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ओशो साहित्य >> क्या मेरा क्या तेरा

क्या मेरा क्या तेरा

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3599
आईएसबीएन :81-7182-365-3

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ओशो द्वारा कबीर-वाणी पर दिए गये दस अमृत प्रवचनों को संकलन....

Kya Mera Kya Tera

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरे प्रिय,
प्रेम।

पढ़ो आकाश को क्योंकि वही शास्त्र है।
सुनो शून्य को क्योंकि वही मंत्र है।
जीयो मृत्यु को क्योंकि वही अमृत है।
और, गये शास्त्र में कि भटके।
और पकड़े शब्द कि डूबे।
लिया सहारा मंत्र का कि किया छेद नाव में।
और, खोजना मत अमृत को।
क्योंकि उसे ही खोजते तो जन्म-जन्म व्यर्थ ही गंवाये हैं। खोजो मृत्यु को मिलो मृत्यु से।
 और, अमृत के द्वार खुल जाते हैं।
मृत्यु अमृत का ही द्वार है।


सूत्र



पंडित बाद बदंते झूठा।
राम कह्यां दुनिया गति पावे, षांड कह्यां मुख मीठा।
पावक कह्यां पांव ते दाझै, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्यां भूष जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूं उड़ि जाय जंगल मैं, बहुरि न सुरतैं आनै।।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
धन के कहे धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।।
सांची प्रीति विषै माया सूं, हरि भगतनि सूं हांसी।
कहैं कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
चलन चलन सब कोई कहत है,-ना जांनो बैकुंठ कहां है।
जोजन एक परमिति नहीं जानै। बातनि हीं बैकुंठ बखानै।।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरिचरन निवासा।।
कहै सुनै कैसे पतिअइए। जब लगि तहां आप नहिं जइए।।
कहै कबीर यहु कहिए काहि। साध संगति बैकुंठहि आहि।।
मथुरा जाऊ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोई जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति, का, वो सुमिरावै नाम।।
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।


कठोर राहें

जो उलझे धागों का एक गुफ्फा-सा बन गई हैं
न इनको रंगों की तेज बरखा से कुछ गरज है,
वो तेज बरखा जो मुंह-अंधेरे
किसी पुजारिन के कंपकंपाते सफेद होठों पे नाचती है
न इनकी मंजिल वो शामे गम है, जो एक मैला सा तश्त लेकर
मुसाफिरों से लहू के कतरों  की भीख रो-रो के मांगती है
दहकते तारे, हजीं दुआएं, लरजते हाथों से बांटती हैं
कठोर राहें जो आगे बढ़कर, अदा दिखाकर पलट गई हैं
पलट के पहलू बदल गई हैं
घनेरी शब अपनी काली कमली में गुम खड़ी है
ये सोचती है
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
कोई-सा सीधा सफेद रस्ता उभर के चमके
तो शब का राही उधर को लपके
ये शब का राही
समय के धारे पे बहते-बहते भंवर की सूरत उभर गया है
हजार राहों में घिर गया है !
रात है-और अंधेरी रात है। और रास्ते सब बुरी तरह उलझ गए हैं।
इस उलझन में फंसा आदमी....न पता है कहां से आता है; न पता है कहां जाता है। न पता है कि किस राह को चुने, कैसे चुने ? कोई कसौटी भी हाथ नहीं है। कोई उजाला और रोशनी भी साथ नहीं।

कठोर राहें जो आगे बढ़कर, अदा दिखाकर पलट गई हैं
पलट के पहलू बदल गई हैं

और कभी राह ठीक भी लगती है; थोड़ी ही दूर जाकर बदल जाती है,पलट जाती है; पहलू बदल जाता है। कुछ का कुछ हो जाता है।

कठोर राहें
जो उलझे धागों का एक गुफ्फा सा बन गई हैं

जैसे सुलझाओ और उलझता है गुफ्फा; सुलझने का कोई उपाय नहीं मालूम होता। और बड़ी अंधेरी रात है।

घनेरी शब अपनी काली कमली में गुम खड़ी है
ये सोचती है
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं

रोशनी जरा भी नहीं है। खोजते, टकराते राही की आंखें आंसुओं से भर गई हैं।

भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
कोई-सा सीधा सफेद रस्ता उभर के चमके
तो शब का राही उधर को लपके

कोई सफेद सीधा रास्ता दिखाई पड़ जाए। कोई सीधी-सीधी गैब मिल जाए तो राही लपके।

ये शब का राही। समय के धारे पे बहते-बहते भंवर की सूरत उभर गया है
हजार राहों में घिर गया है !

