ओशो साहित्य >> ध्यान प्रेम की छाँव में ध्यान प्रेम की छाँव मेंस्वामी ज्ञानभेद
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ध्यान और प्रेम की सरलतम अभिव्यक्ति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘मैं तथाकथित ईश्वर में विश्वास नहीं करता
किन्तु ईश्वर अगर फूल और वृक्ष है
पहाड़ियां, सूरज और चांदनी-
तब मैं उसमें विश्वास करता हूं
तब मेरा समूचा जीवन एक प्रार्थना और यज्ञ है’’
पेसोआ के उक्त कथन को उद्धत करते हुए निर्मल वर्मा, ‘धुंध से उठती धुन’ में लिखते हैं—मैंने कभी ईश्वर पर विश्वास नहीं किया, किंतु इन दिनों खासकर रात के समय जब चांद निकलता हैं मैं अपने को उसके बहुत निकट पाता हूँ। ईश्वर के नहीं, बल्कि उस रहस्य के, जो उसके नाम से चारों ओर फैला है, जिसके साथ मेरा हर रोज़ साक्षात्कार होता है। सूरज और बादलों में, पेड़ों में। पेड़ और चांद जो बादलों के कुशन पर थिर रहते हैं और बादल तारों के बीच तिरते जाते हैं। उस पपड़ी को धो डालते हैं जो मेरी आत्मा पर जम गई थी और एक बार धुलने के बाद वह अपने में लपेट लेता है-मुझे नहीं मेरे दिल और भावनाओं को नहीं, लेकिन उसे, जो मुझे आवृत्त किए रहता है-मेरे नंगे नैसर्गिक जीवत्व को।
किन्तु ईश्वर अगर फूल और वृक्ष है
पहाड़ियां, सूरज और चांदनी-
तब मैं उसमें विश्वास करता हूं
तब मेरा समूचा जीवन एक प्रार्थना और यज्ञ है’’
पेसोआ के उक्त कथन को उद्धत करते हुए निर्मल वर्मा, ‘धुंध से उठती धुन’ में लिखते हैं—मैंने कभी ईश्वर पर विश्वास नहीं किया, किंतु इन दिनों खासकर रात के समय जब चांद निकलता हैं मैं अपने को उसके बहुत निकट पाता हूँ। ईश्वर के नहीं, बल्कि उस रहस्य के, जो उसके नाम से चारों ओर फैला है, जिसके साथ मेरा हर रोज़ साक्षात्कार होता है। सूरज और बादलों में, पेड़ों में। पेड़ और चांद जो बादलों के कुशन पर थिर रहते हैं और बादल तारों के बीच तिरते जाते हैं। उस पपड़ी को धो डालते हैं जो मेरी आत्मा पर जम गई थी और एक बार धुलने के बाद वह अपने में लपेट लेता है-मुझे नहीं मेरे दिल और भावनाओं को नहीं, लेकिन उसे, जो मुझे आवृत्त किए रहता है-मेरे नंगे नैसर्गिक जीवत्व को।
भूमिका
पेशे से डॉक्टर होते हुए भी मैं सत्य का खोजी हूं। उसी की तलाश में भटकते
हुए ओशो से जुड़ा। ओशो का संन्यासी बनकर ही उनकी प्रामाणिक जीवनी एक
फक्कड़ मसीहा ओशो के विभिन्न खण्डों को पढ़ते हुए एक दिन अनायास स्वामी
ज्ञानभेद से मुलाकात हो गई। वह मुझे अपने ग्रंथों से भी अधिक प्रीतिकर
लगे। उनसे हुई चार-पांच छोटी-छोटी मुलाकातों में ही उनका ओशोमय जीवन,
ओशोमय सोच और ओशोमय भावों से आपूरित संवेदना का अनुभव कर मैं परम तृप्ति
और आनन्द में डूब गया।
तभी अचानक एक दिन स्वामीजी ने मुझसे अपने नए ग्रंथ ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की भूमिका लिखने का आग्रह किया। मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा भी—‘‘मैं अपने में इसको लिखने का पात्रता हरगिज नहीं पाता। फिर आपको भूमिका लिखवाने की आवश्यकता क्या है ? पूरा ओशो संसार आपसे भली-भांति परिचित है।’’ स्वामीजी एक रहस्यमय मुस्कान बिखेरते हुए बोले—‘‘पूना कम्यून के निकट एक गंदे नाले को वनस्पति शास्त्रियों ने नहीं, साधारण सन्यासियों ने ही नंदन कानन में परिवर्तित कर दिया। कोई भी अपने अन्दर छिपी रहस्यमय शक्तियों से भली-भांति परिचित नहीं होता। फिर आपने तो ध्यान में गहरे उतरकर उस अतीन्द्रीय आनन्द को प्राप्त किया है। आप झिझकें नहीं। भूमिका आपको लिखनी ही है। यह मेरा नहीं अस्तित्व का आदेश है। ओशो ने भी अन्य लोगों से अपने ग्रंथों की भूमिकाएं कुछ विशेष प्रयोजन से ही लिखवाईं।
मेरे अन्दर जो भी अघट घटा था, स्वामीजी की पारखी दृष्टि से वह कैसे बच सकता था। आदेश शिरोधार्य कर मैंने रात देर तक जाग-जाग कर धीमे-धीमे ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की पाण्डुलिपि ध्यान और प्रेम में डुबते हुए पढ़ी। मुझे शिद्दत से महसूस हुआ कि स्वामी जी ने जो जाना और अनुभुव किया है उसकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति बेजोड़ और अनुपम हैं।
इस ग्रंथ के द्वारा वे भारतीयों साधकों के लिए पूना थेरेपी उपचार के द्वारा ओशो के प्रवचनों में बिखरे सूत्रों द्वारा खोलते हुए उस महत्वपूर्ण कार्य का शुभारम्भ कर रहे हैं जिसे ओशो ने सहजयोग प्रवचनमाला में व्यक्त किया था। इन सूत्रों के द्वारा साधक स्वयं अपनी निरीक्षण करते हुए अपनी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं के अनुसार अपनी अंतर्मुखी, बहिर्मुखी प्रवृतित, रजस, तमस या सत गुणों की उपस्थिति का अनुभव कर अपने लिए सही मार्ग और उपयुक्त ध्यान विधियां चुनकर अपने दीये आप बन सकते हैं।
