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मानुष गंध

सूर्यबाला

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3517
आईएसबीएन :81-7016-603-9

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सूर्यबाला की कहानियाँ सामाजिक अन्तर्विरोधों की गहरी पहचान का आभास करा देती हैं...

Manush gandh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

समकालीन कहानी के सर्वाधिक प्रमुख स्वर व्यंग्य, करुण, निषेध, विद्रोह और लाइट ह्यूमर तो सूर्यबाला की कहानियों में एक खास अंदाज में व्यक्त होते ही हैं, उनकी कहानियों में एक सूक्ष्म-सी प्रयोगशीलता भी है और यह प्रछन्न कारीगरी कुछ कम चमत्कार नहीं पैदा करती। उनकी इस विशिष्टता की पहचान ही उनकी कला का मर्म पकड़ना है।
वैसे सूर्यबाला में भावनात्मकता का पहलू अधिक जोरदार है, परन्तु प्रतिभावश और कलात्मक औचित्य की माँग पर वे कहानी में जिस सूक्ष्म वैचारिक विश्लेषण का अंडर-करेंट साधती चलती हैं उससे पढ़ने वाले को एक बौद्धिक परितृप्ति का आह्लाद भी मिलता है। वैचारिक गाम्भीर्य और दार्शनिक वृत्ति उनकी कहानियों में विलक्षण सादगी के साथ समरस और सर्वत्र उपलब्ध हैं।

 

डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर

 

सूर्यबाला ने सामाजिक विद्रूपताओं के विसादृश्य को गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ उद्घाटित किया है। वे मध्यमवर्गीय समाज के परिचित यथार्थ को सादगी और विश्वनीयता के साथ अंकित करती है। उनकी कहानियों में कहीं-कहीं व्यंग्य की अंतर्धारा भी सक्रिय दिखायी देती है, जिससे वे वर्ग चेतना को उद्घाटित करने का काम लेती हैं। साथ ही सामाजिक अन्तर्विरोधों की गहरी पहचान का आभास भी देती हैं।
सूर्यबाला की कहानियाँ भले ही बहुत आधुनिक किस्म की स्त्री की उपस्थिति को अपना रचनात्मक सरोकार न मानती हों, या सिर्फ व्यंग्य के लिए ही उनका उपयोग करती हों, लेकिन आत्मसजग और आत्मचेतस स्त्री के अनेक रूप उनकी कहानियों में मौजूद हैं। उनके यहाँ स्त्री की भूमिका पति के विरोध और कैसी भी स्पर्धा से अधिक, निष्ठापूर्वक अपनी शेष बची लड़ाई लड़ने में है।

 

मधुरेश

 

इन कहानियों के बारे में

 

 

अपने इस ताजा कथा-संग्रह में सूर्यबाला फिर से कथ्य और शिल्प के अपने पुराने प्रतिमानों को तोड़ती नजर आती हैं।
एक तरफ ‘क्रॉसिंग’ और ‘क्या मालूम’ जैसी काहनियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों के कुछ अनूठे और अबोध रहस्यों को थहाती हैं तो दूसरी तरफ ‘जश्न’ और ‘तिलिस्म’ भावुकता को थिराते हुए एक विरल कथा-रस की सृष्टि करती हैं।
कुछ ऐसा लगता है जैसे लेखन में चलने वाले ट्रेंड, फैशन से सूर्यबाला को परहेज-सा है। लेकिन इसका अर्थ, समय की तल्ख सच्चाइयों से मुकरना या उन्हें नकारना हर्गिज नहीं है। इसी तरह अपनी कहानियों के कैनवस पर, ‘लाउड’ और अतिमुखर रंग-रेखाओं के प्रयोग से भी बचती हैं वे। उनके पात्रों के विरोध और संघर्ष मात्र विध्वंसक न होकर विश्वसनीय और विवेक सम्मत होने पर ज्यादा जोर देते हैं।
सिद्धांतों, वादों और आंदोलनों के ऊपरी घटाटोपों से बचती हुई जिजीविषा की भरपूर मानुष-गंध लेकर चलती हैं इस संग्रह की कहानियाँ।