और ऐसा नहीं कि यह राही आज ही चल रहा है-चल रहा है जन्मों-जन्मों से। न मालूम कितने जन्मों से ! अनंत काल से चल रहा है। चलते-चलते ही उलझ गया है। इतना चल चुका है, इतनी राहों पर चल चुका है, कि इसकी सब राहों का इकट्ठा परिणाम इसके भीतर उलझे धागों का एक गुफ्फा बन गया है।
यह सच है-रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है; जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए।

तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं।
जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है-भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतारने वाले का नाम ही संतपुरुष, सदगुरु है।
एक परम सद्गुरु के साथ अब कुछ दिन यात्रा करेंगे-कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते के नाम है; सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुत: इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा तो चल पाएगा।

यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: मसि कागज छूयौ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’-कागज कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात’-कहा है कहीर ने। जो देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है।
कबीर के वचन अनूठे हैं; झूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है।
संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अद्भुत हैं; मगर कबीर अद्भुतों में भी अद्भुत हैं; बेजोड़ हैं।

कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है; सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं है, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था।
बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग कबीर नहीं करते। छोट- छोटे शब्द हैं जीवन के-सब की समझ में आ सकें। लेकिन उन छोटे-छोटे शब्दों से ऐसा मंदिर चुना है कबीर ने कि ताजमहल फीका है।
जो एक बार कबीर के प्रेम में पड़ गया, फिर उसे कोई संत न जंचेगा। और अगर जंचेगा भी तो इसलिए कि कबीर की ही भनक सुनाई पड़ेगी। कबीर को जिसने, पहचाना, फिर वह शक्ल भूलेगी नहीं।

हजारों संत हुए हैं, लेकिन वे सब ऐसे लगते हैं, जैसे कबीर के प्रतिबिंब। कबीर ऐसे लगते हैं, जैसे मूल। उन्होंने भी जानकर ही कहा है, औरों ने भी जानकर ही कहा है-लेकिन कबीर के कहने का अंदाजे बयां, कहने का ढंग, कहने की मस्ती बड़ी बेजोड़ है। ऐसा अभय और ऐसा साहसी और ऐसा बगावती स्वर, किसी और का नहीं है।
कबीर क्रांतिकारी हैं। कबीर क्रांति की जगमगाती प्रतिमा हैं। ये कुछ दिन अब हम कबीर के साथ चलेंगे-फिर कबीर के साथ चलेंगे। कबीर को चुकाया भी नहीं जा सकता। कितना ही बोलो, कबीर पर बोलने को बाकी रह जाता है। उलझी बात नहीं कही है; सीधी सरल बात कही है। लेकिन अकसर ऐसा होता है कि सीधी-सरल बात ही समझनी कठिन होती है। कठिन बातें समझने में तो हम बड़े कुशल हो गए हैं, क्योंकि हम सब शब्दों के धनी हैं, शास्त्रों के धनी हैं। सीधी सरल बात समझना मुश्किल हो जाता है। सीधी सरल बात से ही हम चूक जाते हैं। इसलिए चूक जाते हैं कि सीधी सरल बात को समझने के लिए पहली शर्त पूरी नहीं कर पाते। वह शर्त है-हमारा सीधा सरल होना।
जटिल बात समझ में आ जाती है, क्योंकि हम जटिल हैं। सरल बात चूक जाती है, क्योंकि हम सरल नहीं हैं। वही तो समझोगे न-जो हो ? अन्यथा कैसे समझोगे ?