स्वामीजी ने प्राइमल थेरेपी सम्मोहन, बैलेंसिंग, मालिश तथा विज्ञान भैरव तंत्र के जिन रहस्यमय आणविक प्रयोगों का उल्लेख किया है, मुझे कुछ मित्रों सहित उनके निर्देशन में उन प्रयोगों को करने का सौभाग्य भी मिला है। जो साधक वर्षों से ध्यान करते हुए कुछ भी न घटने के कारण हताशा का अनुभव कर रहे हैं, उनके लिए समर्पित वेदनशील नये साधकों के लिए भी पांच-पांच मिनट के यह प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी है।
कुण्डलिनी जागरण के लिए स्वामी जी द्वारा बताए प्रयोग, अत्यंत सरल और सुगम हैं जिनमें से दो चार का उल्लेख तो ओशो ने भी अपने प्रवचनों में भी नहीं किया है और संभवत: तंत्र के रहस्यमय संसार’ के अंतर्गत थेरेपी ग्रुप्स में उनका रहस्य थोड़े से चुने लोगों को ही बतलाया हो। हिन्दी वर्णमाला के स्वरों का दस चक्रों पर प्रयोग करने से पन्द्रह मिनट में ही ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन का सहज अनुभव कर मैं स्वयं विस्मय विमूढ़ हो गया।
हमारा अहंकार यह भरोसा कर ही नहीं पाता कि पांच दस मिनट के प्रयोग हमको स्वयं के होने का या सत्य का साक्षात्कार करवा सकते हैं। विज्ञान-भैरव-तंत्र और आरेंज बुक के ध्यान प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी हैं। आज की व्यस्तता और भागदौड़ में एक-एक घंटे के दो-तीन प्रयोग नियमित रूप से नित्य करना साधारण लोगों के लिए कठिन है पर प्रेमपूर्ण, सजग और संवेदनशील होकर पांच-दस मिनटों के तीन-चार प्रयोगों को नियमित रूप से करना आसान है।
जिसकी सारी चेतना बाहर से मिनट कर अन्दर केन्द्रित हो जाती है, जिसे अपने होने की अनुभूति हो जाती है, जो पिघल कर शरीर और मन के पार अपनी और विश्व चेतना के अद्वैस्वरूप की अनुभूति करता है तब उसे अनुभव होता कि बात कितनी सरल और सहज थी। पर उस सरल सहज अनुभूति को अभिव्यक्त करते हुए जो बहुत दुरूह है, अस्तित्व के संकेत से जो दूसरों के रूपान्तरण के लिए करुणाकर उसे अभिव्यक्त करता है, उसी से गीता, अष्टावक्र, महागीता, उपनिषद् धम्मपद कुरान, बाइबिल और ओशो के ग्रंथों का जन्म हुआ।
मैं अनुभव करता हूं कि स्वामी ज्ञानभेद का यह सदग्रंथ भी उसी कड़ी की एक छोटी सी श्रृंखला है। जो लोग स्वामीजी से भली-भाँति परिचित नहीं, जो उनके निकट सान्निध्य में नहीं आये, उनके लिए यह एक अतिश्योक्ति या गप्प ही होगी पर मैं अपने अंदर जो महसूसता हूँ उसे ईमानदारी से अभिव्यक्त करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ।
यह ग्रंथ न केवल ध्यान, वरन् प्रेम की पर्त दर पर्त रहस्य खोलता, ओशो के ध्यान और प्रेम को सरलतम रूप में अभिव्यक्त करने का एक अभिनव उदाहरण है।
मुझे विश्वास है कि यह ग्रंथ रत्न साधकों को मार्गदर्शन देते हुए उन्हें ‘अप्पदीपों भव’ बनने में सहयोगी और एक मील का पत्थर सिद्ध होगी। ध्यान और प्रेम के संबंध में ओशो की सभी हिन्दी अंग्रेजी प्रवचनमालाओं का यह सारसूत्र और अमृत होने के साथ-साथ यह स्वामीजी के भी अनुभवों का निचोड़ है।
मैं अस्तित्व के प्रति कृतज्ञ हूँ कि मुझे स्वामीजी के इस सारगर्भित ग्रन्थ और उन्हें जो मिला है उसे औरों को बांटने की भावपूर्ण विकलता को प्रेमी मित्रों से परिचित कराने का सौभाग्य मिला। मैं सद्गुरु ओशो के चरणों में श्रद्धापूर्ण नमन करते हुए, पूरे अस्तित्व के प्रति अहोभाव व्यक्त करता हूं।
तभी अचानक एक दिन स्वामीजी ने मुझसे अपने नए ग्रंथ ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की भूमिका लिखने का आग्रह किया। मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा भी—‘‘मैं अपने में इसको लिखने का पात्रता हरगिज नहीं पाता। फिर आपको भूमिका लिखवाने की आवश्यकता क्या है ? पूरा ओशो संसार आपसे भली-भांति परिचित है।’’ स्वामीजी एक रहस्यमय मुस्कान बिखेरते हुए बोले—‘‘पूना कम्यून के निकट एक गंदे नाले को वनस्पति शास्त्रियों ने नहीं, साधारण सन्यासियों ने ही नंदन कानन में परिवर्तित कर दिया। कोई भी अपने अन्दर छिपी रहस्यमय शक्तियों से भली-भांति परिचित नहीं होता। फिर आपने तो ध्यान में गहरे उतरकर उस अतीन्द्रीय आनन्द को प्राप्त किया है। आप झिझकें नहीं। भूमिका आपको लिखनी ही है। यह मेरा नहीं अस्तित्व का आदेश है। ओशो ने भी अन्य लोगों से अपने ग्रंथों की भूमिकाएं कुछ विशेष प्रयोजन से ही लिखवाईं।
मेरे अन्दर जो भी अघट घटा था, स्वामीजी की पारखी दृष्टि से वह कैसे बच सकता था। आदेश शिरोधार्य कर मैंने रात देर तक जाग-जाग कर धीमे-धीमे ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की पाण्डुलिपि ध्यान और प्रेम में डुबते हुए पढ़ी। मुझे शिद्दत से महसूस हुआ कि स्वामी जी ने जो जाना और अनुभुव किया है उसकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति बेजोड़ और अनुपम हैं।