 

मानुष-गंध

 

 

‘‘कम्माल ए-आपका वैभव अमरीका से हिन्दी में चिट्ठियाँ लिखता है ?’’
मोना मलकानी अपनी आँखें फाख्ते-सी झपकाती हैं।
‘‘और हर हफ्ते-’’ सँभालते-सँभालते भी मेरे अन्दर से एक मीठे गुमान से भरी गागर छल्ल से छलक पड़ती है।
‘‘हर हफ्ते ?-’’ मिसेज मलकानी की आँखें अब पूरी तरह फैलकर छितर जाती हैं, फिर अपने अदंर तिनग गई ईर्ष्या की हल्की-सी तीली को फूँक मारकर खुद ही बुझाने की कोशिश करने लगती हैं- ‘‘घर की याद आती होगी नी ? बड़ी, ये रेते भी कितनी मुसीबतों में हैं। सब दूर के ढोल सुहावने वाली बातें हैं....इसी से तो चिट्ठियों पे चिट्ठियाँ-दिल की तसल्ली की खातर....लेकिन फिर भी....हर हफ्ते ? अखीर लिक्ता क्या है ?’’

मैंने अब तक अपनी गागर का मुँह करीने से बंद कर दिया है। नहीं तो बताना शुरू करने के साथ ही यह छलकती चली जाएगी। लिखता क्या है....दुनिया-जहान की खुराफातें, पैरोडियाँ, प्रोफेसरों की नकलें, लड़कियों की विश्वव्यापी नखरेबाजियाँ, (‘बिल्लो जी’ बनाम बेला बहन को चिढ़ाने के लिए) शरारतों की धारावाहिक किश्तें और दाल-भाजी पकाने के प्रयोगधर्मी नुस्खों की गरमागरम रपटें ...अब जैसे कि-‘मुलाहजा फरमाइए कि कल सब्जी बनाने का टर्न मेरा था-जान लड़ाकर सारे मसाले भिड़ा दिए लेकिन दोस्तों ने जबान पर रखते ही बदमजा-सा मुँह बनाकर हड़क दिया-‘ये क्या ‘करी’ बना रक्खी है ? कुछ ढंग का (ढंग से) डालते क्यों नहीं ?’....मैं निरीह वाणी में रिरियाया- ‘सब कुछ तो डालता हूँ लेकिन स्वाद आता ही नहीं’.....तो ममा, करी न सही, दोस्तों का कहना है कि विज्ञापन की मिमिक्री लाजवाब रही....मैंने आदाब बजाकर शुक्रिया अदा की-‘खत के पुनश्च:’ यानी पुछल्ले में यह जोड़ दूँ कि ‘दो-चार दोस्तों ने मिलकर प्याज-टमाटर का छौंका मारा और सब्जी-पापड़, आचार के सहारे हलक से उतार ली गई.....तो आप यह जानकर खुश हो लीजिए कि ऐसे मौकों पर आपकी (यानी आपकी बनाई सब्जी की) बहुत याद आती है।’

अगला खत- वाऽ ममा वा ! क्या मट्ठी भेजी है अस्थाना के हाथों। सारा अपार्टमेंट अजवायन और डबल रिफाइंड की खुशबू से गमक गया।....सदियों के भूले-बिसरे यार-दोस्त ‘मानुष की गंध, मामा मानुष की गंध’ की तर्ज पर सूँघते चले आ रहे हैं ! नानी से कहना, उनकी कहानियों के इस पात्र ने यहाँ खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली है। (नानी की कहानी के हवाले से हिन्दी की पताका जोर-शोर से...अहा, मातेश्वरी की तो बाछें खिली पड़ रही हैं-बहरहाल-) हर तरफ- ‘मट्ठी आई है, आई है, मट्ठी आई है’ के कैसेट बज रहे हैं। ‘निकाल यार ! दोस्तों की दुआ लगेगी-ये देख, पिकल का डिब्बा भी साथ लाए हैं- बचा हुआ, रिटर्न-गिफ्ट के तौर पर छोड़ जाएँगे’....झूठ नहीं बोलूँगा, मट्ठी तो दी सबको, लेकिन गुझिया छुपाकर रख दी। जब दिल-दिमाग उदास हो (पुन: नानी के शब्दों में), छान-पगहा तुड़ाने लगता है तो एक-आधी खाकर वापस जल्दी से छुपा देता हूँ। फिर भी हर बार खाते वक्त यह अहम सवाल खड़ा हो ही जाता है कि जब गुझिया खत्म हो जाएँगी तो तेरा क्या होगा कालिया ?’

