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जीवनी/आत्मकथा >> खानाबदोश

खानाबदोश

अजीत कौर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3541
आईएसबीएन :81-7016-743-4

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अजीत कौर के द्वारा लिखा गयी आत्मकथा का वर्णन...

Khanabadosh-Ajit Kaur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दर्द ही ज़िंदगी का आख़िरी सच है। दर्द और अकेलापन। और आप न दर्द साझा कर सकते हैं, न अकेलापन। अपना-अपना दर्द और अपना-अपना अकेलापन हमें अकेले ही भोगना होता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना, कि अपनी सलीब जब अपने कंधों पर उठाकर ज़िंदगी की गालियों में से गुज़रे, तो हम रो रहे थे या मुस्करा रहे थे, कि हमें अपने ज़ख़्मी कंधों पर उठाए अपनी मौत के ऐलान के साथ, लोगों की भीड़ों से तरस माँग रहे थे, कि इस हालत में भई उन्हें एक शहंशाह की तरह मेहर और करम के तोहफ़े बाँट रहे थे। दर्द और अकेलापन अगर अकेले ही भोगना होता है, तो फिर यह दास्तान आपको क्यों सुना रही हूँ ?

मैं तो ज़ख़्मी बाज़ की तरह एक पुराने, नंगे दरख़्त की सबसे ऊपर की टहनी पर बैठी थी-अपने ज़ख़्मों से शर्मसार, हमेशा उन्हें छुपाने की कोशिश करती हुई। सुनसान अकेलेपन और भयानक ख़ामोशी से घबराकर यह दास्तान कब कहने लग पड़ी?
यसु मसीह तो नहीं हूँ दोस्तो, उनकी तरह आख़िरी सफ़र में भी एक नज़र से लोगों की तकलीफों को पोंछकर सेहत का, रहम का दान नहीं दे सकती। पर लगता है, अपनी दास्तान इस तरह कहना एक छोटा-सा मसीही करिश्मा है जरूर ! नहीं?
पर अब जब इन लिखे हुए लफ़्ज़ों को फिर से पढ़ती हूँ तो लगता है, वीरान बेकिनार रेगिस्तान में मैंने जैसे जबरन लफ़्ज़ों की यह नागफ़नी बोई है। पर हर नागफ़नी के आसपास बेशुमार खुश्क रेत है जो तप रही है, बेलफ़्ज़, ख़ामोश।

अजीत कौर

वन ज़ीरो वन

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मेरे पाँवों की एड़ियों से शुरू होकर दूर दिगंत तक सिर्फ़ आग की सुर्ख़ लपटों का बवंडर फैला नज़र आता है। मन होता है, डायल घुमाती जाऊँ-‘वन ज़ीरो वन’। इस नंबर पर फोन करने से आग बुझाने वाले आ जाते हैं। रोज़ मन में पता नहीं पचास बार मैं यह नंबर घुमाती हूँ-‘वन ज़ीरो वन’।
इन सुर्ख़ लपटों के बवंडर में मैं रोज़ जलती हूँ। दिन में कम, रात में ज़्यादा। इस आग में रोज़ नहाना मेरी तक़दीर है। यह तक़दीर* सात बरस पहले चौदह और पंद्रह अगस्त के बीच वाली रात मेरे माथे पर ही नहीं, मेरे सारे बदन पर लिखी गयी थी। और फिर अगले सात दिन कोई मेरा मांस खुरच-खुरचकर इस तक़दीर को मेरे बदन पर उकेरता रहा था।
अगर मुझे पीछे की तरफ़ मुड़ना हो तो इन आग के शोलों में से गुज़रकर ही जाना होगा, और इस आग का सफ़र आपको भी मेरे साथ ही करना होगा।

बरसों पहले हुई वह घटना गुज़र नहीं गयी। अब भी हर पल मेरी छाती में घटती है।
आग की लपटों से घिरी, मशाल जैसी जलती, निहायत ख़ूबसूरत एक लड़की दो मंज़िलें उतरती है। सीढ़ियों में जलती आग चलती है। मुझे लगता है, वह आग मेरे कपड़ों में ही नहीं, मेरे जिस्म के मांस में भी लगी हुई है, और सीढ़ियों में यह लौ-दर-लौ जलती मैं ही उतर रही हूँ।
मुझे मालूम है, मैं मुसीबत के वक़्त चीख़कर किसी को मदद के लिए बुला नहीं सकती, जब तब वह मेरा बिल्कुल अपना न हो। उसने भी उस अजनबी शहर की सीढ़ियों में किसी को नहीं पुकारा होगा।

