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जीवन के रंग ओशो के संग

स्वामी अगेह भारती

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3597
आईएसबीएन :81-288-0560-6

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ओशो के जीवन पर आधारित पुस्तक

jeevan ke rang osho ke sang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेम कितनी नाजुक चीज है, यह चर्चा का विषय नहीं है, यह अनुभव की बात है। फिर भी प्रेम पर बहुत कहा गया है, बहुत कहा जाता रहेगा। शायद जिस पर कहा नहीं जा सकता उसी पर सर्वाधिक कहना पड़ता है। जो जितना अनिर्वचनीय है, उस पर उतना ही कहा बोला जाता है। प्रेम पर तो कुछ कहा जाना संभव नहीं है, वह तो शुद्ध अनुभव की बात है, अनुभूति की बात है। पर उसके बाहरी कलेवर, उसके लक्षण, उसके उस स्वरूप का जिक्र किया जा सकता है जिससे जिक्र करने वाला परिचित हो।

पूर्व शब्द


कुछ घटनाएं घटीं, कुछ स्मरण आईं, उन्हें लिपिबद्ध करने का जी हुआ। पुस्तक का नाम सूझा: ‘जिन्दगी’। फिर विभिन्न प्रकार की बातों का समावेश होने लगा। पुस्तक का नाम बदलकर हो गया : ‘जिन्दगी के रंग’। फिर लगा कि मेरे जीवन में ओशो और उनका प्रेम इस कदर रच-बस गया है कि वे हर बात में आ जाते हैं। उनके बगैर मेरा सब-कुछ अधूरा, अपूर्ण रहता है। वे आ ही जाते हैं, आ ही गए। स्वभावतः पुस्तक का नाम हो गया : ‘जीवन के रंग :ओशो के संग’। पुस्तक का नाम पर्याप्त सूचक है कि  
भीतर क्या है। मुझे अधिक कुछ कहने की जरूरत नहीं महसूस होती।
आशा है मेरी अन्य पुस्तकों की भांति यह भी पाठकों के दिलों में उतर जाने में सक्षम साबित होगी।
मा क्रान्ति अपूर्वम, किशनगढ़ व उनके पति श्री दीपक शर्मा ने पाण्डुलिपि तैयार करने में सहयोग न किया होता तो यह पुस्तक आपके हाथ में पहुंचने में अभी और देर लगती। उनका अनुग्रह।
सभी के प्रति प्रेम सहित,

स्वामी अगेह भारती

जीवन के रंग : ओशो के संग

1

एक दिन मैं कुछ देर के लिए एक अस्पताल में था। मैंने वहां देखा एक गरीब परिवार की महिला अपने पति को सहारा देती डॉक्टर के पास ले आई। वह टी.बी. का मरीज था। डॉक्टर ने अस्पताल में ही एक्सरे करवा लाने को कहा। मरीज चल नहीं सकता था। वह रहा होगा कोई 35 साल का, टी.बी. उसे खा चुकी थी। पत्नी सहारा देकर ले जा रही थी, 200 फीट दूरी पर ही एक्स-रे की सुविधा थी। परन्तु वह 100 फीट ही ले जा पाई होगी कि वह व्यक्ति गिर गया और उसने वहीं दम तोड़ दिया।


2



एक सज्जन किसी से कह रहे थे-‘हार्ट डिजीज’ बहुत खतरनाक बीमारी होती है। मैं 15 वर्षों से दवा ले-लेकर किस तरह आपरेशन से बच रहा हूं, मैं ही जानता हूं।’
मैं उनकी यह बात सुन ही रहा था कि दूसरी तरफ एक आदमी को बतियाते सुना, ‘भाई वह 28 वर्ष का था, अविवाहित था, बस विवाह करने वाला था, इस साल। बहुत पुष्ट शरीर था उसका, पूर्णतः नीरोग। पर जाने कैसे ‘फूड प्वाइजनिंग’ हो गया और वह कुछ ही क्षणों में विदा हो गया।


3



ठाकुर संग्राम सिंह बहुत मजबूत थे, इतनी जल्दी विदा हो जाएंगे, कोई सोच भी नहीं सकता था। उनका उस क्षेत्र में बड़ा दबदबा था। कम से कम एक बॉडीगार्ड राइफल लिए साथ चलता था। उनकी चाल बड़ी रौबदार थी। उनकी दोनों किडनी खराब हो गईं। उनके छोटे भाई के भ्रातृप्रेम एवं साहस की दाद दूंगा, उसने अपनी एक किडनी भाई को दे दी, पर जाने किस चूक के कारण वह आठ-दस माह ही चल पाए। बेचारे बच नहीं सके।


