स्वास्थ्य-चिकित्सा >> प्रकृति द्वारा स्वास्थ्य गेहूँ के ज्वारे और अन्य अनाज प्रकृति द्वारा स्वास्थ्य गेहूँ के ज्वारे और अन्य अनाजराजीव शर्मा
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गेहूँ के ज्वारे और अन्य अनाजों के गुणों का वर्णन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकृति हम सबको सदा स्वस्थ बनाए रखना चाहती है और इसके लिए प्रकृति ने
अनेक प्रकार के फल, फूल, साग, सब्जियां, जड़ी-बूटियां, अनाज, दूध, दही,
मसाले, शहद, जल एवं अन्य उपयोगी व गुणकारी वस्तुएं प्रदान की हैं। इस
उपयोगी पुस्तक माला में हमने इन्हीं उपयोगी वस्तुओं के गुणों एवं उपयोग के
बारे में विस्तार से चर्चा की है। आशा है यह पुस्तक आपके समस्त परिवार को
सदा स्वस्थ बनाए रखने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रकृति ने हमारे शरीर-संरचना एवं स्वभाव को ध्यान में रखकर ही औषधीय गुणों से युक्त पदार्थ बनाए हैं। शरीर की भिन्न-भिन्न व्याधियों के लिए उपयोगी ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ, अमृततुल्य हैं।
इन्हीं अमृततुल्य पदार्थों जैसे-तुलसी, अदरक, हल्दी, आंवला, पपीता, बेल, प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, नीबू, सेब, अमरूद आदि के औषधीय गुणों व रोगों में इनके प्रयोग के बारे में जानकारी अलग-अलग पुस्तकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास है यह पुस्तक।
प्रकृति ने हमारे शरीर-संरचना एवं स्वभाव को ध्यान में रखकर ही औषधीय गुणों से युक्त पदार्थ बनाए हैं। शरीर की भिन्न-भिन्न व्याधियों के लिए उपयोगी ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ, अमृततुल्य हैं।
इन्हीं अमृततुल्य पदार्थों जैसे-तुलसी, अदरक, हल्दी, आंवला, पपीता, बेल, प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, नीबू, सेब, अमरूद आदि के औषधीय गुणों व रोगों में इनके प्रयोग के बारे में जानकारी अलग-अलग पुस्तकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास है यह पुस्तक।
प्रस्तावना
प्रकृति ने हमारे शरीर, गुण व स्वभाव को दृष्टिगत रखते हुए फल, सब्जी,
मसाले, द्रव्य आदि औषधीय गुणों से युक्त ‘‘घर के
वैद्यों’’ का भी उत्पादन किया है। शरीर की
भिन्न-भिन्न
व्याधियों के लिए उपयोगी ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ, अमृततुल्य हैं। ये
पदार्थ उपयोगी हैं, इस बात का प्रमाण प्राचीन आयुर्वेदिक व यूनानी ग्रंथों
में ही नहीं मिलता, वरन् आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी इनके गुणों का बखान
करता नहीं थकता। वैज्ञानिक शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है कि फल, सब्जी,
मेवे, मसाले, दूध, दही आदि पदार्थ विटामिन, खनिज व कार्बोहाइड्रेट जैसे
शरीर के लिए आवश्यक तत्त्वों का भंडार हैं। ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ
शरीर को निरोगी बनाए रखने में तो सहायक हैं ही, साथ ही रोगों को भी ठीक
करने में पूरी तरह सक्षम है।
तुलसी, अदरक, हल्दी, आँवला, पपीता, बेल, प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, नीबू, सेब, अमरूद, आम, विभिन्न सब्जियां, मसाले व दूध, दही, शहद आदि के औषधीय गुणों व रोगों में इनके प्रयोग के बारे में अलग-अलग पुस्तकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास ‘मानव कल्याण’ व ‘सेवा भाव’ को ध्यान में रखकर किया गया है।
उम्मीद है, पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे।
सादर,
तुलसी, अदरक, हल्दी, आँवला, पपीता, बेल, प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, नीबू, सेब, अमरूद, आम, विभिन्न सब्जियां, मसाले व दूध, दही, शहद आदि के औषधीय गुणों व रोगों में इनके प्रयोग के बारे में अलग-अलग पुस्तकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास ‘मानव कल्याण’ व ‘सेवा भाव’ को ध्यान में रखकर किया गया है।
उम्मीद है, पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे।
सादर,
-डॉ. राजीव शर्मा
आरोग्य ज्योति
320-322 टीचर्स कॉलोनी
बुलन्दशहर, उ.प्र.
आरोग्य ज्योति
320-322 टीचर्स कॉलोनी
बुलन्दशहर, उ.प्र.
पुरानी व नई माप
8 रत्ती - 1 माशा
12 माशा - 1 तोला
1 तोला - 12 ग्राम
5 तोला - 1 छटांक
16 छटांक - 1 कि.ग्रा.
1 छटांक - लगभग 60 ग्राम
8 रत्ती - 1 माशा
12 माशा - 1 तोला
1 तोला - 12 ग्राम
5 तोला - 1 छटांक
16 छटांक - 1 कि.ग्रा.
