पुराण एवं उपनिषद् >> पद्म पुराण पद्म पुराणविनय
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भगवान विष्णु पर आधारित पुस्तक पदम पुराण....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण
भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य
भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि हैं। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष
और अपकर्ष की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए
भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की
इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या
से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह
पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और
अधर्म, कर्म, और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं।
आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक प्रस्तुत है।
आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक प्रस्तुत है।
प्रस्तावना
भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण
भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य
भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि है। इनमें मानव-जीवन के उत्कर्ष
और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन-परंपरा में कर्मकांड
युग, उपनिषद् युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का
निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए
भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद
भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।
पदम का अर्थ है-‘कमल का पुष्प’। चूंकि सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने भगवान नारायण के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए इस पुराण को पदम पुराण की संज्ञा दी गई है। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित सभी अठारह पुराणों की गणना में ‘पदम पुराण’ को द्वितीय स्थान प्राप्त है। श्लोक संख्या की दृष्टि से भी इसे द्वितीय स्थान रखा जा सकता है। पहला स्थान स्कंद पुराण को प्राप्त है।
सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वतंर और वंशानुचरित –पदम पुराण इन पाँच महत्वपूर्ण लक्षणों से युक्त है। भगवान विष्णु के स्वरूप और पूजा उपासना का प्रतिपादन करने के कारण इस पुराण को वैष्णव पुराण भी कहा गया है। इस पुराण में विभिन्न पौराणिक आख्यानों और उपाख्यानों का वर्णन किया गया है, जिसके माध्यम से भगवान विष्णु से संबंधित भक्तिपूर्ण कथानकों को अन्य पुराणों की अपेक्षा अधिक विस्तृत ढंग से प्रस्तुत किया है।
हम आज जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से भी करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडारक से भी अपरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमण्ड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्रकुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है। यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।
पदम का अर्थ है-‘कमल का पुष्प’। चूंकि सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने भगवान नारायण के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए इस पुराण को पदम पुराण की संज्ञा दी गई है। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित सभी अठारह पुराणों की गणना में ‘पदम पुराण’ को द्वितीय स्थान प्राप्त है। श्लोक संख्या की दृष्टि से भी इसे द्वितीय स्थान रखा जा सकता है। पहला स्थान स्कंद पुराण को प्राप्त है।
सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वतंर और वंशानुचरित –पदम पुराण इन पाँच महत्वपूर्ण लक्षणों से युक्त है। भगवान विष्णु के स्वरूप और पूजा उपासना का प्रतिपादन करने के कारण इस पुराण को वैष्णव पुराण भी कहा गया है। इस पुराण में विभिन्न पौराणिक आख्यानों और उपाख्यानों का वर्णन किया गया है, जिसके माध्यम से भगवान विष्णु से संबंधित भक्तिपूर्ण कथानकों को अन्य पुराणों की अपेक्षा अधिक विस्तृत ढंग से प्रस्तुत किया है।
हम आज जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से भी करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडारक से भी अपरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।
‘डायमण्ड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्रकुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक भाव संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी। इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है। यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।
-डॉ.विनय
सृष्टि की उत्पत्ति और विकास
पदम-पुराण सृष्टि की उत्पत्ति अर्थात् ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना और
