पुराण एवं उपनिषद् >> कल्कि पुराण कल्कि पुराणविनय
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पुराण-साहित्य-श्रृंखला में कल्कि पुराण
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण
भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य
भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि हैं। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष
और अपकर्ष की अनेक गाथाएँ मिलती हैं।
कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म,और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक कल्कि पुराण प्रस्तुत है।
कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म,और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक कल्कि पुराण प्रस्तुत है।
प्रस्तावना
भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसमें पुराण
भक्ति ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण
साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के
उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में
कर्मकांड युग, उपनिषद् युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग और सबसे ज्यादा
भक्ति युग का निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की
ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक
चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।
विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय धार्मिक और पुरा कथा कह कर छोड़ देना उस पूरी चिंतन-धारा से अपने को अपरिचित रखना होगा, जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी परंपरा को नहीं जान सकते।
परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है क्योंकि परम्परा से अपने को जोड़ना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण-साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए हैं कि यदि उनसे चमत्कार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान न रखे जाएं तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञान सम्मत भी हो सकती हैं। जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है, विकासवाद के सिद्धान्त के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है। इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है उसे एकाएक पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है।
महर्षि वेदव्यास को इन अट्ठारह पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता वेदव्यास हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ, यह प्रश्न दूसरा है और यह भी बात अलग है कि सारे पुराण कथा-कथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया। लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं जहां ऐतिहासिकता, भूगोल का तर्क उतना महत्त्वपू्र्ण नहीं रहता जितना उनमें व्यक्त जीवन-मूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल में पुराण-साहित्य में की गई, वे हमारे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं ? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मलोक जन्म लेता है जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है। हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर लें, अंतत: आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिर देर नहीं ठहरती। इसलिए इन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इनका महत्त्व है।
जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रन्थों का मूल विषय है। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कहीं गई हैं। उन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं न कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा होता है। आधुनिक जीवन में भी संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर जाने के बाद भी विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव-गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है।
एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती है कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
कलयुग का जैसा वर्णन पुराणों में मिलता है, आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अत: यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को सही दिशा तो दे सकता है, क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है लेकिन विश्वास का विरोध करना आत्महत्या के समान है।
