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मांस का दरिया

कमलेश्वर

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 1986
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3482
आईएसबीएन :0000

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रोचक कहानी संग्रह

MANS KA DARIYA

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मांस का दरिया’ का प्रथम प्रकाशन हिन्दी कथा-साहित्य की एक विशिष्ट घटना और नयी कहानी की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में आँका गया था। हिन्दी कहानी के पाठक के लिए यह एक नितान्त नया अनुभव है। साथ ही नई हिन्दी कहानी के अध्येताओं के लिए भी मांस का दरिया एक अपरिहार्य कहानी-संग्रह रहा है। इसीलिए कमलेश्वर के कहानी संग्रहों में मांस का दरिया की मांग सर्वाधिक रही। अतः निरन्तर बढ़ती हुई मांग की पूर्ति के लिए हिन्दी के अन्यतम कथा-शिल्पी कमलेश्वर का यह कहानी-संग्रह मांस का दरिया चौथे संस्करण के रूप में हिन्दी पाठकों के लिए पुनः प्रस्तुत है।

पहले संस्करण की भूमिका
आत्मकथ्य

मृत्यु मेरे व्यक्ति की नियति है; विचारों की नहीं। विचारों की यह सम्पदा परम्परा से ही मिलती है, और उनमें जीते हुए निरन्तर विकसित और नया होने की अनिवार्यता अपने परिवेश में जीने वाले व्यक्ति की शर्त है।
कहानी लिखना मेरा व्यवसाय नहीं- विश्वास है। मैं अकेला होता, तो मुझे किसी विश्वास या आस्था की जरूरत नहीं पड़ती। पर मैं अकेला नहीं हूँ.....अस्तित्व के संकट को एक क्लर्क या दूकानदार बनकर भी झेला जा सकता था (जो किसी भी रूप में हीन नहीं था), पर मैं लेखक इसलिए हूँ कि उसे झेलने के साथ-साथ सोचने का वक़्त भी निकाल सकता हूँ। यह संकट मेरे लिए संपूर्ण प्राप्ति नहीं है- इस संकट से पीछे छिपे तथ्य और रहस्य भी चेतना का प्राप्य हैं, इसीलिए क्षण में जीने की कोई बाध्यता नहीं होती, पीछे देखकर, वर्तमान को वहन कर आगे देखना सहज प्रक्रिया बन जाती है।

कलाओं के विकास का आधार ही सामाजिक-साम्बन्धिक अस्तित्व है। यदि यह अस्तित्व उनसे निरपेक्ष होता, तो केवल अन्तर्विरोधों में जी सकना ही समभव होता। जो निरपेक्ष हैं, वे उन अन्तर्विरोधों में मृतक की तरह जी भी रहे हैं और अपने सलीब उठाये हुए क़ब्रिस्तान की ओर उन्मुख हैं। यहां रहते हुए मौत को छलना भी मेरा काम है, और इस काम में सारी दुनियाँ मेरा हाथ बँटा रही है- बौद्धिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, यान्त्रिक आदि स्तरों पर। जो मेरे लिए किसी भी रूप में मौत पैदा करता है, वह तत्त्व अमित्र है, इसीलिए मेरी उससे सहमति नहीं है और उसका प्रतिवाद करते रहना मेरा धर्म है।
कहानी लिखना मेरे लिए यातना नहीं है, यातनापूर्ण है वे कारण जो मुझे कहानी लिखने के लिए मजबूर करते हैं.....और यह मजबूरी तभी होती है, जब मेरा अपना संकट दूसरों के संकट से संबद्ध होकर असह्य हो जाता है....या मेरी अपनी करुणा दूसरों की संवेदना से मिलकर अनात्म हो जाती है।

कहानी मुझे औरों से जोड़ती है, या यह कहूँ कि बहुतों से संपृक्त होने की सांस्कृतिक स्थिति ही कहानी की शुरूआत है। यह शुरूआत बार-बार हुई है और महान कहानीकारों द्वारा हर बार वह शेष होने की स्थिति तक पहुँची है।
कहानी की मृत्यु के घोषणापत्र लिखने वाले और उन पर अँगूठा लगानेवाले झूठी अदालतों के दरवाजों पर बैठे हुए मुहर्रिर और उनके पेशेवर ‘चश्मदीद गवाह’ ही हो सकते हैं-लेखक नहीं। लेखक मृत्यु का नहीं, जीवन का साक्षी होता है। शव की साधना अघोरपन्थी तांत्रिक करते हैं, लेखक नहीं।

मेरा जीवन इतिहास-सापेक्ष है। उसके तमाम अन्तर्द्वन्द्वों का साक्षी है- व्यक्ति और उसी सामाजिकता-दोनों का। जहाँ सामाजिकता की क्रूरता व्यक्ति के यथार्थ को दबोचती है, या जहां व्यक्ति के अहं की क्रूरता सामाजिकता के यथार्थ को नकारती है, वहाँ आज की कहानी यानी नयी कहानी नहीं हो सकती- वहाँ आग्रहमूलक लेखन ही हो सकता है। ऐसा लेखन, जो किसी एक की क्रूरता को साग्रह अग्रसर करने वाला यन्त्र बन जाता हो।

