आचार्य श्रीराम शर्मा >> ऋग्वेद संहिता - भाग 4 ऋग्वेद संहिता - भाग 4श्रीराम शर्मा आचार्य
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ऋग्वेद का विवरण (मण्डल 9-10)
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ॐ
।। अथ नवमं मण्डलम् ।।
(सूक्त-1)
(ऋषि –मधुच्छन्दा वैश्वमित्र। देवता पवमान सोम। छन्द-गायत्री।)
नवम मण्डल के लगभग सभी सूक्तों के देवता पवमान सोम के सम्बन्ध में अनेक
धारणाएं है। सोम ऐसा दिव्य प्रवाह है, जो सूर्य को तेजस्वी बनाता है,
प्रक्रति की अनेक प्रतिक्रियाओं का संचालन है। किरणों एवं जल धाराओं के
साथ प्रवहणशील है, वनस्पतियों में स्थिति हैं, प्राणियों के मन और
इन्द्रियों को पुष्ट करने वाला है आदि। सोमवल्ली से निकाले गये
सोमरस को भी सोम ही कहा गया है। विभिन्न मंत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार
के सोम प्रवाहो का वर्णन है कुछ आचार्यों ने मंत्रों का केवल यज्ञीय
कर्मकाण्ड परक अर्थ किया है, जिसमें सोम को निचोड़ कर विभिन्न प्रकार से
यज्ञार्थ तैयार करने की बात की गई है; किन्तु मंत्र सोम की विभिन्न धाराओं
के उदघोषक है, इसलिए इस भाषार्थ में यथा साध्य स्वभाविक
धाराओं-प्रक्रियाओं को इंगित करने वाले अर्थ किये गये है-
7691 स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धाराया। इन्द्राय पातवे सुतः ।। 1 ।।
हे सोमदेव ! आप इन्द्रदेव के लिए पान करने हेतु निकाले गये है, अतः
अत्यन्त स्वादिष्ट, हर्ष प्रदायक धार के रूप में प्रवाहित हो ।। 1 ।।
7692 रक्षोहा विश्वतर्षणिरभि योनिमयोहतम्। द्रुणा सधस्थमासदत् ।। 2 ।।
दुष्टों का नाश करने वालेस मानवों के लिए हितकारी, सोमदेव शुद्ध होकर
सुवर्ण पात्र (द्रोण कलश) में भरकर यज्ञ स्थल पर प्रतिष्ठित हो गये है ।।
2।।
7693 वरिवोधातमो भव मंहिष्ठों वृत्रहन्तमः। पार्षि राधो मघोनाम्।। 3 ।।
हे सोमदेव ! आप महान ऐश्वर्य प्रदाता तथा शत्रुओं (विकारों) को नष्ट करने
वाले हों। वृत्रासुर का हनन करके, उसका महान धन हमें प्रदान करें।। 3 ।।
(इस ऋचा में पौराणिक वृत्रासुर का धन अनीत से बचाकर सत्कार्यों के लिए देने तथा दुष्प्रवृत्ति रूपी असुर से जीवन-सम्पदा छीनकर देव प्रयोजनों में लगाने का भाव है।)
(इस ऋचा में पौराणिक वृत्रासुर का धन अनीत से बचाकर सत्कार्यों के लिए देने तथा दुष्प्रवृत्ति रूपी असुर से जीवन-सम्पदा छीनकर देव प्रयोजनों में लगाने का भाव है।)
7694 अभ्यर्थ महानां देवानां वीतिमान्धसा। अभि वाजमुत श्रवः ।। 4 ।।
हे सोमदेव ! आप श्रेष्ठ देवगणों के यज्ञ में अन्न सहित पहुंचे तथा हमें
अन्न और बल प्रदान करें।। 4 ।।
7695 त्वामच्छा चरामसि तदिदर्थं दिवेदिवे। इन्दों त्वे न आशसः ।। 5 ।।
हे सोम ! हमारी इच्छायें सदैव आपको समर्पित रहती है, अतः हम
उत्तम विधि से आधिक आपकी सेवा करते है।। 5 ।।
7696 पुनाति ते परिस्त्रुतं सोमं सूर्यस्य दुहिता। वारेण शश्वता तना ।। 6
।।