अनेक प्रकार के अन्य ज्ञानों से परिपूर्ण है तथा अनेक विषयों के गम्भीर
रहस्यों का इसमें उद्घाटन किया गया है। इसमें सृष्टि खंड, भूमि खंड और
उसके बाद स्वर्ग खण्ड महत्वपूर्ण अध्याय है। फिर ब्रह्म खण्ड और उत्तर
खण्ड के साथ क्रिया योग सार भी दिया गया है। इसमें अनेक बातें ऐसी हैं जो
अन्य पुराणों में भी किसी-न-किसी रूप में मिल जाती हैं। किन्तु पदम पुराण
में विष्णु के महत्व के साथ शंकर की अनेक कथाओं को भी लिया गया है। शंकर
का विवाह और उसके उपरान्त अन्य ऋषि-मुनियों के कथानक तत्व विवेचन के लिए
महत्वपूर्ण है।
बहुत प्राचीन बात है कि लोमहर्षण ने एकान्त में उग्रश्रवा को बुलाकर पदम पुराण के दिव्य ज्ञान को फैलाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि जैसे मैंने अपने गुरु व्यास से उसे सुना है, उसी तरह तुम भी इसका विस्तार करो। जब उग्रश्रवा ने पूछा कि ऐसे महत्वपूर्ण श्रोता कहां मिलेंगे। तब उन्होंने बताया कि बहुत पहले की बात है, प्रयागराज में अनेक ऋषि-मुनियों ने भगवान नारायण से तप के लिए पवित्र स्थान बताने के लिए कहा था। तब उन्हें नैमिषारण्य नामक स्थान प्राप्त हुआ था। वहां अनेक ऋषि एकत्रित हुए और दिव्य ज्ञान की चर्चाएं चलती रहीं।
इधर जब उग्रश्रवा नैमिषारण्य पहुंचे तो ऋषि ने उनका स्वागत करके उनके आने का कारण पूछा। तब उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों को इतिहास और पुराण का ज्ञान देने के लिए आया हूँ। तब सौनक ने उनसे पदम पुराण सुनाने का अनुरोध किया उग्रश्रवा ने कहा कि पुराण धर्म, काम और मोक्ष का साधन है। असुरों के द्वारा वेदों का अपहरण कर लिया गया था तो उन्होंने मत्स्य का रूप धारण करके उनका उद्धार किया और वहीं पर ब्रह्मा ने उनका आगे विस्तार किया लेकिन वेदों का बहुत अधिक प्रचलन नहीं हुआ। फिर ब्रह्मा ने वेद व्यास के रूप में अवतार लिया और पुराणों के माध्यम से वेदों के ज्ञान की अभिव्यक्ति की।
जिस तत्वज्ञान को मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ उसे या उसमें संचित कथा और ज्ञान को पदम पुराण की संज्ञा इसलिए दी गई है कि ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना सम्बन्धी ज्ञान का विस्तार किया। विद्वानों के अनुसार इसमें पांच और सात खण्ड हैं। किसी विद्वान ने पांच खण्ड माने हैं और कुछ ने सात। पांच खण्ड इस प्रकार हैं-
1. सृष्टि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म ने सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में पुलस्त्य से पूछा। पुलस्त्य और भीष्म के संवाद में ब्रह्मा के द्वारा रचित सृष्टि के विषय में बताते हुए शंकर के विवाह आदि की भी चर्चा की।
2. भूमि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म और पुलस्त्य के संवाद में कश्यप और अदिति की संतान, परम्परा सृष्टि, सृष्टि के प्रकार तथा अन्य कुछ कथाएं संकलित है।
3. स्वर्ग खण्ड : स्वर्ग खण्ड में स्वर्ग की चर्चा है। मनुष्य के ज्ञान और भारत के तीर्थों का उल्लेख करते हुए तत्वज्ञान की शिक्षा दी गई है।
4. ब्रह्म खण्ड: इस खण्ड में पुरुषों के कल्याण का सुलभ उपाय धर्म आदि की विवेचन तथा निषिद्ध तत्वों का उल्लेख किया गया है। पाताल खण्ड में राम के प्रसंग का कथानक आया है। इससे यह पता चलता है कि भक्ति के प्रवाह में विष्णु और राम में कोई भेद नहीं है। उत्तर खण्ड में भक्ति के स्वरूप को समझाते हुए योग और भक्ति की बात की गई है। साकार की उपासना पर बल देते हुए जलंधर के कथानक को विस्तार से लिया गया है।
5. क्रियायोग सार खण्ड: क्रियायोग सार खण्ड में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित तथा कुछ अन्य संक्षिप्त बातों को लिया गया है। इस प्रकार यह खण्ड सामान्यत: तत्व का विवेचन करता है।
पदम-पुराण के विषय में कहा गया है कि यह पुराण अत्यन्त पुण्य-दायक और पापों का विनाशक है। सबसे पहले इस पुराण को ब्रह्मा ने पुलस्त्य को सुनाया और उन्होंने फिर भीष्म को और भीष्म ने अत्यन्त मनोयोग से इस पुराण को सुना क्योंकि वे समझते थे कि वेदों का मर्म इस रूप में ही समझा जा सकता है।
ऋषियों ने उग्रश्रवा से कहा कि सबसे पहले तो यह बताइए कि भीष्म और पुलस्त्य दोनों का सम्मेलन कैसे हुआ ? और इन दोनों ने कहां पर यह ज्ञान चर्चा की। तब सूत ने उन्हें बताया कि भीष्म गंगा द्वार पर रहा करते थे और एक बार वहां घूमते-घूमते पुलस्त्य पहुंचे तो उन्होंने भीष्म से कहा कि वे ब्रह्मा की आज्ञा से उनके पास आए हैं। यह सुनकर भीष्म ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि वे उन्हें ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि रचना के विषय में विस्तार से बताएँ। तब यह पदम पुराण पुलस्त्य ने भीष्म को सुनाया, और मैं आप लोगों को बताता हूँ।