4



वह जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज का तृतीय वर्ष का छात्र था। मेरे अनुज श्री रजवन्त भाई का साथी था। छात्रावास में रह रहा था। रविवार का दिन था। आराम से नाखून काट रहा था। एक नाखून जरा सा जिन्दा कट गया, कुछ देर बाद उसने गर्दन में कड़ापन अनुभव किया। तुरन्त विक्टोरिया अस्पताल फोन किया गया, एम्बुलेन्स आई किन्तु अस्पताल पहुंचते-पहुंचते गर्दन लटक गई और वह बचाया न जा सका।
 
मौत आती है तो किसी भी बहाने आ जाती है, छोटी से छोटी चीज मौत का कारण बन जाती है।
आखिर मेरे एक बाबा श्री बलदेव बख्श सिंह भले चंगे ही तो थे। शाम का भोजन ले रहे थे, एक चावल गलत नली में चला गया। उन्हें तुरन्त कस्बे के सरकारी अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने जिला अस्पताल प्रतापगढ़ ले जाने की सलाह दी। उन्हें प्रतापगढ़ ले जाने की तैयारी ही कर रहे थे कि वह विदा हो गए।
जबलपुर का प्रभात तिवारी तो बहुत तगड़ा व मजबूत था। पूरा पहलवान था। उसके पेट में तकलीफ हुई, ट्यूमर था। वह मध्य रेलवे के मुख्यालय हॉस्पिटल मुम्बई में भर्ती था। सुना है कि उसे सोलह-सोलह हजार के तीन इंजेक्शन दिए गए, पर वह भी उसे बचा न पाए।
इतने सब वैज्ञानिक विकास के बावजूद जिन्दगी एक रहस्य है, मैं समझता हूं यह सदा रहस्य रहेगी।


5



मेरा भांजा प्रदीप कुमार सिंह, 17 वर्ष का था। बड़ा योग्य, मिलनसार व सामाजिक था। एक बार वह जामुन के पेड़ से गिर पड़ा, चिकित्सक बुलाए गए, जांच की गई तो पाया कि उसे कहीं चोट नहीं लगी थी, लड़के ने चलकर भी बताया। फिर भी, सुरक्षा के लिए चिकित्सक ने एक इंजेक्शन लगाया और चला गया। लड़के को इंजेक्शन का ‘रिएक्शन’ हो गया, डॉक्टर को बुलाया जाए उससे पूर्व ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। पूरे परिवार में हाहाकार मच गया।

पड़ोस के एक घर में पुत्र-जन्म की खुशी में उत्सव चल रहा था, लाउड स्पीकर पर आवाज आ रही थी-‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो।’


6



तीन लड़कियां बड़ी सुन्दर, चुलबुली व नटखट थीं। बीच सड़क पर मस्ती करती चल रही थीं और लगभग सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थीं। इस उम्र में तो मौत की पगध्वनि भी नहीं सुनाई पड़ती क्योंकि नशा पूरा होता है, बेहोशी पूरी होती है।
पर मौत तो आती है। यह सच है कि वह बेहोशी में ही आती है। होश वाले तो उद्घोष करते हैं कि मृत्यु है ही नहीं, मृत्यु एक झूठ है।
जो भी हो, अचानक एक ओवरलोडेड व अनियत्रिंत गति से आ रहा ट्रक तीन में से एक लड़की को ठोकर मार गया। उसके मस्तिष्क में खतरनाक चोट आई थी और वहीं अंततः घातक साबित हुई।
सच, इस उम्र में मृत्यु से संबंध जोड़ पाना कठिन बात है, उसके लिए असाधारण प्रतिभा होनी चाहिए।