1 छटांक - लगभग 60 ग्राम
गेहूँ के ज्वारे
सामान्य परिचय
गेहूं के ज्वारों से उपचार की पद्धति डॉ. विग्मोर ने प्रारम्भ की थी। सन्
1970 की एक घटना है-अगस्त 1970 में एक महिला अपने पति को लेकर डॉ. विग्मोर
के पास आई। उसके पति की स्थिति अत्यन्त करुणाजनक थी। उसका शरीर अत्यन्त
कृश हो चुका था। उसका चेहरा सफेद रुई के जैसा हो गया था। अपने पैरों पर
खड़े रहने की शक्ति भी उसमें शेष नहीं थी।
अपने पति की तकलीफों का वर्णन करते हुए उक्त महिला ने डॉ. विग्मोर से निवेदन किया, ‘एक वर्ष पहले कमजोरी एवं अन्य तकलीफों के कारण मैं अपने पति को बॅथ इजराएल हॉस्पिटल में ले गई थी। प्रयोगशाला के विविध परीक्षणों के अन्त में ल्यूकेमिया (रक्त का कैन्सर) रोग पाया गया। यह जानकार हम दोनों को जबरदस्त आघात पहुंचा। विशेषज्ञों के मतानुसार संभावित सभी उपायों के बावजूद ल्यूकेमिया का रोगी एक-दो वर्ष से अधिक नहीं जी सकता।
हमारे लिए यह आघात बहुत भारी था। मेरे पति ने सारे कामकाज छोड़ दिए। दवाइयों और सावधानीपूर्ण उपचारों के बावजूद उनकी तबीयत दिन-ब-दिन और अधिक बिगड़ती जा रही थी। अलग-अलग पांच-छह कैन्सर विशेषज्ञों ने उनका इलाज किया था। जब मैं उन्हें दवाखाने ले गई थी उस समय उन्हें इतनी अधिक कमजोरी लग रही थी कि वे खड़े भी नहीं हो पा रहे थे। डॉक्टर ने मुझसे व्यक्तिगत रूप से कहा था कि, आपके पति की अब अन्तिम घड़ियां है। अब वे लम्बे समय तक नहीं टिकेंगे। इस बात की भनक पड़ते ही मेरे पति हताश हो कर टूट से गए।
उस रात हमारे एक पड़ोसी ने मुझे गेहूँ-ज्वारे के विषय में जानकारी दी और उन्हें आजमाकर देखने का आग्रह किया। मेरे पति तो इतने अधिक निराश हो गए थे कि अब वे कुछ भी करने के लिए तैयार न थे, किन्तु मैंने अन्त तक संभावित सभी उपचार करने का निश्चय किया है। इसीलिए मैं उन्हें लेकर आपके पास आई हूँ।’’
डॉ. विग्मोर ने उन्हें गेहूँ के ज्वारे उगाने की पद्धति और उनके विषय में पूर्ण जानकारी दी और घर पर ही उपचार शुरू करने की सलाह दी। उन्हें भी इस रोगी से विशेष उम्मीद नहीं थी।
19 फरवरी 1971 के दिन एक मोटर डॉ. विग्मोर के अस्तपाल के पास आकर खड़ी हुई। उसमें से एक अधेड़ आयु का व्यक्ति बाहर निकला और शीघ्रता से सीढ़ियाँ चढ़कर डॉ. विग्मोर के पास आया। हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाकर हँसते-हँसते उसने प्रश्न किया-‘‘मुझे पहचाना, डॉ. साहब ?’’
डॉ. विग्मोर उलझन में पड़ गईं। उस व्यक्ति में कुछ इतना अधिक परिवर्तन हो गया था कि उसे पहचाना नहीं जा सकता था। प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उस व्यक्ति ने आगे कहा, ‘‘पतझड़ में मेरी पत्नी ल्यूकेमिया के उपचार के लिए मुझे आपके पास लाई थी। उस समय तो मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। आज से ठीक छह महीने पूर्व की यह बात है। मैं वही व्यक्ति हूँ।’’ डॉ. विग्मोर को कुछ याद आया, किन्तु आगन्तुक व्यक्ति के शब्दों पर विश्वास न होता था। कहाँ वह सफेद रुई जैसा झुका हुआ कृश शरीर और कहाँ यह लालिमायुक्त जोशीला व्यक्ति ! इस व्यक्ति के तो अंग-अंग से स्फूर्ति छलक रही थी। और इसकी आंखों में एक अनोखी चमक थी।
