लोगों की राय

स्वास्थ्य-चिकित्सा >> प्रकृति द्वारा स्वास्थ्य सूर्य,मिट्टी जल

प्रकृति द्वारा स्वास्थ्य सूर्य,मिट्टी जल

राजीव शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :68
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3485
आईएसबीएन :81-288-0979-2

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

346 पाठक हैं

सूर्य मिट्टी और जल के गुणों का वर्णन....

Prakrati Dwara Swasthya Surya Mitti Jal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

प्रकृति हम सबको सदा स्वस्थ बनाए रखना चाहती है और इसके लिए प्रकृति ने अनेक प्रकार के फल, फूल, साग, सब्जियां, जड़ी-बूटियां, अनाज, दूध, दही, मसाले, शहद, जल एवं अन्य उपयोगी व गुणकारी वस्तुएं प्रदान की हैं। इस उपयोगी पुस्तक माला में हमने इन्हीं उपयोगी वस्तुओं के गुणों एवं उपयोग के बारे में विस्तार से चर्चा की है। आशा है यह पुस्तक आपके समस्त परिवार को सदा स्वस्थ बनाए रखने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रकृति ने हमारे शरीर-संरचना एवं स्वभाव को ध्यान में रखकर ही औषधीय गुणों से युक्त पदार्थ बनाए हैं। शरीर की भिन्न-भिन्न व्याधियों के लिए उपयोगी ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ, अमृततुल्य हैं।
इन्हीं अमृततुल्य पदार्थों जैसे-तुलसी, अदरक, हल्दी, आंवला, पपीता, बेल, प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, नीबू, सेब, अमरूद आदि के औषधीय गुणों व रोगों में इनके प्रयोग के बारे में जानकारी अलग-अलग पुस्तकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास है—यह पुस्तक।

 

प्रस्तावना

 

प्रकृति ने हमारे शरीर, गुण व स्वभाव को दृष्टिगत रखते हुए फल, सब्जी, मसाले, द्रव्य आदि औषधीय गुणों से युक्त ‘‘घर के वैद्यों’’ का भी उत्पादन किया है। शरीर की भिन्न-भिन्न व्याधियों के लिए उपयोगी ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ, अमृततुल्य हैं। ये पदार्थ उपयोगी हैं, इस बात का प्रमाण प्राचीन आयुर्वेदिक व यूनानी ग्रंथों में ही नहीं मिलता, वरन् आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी इनके गुणों का बखान करता नहीं थकता। वैज्ञानिक शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है कि फल, सब्जी, मेवे, मसाले, दूध, दही आदि पदार्थ विटामिन, खनिज व कार्बोहाइड्रेट जैसे शरीर के लिए आवश्यक तत्त्वों का भंडार हैं। ये प्राकृतिक भोज्य पदार्थ शरीर को निरोगी बनाए रखने में तो सहायक हैं ही, साथ ही रोगों को भी ठीक करने में पूरी तरह सक्षम है।

तुलसी, अदरक, हल्दी, आँवला, पपीता, बेल, प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, नीबू, सेब, अमरूद, आम, विभिन्न सब्जियां, मसाले व दूध, दही, शहद आदि के औषधीय गुणों व रोगों में इनके प्रयोग के बारे में अलग-अलग पुस्तकों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास ‘मानव कल्याण’ व ‘सेवा भाव’ को ध्यान में रखकर किया गया है।
उम्मीद है, पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे।
सादर,

 

-डॉ. राजीव शर्मा
आरोग्य ज्योति
320-322 टीचर्स कॉलोनी
बुलन्दशहर, उ.प्र.

 

                पुरानी व नई माप
     8 रत्ती            -        1 माशा
   12 माशा          -        1 तोला
     1 तोला          -        12 ग्राम
     5 तोला          -        1 छटांक
   16 छटांक         -        1 कि.ग्रा.
     1 छटांक         -        लगभग 60 ग्राम

 

    प्रकृति स्वयं चिकित्सक

 

 

प्रकृति और मानव-शरीर में जन्मजात सहचर्य रहा है। यह एक सर्वमान्य बात है कि मानव प्रकृति की शस्य-श्यामल-गोद में जन्म लेता, पलता और उसी के विस्तृत प्रांगण में क्रीड़ा कर अंतर्ध्यान हो जाता है।