इस ग्रंथ के द्वारा वे भारतीयों साधकों के लिए पूना थेरेपी उपचार के द्वारा ओशो के प्रवचनों में बिखरे सूत्रों द्वारा खोलते हुए उस महत्वपूर्ण कार्य का शुभारम्भ कर रहे हैं जिसे ओशो ने सहजयोग प्रवचनमाला में व्यक्त किया था। इन सूत्रों के द्वारा साधक स्वयं अपनी निरीक्षण करते हुए अपनी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं के अनुसार अपनी अंतर्मुखी, बहिर्मुखी प्रवृतित, रजस, तमस या सत गुणों की उपस्थिति का अनुभव कर अपने लिए सही मार्ग और उपयुक्त ध्यान विधियां चुनकर अपने दीये आप बन सकते हैं।
स्वामीजी ने प्राइमल थेरेपी सम्मोहन, बैलेंसिंग, मालिश तथा विज्ञान भैरव तंत्र के जिन रहस्यमय आणविक प्रयोगों का उल्लेख किया है, मुझे कुछ मित्रों सहित उनके निर्देशन में उन प्रयोगों को करने का सौभाग्य भी मिला है। जो साधक वर्षों से ध्यान करते हुए कुछ भी न घटने के कारण हताशा का अनुभव कर रहे हैं, उनके लिए समर्पित वेदनशील नये साधकों के लिए भी पांच-पांच मिनट के यह प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी है।
कुण्डलिनी जागरण के लिए स्वामी जी द्वारा बताए प्रयोग, अत्यंत सरल और सुगम हैं जिनमें से दो चार का उल्लेख तो ओशो ने भी अपने प्रवचनों में भी नहीं किया है और संभवत: तंत्र के रहस्यमय संसार’ के अंतर्गत थेरेपी ग्रुप्स में उनका रहस्य थोड़े से चुने लोगों को ही बतलाया हो। हिन्दी वर्णमाला के स्वरों का दस चक्रों पर प्रयोग करने से पन्द्रह मिनट में ही ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन का सहज अनुभव कर मैं स्वयं विस्मय विमूढ़ हो गया।
हमारा अहंकार यह भरोसा कर ही नहीं पाता कि पांच दस मिनट के प्रयोग हमको स्वयं के होने का या सत्य का साक्षात्कार करवा सकते हैं। विज्ञान-भैरव-तंत्र और आरेंज बुक के ध्यान प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी हैं। आज की व्यस्तता और भागदौड़ में एक-एक घंटे के दो-तीन प्रयोग नियमित रूप से नित्य करना साधारण लोगों के लिए कठिन है पर प्रेमपूर्ण, सजग और संवेदनशील होकर पांच-दस मिनटों के तीन-चार प्रयोगों को नियमित रूप से करना आसान है।
जिसकी सारी चेतना बाहर से मिनट कर अन्दर केन्द्रित हो जाती है, जिसे अपने होने की अनुभूति हो जाती है, जो पिघल कर शरीर और मन के पार अपनी और विश्व चेतना के अद्वैस्वरूप की अनुभूति करता है तब उसे अनुभव होता कि बात कितनी सरल और सहज थी। पर उस सरल सहज अनुभूति को अभिव्यक्त करते हुए जो बहुत दुरूह है, अस्तित्व के संकेत से जो दूसरों के रूपान्तरण के लिए करुणाकर उसे अभिव्यक्त करता है, उसी से गीता, अष्टावक्र, महागीता, उपनिषद् धम्मपद कुरान, बाइबिल और ओशो के ग्रंथों का जन्म हुआ।
मैं अनुभव करता हूं कि स्वामी ज्ञानभेद का यह सदग्रंथ भी उसी कड़ी की एक छोटी सी श्रृंखला है। जो लोग स्वामीजी से भली-भाँति परिचित नहीं, जो उनके निकट सान्निध्य में नहीं आये, उनके लिए यह एक अतिश्योक्ति या गप्प ही होगी पर मैं अपने अंदर जो महसूसता हूँ उसे ईमानदारी से अभिव्यक्त करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ।
यह ग्रंथ न केवल ध्यान, वरन् प्रेम की पर्त दर पर्त रहस्य खोलता, ओशो के ध्यान और प्रेम को सरलतम रूप में अभिव्यक्त करने का एक अभिनव उदाहरण है।
मुझे विश्वास है कि यह ग्रंथ रत्न साधकों को मार्गदर्शन देते हुए उन्हें ‘अप्पदीपों भव’ बनने में सहयोगी और एक मील का पत्थर सिद्ध होगी। ध्यान और प्रेम के संबंध में ओशो की सभी हिन्दी अंग्रेजी प्रवचनमालाओं का यह सारसूत्र और अमृत होने के साथ-साथ यह स्वामीजी के भी अनुभवों का निचोड़ है।
मैं अस्तित्व के प्रति कृतज्ञ हूँ कि मुझे स्वामीजी के इस सारगर्भित ग्रन्थ और उन्हें जो मिला है उसे औरों को बांटने की भावपूर्ण विकलता को प्रेमी मित्रों से परिचित कराने का सौभाग्य मिला। मैं सद्गुरु ओशो के चरणों में श्रद्धापूर्ण नमन करते हुए, पूरे अस्तित्व के प्रति अहोभाव व्यक्त करता हूं।
स्वामी अन्तर निर्मन्तु
(डॉ. पी. के. गुप्ता)
(डॉ. पी. के. गुप्ता)
ध्यान प्रेम की छांव में
मेरी दृष्टि में
‘‘अगर तुम
दूसरों के द्वार खटखटाते-खटखटाते
निराश हो चुके हो।
तो मेरी एक बात मानो
कभी अपना ही द्वार खटखटाओ।
दूसरों के द्वार खटखटाते-खटखटाते
निराश हो चुके हो।
तो मेरी एक बात मानो
कभी अपना ही द्वार खटखटाओ।
(इसी पुस्तक से)
अपना ही द्वार खटखटाने के लिए उकसाती स्वामी ज्ञानभेद द्वारा सृजित यह नयी
पुस्तक मेरे सामने है, मुझे उकसाती हुई कि मैं पाठकों के साथ, इस पुस्तक