आगन्तुक बोले जा रहा था, ‘‘आपसे विदा होकर हम घर पहुंचे। उसी दिन मेरी पत्नी ने आंगन में गेहूँ बो दिए। ठीक एक सप्ताह के बाद मैंने ज्वारों के रस का सेवन शुरू कर दिया। मैं दिन में चार बार एक-एक प्याला रस पिया करता। धीरे-धीरे मेरी तबियत में सुधार होने लगा। छह महीने में तो मेरी तबीयत में काफी सुधार हो गया। 20 जनवरी 1971 के दिन पुन: जांच कराने के लिए हम बॅथ इजराएल हॉस्पिटल गए। जिन डॉक्टरों ने पहले मेरी जांच की थी और मेरा इलाज किया था, वे सभी आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने मेरी पुन: सावधानीपूर्वक जांच की। मुझे लगा कि वे उलझन में पड़ गए हैं। मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हूँ यह बात उन्होंने स्वीकार की, किन्तु मेरी तबियत में सुधार कैसे हुआ इस विषय में कुछ न पूछा।’’
थोड़ी देर के बाद डॉ. विग्मोर का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करके आगन्तुक व्यक्ति विदा हुआ। चार महीने बाद वह फिर डॉ. विग्मोर से मिला, उस समय उसका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। ल्यूकेमिया का तो नामोनिशान नहीं था। इन चार महीनों में पांच कैंसर-विशेषज्ञों ने बड़ी सूक्ष्मता से उसका परीक्षण किया था। ल्यूकेमिया कैसे मिट गया वह बात उनकी समझ में नही आ रही थी। उनका अब भी यही मत है कि ल्यूकेमिया एक असाध्य रोग है। अधिकृत रूप से ऐसा घोषित भी किया गया है। किन्तु वे विशेषज्ञ डॉक्टर शायद यह हकीकत भूल गए थे कि सर्वशक्तिमान प्रकृति के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
अपने पति की तकलीफों का वर्णन करते हुए उक्त महिला ने डॉ. विग्मोर से निवेदन किया, ‘एक वर्ष पहले कमजोरी एवं अन्य तकलीफों के कारण मैं अपने पति को बॅथ इजराएल हॉस्पिटल में ले गई थी। प्रयोगशाला के विविध परीक्षणों के अन्त में ल्यूकेमिया (रक्त का कैन्सर) रोग पाया गया। यह जानकार हम दोनों को जबरदस्त आघात पहुंचा। विशेषज्ञों के मतानुसार संभावित सभी उपायों के बावजूद ल्यूकेमिया का रोगी एक-दो वर्ष से अधिक नहीं जी सकता।
हमारे लिए यह आघात बहुत भारी था। मेरे पति ने सारे कामकाज छोड़ दिए। दवाइयों और सावधानीपूर्ण उपचारों के बावजूद उनकी तबीयत दिन-ब-दिन और अधिक बिगड़ती जा रही थी। अलग-अलग पांच-छह कैन्सर विशेषज्ञों ने उनका इलाज किया था। जब मैं उन्हें दवाखाने ले गई थी उस समय उन्हें इतनी अधिक कमजोरी लग रही थी कि वे खड़े भी नहीं हो पा रहे थे। डॉक्टर ने मुझसे व्यक्तिगत रूप से कहा था कि, आपके पति की अब अन्तिम घड़ियां है। अब वे लम्बे समय तक नहीं टिकेंगे। इस बात की भनक पड़ते ही मेरे पति हताश हो कर टूट से गए।
उस रात हमारे एक पड़ोसी ने मुझे गेहूँ-ज्वारे के विषय में जानकारी दी और उन्हें आजमाकर देखने का आग्रह किया। मेरे पति तो इतने अधिक निराश हो गए थे कि अब वे कुछ भी करने के लिए तैयार न थे, किन्तु मैंने अन्त तक संभावित सभी उपचार करने का निश्चय किया है। इसीलिए मैं उन्हें लेकर आपके पास आई हूँ।’’
डॉ. विग्मोर ने उन्हें गेहूँ के ज्वारे उगाने की पद्धति और उनके विषय में पूर्ण जानकारी दी और घर पर ही उपचार शुरू करने की सलाह दी। उन्हें भी इस रोगी से विशेष उम्मीद नहीं थी।
19 फरवरी 1971 के दिन एक मोटर डॉ. विग्मोर के अस्तपाल के पास आकर खड़ी हुई। उसमें से एक अधेड़ आयु का व्यक्ति बाहर निकला और शीघ्रता से सीढ़ियाँ चढ़कर डॉ. विग्मोर के पास आया। हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाकर हँसते-हँसते उसने प्रश्न किया-‘‘मुझे पहचाना, डॉ. साहब ?’’
