है तो उनकी दृष्टि उसके हाथ की रेखाओं से हटकर दान्तों पर आ टिकी। उसके मस्तक का फैलाव, भृकुटियों का बांकपन, सांस लेते समय नाक के नथुनों का फूलना और सब पर अघोषित तनाव सभी कुछ मानो भविष्य की मूर्ति को गढ़ रहे थे और वह बालक इन सबसे बेखबर अपनी मां की गोद में बैठा हुआ निहार रहा था आश्चर्य से अपने भविष्य द्रष्टाओं की ओर जैसे वह कहता हो छोटे-छोटे हाथ फेंकता हुआ कि मेरा भविष्य मेरे हाथ में नहीं मेरे मस्तक में उठने वाले विचारों में छुपा है।
ज्योतिषियों के मन में यह सारा दृश्य उथल-पुथल मचाए हुए था। वह जानते थे कि यह गरीब ब्राह्मण, जिसने श्रद्धा भक्ति से उनका आतिथ्य किया है, इसे क्या मालूम कि इसकी ‘कल’ कैसी विचित्र होगी। फिर भी ज्योतिषियों में चणी के बार-बार पूछने पर उसे बताया-
‘‘हे ब्राह्मण ! तुम्हारे बालक का जन्म-कुण्डली और हाथ की रेखाएं जो बता रही हैं, उनके आधार पर यह बालक बड़ा होकर एक बहुत बड़े राज्य का स्वामी होगा। इसके मुख में जो जन्म के दान्त निकले हैं ऐसा बालक तो शताब्दियों बाद किसी भाग्यशाली के घर पैदा होता है। सुख इसके चारों तरफ नर्तकियों की तरह नर्तन करेगा। वैभव इसके आगे-आगे चाकरों की तरह बिछता हुआ जाएगा और राजा होकर भी यह युगपुरुष कहलाएगा चणी।’’
ज्योतिषी भविष्यवाणी कर रहे थे और चणी संकोच में डूबा जा रहा था, कहीं कोई राजा का सैनिक न सुन ले। और अपने हथेलियों की ओट से जो दीप उसने झंझावतों के बावजूद अभी तक बचा रखा है, वह कहीं झटके में बुझ न जाए और राज-सैनिकों का क्रोध उसकी छोटी-सी तिनकों की झोंपड़ी को तहस-नहस न कर दे।
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