के प्रति अपने दृष्टिकोण को बांटने की घृष्टता करूँ। लेकिन इस निवेदन के
साथ की मेरा दृष्टिकोण ‘मेरा’ है-वह लेखक के साथ ही
पाठकों के
लिये भी सहमति-असहमति के बीच झूल सकता है।
मैं अपने को इस काबिल नहीं मानता कि इस विशिष्ट पुस्तक को समीक्षात्मक दृष्टि से देख कर उसे जगजाहिर करूं, लेकिन स्वामी ज्ञानभेद जी ने अगर मुझे ऐसा करने का आदेश दिया है तो उसे नकारना भी संभव नहीं है। इसलिये ‘छोटा मुंह बड़ी बात’ सही इस घ्रष्टता के लिए उतारू हो रहा हूं। आगे जो भी होगा उसे पुस्तक की समीक्षा कहें, आलोचना कहें या कि भूमिका या परिचय, कहा और समझा कुछ भी जा सकता है लेकिन हकीकत बस इतनी है कि-
कोई भी स्तरीय साहित्य पाठक के हृदय पटल पर एक अक्स छोड़ता है। ये अक्स कभी हल्का और कभी गहरा तो कभी-कभी अमिट होता है। किसी भी स्तरीय साहित्य को पढ़ने के बाद हम बुदबुदा उठतें हैं। ‘क्लासिक’ बहुत अच्छी या अच्छी या कभी ठीक है..को लम्बा खींच कर शांत हो जाते हैं, लेकिन निश्चित रूप से पसंदगी या नापसंदगी नितान्त व्यक्तिगत होती है। मैं समझता हूं किसी भी साहित्य प्रेमी का यह स्वानुभव होगा ही। एक कविता ऐसी हो सकती है कि किसी व्यक्ति को मदहोश कर दे लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि दूसरे किसी व्यक्ति के हृदय को छू के भी गुजर सके। मेरा यह मानना है कि किसी भी रचना का मूल्यांकन निरपेक्ष हो पाना लगभग असंभव है क्योंकि मूल्यांकन करने वाले की अपनी सोच जीवन-दृष्टि संवेदनशीलता, पसंद-नापसंद सभी कुछ अपना प्रभाव छोड़ते हैं।
किसी लेखक की शैली प्रभावित करती है, किसी की भाषा और किसी का कथ्य। अगर ये तीनों ही तत्व प्रभावशाली ढंग से उभर पाते हैं तो निश्चित ही वो पुस्तक एक बड़े पाठक वर्ग की सराहना का हकदार हो जाती है।
‘ध्यान प्रेम की छाँव में’ पुस्तक पढ़ते हुए भी मेरा ध्यान इन तीन तत्वों की तरफ जाता है। मेरी दृष्टि में कथ्य के नजरिये से यह पुस्तक ‘गागर में सागर’ की कहावत को चरितार्थ करती है। वैसे भी आध्यात्मिक और दार्शनिक विषय पर रचित पुस्तक में ‘कथ्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व होता है। शैली और भाषा की उपादेयता को फिर भी कम नहीं समझा जा सकता है। ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ पुस्तक भाषा और शैली के नजरिये से बहुत प्रभावी नहीं हो पायी है। शायद लेखक का सारा जोर कथ्य की उपादेयता की ओर है, जिसमें वो सफल है।
मैंने स्वामी ज्ञानदेव जी द्वारा रचित लगभग सभी पुस्तकों का पठन किया है। कुछ एक की भूमिकाएं भी लिखी है। व्यक्तिगत तौर पर मैंने ज्ञानभेद जी से अक्सर यह शिकायत की है कि विस्तार देने के मामले में वो बाढ़ पर आई नदी की तरह कोई तटबंध स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन मेरे कथन से यह निषकर्ष लेना उचित नहीं होगा कि ज्ञानभेद के लेखन में यह विस्तार व्यर्थ और और बकवास को समेटे है। विस्तार है ही इस कारण कि लेखक अपनी जानकारी, अपने अनुभव और अपने हृदय पर पड़े प्रभावों को मुक्त भाव से पाठकों के समक्ष उलीच देना चाहता है। वैसे ही जैसे कोई मेजबान अपने आत्मिय मेहमान को आग्रह करके भोजन कराते हुए ‘कम’ और ‘अधिक’ के भेद को लांघ जाता है।
साहित्य का एक छोटा-सा साधक होते हुए ये मेरा अपना अनुभव है कि लेखक के लिए यह एक निर्मम कृत्य है कि वो अपने लेख को सिर्फ इस लिहाज से कांट-छांट दे कि उसका आकार बड़ा मालूम देता है। संशोधन और परिष्कृत करने के लिए की गयी कांट-छांट एक अलग बात है लेकिन आज के युग का यह एक बड़ा सत्य है कि पाठक वर्ग न केवल सीमित हो गया है वरन उसके पास समय और एकाग्रता का भी भीषण अभाव हो गया है। वो कम से कम समय में अधिक-से-अधिक पढ़-समझ लेना चाहता है। एम.एम.एस. के जरिये वो अपने भावों को संप्रेषित करने में सक्षम हो गया है। स्तरीय साहित्य को बांधने वाला पाठक वर्ग बहुत प्रबुद्ध हो गया है। वो किसी भी रचना में सार-तत्व की बात को खोज लेने की उत्सुकता से भरा होता है। इसका यह भी अर्थ नहीं की अनेकानेक विषयों को लेकर लिखे जा रहे वृहत्त ग्रंथ, उपन्यास आत्म-कथायें और समीक्षाएं व्यर्थ हैं या इनको नहीं लिखा जाना चाहिए। साहित्य की दृष्टि से ऐसे प्रयास न कभी बंद होंगे और न होना चाहिए। अगर ऐसा कभी होता है तो उस पाठक वर्ग के लिए यह बहुत बड़ी त्रासदी होगी जो उत्कृष्ट साहित्य के शब्द-शब्द को पीते और पचाते हुए अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव करते हैं।