डॉ. विग्मोर उलझन में पड़ गईं। उस व्यक्ति में कुछ इतना अधिक परिवर्तन हो गया था कि उसे पहचाना नहीं जा सकता था। प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उस व्यक्ति ने आगे कहा, ‘‘पतझड़ में मेरी पत्नी ल्यूकेमिया के उपचार के लिए मुझे आपके पास लाई थी। उस समय तो मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। आज से ठीक छह महीने पूर्व की यह बात है। मैं वही व्यक्ति हूँ।’’ डॉ. विग्मोर को कुछ याद आया, किन्तु आगन्तुक व्यक्ति के शब्दों पर विश्वास न होता था। कहाँ वह सफेद रुई जैसा झुका हुआ कृश शरीर और कहाँ यह लालिमायुक्त जोशीला व्यक्ति ! इस व्यक्ति के तो अंग-अंग से स्फूर्ति छलक रही थी। और इसकी आंखों में एक अनोखी चमक थी।
आगन्तुक बोले जा रहा था, ‘‘आपसे विदा होकर हम घर पहुंचे। उसी दिन मेरी पत्नी ने आंगन में गेहूँ बो दिए। ठीक एक सप्ताह के बाद मैंने ज्वारों के रस का सेवन शुरू कर दिया। मैं दिन में चार बार एक-एक प्याला रस पिया करता। धीरे-धीरे मेरी तबियत में सुधार होने लगा। छह महीने में तो मेरी तबीयत में काफी सुधार हो गया। 20 जनवरी 1971 के दिन पुन: जांच कराने के लिए हम बॅथ इजराएल हॉस्पिटल गए। जिन डॉक्टरों ने पहले मेरी जांच की थी और मेरा इलाज किया था, वे सभी आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने मेरी पुन: सावधानीपूर्वक जांच की। मुझे लगा कि वे उलझन में पड़ गए हैं। मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हूँ यह बात उन्होंने स्वीकार की, किन्तु मेरी तबियत में सुधार कैसे हुआ इस विषय में कुछ न पूछा।’’
थोड़ी देर के बाद डॉ. विग्मोर का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करके आगन्तुक व्यक्ति विदा हुआ। चार महीने बाद वह फिर डॉ. विग्मोर से मिला, उस समय उसका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। ल्यूकेमिया का तो नामोनिशान नहीं था। इन चार महीनों में पांच कैंसर-विशेषज्ञों ने बड़ी सूक्ष्मता से उसका परीक्षण किया था। ल्यूकेमिया कैसे मिट गया वह बात उनकी समझ में नही आ रही थी। उनका अब भी यही मत है कि ल्यूकेमिया एक असाध्य रोग है। अधिकृत रूप से ऐसा घोषित भी किया गया है। किन्तु वे विशेषज्ञ डॉक्टर शायद यह हकीकत भूल गए थे कि सर्वशक्तिमान प्रकृति के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
रोग प्रतिकारक और रोग निवारक तत्त्व-क्लोरोफिल
गेहूँ के ज्वारे में अनेक पोषणदायक और रोगनिवारक तत्व है। उन में सभी
आवश्यक क्षार और विटामिन (उदा. विटामिन ए 18,000 आं. रा. इकाई/100 ग्राम,
विटामिन-सी 100 मि.ग्रा/100 ग्राम, विटामिन बी, विटामिन इ, विटामिन के,
लिट्राइल-विटामिन बी17 आदि) हैं। तदुपरांत उन में कार्बोहाइड्रेट्स,
प्रोटीन और चरबी भी है। लिट्राइल से कैसर–निवारण के अनेक किस्से
प्रकाश में आए हैं किन्तु ज्वारे का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है
क्लोरोफिल। यह क्लोरोफिल क्लोरोप्लास्ट्स नामक विशेष प्रकार के कोषों में
होता है। क्लोरोप्लास्ट्स सूर्यकिरणों की सहायता से पोषक तत्वों का
निर्माण करते हैं। यही कारण है कि आविष्कारक वैज्ञानिक डॉ. बर्शर
क्लोरोफिल को ‘केन्द्रित सूर्यशक्ति’ कहते हैं।
वास्तव में यह
क्लोरोफिल हरे रंग की सभी वनस्पतियों में होता है, किन्तु गेहूँ के ज्वारे
क्लोरोफिल का श्रेष्ठ प्राप्ति स्थान हैं।
हम सभी जानते हैं कि मानव-रक्त में हिमोग्लोबिन होता है। इस हिमोग्लोबिन में हेमिन नामक पदार्थ पाया जाता है। रासायनिक संरचना (Chemical structure) की दृष्टि से हेमिन और क्लोरोफिल में बड़ा साम्य होता है। दोनों में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के अणुओं की संख्या और उनकी जमावट तकरीबन एक जैसी होती है। हेमिन और क्लोरोफिल की संरचना में केवल एक ही सूक्ष्म भेद है, क्लोरोफिल-परमाणु के केन्द्रस्थान में मैग्नेशियम स्थित है, जबकि हेमिन-परमाणु के केन्द्र स्थान में लौह स्थित है। क्लोरोफिल के केन्द्र में स्थित मैग्नेशियम शरीरस्थ लगभग तीस ऍन्जाइम के लिए आवश्यक है। इस हकीकत के सन्दर्भ में डॉ. एन. विग्मोर जवारे के रस को ‘हरा रक्त’ कहती हैं। डॉ. हॅन्स मिलर क्लोरोफिल को ‘रक्त बनाने वाला प्राकृतिक परमाणु’ कहते हैं।
