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जीवनी/आत्मकथा >> प्रेमदीवानी मीरां

प्रेमदीवानी मीरां

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3469
आईएसबीएन :81-288-0377-8

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मीराँ के जीवन पर आधारित पुस्तक....

Premdiwani Meera

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


भारत में भक्त कवियों की एक लम्बी परम्परा रही है। भक्तों की इस मणिमाला में मीराँ कौस्तुभ मणि के समान है। उस की आभा सबसे अधिक मोहक, सबसे अधिक प्रखर और सब से अधिक जीवन्त है। मीरां को लोग गाते हैं, गुनगुनाते हैं लेकिन विरले ही उसके पदों की आत्मा तक पहुँच पाते हैं उसके पद सीधे-साधे हैं। वह कोई कवयित्री नहीं है। वह पद उसने प्रेम में गाये हैं। उसके वचनों में जैसा रस है, वैसा किसी और के वचनों में नहीं। आज भी मीरां का नाम ह्रदय में रस घोल जाता है। मीरां में भक्ति की जैसी सहज उद्भावना हुई है और कहीं भी नहीं हुई है। भक्त तो और भी हुए हैं लेकिन सब मीरां से पिछड़ गए हैं। मीरां भक्ति जगत् का जगमगाता हुआ तारा है।

मीरां


कृष्ण की अनन्य आराधिका थीं।
कृष्ण-प्रेम की साधिका थीं।
विरह की प्रतिमूर्ति थीं।
पीड़ा का आगार थीं।
रस का सागर थीं।
मीरां ने अपने मधुर गीतों में अपनी प्रेम-पीड़ा का मादक रस घोल दिया है।
मीरां एक मेघ है, जो बरस जाए तो हम तृप्त हो जाएँ।
उन्होंने स्वयं को कवयित्री सिद्ध करने के लिए कुछ नहीं गाया।
उनके गीत तो उनके भावों की अराजक अभिव्यक्तियाँ हैं।
जब जो भाव उठा, गाया।
जैसा भाव उठा, वैसा गाया।
ऐसी प्रेम-दीवानी मीरां का परिचय पाना अपनी आत्मा में प्रकाश का स्त्रोत जगाना है।
इनके गीतों का गान करना प्रकाश के मादक स्त्रोत में स्नान करना है।
आइए, उस स्त्रोत की खोज में हम भी चलें।


प्रेमदीवानी मीरां


राजस्थान हमारी आस्था, श्रद्धा, समर्पण और त्याग की वह पुण्यभूमि है, जिसने मातृभूमि के लिए प्राणों को उत्सर्ग कर देनेवाले वीरपुत्रों को जन्म दिया। इसी के साथ यहां अनेक संत और भक्त भी अवतरित हुए, जिन्होंने अपनी अमृतमयी वाणी से जन-जन के मन को सिंचित किया, समाज को नया जीवन प्रदान किया।
राजस्थान की भक्त-परंपरा में मीरां सर्वोच्च आसन की अधिकारिणी हैं, जिन्होंने अपने मधुर गीतों में अपनी प्रेम-पीड़ा का मादक रस घोल दिया।
इन गीतों में जन्म-जन्म से संचित प्रेम और प्रियतम से न मिलने की तड़प ने अभिव्यक्त होकर जन-जन के हृदयों के विरह-सागर में स्नान किया।
मीरां श्रीकृष्ण की अनन्य आराधिका थीं।
कृष्ण-प्रेम की साधिका थीं।
विरह की प्रतिमूर्ति थीं।
पीड़ा की आगार थीं।
रस का सागर थीं।

प्रेमरस का पान करनेवाली, कृष्ण के लिए दीवानी मीरां का संबंध राठौड़ों की एक उपशाखा मेड़तियां वंश से था।
राठौड़ वंश के आदिपुरुष के संबंध में तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, परंतु राजस्थान में जोधपुर के राठौड़ राजवंश के आदिपुरुष सीहा जी थे।
वे कन्नौजराज जयचंद्र के पौत्र बताए जाते हैं।
इन्हीं राव सीहाजी के वंश-परंपरा में राव जोधाजी हुए। उन्होंने वर्तमान जोधपुर को बसाया।
राठौड़ की मेड़तिया शाखा के प्रवर्तक राव दूदाजी इन्हीं राव जोधाजी के चतुर्थ पुत्र थे।
राव दूदाजी की दो रानियाँ थीं। उनसे पाँच पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ। इनमें से चौथे पुत्र का नाम रत्नसिंह था।
मीरां इन्हीं रत्नसिंह की पुत्री थीं।