भीष्म ने पुलस्त्य से कहा कि आप सबसे पहले यह बताने की कृपा करें कि ब्रह्मा के मन में संसार रचने की भावना कैसे उत्पन्न हुई ? यह सुनकर ऋषि भीष्म से बोले कि मनुष्य की सभी भाव शक्तियां ज्ञानगम्य और अचिन्त्य है। ब्रह्मा की सृष्टि उनके ही उपचार से उत्पन्न मानी जाती है। ब्रह्मा तो नित्य हैं किन्तु फिर भी सृष्टि उनके ही उपचार से उत्पन्न मानी जाती है। ब्रह्मा का सबसे पहला काल परिमाण स्वरूप बताते हुए पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि साठ घड़ी का मनुष्यों का एक दिन-रात होता है। पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष। पक्ष दो होते हैं शुक्ल और कृष्ण। दोनों पक्षों का एक मास होता है। इसके उपरांत छ: मासों का एक अयन-अनय दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन। इन दोनों अयनों का एक वर्ष होता है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन और एक रात होता है और इस तरह एक सहस्र वर्ष के सतयुग त्रेता, द्वापर और कलियुग आदि चार युग होते हैं। इन चार युगों की एक चौकड़ी के परिणाम में ब्रह्मा का एक दिन होता है।
ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं। जितने परिमाण के दिन होते हैं उतने ही परिमाण की रात्रि। इस तरह 365 दिन और रात का उनका एक वर्ष होता हैं और ऐसे 500 वर्षों की उनकी अवस्था कही गई है। इस गणना से अब तक उनकी आयु का अभी एक ही वर्ष व्यतीत हुआ है। ऋषि से भीष्म ने पूछा कि आप यह बताने का कष्ट करें कि सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस पर पुलस्त्य जी ने कहा कि बहुत पहले कल्प के अन्त में लोक को शून्य और पृथ्वी को जल में डूबी हुई देखकर ब्रह्मा ने विष्णु का स्मरण किया। विष्णु वराह का रूप धारण करके जल में डूबी हुई पृथ्वी के पास गए और जब पृथ्वी ने भगवान को अपने पास आते हुए देखा तो उनकी उपासना की और अपने उद्धार की प्रार्थना भी की। उन्होंने कहा आपने इससे पहले भी मेरा उद्धार किया है और आज फिर आप मेरा उद्धार कीजिए। यह सुनकर भगवान वराह ने भयंकर गर्जन किया और पृथ्वी पर अनेक द्वीप तथा पहाड़ों की रचना कर दी। इसके बाद उन्होंने ब्रह्मा से प्राकृत, वैकृत और नवविध सृष्टि की रचना करने के लिए कहा। यह सुनकर भीष्म ने इस वर्णन को विस्तार से जानने की इच्छा प्रकट की। तब पुलस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा के मुख से सत्वगुण, वक्ष और जंघाओं से रजोगुण और पैरों से केवल तमोगुण से युक्त प्रजा-सृष्टि की उत्पत्ति हुई। यही प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाई। इसके बाद यज्ञ की उत्पत्ति और निष्पत्ति के लिए उन्होंने मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित कर दिया। यज्ञों से देवता लोग प्रसन्न और तृप्त होते हैं और मनुष्य भी इसी जीवन में स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। यज्ञ में सिद्धि देने के लिए वर्ण-व्यवस्था बनाई गई है।
ब्रह्मा ने यज्ञादि कर्म करने की सृष्टि से सांसारिक व्यवस्था की और उसके बाद उत्तम रूप से निवास करने की सृष्टि की है। फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्रों के लिए प्रजापति के इन्द्र के मरुत के और गन्धर्व के लोक बनाए और उन्होंने अनेक प्रकार के अन्धकार और दु:खों को तथा अनेक नरकों को बनाया। जिससे दुष्ट व्यक्ति को दण्ड दिया जा सके। इसके बाद ब्रह्मा ने अपने ही समान नौ-भृगु, पुलस्त्य पुलह, ऋतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ मानव पुत्रों की रचना की। पुराणों में इन नौ ब्रह्मा-पुत्रों को ‘ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:’ ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया, लोक में आसक्त नहीं हुए और उन्होंने सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं ली। इन वीतराग महात्माओं के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा के मुख से त्रिलोकी को दग्ध करने वाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचण्ड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया।
प्रजापत्य कल्प में भगवान ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्व’यंभु मनु और स्त्री रूप में सतरूपा को प्रकट किया और फिर उसके बाद प्रियव्रत उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया। दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति है। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, भव से सति का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
