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पर्यावरणीय >> वृन्दा

वृन्दा

शान्ता कुमार

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3527
आईएसबीएन :81-7016-774-4

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हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शान्ता कुमार का पाँचवा उपन्यास ‘वृन्दा’ जिसमें पर्यावरण के विषय को एक आंचलिक प्रेम-कथा के ताने-बाने में गूँथने का प्रयत्न किया गया है।

Vrinda

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैं वृन्दा के बिना अपने होने की कल्पना भी नहीं करता। अब कैसे जिऊँगा और क्यों जिऊँगा अब मुझे भी कोई रोक नहीं सकता...पर हाँ वृन्दा जाने से पहले तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ-कहना चाहता हूँ...शास्त्री जी कुछ सँभलकर खड़े हो गए। सब उत्सुकता से उनकी ओर देखने लगे।

वृन्दा की ओर देखकर शास्त्री जी बोले-मुझे जीवन के अंतिम क्षण तक एक दुःख कचोटता रहेगा कि तुमने गीता पढ़ी तो सही, पर केवल शब्द ही पढ़े तुम ‘गीता’ को जीवन में जी न सकी। तुम हमें छोड़कर जा रही हो, यह आघात तो है ही, पर उससे भी बड़ा आघात मेरे लिए यह है कि मेरी वृन्दा गीता पढ़ने का ढोंग करती रही। जब युद्ध का सामना हुआ तो टिक न सकी। मुझे दुःख है कि तुमने ‘गीता’ पढ़कर भी न पढ़ी। वृन्दा ‘गीता’ सुनकर तो अर्जुन ने गांडीव उठा लिया था और तुम हमें छोड़कर उस विद्यालय के उन नन्हें-मुन्ने बच्चों को छोड़कर यों भाग रही हो...मुझे तुम पर इतना प्रबल विश्वास था। आज सारा चकनाचूर हो गया। ठीक है तुम जाओ...जहाँ भी रहो, सुखी रहो...सोच लूँगा, एक सपना था जो टूट गया।’’

अपनी बात


 अपना पाँचवा उपन्यास ‘वृन्दा’ पाठकों को समर्पित करते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। इसे लिखने में एक लंबा समय लग गया। कई बार लिखना शुरू किया, फिर रुकता रहा, रुक-रुककर लिखा जाता रहा। राजनीति व सार्वजनिक जीवन की व्यस्तताओं में बार-बार उपन्यास का लिखना बंद होता रहा। अब ‘वृन्दा’ का प्रकाशन हो रहा है, यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।

हिमाचल प्रदेश में जब मैं मुख्यमंत्री रहा तो उस शासन काल के कुछ अनुभव इतने मर्मस्पर्शी थे कि वर्षों बीत जाने के बाद भी उन्हें भूल पाना संभव नहीं है। दो-तीन बार प्रदेश में कुछ स्थानों पर भयंकर वर्षा हुई। उसे अब ‘बादल फटना’ कहने लगे हैं। एकदम अचानक पानी बहा कि पूरे का पूरा गाँव उसकी लपेट में आ गया। मैं देखने गया। उस सर्वनाश को देख दिल दहल गया था पानी के बहाव में तीन मंजिले पक्के मकान नींव से उखड़कर कहीं दूर बिखरे पड़े थे। टनों वजन वाले पत्थर दीवारें तोड़कर कहीं के कहीं पहुँच गए थे। उस दृश्य को देखकर यह सोच पाना कठिन था कि दो ही दिन पहले वहाँ एक हंसता-खेलता गाँव बसा था। मिट्टी व  पत्थर मिले पानी के तेज बहाव के तूफान ने देखते-देखते पूरे गाँव को श्मशान बना दिया था। बातचीत में कुछ वृद्ध लोगों ने बताया कि बादल फटने की ये घटनाएँ पुराने समय में नहीं होती थीं। जंगल कटे, धरती नंगी हो गई, मिट्टी का स्खलन बढ़ा, प्राकृतिक छलनी हुई तो अब ये प्रकोप होने लगे हैं।

