पुराण एवं उपनिषद् >> ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराणविनय
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पुराण-साहित्य-श्रृंखला में ब्रह्मवैवर्त पुराण
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण
भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य
भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि हैं। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष
और अपकर्ष की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए
भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की
इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या
से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह
पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और
अधर्म, कर्म, और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं।
आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक प्रस्तुत है।
पुराण साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों की स्थापना आज के मनुष्य को एक निश्चित दिशा दे सकता है।
निरन्तर द्वन्द्व और निरन्तर द्वन्द्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति का मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं। इसी उद्देश्य को लेकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज भाषा में प्रस्तुत है पुराण-साहित्य की श्रृंखला में ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’।
आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक प्रस्तुत है।
पुराण साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों की स्थापना आज के मनुष्य को एक निश्चित दिशा दे सकता है।
निरन्तर द्वन्द्व और निरन्तर द्वन्द्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति का मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं। इसी उद्देश्य को लेकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज भाषा में प्रस्तुत है पुराण-साहित्य की श्रृंखला में ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’।
प्रस्तावना
भारतीय जीवन धारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनमें पुराण
भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य
भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष
और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन-परंपरा में कर्मकांड
युग, उपनिषद् युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का
निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए
भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद
भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।
विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय मनीषियों ने कितना चिंतन और मनन किया है। पुराण साहित्य को केवल धार्मिक और पुरा कथा साहित्य कहकर छोड़ देना उस पूरी चिंतन-धारा से अपने को अपरिचित रखना होगा जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी परंपरा को नहीं जान सकते।
परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि परंपरा से अपने को संबद्ध करना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण-साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति एवं उसका विकास, मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए गए हैं कि यदि उनसे चमत्कार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान में न रखे जाएं तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञान सम्मत भी हो सकती हैं क्योंकि जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है विकासवाद के सिद्धांत के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है और इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है। उसे एकाएक पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता।