7



मेरा हृदय रोग परीक्षण के दौरान टी.एम.टी. ‘पॉजीटिव’ आ गया। मार्च 1999 में मुझे दक्षिण रेलवे मुख्यालय हॉस्पिटल पेरम्बूर, चेन्नई भेजा गया। डॉक्टर ने वहां 9 जुलाई को एंजियोग्राफी की तारीख निश्चित की। 8 जुलाई 1999 को मुझे प्रातः 7 बजे पुरुष कार्डियोलॉजी विभाग में भर्ती हो जाना था। डॉ. पी.जी. नायर ने मुझे स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जुलाई में कोई पुरुष सदस्य भी साथ ले आईएगा क्योंकि आपरेशन भी करना पड़ सकता है। ऐसी दशा में छह बोतल खून की जरूरत पड़ेगी और उसकी व्यवस्था करना एक पुरुष सदस्य के बिना कठिन कार्य होगा।

मार्च में अपने साथ संबोधि भर को ले गया था। सारा परिवार भारी मानसिक दबाव में था। मैं भी भारी दबाव में था। कुछ भी हो सकता था। लेकिन संबोधि का और मेरा भी हृदय कहता था कि एंजियोग्राफी की रिपोर्ट ठीक आएगी, आपरेशन की जरूरत नहीं पड़ेगी। और यदि पड़ी भी तो कोई ऐसी आपातस्थिति नहीं होगी कि तत्काल आपरेशन करना पड़ जाएगा। आपरेशन की तारीख निश्चित करेंगे तो स्वामी गोविन्द भारती (दामाद) व स्वामी अमृत भारती (छोटे पुत्र) को फोन करेके बुला लेंगे, अतः हमीं दोनों गए। और सच ही, एंजियोग्राफी रिपोर्ट ठीक आई। कोई भी रक्त धमनी अवरुद्ध न थी। तत्काल हम रिलैक्स हो गए। और तो और मैं जिसका संसार सिमटकर अभी-अभी बहुत छोटा हो गया था, मेरा संसार फिर फैल गया अर्थात् मैं फिर निश्चिंत हो गया जैसे कि मुझे यहां सदा रहना है। भूल गया मृत्यु को फिर देखने लगा सपने। आश्चर्य है अपने ही ऊपर। अभी तक मृत्यु सामने खड़ी नजर आ रही थी। अब जैसे मृत्यु कुछ देर को नहीं, सदा के लिए टल गई। सच पूछा जाए तो मृत्यु हर क्षण सामने खड़ी है, आपातस्थिति उतनी ही है। जितनी कभी थी। दस-पांच या पंद्रह वर्षो की क्या हैसियत है। एक पल में यह भी बीत जाएगा। पर मैंने स्पष्ट देखा कि मनुष्य मृत्यु के ख्याल को किस तरह भूल जाना चाहता है, किस तरह नींद में जाने को तैयार रहता है। थोड़ा सा मौका मिल जाए और वह खर्राटे लेने को तैयार बैठा है।


8



15 अगस्त 2001 के दैनिक भास्कर में ‘वार्ता’ के हवाले से एक समाचार प्रकाशित हुआ कि गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि ओशो के संदेशों के जरिये दुनिया के लोग भारत को और अच्छी तरह समझ सकते हैं। उन्होंने कहा भारत को इतिहास और भूगोल से परे बताने वाले ओशो का चिंतन देश का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करता है। उन्होंने कहा ओशो के विचार आपातकाल के दौरान उन्होंने काफी सुने तथा ओशो से नहीं मिल पाने का उन्हें अफसोस है। उन्होंने कहा भारत मात्र चिंतन का प्रतीक नहीं है, भारत अनुभूति और दर्शन का प्रतीक है तथा ओशो हमें उसी की याद दिलाते हैं।
गृहमंत्री आडवाणी के विचार पढ़कर मुझे स्मरण आ रहा है कि यही व्यक्ति मोरारजी की जनता सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री था। जब इटली और इंग्लैंड की टी.वी. टीमें ओशो आश्रम पूना पर फिल्म बनाना चाहती थीं पर आडवाणी ने उन्हें इसलिए अनुमति नहीं दी थी कि ओशो आश्रम भारतीय संस्कृति की सच्ची छवि प्रस्तुत नहीं करेगा। आडवाणी की इस बात को लेकर ओशो ने अपने एक प्रवचन में उनकी जमकर खिंचाई भी की थी।