हमारा रक्त अल्प मात्रा में क्षारीय है। उसमें हाइड्रोजन अणुओं का प्रमाण (pH) 7.4 है। ज्वारों के रस में भी क्षारीय गुणधर्म होते हैं और उसका pH भी 7.4 है। इसीलिए ज्वारे के रस का अत्यन्त शीघ्रता से रक्त में अभिशोषण हो जाता है और वह शरीर के उपयोग में आने लगता है।
रासायनिक संरचना की दृष्टि से यदि क्लोरोफिल और मानव रक्त का हेमिन समान हो तो पाण्डुरोग तथा एनिमिया (शरीर की वह स्थिति जिसमें रक्त में हिमोग्लोबिन का प्रमाण कम हो जाता है।) इस अनुमान का परीक्षण करने के लिए कुछ प्रयोग हुए हैं।
डॉ. कोह्लर ने चूहा, खरगोश, गिनिपिग जैसे प्राणियों पर प्रयोग किए। उन्होंने कुछ गिनिपिग लेकर उन्हें दो समूहों में बांट दिया। प्रथम समूह को (गेहूँ के ज्वारे को छोड़कर) सभी प्रकार का सामान्य आहार दिया गया। दूसरे समूह को सामान्य आहार के अतिरिक्त गेहूँ के ज्वारे भी खिलाए गए। जिन गिनिपियों को आहार में ज्वारे प्राप्त होते थे उनका विकास अधिक व शीघ्रता के साथ हुआ, उनके रक्त में हिमोग्लोबिन की मात्रा भी बढ़ी।
डॉ. हृयूजिस और डॉ. लेट्नर ने खरगोशों पर निर्णायक प्रयोग किया था। इन अनुसन्धानकर्ताओं ने प्रत्येक खरगोश के शरीर से थोड़ा-थोड़ा रक्त निकालकर उन्हें पाण्डुरोगी बना दिया। इस प्रकार उनके शरीर से इतना रक्त निकाला लिया गया था, ताकि रक्त में हिमोग्लोबिन का प्रमाण सामान्य की अपेक्षा 40 प्रतिशत कम हो जाए। इसके बाद इन खरगोशों को दो समुदायों में बांट दिया गया। प्रथम समुदाय के खरगोशों को सामान्य आहार और उसी के साथ तेल में क्लोरोफिल मिलाकर दिया गया। दूसरे समुदाय के खरगोशों को सामान्य आहार और उसके साथ केवल तेल दिया गया। यह प्रयोग पन्द्रह दिनों तक चालू रखा गया। पन्द्रह दिनों के बाद रक्त का परीक्षण किया गया। प्रथम समुदाय के खरगोशो का पाण्डुरोग दूर हो गया था, जबकि दूसरे समुदाय के खरगोशों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ था। अनुसन्धाता इस निष्कर्ष पर आए कि जिन खरगोशों को क्लोरोफिल दिया गया था उनके शरीर में क्लोरोफिल का रूपान्तर हेमिन में हुआ था और परिणामस्वरूप उनका पाण्डुरोग दूर हो गया था।
इस प्रयोग से प्रोत्साहित होकर अनेक चिकित्सकों ने मनुष्यों का पाण्डुरोग दूर करने के लिए गेहूँ के ज्वारों के रस का उपयोग सफलतापूर्वक किया है। डॉ. ए. जे. पॅटॅक ने एक विशेष प्रकार के जीर्ण पाण्डुरोग ( chronic hypochromic anaemia) से पीड़ित पन्द्रह रोगियों पर गेहूँ के ज्वारों के रस का प्रयोग आजमाया था। इस किस्म के पाण्डुरोग में सामान्य प्रचलित उपायों को विशेष सफलता नहीं मिलती। डॉ. पेटेक ने इन रोगियों को शुद्ध अन्नाहार पर रखा। इसके साथ ज्वारे और रजके के रस द्वारा क्लोरोफिल देना आरंभ किया। थोड़े ही दिनों में इन रोगियों का स्वास्थ्य सुधरने लगा। उनकी थकावट और हाँफना दूर हो गए और उनमें स्फूर्ति का संचार हुआ। इन रोगियों के रक्त की जांच करने पर उसमें हिमोग्लोबिन की मात्रा में जो वृद्धि मालूम हुई वह आश्चर्यजनक थी।
डॉ. मिलर, डॉ. बर्गी, डॉ. विग्मोर आदि अनेक चिकित्सकों ने एक बात नोट की है कि ज्वारे के रस के साथ अपक्व (कच्चा) आहार ग्रहण करने से शीघ्र लाभ होता है।
क्लोरोफिल अत्यन्त प्रबल जन्तुनाशक है। वह कई रोगोत्पादक जीवाणुओं का नाश करता है अथवा उन्हें निष्क्रिय बनाता है अर्थात् उनके विकास को रोकता है। गेहूँ के ज्वारे के इस गुण को लक्ष्य में रखकर अनेक चिकित्सकों ने पायोरिया, चर्मरोग, मस्तिष्क का रक्तस्राव क्षय, हृदय-विकार, रक्तवाहिनियों का कठिनीकरण, ट्रोफिक अल्सर, वेरिकॉज वेइन्स, वेरिकॉज अल्सर, ऑस्टियोमायलाइटीस, आतों की सूजन इत्यादि व्याधियों में ज्वारे के रस का उपयोग किया जाता है। सफल रोगनिवारण के ऐसे हवाले अमेरिकन जर्नल ऑफ मेडिसिन, अमेरिकन जर्नल ऑफ सर्जरी, आर्किव्स ऑफ इण्टरनेशनल मेडिसिन, जर्नल ऑफ फिजियोलॉजी इत्यादि अनेक सुप्रसिद्ध सामयिकों में यदा-कदा प्रकाशित होते रहते हैं।