इसके बाद भीष्म ने पूछा कि लक्ष्मी की उत्पत्ति के विषय में आप मुझे विस्तार से बताइए क्योंकि इस विषय में कथानक है। यह सुनकर पुलस्त्य बोले कि एक बार घूमते हुए दुर्वासा ने अपरूपा विद्याधरी के पास एक बहुत सुन्दर माला देखी। वह गन्धित माला थी। ऋषि ने उस माला को अपने जटाओं पर धारण करने के लिए मांगा और प्राप्त कर लिया। दुर्वासा ने सोचा कि यह माला प्रेम के कारण दी और वे कामातुर हो उठे। अपने काम के आवेग को रोकने के लिए इधर-उधर घूमे और घूमते हुए स्वर्ग पहुंचे। वहां उन्होंने अपने सिर से माला हटाकर इन्द्र को दे दी। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के गले में डाल दिया और उससे वह माला धरती पर गिर गई और पैरों से कुचली गई। दुर्वासा ने जब यह देखा कि उसकी माला की यह दुर्गति हुई तो वह क्रोधित हुए और उन्होंने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। जब इन्द्र ने यह सुना तो भयभीत होकर ऋषि के पास आये पर उनका शाप लौट नहीं सकता था। इसी शाप के कारण असुरों ने इन्द्र और देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। देवता ब्रह्मा की शरण में गये और उनसे अपने कष्ट के विषय में कहा।
ब्रह्मा देवताओं को लेकर विष्णु के पास गये और उनसे सारी बात कही तब विष्णु ने देवताओं को दानव से सुलह करके समुद्र मन्थन करने की सलाह दी और स्वयं भी सहायता का आश्वासन दिया। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन से उन्हें लक्ष्मी और अमृत प्राप्त होगा। अमृत पीकर वे अजर और अमर हो जाएंगे। देवताओं ने भगवान विष्णु की बात सुनकर समुद्र मंथन का आयोजन किया। उन्होंने अनेक औषधियां एकत्रित की और समुद्र में डाली। फिर मन्थन किया गया। वासुकी नाग के मुख से निकले हुए जहर से बुझे हुए सांसों से असुरों को कष्ट होने के उपरान्त भी हिम्मत नहीं छोड़ी और फिर सारे रत्न निकले। अमृत कलश देवताओं के हाथ में न आकर असुरों के हाथ में आया किन्तु भगवान ने मोहिनी का रूप धारण करके कलश पर अधिकार कर लिया। मोहिनी ने ऐसा जादू डाला कि दानव पराजित हो गये और देवताओं ने उन्हें हरा कर अपना खोया हुआ वैभव फिर से प्राप्त कर लिया।
इसके बाद पुलस्त्य ने बताया कि यह लक्ष्मी भृगु की भार्या ख्याति के पेट से पैदा हुई। भृगु और विष्णु का विवाद बहुत पुराना है। मुनि ने बताया कि लक्ष्मी ने अपनी कुमारी अवस्था में एक पुर की स्थापना की थी और विवाह के बाद वह अपने पिता को दे दिया। विवाह के बाद लक्ष्मी ने जब अपनी सम्पत्ति मांगी तो भृगु ने उसे नहीं लौटाया। इस पर लक्ष्मी के पति विष्णु ने सम्पत्ति लौटाने की प्रार्थना की। भृगु ने भगवान विष्णु की भर्त्सना की और कहा कि जब वे धरती पर उत्पन्न होंगे तब नारी के सुख से वंचित रहेंगे।
यह सुनकर भीष्म ने कहा कि आप मुझे सूर्य वंश का विवरण बताइए। तब पुलस्त्य ने सूर्य वंश का विवरण बताते हुए कहा कि वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। मनु ने ज्येष्ठ पुत्र इल को राज्य पर अभिषिक्त किया और स्वयं तप के लिए वन को चले गये। इल अर्थसिद्धि के लिए रथारूढ़ होकर निकले। वह अनेक राजाओं को बाधित करता हुआ भगवान शम्भु के क्रीड़ा उपवन की ओर जा निकले। उपवन से आकृष्ट होकर वह अपने अश्वारोहियों के साथ उसमें प्रविष्ट हो गये। पार्वती द्वारा विदित नियम के कारण इल और उसके सैनिक तथा अश्वादि स्त्री रूप हो गए। यह स्थिति देखकर इल ने पुरुषत्व के लिए भगवान शंकर की स्तुति आराधना की। भगवान शंकर प्रसन्न तो हुए परन्तु उन्होंने इल को एक मास स्त्री और एक मास पुरुष होने का विधान किया।
स्त्री रूप में इस इल के बुध से पुरुरवा नाम वाले एक गुणी पुत्र का जन्म हुआ। इसी इल राजा के नाम से ही यह प्रदेश ‘इलावृत्त’ कहलाया। इसी इल के पुरुष रूप में तीन उत्कल गये और हरिताश्व-बलशाली पुत्र उत्पन्न हुए। वैवस्वत मनु के अन्य पुत्रों में से नष्यिन्त का शुक्र, नाभाग का अम्बरीष, धृष्ट के धृष्टकेतु, स्वधर्मा और रणधृष्ट, शर्याति का आनर्त पुत्र और सुकन्या नाम की पुत्री आदि उत्पन्न हुए। आनर्त का रोचिमान् नामक बड़ा प्रतापी पुत्र हुआ। उसने अपने देश का नाम अनर्त रखा और कुशस्थली नाम वाली पत्नी से रेव नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस रेव के पुत्र रैवत की पुत्री रेवती का बलराम से विवाह हुआ।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुंची। राजा सगर के दो स्त्रियां थीं-प्रभा और भानुमति। प्रभा ने और्वाग्नि से साठ हजार पुत्र और भानुमति केवल एक पुत्र की प्राप्ति की जिसका नाम असमंजस था। यह कथा बहुत प्रसिद्ध है कि सगर के साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप से पाताल लोक में भस्म हो गए थे और फिर असमंजस की परम्परा में भगीरथ ने गंगा को मनाकर अपने पूर्वजों का उद्धार किया था। इस तरह सूर्य वंश के अन्तर्गत अनेक यशस्वी राजा उत्पन्न हुए।
भीष्म ने आगे पूछा कि मेरे अन्य पितरों के विषय में बताने की कृपा करें। इसके उत्तर में पुलस्त्य बोले कि स्वर्ग में सात पितृगण हैं-चार मूर्तिक और तीन अमूर्तिक। इनका निवास दक्षिण दिशा में माना गया है। इन पितरों का संतानों के द्वारा उचित श्राद्ध होना चाहिए। श्राद्ध के तीन प्रकार बताये गये हैं, नित्य नैमित्तिक और काम्य। श्राद्ध करने वाले को चाहिए कि वह किसी वेद को जानने वाले जितेन्द्रिय ब्राह्मण को आमन्त्रित करे और दक्षिण की तरफ मुंह करके श्राद्ध कर्म के बाद ब्राह्मण को भोजन कराए फिर उसके बाद सुन्दर वस्त्रों से सज्जित गाय या पृथ्वी (भूमि) का उदारता पूर्वक दान करें। श्राद्ध के लिए महत्वपूर्ण दिन चैत्र व भाद्र तृतीया, आश्विन की नवमी, कार्तिक शुक्ल नवमी, आषाढ़ की दसवीं, श्रावण की अष्टमी, महत्वपूर्ण है। तीर्थों में किया गया श्राद्ध विशेष फल देने वाला होता है।