स्थानीय किवदंतियों के अनुसार, मीरां की माता का नाम कुसुम कुँवर था। वह टाँकली राजपूत थीं।
मीरां बच्ची ही थीं कि उनकी माँ का देहांत हो गया। तब राव दूदाजी ने मीरां को मेड़ते में अपने पास बुला लिया।
मीरां का जन्म कब हुआ, इस विषय में मीरांकालीन कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। उनकी रचनाओं में भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जिसके आधार पर उनकी जन्मतिथि का निश्चित निर्णय किया जा सके।
विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सामग्री, तिथि-गणना तथा ऐतिहासिक घटनाओं के साक्ष्य के आधार पर डॉ. प्रभात ने मीरां की जन्मतिथि श्रावण सुदी । शुक्रवार, संवत् 1561 निर्धारित की है।
मीरां को धार्मिक भावना विरासत में प्राप्त हुई।
उनके ताऊ वीरमदेव परम भक्त थे।

उनकी भक्ति-भावना की प्रशंसा प्रसिद्ध भक्तों ने की है।
मीरां के पितामह दूदाजी भी धर्मात्मा व्यक्ति थे। वे उदार वैष्णव थे। उन्होंने मेड़ता में चतुर्भुजाजी के मंदिर का निर्माण कराया था।
भक्त पितामह के कारण मीरां के परिवार में धार्मिक भावनाओं की प्रधानता स्वाभाविक थी। मीरां में भगवत-प्रेम के संस्कार बचपन से ही विद्यमान थे।
मीरां के मन में गोपाल कृष्ण के प्रति इतना लगाव कैसे पैदा हुआ ? उन्हें अपने आराध्य गोपाल की मूर्ति कैसे प्राप्त हुई ? इस विषय में एक घटना अत्यधिक प्रसिद्ध है।
एक बार किसी की बारात जा रही थी।
मीरां के मन में जिज्ञासा हिलोरें लेने लगी।
बाजे की आवाज़ सुनकर उन्होंने रनिवास की ऊपरी मंजि़ल से नीचे झांककर देखा।
उन्होंने बारात की ओर इशारा करते हुए अपनी माँ से पूछा, ‘यह क्या है ?’
‘यह बारात है।’ मां ने सहज भाव से उत्तर दिया।

‘बारात क्या होती है माँ ?’ मीरां ने जिज्ञासा प्रकट की।
मां ने मीरा की उत्सुक जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा, ‘बारात वह होती है, जिसमें वर और उसके परिवार वाले कन्या के घर बाजे-गाजे के साथ जाते हैं।’
एक और प्रश्न मीरां ने किया, ‘यह वर क्या होता, माँ ?’
माँ ने समझाया, ‘वर वह लड़का होता है, जिसका कन्या से विवाह होता है।’’
मीरां बारात और वर को उत्सुकता से देखने लगी। उसने विचार किया कि कन्या तो वह भी है। जब हर कन्या का वर होता है तो उसका भी कोई वर अवश्य होगा।
जब उसे निश्चय हो गया तो उसने माँ से एक सवाल किया, ‘माँ, मेरा वर कौन है ?’
माँ इस प्रश्न के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। क्या उत्तर दें इस भोले प्रश्न का ? मीरां थी कि बार-बार एक ही प्रश्न कर रही थी, ‘मेरा वर कौन है ?’

परेशान माँ की दृष्टि कक्ष में स्थापित गिरधर गोपाल की मूर्ति पर पड़ी। बच्ची मीरां को बहलाने का एक उपाय उसके मन में कौंध उठा।
उन्होंने गोपाल की मूर्ति की ओर संकेत कर दिया, ‘यही है तुम्हारा वर।’
माँ ने सोचा कि अबोध बालिका के अजान प्रश्नों से मुक्ति पाने का सबसे सरल उपाय यही है। किंतु मीरां ! उसने तो गिरधर गोपाल को अपने मन और प्राण दोनों अर्पित कर दिए।
मन-ही-मन उसने गिरधर गोपाल को अपना आराध्य मान लिया।
गोपाल श्रीकृष्ण का रंग मीरां पर कितना गहरा छा गया था इसका प्रमाण उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ हैं। उन्होंने स्वप्न में गोपाल के साथ अपने परिणय की कथा इस प्रकार कही—

