कहानी संग्रह >> प्रति श्रुति प्रति श्रुतिश्रीनरेश मेहता
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इस पुस्तक में श्री नरेश मेहता की समग्र कहानियों का संकलन है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री नरेश मेहता का कथा-गद्य, जैनेंद्र और अज्ञेय की परंपरा में रख कर
देखा जाये तो समाज और अध्यात्म, राष्ट्र और राजनीति, जीवन और दर्शन से
संपृक्त गद्य है। वे न तो जैनेंद्र का प्रतिबिंब बने और न ही अज्ञेय की
छाया। उन्होंने सर्वथा स्वायत्त और स्वाधीन कथा साहित्य लिखा जिसमें
काव्यात्मक रस भी है और जिसका आस्वाद हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक
भाव–बोधों को प्रगल्भ भी बनाता है। श्री मेहता जी की
भाव-दृष्टि,
अंतर्दृष्टि और जीवन-दृष्टि उनके कथा गद्य में जिस प्रकार प्रकट हुई है,
उससे लगता है कि श्री नरेश जी ने नई कथा-भाषा रचकर हिन्दी को एक
सांस्कृतिक शक्ति का लोक संस्करण सौंपा है। भाषा अपनी सर्जनात्मक शक्ति
में जब सार्थक होती है
तो वह स्वयं ही समाज और संस्कृति को अपने में समा लेती है। श्री नरेश जी ने अपने कथा-शिल्प से भाषा की संभावनाओं को विराट बनाया, गद्य की एक नई शैली विकसित की और यह सिद्ध किया कि एक जीवंत भाषा और सजीव भाषा किस प्रकार अपनी सांस्कृतिकता और आंचलिक नास्टिलजिया को एक साथ एकाकार कर सकती है। श्रीनरेश जी का समूचा गद्य- साहित्य और विशेष रुप से कथा-साहित्य अपने ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों ही परिप्रेक्ष्यों में गहन शोध और विमर्श की मांग करता है। एक कवि और सर्जक को मात्र ‘वैष्णव’ कहकर ब्रांड नाम से सज्जित कर देना पर्याप्त नहीं बल्कि उनकी वैष्णवता के पीड़ालोक को किसी गाँधी की तरह बाहर निकाल नरसिंह मेहता के गीत ‘वैष्णव जन’ की तरह
लोकव्यापी बनाना होगा।
श्रीनरेश मेहता जैसा सृजक अतीत की इतिहास-वस्तु बनकर, वर्तमान की संज्ञा से अलग नहीं किया जा सकता और इसीलिए उनकी सृजन-यात्रा की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हिंदी मानस उनमें निहित सारी संभावनाओं को समय, स्मृति और अवकाश तीनों में रख कर एक ऐसे श्रीनरेश मेहता का अन्वेषण करे जो हिन्दी साहित्य की चेतना का नरेश हो, सृजन की उत्कृष्टता का प्रतिमान हो और अपनी सांस्कृतिक सामाजिकता का अद्वितीय उदाहरण हो।
तो वह स्वयं ही समाज और संस्कृति को अपने में समा लेती है। श्री नरेश जी ने अपने कथा-शिल्प से भाषा की संभावनाओं को विराट बनाया, गद्य की एक नई शैली विकसित की और यह सिद्ध किया कि एक जीवंत भाषा और सजीव भाषा किस प्रकार अपनी सांस्कृतिकता और आंचलिक नास्टिलजिया को एक साथ एकाकार कर सकती है। श्रीनरेश जी का समूचा गद्य- साहित्य और विशेष रुप से कथा-साहित्य अपने ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों ही परिप्रेक्ष्यों में गहन शोध और विमर्श की मांग करता है। एक कवि और सर्जक को मात्र ‘वैष्णव’ कहकर ब्रांड नाम से सज्जित कर देना पर्याप्त नहीं बल्कि उनकी वैष्णवता के पीड़ालोक को किसी गाँधी की तरह बाहर निकाल नरसिंह मेहता के गीत ‘वैष्णव जन’ की तरह
लोकव्यापी बनाना होगा।
श्रीनरेश मेहता जैसा सृजक अतीत की इतिहास-वस्तु बनकर, वर्तमान की संज्ञा से अलग नहीं किया जा सकता और इसीलिए उनकी सृजन-यात्रा की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हिंदी मानस उनमें निहित सारी संभावनाओं को समय, स्मृति और अवकाश तीनों में रख कर एक ऐसे श्रीनरेश मेहता का अन्वेषण करे जो हिन्दी साहित्य की चेतना का नरेश हो, सृजन की उत्कृष्टता का प्रतिमान हो और अपनी सांस्कृतिक सामाजिकता का अद्वितीय उदाहरण हो।
अपनी बात
मालवा के कस्बे शाजापुर में 15 फरवरी, 1922 को पूर्णशंकर का जन्म हुआ। सन्
1940 में नरसिंहगढ़ की राजमाता ने काव्य-सभा में इतनी कविता से प्रसन्न
होकर ‘नरेश’ उपनाम दिया। यह नाम पूर्ण शंकर को इतना
अच्छा लगा
कि इन्होंने इस नाम को ही अपना लिया – नरेश कुमार मेहता; जो आगे
चलकर ‘श्रीनरेश मेहता’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्रीनरेश
मेहता हिन्दी के उन शीर्षस्थ लेखकों में हैं, जो भारतीयता की अपना गहरी
दृष्टि के लिए जाने जाते हैं। भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में इनका
स्वतंत्र महत्त्व इसलिए भी है
कि सृजनात्मकताओं की सीमाओं के प्रति शब्द के व्यवहार, प्रकृति और कॉस्मिक यथार्थ के प्रति इनका अपना दृष्टिकोण है। इन समकालीनता इन्हीं के शब्दों में, अपने रूप, रंग और गंध में प्रकृति के रहस्यों से वंचित नहीं है। भावात्मक संवेदना इनकी सृजनात्मकता का मूल तत्त्व है। श्रीनरेश मेहता की जीवन-भर हताश और कुठित करनेवाली परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा। इन्होंने 1942 के स्वाधीनता आंदोलन और छात्र आंदोलन में हिस्सा लिया। कुछ वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी का काम किया और उसकी ट्रेड यूनियन के लिए एक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन किया। थोड़े समय के लिए आकाशवाणी से संबद्ध रहने के बाद प्राय: पूर्णकालिक लेखक रहे।
हिन्दी साहित्य जगत में श्रीनरेश मेहता (1922-2000) का पदार्पण प्रयोगवाद के आगमन के साथ हुआ था। यद्यपि इन्होंने 1936 से ही कविता-लेखन प्रारंभ कर दिया था परंतु ‘दूसरा सप्तक’ (1951) के प्रकाशन से ही इनकी रचनाएँ पाठकों के सामने आती हैं। कह सकते हैं कि तब तक ये अनाम अवस्था में थे। वास्तव में अज्ञेय ही इनके काव्य-यश के कारण बने।
श्रीनरेश मेहता की इस अनाम अवस्था ने ही इन्हें लिखने की प्रेरणा दी थी। इसके बारे में ‘दूसरा सप्तक’ में ये स्वयं बताते हैं कि ‘केवल यही कि अभी तक अनाम रहा हूँ और सन् 36 से लेकर 50 तक बराबर लिखता रहा हूँ। वर्षा ऋतु की धूप की तरह मेरी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं।
मैं खुद अनुभव करता हूँ कि इतना कम प्रकाशन मेरे लिए अधिक हानिकर हुआ है। किन्तु इस प्रकार की अनाम अवस्था ने ही मुझे लोहे की-सी प्रेरणा भी दी है।’