प्रत्येक पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की विशेषणपरक अभिव्यक्ति बार-बार हुई है। लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली है और हिन्दी में अनेक पुराण यथावत् लिखे गए हैं। फिर प्रश्न उठ सकता है कि हमने इस प्रकार पुराणों का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रारंभ किया ? उत्तर स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में अन्य पुराण नहीं पहुंचे होंगे, हम उन तक इन पुराणों को पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने का प्रयास कर सकेंगे।
हमने मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की है और सामान्य व्यक्ति को भी समझ में आने वाली सामान्य भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्त्वदर्शी शब्द है उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को उसी रूप में हो।
हम आज के जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है। इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है, वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है।
निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमंड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्र कुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है। यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।
विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय धार्मिक और पुरा कथा कह कर छोड़ देना उस पूरी चिंतन-धारा से अपने को अपरिचित रखना होगा, जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी परंपरा को नहीं जान सकते।
परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है क्योंकि परम्परा से अपने को जोड़ना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण-साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए हैं कि यदि उनसे चमत्कार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान न रखे जाएं तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञान सम्मत भी हो सकती हैं। जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है, विकासवाद के सिद्धान्त के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है। इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है उसे एकाएक पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है।
महर्षि वेदव्यास को इन अट्ठारह पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता वेदव्यास हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ, यह प्रश्न दूसरा है और यह भी बात अलग है कि सारे पुराण कथा-कथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया। लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं जहां ऐतिहासिकता, भूगोल का तर्क उतना महत्त्वपू्र्ण नहीं रहता जितना उनमें व्यक्त जीवन-मूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल में पुराण-साहित्य में की गई, वे हमारे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं ? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मलोक जन्म लेता है जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है। हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर लें, अंतत: आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिर देर नहीं ठहरती। इसलिए इन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इनका महत्त्व है।
जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रन्थों का मूल विषय है। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कहीं गई हैं। उन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं न कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा होता है। आधुनिक जीवन में भी संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर जाने के बाद भी विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव-गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है।
एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती है कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
कलयुग का जैसा वर्णन पुराणों में मिलता है, आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अत: यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को सही दिशा तो दे सकता है, क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है लेकिन विश्वास का विरोध करना आत्महत्या के समान है।