इसलिए कबीर पर मैं बार बार बोलता हूं; फिर-फिर कबीर को चुन लेता हूं। चुनता रहूंगा आगे भी। कबीर सागर की तरह हैं-कितना ही उलीचो, कुछ भेद नहीं पड़ता।
कुछ बात कबीर के संबंध में समझ लो, वे उपयोगी होंगी।
एक-कि कबीर के संबंध में पक्का नहीं है कि हिंदू थे कि मुसलमान थे। यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है। संत के संबंध में पक्का हो ही नहीं सकता कि हिंदू है कि मुसलमान है। पक्का हो जाए, तो संत संत नहीं; दो कौड़ी का हो गया।
जब तुम कहते हो; गांव में जैन संत आए हैं; जब तुम कहते हो; गांव में हिंदू संत आए हैं-तब तुम अपमान कर रहे हो संतत्व का। और अगर जैन संत भी मानता है कि जैन संत है, तो अभी संत नहीं। संत और विश्लेषण में ! जैन....और हिंदू...और मुसलमान ! संत होकर भी ये क्षुद्र विशेषण लगे रहेंगे तुम्हारे पीछे ? कभी सीमाओं से बाहर आओगे कि नहीं ? घर छोड़ दिया, समाज छोड़ दिया; लेकिन समाज ने जो संस्कार दिए थे, वे नहीं छोड़े। जिस घर में पैदा हुए थे, वह जैन था, उसको छोड़ दिया; मगर जैन तुम अभी भी हो-संत होकर भी ! तो कहीं कुछ बात चूक गई। तीर निशाने पर लगा नहीं; मेहनत तुम्हारी व्यर्थ गई।

संत होने का अर्थ ही है कि अब न कोई हिंदू रहा, न कोई मुसलमान रहा, न कोई ईसाई रहा। संत का अर्थ है-सत्य के हो गए; अब संप्रदाय के कैसे हो सकते हो ? संत का अर्थ है; धर्म के हो गए; अब पंथों के कैसे हो सकते हो ?
पर कबीर के संबंध में तो बात बहुत साफ है। कुछ पक्का नहीं बैठता। हिंदू थे कि मुसलमान। हिंदुओं का दावा है-हिंदू थे; मुसलमानों का दावा है-मुसलमान थे। यह बात प्रीतिकार है।

जब भी संत होगा, तो ऐसा होगा। हिंदू दावा करेंगे-हमारे। ईसाइयों को जीसस दिखाई पड़ जाएंगे कबीर में, और मुसलमानों को मोहम्मद दिखाई पड़ जाएंगे, और हिंदुओं को कृष्ण मिल जाएंगे, और बौद्धों को बुद्ध का दर्शन हो जाएगा।
संत तो दर्पण है; तुम अपनी जो भावदशा लेकर आओगे, उसी को झलका देगा। ऐसा तो सभी संतों के साथ होता है, होना चाहिए। लेकिन कबीर का जन्म भी कुछ रहस्यमय है। मीठी कहानियां हैं। मनगढ़ंत भी हो सकती हैं; मगर फिर भी महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदू कहते हैं-एक विधवा ने संत रामानंद के चरण छुए। रामानंद अपनी मस्ती में होंगे। उन्होंने खयाल ही न किया कि कौन चरण छू रहा है। स्त्री थी,चरण छूती थी, घूंघट डाले होगी या....चेहरा भी नहीं देखा, कपड़े भी नहीं देखे, और आशीर्वाद दे दिया। संत तो बिना देखे ही आशीर्वाद दे देते हैं। देख-देखकर जो आशीर्वाद दे, वह संत थोड़े है। तुम मांगो तब दे, वह कोई संत थोड़े है। संत तो आशीर्वाद है। संत का तो होना ही आशीर्वाद है। उसके चारों तरफ तो आशीर्वाद बरसते ही रहते हैं। आशीर्वाद दे दिया कि पुत्रवती हो। और वह थी विधवा। अब बड़ी मुश्किल हो गई।
यह कहानी बड़ी मधुर है। ऐसा हो या न हुआ हो, यह सवाल ही नहीं है। इतिहास का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। मेरे लिए मूल्य है शाश्वत, चिरंतन सत्यों का।

तो एक शाश्वत सत्य कि संत, मांगो तो आशीर्वाद दे, ऐसा नहीं। संत देख-देखकर आशीर्वाद दे ऐसा भी नहीं। संत तो आशीर्वाद देता ही चला जाता है। आशीर्वाद के अतिरिक्त उसके पास कुछ देने को है भी नहीं। आशीर्वाद उसकी सुगंध है। और आशीर्वाद के अतिरिक्त उसके पास कुछ देने को है भी नहीं। आशीर्वाद उसकी सुगंध है। और आशीर्वाद ही उसकी श्वास प्रश्वास है।