इन्होंने 1936 में कविता लिखना प्रारंभ किया, जो ‘प्रगतिशील लेखक आंदोलन’ के गठन से संबद्ध महत्त्वपूर्ण तिथि भी है। हिंदी में अपने ढंग की पहली लंबी कविता ‘समय देवता’ समूची मानवस्थिति, सार्वभौम यथार्थ और साम्राज्यवाद के प्रति श्रीनरेश मेहता की दृढ़ तात्कालिक प्रतिक्रिया को दिखाती है। जब वह ऐसी गहरी राजनीतिक कविता लिख रहे थे, तभी ‘उषस’ जैसी अन्य कविताएँ भी लिख रहे थे, जो आज के पाठकों को श्रीनरेश मेहता के सृजनात्मक अनुभव के दो पक्षों में संबंध खोजने के लिए आमंत्रित करती हैं।
‘संशय की एक रात’ और ‘महाप्रस्थान’ जैसी लंबी कविताओं के जरिए श्रीनरेश मेहता ने इस भ्रम का खंडन किया कि समकालीन कविता प्रबंध काव्य या महाकाव्य के रूप में असंभव है। इनकी काव्य-भाषा में प्रकृति के उत्सुक ऐंद्रिक लगाव है। प्रचलित साहित्य रुझानों से एक तरह की दूरी ने इनकी काव्य-शैली और संरचना की विशिष्टता को पुष्ट करने में विशेष सहयोग दिया है।
श्रीनरेश मेहता की साहित्यिक संवेदना युग चेतना से संपृक्त है। इनका काव्य स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद का है। इनके साहित्यिक संवेदना युग का विशेष महत्त्व है। दो विश्व युद्धों के बाद समूची विश्व-जनता आतंकित वातावरण में जी रही थी। भारत को सन् 1947 में आजादी मिली। देश में इधर-उधर सांप्रदायिक दंगे भी फूट निकलते थे। आजादी के बाद की स्थिति आशंकापूर्ण तथा संकटग्रस्त रही। श्रीनरेश मेहता की काव्य-चेतना समसामयिक परिवेश के प्रति सजग दिखाई पड़ती है। समयानुरूप नवीनता और प्रयोगशीलता पर इन्होंने ध्यान दिया।
सामाजिक परिवेश की तरह श्रीनरेश मेहता का पारिवारिक परिवेश भी संघर्षपूर्ण था। डेढ़-दो वर्ष की उम्र में ही माँ का देहांत हो गया। इनके पिता ने तीन विवाह किए थे। नरेश तीसरी पत्नी के पुत्र थे। दूसरी माँ से इनकी एक बहन थी, किंतु उसकी भी अकाल मृत्यु हो गई। इस प्रकार स्त्रीहीन वातावरण में इन्हें बचपन से पलना पड़ा। दरअसल वो भी परोक्ष रूप से कवि की काव्य-प्रेरणा बन रहा था। इस पर कवि ने स्वयं कहा है – ‘आज कह सकता हूँ कि भले ही पारिवारिकता या लौकिक सुख और संबंध मैंने खोए हों लेकिन यदि ऐसा न हुआ होता तो मैं शायद लेखक नहीं बन पाता। नया कुछ भी करने के लिए पात्र या बर्तन को खाली करना होता है।
जैसे-जैसे मेरे व्यक्ति का पात्र खाली होता गया वैसे-वैसे नित नया जल भारत चला गया। नए के लिए प्राचीन को छोड़ना ही होता है। लेकिन यह भी सही है कि सृजनात्मक की दृष्टि से जितना प्राचीन आवश्यक होता है वह नित्य उपस्थित होता है।’ हालाँकि पाठक इनके व्यक्तित्व में आनन्द और दु:ख का मिला-जुला रूप पाते हैं। अधिकांश समय वे उदास रहते थे। यह इनकी साहित्य-सृजन की मानसिक पृष्ठभूमि हो सकती है। श्रीमती महिमा मेहता ने इस पर कहा है – ‘भीतर की इस आकुलता ने इन्हें वर्षों, रात में गहरी नींद सोने नहीं दिया, इसलिए अधिकांश कविताओं का सृजन आधी रात के बाद ही हुआ है...। इसे यों ही कहा जा सकता है कि काव्य-सृजन की पीड़ा गहरी और असहनीय होती है क्योंकि व्यवहार के स्तर पर इसमें भूले हो जाती हैं जबकि गद्य-सृजन की पीड़ा अपेक्षाकृत कम गहरी होती है
और नरेश जी कुछ नॉर्मल रहते हैं, पर चूँकि यह अधिकांश समय काव्य की मानसिकता में ही रहते हैं इसीलए भूलें ही अधिक करते हैं।’
बचपन से ही श्रीनरेश मेहता को काव्य में विशेष रुचि थी। वे काव्य-पाठ करते थे। सन् 1936 में इन्होंने कविता लिखना शुरू किया था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन करते समय श्री हरिमोहन मालवीय का प्रोत्साहन इन्हें प्राप्त होता रहता था। मेहता जी के शब्दों में – ‘मेरे चाचा मुझे अफसर बनाना चाहते थे, परन्तु लेखक बनना मेरी विवशता थी। मैंने सरकारी नौकरी की और कुछ समय सेना में भी रहा।
लेकिन सदैव अंदर से आवाज आती रही कि मुझे लेखक बनने के लिए जीवन मिला है।’ कवि युग-जीवन से प्रतिबद्ध है, वह यह नहीं मानता कि कल अच्छा था और कल सब अच्छा होगा। इनकी दृष्टि वर्तमान पर टिकी हुई है। अपने युग की प्रेरणा से लिखने पर साहित्य का लक्ष्य सफल होता है। अतीत को वर्तमान बनाना या उसमें मिला देना भारत की उस महान सांस्कृतिक विरासत का आदर करना ही है। साहित्य जीवन का ही पर्याय है। कवि उसका मुख्य सरोकार संस्कृति से मानते हैं। कोई भी रचनाकार युग की अवहेलना नहीं कर सकता। अपने युग को वाणी देकर ही वह अमर बन जाता है।
छायावाद में पुनर्जागरण की युग चेतना प्रस्फुटित हुई तो छायावादोत्तर युग में आधुनिक मानवीय दृष्टिकोण का स्वर प्रबल रहा। श्रीनरेश जी के विचार में आज का युग सृजनात्मकता के लिए उर्वर है, क्योंकि देश की विविधमुखी समस्याएँ ऐसी हैं जिसका हल खोजना आसान नहीं है। वे कहते हैं – ‘मुझे तो आज का युग सृजनात्मकता की दृष्टि से सबसे उर्वर लगता है।
इतने विरोधाभास, इतनी ज्वलंत समस्याएँ, कहा जा सकता है कि मनुष्यता पर ऐसा संकट महाभारत के बाद आज ही दिखाई दे रहा है कि लेखक का इनमें से गुजरना अग्नि-परीक्षा में से गुजरना है। जैसे महाभारत को कोई राजनीतिक समाधान संभव नहीं हो सका। आज की समस्याओं का समाधान भी सांस्कृतिक समन्वय में ही खोजा जाना चाहिए, क्योंकि मनुष्य मात्र एक-दूसरे से इसी ‘सांस्कृतिकता’ के कारण जुड़े हुए हैं।’
श्रीनरेश मेहता की साहित्य चेतना आर्ष संस्कृति से प्रेरित है। उनमें वैदिक और औपनिषदिक चेतना साकार हो उठी है। भारतीय चिंतन ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। इन्हें मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण रहा। गांधी जी के प्रति भक्ति एवं आदर की भावना इनमें विद्यमान थी। इनकी कृति ‘प्रार्थना पुरुष’ (1985) में कवि ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जीवनगाथा को इतिवृत्तात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। श्री अरविंद के चिंतन ने भी इन्हें प्रभावित किया। इनकी ‘दूसरी सप्तक’ की कविताओं में मानवतावादी चेतना एवं आस्था का स्वर मुखरित है
‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ऐसे अनंत सागर हैं जिनसे भारतीय रचनाकारों ने अपनी साहित्य-संपदा के मोती एकत्र कर लिए हैं। श्रीनरेश मेहता की रचनाओं में भी ऐसे कई प्रसंग आते हैं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की छोटी घटनाओं को मिथक के रूप में स्वीकार करते हुए आधुनिक युग की ज्वलंत समस्याओं की ओर कवि ने संकेत किया है। ‘संशय की एक रात’, ‘महाप्रस्थान’, ‘प्रवाद पर्व’, ‘शबरी’ आदि इसके उदाहरण हैं। इस प्रकार पौराणिक स्रोत्र की नवीन व्याख्या कवि ने की है।
