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संकल्प साधना महावीर वाणी

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :325
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3550
आईएसबीएन :81-7182-263-0

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ओशो द्वारा दिये गये महावीर वाणी के 54 प्रवचनों में से 28 से 40 प्रवचनों का समूह...

Sankalp Sadhna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महावीर-वाणी के सूत्रों पर ओशो के प्रवचनों का यह तीसरा संकलन है संकल्प साधना। यह संकल्प साधना क्या है ? इसका मूलबिन्दु हैः होश। साधारणतः हम यांत्रिक ढंग से जीते हैं, सोए-सोए जीते हैं, मूर्च्छा में जीते हैं। और हमारा जीवन एक दुर्घटना मात्र बनकर रह जाता है। इसलिए तो हमारे जीवन में इतना विषाद है, इतना संताप है। इस संताप और विषाद को मिटाने के भी हम जो उपाय करते हैं वे हमें और अधिक विषाद में ले जाते हैं, क्योंकि वे आत्मविस्मृति के उपाय हैं। कोई शराब पीने लगता है, कोई धन-सम्पत्ति की तरफ दौड़ने लगता है, कोई राजनीति की पागल दौड़ में संलग्न हो जाता है, कोई किसी और पद के नशे में उन्मत्त होने लगता है। लेकिन कोई भी असली उपाय नहीं करता कि जिससे यह विषाद मिटे और जीवन में आनन्द का प्रादुर्भाव हो।

होश का दीप-स्तंभ


महावीर-वाणी के सूत्रों पर ओशो के प्रवनों का यह तीसरा संकलन है :
संकल्प साधना।
यह संकल्प साधना क्या है ?
इसका मूल बिंदु है: होश
साधारणात : हम यांत्रिक ढंग से जीते हैं, सोए-सोए जीते हैं, मूर्छा में जीते हैं। और हमारा जीवन एक दुर्घटना मात्र बन कर रह जाता है। इसीलिए तो हमारे जीवन में इतना विषाद है, इतना संताप है, इस संताप और विषाद को मिटाने के भी हम जो उपाय करते हैं वे हमें अधिक विषाद में ले जाते हैं, क्योंकि वे आत्मविस्मृति के उपाय हैं। कोई शराब पीने लगता है, कोई धन-संपत्ति की तरफ दौड़ने लगता है, कोई राजनीति की पागल दौड़ में संलग्न हो जाता है, कोई किसी और पद के नशे में उन्मत्त होने लगता है। लेकिन कोई भी असली उपाय नहीं कर सकता कि जिससे यह विषाद मिटे और जीवन में आनंद का प्रादुर्भाव हो।

वही असली उपाय हमें महावीर-वाणी के माध्यम से ओशो बताते हैं : ‘महावीर ने सीधी-सी बात कही है चलो तो होशपूर्वक, बैठो तो होशपूर्वक, उठो तो होशपूर्वक, भोजन करो तो होशपूर्वक। जो भी तुम कर रहे हो जीवन की क्षुद्रतम क्रिया, उसको भी होशपूर्वक किये चले जाओ। क्रिया में बाधा न पड़ेगी, क्रिया में कुशलता बढ़ेगी और होश भी साथ-साथ विकसित होता चला जाएगा। एक दिन तुम पाओगे सारा जीवन होश का एक दीप-स्तंभ बन गया, तुम्हारे भीतर सब होशपूर्वक हो गया है।

यह होश आत्मस्मरण का ही दूसरा नाम है। जहां-जहां हम अपने को मूर्च्छा में पाएं, हम यांत्रिक हो जाएं, वहीं संकल्प-पूर्वक हम अपने स्मरण को ले आएं, होश को ले आएं, तो हमारे जीवन में ध्यान के, अहिंसा के, प्रेम के, आनंद के द्वार खुलने लगते हैं। उन्हीं के माध्यम से ओशो हमें अमृत लोक में ले चलते हैं। ये प्रवचन एक आमंत्रण हैं जागरण की साधना के लिए।


अप्रमाद-सूत्र : 1


सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपन्ने।
घोरा मुहुत्ता अवलं शरीरं,
भारुंडपक्खी व चरप्पमत्ते।


आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्र में सोये हुए संन्यासी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब तरह से जागरुक रहना चाहिए और किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए। काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल, यह जानकर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।

पहला प्रवचन
समय और मृत्यु का अंतर्बोध
पहले कुछ प्रश्न
एक मित्र ने पूछा है, मनुष्य जीवन है दुर्लभ, लेकिन हम आदमियों को उस दुर्लभता का बोध क्यों नहीं होता ? श्रवण करने की कला क्या है ? कलियुग, सतयुग मनोस्थितियों के नाम हैं ? क्या बुद्धत्व को भी हम मनोस्थिति ही समझें ?