विस्तार की बात आड़े आती है पाठक-वर्ग की सीमाओं का ख्याल करते हुए। अधिक से अधिक कथनीय को अगर संक्षिप्त और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित किया जा सके तो इस युग में वह साहित्य की उपादेयता को और अधिक विकसित करने में सहायक हो सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘ध्यान-प्रेम की छांव में’ लेखक स्वामी ज्ञानभेद ने आध्यात्मिक खोजियों के लिए जो हीरे चुने हैं उसमें उनकी भूमिका ‘हंस’ जैसी है।
‘हंसा तो मोती चुगें।’
उन्होंने ये हीरे चुगे और फिर उन्हें साधकों के समक्ष उलीच दिया है। ओशो के अथाह सागर से यह हीरे चुन-चनकर लाये गये हैं। सागर में बहुत कुछ बहुमूल्य छुपा है लेकिन गोते लगाकर उसे ढूंढ़-ढूंढ़ कर साहिल पर खड़े लोगों तक पहुंचाने का काम लेखक ने बखूबी किया है। ‘क्यों नहीं घटता ध्यान ?’ की सहज जिज्ञासा से पुस्तक प्रारंभ होती है। झेन गुरु हयाकुजों से संबंधित एक बोध कथा को माध्यम बनाते हुए लेखक ‘क्यों नहीं घटता ध्यान ?’ के प्रश्न का एक अमूर्त उत्तर पाठकों के सामने परोस देते हैं ? सार-तत्व तो इस बोध कथा में ही आ जाता है लेकिन विस्तार आगे मिलता है।
आखिर ध्यान है क्या ? ओशो ने अपने प्रवचनों में ध्यान को अनेका अनेक ढंग से प्रस्तुत किया है। हजार दिशाओं से साधकों तक ध्यान के सार-तत्व को संप्रेषित करने की चेष्टा की है।
अगले ही अध्याय में ‘स्वयं का निरीक्षण’, ‘आत्म रूपान्तरण’ की बात कहते हुए ज्ञानभेद जी ‘स्वपीड़क’ और ‘परपीड़क’ मानसिक अवस्थाओं पर बात करते हुए दुःख के कारणों पर आते हुए पंडित-पुरोहितों के शोषण की ओर इशारा करने से नहीं चूकते है।
‘फिर आखिर ध्यान घटे कैसे ?’ प्रश्न से जूझते हुए ज्ञानभेद जी सद्गुरु ओशो के प्रवचनांश को उद्धत करते हुए विषद व्याख्या करते हुए, बुद्ध के ‘अप्प दीपो भव’ तक पहुंच जाते हैं।
ज्ञानभेद जी भारतीय परिवेश से जुड़े साधकों के लिए कम मूल्य की कुनकुनी थैरेपी की व्यवस्था बनाने के विषय में ओशो के विचार को संप्रेषित करते हुए इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रयास न हो पाने से दुखी हैं। शायद इसीलिए वो उन तमाम साधकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए, ‘‘कुछ थेरेपी (उपचार) स्वयं कैसे करें।’’
‘‘कौन-सा ध्यान कब करें।’’
‘‘साधना की अनेक विधियाँ और चुनाव।’’
आदि पर प्रकाश डालते हुए आप अपने आत्म अनुभवों को भी पाठकों तक पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
पुस्तक में ‘सम्मोहन का प्रयोग’ अध्याय के अन्तर्गत यह बताने की चेष्टा की गयी है कि किस तरह से नकारात्मक भावदशा को सकारात्मक दिशा दी जा सकती है। लेखक के अनुसार ‘‘ओशो ने सम्मोहन का प्रयोग मनुष्य के अचेतन में जड़ें जमाये भ्रमों और सपनों को तोड़ने के लिये किया है।’’
पुस्तक की विशिष्टता है इसमें संयोजित थैरेपी के वर्णन जिसके विषय में आम पाठक बहुत कम जानकारी रखता है। ओशो कम्यून पूना में उन तमाम थेरेपीज को प्रारंभ किया गया है जो देह और मन की ग्रंथियों को विसर्जित करने में प्रभावी हैं। लेखक के अनुसार ‘प्राइमल थैरेपी’ जिसके जन्मदाता पश्चिम के ज़ेनोव हैं, पातंजलि योग के प्रति-प्रसव विधि का ही एक भाग है। प्राइमल थैरेपी जीवन में पीछे लौटने की विधि (Reliving the past), इस पुस्तक में ऐसी विधियों का विवेचनात्मक अध्ययन साधक के लिए बहुत मूल्यवान सिद्ध होगा।
पुस्तक में आध्यात्मिक साधना के दृष्टिकोण से बहुत कीमती सूचनायें हैं। यद्यपि ओशो के प्रवचनों में योग, तंत्र, ध्यान और अवचेतन में प्रवेश की तमाम पूर्वी और पश्चिमी विधियों का वर्णन और उसकी विवेचना उपलब्ध है, लेकिन ज्ञानभेद जी ने यत्र-तत्र उपलब्ध इस ज्ञान को एक विषय वस्तु के अंतर्गत ढ़ालकर एक ही पुस्तक में संजोने का जो सराहनीय प्रयास किया है, वह बेजोड़ है।
इसी प्रयास के अंतर्गत प्राइमल थैरेपी से लेकर केन्द्र की ओर लौटने के अद्भुत प्रयोग, उछलते हुए ‘हू’ का उद्घोष, सूफी नृत्य, गर्भासन-ध्यान, संतुलन आदि विधियों का सारगर्भित वर्णन पुस्तक में संजोया गया है।
शरीर की उर्जा को लयबद्ध और संतुलित करने के लिए मालिश हमेशा से ही महत्वपूर्ण भमिका निभाती रही है।
‘‘मालिश शरीर को वीणा में कसे तारों को ढीला कर और अधिक शिथिल तारों को कसकर उसे इतना संतुलित और लयबद्ध कर देती है कि उसमें से जीवन संगीत स्वयं गुंजारित होने लगता है।’’
मालिश करने के विशिष्ट ढंग हैं और शरीर में जहां-जहां उर्जा का प्रवाह बाधित हो रहा है उसको ध्यान में रखकर अलग-अलग ढंग से मालिश करना अपने आप में एक विज्ञान है। शरीर की अराजक ऊर्जा ध्यान में बाधक है। मालिश के विषय में इस पुस्तक में बहुत विस्तार में चर्चा हुई है और यथासंभव रेखाचित्रों की मदद भी ली गई है।