अपनी सृजन-प्रक्रिया के विषय में कोई निश्चित प्रक्रिया कवि की नहीं है। रचना से पूर्व अस्पष्ट विचार ही मन में होते हैं। सृजन-काल तपस्या-काल होता है। सृजन का रहस्य कवि इस प्रकार बताते हैं – ‘सृजन-प्रक्रिया अत्यंत रहस्यात्मक होती है और उसके संबंध में कोई नियम अथवा पद्धति बनाकर सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है। वास्तव में लेखन मनुष्य की छठी इंद्रिय है। ईश्वर सभी को यह इंद्रिय प्रदान करता है, परंतु लेखक इसे जागृत कर लेता है। मैंने इसकी प्रतीति कब और कैसे की, कुछ कह नहीं सकता। रचना की प्रेरणा का कोई निश्चित स्रोत्र नहीं है,
किसी स्थान पर जाने, किसी का हाथ देखने, घर की स्त्री के चलते समय उसके पैर देखने आदि किसी भी छोटी-सी घटना अथवा स्थिति से रचना का जन्म हो सकता है। ‘एक आदमी संघर्ष करता है’ – केवल इस विचार से ‘यह पथ बंधु था’ उपन्यास का जन्म हुआ...। रचना का सृजन-काल घोर तपस्या का काल है, जिसमें आनंद भी आता है और बैचेनी एवं तपस्या की एकाग्रता के कारण मन उनसे बचना चाहता है। जब भी मैं चारों ओर से घिर जाता हूँ और लिखने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होता, तब मुझमें लिखने का साहस उत्पन्न होता है।’
श्रीनरेश मेहता के अनुसार काव्य का कोई कर्त्ता नहीं है, काव्य स्वयं आत्मकर्ता है। कवि की भूमिका सिर्फ प्रस्तोता की है। कवि नहीं, मनीषी व्यक्तित्व का चैत्य-पुरुष उस काव्य-साक्षात् का दृष्टा होता है। कवि-व्यक्तित्व अनभिव्यक्त करता है। इनके मत में – ‘लग्न में जिस प्रकार ‘मिथुन’ और राशियों में जिस प्रकार ‘कन्या’ है, प्रतीति और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वही स्थिति काव्य की है। कहा जा सकता है
कि सृष्टि, सृष्टि का कारण और सृष्टि की क्रिया का यदि कोई नाम संभव है तो वह ‘काव्य’ ही हो सकता है। काव्य ‘पुरुष’ की विराटतम अखंड महासत्ता और ‘प्रकृति’ की आणविक नगण्य संज्ञा तक में चेतना, शक्ति और स्थिति की समरसता का छंदगान करता दिखाई देता है। देश और काल दोनों के सामंजस्य स्वरूप का नाम काव्य है। आकाशी सूर्य और धरती के सूर्यवंशी राम दोनों के लिए काव्य के पास मंत्र और छंद हैं।
यह समरसता ही काव्य की इष्ट आत्मा है तथा अभिव्यक्ति का अयन भी।’ प्रज्ञा के असामान्य अनुभव को काव्य बनाना ही कवि का काम है - ‘प्रज्ञा साक्षात् ऋषि का सृष्टा रूप है जो सामान्य अनुभव से परे है। लेकिन इसी को सर्वसुलभ बनाने का काम कवि का है। इसलिए इसे सृष्टा कहा गया है। तत्त्वों की वर्णमाला है जो दूर्वा से लेकर दूरातिदूर ज्योतिष-पिंड़ों को अविलंब रच रही है। इस परात्परता को भावजगत् में काव्य ही उतारता है। पराविद्यावली इस वर्णमाला का दृष्टा ऋषि है परंतु उसे अभिव्यक्ति का व्याकरण सम्मत वर्णमाला का भाषा रूप तो कवि ही सिरजता है।’
श्रीनरेश मेहता के अनुसार सृजनात्मक अस्मिता का नाम कवि है। काव्य समस्त जैविकता का संस्कार करता है। जीवन का प्रयोजन ही काव्य है। इनका काव्य-दर्शन इस प्रकार है – ‘असुरत्व से सुरत्व की ओर जाने का नाम ही वास्तविक काव्यात्मकता है। उपनिषद इसे ही ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहते हैं। यह वैदिक दिव्य काव्यात्मकता किसी चमत्कारी दुरूह साधना का नाम ही है। एक आवाहन-भाव जगने देना है। हमारे शब्द ही उस सत्य, प्रकाश और अमरत्व को ऋतु-रूप में प्रस्थापित करेंगे। हमें केवल अपने स्वत्व की वेदिका को इस सामरस्य मूर्ति-प्रतिष्ठा के योग्य जाग्रत करना होगा – यही काव्यात्मकता है।’
श्रीनरेश मेहता ने केवल काव्य की ही रचना नहीं की, इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रावृत्त, निबंध आदि की रचना की। इनके उपन्यास यातनाग्रस्त मनुष्यता, विशेषत: यातनाग्रस्त नारी के प्रति गहरी मानवीय चिंता को प्रकट करने वाले हैं। ‘डूबते मस्तूल’ में रंजना नामक आधुनिक वर्गीय स्त्री की त्रासदी नियति का चित्रण है, जिसके जीवन में कई पुरुष आते हैं। लेकिन उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो उसकी आत्मा के सौंदर्य को समझ सके। अंतत: वह आत्महत्या करती है। ‘यह पथ बंधु था’ श्रीधर (पति) और सरो (पत्नी) के जीवन पर केंद्रित उपन्यास है। स्वाधीनता-संघर्ष के आदर्श और मूल्य अपना अर्थ खो चुके हैं।
इस दु:खद निराशापूर्ण यथार्थ के साथ समूचा जीवन व्यर्थ हो चला है। श्रीधर और सरो की त्रासदी को साधारण जीवन-मूल्यों की त्रासदी के रूप में देखा गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘उत्तर कथा’ आरंभिक 20 वीं शताब्दी के मालवा के कुछ ब्राह्मण परिवार की कथा पर केंद्रित है। श्रीनरेश मेहता के इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में वसुंधरा, दुर्गा और गायत्री जैसी स्त्रियों के चरित्र, पीड़ा और यातना के विशद अनुभवों के साथ अंकित हैं।
श्रीनरेश जी की जो काव्य-चेतना थी, इनमें एक समूचा भाषा-भूगोल कविता से उभरा था, उसके अनेक कटिबंध उनके गद्य में पाए जाते हैं। इनके निबंध गत तीन पीढ़ियों की सृजन परिमार्जन और परिवर्तन की महाभूतियों के अन्वेषण हैं। वे अपने गल्पात्मक जिज्ञासाएँ हैं, ऐतिहासिक दृष्टियाँ और संस्मरणात्मक ताजगी है। वे अपने निबंध में सचमुच ही ‘निबंध’ होते हैं। उनकी सांस्कृतिक मनीषा तक भी उनके निजत्व के शिल्प में समा जाती है।
निबंध उनके प्रज्ञा प्रखर होने तक सीमित न रहकर विचार प्रखर, अनुभवगम्य और स्मृतियों के पुरातत्त्व हैं। श्रीनरेश जी की मृत्यु के उपरांत ‘माध्यम’ पत्रिका में प्रकाशित व्याख्यान, ज्ञानपीठ सम्मान के पश्चात् भारत-भवन में प्रस्तुत उनकी निबंध-श्रृंखला और यदा-कदा लिखे गए उनके विषयबद्ध आलेख या व्याख्यान इस बात का प्रमाण हैं कि एक कवि गद्य में अपने सारे सीमांत किस प्रकार खंडित करता है; वह कविता के राग-विराग से मुक्त हो गद्य की गूढ़ता से कैसे लोहा लेता है। कुछ समकालीन मेहता जी के समूचे सृजन पर चर्चा करते-करते एक सत्य तो यह उगल ही देते हैं
