आचार्य श्रीराम शर्मा >> ऋग्वेद संहिता - भाग 2 ऋग्वेद संहिता - भाग 2श्रीराम शर्मा आचार्य
|
7 पाठकों को प्रिय 33 पाठक हैं |
ऋग्वेद का विवरण (मण्डल 3-6)।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ॐ
अथ तृतीयं मण्डलम्।।
(सूक्ति-1)
(ऋषि-विश्वामित्र देवता- अग्नि। छन्द-त्रिष्टुप्। )
2436. सोमस्य मा तवसं वक्ष्यग्ने वह्लिं चकर्थ विदथे यजध्यै।
देवाँ अच्छा दीद्यद्युञ्जे अद्रिं शमाये अग्ने तन्वं जुषस्व ।।1।।
देवाँ अच्छा दीद्यद्युञ्जे अद्रिं शमाये अग्ने तन्वं जुषस्व ।।1।।
अग्नि देव आपने यज्ञ में यज्ञादि कार्य के लिए हमें सोमर का
वाहक
बनाया है। अतएव हमें (समुचित) बल भी प्रदा करें। हे अग्निदेव ! हम
तेजस्वीतापूर्वक देशभक्तियों के लिए (सोमरस निकालने के कार्य में, कूटने
वाले) पाषाण को नियोजित करके आपकी स्तुतियाँ करते हैं। आप शरीर को पुष्ट
करने के लिए हमें ग्रहण करें ।। 1 ।।
2437. प्राच्यं यज्ञं चकृम वर्धतां गीः समिद्भरग्निं नमसा दुवस्यन्।
दिवः शशासुर्दिदथा कवीनां गृत्साय चित्तवसे गातुमीषुः ।।2।।
दिवः शशासुर्दिदथा कवीनां गृत्साय चित्तवसे गातुमीषुः ।।2।।
हे अग्निदेव ! समिधाओं और हव्यादि द्वारा आपको पुष्ट करते हुए हमने भली
प्रकार यज्ञ सम्पन्न किया है। हमारी वाणी (स्तुतियों के प्रभाव) का
संवर्द्धन हो। देवों ने हम स्तोताओं को यज्ञादि कर्म सिखाया है। अतः हम
स्तोता अग्निदेव की स्तुति करने की इच्छा करते है।।।2।।
2438. मयो दधे मेधिरः पूतदक्षों दिवः सुबन्धुर्जनुषयाः प्रथिव्याः।
अविन्दन्नु दर्शतमप्स्व 1 न्तर्देवासो अग्निमपासि स्वसृणाम् ।।3।।
अविन्दन्नु दर्शतमप्स्व 1 न्तर्देवासो अग्निमपासि स्वसृणाम् ।।3।।
ये अग्निदेव मेधावी, विशुद्ध बल-सम्पन्न और जन्म से ही उत्कृष्ट बन्धुत्व
बाव से युक्त है। ये द्युलोक और पृथ्वी लोक में सर्वत्र सुख स्थापित करते
हैं। प्रवहगमान धाराओं के जल में गुप्त रूप से स्थित दर्शनीय
अग्निद्व को वेदों ने (यथार्थ) की खोज निकाला ।। 3 ।।
2439. अवर्धन्तिसुभगं सप्त सहीः श्रेतं यज्ञानमरुषं महित्वा।
शिशुं न जातमभ्यारुरश्वा देवासो अग्नि जनिमन्वपुष्यन् ।।4।।
शिशुं न जातमभ्यारुरश्वा देवासो अग्नि जनिमन्वपुष्यन् ।।4।।
शुभ्र धन-सम्पदा से युक्त, उत्पन्न अग्नि (ऊर्जा) को प्रवाहशील महान्
नदियों ने प्रवर्धित किया। जैसे घोड़ी नवजात शिशु को विकसित करती है, उसी
प्रकार अग्नि के उत्पन्न होने के बाद देवों ने उसे
विकसित-संविर्धित
किया ।।4।।
2440. शुक्रेभिरग्ङै रज आततन्वान् क्रतुं पुनानः कविभिः पवित्रैः ।
शोचिर्वसानः पर्यायुरपां श्रियो मिमीते बृहतीरनूनाः ।।5।।
शोचिर्वसानः पर्यायुरपां श्रियो मिमीते बृहतीरनूनाः ।।5।।
शुभ्रवर्ण तेज के द्वारा अन्तरिक्ष को व्याप्त करके ये अग्निदेव यज्ञ-कर्म
सम्पादन यजमान को पवित्र और स्तुत्य तेजों से परिशुद्ध करते हैं। प्रदीप्त
ज्वाला रूप अच्छादन को ओढ़कर ये अग्निदेव स्तोताओं को विपुल अन्न और
पर्याय ऐश्वर्य सम्पदा से समृद्धि प्रदान करते है ।।5।।
2441. वव्रजा सीमनदतीरदब्धा दिवों यह्वीरवसाना अनग्नाः।
सना अत्र युवतयः सयोनीरेकं गर्भं दधिरे सप्त वाणीः ।।3।।
सना अत्र युवतयः सयोनीरेकं गर्भं दधिरे सप्त वाणीः ।।3।।
स्वयं नष्ट न होने वाले तथा (जल को) हानि न पहुँचाने वाले ये अग्निदेव सब