प्रत्येक पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की विशेषणपरक अभिव्यक्ति बार-बार हुई है। लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली है और हिन्दी में अनेक पुराण यथावत् लिखे गए हैं। फिर प्रश्न उठ सकता है कि हमने इस प्रकार पुराणों का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रारंभ किया ? उत्तर स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में अन्य पुराण नहीं पहुंचे होंगे, हम उन तक इन पुराणों को पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने का प्रयास कर सकेंगे।
हमने मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की है और सामान्य व्यक्ति को भी समझ में आने वाली सामान्य भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्त्वदर्शी शब्द है उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को उसी रूप में हो।
हम आज के जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है। इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है, वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है।
निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमंड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्र कुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है। यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।
-डॉ.विनय
कल्कि पुराण का महत्त्व
सभी पुराणों में कल्कि पुराण ज्ञानात्मक चिन्तन के साथ-साथ भक्ति की अविरल
धारा प्रवाहित करने वाला है। इस पुराण में प्रथम मार्कण्डेय जी और
शुक्रदेव जी के संवाद का वर्णन है। कलयुग का प्रारम्भ हो चुका है जिसके
कारण पृथ्वी देवताओं के साथ, विष्णु के सम्मुख जाकर उनसे अवतार की बात
कहती है। भगवान् विष्णु के अंश रूप में ही सम्भल गांव में कल्कि भगवान का
जन्म होता है। उसके आगे कल्कि भगवान् की दैवीय गतिविधियों का सुन्दर वर्णन
मन को बहुत सुन्दर अनुभव कराता है।
भगवान् कल्कि विवाह के उद्देश्य से सिंहल द्वीप जाते हैं। वहां जलक्रीड़ा के दौरान राजकुमारी पद्यावती से परिचय होता है। देवी पद्यिनी का विवाह कल्कि भगवान के साथ ही होगा। अन्य कोई भी उसका पात्र नहीं होगा। प्रयास करने पर वह स्त्री रूप में परिणत हो जाएगा। अंत में कल्कि व पद्यिनी का विवाह सम्पन्न हुआ और विवाह के पश्चात् स्त्रीत्व को प्राप्त हुए राजगण पुन: पूर्व रूप में लौट आए। कल्कि भगवान् पद्यिनी को साथ लेकर सम्भल गांव में लौट आए। विश्वकर्मा के द्वारा उसका अलौकिक तथा दिव्य नगरी के रूप में निर्माण हुआ।
हरिद्वार में कल्कि जी ने मुनियों से मिलकर सूर्यवंश का और भगवान् राम का चरित्र वर्णन किया। बाद में शशिध्वज का कल्कि से युद्ध और उन्हें अपने घर ले जाने का वर्णन है, जहां वह अपनी प्राणप्रिय पुत्री रमा का विवाह कल्कि भगवान् से करते हैं।
उसके बाद इसमें नारद जी, आगमन् विष्णुयश का नारद जी से मोक्ष विषयक प्रश्न, रुक्मिणी व्रत का प्रसंग और अंत में लोक में सतयुग की स्थापना के प्रसंग को वर्णित किया गया है।
वह शुकदेव जी की कथा का गान करते हैं। अंत में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और शर्मिष्ठा की कथा है। इस पुराण में मुनियों द्वारा कथित श्री भगवती गंगा स्तव का वर्णन भी किया गया है। पांच लक्षणों से युक्त यह पुराण संसार को आनन्द प्रदान करने वाला है। इसमें साक्षात् विष्णु स्वरूप भगवान् कल्कि के अत्यन्त अद्भुत क्रियाकलापों का सुन्दर व प्रभावपूर्ण चित्रण है। जो कल्कि पुराण का अध्ययन व पठन करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
भगवान् कल्कि विवाह के उद्देश्य से सिंहल द्वीप जाते हैं। वहां जलक्रीड़ा के दौरान राजकुमारी पद्यावती से परिचय होता है। देवी पद्यिनी का विवाह कल्कि भगवान के साथ ही होगा। अन्य कोई भी उसका पात्र नहीं होगा। प्रयास करने पर वह स्त्री रूप में परिणत हो जाएगा। अंत में कल्कि व पद्यिनी का विवाह सम्पन्न हुआ और विवाह के पश्चात् स्त्रीत्व को प्राप्त हुए राजगण पुन: पूर्व रूप में लौट आए। कल्कि भगवान् पद्यिनी को साथ लेकर सम्भल गांव में लौट आए। विश्वकर्मा के द्वारा उसका अलौकिक तथा दिव्य नगरी के रूप में निर्माण हुआ।
हरिद्वार में कल्कि जी ने मुनियों से मिलकर सूर्यवंश का और भगवान् राम का चरित्र वर्णन किया। बाद में शशिध्वज का कल्कि से युद्ध और उन्हें अपने घर ले जाने का वर्णन है, जहां वह अपनी प्राणप्रिय पुत्री रमा का विवाह कल्कि भगवान् से करते हैं।
उसके बाद इसमें नारद जी, आगमन् विष्णुयश का नारद जी से मोक्ष विषयक प्रश्न, रुक्मिणी व्रत का प्रसंग और अंत में लोक में सतयुग की स्थापना के प्रसंग को वर्णित किया गया है।