कि श्रीनरेश जी के समूचे सृजन पर चर्चा करते-करते एक सत्य तो यह उगल ही देते हैं कि श्रीनरेश जी का गद्यकार उनके कवि की अपेक्षा अधिक प्रगाढ़, प्रबुद्ध और प्रखर है। श्रीनरेश मेहता का कथा-गद्य, जैनेंद्र और अज्ञेय की परंपरा में रखकर देखा जाए तो समाज और अध्यात्म, राष्ट्र और राजनीति, जीवन और दर्शन से संपृक्त गद्य है। वे न तो जैनेंद्र का प्रतिबिंब बने और न ही अज्ञेय की छाया। उन्होंने सर्वथा स्वायत्त और स्वाधीन कथा साहित्य लिखा जिसमें काव्यात्मक रस भी है और जिसका आस्वाद हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक भाव-बोधों को प्रगल्भ भी बनाता है। श्री मेहता जी की भाव-दृष्टि, अंर्तदृष्टि और जीवन-दृष्टि उनके कथा-गद्य में जिस प्रकार प्रकट हुई है,
उससे लगता है कि श्रीनरेश जी ने कोई कथा-भाषा रचकर हिन्दी को एक सांस्कृतिक शक्ति का लोक संस्करण सौंपा है। भाषा अपनी सर्जनात्मक शक्ति में जब सार्थक होती है तो वह स्वयं ही समाज और संस्कृति को अपने में समा लेती है। श्रीनरेश जी ने अपने कथा-शिल्प से भाषा की संभावनाओं को विराट बनाया गद्य की एक नई शैली विकसित की और यह सिद्ध किया कि एक जीवंत भाषा या सजीव भाषा किस प्रकार अपनी सांस्कृतिकता और आंचलिक नास्टिलजिया को एक साथ एकाकार कर सकती है। श्रीनरेश जी का समूचा गद्य साहित्य और विशेष रूप से कथा साहित्य अपने ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों ही परिप्रेक्ष्यों में गहन शोध और विमर्श की माँग करता है।
एक कवि और सर्जक को मात्र ‘वैष्णव’ कहकर ब्रांड नाम से सज्जित कर देना पर्याप्त नहीं बल्कि उनकी वैष्णवता के पीड़ालोक को किसी गाँधी की तरह बाहर निकाल नरसिंह मेहता के गीत ‘वैष्णव जन...’ की तरह लोकव्यापी बनाना होगा। श्रीनरेश मेहता जैसा सृजक अतीत की इतिहास-वस्तु बनकर, वर्तमान की संज्ञा से अलग नहीं किया जा सकता और इसीलिए उनकी सर्जन-यात्रा की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हिंदी मानस उनमें निहित सारी संभावनाओं को समय, स्मृति और अवकाश तीनों में रख कर एक ऐसे श्रीनरेश मेहता का अन्वेषण करे जो हिन्दी साहित्य की चेतना का नरेश हो, सृजन की उत्कृष्टता का प्रतिमान हो और अपनी सांस्कृतिक सामाजिकता का अद्वितीय उदाहरण हो।
‘तथापि’, ‘एक समर्पित महिला’ और ‘जलसाघर’ संग्रहों की कहानियों में श्रीनरेश मेहता मानव-संबंधों के चित्रण के लिए अपनी कवि-दृष्टि का उपयोग करते हैं। ये कहानियाँ अद्यतन मानी गई थीं। मार्कंडेय ने इन कहानियों में ‘कवि-उपन्यासकार’ श्रीनरेश मेहता की ‘सर्वोत्तम उपस्थिति’ पाई थी। इन कहानियों में नवीन भावबोध, नई चेतना, सूक्ष्मता, गहराई, बिंब और प्रतीक योजना तथा कथा-कथन की चारुता है। ये कहानियाँ न सिर्फ अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हैं, बल्कि आने वाले समय की निधि बनी रहने की क्षमता भी रखती हैं।
परंतु लगता है, श्रीनरेश मेहता अपनी कहानियों से स्वयं असंतुष्ट थे। अमर गोस्वामी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि - ‘कहानियाँ मैंने कम लिखी हैं, क्योंकि मुझसे सच ही कहानियाँ बनती नहीं है। तुम तो जानते हो कि कुछ कहानियाँ तुम्हीं ने डरा-धमकाकर लिखाई हैं और बाकी भी ऐसी ही धसपट में लिखी गयीं।’
श्रीनरेश जी की कहानियों के साथ भी अजब हादसे हुए ! कोई कहानी स्वीकृत हुई तो पत्रिका के दफ्तर पर छापा पड़ गया, कुछ पत्रिकाएँ बंद हो गई। कहानी तो मेहता जी ने लिखीं परन्तु कुछ कहानियों को बाँग्ला का अनुवाद समझा गया और बाँग्ला शीर्षक होने के कारण वे प्रकाशित न हो पाई। कई कहानियाँ प्रकाशित भी हुईं परंतु उनकी पांडुलिपि स्वयं मेहता जी के पास भी नहीं थी। उनकी सभी कहानियों को प्राप्त करने के लिए काफी खोजबीन की गई,
परंतु वे सभी प्राप्त न हो सकीं। इस विषय में मेहता जी के परिवारजनों, मित्रों से भी संपर्क किया परंतु उन सबको पाना टेढ़ी खीर के अलावा कुछ नहीं था और अंत में केवल निराशा ही हाथ लगी। श्रीनरेश मेहता की समग्र कहानियों के रूप में यह संग्रह अब आपके हाथों में है। जितना मेरी सीमाओं के अनुरूप था उतना मैं एकत्र कर पाया। अपनी ओर से तो यही प्रयास रहा कि सब कुछ एक साथ आ जाए लेकिन जो अनुपलब्ध है उसके लिए क्या किया जा सकता है। श्रीनरेश मेहता जी के इस कहानी-संग्रह पर सुधी पाठक व विद्वत्जनों की प्रतिक्रिया जानकर प्रसन्नता होगी।
कि सृजनात्मकताओं की सीमाओं के प्रति शब्द के व्यवहार, प्रकृति और कॉस्मिक यथार्थ के प्रति इनका अपना दृष्टिकोण है। इन समकालीनता इन्हीं के शब्दों में, अपने रूप, रंग और गंध में प्रकृति के रहस्यों से वंचित नहीं है। भावात्मक संवेदना इनकी सृजनात्मकता का मूल तत्त्व है। श्रीनरेश मेहता की जीवन-भर हताश और कुठित करनेवाली परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा। इन्होंने 1942 के स्वाधीनता आंदोलन और छात्र आंदोलन में हिस्सा लिया। कुछ वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी का काम किया और उसकी ट्रेड यूनियन के लिए एक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन किया। थोड़े समय के लिए आकाशवाणी से संबद्ध रहने के बाद प्राय: पूर्णकालिक लेखक रहे।
हिन्दी साहित्य जगत में श्रीनरेश मेहता (1922-2000) का पदार्पण प्रयोगवाद के आगमन के साथ हुआ था। यद्यपि इन्होंने 1936 से ही कविता-लेखन प्रारंभ कर दिया था परंतु ‘दूसरा सप्तक’ (1951) के प्रकाशन से ही इनकी रचनाएँ पाठकों के सामने आती हैं। कह सकते हैं कि तब तक ये अनाम अवस्था में थे। वास्तव में अज्ञेय ही इनके काव्य-यश के कारण बने।
श्रीनरेश मेहता की इस अनाम अवस्था ने ही इन्हें लिखने की प्रेरणा दी थी। इसके बारे में ‘दूसरा सप्तक’ में ये स्वयं बताते हैं कि ‘केवल यही कि अभी तक अनाम रहा हूँ और सन् 36 से लेकर 50 तक बराबर लिखता रहा हूँ। वर्षा ऋतु की धूप की तरह मेरी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं।
मैं खुद अनुभव करता हूँ कि इतना कम प्रकाशन मेरे लिए अधिक हानिकर हुआ है। किन्तु इस प्रकार की अनाम अवस्था ने ही मुझे लोहे की-सी प्रेरणा भी दी है।’