नयी कहानी आग्रहों की कहानी नहीं हैं, प्रवृत्तियों की हो सकती है। और उसका मूत्र स्रोत्र है- जीवन का यथार्थ बोध। और इस यथार्थ को लेकर चलनेवाला वह विराट मध्य, निम्न मध्यवर्ग और शोषितवर्ग है, जो अपनी जीवन शक्ति से आज के दुर्दान्त संकट को जाने-अनजाने झेल रहा है। उसका केन्द्रीय पात्र है (अपने विविध रूपों और परिवेशों में)- जीवन को वहन करने वाला व्यक्ति। नयी कहानी ने इसलिए उसे ‘तीसरे उपजीवी’ को पनाह नहीं दी, जो एकाएक बहुत महत्त्वपूर्ण होकर प्रेमचंद और प्रसाद के बाद यशपाल की समकालीन कहानी में सहसा घुस आया था। जिसने अपने झूठे अभिजात्य को अस्त्र बनाकर उस विराट वर्ग की नैतिकता और मानवीयता को और भी जर्जर किया था- उसके साथ बलात्कार किया था। जिसने आर्थिक रूप से विपन्न, परिस्थितियों में जकड़े, रूढ़ियों में फंसे उस विराट-मानव-समुदाय के लिए एक व्यक्तिवादी नैतिक संकट खड़ा कर दिया था......जिसने हर औरत को अपने लिए निर्जन स्थानों या ड्राइंगरूमों में अकेला खड़ा कर लेना चाहा था....हर पुरुष को हीन-लघु बना देना चाहा था.....उसे उसके सार्थक परिवेश के प्रति शंकालु और संश्यग्रस्त करके अकेला कर देने की कोशिश की थी और क्षणवादी दर्श की पीड़ावादी व्याख्या से हर क्रूरता, अनैतिकता और अमानुषिकता के प्रति उसे वीतराग कर देना चाहता था.....।

नयी कहानी ने इस अन्धड़ को पहचाना था। तभी उसने जीवन को विभिन्न स्तरों पर वहन करनेवाले, उससे संपृक्त केन्द्रीय पात्रों की तलाश की थी- यथार्थ की तलाश की थी, जिसकी साक्षी हैं वे कहानियाँ, जो इस दौर में लिखी गयीं- पराया सुख, धरती अब भी घूम रही है, जानवर और जानवर, जहाँ लक्ष्मी क़ैद है, दोपहर का भोजन, चीफ़ की दावत, गुलकी बन्नो, शतुरमुर्ग, बदबू, हंसा जाई अकेला, नन्हों, चौदह कोसी पंचायत, पंखाकुली, भैंस का कट्या, तीसरी कसम, लन्दन की एक रात, रेवा, यही सच है, गुलाब के फूल और काँटे, हिरन की आँखें, सिक्का बदल गया, कस्तूरी मृग, समय, ज़मीन-आसमान, रक्तपात, फेंस के इधर और उधर, एक पति के नोट्स आदि। कहानियाँ और भी हैं, और यह भी सही है कि  उपरोक्त कहानियों के लेखकों ने सभी कहानियाँ ‘नयी’ नहीं लिखी हैं, पर आज की कहानी की एक सशक्त धारा और कहानियों की इसी धारा से मैं अपने को जुड़ा हुआ पाता हूँ।

इन पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में कुछ ‘गज़ेटेड आलोचकों’ के कारनामों के कारण एकाएक प्रगतिशीलता, जनवादी दृष्टिकोण आदि शब्दों से लेखकों को परहेज हो गया, इतना ही नहीं उन शब्दों से उन्हें डर भी लगने लगा- मेरे लिए वे शब्द डर का कारण नहीं हैं-वे मेरी शक्ति हैं।

हाँ, एक अन्तर्द्वन्द्व हमेशा मन में रहा है.....क्योंकि कोई भी विचार अन्तिम नहीं है; और बदलते परिवेश में जहाँ मूल्यों का संकट हो, आस्था को फिर-फिर टटोलने की आवश्यकता हो, निराशा से ऊब-ऊबकर घबराने की स्थिति हो, वहाँ एक लेखक का काम बहुत नाज़ुक हो जाता है.....इस संक्रान्ति को धीरज से देखकर, अनुभव के स्तर पर जीकर संवेदनात्मक स्वर में कुछ कहना भी मुझे अपना दायित्व लगता है-और कहानियों की ‘थीम’ को चुनने की यही मेरी दृष्टि भी है। इसलिए जीवन के प्रति प्रतिबद्ध होना मेरी अनिवार्यता है। इस टूटते, हारते अकुलाते मनुष्य की गरिमा में मेरा विश्वास है.....मुझे इतना झूठा दर्प और दुस्साहस नहीं कि अपनी समस्त थाती को हीन, कमीन, अश्लील, विगलित और रुग्ण आदि मानकर चल सकूँ। मुझे झुके हुए मस्तकों से सहानुभूति है, हारे हुए योद्धाओं से स्नेह है- क्योंकि मेरी दृष्टि में उनका झुका हुआ मस्तक शर्म का विषय नहीं है, शर्म और क्रोध का विषय हैं वो दुर्दान्त कारण, जिन्होंने उनके अस्तित्व के लिए हर तरह के संकट खड़े कर दिये हैं।