अगला खत-‘मनोहर जा रहा है। साथ में एक पैकेट भेज रहा हूँ। कुलाँचें मारती टूट पड़ीं न बिल्लो बहनजी पार्सल पर ? सोच रहीं होंगी कि खूब रच-रचकर मावे, किशमिशों से भरी गुझिया भेजी हैं वैभउआ को-सरदार खूब खुश हुआ होगा,-जरूर मनोहर के साथ घड़ियाँ, साड़ियाँ और बेशुमार सेंट शीशियाँ भेजेगा...., लेकिन जब पैकेट खोलेंगी तो फुस्स..ले-दे के दर्जन-भर, मूँछों के सफाचट होने के पहले और बाद की, मनहूस चौखटे वाली फोटुएँ और टुइयाँ-सी परफ्यूम की शीशी-जोक्स अपार्ट, मनोहर बेचारे के पास बिलकुल जगह नहीं थी-बहुत क्षमा माँग रहा था, समझी माता-पुत्री ?-’
और अगला-उसके बाद का, उसके भी बाद का-नीले, नीले तमाम सारे खत....मेरे लिए आसमानों जैसे। देख सकती हूँ, कितनी भी देर से,। रात-दिन जग-जगकर मेहनत से पढ़ते, झोल-सी सब्जी और गले, पनीले चावल खाकर गुजारा करते, कहाँ-कहाँ से आकर परदेश में एक साथ हुए लड़के-महाराष्ट्रियन, गोअन, तमीलियन से लेकर माथुर, कोहली, चट्ढ़ा से चतुर्वेदियों तक-हिंदुस्तान के बाहर, अपना एक छोटा-सा हिंदुस्तान बसाए हुए। रक्षाबंधन पर दूरअंदेशी बहनों की भेजी राखियाँ बाँधकर इंस्टीट्यूट जाते हुए और नवरात्रियों पर गैर-गुजराती नौसिखुए लड़के भी हाथों में डाँडिया आजमाते हुए; फीकी, सूखी होलियों और बेरौनक दीवालियों पर साथ इकट्ठे हो, ‘पॉट-लक’ पर गा-बजा, अपनी बीती होली, दीवालियों की रज्ज-गज्ज याद करते हुए।

कभी वहाँ से बसे हुए परिवार बुला लेते हैं। हमवतनों में खूब सारी बातें कहने-पूछने के लिए। साफ लगता है, बस तो गए, चाहे-अनचाहे परजेस में, लेकिन हर एक के अंदर, हर लम्हे, कंदील-सा एक हिंदुस्तान जगमगाता रहता है। भुलाने की कोशिश में और ज्यादा याद आता हुआ। उस बच्चे-सा, जो सोने का झूठ-मूठ अभिनय करता आँखें मुलकाता रहता है। उन लोगों के पास जाकर अच्छा लगता है-पता चलता है कि याद रखने से ज्यादा मुश्किल भूल पाना है। कल श्रावणी माथुर भावुक हो गई- ‘हम तो बेमुल्क ही हुए न। जो कुछ छोड़ा, वह छूट नहीं पाया और जहाँ से जुड़ना चाहा वहाँ से जुड़ नहीं पाए....’