चौदह अगस्त की शाम थी। 1974। मैं प्रेस में बैठी काम कर रही थी। घर से मेरी बड़ी बेटी अर्पणा का टेलीफ़ोन आया। घबराहट से काँपती आवाज़, ‘‘पैरिस से कोई टेलीफ़ोन आ रहा है, पर बात समझ में नहीं आ रही, लाइन साफ़ नहीं थी। अभी फिर आयेगा। आप जल्दी से घर आ जाओ।’’
पैरिस से टेलीफ़ोन ? क्यों ?
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*अब तो बाईस बरस बीत गए। सिर्फ़ दर्द ही है जो नहीं बीतता, नहीं चुकता।
मैंने काँपते हाथों से काग़ज़ फ़ाइल में ठूँसे और गाड़ी में बैठ गयी, ‘‘घर, जल्दी !’’

कैंडी, मेरी छोटी बेटी, डेढ़ महीना पहले फ्रांस गयी थी। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से फ़्रेच में एम.ए. कर रही थी। अभी पहले साल का ही इम्तहान हुआ तो अपनी क्लास में उसने टॉप किया। सो उसे दो महीने का स्कॉलरशिप मिला था-चाहे तो फ़्रांस जाकर कोई कोर्स कर ले, या ख़ुद रिसर्च करके फ़्रांस के बारे में कोई थीसिस लिख ले, ये उसकी मर्ज़ी पर निर्भर था।
उसने थीसिस लिखना चुना था। इसलिए वह सारे फ़्रांस में घूम रही थी। तक़रीबन रोज़ उसका ख़त आता था। अभी कल ही तो ख़त आया था। लंबा ख़त। विशी से। कई जगहों से शैतो और आर्ट गैलरियाँ और म्यूज़ियम और गिरजे देखती-देखती वह विशी पहुँची थी, जहाँ सेहतबख़्श पानियों के चश्मे थे। और सिर्फ़ फ़्रांस से ही नहीं, सारे योरप से लोग उस चश्मों का पानी पीने और नहाने वहाँ आते थे; सेहतयाब होने के लिए।
ख़त विशी से आया था, फ़ोन पैरिस से कैसे आ गया ? वापस पैरिस आ गयी है आज ? पर फ़ोन क्यों किया ? जब तक कोई ख़ास मुसीबत न हो, वह इस तरह फ़ोन करने वाली नहीं। मुसीबत के वक़्त भी मुझसे छिपाती रहती है। माँ को तकलीफ़ न हो, इसलिए। पगली बेटी मेरी।

और सैकड़ों दलीलों से घिरी मैं घर पहुँच गयी।
‘‘फ़ोन पर आवाज़ ज़रा-सी भी नहीं सुनायी देती थी ?’’
‘‘लगता था, कज्जन की आवाज़ है।’’
‘‘कज्जन की ? कैंडी की नहीं ?’’ मैं और भी बदहवास हो गयी।
कज्जन, यानी हमारे पड़ोसियों का बेटा। कैंडी सीनियर कैब्रिज कर चुकी थी, और कज्जन किसी कॉलेज में पढ़ता था, जब हम इस ग्रेटर कैलाश वाले मकान में आये थे। वह ऊपर रहते थे, और हम नीचे। मकान नया ही बना था, इस कारण हम दोनों किरायेदार तक़रीबन दो-एक हफ़्तों के अंतर से ही इस मकान में आये थे। इसलिए उनका सामान ऊपर चढ़वाने की ज़िम्मेदारी हमारी बनती थी। हमारी, यानी मेरी और मेरी दोनों बेटियों की। इस तरह यह जान-पहचान शुरू से ही बहुत अच्छे रिश्ते में बदल गयी थी।

पर वे और किस्म के लोग थे। धीरे-धीरे मन से दूर होते गये। उनकी अपनी दुनिया थी, जिसमें हीरे बेचे जाते थे, लाखों का व्यापार होता था। किसी किताब के लिए कोई जगह नहीं थी। अंतहीन शोर था जो सुबह ब्रेकफ़ास्ट के समय तली जाने वाली पूरियों से शुरू होता था, और आधी रात तक दोस्तों, मेहमानों के जमघट और जमावड़े में शराब के दौरों के साथ और ताश की जीत-हार के बेइंतहा कोलाहल के साथ चलता रहता था।