इसके उपरांत भीष्म ने पुलस्त्य के चन्द्रवंश के प्रतापी राजाओं के विषय में जानना चाहा। यह सुनकर पुलस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा ने अत्रि को सृष्टि-रचना का आदेश दिया तो उन्होंने तपस्या की। उनकी आँखों से जल बहने लगा। जिसे ग्रहण करके दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज सहन न करने के कारण दिशाओं ने उन्हें त्याग दिया। ब्रह्मा उस बालक को रथ पर बैठाकर ले गये। उसी का नाम चन्द्र पड़ा और औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया। चन्द्र ने हजारों वर्ष तक विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।
उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था। बुद्ध से इला के गर्भ से पुरुरवा ने जन्म लिया। पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाये। रजि ने विष्णु को प्रसन्न करके देव असुर और मनुष्यों पर विजय पाने की शक्ति ले ली। देवताओं ने इसकी सहायता से असुरों पर विजय प्राप्त की और रजि ने इन्द्र को ही अपना पुत्र समझकर उसे राज्य दे दिया। और वन में चला गया। लेकिन बाद में रजि के अन्य पुत्रों ने अपना राज्य छीन लिया जब इन्द्र ने गुरु बृहस्पति से इसकी शिकायत की तो उन्होंने रजि के पुत्रों को धर्मभ्रष्ट होने का शाप दिया। जिससे फिर इन्द्र ने उनकी हत्या कर दी।
आयु के पहले पुत्र नहुष ने यति, ययाति, शर्याति, उत्तर, पर, अयाति और नियति सात पुत्र हुए। ययाति राजा बना और उसने अपनी पहली पत्नी से द्रुह्य, अनु और पुरु तथा दूसरी देवयानी से यदु और तुरवशु पुत्र उत्पन्न किए।
भीष्म की इस वंश के विस्तार की कथा सुनाते हुए पुलस्त्य ने कहा कि एक बार देव और दानवों में युद्ध छिड़ गया। उसमें दानवों की पराजय हुई तब उसके गुरु शुक्राचार्य ने तप किया। किन्तु उस तप से इन्द्र ने चिन्तित होकर अपनी पुत्री जयंती को शुक्राचार्य के वश में करने के लिए भेजा। जयंती ने उसकी देखभाल की और सेवा की और तपस्या के पूरे होने पर शुक्राचार्य ने शिव से वरदान प्राप्त किया। जब शुक्राचार्य ने जयंती से सौ वर्ष तक साथ रहकर एकांत विहार की इच्छा प्रकट की तो शुक्राचार्य ने उसे स्वीकार कर लिया दूसरी ओर इन्द्र ने अपनी योजना की सफलता अपने गुरु को दी। तब देव गुरु शुक्राचार्य का रूप धारण कर दानवों के पास गये और दानव उन्हें अपना वास्तविक गुरु मानकर उनसे यज्ञ कार्य कराने लगे।
बहुत प्राचीन बात है कि लोमहर्षण ने एकान्त में उग्रश्रवा को बुलाकर पदम पुराण के दिव्य ज्ञान को फैलाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि जैसे मैंने अपने गुरु व्यास से उसे सुना है, उसी तरह तुम भी इसका विस्तार करो। जब उग्रश्रवा ने पूछा कि ऐसे महत्वपूर्ण श्रोता कहां मिलेंगे। तब उन्होंने बताया कि बहुत पहले की बात है, प्रयागराज में अनेक ऋषि-मुनियों ने भगवान नारायण से तप के लिए पवित्र स्थान बताने के लिए कहा था। तब उन्हें नैमिषारण्य नामक स्थान प्राप्त हुआ था। वहां अनेक ऋषि एकत्रित हुए और दिव्य ज्ञान की चर्चाएं चलती रहीं।
इधर जब उग्रश्रवा नैमिषारण्य पहुंचे तो ऋषि ने उनका स्वागत करके उनके आने का कारण पूछा। तब उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों को इतिहास और पुराण का ज्ञान देने के लिए आया हूँ। तब सौनक ने उनसे पदम पुराण सुनाने का अनुरोध किया उग्रश्रवा ने कहा कि पुराण धर्म, काम और मोक्ष का साधन है। असुरों के द्वारा वेदों का अपहरण कर लिया गया था तो उन्होंने मत्स्य का रूप धारण करके उनका उद्धार किया और वहीं पर ब्रह्मा ने उनका आगे विस्तार किया लेकिन वेदों का बहुत अधिक प्रचलन नहीं हुआ। फिर ब्रह्मा ने वेद व्यास के रूप में अवतार लिया और पुराणों के माध्यम से वेदों के ज्ञान की अभिव्यक्ति की।
जिस तत्वज्ञान को मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ उसे या उसमें संचित कथा और ज्ञान को पदम पुराण की संज्ञा इसलिए दी गई है कि ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना सम्बन्धी ज्ञान का विस्तार किया। विद्वानों के अनुसार इसमें पांच और सात खण्ड हैं। किसी विद्वान ने पांच खण्ड माने हैं और कुछ ने सात। पांच खण्ड इस प्रकार हैं-
1. सृष्टि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म ने सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में पुलस्त्य से पूछा। पुलस्त्य और भीष्म के संवाद में ब्रह्मा के द्वारा रचित सृष्टि के विषय में बताते हुए शंकर के विवाह आदि की भी चर्चा की।