प्रस्तुत पुस्तक में एक पूरा अध्याय योग, व्यायामों तथा आसनों के लिए समर्पित हैं। रेखाचित्रों से सुसज्जित इस अध्याय में कुछ प्रचलित योगासनों को समझाया गया है और चित्रों की मदद लेकर साधक स्वयं इनका प्रयोग कर सकते हैं। लेखक के अनुसार ये योगासन न केवल शरीर को स्वस्थ और ऊर्जावान रखते हैं बल्कि शरीर के चक्रों को भी सक्रिय करने में सहायक होते हैं।
ध्यान-प्रेम की छांव के दूसरे खंड में ज्ञानभेद जी ने ओशो द्वारा प्रदत्त अनूठी ध्यान विधियों और अभिनव प्रयोगों को बहुत ही सारगर्भित ढंग से सम्प्रेषित करने का प्रयास किया है।
ओशो के अनुसार—‘‘सभी विधियां सहयोगी हो सकती हैं, पर विधि ध्यान नहीं है।’’
‘‘प्रारंभ में प्रयास भी तो कृत्य ही होगा लेकिन एक अनिवार्य बुराई की तरह। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा कि तुम्हें उसके पार जाना है।’’
पुस्तक के इस पूरे खंड में लेखक ने ओशो के साथ ही और बुद्ध पुरुषों का संदर्भ लेकर ध्यान के प्रयोगों को बहुत सुस्पष्टता से साधकों तक पहुंचाया है। जे. कृष्णामूर्ति, झेन गुरु नानइन पातंजलि आदि का संदर्भ जहां उचित लगा है लिया गया है। हालांकि मुख्य रूप से ओशो के वचनों और उनके द्वारा संशोधित, परिष्कृत और अपरिष्कृत ध्यान विधियों को आधार मान कर ही पुस्तक का ये खंड विकसित हुआ है। अगर इस खंड को ध्यान पूर्वक पढ़ा जाए तो जिज्ञासु पाठकों में गहरी समझ विकसित हो सकती है और तमाम उलझनों और आशा-निराशा के बीच झूलते मन को अपना मार्ग दिख सकता है।
पुस्तक ‘ध्यान-प्रेम की छांव में’ की उपादेयता इस नजरिये से और बढ़ जाती है कि आध्यात्मिक साधना जैसे गूढ़ विषय को प्रस्तुत करते हुए भी लेखक ने सरल बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है, जो निश्चित ही पाठक को आत्मियता का अहसास देगी। यही नहीं बिल्कुल अनभिज्ञ पाठकों को भी शायद ऐसा महसूस न होगा को वो कोई ऐसी पुस्तक पढ़ रहे हैं, जो उनके लिये नहीं है। विषय को सरल एवं बोधगम्य बनाने में लेखक ने पूरी सफलता पाई है।
अंततः मैं यही कहना चाहूंगा कि स्वामी ज्ञानभेद की यह कृति मूल्यवान भी है और उपयोगी भी अगर विवरण का संक्षिप्तीकरण हो सके, बिना कथ्य को हानि पहुंचाये, तो कोई भी रचना प्रभावी हो जाती है। आशा है लेखक अपने आने वाले कृतियों में इस ओर विशेष ध्यान देंगे।
‘ध्यान-प्रेम की छांव में’ पुस्तक को स्वामी ज्ञानभेद जी इस सुन्दर और उपयोगी कृति के लिए बधाई के पात्र हैं।
मैं अपने को इस काबिल नहीं मानता कि इस विशिष्ट पुस्तक को समीक्षात्मक दृष्टि से देख कर उसे जगजाहिर करूं, लेकिन स्वामी ज्ञानभेद जी ने अगर मुझे ऐसा करने का आदेश दिया है तो उसे नकारना भी संभव नहीं है। इसलिये ‘छोटा मुंह बड़ी बात’ सही इस घ्रष्टता के लिए उतारू हो रहा हूं। आगे जो भी होगा उसे पुस्तक की समीक्षा कहें, आलोचना कहें या कि भूमिका या परिचय, कहा और समझा कुछ भी जा सकता है लेकिन हकीकत बस इतनी है कि-
कोई भी स्तरीय साहित्य पाठक के हृदय पटल पर एक अक्स छोड़ता है। ये अक्स कभी हल्का और कभी गहरा तो कभी-कभी अमिट होता है। किसी भी स्तरीय साहित्य को पढ़ने के बाद हम बुदबुदा उठतें हैं। ‘क्लासिक’ बहुत अच्छी या अच्छी या कभी ठीक है..को लम्बा खींच कर शांत हो जाते हैं, लेकिन निश्चित रूप से पसंदगी या नापसंदगी नितान्त व्यक्तिगत होती है। मैं समझता हूं किसी भी साहित्य प्रेमी का यह स्वानुभव होगा ही। एक कविता ऐसी हो सकती है कि किसी व्यक्ति को मदहोश कर दे लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि दूसरे किसी व्यक्ति के हृदय को छू के भी गुजर सके। मेरा यह मानना है कि किसी भी रचना का मूल्यांकन निरपेक्ष हो पाना लगभग असंभव है क्योंकि मूल्यांकन करने वाले की अपनी सोच जीवन-दृष्टि संवेदनशीलता, पसंद-नापसंद सभी कुछ अपना प्रभाव छोड़ते हैं।
किसी लेखक की शैली प्रभावित करती है, किसी की भाषा और किसी का कथ्य। अगर ये तीनों ही तत्व प्रभावशाली ढंग से उभर पाते हैं तो निश्चित ही वो पुस्तक एक बड़े पाठक वर्ग की सराहना का हकदार हो जाती है।
‘ध्यान प्रेम की छाँव में’ पुस्तक पढ़ते हुए भी मेरा ध्यान इन तीन तत्वों की तरफ जाता है। मेरी दृष्टि में कथ्य के नजरिये से यह पुस्तक ‘गागर में सागर’ की कहावत को चरितार्थ करती है। वैसे भी आध्यात्मिक और दार्शनिक विषय पर रचित पुस्तक में ‘कथ्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व होता है। शैली और भाषा की उपादेयता को फिर भी कम नहीं समझा जा सकता है। ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ पुस्तक भाषा और शैली के नजरिये से बहुत प्रभावी नहीं हो पायी है। शायद लेखक का सारा जोर कथ्य की उपादेयता की ओर है, जिसमें वो सफल है।