हम नीचे थे, सो हर वक़्त लगता था कि सिर पर हथौड़े चल रहे हैं। धम्म-धम्म चलते पैरों की गड़गड़ाहट आने-जाने वाले उन्हीं की किस्म के लोगों के सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने का बेइंतहा शोर, आधी रात तक मोटरों के स्टार्ट होने की और मोटरों के दरवाज़ों के खुलने और खटाक से बन्द होने की आवाजें, जो ठहरी हुई रात में गड़गड़ाती हुई गूँजती रहतीं। आधी रात तक उनके दोनों नौकरों की ऊँची-ऊँची बातें और सैकड़ों बर्तनों की खनखनाती गूँज। कोई भी ऐसा कमरा नहीं था, जहाँ आवाजें कम आयें। पिछले कमरे के ऊपर जो कमरा था, उसमें औरतें अपनी सहेलियों के साथ बैठी ताश खेलती रहतीं और पान खाती रहतीं। अगले बड़े कमरे में मर्द शोर करते रहते। ताश, जैसे पहलवान अखाड़ों में दंगल कर रहे हों।
कई बार मैं घबराकर बाहर निकल जाती। घर के क़रीब सामने ही एक पार्क था, उसमें जा खड़ी होती। आसपास के सब घर शांत अँधेरे में अनजान बच्चों की तरह सो रहे होते। सिर्फ़ एक हमारे घर के ऊपर वाले हिस्से से बेइंतहा शोर, गिलासों की और बर्तनों की आवाज़ें, पैरों की गड़गड़ाहट और रौशनी उछलकर बाहर निकल रहे होते। ‘कैसी बदक़िस्मती है !’-
मैं सोचती।

और सुबह, बाहर हमारे लॉन की घास पर काग़ज़ अधजली सिगरेटों के टुकड़े, केले के छिलके, टूटे हुए गिलासों के टुकड़ें, और जाने क्या-क्या पड़ा होता। सबसे कोफ़्त वाली चीज़ थी घास का जगह-जगह मुँह में घुले हुए पान की पिच्च से फेंकी पीक से सुर्ख़ हो जाना। उफ़ जैसे हमारा लॉन न हो, कूड़ेदान हो। पर मैं जब भी उन लोगों से बात करने की कोशिश करती, वह आगे से इस तरह चीख़ते कि सारे दिन का कबाड़ा होकर रह जाता।
सामने वाले घर में बड़े शाइस्ता लोग रहते थे, और सारे आस-पड़ोस में जिस इकलौते परिवार से दोस्ती का रिश्ता था, वह बस उन्हीं के साथ था। सुरिंदर सहगल़ और बिमला जी। उन्हें मैंने दो-चार बार कहा था कि हमारे ऊपर वालों से बात करें। आख़िर आदमी से इस तरह के झगड़े वाली बात आदमी ही कर सकता है। पर पराये झगड़े में कोई भी नहीं पड़ना चाहता।

इस बेइंतहा शोर वाले घर में एक ख़ामोश और बिल्कुल अलग तरह का लड़का था। कज्जन।
कैंडी और वह मिलकर किताबों की बातें करते, म्यूज़िक सुनते, सैर करते।
ऊपर वाले घर में क्योंकि किताबों के लिए और संगीत के लिए कोई जगह नहीं थी, इसलिए कज्जन को भी जैसे हमारे घर में पनाह जैसा अहसास होता था। जब भी वह दोनों मिलकर बैठते, नीचे वाले किताबों से और रिकार्डों से भरे हुए घर में ही, यानी हमारे घर।
कज्जन कहता, ‘‘उस हीरों वाले पैसे से मेरा कोई वास्ता नहीं। मैं तो कुछ और करूँगा। अपने पैरों पर खड़ा होऊँगा। और अपने आपको, कैंडी, तेरी दोस्ती के क़ाबिल बनाऊँगा।’’