महर्षि वेदव्यास को इन 18 पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता भी वेदव्यास ही हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ, यह प्रश्न दूसरा है और यह बात भी अलग है कि सारे पुराण कथा-कथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया, लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं जहां ऐतिहासिकता, भूगोल का तर्क उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जितना उसमें व्यक्त जीवन-मूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल में पुराण साहित्य में की गई, वे हमारे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं ? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मलोक जन्म लेता है जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है और हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर लें अंततः आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिक देर नहीं ठहरती। इसलिए उन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इसका महत्त्व है।
जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है। 18 पुराणों में अलग-अलग देवी देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। उन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं-न-कहीं सद्गगुणों की प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए। आधुनिक जीवन में भी संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर आने के बाद भी विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती है कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है, लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
कलियुग का जैसा वर्णन पुराणों में मिलता है, आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अतः यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों को और वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को एक दिशा तो दे सकता है, क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है, लेकिन विश्वास का विरोध करना आत्महत्या के समान है।
प्रत्येक पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की विशेषपरक अभिव्यक्ति बारबार हुई है, लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली हुआ है और हिन्दी में अनेक पुराण यथावत् लिखे गए। फिर यह प्रश्न उठ सकता कि हमने इस प्रकार पुराणों का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रारंभ किया। उत्तर स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में अन्य पुराण नहीं पहुंचे होंगे हम उन तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने का प्रयासकर सकेंगे।
हमने मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की है और सामान्य व्यक्ति को भी समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्त्वदर्शी शब्द हैं उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को उसी रूप में हो।
हम आज के जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहें हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर अधिक हावी हो रहा है। इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटाना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित रहना न होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमंड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्र कुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है और यह पुराण उन्हीं के लिए हैं जिनके लिए यह अनिवार्य हैं।
विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय मनीषियों ने कितना चिंतन और मनन किया है। पुराण साहित्य को केवल धार्मिक और पुरा कथा साहित्य कहकर छोड़ देना उस पूरी चिंतन-धारा से अपने को अपरिचित रखना होगा जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी परंपरा को नहीं जान सकते।
परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि परंपरा से अपने को संबद्ध करना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण-साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति एवं उसका विकास, मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए गए हैं कि यदि उनसे चमत्कार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान में न रखे जाएं तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञान सम्मत भी हो सकती हैं क्योंकि जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है विकासवाद के सिद्धांत के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है और इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है। उसे एकाएक पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता।