जिनकी जीत होती रहेगी, वे क्रूर होते जायेंगे, इसीलिए मुझे तो लगता है कि मैं हमेशा ‘हारे हुओं’ के बीच रहने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, और यह तब तक रहेगा, जब तक सब जीत नहीं जायेंगे और मैं बिलकुल अकेला नहीं रह जाऊँगा। तब मुझे न आस्था की जरूरत होगी, न विश्वास की और न लिखने की।

इसीलिए, कहानी मेरे लिए, विचारों और भावना-दोनों को वहन करनेवाली विधा है। विचार के अभाव में भावना भावुकता में बदल सकती है और भावना के अभाव में विचार पुंसत्वहीन हो सकता है। तर्क मेरी संचेतना की शक्ति है, जो गहरे यथार्थ तक उतरने में मदद देता है....इसीलिए बौद्धिकता को मैं कहानी का संयम मानता हूँ, जो उसे अश्रु-विगलित शोक-प्रस्तावों और ‘अँधेरे की चीखों’ से अलग करती है। अपने यथार्थ को वहन करते हुए, निरन्तर बदलते परिवेश को देखते हुए लिखने का प्रयास ही मेरा प्रयास है।

यह प्रयास कभी मुझे या अन्य लेखकों को इतना न बाँधता यदि यह ‘नये’ से प्रेरित न होता। आज प्रभावशाली रूप में लिखने की पहली शर्त ही यह नयापन या आधुनिकता का बोध है। पर आधुनिकता मेरे लिए वही है, जो अपने ऐतिहासिक क्रम और सामाजिक सन्दर्भों से प्रस्फुटित हुई है- जो प्रभावों को तो ग्रहण करती है, पर अपने आन्तरिक और वाह्य प्रारूपों में नितान्त जातीय और राष्ट्रीय है।

पश्चिम की कुंठा, कुत्सा, अकेलापन, पराजय और हताशा मेरे लिए चिन्ता का विषय हो सकती है, मेरा वर्ण्य नहीं; क्योंकि हमारी कुण्ठा, अकेलापन और अस्तित्व का संकट उससे नितान्त भिन्न है- वह टूटते परिवार से उद्भूत है, वह आर्थिक संबंधों के दबाव से अनुस्यूत है- हम अपने सलीब स्वयं ढोनेवालों की स्थिति में नहीं, हमारी स्थिति दूसरों द्वारा गाड़े गये सलीबों पर ज़बर्दस्ती लटका दिये गये लोगों की है।

कहानी हमें दूसरों से भयक्रान्त नहीं करती, उनमें हमें संवेदना और सहबोध के स्तर पर संबद्ध करती है। नयी कहानी ने बड़ी सूक्ष्मता और कलात्मक से इस संबंध-सूत्र को पुन: स्थापित किया है- और कुहास में लिपटी या धुन्ध में डूबी वस्तु स्थिति को बौद्धिक प्रौढ़ता से साकार किया है।
अमूर्त्त की अभिव्यक्ति एक खोज है, पर गलत सन्दर्भों में यही पलायन भी है। अमूर्तता सूक्ष्मता का पर्याय भी नहीं है, बल्कि वह बौद्धिकता की विरोधी भी है। अमूर्त को अभिव्यक्ति देना कला का दायित्व हो सकता है, पर अमूर्तता को प्रश्रय देना पलायन के अलावा कुछ और नहीं है। पिकासों या अन्य निराकारवादी चित्रकारों ने अमूर्त को अभिव्यक्ति दी है, अपनी अभिव्यक्ति को अमूर्त नहीं बनाया है। वर्ण्य वस्तु की विराटता और सूक्ष्मता की सघन-संकोचित प्रस्तुति यथार्थ को धुँधला नहीं, प्रखर करती है।

नयी कहानी इस दिशा में भी प्रयत्नशील रही है। और उसने जीवन की संश्लिष्टता की अभिव्यक्ति को भी (मात्र जटिलता या कठिनता को नहीं) अपने प्रयोगों में शामिल किया है। असफल प्रयोग दुरूह और जटिल भी दिखायी दिये हैं, पर सफल प्रयोग स्पन्दित जीवन-खण्डों के रूप में आज भी धड़क रहे हैं।

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