और दो वर्षों की मासूम मगर बहुत गहरी दोस्ती के बाद कज्जन फ़्रांस चला गया। कैंडी की दोस्ती के क़ाबिल बनने के लिए।
कैंडी लड़की ही ऐसी थी। उसकी दोस्ती के क़ाबिल बनने के लिए तो मुझे भी ख़ास कोशिश करनी पड़ती थी। कई किताबें ऐसी थीं, जो पहले उसने पढ़ीं, फिर मुझे पढ़ाईं। और फिर अर्पणा और मैं और वह, तीनों बैठकर उनके बारे में बातें करते।
यह वही कज्जन था, जिसका फ़ोन आ रहा था पैरिस से। और फ़ोन पर कही बात सुनायी नहीं दी थी अर्पणा को।
हम दोनों धड़कते-काँपते कलेजे से फ़ोन के पास बैठी थीं। कज्जन के फ़ोन के इंतज़ार में। वक़्त चल ही नहीं रहा था।
शाम के पाँच बजे से आठ बज गये। हारकर मैंने ऊपर वाले घर से पूछा कि कज्जन का टेलीफ़ोन नंबर क्या है ? टेलीफ़ोन नंबर तो विशी का ही था, जहाँ से कैंडी का अभी कल ही ख़त आया था। उसमें उसने लिखा भी था कि कज्जन जिस होस्टल में रहता है, वह भी उसी में रह रही है।
फ़ोन चाहे पैरिस से आ रहा था, लेकिन मैंने विशी की कॉल बुक करवा दी।

उस रात जब कॉल नहीं मिल रही थी, मैंने किस-किसकी मिन्नतें नहीं कीं। टेलीफ़ोन वाली लड़कियों की, सुपरिटेंडेट्स की, जिस-जिसका कोई वाक़िफ़ था, उसकी। पर कॉल नहीं मिल रही थी।
रात के कोई बारह-एक बजे कज्जन की आवाज़ फिर सुनायी दी। पर पूरी बात फिर भी समझ नहीं आ रही थी।
मेरी बुक करवाई हुई कॉल कोई पौने दो बजे मिली। कॉल लंदन के रास्ते से मिल रही थी। लंदन के एक्सचेंज वाली लड़की कह रही थी कि फ़्रांस के एक्सचेंज वाली लड़की सिर्फ़ फ़्रांस बोल रही है। किसी को किसी की बात समझ नहीं आ रही थी।
रात के कोई ढाई बजे ऊपर वाले घर में कज्जन का फ़ोन आया। मैं भागती हुई ऊपर गयी। अब उसकी आवाज़ साफ़ थी, ‘‘कैंडी जल गयी थी।’’

‘‘कब ?’’-मेरे पैरों के नीचे ज़मीन काँप रही थी।
‘‘नहीं आँटी, घबराने की कोई बात नहीं.....अब ठीक हो रही है।’’
‘‘पर जली कब ?’’
‘‘बारह तारीख़ को।’’
‘‘बारह तारीख़ से मुझे क्यों नहीं बताया ?’’-मैं रुआँसी हो रही थी।
‘‘उसने कहा था, बताना नहीं। बोली, मम्मी फ़िक्र करेंगी। इसलिए।’’
‘‘कहाँ है वो ?’’
‘‘हस्पताल में। घबराना नहीं मम्मी, बिल्कुल नहीं। वो ठीक हो रही है।’’
‘‘मुझे बुलाने के लिए फ़ोन कर रहे हो न तुम ?’’-मेरी रुलाई फूट पड़ी।
‘‘अगर आपका मन हो तो आ जाइए। वैसे वो ठीक हो रही है।’’
‘‘कहाँ ? विशी में ?’’
‘‘नहीं, मैं लीओ से बोल रहा हूँ। हम उसे यहाँ ले आये थे।’’
‘‘तो ज़रूर ज़्यादा कुछ हुआ होगा न बेटे ! नहीं तो दूसरे शहर में क्यों लाते ?’’
‘‘यहाँ एक स्पेशल हस्पताल है। जल जाने वालों के इलाज के लिए। इसीलिए।’’
‘‘मैं आती हूँ। उसे कह दो, मैं आ रही हूँ।’’
फ़ोन कट गया। अर्पणा और मैं दोनों रोती-रोती, अपनी आवाज़ को होंठों के पार घोंटती एक-दूसरे को सहारा देतीं, नीचे आ गयीं।