2. भूमि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म और पुलस्त्य के संवाद में कश्यप और अदिति की संतान, परम्परा सृष्टि, सृष्टि के प्रकार तथा अन्य कुछ कथाएं संकलित है।
3. स्वर्ग खण्ड : स्वर्ग खण्ड में स्वर्ग की चर्चा है। मनुष्य के ज्ञान और भारत के तीर्थों का उल्लेख करते हुए तत्वज्ञान की शिक्षा दी गई है।
4. ब्रह्म खण्ड: इस खण्ड में पुरुषों के कल्याण का सुलभ उपाय धर्म आदि की विवेचन तथा निषिद्ध तत्वों का उल्लेख किया गया है। पाताल खण्ड में राम के प्रसंग का कथानक आया है। इससे यह पता चलता है कि भक्ति के प्रवाह में विष्णु और राम में कोई भेद नहीं है। उत्तर खण्ड में भक्ति के स्वरूप को समझाते हुए योग और भक्ति की बात की गई है। साकार की उपासना पर बल देते हुए जलंधर के कथानक को विस्तार से लिया गया है।
5. क्रियायोग सार खण्ड: क्रियायोग सार खण्ड में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित तथा कुछ अन्य संक्षिप्त बातों को लिया गया है। इस प्रकार यह खण्ड सामान्यत: तत्व का विवेचन करता है।
पदम-पुराण के विषय में कहा गया है कि यह पुराण अत्यन्त पुण्य-दायक और पापों का विनाशक है। सबसे पहले इस पुराण को ब्रह्मा ने पुलस्त्य को सुनाया और उन्होंने फिर भीष्म को और भीष्म ने अत्यन्त मनोयोग से इस पुराण को सुना क्योंकि वे समझते थे कि वेदों का मर्म इस रूप में ही समझा जा सकता है।
ऋषियों ने उग्रश्रवा से कहा कि सबसे पहले तो यह बताइए कि भीष्म और पुलस्त्य दोनों का सम्मेलन कैसे हुआ ? और इन दोनों ने कहां पर यह ज्ञान चर्चा की। तब सूत ने उन्हें बताया कि भीष्म गंगा द्वार पर रहा करते थे और एक बार वहां घूमते-घूमते पुलस्त्य पहुंचे तो उन्होंने भीष्म से कहा कि वे ब्रह्मा की आज्ञा से उनके पास आए हैं। यह सुनकर भीष्म ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि वे उन्हें ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि रचना के विषय में विस्तार से बताएँ। तब यह पदम पुराण पुलस्त्य ने भीष्म को सुनाया, और मैं आप लोगों को बताता हूँ।
भीष्म ने पुलस्त्य से कहा कि आप सबसे पहले यह बताने की कृपा करें कि ब्रह्मा के मन में संसार रचने की भावना कैसे उत्पन्न हुई ? यह सुनकर ऋषि भीष्म से बोले कि मनुष्य की सभी भाव शक्तियां ज्ञानगम्य और अचिन्त्य है। ब्रह्मा की सृष्टि उनके ही उपचार से उत्पन्न मानी जाती है। ब्रह्मा तो नित्य हैं किन्तु फिर भी सृष्टि उनके ही उपचार से उत्पन्न मानी जाती है। ब्रह्मा का सबसे पहला काल परिमाण स्वरूप बताते हुए पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि साठ घड़ी का मनुष्यों का एक दिन-रात होता है। पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष। पक्ष दो होते हैं शुक्ल और कृष्ण। दोनों पक्षों का एक मास होता है। इसके उपरांत छ: मासों का एक अयन-अनय दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन। इन दोनों अयनों का एक वर्ष होता है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन और एक रात होता है और इस तरह एक सहस्र वर्ष के सतयुग त्रेता, द्वापर और कलियुग आदि चार युग होते हैं। इन चार युगों की एक चौकड़ी के परिणाम में ब्रह्मा का एक दिन होता है।
ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं। जितने परिमाण के दिन होते हैं उतने ही परिमाण की रात्रि। इस तरह 365 दिन और रात का उनका एक वर्ष होता हैं और ऐसे 500 वर्षों की उनकी अवस्था कही गई है। इस गणना से अब तक उनकी आयु का अभी एक ही वर्ष व्यतीत हुआ है। ऋषि से भीष्म ने पूछा कि आप यह बताने का कष्ट करें कि सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस पर पुलस्त्य जी ने कहा कि बहुत पहले कल्प के अन्त में लोक को शून्य और पृथ्वी को जल में डूबी हुई देखकर ब्रह्मा ने विष्णु का स्मरण किया। विष्णु वराह का रूप धारण करके जल में डूबी हुई पृथ्वी के पास गए और जब पृथ्वी ने भगवान को अपने पास आते हुए देखा तो उनकी उपासना की और अपने उद्धार की प्रार्थना भी की। उन्होंने कहा आपने इससे पहले भी मेरा उद्धार किया है और आज फिर आप मेरा उद्धार कीजिए। यह सुनकर भगवान वराह ने भयंकर गर्जन किया और पृथ्वी पर अनेक द्वीप तथा पहाड़ों की रचना कर दी। इसके बाद उन्होंने ब्रह्मा से प्राकृत, वैकृत और नवविध सृष्टि की रचना करने के लिए कहा। यह सुनकर भीष्म ने इस वर्णन को विस्तार से जानने की इच्छा प्रकट की। तब पुलस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा के मुख से सत्वगुण, वक्ष और जंघाओं से रजोगुण और पैरों से केवल तमोगुण से युक्त प्रजा-सृष्टि की उत्पत्ति हुई। यही प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाई। इसके बाद यज्ञ की उत्पत्ति और निष्पत्ति के लिए उन्होंने मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित कर दिया। यज्ञों से देवता लोग प्रसन्न और तृप्त होते हैं और मनुष्य भी इसी जीवन में स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। यज्ञ में सिद्धि देने के लिए वर्ण-व्यवस्था बनाई गई है।