तो यह विधवा को आशीर्वाद दे दिया कि पुत्रवती हो। यह आशीर्वाद भी अर्थपूर्ण है। स्त्री जब तक मां न बन जाए, तब तक कुछ अधूरा रह जाता है। पुरुष के पिता बनने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।
पुरुष का पिता बनना औपचारिक है, संस्थागत है। स्त्री का मां बनना औपचारिक नहीं;प्राणगत है। पुरुष का काम तो बच्चे के जन्म में बड़े दूर का है; कुछ खास नहीं है; ना के बराबर है। लेकिन स्त्री का काम ना के बराबर नहीं है। स्त्री अपने गर्भ में बच्चे को पालती है; अपना प्राण उड़ेलती है। फिर बच्चे को बड़ा करती है। लंबी साधना है।
तो जो स्त्री मां नहीं बन पाती, कुछ अधूरी रह जाती है; कुछ कमी रह जाती है; कुछ खाली-खाली रह जाता है; कुछ भराव कम रहता है। इसलिए इसदेश में संत आशीर्वाद देते रहे-पुत्रवती हो !
दे दिया आशीर्वाद, देखा भी नहीं कि विधवा है, सफेद कपड़े पहने हुए है, हाथ में चूड़ियां नहीं हैं, माथे पर तिलक टीका नहीं है। इतना तो देख लेते !

फिर कहानी यह कहती है कि जब संत आशीर्वाद दे दे, तो आशीर्वाद पूरा होना चाहिए। संत का आशीर्वाद खाली तो नहीं जा सकता। यह बात भी समझने जैसी है।
सत्य से जो स्वर उठेगा, वह खाली नहीं जा सकता है। सत्य से जो तीर निकलेगा, वह निशाने पर लगेगा ही। और संत कह दे, तो अस्तित्व को उसे पूरा करना ही होगा। क्योंकि संत अपने से तो कुछ कहता नहीं; किसी अहंकार अस्मिता से तो कहता नहीं। निरहंकार भाव से कहता है। संत खुद तो कहता ही नहीं; परमात्मा ही उससे जो कहता है, वही कहता है। परमात्मा के हाथ बांसुरी की भांति है संत।

विधवा थी, विवाह तो कर न सकती थी; संत ने आशीर्वाद दे दिया था, तो बच्चा हुआ। इसलिए कबीर नाम। हिंदू कहते हैं कबीर नाम, क्योंकि इस विधवा के हाथ, कर से कबीर का जन्म हुआ-तो ‘करवीर’ उससे कबीर बना। यह तो केवल प्रतीक घटना है। इसको इतिहास मत मानना। हाथों से बच्चे पैदा होते नहीं।
जैसे जीसस की कहानी है-कुंवारी मरियम से पैदा हुए; कुंवारी स्त्री से कोई पैदा नहीं होता। लेकिन यह हो सकता है कि मरियम इतनी पवित्र रही हो, इतनी निर्दोष रही हो, कि उसका कुंवारापन आत्मिक है। उसकी ही सूचना है कुंवारापन। कुंवारापन यानी अकलुषित भाव, निर्दोष भाव।
और जीसस जैसा व्यक्ति पैदा हो, तो साधारण स्त्री से हो भी नहीं सकता। कोई असाधारण स्त्री चाहिए। फल से ही तो हम वृक्ष का पता लगाते हैं। जीसस से पता लगता है कि मरियम भी अनूठी रही होगी।
इसलिए सभी संतपुरुषों के साथ अनूठी कहानियां जुड़ जाती हैं। कहानियां मूल्य की नहीं हैं। लेकिन संत इतना अनूठा पुरुष है कि हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वह वैसे ही जन्मता होगा, जैसे और सब जन्मते हैं।
इन कहानियों में हमारी इसी पीड़ा की सूचना है।

हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि जीसस ऐसे ही पैदा होते हैं, जैसे और सब लोग पैदा होते हैं; या कबीर ऐसे ही पैदा होता हैं, जैसे और सब लोग पैदा होते हैं। कबीर को कुछ भिन्न ढंग से आना चाहिए। कबीर इतने अनुठे हैं कि अनूठे ढंग से आना चाहिए। हम स्वीकार कर नहीं पाते कि कबीर और उन्हीं चलाए रास्तों से आएंगे, जिनसे और लोग आते हैं। इसलिए कहानियां हैं।
लेकिन मुसलमानों की अपनी कहानी है। और कबीर शब्द वहां ज्यादा सार्थक मालूम होता है, बजाय इस हिंदू कथा के ‘करवीर’ से । यह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने ईजाद कर लिया-कबीर में से। लेकिन कुरान में कबीर अल्लाह का एक नाम है। इसलिए मुसलमान कहते हैं कि कबीर अल्लाह का नाम है: करवीर नहीं। यह आदमी अल्लाह की जीती जागती प्रतिमा है-इसलिए कबीर।
कुछ भी हो, कबीर का जन्म रहस्य में छिपा है।

नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा ने...दोनों लौट रहे थे। नीरू जुलाहा गौना कराके लौट रहा था। काशी की तरफ आ रहा था, अपने घर की तरफ आ रहा था, और काशी के पास लहरतारा तालाब में हाथ पैर धोने को रुका था कि वहीं उसने रोने की आवाज सुनी, पास की झाड़ी में, तो भागा; देखा, तो यह बच्चा पड़ा था।
इतना प्यारा बच्चा नीरू जुलाहे ने कभी देखा नहीं था। उसकी आंखें ऐसी थीं, जैसे मणि- ऐसी रोशनी थी उसकी आंखों में; और उनके चारों तरफ प्रकाश था। और वह साधारण सी झाड़ी एक अपूर्व आनंद से भरी मालूम पड़ती थी। एक गहन शांति और एक आनंद।

नीमा तो डरी कि कुछ झंझट होगी, लोग क्या कहेंगे, अपवाद होगा, मगर उसने भी जब बच्चे को देखा, तो उसका भी दिल डोल गया। वे उठाकर कबीर को घर लाए। शायद यहां दोनों कहानियां जुड़ जाती हैं; शायद कबीर विधवा से पैदा हुए थे, विधवा उन्हें छोड़ गई थी-तालाब के पास। और नीरू जुलाहा और नीमा उसकी पत्नी, ये तो मुसलमान थे, इन्होंने कबीर को पाला।

कबीर, ऐसा लगता है कि हिंदू घर में पैदा हुए और मुसलमान घर में पले। इसमें एक अपूर्व संगम हुआ। इससे एक अपूर्व समन्वय हुआ।
कबीर में हिंदू और मुसलमान संस्कृतियां जिस तरह तालमेल खा गईं, इतना तालमेल तुम्हें गंगा और यमुना में भी प्रयाग में नहीं मिलेगा; दोनों का जल अलग अलग मालूम होता है। कबीर में जल-जरा भी अलग-अलग मालूम नहीं होता।
कबीर का संगम प्रयाग में संगम से ज्यादा गहरा मालूम होता है। वहां कुरान और वेद खो गए कि रेखा भी छूटी।
लेकिन कथा रहस्यपूर्ण है और उसमें और भी हिस्से जुड़े हैं। जरूर रामानंद का कुछ-न-कुछ हाथ रहा होगा। या तो उनके आशीर्वाद से इस विधवा को यह बच्चा उत्पन्न हुआ है या इस विधवा को बच्चा उत्पन्न हुआ है और रामानंद की करुणा है इस विधवा पर, इस बच्चे पर। यद्यपि इसे छुड़वा दिया है या छोड़ दिया है; मगर रामानंद उस बच्चे की चिंता लेते रहे। तो नीरू जुलाहे ने मुसलमान की पूरी संस्कृति दी, और रामानंद के रस ने हिंदू-भाव को कायम रखा। दोनों बातें मिल गईं और एक हो गईं।

कबीर युवा हुए, तो स्वभावतः वे रामानंद के शिष्य होना चाहते थे, लेकिन यह अड़चन की बात थी, क्योंकि दुनिया तो जानती थी कि वे मुसलमान हैं। रामानंद मुसलमान को कैसे दीक्षा देंगे ? रामानंद के शिष्यों में बड़ा विरोध था। तो मीठी घटना है कि कबीर ने एक उपाय चुना।
अगर गुरु को खोजना ही हो शिष्य को, तो शिष्य खोज ही लेगा। सारी व्यवस्थाएं औपचारिकाताएं, शिष्टाचार समाज के नियम इत्यादि पड़े रहे जाएंगे।