इस शरीर का निर्माण भी धरती (मिट्टी), जल, अग्नि, आकाश और वायु—इन पाँच प्राकृतिक तत्त्वों से हुआ है। ये पाँचों तत्त्व मान-जीवन के लिये प्रत्येक क्षण कल्याणप्रद हैं। प्रकृति का यह विचित्र विधान है कि जिन तत्त्वों से प्राणी के शरीर का निर्माण हुआ, पुनः उन्हीं तत्त्वों से उसकी प्राकृतिक चिकित्साएँ (Natural Treatments) भी होती हैं।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त आठ ऐसे चिकित्सक हमें प्राप्त हैं, जिनके सहयोग तथा उचित सेवन से हम यथासम्भव आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। वे चिकित्सक हैं—1-वायु, 2-आहार, 3-जल, 4-उपवास, 5-सूर्य, 6-व्यायाम, 7- विचार, 8-निद्रा। यहां संक्षेप में इनकी चर्चा की जा रही है—

 

वायु

 

प्रसिद्ध है कि मानव-जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्वपूर्ण है। वेद में कहा गया है कि वायु अमृत है, वायु प्राणरूप में स्थित है। प्रातः काल वायु-सेवन करने से देह की धातुएँ और उपधातुएँ शुद्ध और पुष्ट होती हैं, मनुष्य बुद्धिमान और बलवान बनता है, नेत्र और श्रवणेन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है तथा इन्द्रिय-निग्रह होता है एवं शान्ति मिलती है। प्रातः कालीन शीतल वायु पुष्पों के सौरभ को लेकर अपने पथ में सर्वत्र विकीर्ण करता है, अतः उस समय वायु-सेवन करने से मन प्रफुल्लित और प्रसन्न रहता है, साथ ही आनन्द की अनुभूति भी होती है।
शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, शुद्ध प्रकाश एवं शुद्ध अन्न यह ‘पंचामृत’ कहलाता है। प्रातः कालीन वायु—सेवन तथा भ्रमण सहस्रों रोगों की एक रामबाण औषधि है। शरीर, मन, प्राण, ब्रह्मचर्य, पवित्रता, प्रसन्नता, ओज, तेज, बल, सामर्थ्य, चिर-यौवन और चिर उल्लास बनाये रखने के लिए शुद्ध वायु-सेवन तथा प्रातः कालीन भ्रमण अति आवश्यक है। प्रातः काल का वायु-सेवन ‘ब्रह्मवेला का अमृतपान’ कहा गया है।

 

आहार

 

शरीर और भोजन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को सात्त्विक भोजन करना चाहिए, क्योंकि सात्त्विक आहार से शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुँचता है। एक समय ईरान के बादशाह ने एक श्रेष्ठ हकीम से प्रश्न किया कि ‘दिन-रात में मनुष्य को कितना खाना चाहिए ?’ उत्तर मिला ‘छः दिरम्’ अर्थात् 31 तोला। फिर पूछा, ‘इतने से क्या होगा ?’ हकीम ने कहा—‘शरीर-पोषण के लिए इससे अधिक नहीं खाना चाहिए। इसके उपरान्त जो कुछ खाया जाता है, वह केवल बोझ ढोना और उम्र खोना है।’

मनुष्य को स्वल्प आहार करना चाहिए। ‘स्वल्पाहार : सुखावह :। ‘थोड़ा आहार करना स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होता है’। आहार उतना ही करना चाहिए, जितना कि सुगमता से पच सके। शुद्ध एवं सात्त्विक आहार शरीर का पोषण करने वाला, शीघ्र बल देने वाला, तृप्तिकारक, आयुष्य और तेजवर्धक, साहस तथा मानसिक शक्ति बढ़ाने वाला होता है। आहार से ही शरीर में सप्त धातुएँ बनती हैं। आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक ने भी लिखा है कि ‘देहो आहारसम्भवः’—शरीर आहार से ही बनता है। ‘उपनिषद्’ में भी आहार के विषय में कहा गया है कि

 

‘आहार शुद्धौ सत्त्वाशुद्धिः सत्त्व-शुद्धौ
ध्रुवा स्मृतिः, स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।’
            (छान्दोग्योपनिषद् 7/26/2)

 

अर्थात् आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्व शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्रयी बन जाती है। फिर पवित्र एवं निश्रयी बुद्धि से मुक्ति भी सुगमता से प्राप्त होती है।
गरिष्ठ भोजन अधिक हानिप्रद होता है। भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। इससे यथेष्ट लाभ मिलता है। भोजन शान्तिपूर्वक करना चाहिए।


जल

 