इन्होंने 1936 में कविता लिखना प्रारंभ किया, जो ‘प्रगतिशील लेखक आंदोलन’ के गठन से संबद्ध महत्त्वपूर्ण तिथि भी है। हिंदी में अपने ढंग की पहली लंबी कविता ‘समय देवता’ समूची मानवस्थिति, सार्वभौम यथार्थ और साम्राज्यवाद के प्रति श्रीनरेश मेहता की दृढ़ तात्कालिक प्रतिक्रिया को दिखाती है। जब वह ऐसी गहरी राजनीतिक कविता लिख रहे थे, तभी ‘उषस’ जैसी अन्य कविताएँ भी लिख रहे थे, जो आज के पाठकों को श्रीनरेश मेहता के सृजनात्मक अनुभव के दो पक्षों में संबंध खोजने के लिए आमंत्रित करती हैं।
‘संशय की एक रात’ और ‘महाप्रस्थान’ जैसी लंबी कविताओं के जरिए श्रीनरेश मेहता ने इस भ्रम का खंडन किया कि समकालीन कविता प्रबंध काव्य या महाकाव्य के रूप में असंभव है। इनकी काव्य-भाषा में प्रकृति के उत्सुक ऐंद्रिक लगाव है। प्रचलित साहित्य रुझानों से एक तरह की दूरी ने इनकी काव्य-शैली और संरचना की विशिष्टता को पुष्ट करने में विशेष सहयोग दिया है।
श्रीनरेश मेहता की साहित्यिक संवेदना युग चेतना से संपृक्त है। इनका काव्य स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद का है। इनके साहित्यिक संवेदना युग का विशेष महत्त्व है। दो विश्व युद्धों के बाद समूची विश्व-जनता आतंकित वातावरण में जी रही थी। भारत को सन् 1947 में आजादी मिली। देश में इधर-उधर सांप्रदायिक दंगे भी फूट निकलते थे। आजादी के बाद की स्थिति आशंकापूर्ण तथा संकटग्रस्त रही। श्रीनरेश मेहता की काव्य-चेतना समसामयिक परिवेश के प्रति सजग दिखाई पड़ती है। समयानुरूप नवीनता और प्रयोगशीलता पर इन्होंने ध्यान दिया।
सामाजिक परिवेश की तरह श्रीनरेश मेहता का पारिवारिक परिवेश भी संघर्षपूर्ण था। डेढ़-दो वर्ष की उम्र में ही माँ का देहांत हो गया। इनके पिता ने तीन विवाह किए थे। नरेश तीसरी पत्नी के पुत्र थे। दूसरी माँ से इनकी एक बहन थी, किंतु उसकी भी अकाल मृत्यु हो गई। इस प्रकार स्त्रीहीन वातावरण में इन्हें बचपन से पलना पड़ा। दरअसल वो भी परोक्ष रूप से कवि की काव्य-प्रेरणा बन रहा था। इस पर कवि ने स्वयं कहा है – ‘आज कह सकता हूँ कि भले ही पारिवारिकता या लौकिक सुख और संबंध मैंने खोए हों लेकिन यदि ऐसा न हुआ होता तो मैं शायद लेखक नहीं बन पाता। नया कुछ भी करने के लिए पात्र या बर्तन को खाली करना होता है।
जैसे-जैसे मेरे व्यक्ति का पात्र खाली होता गया वैसे-वैसे नित नया जल भारत चला गया। नए के लिए प्राचीन को छोड़ना ही होता है। लेकिन यह भी सही है कि सृजनात्मक की दृष्टि से जितना प्राचीन आवश्यक होता है वह नित्य उपस्थित होता है।’ हालाँकि पाठक इनके व्यक्तित्व में आनन्द और दु:ख का मिला-जुला रूप पाते हैं। अधिकांश समय वे उदास रहते थे। यह इनकी साहित्य-सृजन की मानसिक पृष्ठभूमि हो सकती है। श्रीमती महिमा मेहता ने इस पर कहा है – ‘भीतर की इस आकुलता ने इन्हें वर्षों, रात में गहरी नींद सोने नहीं दिया, इसलिए अधिकांश कविताओं का सृजन आधी रात के बाद ही हुआ है...। इसे यों ही कहा जा सकता है कि काव्य-सृजन की पीड़ा गहरी और असहनीय होती है क्योंकि व्यवहार के स्तर पर इसमें भूले हो जाती हैं जबकि गद्य-सृजन की पीड़ा अपेक्षाकृत कम गहरी होती है
और नरेश जी कुछ नॉर्मल रहते हैं, पर चूँकि यह अधिकांश समय काव्य की मानसिकता में ही रहते हैं इसीलए भूलें ही अधिक करते हैं।’
बचपन से ही श्रीनरेश मेहता को काव्य में विशेष रुचि थी। वे काव्य-पाठ करते थे। सन् 1936 में इन्होंने कविता लिखना शुरू किया था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन करते समय श्री हरिमोहन मालवीय का प्रोत्साहन इन्हें प्राप्त होता रहता था। मेहता जी के शब्दों में – ‘मेरे चाचा मुझे अफसर बनाना चाहते थे, परन्तु लेखक बनना मेरी विवशता थी। मैंने सरकारी नौकरी की और कुछ समय सेना में भी रहा।
लेकिन सदैव अंदर से आवाज आती रही कि मुझे लेखक बनने के लिए जीवन मिला है।’ कवि युग-जीवन से प्रतिबद्ध है, वह यह नहीं मानता कि कल अच्छा था और कल सब अच्छा होगा। इनकी दृष्टि वर्तमान पर टिकी हुई है। अपने युग की प्रेरणा से लिखने पर साहित्य का लक्ष्य सफल होता है। अतीत को वर्तमान बनाना या उसमें मिला देना भारत की उस महान सांस्कृतिक विरासत का आदर करना ही है। साहित्य जीवन का ही पर्याय है। कवि उसका मुख्य सरोकार संस्कृति से मानते हैं। कोई भी रचनाकार युग की अवहेलना नहीं कर सकता। अपने युग को वाणी देकर ही वह अमर बन जाता है।
छायावाद में पुनर्जागरण की युग चेतना प्रस्फुटित हुई तो छायावादोत्तर युग में आधुनिक मानवीय दृष्टिकोण का स्वर प्रबल रहा। श्रीनरेश जी के विचार में आज का युग सृजनात्मकता के लिए उर्वर है, क्योंकि देश की विविधमुखी समस्याएँ ऐसी हैं जिसका हल खोजना आसान नहीं है। वे कहते हैं – ‘मुझे तो आज का युग सृजनात्मकता की दृष्टि से सबसे उर्वर लगता है।
इतने विरोधाभास, इतनी ज्वलंत समस्याएँ, कहा जा सकता है कि मनुष्यता पर ऐसा संकट महाभारत के बाद आज ही दिखाई दे रहा है कि लेखक का इनमें से गुजरना अग्नि-परीक्षा में से गुजरना है। जैसे महाभारत को कोई राजनीतिक समाधान संभव नहीं हो सका। आज की समस्याओं का समाधान भी सांस्कृतिक समन्वय में ही खोजा जाना चाहिए, क्योंकि मनुष्य मात्र एक-दूसरे से इसी ‘सांस्कृतिकता’ के कारण जुड़े हुए हैं।’
श्रीनरेश मेहता की साहित्य चेतना आर्ष संस्कृति से प्रेरित है। उनमें वैदिक और औपनिषदिक चेतना साकार हो उठी है। भारतीय चिंतन ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। इन्हें मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण रहा। गांधी जी के प्रति भक्ति एवं आदर की भावना इनमें विद्यमान थी। इनकी कृति ‘प्रार्थना पुरुष’ (1985) में कवि ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जीवनगाथा को इतिवृत्तात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। श्री अरविंद के चिंतन ने भी इन्हें प्रभावित किया। इनकी ‘दूसरी सप्तक’ की कविताओं में मानवतावादी चेतना एवं आस्था का स्वर मुखरित है
‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ऐसे अनंत सागर हैं जिनसे भारतीय रचनाकारों ने अपनी साहित्य-संपदा के मोती एकत्र कर लिए हैं। श्रीनरेश मेहता की रचनाओं में भी ऐसे कई प्रसंग आते हैं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की छोटी घटनाओं को मिथक के रूप में स्वीकार करते हुए आधुनिक युग की ज्वलंत समस्याओं की ओर कवि ने संकेत किया है। ‘संशय की एक रात’, ‘महाप्रस्थान’, ‘प्रवाद पर्व’, ‘शबरी’ आदि इसके उदाहरण हैं। इस प्रकार पौराणिक स्रोत्र की नवीन व्याख्या कवि ने की है।