डॉ. ऑफन कैण्टज् ने पेट और छोटी आंत के उपदंश से पीड़ित 79 ऐसे रोगियों पर क्लोरोफिल का प्रयोग किया था जिनकी तकलीफें अन्य उपायों से दूर न हुई थीं। उनमें से 52 रोगियों के उपदंश 2 से 6 सप्ताह में मिट गए थे। बेरियम खिलाने के बाद एक्स-रे तस्वीर निकलवारकर इस हकीकत का निश्चय किया गया। शेष 27 रोगियों (जिनमें से कुछ को तो यह तकलीफ वर्षों से थी) को क्लोरोफिल के अलावा भोजन के कठोर परहेज पर रखा गया। 27 में से 20 रोगियों को 1 से 3 दिनों में ही पीड़ा से राहत मिल गई और 6-7 सप्ताह में उपदंश बिल्कुल ठीक हो गए। स्वस्थ होने वाले सभी रोगियों को थोड़ा-थोड़ा ज्वारे का रस चालू रखने की हिदायत दी गई। इतना करने से ये सभी रोगी बाद में भी व्याधिमुक्त रहे।
क्लोरोफिल रक्त की शुद्धि करता है, हृदय के कार्य को गति देता है। रक्तवाहिनियों आंतों, फेफड़ों और मूत्राशय पर अच्छा प्रभाव डालता है। यह नाइट्रोजन की बुनियादी फेरबदल में वृद्धि करने वाला एक अद्वितीय टॉनिक है।
हम सभी जानते हैं कि मानव-रक्त में हिमोग्लोबिन होता है। इस हिमोग्लोबिन में हेमिन नामक पदार्थ पाया जाता है। रासायनिक संरचना (Chemical structure) की दृष्टि से हेमिन और क्लोरोफिल में बड़ा साम्य होता है। दोनों में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के अणुओं की संख्या और उनकी जमावट तकरीबन एक जैसी होती है। हेमिन और क्लोरोफिल की संरचना में केवल एक ही सूक्ष्म भेद है, क्लोरोफिल-परमाणु के केन्द्रस्थान में मैग्नेशियम स्थित है, जबकि हेमिन-परमाणु के केन्द्र स्थान में लौह स्थित है। क्लोरोफिल के केन्द्र में स्थित मैग्नेशियम शरीरस्थ लगभग तीस ऍन्जाइम के लिए आवश्यक है। इस हकीकत के सन्दर्भ में डॉ. एन. विग्मोर जवारे के रस को ‘हरा रक्त’ कहती हैं। डॉ. हॅन्स मिलर क्लोरोफिल को ‘रक्त बनाने वाला प्राकृतिक परमाणु’ कहते हैं।
हमारा रक्त अल्प मात्रा में क्षारीय है। उसमें हाइड्रोजन अणुओं का प्रमाण (pH) 7.4 है। ज्वारों के रस में भी क्षारीय गुणधर्म होते हैं और उसका pH भी 7.4 है। इसीलिए ज्वारे के रस का अत्यन्त शीघ्रता से रक्त में अभिशोषण हो जाता है और वह शरीर के उपयोग में आने लगता है।
रासायनिक संरचना की दृष्टि से यदि क्लोरोफिल और मानव रक्त का हेमिन समान हो तो पाण्डुरोग तथा एनिमिया (शरीर की वह स्थिति जिसमें रक्त में हिमोग्लोबिन का प्रमाण कम हो जाता है।) इस अनुमान का परीक्षण करने के लिए कुछ प्रयोग हुए हैं।
डॉ. कोह्लर ने चूहा, खरगोश, गिनिपिग जैसे प्राणियों पर प्रयोग किए। उन्होंने कुछ गिनिपिग लेकर उन्हें दो समूहों में बांट दिया। प्रथम समूह को (गेहूँ के ज्वारे को छोड़कर) सभी प्रकार का सामान्य आहार दिया गया। दूसरे समूह को सामान्य आहार के अतिरिक्त गेहूँ के ज्वारे भी खिलाए गए। जिन गिनिपियों को आहार में ज्वारे प्राप्त होते थे उनका विकास अधिक व शीघ्रता के साथ हुआ, उनके रक्त में हिमोग्लोबिन की मात्रा भी बढ़ी।
डॉ. हृयूजिस और डॉ. लेट्नर ने खरगोशों पर निर्णायक प्रयोग किया था। इन अनुसन्धानकर्ताओं ने प्रत्येक खरगोश के शरीर से थोड़ा-थोड़ा रक्त निकालकर उन्हें पाण्डुरोगी बना दिया। इस प्रकार उनके शरीर से इतना रक्त निकाला लिया गया था, ताकि रक्त में हिमोग्लोबिन का प्रमाण सामान्य की अपेक्षा 40 प्रतिशत कम हो जाए। इसके बाद इन खरगोशों को दो समुदायों में बांट दिया गया। प्रथम समुदाय के खरगोशों को सामान्य आहार और उसी के साथ तेल में क्लोरोफिल मिलाकर दिया गया। दूसरे समुदाय के खरगोशों को सामान्य आहार और उसके साथ केवल तेल दिया गया। यह प्रयोग पन्द्रह दिनों तक चालू रखा गया। पन्द्रह दिनों के बाद रक्त का परीक्षण किया गया। प्रथम समुदाय के खरगोशो का पाण्डुरोग दूर हो गया था, जबकि दूसरे समुदाय के खरगोशों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ था। अनुसन्धाता इस निष्कर्ष पर आए कि जिन खरगोशों को क्लोरोफिल दिया गया था उनके शरीर में क्लोरोफिल का रूपान्तर हेमिन में हुआ था और परिणामस्वरूप उनका पाण्डुरोग दूर हो गया था।