स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जल का महत्वपूर्ण स्थान है। सोकर उठते ही स्वच्छ जल पीना स्वास्थ्य के लिए बड़ा ही हितकर कहा गया है। लिखा है कि—


सवितुः समुदय काले प्रसृती: सलिलस्य पिबेदष्टौ।
रोगजरापरिमुक्तोजीवेद् वत्सरशतं साग्रम्।।


अर्थात् सूर्योदय के समय आठ घूट जल पीने वाला मनुष्य रोग और वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ वर्ष से भी अधिक जीवित रहता है। कुएं का ताजा अथवा ताम्रपात्र में रखा हुआ जल पीने के लिए अधिक अच्छा है। खाने से एक घंटा पूर्व अथवा खाने के दो घंटे बाद जल पीना चाहिए। एक व्यक्ति को एक दिन में कम से कम तीन लीटर जल पीना चाहिए, इससे रक्त संचार सुचारु रूप से होता है।

 

उपवास

 

 

धर्मशास्त्रों में उपवास का बहुत महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। उपवास से शरीर, मन और आत्मा सभी की उन्नति होती है। उपवास से शरीर के त्रिदोष नष्ट हो जाते हैं। आँतों को अवशिष्ट भोजन को पचाने में सुविधा मिलती है तथा शरीर स्वस्थ और हल्का सा प्रतीत होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास बहुत ही आवश्यक है। उपवास करने से मनुष्य की आत्मिक शक्ति बढ़ती है। कहते हैं कि यदि महीने में दोनों एकादशियों के निराहार—व्रत का विधिवत पालन किया जाए तो प्रकृति पूर्ण सात्त्विक हो जाती है। जिन्हें उपवास करने का अभ्यास नहीं है, उन्हें चाहिए कि वे सप्ताह में एक दिन एक बार ही भोजन करें और धीरे-धीरे आगे चलकर सम्पूर्ण दिवस उपवास रखने का व्रत लें।
भगवद्भजनों की उपासना, सत्साहित्य के स्वाध्याय आदि शुभ कर्मों में व्यतीत करना चाहिए। उपवास करने वालों को चाहिए कि वे अपने मन को चारों ओर से खींचकर आत्मचिन्तन में लगाएं, धार्मिक विषयों की चर्चा करें और संत-महात्माओं के पास बैठकर उपदेश ग्रहण करें। इस प्रकार के उपवास से शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्त होता है।

 

सूर्य

 

 

जीवन की रक्षा करने वाली सभी शक्तियों का मूल स्रोत सूर्य है। ‘सूर्यो हि भूतानामायुः।’ समस्त चराचर भूतों का जीवनधार सूर्य है। यदि सूर्य न होता तो हम लोग एक क्षण भी जीवित न रह पाते। जीवन में सूर्य-रश्मियों का महत्त्व बहुत अधिक है। सूर्य की किरणों के शरीर के ऊपर पड़ने से हमारे शरीर के अनेकों रोग-कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।
सूर्य के प्रकाश से रोगोत्पादक शक्ति नष्ट हो जाती है। सूर्य से आरोग्य-प्राप्ति के विषय में अथर्ववेद ने लिखा है—

 

मा ते प्राण उप दसन्मो अपानोऽपि आयि ते।
सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरुदायच्छतु रश्मिभिः।।

 

अर्थात् हे जीव ! तेरा प्राण विनाश को न प्राप्त हो और तेरा अपान भी कभी न रुके अर्थात् तेरे शरीर के श्वास-प्रश्वसन की क्रिया कभी बंद न हो। सबका स्वामी सूर्य—सबका प्रेरक परमात्मा तुझे अपनी व्यापक बलकारिणी किरणों से ऊँचा उठाये रखे—तेरे शरीर को और जीवनी-शक्ति को गिरने न दें।
सूर्य का प्रभाव मनुष्य के शरीर एवं मन पर बहुत गहरा पड़ता है। चिकित्सकों का मत है कि सूर्य—रश्मि के सेवन से प्रत्येक प्रकार के रोग ठीक किए जा सकते हैं। यजुर्वेद में कहा है कि चराचर प्राणी और समस्त पदार्थों की आत्मा तथा प्रकाश तथा प्रकाश होने से परमेश्वर का नाम ‘सूर्य’ है। ‘सूर्य’ आत्मा जगत्स्तस्थुषश्र’—अतएव इन्हें वेद में जीवनदाता’ कहा गया है।

 

व्यायाम

 

 