माई री म्हांने सुपने में परण गया गोपाल।
राती पीरी चूनर पहरी महंदी पान रसाल।।
कांई कराँ और सँग ऊँवर म्हांने जग जंजाल।
मीरां प्रभु गिरधर न लाल सूँ, करी सगाई हाल।।

गिरधर का वरण करके चिर सुहागिनी बन गईं। समय-चक्र चलता रहा।
शैशव बीता, किशोरावस्था ने क़दम रखा।
मीरां अपने जीवन के बारह वसंत देख चुकी थीं।
माता का देहांत हुए कई वर्ष व्यतीत हो चुके थे।
पिता चिंतित थे कि अच्छा वर मिल जाए और वे बेटी के हाथ पीले कर दें। अंततः राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ मीरां का संबंध निश्चित हो गया।

12 वर्ष की अनुभवहीन, कल्पनाशील अवस्था में विवाह की वेदी पर बैठा दी जाने वाली यह कन्या शायद विवाह के मधुर अर्थ को भी नहीं जानती होगी।
संवत् 1573 में मीरां का विवाह संपन्न हो गया।
12 गाँव की जागीरदार की पुत्री मीरां का विवाह उस समय के शक्तिशाली और प्रतिष्ठित राज्य के राजकुमार से हुआ था। सामान्य रूप से यह बात अस्वाभाविक सी लगती है, किंतु इसके कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे।

एक तो यह है कि मीरां के रूप-लावण्य तथा गुणों की चर्चा राज-परिवारों में थी। दूसरे मीरां राठौड़ वंश की थीं। क्षत्रियों का वह वंश अत्यधिक प्रतिष्ठित माना जाता था।
तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण राजनीतिक था।
राणा साँगा के परिवार में आंतरिक कलह थी।
उनकी रानियों में भी कई प्रकार की विरोधी इच्छाएँ विकसित हो रही थीं।
राणा के सात पुत्ररत्न हुए—पूर्णमल्ल, भोजराज, पर्वतसिंह, रत्नसिंह, विक्रमादित्य, कृष्णसिंह, उदयसिंह।
उदयसिंह और विक्रमादित्य की माता रानी करमेती और रत्नसिंह की माता धनाई में गहरी अनबन थी। राणा साँगा ‘हिंदूपति’ तो अवश्य बन गए थे, किंतु उन्हें अपने व्यापक सम्मान, शक्ति और राज्य की रक्षा के लिए सेना की ही नहीं, कूटनीति की भी आवश्यकता थी।

उस समय राणा के सबसे प्रबल विरोधी राजपूत-राज्य जोधपुर के राठौड़ थे। राणा की चतुरता इस बात में थी कि राठौड़ परिवार के सब राज्यों को एकत्रित और संगठित होने न दें। मेड़ता का राजनीतिक महत्त्व उनकी स्थिति के कारण ही नहीं, दूदाजी के पराक्रम और उनकी कूटनीतिज्ञता के कारण भी था।
अतः राणा ने मेड़ता से विवाह-संबंध स्थापित करके उसे राजनीतिक और पारिवारिक संबंध-सूत्र में बांध लेना उचित समझा और हुआ भी यही।
मीरां के विवाह के पश्चात् मेड़ता के राजा मारवाड़ राज्य के विरुद्ध मेवाड़ के राणाओं का साथ देते रहे।
विवाह के समय घर में सभी प्रसन्न थे। किंतु मीरां का मन था, जहाँ खुशी का कोई भाव न था। उनका रोम-रोम रो रहा था।

आँखों का ज्वार रुकता न था।
रोते-रोते आँखें सूज गईं।
फेरों के पूरा होते ही वह दौड़कर अपने कक्ष में पहुँची और साँवलिया कृष्ण की मूर्ति के सामने सिर झुका दिया।
उनका मन विद्रोह कर रहा था।
विदा-बेला निकट आ गई।
बहुत भारी आवाज में उन्होंने पिता से कहा, ‘यह गिरधर गोपाल की मूर्ति भी मेरे साथ-साथ जाएगी।’
बात मान ली गई।
इस प्रकार गिरिधर तथा मीरां की डोली उठी और वह राणा की पुत्रवधू बनकर चित्तौड़गढ़ जा पहुँची।
इस लौकिक विवाह का सुख मीरां के भाग्य में नहीं था।
यौवन के प्रभात में ही सौभाग्य का सूरज छिप गया।
पति ने बड़े प्यार से उनके भाल पर सिंदूर अंकित किया था। वह अनजाने लुट गया।
भरी तरुणाई में कुँवर भोजराज की जीवनलीला समाप्त हो गई।
समाज के लिए मीरां विधवा हो गईं।