इस प्रयोग से प्रोत्साहित होकर अनेक चिकित्सकों ने मनुष्यों का पाण्डुरोग दूर करने के लिए गेहूँ के ज्वारों के रस का उपयोग सफलतापूर्वक किया है। डॉ. ए. जे. पॅटॅक ने एक विशेष प्रकार के जीर्ण पाण्डुरोग ( chronic hypochromic anaemia) से पीड़ित पन्द्रह रोगियों पर गेहूँ के ज्वारों के रस का प्रयोग आजमाया था। इस किस्म के पाण्डुरोग में सामान्य प्रचलित उपायों को विशेष सफलता नहीं मिलती। डॉ. पेटेक ने इन रोगियों को शुद्ध अन्नाहार पर रखा। इसके साथ ज्वारे और रजके के रस द्वारा क्लोरोफिल देना आरंभ किया। थोड़े ही दिनों में इन रोगियों का स्वास्थ्य सुधरने लगा। उनकी थकावट और हाँफना दूर हो गए और उनमें स्फूर्ति का संचार हुआ। इन रोगियों के रक्त की जांच करने पर उसमें हिमोग्लोबिन की मात्रा में जो वृद्धि मालूम हुई वह आश्चर्यजनक थी।
डॉ. मिलर, डॉ. बर्गी, डॉ. विग्मोर आदि अनेक चिकित्सकों ने एक बात नोट की है कि ज्वारे के रस के साथ अपक्व (कच्चा) आहार ग्रहण करने से शीघ्र लाभ होता है।
क्लोरोफिल अत्यन्त प्रबल जन्तुनाशक है। वह कई रोगोत्पादक जीवाणुओं का नाश करता है अथवा उन्हें निष्क्रिय बनाता है अर्थात् उनके विकास को रोकता है। गेहूँ के ज्वारे के इस गुण को लक्ष्य में रखकर अनेक चिकित्सकों ने पायोरिया, चर्मरोग, मस्तिष्क का रक्तस्राव क्षय, हृदय-विकार, रक्तवाहिनियों का कठिनीकरण, ट्रोफिक अल्सर, वेरिकॉज वेइन्स, वेरिकॉज अल्सर, ऑस्टियोमायलाइटीस, आतों की सूजन इत्यादि व्याधियों में ज्वारे के रस का उपयोग किया जाता है। सफल रोगनिवारण के ऐसे हवाले अमेरिकन जर्नल ऑफ मेडिसिन, अमेरिकन जर्नल ऑफ सर्जरी, आर्किव्स ऑफ इण्टरनेशनल मेडिसिन, जर्नल ऑफ फिजियोलॉजी इत्यादि अनेक सुप्रसिद्ध सामयिकों में यदा-कदा प्रकाशित होते रहते हैं।
डॉ. ऑफन कैण्टज् ने पेट और छोटी आंत के उपदंश से पीड़ित 79 ऐसे रोगियों पर क्लोरोफिल का प्रयोग किया था जिनकी तकलीफें अन्य उपायों से दूर न हुई थीं। उनमें से 52 रोगियों के उपदंश 2 से 6 सप्ताह में मिट गए थे। बेरियम खिलाने के बाद एक्स-रे तस्वीर निकलवारकर इस हकीकत का निश्चय किया गया। शेष 27 रोगियों (जिनमें से कुछ को तो यह तकलीफ वर्षों से थी) को क्लोरोफिल के अलावा भोजन के कठोर परहेज पर रखा गया। 27 में से 20 रोगियों को 1 से 3 दिनों में ही पीड़ा से राहत मिल गई और 6-7 सप्ताह में उपदंश बिल्कुल ठीक हो गए। स्वस्थ होने वाले सभी रोगियों को थोड़ा-थोड़ा ज्वारे का रस चालू रखने की हिदायत दी गई। इतना करने से ये सभी रोगी बाद में भी व्याधिमुक्त रहे।
क्लोरोफिल रक्त की शुद्धि करता है, हृदय के कार्य को गति देता है। रक्तवाहिनियों आंतों, फेफड़ों और मूत्राशय पर अच्छा प्रभाव डालता है। यह नाइट्रोजन की बुनियादी फेरबदल में वृद्धि करने वाला एक अद्वितीय टॉनिक है।
क्लोरोफिल का श्रेष्ठ प्राप्ति स्थान : गेहूँ के ज्वारे
पिछले प्रकरण में हमने क्लोरोफिल की उपयोगिता और उसके गुणों के विषय में
चर्चा की है। हमने यह भी देखा कि हरे रंग की प्रत्येक वनस्पति में
क्लोरोफिल होता है। पाठक के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि यदि
प्रत्येक वनस्पति, भाजी या घास में क्लोरोफिल होता है तो फिर गेहूँ के
ज्वारे को ही पंसद क्यों किया जाए ? क्या गेहूँ के ज्वारे अन्य वनस्पति से
बढ़कर हैं ? यह मुद्दा समझ लेना भी आवश्यक है।