आयुर्वेद का मत है कि व्यायाम करने से शरीर का विकास होता है, शरीर के अंगों की थकावट नष्ट हो जाती है, निद्रा खूब आती है और मन की चंचलता दूर होती है। जठराग्नि प्रदीप्ति होती है तथा आलस्य मिट जाता है। शारीरिक सौन्दर्य की वृद्धि होती है और मुख की कान्ति में निखार आता है।
आयुर्वेद मर्मज्ञ आचार्य वागभट्ट ने लिखा है—

 

लाघवं कर्मसामर्थ्य दीप्तोऽग्रिर्मेदसः क्षयः।
विभक्घनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते।।

 

तात्पर्य यह है कि व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि प्रज्वलित होती है, मोटापा नहीं रहता तथा शरीर के सब रोग नष्ट होते हैं। साथ ही यथोचित व्यायम से प्रकृति के विरुद्ध गरिष्ठ भोजन भी शीघ्र पच जाता है तथा शरीर में शिथिलता जल्दी नहीं आ पाती। जीवन में प्रसन्नता, स्वास्थ्य एवं सौंन्दर्य के लिए व्यायाम नितान्त आवश्यक है। सदाचार और व्यायाम के बल पर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव हो सकता है।

 

विचार

 

 

विचारशक्ति में एक महान उद्देश्य छिपा रहता है। इसलिए हमें अपने विचारों को सदा-सर्वदा शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिए। विचारों का प्रभाव सीधे स्वास्थ्य पर पड़ता है। सांकल्पिक दृढ़ता तथा सात्त्विक चिन्तन-मनन रोगों की निर्मूलता के लिए बहुत आवश्यक है। दूषित विचारों से न केवल मन विकृत होकर रुग्ण होता है, अपितु शरीर भी अनारोग्य हो जाता है। सम्यक् सत्-चिन्तन सद्विचार एक जीवनी-शक्ति है। अतः आरोग्य-लाभ के लिए मनुष्य को विचार-शक्ति का आश्रय लेना चाहिए।

 

निद्रा

 

 

जिस प्रकार स्वास्थ्य-रक्षा के लिए शुद्ध वायु, जल, सूर्य और भोजन आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार यथोचित निद्रा भी आवश्यक है। एक स्थान पर कहा गया है—

 

निद्रा तू सेविता काले धातुसाम्यमतनिद्राताम्।
पुष्टिं वर्ण बलोत्साहं वहृदीप्तिं करोति हि।।

 

अर्थात् रात्रि में ठीक समय पर सोने से शरीर की धातुएँ साम्य अवस्था में रहती हैं और आलस्य दूर होता है। पुष्टि, कान्ति, बल और उत्साह बढ़ता है तथा अग्नि दीप्ति होती है। स्वास्थ्य के लिए प्रगाढ़ निद्रा आवश्यक है। रात्रि में सत् विचारों का स्मरण करते हुए शान्तिपूर्वक सोना चाहिए। उत्तम स्वास्थ्य के लिए सात्त्विक निद्रा आवश्यक है। दिन में सोने से विविध प्रकार की व्याधियाँ आ घेरती हैं।
यथाकाल निद्रा से निम्नलिखित लाभ होते हैं—
1.    नियमपूर्वक सोने से सारी थकान दूर हो जाती है।
2.    नए काम करने की नई शक्ति प्राप्त होती है।
3.    आयुर्बल बढ़ता है।
4.    स्वप्नदोष, धातुदौर्बल्य, सिर के रोग, आलस्य, अल्पमूत्र और रक्तविकार आदि से रक्षा होती है।
5.    मन तथा इन्द्रियों को विश्राम मिलता है।
सोने से पहले मन को समस्त शोक, चिन्ता और भय से रहित कर लेना चाहिए तथा प्रसन्नता, संतोष और धैर्य के साथ सफलता की कामना करनी चाहिए। इससे आप प्रातः काल अपने में महान परिवर्तन पाएंगे।
उपर्युक्त प्रकृति—प्रदत्त आठ चिकित्सकों के समुचित सेवन से मनुष्य—जीवन स्वस्थ, समृद्ध सुख-सम्पत्ति तथा आनन्द से परिपूर्ण और आयुष्मान होता है।


जल, वाष्प व बर्फ से उपचार

 