ब्रह्मा ने यज्ञादि कर्म करने की सृष्टि से सांसारिक व्यवस्था की और उसके बाद उत्तम रूप से निवास करने की सृष्टि की है। फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्रों के लिए प्रजापति के इन्द्र के मरुत के और गन्धर्व के लोक बनाए और उन्होंने अनेक प्रकार के अन्धकार और दु:खों को तथा अनेक नरकों को बनाया। जिससे दुष्ट व्यक्ति को दण्ड दिया जा सके। इसके बाद ब्रह्मा ने अपने ही समान नौ-भृगु, पुलस्त्य पुलह, ऋतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ मानव पुत्रों की रचना की। पुराणों में इन नौ ब्रह्मा-पुत्रों को ‘ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:’ ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया, लोक में आसक्त नहीं हुए और उन्होंने सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं ली। इन वीतराग महात्माओं के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा के मुख से त्रिलोकी को दग्ध करने वाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचण्ड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया।
प्रजापत्य कल्प में भगवान ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्व’यंभु मनु और स्त्री रूप में सतरूपा को प्रकट किया और फिर उसके बाद प्रियव्रत उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया। दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति है। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, भव से सति का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
इसके बाद भीष्म ने पूछा कि लक्ष्मी की उत्पत्ति के विषय में आप मुझे विस्तार से बताइए क्योंकि इस विषय में कथानक है। यह सुनकर पुलस्त्य बोले कि एक बार घूमते हुए दुर्वासा ने अपरूपा विद्याधरी के पास एक बहुत सुन्दर माला देखी। वह गन्धित माला थी। ऋषि ने उस माला को अपने जटाओं पर धारण करने के लिए मांगा और प्राप्त कर लिया। दुर्वासा ने सोचा कि यह माला प्रेम के कारण दी और वे कामातुर हो उठे। अपने काम के आवेग को रोकने के लिए इधर-उधर घूमे और घूमते हुए स्वर्ग पहुंचे। वहां उन्होंने अपने सिर से माला हटाकर इन्द्र को दे दी। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के गले में डाल दिया और उससे वह माला धरती पर गिर गई और पैरों से कुचली गई। दुर्वासा ने जब यह देखा कि उसकी माला की यह दुर्गति हुई तो वह क्रोधित हुए और उन्होंने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। जब इन्द्र ने यह सुना तो भयभीत होकर ऋषि के पास आये पर उनका शाप लौट नहीं सकता था। इसी शाप के कारण असुरों ने इन्द्र और देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। देवता ब्रह्मा की शरण में गये और उनसे अपने कष्ट के विषय में कहा।
ब्रह्मा देवताओं को लेकर विष्णु के पास गये और उनसे सारी बात कही तब विष्णु ने देवताओं को दानव से सुलह करके समुद्र मन्थन करने की सलाह दी और स्वयं भी सहायता का आश्वासन दिया। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन से उन्हें लक्ष्मी और अमृत प्राप्त होगा। अमृत पीकर वे अजर और अमर हो जाएंगे। देवताओं ने भगवान विष्णु की बात सुनकर समुद्र मंथन का आयोजन किया। उन्होंने अनेक औषधियां एकत्रित की और समुद्र में डाली। फिर मन्थन किया गया। वासुकी नाग के मुख से निकले हुए जहर से बुझे हुए सांसों से असुरों को कष्ट होने के उपरान्त भी हिम्मत नहीं छोड़ी और फिर सारे रत्न निकले। अमृत कलश देवताओं के हाथ में न आकर असुरों के हाथ में आया किन्तु भगवान ने मोहिनी का रूप धारण करके कलश पर अधिकार कर लिया। मोहिनी ने ऐसा जादू डाला कि दानव पराजित हो गये और देवताओं ने उन्हें हरा कर अपना खोया हुआ वैभव फिर से प्राप्त कर लिया।
इसके बाद पुलस्त्य ने बताया कि यह लक्ष्मी भृगु की भार्या ख्याति के पेट से पैदा हुई। भृगु और विष्णु का विवाद बहुत पुराना है। मुनि ने बताया कि लक्ष्मी ने अपनी कुमारी अवस्था में एक पुर की स्थापना की थी और विवाह के बाद वह अपने पिता को दे दिया। विवाह के बाद लक्ष्मी ने जब अपनी सम्पत्ति मांगी तो भृगु ने उसे नहीं लौटाया। इस पर लक्ष्मी के पति विष्णु ने सम्पत्ति लौटाने की प्रार्थना की। भृगु ने भगवान विष्णु की भर्त्सना की और कहा कि जब वे धरती पर उत्पन्न होंगे तब नारी के सुख से वंचित रहेंगे।
यह सुनकर भीष्म ने कहा कि आप मुझे सूर्य वंश का विवरण बताइए। तब पुलस्त्य ने सूर्य वंश का विवरण बताते हुए कहा कि वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। मनु ने ज्येष्ठ पुत्र इल को राज्य पर अभिषिक्त किया और स्वयं तप के लिए वन को चले गये। इल अर्थसिद्धि के लिए रथारूढ़ होकर निकले। वह अनेक राजाओं को बाधित करता हुआ भगवान शम्भु के क्रीड़ा उपवन की ओर जा निकले। उपवन से आकृष्ट होकर वह अपने अश्वारोहियों के साथ उसमें प्रविष्ट हो गये। पार्वती द्वारा विदित नियम के कारण इल और उसके सैनिक तथा अश्वादि स्त्री रूप हो गए। यह स्थिति देखकर इल ने पुरुषत्व के लिए भगवान शंकर की स्तुति आराधना की। भगवान शंकर प्रसन्न तो हुए परन्तु उन्होंने इल को एक मास स्त्री और एक मास पुरुष होने का विधान किया।