खैर, इससे यह तो लगता है कि आदमी की समझ बढ़ रही है धीमे सही, पर बढ़ रही है। हालांकि राजनीतिज्ञ तो बेचारा राजनीतिज्ञ ही है। अब यहीं देखिए, लालकृष्ण आडवाणी को ओशो के विचार सही लगते हैं तो उसका क्या उपयोग कर रहे हैं, राष्ट्र-उत्थान के लिए ? आज वह ज्यादा ताकत में भी हैं। पर नहीं, ओशो के लोग किसी कार्यक्रम में आमंत्रित करते हैं तो वहां ऐसे लच्छेदार भाषण दे देते हैं। भाषण देना उनका धंधा है आचरण नहीं। वर्ना अगर वह ओशो को समझते हैं तो आज तो एक ‘ध्यान आंदोलन’ की जरूरत है। हर विद्यालय, महाविद्यालय में एक घंटा ध्यान के लिए दिया जाए तो मनुष्य बेहतर होगा। तभी मनुष्य का मानसिक व आत्मिक विकास होगा। यह ‘ध्यान आंदोलन’ देश के पार जाकर एक जगत्व्यापी रूप ले सकता है और विश्व में शांति, प्रेम व भाईचारे का कारण बन सकता है।


9



उस दिन मैं महाकौशल एक्सप्रेस द्वारा सतना से जबलपुर जा रहा था, ए.सी.-2 में। सतना में ट्रेन छूटने से पहले एक सत्रह-अठारह वर्ष के नवयुवक ने मेरे पास आकर कहा, ‘अंकल, नमस्ते, ...आप मुझे पहचान नहीं रहे हैं, मैं उस दिन जबलपुर जा रहा था मम्मी के साथ, तब आपको मिला था ?’
मैंने कहा, ‘हां, याद आया आप मिले थे।’
उस नवयुवक ने कहा, ‘अंकल, मेरी मम्मी, बहन व दो लोग और जबलपुर जा रहे हैं, कण्डक्टर, नाटकबाजी कर रहा है, आप थोड़ा देख लीजिएगा।’

मैंने कहा, ‘कण्डक्टर क्यों नाटकबाजी कर रहा है, आप तो पूर्व सांसद के पुत्र भी हैं। अगर आपके पास सही टिकिट वगैरह होगी तो वह गड़बड़ क्यों करेगा। और मैं इस सब में क्या कर सकता हूं ?’
तब तक ट्रेन चल दी। उस नवयुवक ने गाड़ी छूटते-छूटते पुनः कहा, ‘अंकल’ देख लीजिएगा।
गाड़ी छूटने के पांच मिनट बाद ही मैंने देखा कि उस नवयुवक की माताजी व उनके तीन अन्य संबंधी ए.सी.-2 से लगे स्लीपर क्लास में जा रहे हैं, पीछे-पीछे कण्डक्टर भी है। स्लीपर क्लास की ओर पहुंचाकर कण्डक्टर ने वह दरवाजा बन्द कर लिया जो ए.सी.-2 व स्लीपर को जोड़ता था। कण्डक्टर वापस लौटा तो मैंने पूछा कि इन लोगों के पास क्या था यात्रा करने के लिए ?

कण्डक्टर ने बताया कि उनके पास पासपोर्ट है। पासपोर्ट दिखाकर ए.सी.-2 में यात्रा करना चाहते थे। मैंने कहा स्लीपर में चले जाओ वर्ना झांसी से चार लोगों की टिकिट बनेगी तो पांच हजार से कम न लगेगा।
मैं सोच रहा था ये नेता लोग किस तरह सब कुछ पर अपनी मालकियत समझते हैं। ट्रेन में फ्री चलना चाहते हैं और वह भी ए.सी-2 में ही। जहां जाएंगे विश्रामगृह का उपयोग करना चाहते हैं और करते हैं। जिधर जाएं फूल मालाएं पहनायी जाएं, ऐसी अपेक्षा भी रखते हैं क्योंकि देश-सेवा कर रहे हैं। देश-सेवा कर रहे हैं या देश की लूट रहे हैं ? आदमी समझदार होगा तो ऐसे बेईमान और गैरजिम्मेदार नेताओं को इनकार ही नहीं कर देगा, वरन् अपने क्षेत्र में भी घुसने न देगा।


10



एक दिन प्रायः जब मैं घूमने गया तो रास्ते में मोहन जी मिल गए और साथ हो लिए। कोई साथ हो लेता है तो उस दिन टहलने का मजा अवश्य किरकिरा होता है। अकेले टहलने का मजा ही कुछ और है। चुपचाप प्रकृति के साथ, कभी अपने साथ, कभी हवा को महसूसते हुए, कभी लाल निकलते सूरज को।