विदेशों की तरह भारत में भी जल चिकित्सा का काफी प्रचलन था। हमारे धार्मिक ग्रंथों में जल चिकित्सा की कई विधियां वर्णित हैं। विदेशों में जल चिकित्सा को ‘हाइड्रोथेरेपी’ के नाम से जाना जाता था। जर्मनी के महान आचार्य सर लुई ने जल के विभिन्न प्रयोगों द्वारा कई रोगों को सफलतापूर्वक दूर किया। मनुष्य के लिए जल नितांत आवश्यक है। एक बार मनुष्य भूखा रह सकता है, पर प्यासा नहीं रह सकता। स्वस्थ रहने के लिए दिन में लगभग 8-10 गिलास पानी अवश्य पीना चाहिए। प्रतिदिन शरीर को अच्छी तरह कपड़े से रगड़-रगड़ कर शीतल जल से स्नान करना चाहिए। भोजन में भी जल की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए। जल उपचार की कई विधियां हैं। ठंडे पानी की पट्टी, गर्म पानी की पट्टी, धौती, एनिमा, वाष्प स्नान, कटि स्नान, टब स्नान, बर्फ आदि विधियों से विभिन्न रोगों में लाभ होता है।
इन विधियों से शरीर को निम्न लाभ होते हैं—
•    पेट साफ होता है।
•    बड़ी आंतों में से गंदगी बाहर निकल जाती है।
•    मूत्र द्वारा शरीर का मल बाहर निकल जाता है।
•    शरीर के छिद्रों से पसीना गंदगी को बाहर निकाल फेंकता है।
•    बुखार में पानी की ठंडी पट्टी तापमान कम करने में बड़ी सहायक होती है।
•    शरीर के रक्त विकार को पानी दूर कर देता है—साथ ही रक्त संचालन को ठीक रखने में मदद देता है।

 

पित्त में ज्वर

 

 

पित्त ज्वर में रोगी की नाभि पर ठंडे पानी की धार डालने से उसे प्रचुर लाभ मिलता है। पित्त ज्वर के रोगी को पीठ के बल लिटा देना चाहिए। फिर उसके पेडू पर ताबें या कांसे का बर्तन जो गहराई वाला हो, रखें—और तब ठंडे पानी की धार उसमें गिराएं। यह विधि पित्त ज्वर में तुरन्त फायदा पहुंचाती है।


कफ को दूर करने में

 

 

कफ दूर करने के लिए शीतल जल में स्नान (क्रीड़ा) करना चाहिए। जल क्रीड़ा से पैदा हुई ठंडक से बाहर निकलने वाली गरमी शरीर के अंदर ही रुक जाती है। यह गर्मी—तीव्र होकर कफ को सोख लेती है।

 

विष को दूर करने में

 

 

किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव कम करने के लिए रोगी को जल के अंदर बिठा देना चाहिए। इससे विष का असर जाता रहता है।

 

ज्वर

 

 

ज्वर चढ़ आने पर पानी की ठंडी पट्टी को माथे पर रखने से ज्वर का प्रकोप शांत हो जाता है।

 

लू लगने पर

 

 

जब मनुष्य को लू लगती है तो अधिक गर्मी सहन न कर सकने की दशा में वह बेहोश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को ठंडी हवा और हवादार जगह में लिटाना चाहिए। खस या खजूर के पंखे को पानी में भिगोकर उससे हवा करनी चाहिए। चेहरे पर ठंडे पानी की छींटे मारें। रोगी के कपड़े उतार कर उसे ठंडे पानी से नहलाएं।
चने के सूखे साग या चने के भूसे को पानी में भिगोकर कुछ देर बाद उस पानी में कपड़ा भिगोकर रोगी के शरीर पर मलें, यह बहुत ही लाभ पहुंचाता है।

 

पेट दर्द में

 

 

पेट में यदि दर्द हो रहा हो तो गर्म पानी की पट्टी या रबर की बोतल में गर्म पानी भर उसका सेंक करने से पेट दर्द दूर हो जाता है। अक्सर पेट-दर्द गलत खान-पान से होता है जिससे पेट में गैस बनती है और गैस मरोड़ पैदा करती है। इसके लिए एनीमा लेना भी लाभप्रद है। एनीमा से पेट का जमा हुआ मल और गैस बाहर निकल जाते हैं।

 

नाक से खून निकलने पर

 

 

गर्मी में या शरीर में किसी कारणवश गर्मी की अधिकता से कभी-कभी नाक से खून निकलना आरम्भ हो जाता है। इसे नकसीर फूटना भी कहते हैं। ऐसे में रोगी की नाक पर ठंडे पानी के छींटे मारने चाहिए। साथ ही सिर पर ठंडा पानी डालें और रोगी के सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखें। कुछ ही देर में रोगी को आराम मिल जाएगा।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book