विश्व-भर में मनुष्य ने विकास के नाम पर प्रकृति का चीरहरण किया है हिमाचल प्रदेश में हरे-भरे जंगलों को नष्ट किया गया है। मैंने यह सब निकट से देखा, रोकने की कोशिश की, समय मिला तो प्रदेश में ‘वन लगाओ-रोजी कमाओ’ व ‘स्मृति वन’ जैसी योजनाएँ शुरू कीं। केंद्र सरकार में गया तो ‘हरियाली’ और ‘स्वजलधारा’ योजना इसी उद्देश्य से शुरू हो गई थी।
प्रशासक के रूप में यह सब करने पर भी मेरे अंदर का लेखक संतुष्ट नहीं हुआ। प्रकृति के साथ हुई त्रासदी की चुभन सदा चुभती रही। उस सारी अनुभूति को एक साहित्यिक अभिव्यक्ति देने की इच्छा मन में थी।
 ‘वृन्दा’ उपन्यास में इसी पर्यावरण के विषय को एक आंचलिक प्रेम-कथा के ताने-बाने में गूँथने का प्रयत्न किया गया है। प्रेम-कहानी में पर्यावरण का विषय एक कठिन प्रयोग लगा था, मैंने उसे पूरा करने का प्रयत्न किया है। मेरे प्रयत्न की सफलता का निर्णय तो पाठक ही करेंगे।

यामिनी परिसर
पालमपुर, जिला काँगड़ा
हिमाचल प्रदेश

शान्ता कुमार

वृन्दा


शाम ढलने लगी थी। अंधकार ने धीरे-धीरे प्रकाश का स्थान लेना शुरू कर दिया था। बरसात का मौसम था, आसमान पर बादल छाए थे। ज्यों-ज्यों प्रकाश घटता गया और अंधकार बढ़ता गया, त्यों-त्यों सर्दी बढ़ने लगी थी। घर के चारों तरफ शांति थी। वृन्दा चुपचाप अनमने मन से घर के सभी काम निपटाती जा रही थी। उसने आँगन में झाडू लगा दी थी। घर के साथ पशुओं की घराल1 में जाकर गाय का दूध निकाल लिया था। दूध लाकर माँ के पास रख दिया। माँ ने दूध को चूल्हे पर चढ़ा दिया था। घराल में पशुओं को रात बैठने के लिए पात्री2 बिछाकर उनको चारा डालकर वह घर में लौट आई थी। वृन्दा यह काम रोज करती थी, तुरंत आज वह गुमसुम थी। कुछ बोल नहीं रही थी। माँ ने उससे कई बार पूछा। एक बार पिता ने भी पूछा, पर उसने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। वह एक यंत्र की तरह अपने जिस्मे के घर के सारे काम निपटाती जा रही थी ध्यान उसका कहीं और था, मन उसका कहीं और उड़ान भर रहा था।

घर के सारे काम निपटाकर वह कमरे के कोने में अपने पिता के पास बैठ गई। पिता ने इधर-उधर की बात करने की कोशिश की। वृन्दा ‘हाँ-हूँ’ मात्र करती रही। रसोई से आवाज आई खाना तैयार हो गया है।’ वह उठी, रसोई में गई। खाना खिलाने में माँ का हाथ बँटाने लगी। घर के नित्य-नियम के अनुसार सबसे पहले वृन्दा के पिता नन्दलाल और उसकी छोटी बहन तथा भाई ने खाना खाया। रसोई के कोने में लकड़ियों का चूल्हा जल रहा था। चूल्हे के एक तरफ पानी का एक बड़ा बर्तन रखा हुआ था। वृन्दा की मां रोटियाँ पका रही थी और वह अपने पिता, छोटी बहन तथा भाई को खाना खिला रही थी। बीच-बीच में कई बातें हुईं। सब कुछ न कुछ बोलते रहे, पर वृन्दा इस बातचीत में आज
1.    पशु बाँधने का कमरा
2.    पशु के बैठने के लिए पत्तों का बिछौना
कोई हिस्सा नहीं ले रही थी।

सब कुछ रोज की तरह चल रहा था और चलता रहा। सबको खाना खिलाने के बाद वृन्दा और उसकी माँ ने खाना, बर्तन साफ किए, रसोई को साफ किया और सब अपनी-अपनी सोने की जगह में चले गए। वृन्दा अपनी माँ के पास ही बिस्तर पर बैठ गई। माँ ने बड़े प्यार से उससे पूछा कि सुबह से ही गुमसुम क्यों है ? उसने यूँ ही टाल दिया। माँ सोने के लिए लेट गई और वृन्दा बैठी रही। कुछ देर के बाद उसने माँ से कहा कि उसे नींद नहीं आ रही, उसे स्कूल का भी कुछ काम करना है। यह सोचकर वह बिस्तर से उठी और बाहर कमरे में आकर बैठ गई।

मौसम बरसात का था। सर्दी बहुत अधिक नहीं थी। फिर भी यह गाँव पहाड़ के बिल्कुल ऊपर था। हवाएँ सीधी आती थीं। आसमान बादलों से घिरा था। बादल गहरे होते जा रहे थे। हवा की सनसनाहट की आवाज़ कच्चे मकान पर छाई हुई स्लेटों में से निकलती हुई एक तेज हुँकार-सी भर रही थी। छोटा-सा बिजली का बल्ब टिमटिमा रहा था। वृन्दा अपनी किताबें खोलकर पढ़ने का नाटक कर रही थी। ध्यान उसका कहीं और था।