अपनी सृजन-प्रक्रिया के विषय में कोई निश्चित प्रक्रिया कवि की नहीं है। रचना से पूर्व अस्पष्ट विचार ही मन में होते हैं। सृजन-काल तपस्या-काल होता है। सृजन का रहस्य कवि इस प्रकार बताते हैं – ‘सृजन-प्रक्रिया अत्यंत रहस्यात्मक होती है और उसके संबंध में कोई नियम अथवा पद्धति बनाकर सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है। वास्तव में लेखन मनुष्य की छठी इंद्रिय है। ईश्वर सभी को यह इंद्रिय प्रदान करता है, परंतु लेखक इसे जागृत कर लेता है। मैंने इसकी प्रतीति कब और कैसे की, कुछ कह नहीं सकता। रचना की प्रेरणा का कोई निश्चित स्रोत्र नहीं है,
किसी स्थान पर जाने, किसी का हाथ देखने, घर की स्त्री के चलते समय उसके पैर देखने आदि किसी भी छोटी-सी घटना अथवा स्थिति से रचना का जन्म हो सकता है। ‘एक आदमी संघर्ष करता है’ – केवल इस विचार से ‘यह पथ बंधु था’ उपन्यास का जन्म हुआ...। रचना का सृजन-काल घोर तपस्या का काल है, जिसमें आनंद भी आता है और बैचेनी एवं तपस्या की एकाग्रता के कारण मन उनसे बचना चाहता है। जब भी मैं चारों ओर से घिर जाता हूँ और लिखने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होता, तब मुझमें लिखने का साहस उत्पन्न होता है।’
श्रीनरेश मेहता के अनुसार काव्य का कोई कर्त्ता नहीं है, काव्य स्वयं आत्मकर्ता है। कवि की भूमिका सिर्फ प्रस्तोता की है। कवि नहीं, मनीषी व्यक्तित्व का चैत्य-पुरुष उस काव्य-साक्षात् का दृष्टा होता है। कवि-व्यक्तित्व अनभिव्यक्त करता है। इनके मत में – ‘लग्न में जिस प्रकार ‘मिथुन’ और राशियों में जिस प्रकार ‘कन्या’ है, प्रतीति और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वही स्थिति काव्य की है। कहा जा सकता है
कि सृष्टि, सृष्टि का कारण और सृष्टि की क्रिया का यदि कोई नाम संभव है तो वह ‘काव्य’ ही हो सकता है। काव्य ‘पुरुष’ की विराटतम अखंड महासत्ता और ‘प्रकृति’ की आणविक नगण्य संज्ञा तक में चेतना, शक्ति और स्थिति की समरसता का छंदगान करता दिखाई देता है। देश और काल दोनों के सामंजस्य स्वरूप का नाम काव्य है। आकाशी सूर्य और धरती के सूर्यवंशी राम दोनों के लिए काव्य के पास मंत्र और छंद हैं।
यह समरसता ही काव्य की इष्ट आत्मा है तथा अभिव्यक्ति का अयन भी।’ प्रज्ञा के असामान्य अनुभव को काव्य बनाना ही कवि का काम है - ‘प्रज्ञा साक्षात् ऋषि का सृष्टा रूप है जो सामान्य अनुभव से परे है। लेकिन इसी को सर्वसुलभ बनाने का काम कवि का है। इसलिए इसे सृष्टा कहा गया है। तत्त्वों की वर्णमाला है जो दूर्वा से लेकर दूरातिदूर ज्योतिष-पिंड़ों को अविलंब रच रही है। इस परात्परता को भावजगत् में काव्य ही उतारता है। पराविद्यावली इस वर्णमाला का दृष्टा ऋषि है परंतु उसे अभिव्यक्ति का व्याकरण सम्मत वर्णमाला का भाषा रूप तो कवि ही सिरजता है।’
श्रीनरेश मेहता के अनुसार सृजनात्मक अस्मिता का नाम कवि है। काव्य समस्त जैविकता का संस्कार करता है। जीवन का प्रयोजन ही काव्य है। इनका काव्य-दर्शन इस प्रकार है – ‘असुरत्व से सुरत्व की ओर जाने का नाम ही वास्तविक काव्यात्मकता है। उपनिषद इसे ही ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहते हैं। यह वैदिक दिव्य काव्यात्मकता किसी चमत्कारी दुरूह साधना का नाम ही है। एक आवाहन-भाव जगने देना है। हमारे शब्द ही उस सत्य, प्रकाश और अमरत्व को ऋतु-रूप में प्रस्थापित करेंगे। हमें केवल अपने स्वत्व की वेदिका को इस सामरस्य मूर्ति-प्रतिष्ठा के योग्य जाग्रत करना होगा – यही काव्यात्मकता है।’
श्रीनरेश मेहता ने केवल काव्य की ही रचना नहीं की, इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रावृत्त, निबंध आदि की रचना की। इनके उपन्यास यातनाग्रस्त मनुष्यता, विशेषत: यातनाग्रस्त नारी के प्रति गहरी मानवीय चिंता को प्रकट करने वाले हैं। ‘डूबते मस्तूल’ में रंजना नामक आधुनिक वर्गीय स्त्री की त्रासदी नियति का चित्रण है, जिसके जीवन में कई पुरुष आते हैं। लेकिन उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो उसकी आत्मा के सौंदर्य को समझ सके। अंतत: वह आत्महत्या करती है। ‘यह पथ बंधु था’ श्रीधर (पति) और सरो (पत्नी) के जीवन पर केंद्रित उपन्यास है। स्वाधीनता-संघर्ष के आदर्श और मूल्य अपना अर्थ खो चुके हैं।
इस दु:खद निराशापूर्ण यथार्थ के साथ समूचा जीवन व्यर्थ हो चला है। श्रीधर और सरो की त्रासदी को साधारण जीवन-मूल्यों की त्रासदी के रूप में देखा गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘उत्तर कथा’ आरंभिक 20 वीं शताब्दी के मालवा के कुछ ब्राह्मण परिवार की कथा पर केंद्रित है। श्रीनरेश मेहता के इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में वसुंधरा, दुर्गा और गायत्री जैसी स्त्रियों के चरित्र, पीड़ा और यातना के विशद अनुभवों के साथ अंकित हैं।
श्रीनरेश जी की जो काव्य-चेतना थी, इनमें एक समूचा भाषा-भूगोल कविता से उभरा था, उसके अनेक कटिबंध उनके गद्य में पाए जाते हैं। इनके निबंध गत तीन पीढ़ियों की सृजन परिमार्जन और परिवर्तन की महाभूतियों के अन्वेषण हैं। वे अपने गल्पात्मक जिज्ञासाएँ हैं, ऐतिहासिक दृष्टियाँ और संस्मरणात्मक ताजगी है। वे अपने निबंध में सचमुच ही ‘निबंध’ होते हैं। उनकी सांस्कृतिक मनीषा तक भी उनके निजत्व के शिल्प में समा जाती है।
निबंध उनके प्रज्ञा प्रखर होने तक सीमित न रहकर विचार प्रखर, अनुभवगम्य और स्मृतियों के पुरातत्त्व हैं। श्रीनरेश जी की मृत्यु के उपरांत ‘माध्यम’ पत्रिका में प्रकाशित व्याख्यान, ज्ञानपीठ सम्मान के पश्चात् भारत-भवन में प्रस्तुत उनकी निबंध-श्रृंखला और यदा-कदा लिखे गए उनके विषयबद्ध आलेख या व्याख्यान इस बात का प्रमाण हैं कि एक कवि गद्य में अपने सारे सीमांत किस प्रकार खंडित करता है; वह कविता के राग-विराग से मुक्त हो गद्य की गूढ़ता से कैसे लोहा लेता है। कुछ समकालीन मेहता जी के समूचे सृजन पर चर्चा करते-करते एक सत्य तो यह उगल ही देते हैं