जो मिला हुआ है, उसका बोध नहीं होता।। जो नहीं मिली है, उसकी वासना होती है, इसलिए बोध बोता है।

दाँत आपका एक टूट जाये, तो पता चलता है कि था, फिर जीभ चौबीस घंटे वहीं-वहीं जाती है। दाँत था तो कभी नहीं गयी थी; अब नहीं है, खाली जगह है तो जाती है।
जिसका अभाव हो जाता है, उसका हमें पता चलता है। जिसकी मौजूदगी होती है उसका हमें पता नहीं चलता। मौजूदगी के हम आदी हो जाते हैं।

हृदय धड़कता है, पता नहीं चलता, श्वास चलती है, पता नहीं चलता। श्वास में कोई अड़चन आ जाए तो पता चलता है, हृदय रुग्ण हो जाये तो पता चलता है। हमें पता ही उस बात का चलता है जहां कोई वेदना, कोई दुख अभाव पैदा हो जाये। मनुष्यत्व का भी पता चलता है, हम आदमी थे, इसका भी पता चलता है जब आदमीयत खो जाती है हमारी, मौत छीन लेती है हमसे। जब अवसर खो जाता है, तब हमें पता चलता है।

इसलिए मौत की पीड़ा वस्तुतः मौत की पीड़ा नहीं है, बल्कि जो अवसर खो गया, उसकी पीड़ा है। अगर हम मरे आदमी से पूछ सकें कि अब तेरी पीड़ा क्या है तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं मर गया, यह मेरी पीड़ा है। वह कहेगा, जीवन मेरे पास था और यों ही खो गया, यह मेरी पीड़ा है।
हमें पता चलता है जीवन का, जब मौत आ जाती है। इस विरोधाभास को ठीक से समझ लें।
आप किसी को प्रेम करते हैं। उसका आपको पता ही नहीं चलता, जब तक कि वह खो न जाये। आपके हाथ है, उसका पता नहीं चलता, कल टूट जाये तो पता चलता है, जो मौजूद है, हम उसके प्रति विस्मृत हो जाते हैं। खो जाये, न हो, तो हमें याद आती है। यही कारण है कि हम आदमी की तरह पैदा होते हैं तो हमें पता नहीं चलता कि कितना बड़ा अवसर हमारे हाथ में है। मछलियों को, कहते हैं, सागर का पता नहीं चलता मछली को सागर से बाहर डाल दें रेत पर, तड़फे, तब उसे पता चलता है। जहां वह थी वह सागर था, जीवन था; जहां अब वह है, वहां मौत है।

जिस मछली को सागर में पता चल जाये, वह संतत्व को उपलब्ध हो गयी कि सागर है। जिस आदमी को आदमियत खोये बिना, अवसर खोए बिना, पता चल जाये, उसके जीवन में क्रांति घटना शुरू हो जाती है। महावीर हैं, बुद्ध हैं, कृष्ण हैं—उनकी सारी चेष्टा यही है कि हमें पता चल जाये तभी, जबकि अवसर शेष है। तो शायद हम अवसर का उपयोग कर लें। तो शायद अवसर को हम स्वर्णिम बना लें। शायद अवसर हमारे जीवन को और वृहत्तर परम जीवन में ले जाने का मार्ग बन जाये। अगर पता भी उस दिन चला जब हाथ से सबकुछ छूट चुकता है तो उस पता चलने की कोई सार्थकता नहीं है, मगर यह मन का नियम है, मन को अभाव का पता चलता है।

गरीब आदमी को पता चलता है धन का, अमीर को धन का पता नहीं चलता। जो नहीं है हमारे पास वह दिखायी पड़ती है, जो है वह हम भूल जाते हैं।

इसलिए जो-जो आपको मिलता चला जाता है, आप भूलते चले जाते हैं और जो नहीं मिला होता है, उस पर आंख अटकी रहती है। यह सामान्यतः मन का लक्षण है। इस लक्षण को बदल लेना साधना है। जो है, उसका पता चले तो बड़ी क्रांति घटित होती है। अगर जो नहीं है, उसका पता चले तो आपके जीवन में सिर्फ असंतोष के अतिरिक्त कुछ भी न होगा। जो है, उसका पता चले तो जीवन में परम तृप्ति छा जायेगी। जो नहीं है, उसका ही पता चले तो अकसर अवसर खो जाएगा तब आपको पता चलेगा। जो है, उसका पता चले तो जो अवसर अभी मौजूद है, उसका आपको पता चलेगा; और अवसर आने के पहले, अवसर आते ही बोध हो जायेगा, तो हम अवसर को ही जी लेते हैं, अन्यथा चूक जाते हैं। इसलिए ध्यान, जो है, उसको देखने की कला है। और मन, जो नहीं है, उसकी वासना करने की विधि है।

श्रवण करने की कला क्या है ? सुनने की कला क्या है ? निश्चित ही कला है, और महावीर ने कहा है, धर्मःश्रवण, दुर्लभ चार चीजों में एक है। तो बहुत सोचकर कहा है। श्रवण की कला—सुनते तो हमसब हैं। कला की क्या बात है ? हम तो पैदा ही होते हैं कान लिए हुए, सुनना हमें आता ही है।

