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पुराण एवं उपनिषद् >> गणेश पुराण

गणेश पुराण

विनय

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3592
आईएसबीएन :81-288-0690-4

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पुराण-साहित्य-श्रृंखला में गणेश पुराण

Ganesh Puran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि हैं। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म, और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक गणेश पुराण प्रस्तुत है।     पुराण साहित्य भारतीय साहित्य और जीवन की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों की स्थापना आज के मनुष्य को एक निश्चित दिशा दे सकता है।

    निरन्तर द्वन्द्व और निरन्तर द्वन्द्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति का मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं। इसी उद्देश्य को लेकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज भाषा में प्रस्तुत है पुराण-साहित्य की श्रृंखला में उप पुराण ‘गणेश पुराण’।

प्रस्तावना


    भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन-परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद् युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का निरन्तर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।

    विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय मनीषियों ने कितना चिंतन और मनन किया है। पुराण साहित्य को केवल धार्मिक और पुरा कथा कहकर छोड़ देना उसी पूरी चिंतन-धारा से अपने को अपरिचित रखना होगा जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी परंपरा को नहीं जान सकते।

    परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि परंपरा से अपने को संबद्ध करना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण-साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास-मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए गए हैं कि यदि उनसे चमकदार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान में रखे जाएं तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञानसम्मत भी हो सकती हैं, क्योंकि जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है विकासवाद के सिद्धांत के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है और इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है उसे एकाएक पूरी तरह से नहीं नकारा जा सकता।

    महर्षि वेदव्यास को इन 18 पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता भी वेदव्यास ही हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ, यह प्रश्न दूसरा है और यह बात भी अलग है कि सारे पुराण कथा-कथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया, लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं जहां ऐतिहासिकता, भूगोल का तर्क उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जितना उसमें व्यक्त जीवन-मूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल में पुराण-साहित्य में की गई, वे हमारे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं ? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मलोक जन्म लेता है जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है और हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर ले अंततः आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिक देर नहीं ठहरती। इसलिए इन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इनका महत्त्व है।

    जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है। 18 पुराणों में अलग-अलग देवी देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। उन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कही-न-कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए। आधुनिक जीवन में भी संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर आने के बाद भी विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रूप में पुराणों में मिलती है कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है, लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।

    कलियुग का जैसा वर्णन पुराणों में मिलता है, आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अतः यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों को और वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों की स्थापन आज के मनुष्य को एक दिशा तो दे सकता है, क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है, लेकिन विश्वास का विरोध करना आत्महत्या के समान है।
    प्रत्येक पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की विशेषणपरक अभिव्यक्ति बार-बार हुई है, लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली हुआ है और हिन्दी में अनेक पुराण यथावत लिखे गए। फिर प्रश्न उठ सकता है कि हमने इस प्रकार पुराणों का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रांरभ किया। उत्तर स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में अन्य पुराण नहीं पहुँचे होंगे हम उन तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने का प्रयास कर सकेंगे।

    हमने मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की है और सामान्य व्यक्ति को भी समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्त्वदर्शी शब्द हैं उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को उसी रूप में हो।

    हम आज के जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।

    ‘डायमण्ड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्र कुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है और यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।

डॉ. विनय


गणेश पुराण का महत्त्व


    किसी भी पूजा-अर्चना या शुभ कार्य को सम्पन्न कराने से पूर्व गणेश जी की आराधना की जाती है। यह गणेश पुराण अति पूजनीय है। इसके पठन-पाठन से सब कार्य सफल हो जाते हैं। इस खंड में ऐसी कथाएं सूत जी ने सुनाई हैं जिससे हमेशा सब जगह मंगल ही होगा। सूत जी ने सबसे पहली कथा द्वारा बताया है कि किस प्रकार प्रजाओं की सृष्टि हुई और सर्वश्रेष्ठ देव भगवान् गणेश का आविर्भाव किस प्रकार हुआ।

    आगे सूत जी ने शिव के अनेक रूपों का वर्णन किया है। वे कैसे सृष्टि की उत्पत्ति, संहार और पालन करते हैं। साथ ही यह भी बताया गया है कि विष्णु का एक वर्ष शिव के एक दिन के बराबर होता है। साथ ही सती की कथा है जिसका विवाह शिवजी से हुआ।

दूसरा खण्ड परिचय खण्ड है जिसमें गणेश जन्म कथाओं का परिचय दिया गया है। इसमें अलग-अलग पुराणों के अनुसार कथा कही गई है। जैसे पद्म व लिंग पुराण के अनुसार। और अंत में गणेश की उत्पत्ति की सविस्तार से उत्पत्ति की कथा है।
    तीसरा खण्ड माता पार्वती खण्ड है। इसमें पार्वती के पर्वतराज हिमालय के घर जन्म की कथा है और शिव से विवाह की कथा। आगे कार्तिकेय के जन्म की कथा है जिसमें तारकासुर के अत्याचार से लेकर कार्तिकेय के जन्म की कथा है। इस खण्ड में वशिष्ठ जी द्वारा सुनाई अरण्यराज की कथा है।