वह शुकदेव जी की कथा का गान करते हैं। अंत में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और शर्मिष्ठा की कथा है। इस पुराण में मुनियों द्वारा कथित श्री भगवती गंगा स्तव का वर्णन भी किया गया है। पांच लक्षणों से युक्त यह पुराण संसार को आनन्द प्रदान करने वाला है। इसमें साक्षात् विष्णु स्वरूप भगवान् कल्कि के अत्यन्त अद्भुत क्रियाकलापों का सुन्दर व प्रभावपूर्ण चित्रण है। जो कल्कि पुराण का अध्ययन व पठन करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
प्रथम खंड
बहुत प्राचीन काल की बात है नैमिषारण्य में पूजा करते हुए सूतजी ने
त्रिलोकी के स्वामी, वेदों, तन्त्रों आदि अनेक विविध शास्त्रों द्वारा
आराधना किए जाने वाले देवराज इन्द्रादि, अन्य से अनेक देवताओं मुनिगणों,
ऋषि महात्माओं द्वारा पूजा किए जाने वाले विष्णु की वन्दना की। जिनकी
सिद्धि के लिए लोकपालों, राजाओं तथा सम्राटों द्वारा भक्तिपूर्वक उपासना
की जाती रही है, ऐसे विघ्न को दूर करने वाले प्रभु हरि जो अपने समान स्वयं
ही होने वाले हैं, अजन्मा अच्युत हैं और सब कुछ जानने वाले हैं, सबको यथा
आश्रय देकर तुष्ट करने वाले हैं। उन श्री अन्तर्यामी प्रभु श्री विष्णु का
स्मरण करते हुए सूतजी ने कहा, हे प्रभु ! मैं आपकी वन्दना करता हूं।
नर नारायण के नाम से पुकारे जाने वाले नर श्रेष्ठ ! प्रभु एवं जगत् जननी देवी भगवती सरस्वती को सादर प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘कि जो भुजंग के विष के समान माया जाल में फंसकर अनेक अत्याचार करते हैं, सारी पृथ्वी पर भयंकर उत्पात मचाते हैं, जिनके अत्याचार से धरती कांप उठती है और ऐसे सभी राजागण आपकी तिरछी दृष्टि मात्र से ही भस्म हो जाते हैं।’’ आपकी संकट मोचन खड़ग की धार के सामने जिनका अहंकार पिघलकर बहने लगता है और जो खड़ग के तेज आक्रमण के समक्ष नि:सहाय करबद्ध मुक्ति के लिए खड़े होकर भक्त की मुद्रा में आ जाते हैं ऐसे राक्षसों, आतताइयों, अहंकारी दुष्टों की देह का मर्दन करने वाले जगतपति श्रीनारायण स्वयं ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होकर युग-युग में अवतार ग्रहण करके कल्कि रूप में हम सभी प्राणियों की रक्षा करें और हमारे सभी संकल्प पूर्ण करें।
सौनकादि ऋषि मुनियों ने नैमिषारण्य आश्रम में सूतजी महाराज को इस प्रकार सुति वन्दना और ईश्वर आराधना करते देखकर उनसे प्रश्न किया और कहा, हे मुनि श्रेष्ठ ! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं, ‘प्रकाण्ड’ पंडित और सब कुछ जानने वाले हैं। हे लोमहर्षण, हे त्रिकाल के जानने वाले ! आप तो सभी पुराणों को भलि-भांति जानते हैं। कृपा करके यह वृत्तांत विस्तार से सुनाएं कि कल्कि का अवतार प्रभु ने क्यों लिया। यह कल्कि कौन है, कहां उत्पन्न हुआ और पृथ्वी को इसने किस प्रकार जीता, कैसे यह पृथ्वी का अधिपति बना। किस प्रकार इसने पृथ्वी पर होने वाले सभी धार्मिक अनुष्ठानों, व्रत, तप, जप आदि का निषेध करके, नित्य धर्म को नष्ट कर दिया, और अधर्म का विस्तार किस प्रकार और किसलिए किया। आप त्रिकालदर्शी हैं, कृपया हमारी जिज्ञासा को शान्त करते हुए यह वृत्त हमें विस्तार से सुनाएं।
सौनकादि ऋषियों की इस प्रकार वृत्त जानने की जिज्ञासा को देखकर सूतजी महाराज ने प्रथम तो श्री हरि प्रभु का स्मरण किया फिर उनकी कृपा से पुलकायमान होकर ऋषियों को सम्बोधित कर कहने लगे, हे मुनीश्वरों सुनें ! मैं आपको यह वृत्त विस्तार से सुनाता हूं। बहुत पुराने समय की बात है वीणापाणी नारदजी ने एक बार श्री ब्रह्माजी से इस परम अद्भुत आख्यान के बारे में पूछा था। ब्रह्मा से नारदजी ने जो कुछ सुना था वह मेरे परम पूज्य गुरु श्री वेद व्यास को कह सुनाया। व्यास जी ने यह आख्यान अपने परम मेधावी पुत्र ब्रह्मरात्र को सुनाया। यही आख्यान ब्रह्मरात्र ने अट्ठारह हजार श्लोकों में रूपान्तरित करके अभिमन्यु पुत्र विष्णुरात के लिए सभा मंडप के मध्य कह सुनाया।
राजा विष्णुरात ने यह सारी कथा एक सप्ताह में पूर्ण कल ली और अन्त में पूर्ण लय को प्राप्त हो गए। उनके सभी प्रश्न एक सप्ताह में पूर्ण हो गए थे और राजा विष्णुरात ऐसा परम पावन मुक्ति प्रदाता आख्यान सुनकर मोक्ष को प्राप्त कर गए। यही कथा शुकदेवजी ने मार्कण्डेय मुनि प्रभृति विद्वानों के अनुनय करने पर संक्षिप्त रूप में कह सुनाई। यही परम भागवत आख्यान जिसे भगवान् श्री शुकदेवजी ने संक्षिप्त किया था और जो भविष्य में घटनेवाला है, कहा था। आपकी अटूट श्रद्धा और जिज्ञासा को देखते हुए मैं आपको सुनाता हूं आप सभी सुयोग्य अध्येता हैं और इस परम पावन प्रसंग का श्रद्धापूर्वक श्रवण करेंगे।