मैंने स्वामी ज्ञानदेव जी द्वारा रचित लगभग सभी पुस्तकों का पठन किया है। कुछ एक की भूमिकाएं भी लिखी है। व्यक्तिगत तौर पर मैंने ज्ञानभेद जी से अक्सर यह शिकायत की है कि विस्तार देने के मामले में वो बाढ़ पर आई नदी की तरह कोई तटबंध स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन मेरे कथन से यह निषकर्ष लेना उचित नहीं होगा कि ज्ञानभेद के लेखन में यह विस्तार व्यर्थ और और बकवास को समेटे है। विस्तार है ही इस कारण कि लेखक अपनी जानकारी, अपने अनुभव और अपने हृदय पर पड़े प्रभावों को मुक्त भाव से पाठकों के समक्ष उलीच देना चाहता है। वैसे ही जैसे कोई मेजबान अपने आत्मिय मेहमान को आग्रह करके भोजन कराते हुए ‘कम’ और ‘अधिक’ के भेद को लांघ जाता है।
साहित्य का एक छोटा-सा साधक होते हुए ये मेरा अपना अनुभव है कि लेखक के लिए यह एक निर्मम कृत्य है कि वो अपने लेख को सिर्फ इस लिहाज से कांट-छांट दे कि उसका आकार बड़ा मालूम देता है। संशोधन और परिष्कृत करने के लिए की गयी कांट-छांट एक अलग बात है लेकिन आज के युग का यह एक बड़ा सत्य है कि पाठक वर्ग न केवल सीमित हो गया है वरन उसके पास समय और एकाग्रता का भी भीषण अभाव हो गया है। वो कम से कम समय में अधिक-से-अधिक पढ़-समझ लेना चाहता है। एम.एम.एस. के जरिये वो अपने भावों को संप्रेषित करने में सक्षम हो गया है। स्तरीय साहित्य को बांधने वाला पाठक वर्ग बहुत प्रबुद्ध हो गया है। वो किसी भी रचना में सार-तत्व की बात को खोज लेने की उत्सुकता से भरा होता है। इसका यह भी अर्थ नहीं की अनेकानेक विषयों को लेकर लिखे जा रहे वृहत्त ग्रंथ, उपन्यास आत्म-कथायें और समीक्षाएं व्यर्थ हैं या इनको नहीं लिखा जाना चाहिए। साहित्य की दृष्टि से ऐसे प्रयास न कभी बंद होंगे और न होना चाहिए। अगर ऐसा कभी होता है तो उस पाठक वर्ग के लिए यह बहुत बड़ी त्रासदी होगी जो उत्कृष्ट साहित्य के शब्द-शब्द को पीते और पचाते हुए अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव करते हैं।
विस्तार की बात आड़े आती है पाठक-वर्ग की सीमाओं का ख्याल करते हुए। अधिक से अधिक कथनीय को अगर संक्षिप्त और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित किया जा सके तो इस युग में वह साहित्य की उपादेयता को और अधिक विकसित करने में सहायक हो सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘ध्यान-प्रेम की छांव में’ लेखक स्वामी ज्ञानभेद ने आध्यात्मिक खोजियों के लिए जो हीरे चुने हैं उसमें उनकी भूमिका ‘हंस’ जैसी है।
‘हंसा तो मोती चुगें।’
उन्होंने ये हीरे चुगे और फिर उन्हें साधकों के समक्ष उलीच दिया है। ओशो के अथाह सागर से यह हीरे चुन-चनकर लाये गये हैं। सागर में बहुत कुछ बहुमूल्य छुपा है लेकिन गोते लगाकर उसे ढूंढ़-ढूंढ़ कर साहिल पर खड़े लोगों तक पहुंचाने का काम लेखक ने बखूबी किया है। ‘क्यों नहीं घटता ध्यान ?’ की सहज जिज्ञासा से पुस्तक प्रारंभ होती है। झेन गुरु हयाकुजों से संबंधित एक बोध कथा को माध्यम बनाते हुए लेखक ‘क्यों नहीं घटता ध्यान ?’ के प्रश्न का एक अमूर्त उत्तर पाठकों के सामने परोस देते हैं ? सार-तत्व तो इस बोध कथा में ही आ जाता है लेकिन विस्तार आगे मिलता है।
आखिर ध्यान है क्या ? ओशो ने अपने प्रवचनों में ध्यान को अनेका अनेक ढंग से प्रस्तुत किया है। हजार दिशाओं से साधकों तक ध्यान के सार-तत्व को संप्रेषित करने की चेष्टा की है।
अगले ही अध्याय में ‘स्वयं का निरीक्षण’, ‘आत्म रूपान्तरण’ की बात कहते हुए ज्ञानभेद जी ‘स्वपीड़क’ और ‘परपीड़क’ मानसिक अवस्थाओं पर बात करते हुए दुःख के कारणों पर आते हुए पंडित-पुरोहितों के शोषण की ओर इशारा करने से नहीं चूकते है।
‘फिर आखिर ध्यान घटे कैसे ?’ प्रश्न से जूझते हुए ज्ञानभेद जी सद्गुरु ओशो के प्रवचनांश को उद्धत करते हुए विषद व्याख्या करते हुए, बुद्ध के ‘अप्प दीपो भव’ तक पहुंच जाते हैं।
ज्ञानभेद जी भारतीय परिवेश से जुड़े साधकों के लिए कम मूल्य की कुनकुनी थैरेपी की व्यवस्था बनाने के विषय में ओशो के विचार को संप्रेषित करते हुए इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रयास न हो पाने से दुखी हैं। शायद इसीलिए वो उन तमाम साधकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए, ‘‘कुछ थेरेपी (उपचार) स्वयं कैसे करें।’’
‘‘कौन-सा ध्यान कब करें।’’
‘‘साधना की अनेक विधियाँ और चुनाव।’’
आदि पर प्रकाश डालते हुए आप अपने आत्म अनुभवों को भी पाठकों तक पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
पुस्तक में ‘सम्मोहन का प्रयोग’ अध्याय के अन्तर्गत यह बताने की चेष्टा की गयी है कि किस तरह से नकारात्मक भावदशा को सकारात्मक दिशा दी जा सकती है। लेखक के अनुसार ‘‘ओशो ने सम्मोहन का प्रयोग मनुष्य के अचेतन में जड़ें जमाये भ्रमों और सपनों को तोड़ने के लिये किया है।’’