स्त्री रूप में इस इल के बुध से पुरुरवा नाम वाले एक गुणी पुत्र का जन्म हुआ। इसी इल राजा के नाम से ही यह प्रदेश ‘इलावृत्त’ कहलाया। इसी इल के पुरुष रूप में तीन उत्कल गये और हरिताश्व-बलशाली पुत्र उत्पन्न हुए। वैवस्वत मनु के अन्य पुत्रों में से नष्यिन्त का शुक्र, नाभाग का अम्बरीष, धृष्ट के धृष्टकेतु, स्वधर्मा और रणधृष्ट, शर्याति का आनर्त पुत्र और सुकन्या नाम की पुत्री आदि उत्पन्न हुए। आनर्त का रोचिमान् नामक बड़ा प्रतापी पुत्र हुआ। उसने अपने देश का नाम अनर्त रखा और कुशस्थली नाम वाली पत्नी से रेव नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस रेव के पुत्र रैवत की पुत्री रेवती का बलराम से विवाह हुआ।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुंची। राजा सगर के दो स्त्रियां थीं-प्रभा और भानुमति। प्रभा ने और्वाग्नि से साठ हजार पुत्र और भानुमति केवल एक पुत्र की प्राप्ति की जिसका नाम असमंजस था। यह कथा बहुत प्रसिद्ध है कि सगर के साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप से पाताल लोक में भस्म हो गए थे और फिर असमंजस की परम्परा में भगीरथ ने गंगा को मनाकर अपने पूर्वजों का उद्धार किया था। इस तरह सूर्य वंश के अन्तर्गत अनेक यशस्वी राजा उत्पन्न हुए।
भीष्म ने आगे पूछा कि मेरे अन्य पितरों के विषय में बताने की कृपा करें। इसके उत्तर में पुलस्त्य बोले कि स्वर्ग में सात पितृगण हैं-चार मूर्तिक और तीन अमूर्तिक। इनका निवास दक्षिण दिशा में माना गया है। इन पितरों का संतानों के द्वारा उचित श्राद्ध होना चाहिए। श्राद्ध के तीन प्रकार बताये गये हैं, नित्य नैमित्तिक और काम्य। श्राद्ध करने वाले को चाहिए कि वह किसी वेद को जानने वाले जितेन्द्रिय ब्राह्मण को आमन्त्रित करे और दक्षिण की तरफ मुंह करके श्राद्ध कर्म के बाद ब्राह्मण को भोजन कराए फिर उसके बाद सुन्दर वस्त्रों से सज्जित गाय या पृथ्वी (भूमि) का उदारता पूर्वक दान करें। श्राद्ध के लिए महत्वपूर्ण दिन चैत्र व भाद्र तृतीया, आश्विन की नवमी, कार्तिक शुक्ल नवमी, आषाढ़ की दसवीं, श्रावण की अष्टमी, महत्वपूर्ण है। तीर्थों में किया गया श्राद्ध विशेष फल देने वाला होता है।
इसके उपरांत भीष्म ने पुलस्त्य के चन्द्रवंश के प्रतापी राजाओं के विषय में जानना चाहा। यह सुनकर पुलस्त्य ने कहा कि ब्रह्मा ने अत्रि को सृष्टि-रचना का आदेश दिया तो उन्होंने तपस्या की। उनकी आँखों से जल बहने लगा। जिसे ग्रहण करके दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज सहन न करने के कारण दिशाओं ने उन्हें त्याग दिया। ब्रह्मा उस बालक को रथ पर बैठाकर ले गये। उसी का नाम चन्द्र पड़ा और औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया। चन्द्र ने हजारों वर्ष तक विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।
उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था। बुद्ध से इला के गर्भ से पुरुरवा ने जन्म लिया। पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाये। रजि ने विष्णु को प्रसन्न करके देव असुर और मनुष्यों पर विजय पाने की शक्ति ले ली। देवताओं ने इसकी सहायता से असुरों पर विजय प्राप्त की और रजि ने इन्द्र को ही अपना पुत्र समझकर उसे राज्य दे दिया। और वन में चला गया। लेकिन बाद में रजि के अन्य पुत्रों ने अपना राज्य छीन लिया जब इन्द्र ने गुरु बृहस्पति से इसकी शिकायत की तो उन्होंने रजि के पुत्रों को धर्मभ्रष्ट होने का शाप दिया। जिससे फिर इन्द्र ने उनकी हत्या कर दी।
आयु के पहले पुत्र नहुष ने यति, ययाति, शर्याति, उत्तर, पर, अयाति और नियति सात पुत्र हुए। ययाति राजा बना और उसने अपनी पहली पत्नी से द्रुह्य, अनु और पुरु तथा दूसरी देवयानी से यदु और तुरवशु पुत्र उत्पन्न किए।
भीष्म की इस वंश के विस्तार की कथा सुनाते हुए पुलस्त्य ने कहा कि एक बार देव और दानवों में युद्ध छिड़ गया। उसमें दानवों की पराजय हुई तब उसके गुरु शुक्राचार्य ने तप किया। किन्तु उस तप से इन्द्र ने चिन्तित होकर अपनी पुत्री जयंती को शुक्राचार्य के वश में करने के लिए भेजा। जयंती ने उसकी देखभाल की और सेवा की और तपस्या के पूरे होने पर शुक्राचार्य ने शिव से वरदान प्राप्त किया। जब शुक्राचार्य ने जयंती से सौ वर्ष तक साथ रहकर एकांत विहार की इच्छा प्रकट की तो शुक्राचार्य ने उसे स्वीकार कर लिया दूसरी ओर इन्द्र ने अपनी योजना की सफलता अपने गुरु को दी। तब देव गुरु शुक्राचार्य का रूप धारण कर दानवों के पास गये और दानव उन्हें अपना वास्तविक गुरु मानकर उनसे यज्ञ कार्य कराने लगे।
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