तो कबीर जाकर नदी के तट पर कंबल ओढ़ कर सो रहे। सुबह-सुबह पांच बजे, अंधेरे में आते हैं रामानंद स्नान करने, उनके रास्ते में सो रहे। रामानंद का पैर लग गया अंधेरे में; चोट खा गया कोई, तो रामानंद के मुंह से निकला; राम राम। और कबीर ने उनके पैर पकड़ लिए, और कहा कि मंत्र दे दिया फिर !’ ऐसे मंत्र लिया ! इसको कहते हैं-खोजी ! इसको कहते हैं-मुमुक्ष !
गुरु टाल रहा था, व्यवस्था अनुकूल नहीं पड़ रही थी, समाज विरोध में था; लेकिन मंत्र दीक्षा तो लेनी थी। गुरु का वचन तो लेना था। गुरु का आशीर्वाद तो लेना था।
इजिप्त में एक पुरानी कहावत है कि जब तक शिष्य, गुरु से चुराने को तैयार न हो, तब तक कुछ भी नहीं मिलता। यह कबीर के संबंध में तो बड़ी लागू होती है। गुरु से चुरा लिया। गुरु ने तो ‘राम-राम’ कहा था। ऐसे ही पैर की किसी पर चोट लग गई, पता नहीं कौन है ‘राम-राम’ निकल गया होगा; लेकिन कबीर ने पैर पकड़ लिए और कहा कि अब आशीर्वाद दो, मंत्र तो दे ही दिया ! ऐसे कबीर दीक्षित हुए।

कबीर ने कहा है काशी में हम प्रगट भए हैं, रामानंद चेताए।’ इतना ही मंत्र और कबीर कहते हैं; चेता दिया। फिर कोई फिक्र भी नहीं है। कहा: इतना बहुत है-राम-राम। एक राम से काम चल जाता है दो बार राम-राम कह दिया, अब और क्या चाहिए ? चेता दिया। काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानंद चेताए।’
यह झगड़ा कबीर के जीवन में चलता रहा-कि वे हिंदू हैं कि मुसलमान। मुसलमान भी पूजते रहे; हिंदू भी पूजते रहे। लेकिन बुद्धि तो छोटी होती है, वह झगड़ा चलता रहा, वह मरने तक चला !

कबीर जब मरे तो लाश पड़ी है, कफन डाल दिया गया है। हिंदू कहते हैं; हम जलाएंगे और मुसलमान कहते हैं; हम गड़ाएंगे। सोचो, कबीर जैसे व्यक्ति के पास रहकर भी लोग चूक जाते हैं। अंधेपन की भी एक सीमा होती है; कबीर के पास रहे, कबीर को चाहा, और इतना भी न समझ पाए ! जिंदगी भर कबीर के संगम में नहाए, और कुछ भी न धुला। मरते वक्त भी झगड़ा खड़ा हो गया। लाश पड़ी है और शिष्य झगड़ रहे हैं कि जलाएं कि गड़ाए ! और जब चादर उघाड़कर देखी तो पाया कि कबीर वहां नहीं है; कुछ फूल पड़े हैं।

यह भी प्रतीक कथा है। ऐसा हुआ हो, मैं नहीं कहता। चमत्कारों में मेरा कोई आग्रह नहीं है। मगर कथाओं में अर्थ है; वे चमत्कारों से ज्यादा मूल्यवान हैं। चमत्कार से कुछ तुम्हारी प्रज्ञा निखरती भी नहीं। चमत्कार से तो तुम्हारी प्रज्ञा और धूमिल हो जाती है। इसलिए चमत्कारों की बकवास में मत पड़ना कि ऐसा हुआ। लेकिन इतनी बात लेना कि संत का जीवन तो फूलों जैसा है। वह अपने पीछे कुछ फूल ही छोड़ जाता है। बस, इतना ही समझना।
संत का जीवन स्थूल नहीं है; सूक्ष्म है। संत का जीवन पत्थरों जैसा नहीं है, फूलों जैसा है; अभी है, अभी उड़ जाएगा।
और संत को समझना हो तो फूल की अवस्था समझनी चाहिए। कितना कोमल फिर भी कितना जीवंत। क्षण भर को टिकता है, लेकिन क्षण भर में भी शाश्वत की झलक दे जाता है। क्षण भर को है; अभी है, अभी समाप्त हो जाएगा; सुबह है, सांझ नहीं होगा-लेकिन इस थोड़ी-सी देर में परमात्मा का प्रतीक बन जाता है; परमात्मा का सौंदर्य झलका जाता है।    


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