महर्षि वेदव्यास को इन 18 पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता भी वेदव्यास ही हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ, यह प्रश्न दूसरा है और यह बात भी अलग है कि सारे पुराण कथा-कथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया, लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं जहां ऐतिहासिकता, भूगोल का तर्क उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जितना उसमें व्यक्त जीवन-मूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल में पुराण साहित्य में की गई, वे हमारे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं ? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मलोक जन्म लेता है जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है और हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर लें अंततः आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिक देर नहीं ठहरती। इसलिए उन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इसका महत्त्व है।
जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है। 18 पुराणों में अलग-अलग देवी देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। उन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं-न-कहीं सद्गगुणों की प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए। आधुनिक जीवन में भी संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर आने के बाद भी विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती है कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है, लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
कलियुग का जैसा वर्णन पुराणों में मिलता है, आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अतः यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों को और वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को एक दिशा तो दे सकता है, क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है, लेकिन विश्वास का विरोध करना आत्महत्या के समान है।
प्रत्येक पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की विशेषपरक अभिव्यक्ति बारबार हुई है, लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली हुआ है और हिन्दी में अनेक पुराण यथावत् लिखे गए। फिर यह प्रश्न उठ सकता कि हमने इस प्रकार पुराणों का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रारंभ किया। उत्तर स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में अन्य पुराण नहीं पहुंचे होंगे हम उन तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने का प्रयासकर सकेंगे।
हमने मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की है और सामान्य व्यक्ति को भी समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्त्वदर्शी शब्द हैं उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को उसी रूप में हो।
हम आज के जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहें हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर अधिक हावी हो रहा है। इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटाना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित रहना न होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमंड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्र कुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है और यह पुराण उन्हीं के लिए हैं जिनके लिए यह अनिवार्य हैं।
-डॉ. विनय
ब्रह्मवैवर्त पुराण का महत्त्व
ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रत्येक भक्त के लिए
मुक्ति परदाता है, सुख सम्पत्ति
दाता है, कष्ट संहारक है, व्याधि मारक है और इसके विधिपूर्वक स्तवन परायण
से भक्त सहज ही भगवान की भक्ति और दास्यपद शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मवैवर्त शब्द का अर्थ है : ब्रह्मणों विवर्तः अर्थात् ब्रह्म का