जब श्रीभगवान् श्रीकृष्ण द्वापर का अन्त जानकर सभी दायित्वों के पूर्ण होने पर निश्चिंत हो गए थे तो एक व्याघ्र के तीर के माध्यम से पुन: अपने लोक को लौट गए थे तो कल्कि की उत्पत्ति कैसे हुई, यह बड़ा ही रोचक प्रसंग है। आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।
जब प्रलय काल बीत गया तब संसार के रचयिता श्री ब्रह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलिन पातक को जन्म दिया। यह पातक जन्म लेने पर अधर्म कहलाया। इस अधर्म के वंश का आख्यान श्रवण करने, स्मरण करने तथा सभी रहस्यों को जान लेने से प्राणी इस संसार के सभी पापों से मुक्त हो जाता है। उस पातक अधर्म की पत्नी का नाम मिथ्या था। वह बिल्ली जैसे चपल नेत्रों वाली, अत्यन्त सुन्दर और रमणीय थी। इन दोनों के परस्पर संयोग से इनके वंश में अत्यन्त तेजस्वी और महाक्रोधी स्वभाव का एक पुत्र जन्मा। इस क्रोधी पुत्र का नाम अधर्म ने दम्भ रखा।
अधर्म और मिथ्या के यहां माया नाम की भ्रमित कर देने वाली, बुद्धि को कुमार्ग की ओर ले जाने वाली कन्या का जन्म हुआ। माया ने दम्भ के साथ रमण करते हुए बहुत समय बिताया और कुछ समय के बाद इनके यहां लोभ नाम का एक पुत्र तथा निकृति नाम की एक कन्या ने जन्म लिया। बाद में युवा होने पर लोभ और निकृति भी लैंगिक सम्बन्ध की ओर अग्रसर हुए और इनके परस्पर संयोग से इनके यहां क्रोध नाम का अत्यन्त उग्र स्वभाव का तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। लोभ और निकृति के यहां एक कन्या भी जन्मी। इस कन्या का नाम हिंसा था। यह भी निर्दयी स्वभाव की और करुणा विहीन थी। इस प्रकार क्रोध और हिंसा के संभोग से संसार को नष्ट करने वाले कलि का जन्म हुआ।
जन्म के समय कलि बाएं हाथ में उपास्थि धारण किए था और इसका सम्पूर्ण शरीर काजल के समान श्यामवर्णी था। काक उदर वाले, कराल तथा चंचल जीभ वाले तथा भयानक दुर्गन्ध युक्त शरीर वाले इस कलि ने जुए, मद्य, स्त्री और स्वर्ण में अपना निवास चुना। क्रोध और हिंसा के यहां दुरुक्ति नाम की एक अत्यन्त विकराल दृष्टि वाली कन्या भी जन्मी। यह कन्या भी कलि की भाँति बड़ी भयानक आकृति वाली थी। आगे इस कलि ने दुरुक्ति के साथ संयोग द्वारा भयानक नाम के अत्यन्त विरूप पुत्र को जन्म दिया और मृत्यु नाम की कन्या उत्पन्न की। भयानक ने आगे चलकर मृत्यु के साथ समागम करके निरय नाम के पुत्र को जन्म दिया और साथ ही यातना नाम की पुत्री को भी जन्म दिया।
इस प्रकार संसार सृष्ठा ब्रह्मा की पीठ से जन्मे घोर पातक अधर्म के वंश में कलि नामी अधर्मी का जन्म एक बड़ी घटना थी। इसी के वंश में उत्पन्न निरय और यातना के संयोग से हजारों पुत्र उत्पन्न हुए। ये सभी अधर्म के वंशज पूरी तरह धर्म के विरुद्ध उसकी निन्दा करने वाले, सभी प्रकार के पाप कर्म में लीन, ईश्वर भक्ति से विरत, सत्कर्म में अश्रद्धा रखने वाले, बुराईयों को बढ़ावा देने वाले, अविद्या माया से ग्रस्त, मोह, माया, आधि-व्याधि, बुढ़ापा और भय को आश्रय देने वाले हैं। यज्ञ यागादि, अध्ययन, दान, दया, धर्म, शील, वैदिक तथा तांत्रिक कर्मों से विरत करने वाले और इन कर्मों को करने वालों के लिए संकट खड़ा करने वाले हुए। इनके दमनकारी कार्यों का इतना प्रभाव पड़ा कि पृथ्वी पर अनाचार बहुत अधिक बढ़ गया और सभी जगह प्रजा में त्राहि-त्राहि मचने लगी।
संसार में प्रचलित शिष्ट आचरण का नाश करने वाले राजा कलि के अनुचर समूह ने काम वासना युक्त और क्षण में विनष्ट होने वाली मनुष्य देह धारण कर ली। इनके अनुचर अत्यधिक दम्भी, दुराचारी, माता-पिता को मारने वाले, ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी वेद के विरुद्ध आचरण करने वाले दरिद्री, लेकिन शूद्रों की सेवा करने वाले हुए। अनावश्यक और बिना बात की बहस तथा विवाद में समय गंवाते हुए कुतर्क में विश्वास करने वाले, रक्त मांस को बेचने वाले, धर्म और वेद का उपहास करने वाले संस्कार से विरत और हीन तथा सदा ही अधोभाग की लिप्सा में लीन थे।
पराई स्त्री के साथ रमण की इच्छा रखने वाले, समय मिलने पर उससे अपनी वासना पूर्ति करने वाले, यौवन की मस्ती में चूर तथा अभिमानी ये सभी जन वर्ण संकर सन्तान उत्पन्न करने वाले हुए। इनका शारीरिक सम्पर्क के लिए किसी विधान को मानने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा, स्वच्छन्द रमण ही उनका लक्ष्य रहा। इस प्रकार काम पिपासा के फलस्वरूप जो सन्तति जन्मी वह निश्चय ही कुलगोत्रहीन, संस्कारहीन, अकुलीन और अवैध रूप से जन्मी। जिसका उत्तरदायित्व वहन करने के लिए भी ये कभी तैयार नहीं हुए। इनका उद्देश्य सदा उदरपूर्ति ही रहा। आकार में ये प्राणी नाटे कद के, पाप में लिप्त दुष्ट प्रवृत्ति वाले, शठ का व्यवहार करने वाले, मठों में निवास करने वाले हुए। इनकी परम आयु सोलह वर्ष हुई। ये सभी कलि के सेवकगण पूर्वोक्त दुर्गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को भाई के समान मानने वाले हुए और सदैव ही नीच संस्कारों से युक्त रहे तथा नीच पुरुषों की संगति में व्यस्त रहे।