ओर विचरण करते हैं। वस्त्रों से आच्छादित न होने पर भी नग्न रहने वाली
सनातन काल से तरुण, एक ही दिव्य स्त्रोत से उत्पन्न प्रवहमान जलधाराएं एक
ही गर्भ को धारण करती है।।6।।
2442. स्तीर्णा अस्य संहतो विश्वरूपा घृतस्य योनौ स्त्रवथे मधूनाम्।
अस्थुरत्र धेनवः पिन्वमाना मही दस्मस्य मातरा समीची ।।7।।
अस्थुरत्र धेनवः पिन्वमाना मही दस्मस्य मातरा समीची ।।7।।
इस अग्नि) की नाना रूपों वाली संगठित किरणें जब फैलती है तब पोषक रस के
उत्पत्ति स्थान से मधुर वर्षा होती है। सबको तृप्ति देने वाली किरणें यहाँ
विद्यमान रहती है। इस अग्नि के माता-पिता पृथ्वी और अंतरिक्ष है।।7।।
2443. बभ्राणः सूनो सहसो व्यद्यौद्दधानः शुक्रा रभसा वपूंषि।
श्चोतन्ति धारा मधुनों घृतस्य वृषा यत्र वावृधे काव्येन।।8।।
श्चोतन्ति धारा मधुनों घृतस्य वृषा यत्र वावृधे काव्येन।।8।।
हे बल के पुत्र अग्निदेव ! सबके द्वारा धारण किये जाने योग्य आप उज्ज्वल
और वेगवान् किरणों द्वारा प्रकाशमान हों। जिस समय स्तोतागण
स्तोत्रों से आपकों प्रवर्धित करते है, उस समय वे मधुर घृत धारायें सिंचित
करती हैं अथवा पुष्टिकारक जल धाराएं बरसाती है ।।8।।
2444. पितुश्चिदूधर्जनुषा विवेद व्यस्य धारा असृजद्वि धेनाः ।
गुहा चरन्तं सखिभिः शिवेभिर्दिवों यह्मीभिर्न गुहा बभूव ।।9।।
गुहा चरन्तं सखिभिः शिवेभिर्दिवों यह्मीभिर्न गुहा बभूव ।।9।।
अग्निदेव ने जन्म से ही अपने पिता (अन्तरिक्ष) के निचले स्तर पर जल प्रदेश
को जान लिया। अन्तरिक्ष की जलधारा ने बिजली को उत्पन्न किया। अग्निदेव
अपने कल्याणकर मित्रों और द्युलोक की जलराशि के साथ हुह्य रूप में विचरते
है। (गुह्य) रूप में स्थिति) उस अग्नि को कोई भी प्राप्त कर सका ।।9।।
2445. पितुश्च गर्भं जनितुश्च बभ्रे पूर्वीरेको अधयत्पीप्यानाः।
वृष्णे सपत्नी शुचये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये नि पाहि ।।10।।
वृष्णे सपत्नी शुचये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये नि पाहि ।।10।।
ये अग्निदेव पिता (आकाश) और माता (पृथ्वी) के गर्भ को पुष्ट करते है। एक
मात्र अग्निदेव अभिवर्द्धित ओषधि का भक्षण करते हैं। अभीष्ठ वर्षा करने
वाले ये अग्निदेव पत्नी सहित याजक के पवित्रकर्त्ता बन्धु सदृश है। हे
अग्निदेव ! द्यावा-पृथिवी में हम यजमानों को रक्षित करें।।10।।
2446. उरौ महाँ अनिबाधे ववर्धापो अग्निं यशसः सं हि पूर्वीः
ऋतस्य योनावशयद्दमूना जामीनामग्निरपसि स्वसृणाम् ।।11।।
ऋतस्य योनावशयद्दमूना जामीनामग्निरपसि स्वसृणाम् ।।11।।
महान अग्निदेव अबाध और विस्तीर्ण पृथ्वी में प्रवर्धित होते है। वहाँ बहुत
अन्नवर्द्धक जल समूह अग्नि को संवर्धित करते है। जल के उत्पत्ति
स्थान में स्थित अग्निदेव परस्पर बहिन रूप नदियों के जल में शान्तिपूर्वक
शयन करते है ।। 11 ।।
2447. अक्रो न बभ्रिः समिथे महीनां दिदृक्षेयः सूनवे भाऋजीकः।
उदुस्त्रिया जनिता यो जजानापां गर्भों नृतमों यह्यों अग्निः ।। 12।।
उदुस्त्रिया जनिता यो जजानापां गर्भों नृतमों यह्यों अग्निः ।। 12।।
ये अग्निदेव सबके पिता रूप जल के गर्भ में गुह्य-स्थित,
मनुष्यों के हितकारी, संग्राम में युद्ध कुशल अपनी
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book