कि श्रीनरेश जी के समूचे सृजन पर चर्चा करते-करते एक सत्य तो यह उगल ही देते हैं कि श्रीनरेश जी का गद्यकार उनके कवि की अपेक्षा अधिक प्रगाढ़, प्रबुद्ध और प्रखर है। श्रीनरेश मेहता का कथा-गद्य, जैनेंद्र और अज्ञेय की परंपरा में रखकर देखा जाए तो समाज और अध्यात्म, राष्ट्र और राजनीति, जीवन और दर्शन से संपृक्त गद्य है। वे न तो जैनेंद्र का प्रतिबिंब बने और न ही अज्ञेय की छाया। उन्होंने सर्वथा स्वायत्त और स्वाधीन कथा साहित्य लिखा जिसमें काव्यात्मक रस भी है और जिसका आस्वाद हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक भाव-बोधों को प्रगल्भ भी बनाता है। श्री मेहता जी की भाव-दृष्टि, अंर्तदृष्टि और जीवन-दृष्टि उनके कथा-गद्य में जिस प्रकार प्रकट हुई है,
उससे लगता है कि श्रीनरेश जी ने कोई कथा-भाषा रचकर हिन्दी को एक सांस्कृतिक शक्ति का लोक संस्करण सौंपा है। भाषा अपनी सर्जनात्मक शक्ति में जब सार्थक होती है तो वह स्वयं ही समाज और संस्कृति को अपने में समा लेती है। श्रीनरेश जी ने अपने कथा-शिल्प से भाषा की संभावनाओं को विराट बनाया गद्य की एक नई शैली विकसित की और यह सिद्ध किया कि एक जीवंत भाषा या सजीव भाषा किस प्रकार अपनी सांस्कृतिकता और आंचलिक नास्टिलजिया को एक साथ एकाकार कर सकती है। श्रीनरेश जी का समूचा गद्य साहित्य और विशेष रूप से कथा साहित्य अपने ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों ही परिप्रेक्ष्यों में गहन शोध और विमर्श की माँग करता है।
एक कवि और सर्जक को मात्र ‘वैष्णव’ कहकर ब्रांड नाम से सज्जित कर देना पर्याप्त नहीं बल्कि उनकी वैष्णवता के पीड़ालोक को किसी गाँधी की तरह बाहर निकाल नरसिंह मेहता के गीत ‘वैष्णव जन...’ की तरह लोकव्यापी बनाना होगा। श्रीनरेश मेहता जैसा सृजक अतीत की इतिहास-वस्तु बनकर, वर्तमान की संज्ञा से अलग नहीं किया जा सकता और इसीलिए उनकी सर्जन-यात्रा की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हिंदी मानस उनमें निहित सारी संभावनाओं को समय, स्मृति और अवकाश तीनों में रख कर एक ऐसे श्रीनरेश मेहता का अन्वेषण करे जो हिन्दी साहित्य की चेतना का नरेश हो, सृजन की उत्कृष्टता का प्रतिमान हो और अपनी सांस्कृतिक सामाजिकता का अद्वितीय उदाहरण हो।
‘तथापि’, ‘एक समर्पित महिला’ और ‘जलसाघर’ संग्रहों की कहानियों में श्रीनरेश मेहता मानव-संबंधों के चित्रण के लिए अपनी कवि-दृष्टि का उपयोग करते हैं। ये कहानियाँ अद्यतन मानी गई थीं। मार्कंडेय ने इन कहानियों में ‘कवि-उपन्यासकार’ श्रीनरेश मेहता की ‘सर्वोत्तम उपस्थिति’ पाई थी। इन कहानियों में नवीन भावबोध, नई चेतना, सूक्ष्मता, गहराई, बिंब और प्रतीक योजना तथा कथा-कथन की चारुता है। ये कहानियाँ न सिर्फ अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हैं, बल्कि आने वाले समय की निधि बनी रहने की क्षमता भी रखती हैं।
परंतु लगता है, श्रीनरेश मेहता अपनी कहानियों से स्वयं असंतुष्ट थे। अमर गोस्वामी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि - ‘कहानियाँ मैंने कम लिखी हैं, क्योंकि मुझसे सच ही कहानियाँ बनती नहीं है। तुम तो जानते हो कि कुछ कहानियाँ तुम्हीं ने डरा-धमकाकर लिखाई हैं और बाकी भी ऐसी ही धसपट में लिखी गयीं।’
श्रीनरेश जी की कहानियों के साथ भी अजब हादसे हुए ! कोई कहानी स्वीकृत हुई तो पत्रिका के दफ्तर पर छापा पड़ गया, कुछ पत्रिकाएँ बंद हो गई। कहानी तो मेहता जी ने लिखीं परन्तु कुछ कहानियों को बाँग्ला का अनुवाद समझा गया और बाँग्ला शीर्षक होने के कारण वे प्रकाशित न हो पाई। कई कहानियाँ प्रकाशित भी हुईं परंतु उनकी पांडुलिपि स्वयं मेहता जी के पास भी नहीं थी। उनकी सभी कहानियों को प्राप्त करने के लिए काफी खोजबीन की गई,
परंतु वे सभी प्राप्त न हो सकीं। इस विषय में मेहता जी के परिवारजनों, मित्रों से भी संपर्क किया परंतु उन सबको पाना टेढ़ी खीर के अलावा कुछ नहीं था और अंत में केवल निराशा ही हाथ लगी। श्रीनरेश मेहता की समग्र कहानियों के रूप में यह संग्रह अब आपके हाथों में है। जितना मेरी सीमाओं के अनुरूप था उतना मैं एकत्र कर पाया। अपनी ओर से तो यही प्रयास रहा कि सब कुछ एक साथ आ जाए लेकिन जो अनुपलब्ध है उसके लिए क्या किया जा सकता है। श्रीनरेश मेहता जी के इस कहानी-संग्रह पर सुधी पाठक व विद्वत्जनों की प्रतिक्रिया जानकर प्रसन्नता होगी।
एच-3/72, विकास पुरी
,
नई दिल्ली- 110018
नई दिल्ली- 110018
-अनिल कुमार
चाँदनी
महीनों बाद चाँदनी का पत्र आया कलकत्ते से – खूब ही वर्षा है
यहाँ
और वर्षाश्री भी। पूजा तक रुकेगी। कल पड़ोस में कोई संगीत-गोष्ठी थी, किसी
प्रत्यूष गोस्वामी ने बड़ी अच्छी सितार बजाई थी।
बस, यह पत्र है। तब विज्ञप्तियाँ किसे कहा जाएगा ? और मजा यह कि यह पत्र भी पूरे दो माह बाद कलकत्ते से नहीं, दार्जिलिंग जाने की सूचना के साथ सिलिगुड़ी से डाला गया था। चाँदनी कहा करती है कि मैं उसके पत्रों के उत्तर नहीं देता, लेकिन इस पत्र का ही उत्तर कहाँ दूँ ? अपने रुकने की जगह या फिर होटल का ही पता दिया होता।
बिलकुल गर्मियों के धूल-भरे आकाश-सी है।
चाँदनी जब यहाँ से गई थी तो उसमें सायास कुछ नहीं था। एक दिन पहले ही तो हम लोग लॉन में बैठे हुए चाय पी रहे थे और मौसम को कोसते रहे थे। दूसरे दिन शाम की डाक से एक पोस्टकार्ड मिला कि वह कलकत्ते जा रही है और दो सप्ताह बाद लौट आएगी। मैंने भी सोचा कि इस बार पहाड़ नहीं जा सकी थी, घबरा उठी होगी। चलो ठीक है, दो-चार दिनों के लिए कहीं हो आना अच्छा होता है। लेकिन मैं इस स्वल्प-सी सूचना में क्या समझता ? कहीं मैं आहत अनुभव कर रहा था कि पूछ ही लेती, खैर।
दिन बीते, सप्ताह गुजरे, महीने भी आए-गए हो गए और चाँदनी का कहीं पता नहीं था। मुझे विश्वास था कि वह कलकत्ते में ही होगी और जेटियों पर घूमते हुए विलियम फोर्ट के मैदान में दूब पर लेटे हुए, विक्टोरिया मेमोरियल के पोखर में मछलियों को चारा चुगाते हुए अनुखन प्रतीक्षारत रही होगी कि मैं आऊँगा। लेकिन कैसे ? ‘तुम तो अपने किसी संबंधी के यहाँ गई हो, भला मैं वहाँ कैसे आ सकता हूँ ?’ अजीब अधूरे आकाश-सा उसका आचार होता है। लोग एब्सट्रेक्ट चित्र बनाते हैं, वह एब्सट्रेक्ट व्यवहार करती है, जबकि मुझे काँगड़ा-शैली भी समझ में नही आती।
भला शैलियों के इतने बड़े व्यवधान पर खड़े हम लोगों का क्या होगा ?