हे सोमदेव ! सूर्य पुत्री (उषा) आपके रस को सनातन (प्रकाशरूप) आवरणों से
पवित्र बनाती है।। 6 ।।
7697 तमीमण्वीः समर्य आ गृभ्णान्ति योषणो दश। स्वसारः पार्ये दिवि ।। 7 ।।
सोम को पवित्र करते समय बहिनों के समान दस अँगुलियाँ (रस निकालने के लिए)
उस सोमवल्ली को पकड़ती हैं।। 7 ।।
7698 तमीं हिन्वन्त्ग्रुवों धमन्ति बाकुरं दृतिम्। त्रिधातु वारणं मधु
।।8।।
तेजस्वी दिखाई पड़ने वाले इस सोमरस को उगलियाँ लाती और दबाकर निकालती हैं।
इस दुःख निवारक मधुर रस में तीन शक्तियाँ (शरीर, मन और बुद्धि को सामार्थ
प्रदान करने वाली) विद्यमान हैं।।8।।
7699 अभीउ ममघ्रया उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।। 9 ।।
न मारी जाने योग्य गौएँ अपने बछड़े को पुष्ट करने के लिए उन्हें (दूध)
पिलाती हैं। (इसी प्रकार) सोम इन्द्रदेव को पुष्ट बनाता है ।।9।।
7700, अस्येदिन्द्रों मदेष्वा वृत्राणि जिघ्नते। शूरो मघा च मंगते।। 10 ।।
सोमपान करने से आनन्दित हुए इन्द्रदेव शत्रुओं का संहार करके यज्ञिकों को
धन प्रदान करते है।। 10 ।।
(सूक्त-2)
(ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता-पवमान सोम। छन्द-गायत्री।)
7701 पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या।
इन्द्रमिन्दो वृषा विश ।। 1 ।।
हे सामदेव ! देव शक्तियों का सन्निध्य पाने की इच्छा करने वाले आप तीव्र
गति से शोधित हों। हे सोमदेव ! बलवर्द्धक आप इन्द्रदेव की तृप्ति के लिए
प्रतिष्ठित हों।। 1 ।।
7702 आ वच्यस्व महि प्यारो वृषेन्दो द्युम्रवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः
।। 2 ।।
हे सोमदेव ! शौर्यवान, दीप्तिमान् और सर्वधारण गुणों से युक्ति आप हमें
प्रचुर मात्रा में अन्न और बल प्रदान करें तथा आप निर्धारित स्थल पर पधारे
।। 2 ।।
7703 अधुक्षय प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः। अपो वसिष्ट सुक्रतुः ।। 3 ।।
शोधित सोमरस की धाराएं प्रिय मधुर रस को प्रात्र में संग्रहीत करती हैं।
सत्कर्मों से युक्त याज्ञिक सोम को जल में मिश्रित करते है।। 3 ।।
7704. महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः। यद्गभिर्वासयिष्यसे।। 4
।।
हे सोमदेव ! जिस समय आप गौ (किरणो अथवा गौ दुग्ध) में मिश्रत होते है उस
समय महान जल (श्रेष्ठ रसादि) आपकी ओर आकर्षित होता है।। 4 ।।
7705 समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणों दिवः। सोम पवित्रे अस्मयुः
।।5।।
जल से युक्त, देवलोक का धारण और आधार भूत हमारा इच्छित सोमरस जल में
मिश्रित और शोषित होकर हमारे निकट आता है।। 5 ।।
7706 अचिक्रददवृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्षतः। सः सूर्योण रोचते।।6।।
मित्र के समान प्रिय शक्ति मान हरिताभ सोमरस, निचोड़ जाते समय शब्द करता
हुआ उसी प्रकार प्रकाशित होता है जिस प्रकार सूर्यदेव प्रकाशित होते हैं।।
।। 6 ।।
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