पुस्तक की विशिष्टता है इसमें संयोजित थैरेपी के वर्णन जिसके विषय में आम पाठक बहुत कम जानकारी रखता है। ओशो कम्यून पूना में उन तमाम थेरेपीज को प्रारंभ किया गया है जो देह और मन की ग्रंथियों को विसर्जित करने में प्रभावी हैं। लेखक के अनुसार ‘प्राइमल थैरेपी’ जिसके जन्मदाता पश्चिम के ज़ेनोव हैं, पातंजलि योग के प्रति-प्रसव विधि का ही एक भाग है। प्राइमल थैरेपी जीवन में पीछे लौटने की विधि (Reliving the past), इस पुस्तक में ऐसी विधियों का विवेचनात्मक अध्ययन साधक के लिए बहुत मूल्यवान सिद्ध होगा।
पुस्तक में आध्यात्मिक साधना के दृष्टिकोण से बहुत कीमती सूचनायें हैं। यद्यपि ओशो के प्रवचनों में योग, तंत्र, ध्यान और अवचेतन में प्रवेश की तमाम पूर्वी और पश्चिमी विधियों का वर्णन और उसकी विवेचना उपलब्ध है, लेकिन ज्ञानभेद जी ने यत्र-तत्र उपलब्ध इस ज्ञान को एक विषय वस्तु के अंतर्गत ढ़ालकर एक ही पुस्तक में संजोने का जो सराहनीय प्रयास किया है, वह बेजोड़ है।
इसी प्रयास के अंतर्गत प्राइमल थैरेपी से लेकर केन्द्र की ओर लौटने के अद्भुत प्रयोग, उछलते हुए ‘हू’ का उद्घोष, सूफी नृत्य, गर्भासन-ध्यान, संतुलन आदि विधियों का सारगर्भित वर्णन पुस्तक में संजोया गया है।
शरीर की उर्जा को लयबद्ध और संतुलित करने के लिए मालिश हमेशा से ही महत्वपूर्ण भमिका निभाती रही है।
‘‘मालिश शरीर को वीणा में कसे तारों को ढीला कर और अधिक शिथिल तारों को कसकर उसे इतना संतुलित और लयबद्ध कर देती है कि उसमें से जीवन संगीत स्वयं गुंजारित होने लगता है।’’
मालिश करने के विशिष्ट ढंग हैं और शरीर में जहां-जहां उर्जा का प्रवाह बाधित हो रहा है उसको ध्यान में रखकर अलग-अलग ढंग से मालिश करना अपने आप में एक विज्ञान है। शरीर की अराजक ऊर्जा ध्यान में बाधक है। मालिश के विषय में इस पुस्तक में बहुत विस्तार में चर्चा हुई है और यथासंभव रेखाचित्रों की मदद भी ली गई है।
प्रस्तुत पुस्तक में एक पूरा अध्याय योग, व्यायामों तथा आसनों के लिए समर्पित हैं। रेखाचित्रों से सुसज्जित इस अध्याय में कुछ प्रचलित योगासनों को समझाया गया है और चित्रों की मदद लेकर साधक स्वयं इनका प्रयोग कर सकते हैं। लेखक के अनुसार ये योगासन न केवल शरीर को स्वस्थ और ऊर्जावान रखते हैं बल्कि शरीर के चक्रों को भी सक्रिय करने में सहायक होते हैं।
ध्यान-प्रेम की छांव के दूसरे खंड में ज्ञानभेद जी ने ओशो द्वारा प्रदत्त अनूठी ध्यान विधियों और अभिनव प्रयोगों को बहुत ही सारगर्भित ढंग से सम्प्रेषित करने का प्रयास किया है।
ओशो के अनुसार—‘‘सभी विधियां सहयोगी हो सकती हैं, पर विधि ध्यान नहीं है।’’
‘‘प्रारंभ में प्रयास भी तो कृत्य ही होगा लेकिन एक अनिवार्य बुराई की तरह। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा कि तुम्हें उसके पार जाना है।’’
पुस्तक के इस पूरे खंड में लेखक ने ओशो के साथ ही और बुद्ध पुरुषों का संदर्भ लेकर ध्यान के प्रयोगों को बहुत सुस्पष्टता से साधकों तक पहुंचाया है। जे. कृष्णामूर्ति, झेन गुरु नानइन पातंजलि आदि का संदर्भ जहां उचित लगा है लिया गया है। हालांकि मुख्य रूप से ओशो के वचनों और उनके द्वारा संशोधित, परिष्कृत और अपरिष्कृत ध्यान विधियों को आधार मान कर ही पुस्तक का ये खंड विकसित हुआ है। अगर इस खंड को ध्यान पूर्वक पढ़ा जाए तो जिज्ञासु पाठकों में गहरी समझ विकसित हो सकती है और तमाम उलझनों और आशा-निराशा के बीच झूलते मन को अपना मार्ग दिख सकता है।
पुस्तक ‘ध्यान-प्रेम की छांव में’ की उपादेयता इस नजरिये से और बढ़ जाती है कि आध्यात्मिक साधना जैसे गूढ़ विषय को प्रस्तुत करते हुए भी लेखक ने सरल बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है, जो निश्चित ही पाठक को आत्मियता का अहसास देगी। यही नहीं बिल्कुल अनभिज्ञ पाठकों को भी शायद ऐसा महसूस न होगा को वो कोई ऐसी पुस्तक पढ़ रहे हैं, जो उनके लिये नहीं है। विषय को सरल एवं बोधगम्य बनाने में लेखक ने पूरी सफलता पाई है।
अंततः मैं यही कहना चाहूंगा कि स्वामी ज्ञानभेद की यह कृति मूल्यवान भी है और उपयोगी भी अगर विवरण का संक्षिप्तीकरण हो सके, बिना कथ्य को हानि पहुंचाये, तो कोई भी रचना प्रभावी हो जाती है। आशा है लेखक अपने आने वाले कृतियों में इस ओर विशेष ध्यान देंगे।
‘ध्यान-प्रेम की छांव में’ पुस्तक को स्वामी ज्ञानभेद जी इस सुन्दर और उपयोगी कृति के लिए बधाई के पात्र हैं।
258-जे, आदर्श
नगर
( जे.के. कालोनी )
कानपुर-208010
दूरभाष-2460026
कानपुर-208010
दूरभाष-2460026
( प्रेम निशीथ )
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