गहराते हुए बादल और गहरे हुए, हवा थम गई और धीमी-धीमी वर्षां शुरू हो गई। घर के बाहर के इस मौसम का वृन्दा के मन पर कोई असर न था। उसके अंदर न वर्षा बंद हो रही थी, न शुरू हो रही थी। न हवा चल रही थी न सनसनाहट की आवाज़ आ रही थी। सब मौन था, सब शांत था। एक अजीब-सा अनुभव उसके अंतर को कुछ ऐसा कर रहा था जो उसे समझ नहीं आ रहा था। वह क्या है, क्यों है और उसके लिए वह क्या करे ? सब उसकी समझ से बाहर था।
बादलों के गरजने की जोर की आवाज आई। उस आवाज के साथ ही बिजली बंद हो गई। घना अंधकार छा गया। अब वह चौंककर उठी। थोड़ी देर रूक गई। उसे लगा, शायद बिजली आ जाएगी। खड़े-खड़े लंबी प्रतीक्षा करने के बाद भी जब बिजली नहीं आई तो उसने अंदाजे से अपने पाँव रसोई की तरफ बढ़ाए। टटोलती हुई रसोई तक पहुँची, दियासलाई निकाली, फिर दीया ढूँढने लगी। इतने में बादल और जोर से गरजे। कच्चा मकान पूरी तरह से हिल गया। कच्चे मकान पर पुरानी लकड़ी पर रखे हुए स्लेट जोर से काँपे।

बाहर की गर्जन और हलचल से वृन्दा को अनुभव हुआ कि उसके अंदर भी इसी प्रकार की हलचल मची हुई है। भले ही बाहर सब कुछ शान्त दिख रहा था, परंतु इस शांति के अंदर एक अजीब–सी अशांति व्याप्त थी। बादलों के गरजने की आवाज बढ़ती गई। कभी गर्जन शांत होता और वर्षा शुरू हो जाती। वृन्दा ने तेल का दीया जला लिया था। घर के अंदर तक आने वाली तेज हवा से दीया की बाती को अपने हाथ से सँभालती हुई वह कमरे के कोने में आकर बैठ गई। सर्दी बढ़ रही थी। उसने एक बड़ा कम्बल निकाला, चारों तरफ लपेटा और स्कूल की पुस्तकें कापियाँ सामने रखकर उलटने लगी। पर उसका मन आज यहाँ नहीं था। वह सोचने लगी और सोच में खो गई।


2



वृन्दा को उसके पिता ने अनमने मन से स्कूल भेजा था। उनके परिवार में कभी कोई पढ़ा नहीं था। लड़कियों के पढ़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। परंतु अब पास-पड़ोस की लड़कियाँ भी स्कूल जाने लगी थीं। वृन्दा ने आग्रह किया था, तो पिता ने बात मान ली थी और वह स्कूल जाने लगी थी। स्कूल में गाँव के अधिकतर गरीब परिवारों के बच्चे थे। वह पढ़ने में न तो बहुत अच्छी थी और न ही बिलकुल पीछे।

उस गाँव के कुछ ही दूर पर एक गाँव था। उस गाँव के बच्चे आठवीं कक्षा से आगे पढ़ने के लिए पास के कस्बे के स्कूल में जाते थे। वृन्दा अपनी सहेलियों के साथ जब गाँव के स्कूल जाती तो दूसरे गाँव के बड़े बच्चे उसी रास्ते से बड़े स्कूल जाते थे।
लगभग एक साल पहले की बात है। वृन्दा अपने स्कूल से लौट रही थी, आसमान पर बादल उमड़े और वर्षा शुरू हो गई। देखते ही देखते वर्षा तेज  हो गयी। वह भागने लगी। उसके पास कोई छाता नहीं था। कस्बे के हाई स्कूल के बच्चे लौट रहे थे। वर्षा के कारण सबने भागना शुरू कर दिया था। कुछ के पास छाते थे, कुछ बिना छाते के थे तथा कुछ बच्चों के पास छोटे-छोटे ओढ़ने के कंबल थे। उन्होंने उन्हीं से अपने आपको वर्षा से बचाना शुरू कर दिया। वर्षा बहुत तेज हो गई। हवा चल पड़ी। हवा आँधी में बदली और आँधी की बौछारों से चारों तरफ वृक्ष हिलने लगे।

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