ये सभी प्राणी अनावश्यक विवाद करने वाले और विवाद से उपजे कलेश और कलह से क्षुब्ध रहने वाले केश दायरे में लिप्त और उसी में आसक्त धन लोलुप येन-केन-प्रकारेण धन को अर्जित करने वाले और उसके माध्यम से विलास में जीवन व्यतीत करने वाले रहे। इनमें ऋण पर धन देकर उसके ब्याज से अपना जीवन चलाने वाले और इस प्रकार वर्ग में श्रेष्ठ होकर कुलीन कहलाने वाले ये ब्राह्मण ही कलियुग में पूज्य बने और पूजनीय कहलाये। संन्यासी लोग अपने दायित्व से दूर होकर गृहस्थ में चले गये। और गृहस्थियों में विचार और विवेचन करने की शक्ति का अभाव हो गया।
शिष्टगण अपने आचरण में अनुशासित हो गये, गुरु की निन्दा करने लगे। उनमें शालीनता और विनय का भाव समाप्त होने लगा। धर्म की पताका को फहराने वाले साधु भिखारी हो गये और विपन्न दशा में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। शूद्र लोग दान लेने और दूसरे की सम्पत्ति को हरण करने वाले हो गये। इन्होंने अपने सेवा भाव को त्यागकर समाज में अशांति फैलाने का काम किया। स्त्री-पुरुष की परस्पर सहमति से विवाह प्रारम्भ हुए। मित्र लोग मित्रता छोड़कर दुष्टता का व्यवहार करने लगे और षठ बन गये। एक-दूसरे के प्रति बदले की भावना इनमें बढ़ गई। किसी ने यदि इसी के हित में कुछ किया है तो उसके बदले प्रतिदान की भावना ही दानशीलता कहलाने लगी।
न्याय अधिकारी अपराधी को दंड देने में असमर्थता का अनुभव करने लगे क्योंकि वे स्वयं भी कहीं न कहीं उन अन्याय की प्रक्रिया से जुड़े हुए थे और इसीलिए वे क्षमाशील हो गये। कमजोर वर्ग के प्रति दया, धर्म और करुणा की जगह उदासीनता ने ले ली और समाज का एक बड़ा वर्ग जो सम्पन्न होता गया वह अपने अधिकार क्षेत्र में बढ़ावा तो करता रहा लेकिन दायित्व का भाव कम होने लगा। यही कारण है कि इस काल में दुर्बल और अधिक विपन्न होने लगे। जो अधिक बोलने वाला होता वही मंडली में विद्वान कहा जाता क्योंकि बिना अपनी बात प्रस्तुत किये और उनके पक्ष में कुतर्क दिये कोई बात सिद्ध करनी सम्भव नहीं रही।
इसी प्रकार यश की कामना से लोग धर्म का सेवन करते। जिस व्यक्ति के पास धन, दौलत और सम्पन्नता आ गई वही पुरुष धार्मिक और साधु कहलाए। इसी प्रकार दूर देश से लाया जल भले ही कैसा भी हो वह तीर्थ का जल माना जाने लगा। यज्ञोपवीत में ही ब्राह्मणत्व सीमित हो गया क्योंकि उसका आचरण गौण हो गया और इसलिए केवल आडम्बर ही महत्त्वपूर्ण हो गया। दण्ड धारण केवल प्रतीक रूप में संन्यासी का लक्षण रह गया। ये सभी आचरण की हीनता होने पर भी धन ही केवल बड़ेपन का मापदण्ड बन गया।
नर नारायण के नाम से पुकारे जाने वाले नर श्रेष्ठ ! प्रभु एवं जगत् जननी देवी भगवती सरस्वती को सादर प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘कि जो भुजंग के विष के समान माया जाल में फंसकर अनेक अत्याचार करते हैं, सारी पृथ्वी पर भयंकर उत्पात मचाते हैं, जिनके अत्याचार से धरती कांप उठती है और ऐसे सभी राजागण आपकी तिरछी दृष्टि मात्र से ही भस्म हो जाते हैं।’’ आपकी संकट मोचन खड़ग की धार के सामने जिनका अहंकार पिघलकर बहने लगता है और जो खड़ग के तेज आक्रमण के समक्ष नि:सहाय करबद्ध मुक्ति के लिए खड़े होकर भक्त की मुद्रा में आ जाते हैं ऐसे राक्षसों, आतताइयों, अहंकारी दुष्टों की देह का मर्दन करने वाले जगतपति श्रीनारायण स्वयं ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होकर युग-युग में अवतार ग्रहण करके कल्कि रूप में हम सभी प्राणियों की रक्षा करें और हमारे सभी संकल्प पूर्ण करें।
सौनकादि ऋषि मुनियों ने नैमिषारण्य आश्रम में सूतजी महाराज को इस प्रकार सुति वन्दना और ईश्वर आराधना करते देखकर उनसे प्रश्न किया और कहा, हे मुनि श्रेष्ठ ! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं, ‘प्रकाण्ड’ पंडित और सब कुछ जानने वाले हैं। हे लोमहर्षण, हे त्रिकाल के जानने वाले ! आप तो सभी पुराणों को भलि-भांति जानते हैं। कृपा करके यह वृत्तांत विस्तार से सुनाएं कि कल्कि का अवतार प्रभु ने क्यों लिया। यह कल्कि कौन है, कहां उत्पन्न हुआ और पृथ्वी को इसने किस प्रकार जीता, कैसे यह पृथ्वी का अधिपति बना। किस प्रकार इसने पृथ्वी पर होने वाले सभी धार्मिक अनुष्ठानों, व्रत, तप, जप आदि का निषेध करके, नित्य धर्म को नष्ट कर दिया, और अधर्म का विस्तार किस प्रकार और किसलिए किया। आप त्रिकालदर्शी हैं, कृपया हमारी जिज्ञासा को शान्त करते हुए यह वृत्त हमें विस्तार से सुनाएं।