    चौथा खण्ड युद्ध खण्ड : नाम खण्ड है। इसमें आरम्भ में मत्सर नामक असुर के जन्म की कथा है जिसने दैत्य गुरु शुक्राचार्य से शिव पंचाक्षरी मन्त्र की दीक्षा ली। आगे तारक नामक असुर की कथा है। उसने ब्रह्मा की अराधना कर त्रैलोक्य का स्वामित्व प्राप्त किया। साथ में इसमें महोदर व महासुर के आपसी युद्ध की कथा है। लोभासुर व गजानन की कथा भी है जिसमें लोभासुर ने गजानन के मूल महत्त्व को समझा और उनके चरणों की वंदना करने लगा। इसी तरह आगे क्रोधासुर व लम्बोदर की कथा है। आगे फिर कामासुर, विघ्नराज, धूम्रवर्ण की कथा कही गई है।
    पांचवा खण्ड महादेव पुण्य कथा खण्ड है। इसमें सूत जी ने ऋषियों को कहा, आप कृपा करके गणेश, पार्वती के युगों का परिचय दीजिए। तब आगे इस खण्ड में सत्तयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग के बारे में बताया है। जन्मासुर, तारकासुर की कथा से इसका अन्त हुआ है।

आरम्भ खण्ड


    बहुत प्राचीन समय की बात है कि एक बार नैमिषारण्य में कथाकार सूतजी पधारे। उन्हें आया देखकर वहां रहने वाले ऋषि मुनियों ने उनका अभिवादन किया। अभिवादन के बाद सभी ऋषि-मुनि अपने-अपने आसन पर बैठ गए तब उन्हीं में से किसी एक ने सूतजी से कहा-‘‘हे सूत जी ! आप लोक और लोकोत्तर के ज्ञान-ध्यान से परिपूर्ण कथा वाचन में सिद्धहस्त हैं। हमारा आप से निवेदन है कि आप हमें हमारा मंगल करने वाली कथाएँ सुनायें।’’
    ऋषि-मुनियों से आदर पाकर सूतजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-‘‘आपने जो मुझे आदर दिया है वह सराहनीय है। मैं यहां आप लोगों को परम कल्याणकारी कथा सुनाऊंगा।’’

    सूतजी की बात सुनकर ऋषि बोले-‘‘आप हमें कौन-सी कथा सुनायेंगे ?’’
    यह सुनकर सूतजी ने कहा-‘‘बह्मा, विष्णु, महेश, ब्रह्म के तीन रूप हैं। मैं स्वयं उनकी शरण में रहता हूं। यद्यपि विष्णु संसार पालक हैं और वह ब्रह्मा की उत्पन्न की गयी सृष्टि का पालन करते हैं। ब्रह्मा ने ही सुर-असुर, प्रजापति तथा अन्य यौनिज और अयौनिज सृष्टि की रचना की है। रुद्र अपने सम्पूर्ण कल्याणकारी कृत्य से सृष्टि के परिवर्तन का आधार प्रस्तुत करते हैं। पहले तो मैं तुम्हें बताऊंगा कि किस प्रकार प्रजाओं की सृष्टि हुई और फिर उनमें सर्वश्रेष्ठ देव भगवान् गणेश का आविर्भाव कैसे हुआ।
    भगवान् ब्रह्मा ने जब सबसे पहले सृष्टि की रचना की तो उनकी प्रजा नियमानुसार पथ में प्रवृत्ति नहीं हुई। वह सब अलिप्त रह गए। इस कारण ब्रह्मा ने सबसे पहले तामसी सृष्टि की, फिर राजसी। फिर भी इच्छित फल प्राप्त नहीं हुआ। जब रजोगुण ने तमोगुण को ढक लिया तो उससे एक मिथुन की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा के चरण से अधर्म और शोक से इन्सान ने जन्म लिया। ब्रह्मा ने उस मलिन देह को दो भागों में विभक्त कर दिया। एक पुरुष और एक स्त्री। स्त्री का नाम सतरूपा हुआ। उसने स्वयंभू मनु का पति के रूप में वरण किया और उसके साथ रमण करने लगी।

    रमण करने के कारण ही उसका नाम रति हुआ। फिर ब्रह्मा ने विराट का सृजन किया। तब विराट से वैराज मनु की उत्पत्ति हुई। फिर वैराज मनु और सतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानुपात दो पुत्र उत्पन्न हुए और आपूति तथा प्रसूति नाम की दो पुत्रियां हुईं।