नहीं, लेकिन हम सुनते नहीं हैं। सुनने के लिए कुछ अनिवार्य शर्तें हैं। पहली—जब आप सुन रहे हों तब आपके भीतर विचार न हों। अगर विचार की भीड़ भीतर है तो आप सुनेंगे वह वही नहीं होगा, जो कहा गया है। आपके विचार उसे बदल देंगे, रूपांतरित कर देंगे उसकी शक्ल और हो जायेगी। विचार हट जाने चाहिए बीच से। मन खाली हो, शून्य हो और सुने, तभी जो कहा गया है, वह आप सुनेंगे। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप उस पर विचार न करें। लेकिन विचार तो सुनने के बाद ही हो सकता है। सुनने के साथ विचार नहीं हो सकता। जो सुनने के साथ ही विचार कर रहा है वह विचार ही कर रहा है, सुन नहीं रहा है।

सुनते समय सुनें, सुन लें पूरा, समझ लें क्या कहा गया है, फिर खूब विचार कर लें। लेकिन विचार और सुननें को जो साथ में मिश्रित कर देता है, वह बहरा हो जाता है। वह फिर अपने ही विचारों की प्रतिध्वनि सुनता है। फिर वह सुनता नहीं जो कहा गया है, वही सुन लेता है, जो उसके विचार उसे सुनने देते हैं।

अपने को अलग कर देना सुनने की कला है। जब सुन रहे हैं, तब फिर सुनें। और जब विचार रहे हैं, तो सिर्फ विचारें। एक क्रिया को एक समय में करना ही उस क्रिया को शुद्ध करने की विधि है। लेकिन हम हजार काम एक साथ करते रहते हैं। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो आप उसे सुन भी रहे हैं, आप उस पर सोच भी रहे हैं, उस संबंध में आपने जो पहले सुना है, उसके साथ तुलना भी कर रहे हैं। अगर आपको नहीं जंच रहा है, तो विरोध भी कर रहे हैं; अगर जंच रहा है, तो प्रशंसा कर रहे हैं। यह सब साथ चल रहा है। इतनी पर्तें अगर साथ चल रही हैं तो आप सुनने से चूक जाएँगे। फिर आपको राइट लिसनिंग, सम्यक श्रवण की कला नहीं आती।

महावीर ने तो श्रवण की कला को इतना मूल्य दिया है कि अपने चार घाटों में जिनसे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंच सकता है, श्रावक को भी एक घाट कहा है। जो सुनना जानता है, उसे श्रावक कहा है। महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले तो भी उस पार पहुंच जायेगा। क्योंकि सत्य अगर भीतर चला जाये तो आप उससे बच नहीं सकते। सत्य अगर भीतर चला जाए तो वह काम करेगा ही। अगर उससे बचना है तो उसे भीतर ही मत जाने देना, तो सुनने में ही बाधा डाल देना। उसी समय अड़चन खड़ी कर देना। एक बार सत्य की किरण भीतर पहुंच जाये तो वह काम करेगी, फिर आप कुछ न पायेंगे। इसीलिए महावीर ने कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले तो, तो भी पार हो सकता है। हमको हैरानी लगेगी कि ठीक से सुनने से कोई कैसे पार हो सकता है।

जीसस ने भी कहा है कि सत्य मुक्त करता है। अगर जान लिया जाये, तो फिर आप वही नहीं हो सकते जो आप उसके जानने के पहले थे। क्योंकि सत्य को जान लेना, सुन लेना भी, आपके भीतर एक नयी घटना बन जाती है। फिर सारा पर्सपैक्टिव, सारा परिपेक्ष्य बदल जाता है। फिर उस सत्य का जुड़ गया आपसे संबंध, अब आप देखेंगे और ढंग से, उठेंगे और ढंग से। अब आप कुछ भी करेंगे, वह सत्य आपके साथ होगा । अब उससे बचकर भागने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए जो कुशल हैं भागने में, बचने में, वे सुनते ही नहीं। हमने सुना है कि लोग अपने कान बंद कर लेते हैं, विपरीत बात सुनाई न पड़ जाय, प्रतिकूल बात सुनायी न पड़ जाये। हाथों से कान बंद करने वाले मूढ़ तो बहुत कम हैं, लेकिन हम ज्यादा कुशल हैं। हम भी कान बंद रखते हैं। हाथों से नहीं रखते। हम भीतर विचारों की पर्त कान के आस-पास इकट्ठी कर देते हैं। बाहर से कान नहीं बंद करते, भीतर से विचार से कान बंद कर देते हैं। तब कान पर कोई बात सुनाई नहीं पड़ती, वह विचार की पर्त जांच-पड़ताल कर लेती है। वह हमारा सेंसर है। वहां से पास हम होने देते हैं तभी, जब लगे हमारे अनुकूल है।
और हमारा ध्यान रखना, सत्य आपने अनुकूल हो सकता, आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ता है। अगर आप सोचते हैं, सत्य आपके आनुकूल हो, तभी गृहीत होगा, तो आप सदा असत्य में जीयेंगे। आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ेगा। इसलिए पहली बात तो ठीक से सुन लेना जरूरी है कि क्या कहा गया है। जरूरी नहीं कि उसे मान लें।


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