सौनकादि ऋषियों की इस प्रकार वृत्त जानने की जिज्ञासा को देखकर सूतजी महाराज ने प्रथम तो श्री हरि प्रभु का स्मरण किया फिर उनकी कृपा से पुलकायमान होकर ऋषियों को सम्बोधित कर कहने लगे, हे मुनीश्वरों सुनें ! मैं आपको यह वृत्त विस्तार से सुनाता हूं। बहुत पुराने समय की बात है वीणापाणी नारदजी ने एक बार श्री ब्रह्माजी से इस परम अद्भुत आख्यान के बारे में पूछा था। ब्रह्मा से नारदजी ने जो कुछ सुना था वह मेरे परम पूज्य गुरु श्री वेद व्यास को कह सुनाया। व्यास जी ने यह आख्यान अपने परम मेधावी पुत्र ब्रह्मरात्र को सुनाया। यही आख्यान ब्रह्मरात्र ने अट्ठारह हजार श्लोकों में रूपान्तरित करके अभिमन्यु पुत्र विष्णुरात के लिए सभा मंडप के मध्य कह सुनाया।
राजा विष्णुरात ने यह सारी कथा एक सप्ताह में पूर्ण कल ली और अन्त में पूर्ण लय को प्राप्त हो गए। उनके सभी प्रश्न एक सप्ताह में पूर्ण हो गए थे और राजा विष्णुरात ऐसा परम पावन मुक्ति प्रदाता आख्यान सुनकर मोक्ष को प्राप्त कर गए। यही कथा शुकदेवजी ने मार्कण्डेय मुनि प्रभृति विद्वानों के अनुनय करने पर संक्षिप्त रूप में कह सुनाई। यही परम भागवत आख्यान जिसे भगवान् श्री शुकदेवजी ने संक्षिप्त किया था और जो भविष्य में घटनेवाला है, कहा था। आपकी अटूट श्रद्धा और जिज्ञासा को देखते हुए मैं आपको सुनाता हूं आप सभी सुयोग्य अध्येता हैं और इस परम पावन प्रसंग का श्रद्धापूर्वक श्रवण करेंगे।
जब श्रीभगवान् श्रीकृष्ण द्वापर का अन्त जानकर सभी दायित्वों के पूर्ण होने पर निश्चिंत हो गए थे तो एक व्याघ्र के तीर के माध्यम से पुन: अपने लोक को लौट गए थे तो कल्कि की उत्पत्ति कैसे हुई, यह बड़ा ही रोचक प्रसंग है। आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।
जब प्रलय काल बीत गया तब संसार के रचयिता श्री ब्रह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलिन पातक को जन्म दिया। यह पातक जन्म लेने पर अधर्म कहलाया। इस अधर्म के वंश का आख्यान श्रवण करने, स्मरण करने तथा सभी रहस्यों को जान लेने से प्राणी इस संसार के सभी पापों से मुक्त हो जाता है। उस पातक अधर्म की पत्नी का नाम मिथ्या था। वह बिल्ली जैसे चपल नेत्रों वाली, अत्यन्त सुन्दर और रमणीय थी। इन दोनों के परस्पर संयोग से इनके वंश में अत्यन्त तेजस्वी और महाक्रोधी स्वभाव का एक पुत्र जन्मा। इस क्रोधी पुत्र का नाम अधर्म ने दम्भ रखा।
अधर्म और मिथ्या के यहां माया नाम की भ्रमित कर देने वाली, बुद्धि को कुमार्ग की ओर ले जाने वाली कन्या का जन्म हुआ। माया ने दम्भ के साथ रमण करते हुए बहुत समय बिताया और कुछ समय के बाद इनके यहां लोभ नाम का एक पुत्र तथा निकृति नाम की एक कन्या ने जन्म लिया। बाद में युवा होने पर लोभ और निकृति भी लैंगिक सम्बन्ध की ओर अग्रसर हुए और इनके परस्पर संयोग से इनके यहां क्रोध नाम का अत्यन्त उग्र स्वभाव का तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। लोभ और निकृति के यहां एक कन्या भी जन्मी। इस कन्या का नाम हिंसा था। यह भी निर्दयी स्वभाव की और करुणा विहीन थी। इस प्रकार क्रोध और हिंसा के संभोग से संसार को नष्ट करने वाले कलि का जन्म हुआ।
जन्म के समय कलि बाएं हाथ में उपास्थि धारण किए था और इसका सम्पूर्ण शरीर काजल के समान श्यामवर्णी था। काक उदर वाले, कराल तथा चंचल जीभ वाले तथा भयानक दुर्गन्ध युक्त शरीर वाले इस कलि ने जुए, मद्य, स्त्री और स्वर्ण में अपना निवास चुना। क्रोध और हिंसा के यहां दुरुक्ति नाम की एक अत्यन्त विकराल दृष्टि वाली कन्या भी जन्मी। यह कन्या भी कलि की भाँति बड़ी भयानक आकृति वाली थी। आगे इस कलि ने दुरुक्ति के साथ संयोग द्वारा भयानक नाम के अत्यन्त विरूप पुत्र को जन्म दिया और मृत्यु नाम की कन्या उत्पन्न की। भयानक ने आगे चलकर मृत्यु के साथ समागम करके निरय नाम के पुत्र को जन्म दिया और साथ ही यातना नाम की पुत्री को भी जन्म दिया।
इस प्रकार संसार सृष्ठा ब्रह्मा की पीठ से जन्मे घोर पातक अधर्म के वंश में कलि नामी अधर्मी का जन्म एक बड़ी घटना थी। इसी के वंश में उत्पन्न निरय और यातना के संयोग से हजारों पुत्र उत्पन्न हुए। ये सभी अधर्म के वंशज पूरी तरह धर्म के विरुद्ध उसकी निन्दा करने वाले, सभी प्रकार के पाप कर्म में लीन, ईश्वर भक्ति से विरत, सत्कर्म में अश्रद्धा रखने वाले, बुराईयों को बढ़ावा देने वाले, अविद्या माया से ग्रस्त, मोह, माया, आधि-व्याधि, बुढ़ापा और भय को आश्रय देने वाले हैं। यज्ञ यागादि, अध्ययन, दान, दया, धर्म, शील, वैदिक तथा तांत्रिक कर्मों से विरत करने वाले और इन कर्मों को करने वालों के लिए संकट खड़ा करने वाले हुए। इनके दमनकारी कार्यों का इतना प्रभाव पड़ा कि पृथ्वी पर अनाचार बहुत अधिक बढ़ गया और सभी जगह प्रजा में त्राहि-त्राहि मचने लगी।