विवर्त या परिणाम। कहने का तात्पर्य है प्रकृति के भिन्न-भिन्न परिणामों
का जहां प्रतिपादन हो वही पुराण ब्रह्मवैवर्त कहलाता है। यह चार खंडों में
है-ब्रह्म खण्ड, प्रकृति खण्ड, गणेश खण्ड व कृष्ण खण्ड।
ब्रह्म खण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र की लीलाओं का वर्णन है। ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन है। साथ ही तत्त्व ज्ञान का वर्णन है।
दूसरा, प्रकृति खण्ड में देवियों के विभिन्न चरित्रों की चर्चा के साथ विशेष रूप में सरस्वती जी की पूजा का विधान आदि दिया है। अंत में देवी की उत्पत्ति और चरित्र का आख्यान है।
गणेश खंड में गणेश जी के जन्म की विस्तार से चर्चा तथा पुण्यक व्रत की महिमा, विष्णुकृत गणेश जी की स्तवन, दशाक्षरी विद्या व दुर्गा कवच का वर्णन है। गणेश के एकदन्त होने की कथा है। परशुराम कथा है।
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में भगवान् के जन्म तथा उनकी लीलाओं का बड़ा श्रृंगारी चित्रण यहां किया गया है। कृष्ण के बचपन व कालिया नाग से सम्पर्क की भी कथा है। गोरी व्रत की कथा भी है और अंत में रासकेन्द्र वृन्दावन का विस्तार से वर्णन है। कृष्ण का यह अद्भुत आख्यान और स्रोत्र भक्त के लिए सुखद सारभूत मोक्ष दायक और संसार बंधन से मुक्ति दिलाने वाला है। इसी का स्तवन और पाठन श्रवण प्रत्येक भक्त का कर्त्तव्य है।
ब्रह्म खण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र की लीलाओं का वर्णन है। ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन है। साथ ही तत्त्व ज्ञान का वर्णन है।
दूसरा, प्रकृति खण्ड में देवियों के विभिन्न चरित्रों की चर्चा के साथ विशेष रूप में सरस्वती जी की पूजा का विधान आदि दिया है। अंत में देवी की उत्पत्ति और चरित्र का आख्यान है।
गणेश खंड में गणेश जी के जन्म की विस्तार से चर्चा तथा पुण्यक व्रत की महिमा, विष्णुकृत गणेश जी की स्तवन, दशाक्षरी विद्या व दुर्गा कवच का वर्णन है। गणेश के एकदन्त होने की कथा है। परशुराम कथा है।
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में भगवान् के जन्म तथा उनकी लीलाओं का बड़ा श्रृंगारी चित्रण यहां किया गया है। कृष्ण के बचपन व कालिया नाग से सम्पर्क की भी कथा है। गोरी व्रत की कथा भी है और अंत में रासकेन्द्र वृन्दावन का विस्तार से वर्णन है। कृष्ण का यह अद्भुत आख्यान और स्रोत्र भक्त के लिए सुखद सारभूत मोक्ष दायक और संसार बंधन से मुक्ति दिलाने वाला है। इसी का स्तवन और पाठन श्रवण प्रत्येक भक्त का कर्त्तव्य है।
ब्रह्म खण्ड
नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषि अपने नित्य कर्म से निवृत्त होकर कुशा आसन पर
बैठे हुए थे और अपने शिष्यों को भोजन पूजन स्तुति की महत्ता बतलाते हुए
प्रकृति ब्रह्मा विष्णु और शिव को प्रकट करने वाले परब्रह्म कृष्ण की
वंदना करते हुए ध्यान मग्न बैठे हुए थे। तभी उनके आश्रम में अकस्मात सूत
पुत्र जी का आगमन हुआ। सभी ने इसे अपना अहोभाग्य मानकर बड़े विनीत भाव से
प्राणाम किया और उन्हें आदरपूर्वक आसन दिया। भक्ति भाव से उनकी पूजा करके
उनका कुशल समाचार पूछते हुए मार्ग की थकावट से उन्हें विश्रांति दी।
तत्पश्चात् पुराण के ज्ञाता मुनि शौनक ने सूत पुत्रजी से ऐसे पुराण के
आख्यान के विषय में प्रश्न किया जो परम उत्तम कृष्ण कथा से युक्त
मंगलकारी, सम्पूर्ण आशा आकांक्षाओं को पूरा करने वाला, समस्त दुखों और
आपदाओं से मुक्ति दिलाने वाला, धन्य-धान्य से पूर्ण रखने वाला, प्रत्येक
मनुष्य को सर्व प्रकार से सुख, हरि-भक्ति और मोक्ष देने वाला और तत्त्व
ज्ञान है।
शौनक मुनि ने अपने आश्रम के सभी ऋषि मुनियों की ओर से कलियुग के भय से ज्ञान से शून्य संसार में डूबे हुए और मोक्ष के इच्छुक भाव से सूत पुत्र जी से ज्ञानवर्धक पुराण के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की क्योंकि कृष्ण की भक्ति मोक्ष से भी श्रेष्ठ ओर सभी प्रकार से बंधनों से मुक्ति करने वाली और अमृत वर्षा करने वाली है। शौनक मुनि ने कहा कि उन्हें ऐसा पुराण सुनाया जाए जिसमें सृष्टि के कारण तत्त्व का प्रतिपादन हो, सृष्टि का उत्तम वर्णन हो और परब्रह्म का स्वरूप जानते हुए उसकी चिंतन विधि और ध्यान विधि का ज्ञान हो। जिसमें प्रकृति के स्वरूप