रात बीती नहीं, छाती में से एक-एक फँसा हुआ काँटा निकालने में गुज़री। शूलों पर।
अगले दिन छुट्टी थी। सारे दफ़्तर बंद। वह सारा दिन, सवेरे पौ फटने से लेकर रात के साढ़े तीन बजे तक, जब हवाई जहाज़ फ़्रांस के लिए चला, मैं दिल्ली की वीरान सड़कों पर बदहवास भागती फिरी, मिनिस्टरों के घर, रिजर्व बैंक के अफ़सरों के घर, फ़्रांस के ऐंबेसेडर के घर, व पचास जगहें और।
सिर में बार-बार एक ही बात गूँजती रही-‘उसे कह दो, मैं आ रही हूँ।’
कैंडी, मैं आ रही हूँ। मेरा इंतज़ार करना, मेरी बच्ची।
जाते समय पता नहीं कैसे मैंने सुखमनी साहिब का गुटका भी साथ रख लिया। बहुत देर से मेरा रिश्ता ख़ुदा से कुछ यूँ ख़ामोश है, जैसे बीवी-ख़ाविंद को साथ रहते जब साल-दर-साल गुज़र जायें, तो महज़ ख़ामोशी ही बाक़ी बची रह जाती है। अगर कभी कुछ बहुत अच्छा हो गया ज़िंदगी में, तो उसकी तरफ़ देखकर शुकराने में नज़रें झुका दीं। और अगर-जिस तरह आम होता ही रहता है-ख़राब हो गया, तो उससे रूठ गये। अगर तुझे मेरा ख़याल नहीं, तो जा, मैं नहीं बोलती तुझसे।

पर ज़िंदगी में जो भी ऊटपटाँग घटता रहा था, आज तक, कभी इस तरह का कुछ नहीं हुआ था कि ज़मीन हिचकोले खाने लगे, और खड़े रहने के लिए किसी दरख़्त का, या टूटी हुई दीवार का, या सिर्फ़ हवा का ही सहारा लेने के लिए हाथ यूँ सामने फैल जाएँ-बेबसी में।
बेबसी जैसी बेबसी ! बदहवास। जैसे साँस गले में रुक गयी हो-किसी सख़्त पथरीले गोले की तरह। वक़्त जैसे दम साधकर खड़ा हो गया हो। रात के अँधेरे जिस्म में जैसे सैकड़ों-हज़ारों डरावने नाख़ून उग आये हों। पसलियों के ऊपर जैसे मनों भारी कोई सिल किसी ने ला रखी हो।
जहाज़ जहाँ भी रुकता, वहीं बत्तियों की चकाचौंध होती। लोगों का आना-जाना। मैं सोचती, ‘इन बत्तियों को नहीं पता....इन लोगों को नहीं पता...नहीं तो सारा आलम साँस रोककर खड़ा हो जाता।’

रास्ते में सुखमनी साहिब का पाठ करने की कोशिश की, पर अक्षर कभी बेकिनार पानियों में घुल जाते, कभी मरुस्थलों की रेत पर रेंगने लगते; कभी बैठ जाते, कभी खड़े हो जाते, कभी चल पड़ते। और अक्षरों की भीड़ में से कोई भी अक्षर पहचाना न जाता। कैंडी जब उस रात को एअर-फ़्रांस की फ़्लाइट में चढ़ी थी, सत्ताइस मई को, वह दिन याद आता। वह वक़्त, जब उसने काला सूट पहन रखा था।
‘‘काला सूट जाते समय क्यों पहन बैठी है ?’’-मेरी पड़ोसन ने नागवारी से पूछा था।
‘‘पता नहीं, कल ख़ास तौर से जाकर काला कपड़ा लायी है। दर्ज़ी से अर्जेंट सिलवाया है। आज सुबह मेरे साथ बाज़ार गयी थी। बड़ी मुश्किल से ढूँढ़-ढ़ाँढ़कर यह पीला-लाल राजस्थानी दुपट्टा मिला है।’’-मैंने हँसकर कहा।
‘‘सुंदर लग रही है न ?’’-मैंने अर्पणा से पूछा।
‘‘वह तो है ही सुन्दर।’’-अर्पणा उसे बहुत प्यार करती थी, पर किसी वक़्त उसकी तारीफ़ होती ही जाये तो ज़रा-सा रोष भी दिखाती थी।