संसार में प्रचलित शिष्ट आचरण का नाश करने वाले राजा कलि के अनुचर समूह ने काम वासना युक्त और क्षण में विनष्ट होने वाली मनुष्य देह धारण कर ली। इनके अनुचर अत्यधिक दम्भी, दुराचारी, माता-पिता को मारने वाले, ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी वेद के विरुद्ध आचरण करने वाले दरिद्री, लेकिन शूद्रों की सेवा करने वाले हुए। अनावश्यक और बिना बात की बहस तथा विवाद में समय गंवाते हुए कुतर्क में विश्वास करने वाले, रक्त मांस को बेचने वाले, धर्म और वेद का उपहास करने वाले संस्कार से विरत और हीन तथा सदा ही अधोभाग की लिप्सा में लीन थे।
पराई स्त्री के साथ रमण की इच्छा रखने वाले, समय मिलने पर उससे अपनी वासना पूर्ति करने वाले, यौवन की मस्ती में चूर तथा अभिमानी ये सभी जन वर्ण संकर सन्तान उत्पन्न करने वाले हुए। इनका शारीरिक सम्पर्क के लिए किसी विधान को मानने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा, स्वच्छन्द रमण ही उनका लक्ष्य रहा। इस प्रकार काम पिपासा के फलस्वरूप जो सन्तति जन्मी वह निश्चय ही कुलगोत्रहीन, संस्कारहीन, अकुलीन और अवैध रूप से जन्मी। जिसका उत्तरदायित्व वहन करने के लिए भी ये कभी तैयार नहीं हुए। इनका उद्देश्य सदा उदरपूर्ति ही रहा। आकार में ये प्राणी नाटे कद के, पाप में लिप्त दुष्ट प्रवृत्ति वाले, शठ का व्यवहार करने वाले, मठों में निवास करने वाले हुए। इनकी परम आयु सोलह वर्ष हुई। ये सभी कलि के सेवकगण पूर्वोक्त दुर्गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को भाई के समान मानने वाले हुए और सदैव ही नीच संस्कारों से युक्त रहे तथा नीच पुरुषों की संगति में व्यस्त रहे।
ये सभी प्राणी अनावश्यक विवाद करने वाले और विवाद से उपजे कलेश और कलह से क्षुब्ध रहने वाले केश दायरे में लिप्त और उसी में आसक्त धन लोलुप येन-केन-प्रकारेण धन को अर्जित करने वाले और उसके माध्यम से विलास में जीवन व्यतीत करने वाले रहे। इनमें ऋण पर धन देकर उसके ब्याज से अपना जीवन चलाने वाले और इस प्रकार वर्ग में श्रेष्ठ होकर कुलीन कहलाने वाले ये ब्राह्मण ही कलियुग में पूज्य बने और पूजनीय कहलाये। संन्यासी लोग अपने दायित्व से दूर होकर गृहस्थ में चले गये। और गृहस्थियों में विचार और विवेचन करने की शक्ति का अभाव हो गया।
शिष्टगण अपने आचरण में अनुशासित हो गये, गुरु की निन्दा करने लगे। उनमें शालीनता और विनय का भाव समाप्त होने लगा। धर्म की पताका को फहराने वाले साधु भिखारी हो गये और विपन्न दशा में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। शूद्र लोग दान लेने और दूसरे की सम्पत्ति को हरण करने वाले हो गये। इन्होंने अपने सेवा भाव को त्यागकर समाज में अशांति फैलाने का काम किया। स्त्री-पुरुष की परस्पर सहमति से विवाह प्रारम्भ हुए। मित्र लोग मित्रता छोड़कर दुष्टता का व्यवहार करने लगे और षठ बन गये। एक-दूसरे के प्रति बदले की भावना इनमें बढ़ गई। किसी ने यदि इसी के हित में कुछ किया है तो उसके बदले प्रतिदान की भावना ही दानशीलता कहलाने लगी।
न्याय अधिकारी अपराधी को दंड देने में असमर्थता का अनुभव करने लगे क्योंकि वे स्वयं भी कहीं न कहीं उन अन्याय की प्रक्रिया से जुड़े हुए थे और इसीलिए वे क्षमाशील हो गये। कमजोर वर्ग के प्रति दया, धर्म और करुणा की जगह उदासीनता ने ले ली और समाज का एक बड़ा वर्ग जो सम्पन्न होता गया वह अपने अधिकार क्षेत्र में बढ़ावा तो करता रहा लेकिन दायित्व का भाव कम होने लगा। यही कारण है कि इस काल में दुर्बल और अधिक विपन्न होने लगे। जो अधिक बोलने वाला होता वही मंडली में विद्वान कहा जाता क्योंकि बिना अपनी बात प्रस्तुत किये और उनके पक्ष में कुतर्क दिये कोई बात सिद्ध करनी सम्भव नहीं रही।
इसी प्रकार यश की कामना से लोग धर्म का सेवन करते। जिस व्यक्ति के पास धन, दौलत और सम्पन्नता आ गई वही पुरुष धार्मिक और साधु कहलाए। इसी प्रकार दूर देश से लाया जल भले ही कैसा भी हो वह तीर्थ का जल माना जाने लगा। यज्ञोपवीत में ही ब्राह्मणत्व सीमित हो गया क्योंकि उसका आचरण गौण हो गया और इसलिए केवल आडम्बर ही महत्त्वपूर्ण हो गया। दण्ड धारण केवल प्रतीक रूप में संन्यासी का लक्षण रह गया। ये सभी आचरण की हीनता होने पर भी धन ही केवल बड़ेपन का मापदण्ड बन गया।
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