का निरुपण तीनों लोकों का वर्णन, प्रकृति पुरुष का भेद, कलाए, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी और राधिका का अत्यंत अपूर्व और अमृत के समान आख्यान हो, मनसा, तुलसी, काली गंगा का पवित्र वर्णन हो, शालगराम शिलाओं और दान का विस्तार से वर्णन हो, धर्म-अधर्म का स्वरूप वह ऐसा आख्यान हो जो इससे पहले कभी न सुना गया हो और परम अद्भुत हो। कृपया यह भी बतायें कि पुण्य क्षेत्र भारत वर्ष में परम पूर्ण परमात्मा, कृष्ण का जन्म उनके अवतरण का कारण और किस प्रकार उन्होंने पृथ्वी का भार हल्का किया और अंत में गोलोक को गये। अतः इन सभी आख्यानों से सम्पन्न जो श्रुति दुर्लभ पुराण है कृपया उसका सम्यक ज्ञान कराकर हमें लाभविन्त करें ताकि हमारा मन निर्मल हो सके और जीवन सफल हो सके।
गुरु शौनक आदि से इस प्रकार वदित होते हुए सूत पुत्र जी ने बताया कि इस समय वे सिद्ध क्षेत्र से आ रहे हैं और यहाँ आश्रम में कुछ समय विश्राम करके नारायण आश्रम को चले जायेंगे। इस पवित्र भारत भूमि में ब्राह्मण समूह को देखने के लिए नैमिषारण्य का यह आगमन उन्हें यहां खीच लाया। जो व्यक्ति ब्राह्मणों की वन्दना नहीं करता वह नरक गामी होता है इसलिए, पुण्यात्मा व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने पुण्य के प्रभाव से विष्णु रूपी ब्राह्मण की वन्दना करे। हे महाभाग आपने जिन जिज्ञासाओं को प्रकट किया है उनका निर्वाण करने वाला सारभूत पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण है। यह भोगी व्यक्तियों के लिए भोग और कमियों के लिए मोक्ष देने वाला तथा वैष्णवों के लिए भक्तिदायक और कल्पवृक्ष के समान है। इसमें मुख्य चार खण्ड हैं प्रथम खण्ड, ब्रह्म है जिसमें संसार के बीज रूप ब्रह्म का निरूपण है जिसकी सभी योगी संत ध्यान आराधना करते हैं। प्रकृति खण्ड में समस्त सृष्टि की उत्पत्ति और देवियों का पवित्र चरित्र वर्णित किया गया है। गणेश खण्ड में गणेश के जन्म और उनके दुर्लभ चरित्र का वर्णन है। गणेश और भृगु का संवाद है और अंतिम खण्ड कृष्ण-जन्म-खण्ड में भारत के पुण्य क्षेत्र में कृष्ण के जन्म उनकी समस्त बाल लीलाओं और दुष्टों का दमन आदि का वर्णन है। इसी कारण ब्रह्म के रूप को विवृत करने वाला ये पुराण ब्रह्म का विवृत अर्थात् ब्रह्म वैवर्त पुराण कहलाता है। इसका अर्थ ही यह है कि ब्रह्म का विवृत अर्थात् ब्रह्म का परिणाम। ब्रह्म का आदि, विवृत प्रकृति है जिसमें दुर्गा, लक्ष्मी का परिणाम। ब्रह्म का आदि, विवृत प्रकृति है जिसमें दुर्गा, लक्ष्मी सरस्वती सावित्री तथा राधा नामक पांच मुख्य विवर्तों का वर्णन है। इसमें राधा को प्राण शक्ति के रूप में माना गया है। इस प्रकार सभी विवर्तों में फैले सम्पूर्ण ज्ञान के सारभूत पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण का वृतांत मैं आपको सुनाता हूं-
शौनक मुनि ने अपने आश्रम के सभी ऋषि मुनियों की ओर से कलियुग के भय से ज्ञान से शून्य संसार में डूबे हुए और मोक्ष के इच्छुक भाव से सूत पुत्र जी से ज्ञानवर्धक पुराण के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की क्योंकि कृष्ण की भक्ति मोक्ष से भी श्रेष्ठ ओर सभी प्रकार से बंधनों से मुक्ति करने वाली और अमृत वर्षा करने वाली है। शौनक मुनि ने कहा कि उन्हें ऐसा पुराण सुनाया जाए जिसमें सृष्टि के कारण तत्त्व का प्रतिपादन हो, सृष्टि का उत्तम वर्णन हो और परब्रह्म का स्वरूप जानते हुए उसकी चिंतन विधि और ध्यान विधि का ज्ञान हो। जिसमें प्रकृति के स्वरूप का निरुपण तीनों लोकों का वर्णन, प्रकृति पुरुष का भेद, कलाए, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी और राधिका का अत्यंत अपूर्व और अमृत के समान आख्यान हो, मनसा, तुलसी, काली गंगा का पवित्र वर्णन हो, शालगराम शिलाओं और दान का विस्तार से वर्णन हो, धर्म-अधर्म का स्वरूप वह ऐसा आख्यान हो जो इससे पहले कभी न सुना गया हो और परम अद्भुत हो। कृपया यह भी बतायें कि पुण्य क्षेत्र भारत वर्ष में परम पूर्ण परमात्मा, कृष्ण का जन्म उनके अवतरण का कारण और किस प्रकार उन्होंने पृथ्वी का भार हल्का किया और अंत में गोलोक को गये। अतः इन सभी आख्यानों से सम्पन्न जो श्रुति दुर्लभ पुराण है कृपया उसका सम्यक ज्ञान कराकर हमें लाभविन्त करें ताकि हमारा मन निर्मल हो सके और जीवन सफल हो सके।