अमेरिका के आहारशास्त्री और घास-विशेषज्ञ डॉ. अर्प थॉमस के अध्ययन का निष्कर्ष है, ‘‘गेहूँ की घास सभी घासों में श्रेष्ठ है। गेहूँ के ज्वारे के रस से मनुष्य को आवश्यक प्रत्येक प्रकार का पोषण उपलब्ध हो जाता है। सावधानीपूर्वक चुनी हुई 23 किलो साग-सब्जियों से जितना पोषण प्राप्त होता है उतना केवल 1 किलो ज्वारे से प्राप्त हो जाता है। गेहूँ के ज्वारे का रस एक सम्पूर्ण आहार (a complete food) है। केवल यह रस पीकर ही मनुष्य पूरा जीवन बिता सकता है।
गेहूँ के ज्वारे में क्लोरोफिल के अलावा अन्य अनेक पोषण दायक तत्त्व अवस्थित हैं। उनमें शरीर के लिए आवश्यक सभी क्षार हैं। उनमें अवस्थित मैग्नेशियम शरीर के भीतर लगभग तीस ऍन्जाइमों की सक्रियता के लिए उपयोगी है। ज्वारे में विटामिन-डी और विटामिन-बी12 के सिवा सभी विटामिन उल्लेखनीय मात्रा में है। ज्वारे के ताजे रस में उतने ही वजन की मौसम्बियों या संतरों के रस की अपेक्षा काफी अधिक विटामिन-सी पाया जाता है। 100 ग्राम ज्वारे में 18,000 इकाई विटामिन-ए उपस्थित हैं। उसमें अवस्थित विटामिन-ई हृदय, रक्तवाहिनियों और यौन स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। उसमें उपस्थित विटामिन-बी-17 (लिट्राइल) को कई आरोग्यशास्त्री कैन्सर को नष्ट करने का एक मात्र उपाय मानते हैं।
उसमें अनेक पाचक रस और ऍन्जाइम अवस्थित हैं जो शरीर को विविध रूप में उपयोगी है। सौ ग्राम ताजे ज्वारे में से अंदाजन 90-100 मि.ग्राम क्लोरोफिल प्राप्त होता है। यह क्लोरोफिल अत्यन्त उच्च गुणवत्ता से युक्त एवं सक्रिय होता है।
गेहूँ के ज्वारे के रस की रासायनिक संरचना मनुष्य के रक्त की रासायनिक संरचना से काफी मिलती-जुलती है। ज्वारे का रस और मानव-रक्त दोनों समान मात्रा में क्षारीय है। दोनों का pH एक समान ही है। इसीलिए उसका रस पीने के बाद शीघ्रता से पच जाता है और अभिशोषण के साथ ही रक्त में मिल जाता है और शरीर के उपयोग में आने लगता है।
अमेरिका के आहारशास्त्री और घास-विशेषज्ञ डॉ. अर्प थॉमस के अध्ययन का निष्कर्ष है, ‘‘गेहूँ की घास सभी घासों में श्रेष्ठ है। गेहूँ के ज्वारे के रस से मनुष्य को आवश्यक प्रत्येक प्रकार का पोषण उपलब्ध हो जाता है। सावधानीपूर्वक चुनी हुई 23 किलो साग-सब्जियों से जितना पोषण प्राप्त होता है उतना केवल 1 किलो ज्वारे से प्राप्त हो जाता है। गेहूँ के ज्वारे का रस एक सम्पूर्ण आहार (a complete food) है। केवल यह रस पीकर ही मनुष्य पूरा जीवन बिता सकता है।
गेहूँ के ज्वारे में क्लोरोफिल के अलावा अन्य अनेक पोषण दायक तत्त्व अवस्थित हैं। उनमें शरीर के लिए आवश्यक सभी क्षार हैं। उनमें अवस्थित मैग्नेशियम शरीर के भीतर लगभग तीस ऍन्जाइमों की सक्रियता के लिए उपयोगी है। ज्वारे में विटामिन-डी और विटामिन-बी12 के सिवा सभी विटामिन उल्लेखनीय मात्रा में है। ज्वारे के ताजे रस में उतने ही वजन की मौसम्बियों या संतरों के रस की अपेक्षा काफी अधिक विटामिन-सी पाया जाता है। 100 ग्राम ज्वारे में 18,000 इकाई विटामिन-ए उपस्थित हैं। उसमें अवस्थित विटामिन-ई हृदय, रक्तवाहिनियों और यौन स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। उसमें उपस्थित विटामिन-बी-17 (लिट्राइल) को कई आरोग्यशास्त्री कैन्सर को नष्ट करने का एक मात्र उपाय मानते हैं।
उसमें अनेक पाचक रस और ऍन्जाइम अवस्थित हैं जो शरीर को विविध रूप में उपयोगी है। सौ ग्राम ताजे ज्वारे में से अंदाजन 90-100 मि.ग्राम क्लोरोफिल प्राप्त होता है। यह क्लोरोफिल अत्यन्त उच्च गुणवत्ता से युक्त एवं सक्रिय होता है।
गेहूँ के ज्वारे के रस की रासायनिक संरचना मनुष्य के रक्त की रासायनिक संरचना से काफी मिलती-जुलती है। ज्वारे का रस और मानव-रक्त दोनों समान मात्रा में क्षारीय है। दोनों का pH एक समान ही है। इसीलिए उसका रस पीने के बाद शीघ्रता से पच जाता है और अभिशोषण के साथ ही रक्त में मिल जाता है और शरीर के उपयोग में आने लगता है।
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