कुछ भी हो, उसे उत्तर तो देना है। एकमात्र उत्तर, जो हो सकता है, यह कि मैं भी दार्जिलिंग आ रहा हूँ।
इस उत्तर को वहाँ के पोस्टमास्टर के मार्फत भेज रवाना हो जाऊँगा।
अपनी इस लंबी यात्रा में पत्र-पत्रिकाओं के अलावा चाँदनी की स्मृतियाँ हैं, खिड़की से विहार के सपाट मैदान, दुखती रेखाओं-सी नदियाँ – सब बड़ा अच्छा लग रहा है। स्मृतियों में कोई दुखद नहीं है। अधिकांश या तो सुखद हैं अथवा एब्सट्रेक्स।
वह अपनी बात, आचार, व्यवहार सबमें संकेत करती है। याद नहीं पड़ता कि कभी कोई वाक्य भी किसी से पूरा कहा होगा। सादी-सी बात होगी – ‘चलिए, थोड़ा घूम आएँ’ इतना भी पूरा नहीं कह सकती। वह तो कहेगी – ‘चलिए’ और सड़क पर जाती किसी टैक्सी को रोक बैठ जाएगी तथा हँसती आँखों से आपकी ओर देखने लगेगी।
‘फूलों से मोनोटनी टूटती है न ?’
और आप देखेंगे कि यह बात का टुकड़ा फेसिंग से दिखे किसी केना के फूल को देखकर कहा गया होगा। उसके बाद – देर-देर तक कोई बात नहीं होगी। हाँ, चर्चा हो सकती है कि बर्जीनिया वूल्फ की डायरी में सहजता कितनी है अथवा वह मात्र प्रयोजन लगती है। - और आप देखेंगे कि आपके चारों ओर ऐसे या इस जैसे अनेक टुकड़े फैले हुए हैं। ऐसा वह इसलिए करती है कि आपको भ्रम हो जाए कि नहीं, वह कितना तो बात करती है ! लेकिन कहीं इन टुकड़ों को सुनते हुए पा सकने के खयाल से उसकी ओर देखना शुरू किया तो वह घिरी मछली की तरह पहले तो इधर-उधर करेगी और हताश भाव से अपने गहरे जल में नीचे उतर जाएगी, जैसे कि सब बेकार है।
बस, यह पत्र है। तब विज्ञप्तियाँ किसे कहा जाएगा ? और मजा यह कि यह पत्र भी पूरे दो माह बाद कलकत्ते से नहीं, दार्जिलिंग जाने की सूचना के साथ सिलिगुड़ी से डाला गया था। चाँदनी कहा करती है कि मैं उसके पत्रों के उत्तर नहीं देता, लेकिन इस पत्र का ही उत्तर कहाँ दूँ ? अपने रुकने की जगह या फिर होटल का ही पता दिया होता।
बिलकुल गर्मियों के धूल-भरे आकाश-सी है।
चाँदनी जब यहाँ से गई थी तो उसमें सायास कुछ नहीं था। एक दिन पहले ही तो हम लोग लॉन में बैठे हुए चाय पी रहे थे और मौसम को कोसते रहे थे। दूसरे दिन शाम की डाक से एक पोस्टकार्ड मिला कि वह कलकत्ते जा रही है और दो सप्ताह बाद लौट आएगी। मैंने भी सोचा कि इस बार पहाड़ नहीं जा सकी थी, घबरा उठी होगी। चलो ठीक है, दो-चार दिनों के लिए कहीं हो आना अच्छा होता है। लेकिन मैं इस स्वल्प-सी सूचना में क्या समझता ? कहीं मैं आहत अनुभव कर रहा था कि पूछ ही लेती, खैर।
दिन बीते, सप्ताह गुजरे, महीने भी आए-गए हो गए और चाँदनी का कहीं पता नहीं था। मुझे विश्वास था कि वह कलकत्ते में ही होगी और जेटियों पर घूमते हुए विलियम फोर्ट के मैदान में दूब पर लेटे हुए, विक्टोरिया मेमोरियल के पोखर में मछलियों को चारा चुगाते हुए अनुखन प्रतीक्षारत रही होगी कि मैं आऊँगा। लेकिन कैसे ? ‘तुम तो अपने किसी संबंधी के यहाँ गई हो, भला मैं वहाँ कैसे आ सकता हूँ ?’ अजीब अधूरे आकाश-सा उसका आचार होता है। लोग एब्सट्रेक्ट चित्र बनाते हैं, वह एब्सट्रेक्ट व्यवहार करती है, जबकि मुझे काँगड़ा-शैली भी समझ में नही आती।
भला शैलियों के इतने बड़े व्यवधान पर खड़े हम लोगों का क्या होगा ?
कुछ भी हो, उसे उत्तर तो देना है। एकमात्र उत्तर, जो हो सकता है, यह कि मैं भी दार्जिलिंग आ रहा हूँ।
इस उत्तर को वहाँ के पोस्टमास्टर के मार्फत भेज रवाना हो जाऊँगा।
अपनी इस लंबी यात्रा में पत्र-पत्रिकाओं के अलावा चाँदनी की स्मृतियाँ हैं, खिड़की से विहार के सपाट मैदान, दुखती रेखाओं-सी नदियाँ – सब बड़ा अच्छा लग रहा है। स्मृतियों में कोई दुखद नहीं है। अधिकांश या तो सुखद हैं अथवा एब्सट्रेक्स।
वह अपनी बात, आचार, व्यवहार सबमें संकेत करती है। याद नहीं पड़ता कि कभी कोई वाक्य भी किसी से पूरा कहा होगा। सादी-सी बात होगी – ‘चलिए, थोड़ा घूम आएँ’ इतना भी पूरा नहीं कह सकती। वह तो कहेगी – ‘चलिए’ और सड़क पर जाती किसी टैक्सी को रोक बैठ जाएगी तथा हँसती आँखों से आपकी ओर देखने लगेगी।
‘फूलों से मोनोटनी टूटती है न ?’
और आप देखेंगे कि यह बात का टुकड़ा फेसिंग से दिखे किसी केना के फूल को देखकर कहा गया होगा। उसके बाद – देर-देर तक कोई बात नहीं होगी। हाँ, चर्चा हो सकती है कि बर्जीनिया वूल्फ की डायरी में सहजता कितनी है अथवा वह मात्र प्रयोजन लगती है। - और आप देखेंगे कि आपके चारों ओर ऐसे या इस जैसे अनेक टुकड़े फैले हुए हैं। ऐसा वह इसलिए करती है कि आपको भ्रम हो जाए कि नहीं, वह कितना तो बात करती है ! लेकिन कहीं इन टुकड़ों को सुनते हुए पा सकने के खयाल से उसकी ओर देखना शुरू किया तो वह घिरी मछली की तरह पहले तो इधर-उधर करेगी और हताश भाव से अपने गहरे जल में नीचे उतर जाएगी, जैसे कि सब बेकार है।
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