गुरु शौनक आदि से इस प्रकार वदित होते हुए सूत पुत्र जी ने बताया कि इस समय वे सिद्ध क्षेत्र से आ रहे हैं और यहाँ आश्रम में कुछ समय विश्राम करके नारायण आश्रम को चले जायेंगे। इस पवित्र भारत भूमि में ब्राह्मण समूह को देखने के लिए नैमिषारण्य का यह आगमन उन्हें यहां खीच लाया। जो व्यक्ति ब्राह्मणों की वन्दना नहीं करता वह नरक गामी होता है इसलिए, पुण्यात्मा व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने पुण्य के प्रभाव से विष्णु रूपी ब्राह्मण की वन्दना करे। हे महाभाग आपने जिन जिज्ञासाओं को प्रकट किया है उनका निर्वाण करने वाला सारभूत पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण है। यह भोगी व्यक्तियों के लिए भोग और कमियों के लिए मोक्ष देने वाला तथा वैष्णवों के लिए भक्तिदायक और कल्पवृक्ष के समान है। इसमें मुख्य चार खण्ड हैं प्रथम खण्ड, ब्रह्म है जिसमें संसार के बीज रूप ब्रह्म का निरूपण है जिसकी सभी योगी संत ध्यान आराधना करते हैं। प्रकृति खण्ड में समस्त सृष्टि की उत्पत्ति और देवियों का पवित्र चरित्र वर्णित किया गया है। गणेश खण्ड में गणेश के जन्म और उनके दुर्लभ चरित्र का वर्णन है। गणेश और भृगु का संवाद है और अंतिम खण्ड कृष्ण-जन्म-खण्ड में भारत के पुण्य क्षेत्र में कृष्ण के जन्म उनकी समस्त बाल लीलाओं और दुष्टों का दमन आदि का वर्णन है। इसी कारण ब्रह्म के रूप को विवृत करने वाला ये पुराण ब्रह्म का विवृत अर्थात् ब्रह्म वैवर्त पुराण कहलाता है। इसका अर्थ ही यह है कि ब्रह्म का विवृत अर्थात् ब्रह्म का परिणाम। ब्रह्म का आदि, विवृत प्रकृति है जिसमें दुर्गा, लक्ष्मी का परिणाम। ब्रह्म का आदि, विवृत प्रकृति है जिसमें दुर्गा, लक्ष्मी सरस्वती सावित्री तथा राधा नामक पांच मुख्य विवर्तों का वर्णन है। इसमें राधा को प्राण शक्ति के रूप में माना गया है। इस प्रकार सभी विवर्तों में फैले सम्पूर्ण ज्ञान के सारभूत पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण का वृतांत मैं आपको सुनाता हूं-
ब्रह्मवैवर्त पुराण का वृतांत-
पुराने समय में गोलोक में परम पिता परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस पुराण का
ज्ञान ब्रह्माजी को दिया था। धर्म तीर्थ पुष्कर में ब्रह्मा ने यह ज्ञान
धर्म को दिया, धर्म ने अपने पुत्र नारायण को यह ज्ञान प्रदान किया। भगवान्
नारायण से यह ज्ञान नारद को मिला। गंगा के किनारे यह ज्ञान नारदजी ने
व्यास को दिया और व्यासजी ने उसे महिमामयी ज्ञान को मुझे दिया। अतः आप इस
पुराण को ध्यान मग्न होकर और श्रद्धापूर्वक सुनें। सृष्टि के आदिकाल में
सर्वप्रथम केवल एक ज्योतिसमूह था जिसका प्रकाश करोड़ों सूर्यों के समान था
इसमें तीनों लोक विद्यमान थे। इन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक की स्थिति मानी
जाती है जो परमात्मा के समान नित्य है। अपने परिणाम में तीन करोड़ योजन
वाला यह मण्डलाकर लोक महान् तेज वाला रत्नमयी भूमि वाला और सरलता से
आदर्शनीय और अप्राप्त है। विष्णु भक्त और आराधक ही परम पिता परमात्मा की
कृपा से उसे देख पाते हैं। यह सभी व्याधियों से मुक्त और मृत्यु, शोक और
भय से रहित है। प्रलय काल में यह कृष्ण का निवास स्थल है जबकि सृष्टि काल
में श्रीकृष्ण के साथ यहां गोप और गोपियां भी उपस्थित रहते हैं।
इस गोलोक से नीचे 50 करोड़ योजन दूर दायीं तरफ विष्णु लोक (बैकुण्ठ) और बायीं ओर शिव लोक है। ये भी गोलोक के समान ही प्रभा सम्पन्न हैं। प्रलय काल में दोनों ही लोक शून्य रहते हैं जबकि सृष्टि काल में बैकुण्ठ में नारायण और लक्ष्मी विराजमान रहते हैं और शिव लोक से अपने गुणों के साथ शिव और पार्वती निवास करते हैं। गोलोक की आनन्दायक ज्योति ही ब्रह्म रूप है। जिसके भीतर एक मनोहर रूप निवास करता है। जो बादलों के समान श्याम रंग का कमल के समान नेत्र वाला, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर, अपनी लीलाओं को करता हुआ हाथ में मुरली, शरीर पर पीताम्बर धारण किए रहता है। उसके वृक्ष पर कौस्तुभ मणि और आसन अनेक रत्नों से सज्जित होता है यही परम ब्रह्म और सनातन भगवान् हैं। सृष्टि के कारण पालक और संहारक हैं इनकी शोभा का वर्णन सीमा से बाहर है। इनका ही ध्यान आराधना और पूजा सभी प्रकार की शांति और सुख देने वाली है। अपनी इच्छा से एक बार जब स्वयं प्रभु ने एकांत अनुभव करते हुए शून्य में विश्व देखा तो उनके मन में सृष्टि रचने की इच्छा जागी।