इन्हीं दो पुत्रियों से सारी प्रजा उत्पन्न हुई। मनु ने प्रसूति को दक्ष के हाथ में सौंप दिया। जो प्राण है, वह दक्ष है और जो संकल्प है, वह मनु है। मनु ने रुचि प्रजापति को आपूति नाम की कन्या भेंट की। फिर इनसे यज्ञ और दक्षिणा नाम की सन्तान हुई। दक्षिणा से बारह पुत्र हुए, जिन्हें याम कहा गया। इनमें श्रद्धा, लक्ष्मी आदि मुख्य हैं। इनसे फिर यह विश्व आगे विकास को प्राप्त हुआ।
    अधर्म को हिंसा के गर्भ से निर्कति उत्पन्न हुई और अन्निद्ध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। फिर इसके बाद यह वंश क्रम बढ़ता गया। कुछ समय बाद नीलरोहित, निरुप, प्रजाओं की उत्पत्ति हुई और उन्हें रुद्र नाम से प्रतिष्ठित किया गया। रुद्र ने पहले ही बता दिया था कि यह सब शतरुद्र नाम से विख्यात होंगे। यह सुनकर ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और फिर इसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर मैथुनी सृष्टि का प्रारम्भ करके शेष प्रजा की सृष्टि बन्द कर दी।
सूतजी की बातें सुनकर ऋषि-मुनियों ने कहा, ‘‘आपने हमें जो बताया है उससे हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है। आप कृपा करके हमें हमारे पूजनीय देव के विषय में बताइये। जो देवता हमें पूज्य हो और उसकी कृपा से हमारे और आगे आने वाली प्रजाओं के कल्याणकारी कार्य सम्पन्न हों।’’ ऋषियों की बात सुनकर सूतजी ने कहा कि ऐसा देव तो केवल एक ही है और वह है महादेव और पार्वती के पुत्र श्री गणेश।

    गणेश का नाम सुनते ही ऋषि मुनि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सूतजी ने निवेदन किया कि ‘‘आप हमें गणेशजी के विषय में पर्याप्त विस्तार से बताइये क्योंकि अभी तक आपने जो कुछ भी बताया है, उससे पता चलता है कि महादेव पुत्र गणेशजी के जन्म के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं।’’

    सूतजी अपने आसन पर बहुत ध्यानपूर्वक बैठ गए, क्षणभर उन्होंने कुछ सोचा और फिर कहना प्रारम्भ किया-‘‘गणेशजी देवों में देव श्रेष्ठ देव हैं, जो भी कार्य उनको नमन करके प्रारम्भ किया जाता है, वह सफलता प्राप्त करता है।’’
सूतजी ने बताया, ‘‘जो ऋषि-मुनि, मनुष्य, पृथ्वी का वासी ‘गणेशाय नमः’ का पाठ करके अपना कार्य प्रारम्भ करता है, उसे निश्चित ही अपने कार्य में सफलता मिलती है।’’
    मुनियों ने सूतजी से कहा, ‘‘पहले तो आप कृपा करके हमें भिन्न रुपों से गणेशजी के जन्मों को वृत्तांत सुनाइये वे तो महाप्रभु हैं उनके जन्म को विभिन्न पुराणों में अलग-अलग रुपों से गाया गया है, और हे सूतजी ! हम सृष्टि की आदि व्यस्था के विषय में भी जानना चाहते हैं।’’

    सूतजी ने मुनियों की जिज्ञासा जानकर कहा, ‘‘पहले मैं आपको शिव और गणेश के चरित्र वर्णन से लाभ देकर यह बताऊंगा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश भगवान् रुद्र के अंश से रचे गए हैं।’’
    ऋषिगण बोले, ‘‘कृपया यह बताएं कि शिव और गणेश का सर्वश्रेष्ठ रूप व चरित्र क्या है ? शिवजी के पुत्र को कैसे प्रसन्न किया जा सकता है ? जैसा कि आपने कहा-ब्रह्मा, विष्णु और महेश, भगवान रुद्र के अंश से उत्पन्न हुए। पर फिर भी महेश ही पूर्णांश के रूप में माने जाते हैं।’’

    सूतजी ने कहा, ‘‘एक बार नारदजी ने भी ब्रह्माजी से ऐसा ही प्रश्न किया था। ब्रह्माजी ने संसार की रचना, उत्पत्ति और स्वरूप का वर्णन नारदजी से इस प्रकार किया-
    ‘‘सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था में जब प्रलय हुई और उस विनाश काल में स्थावर-जंगम, सूर्य, ग्रह तारे सब नष्ट हो गए तो केवल एक सद्ब्रह्म ही शेष बचे थे। उस अंधकार के साम्राज्य में सद्ब्रह्म ही मन, वाणी और इन्द्रियों के ज्ञान के प्रकाश से भरे हुए थे। जो योग द्वारा ध्यानगम्य थे। वे नाम, रूप वर्ण, सत्-असत् और अन्य कर्मों से परे थे।


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