छम-छम करती वह अंदर-बाहर घूम रही थी। अपने कपड़े पैक करती हुई।
‘‘हाउस कोट तो सच, यूनिवर्सिटी होस्टल में ही रह गया।’’-उसे एकदम याद आया।
‘‘मेरा ले जाना।’’
‘‘ओह छो छ्वीट !’’ और वह मेरे गले लग गयी।
बात-बात में, बहाने-बहाने, वह मेरे गले में बाँहें डालती रहती थी, मेरा मुँह चूमती रहती थी। ज़रा भी उदास होऊँ, चुपचाप रात को आकर मेरे गले से लगकर लेट जाती थी, ‘‘मुझे नींद नहीं आ रही। आपके पास लेट जाऊँ ?’’-और मुझे पता होता था कि अपनी नींद के कारण नहीं, सिर्फ़ मेरे उनींदे के कारण वह मेरे गले लगकर सो गयी है।
उसका जाना भी अजीब था। स्कॉलरशिप मिला था दो महीनों के लिए। फ़्रांस जाने का। टिकट मिल गयी थी। सिर्फ़ टिकट पर फ़्लाइट की तारीख़ डलवानी थी। पंद्रह तारीख़ को जाना था। रोज़ मेरे साथ एअर-फ़्रांस के दफ़्तर जाती। अगले दिन की फ़्लाइट कैंसल करवा के उससे अगले दिन की तारीख़ डलवा लेती। और इस तरह ग्यारह दिन गुज़र गये थे।
‘‘कैंडी, अजीब बात है। तेरी उम्र में किसी को बाहर जाने का चांस मिले, तो कोई उड़ता फिरे। एक भी दिन ज़ाया न करे। और तूने ग्यारह दिन गँवा दिये हैं।’’-मैंने आख़िर ख़ीझकर कहा। ‘‘आपको इतना भी नहीं पता कि मैं क्यों नहीं जा रही ?’’-वह लाड़ से मेरे गले लग गयी, ‘‘तुम साथ चलो न, फिर जाऊँगी।’’

‘‘पगली लड़की ! चल तू अब ज़रा राह तो देखकर आ। फिर तीनों मिलकर चलेंगे। तू हमारी गाइड बन जाना। क्यों अर्पणा ?’’-मैंने उसके स्याह रेशमी बालों को दुलारते हुए कहा।
‘‘नहीं, मेरा मन नहीं होता आपसे बिछुड़ने को।’’-और वह मचल गयी, बच्चों-जैसे।
‘‘पागल है तू तो ! इतना अच्छा मौक़ा कोई छोड़ता है ? चल अब डेढ़ महीना ही रह गया है न बीच में। पंद्रह दिन तो माँ की परिक्रमा करते ही गँवा लिये तूने। भाग जा अब।’’
‘‘अच्छा, अट्ठाइस तारीख़ को जाऊँगी।’’
‘‘भई अट्ठाइस तारीख़ को तो मैंने उन हंगेरियन लेखकों को बुलाया हुआ है। तुझे एअरपोर्ट छोड़ने किस तरह जाऊँगी ?’’
‘‘लो जी, फ़्रांस अकेले भेजते हैं, और एअरपोर्ट तक अकेले नहीं जा सकती मैं ?’’
‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं। फिर उनतीस को जाना।’’
पर उसी दिन किसी ने उसे बताया कि तीस तारीख़ तक जो स्टूडेंट्स न पहुँचें, उनका स्कॉलरशिप कैंसल हो जाता है। सो उसने अगले दिन, यानी सत्ताइस तारीख़ की फ़्लाइट ही बुक करवा ली।
काला स्याह सूट, ऊपर राजस्थानी मलमल का पीला-सुर्ख़ टुपट्टा, फुँदनों वाली पराँदी, माथे पर सिंदूर की चौड़ी गोल बिंदी, शहद के कटोरे जैसा मुँह, चाँदनी के कटोरों जैसी आँखें। पैरों में पायल, गले में काली चाँदी का मोटा हार। छम-छम करती वह जिस वक़्त एअरपोर्ट पर इधर से उधर जाती, सैकड़ों आँखें उसके साथ-साथ घूम जातीं। और गर्व से मेरी छाती में साँस चौड़ा होकर फैल जाता, छाती के माप से भी बड़ा।


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