सृष्टि के आदि में पुरुष के (ब्रह्मा के) दक्षिण भाग से संसार के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए इनसे पांच तनमात्राएं और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द उत्पन्न हुए। इसके बाद नारायण प्रकट हुए जो श्याम रंग के युवक पीताम्बरधारी चार भुजा वाले, चक्र, गदा और पद्म को धारण किए हुए, कमल मुख वाले, वक्ष पर कौस्तुभ धारण किए हुए, लक्ष्मी पति तथा शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान आभा वाले और कामदेव के समान सुन्दरता वाले थे। नारायण भक्ति भाव से कृष्ण के सामने खड़े अनेक प्रकर से स्तुति करते हुए कृष्ण की आज्ञा से कृष्ण के सामने रत्नजड़ित आसन पर बैठ गये। नारायण ने जो कृष्ण की स्तुति में श्लोक पढ़े उनका पारायण करने वाला भक्त सभी प्रकार निष्पाप होकर पुत्र, पत्नी, धन, वैभव को प्राप्त करता है और आनन्दमार्गी हो जाता है। परम पुरुष के बायं भाग से शुद्ध मणि के समान उजले पांच मुख वाले सोने के समान कांति वाले, सर्वसिद्ध ईश्वर, योगियों के गुरु, वैष्णवों के सिरोमणि और ब्रह्म तेज से दैदिप्यवान शंकर प्रकट हुए। उन्होंने भी सभी प्रकार से कृष्ण की स्तुति करते हुए उनकी वंदना की और कहा हे जय स्वरूप विश्व रूप जगत् पति सृष्टि में सर्वोत्तम फल के आधार तेज रूप, परम आराध्य आप सब प्रकार से पूज्य हैं और श्रेष्ठ हैं। मैं आपकी वंदना करता हूं। शंकर भी इस तरह मणि जड़ति आसान पर बैठते हुए नारायण से वार्तालाप करने लगे।
इस गोलोक से नीचे 50 करोड़ योजन दूर दायीं तरफ विष्णु लोक (बैकुण्ठ) और बायीं ओर शिव लोक है। ये भी गोलोक के समान ही प्रभा सम्पन्न हैं। प्रलय काल में दोनों ही लोक शून्य रहते हैं जबकि सृष्टि काल में बैकुण्ठ में नारायण और लक्ष्मी विराजमान रहते हैं और शिव लोक से अपने गुणों के साथ शिव और पार्वती निवास करते हैं। गोलोक की आनन्दायक ज्योति ही ब्रह्म रूप है। जिसके भीतर एक मनोहर रूप निवास करता है। जो बादलों के समान श्याम रंग का कमल के समान नेत्र वाला, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर, अपनी लीलाओं को करता हुआ हाथ में मुरली, शरीर पर पीताम्बर धारण किए रहता है। उसके वृक्ष पर कौस्तुभ मणि और आसन अनेक रत्नों से सज्जित होता है यही परम ब्रह्म और सनातन भगवान् हैं। सृष्टि के कारण पालक और संहारक हैं इनकी शोभा का वर्णन सीमा से बाहर है। इनका ही ध्यान आराधना और पूजा सभी प्रकार की शांति और सुख देने वाली है। अपनी इच्छा से एक बार जब स्वयं प्रभु ने एकांत अनुभव करते हुए शून्य में विश्व देखा तो उनके मन में सृष्टि रचने की इच्छा जागी।
सृष्टि के आदि में पुरुष के (ब्रह्मा के) दक्षिण भाग से संसार के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए इनसे पांच तनमात्राएं और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द उत्पन्न हुए। इसके बाद नारायण प्रकट हुए जो श्याम रंग के युवक पीताम्बरधारी चार भुजा वाले, चक्र, गदा और पद्म को धारण किए हुए, कमल मुख वाले, वक्ष पर कौस्तुभ धारण किए हुए, लक्ष्मी पति तथा शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान आभा वाले और कामदेव के समान सुन्दरता वाले थे। नारायण भक्ति भाव से कृष्ण के सामने खड़े अनेक प्रकर से स्तुति करते हुए कृष्ण की आज्ञा से कृष्ण के सामने रत्नजड़ित आसन पर बैठ गये। नारायण ने जो कृष्ण की स्तुति में श्लोक पढ़े उनका पारायण करने वाला भक्त सभी प्रकार निष्पाप होकर पुत्र, पत्नी, धन, वैभव को प्राप्त करता है और आनन्दमार्गी हो जाता है। परम पुरुष के बायं भाग से शुद्ध मणि के समान उजले पांच मुख वाले सोने के समान कांति वाले, सर्वसिद्ध ईश्वर, योगियों के गुरु, वैष्णवों के सिरोमणि और ब्रह्म तेज से दैदिप्यवान शंकर प्रकट हुए। उन्होंने भी सभी प्रकार से कृष्ण की स्तुति करते हुए उनकी वंदना की और कहा हे जय स्वरूप विश्व रूप जगत् पति सृष्टि में सर्वोत्तम फल के आधार तेज रूप, परम आराध्य आप सब प्रकार से पूज्य हैं और श्रेष्ठ हैं। मैं आपकी वंदना करता हूं। शंकर भी इस तरह मणि जड़ति आसान पर बैठते हुए नारायण से वार्तालाप करने लगे।
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