‘हिंदुस्तान जाती हूँ, तो पहुँचने के दिन से ही, माँ वापसी की तारीख पूछकर रोना शुरू कर देती है। एक आँख रोती, एक आँख हँसती है कि सिर्फ इतने दिनों बाद मैं सपना हो जाऊँगी।’.....
मैंने श्रावणी माथुर से पूछना चाहा, ‘लेकिन क्यों सपना होना पसंद करते हैं लोग ? क्यों नहीं अपनी हकीकतों में सब्र रखते ?’ लेकिन पूछा नहीं। यह शायद जख्मों को कुरेद देना होता....और पूछने की जरूरत भी क्या ? हम खुद भी क्या दिन-रात अपनी-अपनी (सपनों की) गेंदों पर चौके-छक्के उड़ाते, उन्हें बाउंड्री पार जाते नहीं देखते क्या ?...
क्षमा करना, तुम लोग मन की उपमा मोती से देते थे, हम लोग छक्के मारती गेंदों से। स्थितियों की माँग-वक्त की जरूरत-हा-हा-हा-मोगाम्बो खुश हुआ ! अब देखों में क्या करूँ- म से ममा, म से मोगाम्बो-जानता हूँ, चिढ़कनी गालियों की बौछार अब शुरू होने वाली है-नालायक, नकारा, निकम्मा....

पिछले 14 अगस्त को अचानक फोन घनघनाया-
‘‘कौन, बब्बा ? कैसे बेटे ? सब खैरियत तो ?’’
‘‘खैरियत बाद में, पहले ‘इन्साफ की डगर....’ वाले गाने का दूसरा अंतरा जल्दी से लिखवाओ तो .....कल पंद्रह अगस्त है और हम इंडियन स्टूडेंट एसोसिएशन के फंक्शन में यह गाना गाने जा रहे हैं। बोलो तो जल्दी’’- उसे खिझाने में मजा आता है- ‘‘ऐसे तो याद नहीं आ रहा- गाऊँ तो शायद’’-
‘‘चोऽऽप्प ! यानी कि इनफ, बस हुआ-कायदे से बोली जल्दी-’’


‘‘इंसाफ की डगर पर...’’
‘‘वो तो मालूम है, अगला पैरा- ’’
‘‘अपने हों-या पराए’’
‘‘अपने हों-या पराए-आगे ?’’
‘‘सबके लिए हो न्याऽयऽ-’’
‘‘सबके लिए हो न्याऽयऽ–हाँ ?’’
‘‘देखो कदम तुम्हारा’’
‘‘देखो कदम तुम्हारा’’
‘‘हरगिज न डगमगाए’’
‘‘हरगिज न डगमगाए-आगे-’’
‘‘रस्ते बड़े कठिन हैं-’’
‘‘रस्ते बड़े कठिन हैं-ठीक-’’
‘‘चलना सँभल-सँभल के-’’
‘‘चलना सँभल-सँ-भ-ल के-’’


‘‘-बस, इसके बाद वाली लाइने आती हैं- ओ.के.’’-कट-
‘‘निकम्मे ! कम से कम हालचाल तो पूछा, बता दिया होता-’’
‘‘बताने के डॉलर लगते हैं....मालूम क्या ? ऊपर से परसों मेरा ट्यूटोरियल है। आजकल पार्ट टाइम क्लासेस भी लेता हूँ। जूनियर स्टूडेंट्स की कोचिंग भी-तब जाकर एरोग्राम के पैसे जुटते हैं, क्या समझीं ? तो इंतजार कीजिए एरोग्राम का-कि-’’
‘जी हाँ-हमारा आजादी का जश्न खूब मना। प्रोग्राम हिट रहा। मेरी आवाज पर भी तालियाँ पिट गईं। जबकि थोड़ी ही ज्यादा बेसुरी थी शायद।– हा-हा-हा-जोक्स अपार्ट-ट्यूटोरियल अच्छा गया। प्रोफेसर खुश हैं। मुझसे ही नहीं, ज्यादातर भारतीय छात्रों से। उम्दा नाम कमा रहे हैं हिंदुस्तानी लड़के। उस्तादों की नजर में काबिल, मेहनती। वे पैसों की या कह लो डॉलरों की कीमत जानते हैं न।    

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