तत्कालीन राजस्थान में पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी के सती हो जाने का नियम था। स्त्रियों के सती होने का एक सामाजिक कारण भी था। उस समाज में हिंदु-नारी के लिए वैधव्य सबसे बड़ा अभिशाप बन गया था।
पति की मृत्यु के समय मीरां के सामने भी यही प्रश्न उठाया गया। संभव है कि राणा सांगा ने उनसे कहा हो अथवा भावी राणा रत्नसिंह ने संकेत किया हो, किंतु मीरां सती नहीं हुईं।
मीरां का सांसारिक-सौभाग्य-सिंदूर पुँछ गया था, किंतु गिरिधर के अखंड सौभाग्य का रंग सदा के लिए उन पर छा गया।
उनके जीवन की सारी क्रियाएँ, राग-विराग से मुक्त हो एकमात्र अपने आराध्य कृष्ण में ही एकनिष्ठ हो गईं। मीरां के किसी भी पद में पति शोकजन्य उद्गार न मिलने का यही कारण है।
उनका लौकिक विरह कृष्ण-प्रेम का विकल विहाग बनकर उनके गीतों में फूट पड़ा। वह आनंदमय हो गईं।
एक दार्शनिक का यह गीता-दर्शन कितना सार्थक है :

‘हमारे सुख-दुख, हमारी इस भ्रांति से जन्मते हैं कि जो भी मिला, वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता है, तो सुख मिलता है, लेकिन जो आकर मिलेगा, वह जाएगा। जहाँ मिलन है, वहाँ विरह है।’
मिलने में विरह को देख लें तो उसके मिलने का सुख विलीन हो जाता है। जो जन्म में मृत्यु को देख ले उससे जन्म की खुशी विदा हो जाती है, उसकी मृत्यु का दुःख विदा हो जाता है।
और जहाँ सुख और दुःख विदा हो जाते हैं, वहाँ जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही आनंद है। आनंद सुख नहीं है। आनंद सुख की बड़ी राशि का नाम है। आनंद सुख के स्थिर होने का नाम नहीं है, आनंद मात्र दुःख का अभाव नहीं है। आनंद मात्र दुःख से बच जाना नहीं है, आनंद सुख और दुख दोनों से ही ऊपर उठ जाता है। दोनों से ही बच जाना है।’

संघर्षों के सागर की एक नाव


मीरां के श्वसुर राणा साँगा परम उदार और स्नेही व्यक्ति थे।
उनके जीवनकाल में मीरां का वैधव्य अधिक कष्टपूर्ण न रहा।
दूसरे, मीरां के पिता रत्नसिंह भी जीवित थे। वे राणा के अत्यंत विश्वस्त एवं वीर सहायकों में से थे।
बनयाना के साँगा-बाबर युद्ध में रत्नसिंह काम आए। उसी युद्ध में बहुत अधिक घायल हो जाने के कारण साँगा का भी स्वर्गवास हो गया।

इसके बाद मीरां के जीवन की संघर्षपूर्ण कहानी आरंभ हुई।
विषमताओं और विरोधों ने उनके जीवन का इतिहास लिखा।
भौतिक जीवन से वैराग्य की ओर प्रस्थान का नया युग आरंभ हुआ।
उनकी साधना और धीरता की परीक्षा के लिए समय सामने आकर खड़ा हो गया।
संघर्षों के सागर में डूबती-उतरती मीरां के लिए कृष्ण का नाम और साधु-संगति ही एकमात्र सहारा था। भावुकता के ऐसे ही क्षणों में वे गा उठीं—

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई
मीरां का मन कृष्ण-भजन में लीन हो गया।
साधु-संतों की सेवा उनका धर्म बन गया।

साधु संतों के पहुँचने पर लोक-लाज का परित्याग करके वह उनके आदर सत्कार में लग जातीं।
ईश-दर्शन के लिए वे अनेक बार मंदिरों में चली जातीं और प्रेम के आवेश में पैरों में घुँघरू बाँधकर हाथों में करताल लेकर भगवान के सामने गाने और नाचने लगतीं।



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