पर मोहन जी मिल गए। एक दो लोग ही ऐसे हैं जो मिलते हैं तो साथ हो लेते हैं। उनमें ये हैं भी नहीं, पर जाने क्यों कल साथ हो लिए। कुछ कदम चले होंगे कि दायीं ओर मंदिर पड़ा। डाकिया जैसे डाक फेंकता है वैसा ही उन्होंने नमस्कार फेंका और चलते गए। उन्होंने मुझसे पूछा कि जब मार्ग में मंदिर पड़ते हैं तो आपको क्या ‘फीलिंग’ होती है ? मैंने कहा मुझे मंदिर के लिए व उसमें स्थापित पत्थर की मूर्तियों के लिए कोई ‘फीलिंग’ नहीं होती। वह बोले कुछ तो होती ही होगी। मैंने कहा मुझे मंदिर के लिए व उसमें स्थापित पत्थर की मूर्तियों के लिए कोई फीलिंग नहीं होती। जैसे आस-पास की दीवालों के लिए नहीं होगी।

उन्होंने कहा, ऐसे कैसे कोई ‘फीलिंग’ नहीं होती। वहां तो भगवान विराजमान हैं।
मैंने कहा जिसे पत्नी में, बच्चे में, मां में, बाप में, पड़ोसी में भगवान नहीं दिखता, उसे पत्थर में कैसे दिखेगा ? यह आत्म प्रवंचना है।
वह कहने लगे कि उनको तो भगवान जैसी फीलिंग होती है, और उन्हें उनके भगवान के लिए दीवाल व पत्थर शब्द सुनने में कष्ट हो रहा है।
मैंने कहा अगर सचमुच भगवान जैसी फीलिंग होती तो उस फीलिंग में मगन डूबे रहते या दूसरे की गवाही मांगते ? कोई किसी के प्रेम में होता है क्या दूसरों से पूछने जाता है कि आपको कैसी फीलिंग होती है ?
तब तक हमारा अलग होने का स्थल आ गया। वह कहने लगे क्षमा कीजिएगा, अगर कुछ कड़वा कहा हो ! मैंने कहा आदमी का सब कुछ शिष्टाचार हो गया है, एक कृत्रिम आचार हो गया है; धर्म भी ! कितना अशोभन है यह !!


11



जगह-जगह में भेद हो जाता है। शहर-शहर की संस्कृति अलग हो जाती है। सतना में एक आदमी सड़क पर किसी चीज से टक्कर खाकर गिर जाए या रेलवे ट्रेन से ठोकर खा जाए तो लोगों की भीड़ लग जाती है लेकिन मुंबई में जहां बताते हैं कि औसतन 27 आदमी हर रोज लोकल ट्रेनों से कटकर या धक्के खाकर मर जाते हैं वहां जब किसी के कटने पर ट्रेन खड़ी होती है तो ट्रेन में सवार मुसाफिर कोसते हैं कि क्या कम्बख्त को इसी ट्रेन से कटना था, ऑफिस पहुंचने के लिए लेट हो रहे हैं।
यह स्वभाविक है। इसमें किसी का दोष नहीं। जहां जिंदगी जितनी तेज भागेगी वहां आदमी उतना ही यंत्रवत हो जाएगा और उसकी संवेदनशीलता क्षीण होती जाएगी। संवेदना और आदमीयत के लिए अवकाश चाहिए।


12



मुझे खुशवंत सिंह की दो बातें बहुत सटीक लगी हैं। एक तो जब वह इंग्लिश मैगजीन ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ के संपादक थे तब उन्होंने 1980 किसी अंक में संपादकीय लिखा था कि चर्चित सद्गुरु ओशो की सर्वाधिक विवादास्पद पुस्तक ‘संभोग से समाधि की ओर’ मैं सर्वप्रथम पढ़नी शुरू की पर मैं चकित था कि उसका एक-एक शब्द अपार प्रज्ञा से परिपूर्ण है। मैं तो अनुमोदन करूंगा कि 16 से 60 वर्ष के आयु-समूह में जो भी व्यक्ति हैं, उन सब को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
और दूसरी टिप्पणी 18 नवंबर 2001 के ‘रसरंग’ दैनिक भास्कर में पढ़ी कि ‘सभी राजनीतिज्ञों को सायनाइड खाकर आत्महत्या कर लेनी चाहिए।’

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