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घर और बाहर

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3453
आईएसबीएन :81-7182-980-5

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रोचक कहानी संग्रह....

ghar Aur Bahar

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश


रवीन्द्रनाथ एक गीत हैं, रंग हैं और हैं एक असमाप्त कहानी। बांग्ला में लिखने पर भी वे किसी प्रांत और भाषा के रचनाकार नहीं हैं, बल्कि समय की चिंता में मनुष्य को केन्द्र में रखकर विचार करने वाले विचारक भी हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ उनके लिए नारा नहीं आदर्श था। केवल ‘गीतांजलि’ से यह भ्रम भी हुआ कि वे केवल भक्त हैं, जबकि ऐसा है नहीं। दरअसल, ह्विटमैन की तरह उन्होंने ‘आत्म साक्ष्य’ से ही अपनी रचनाधर्मिता को जोड़े रखा।

इसीलिए वे मानते रहे कविता की दुनिया में दृष्टा ही सृष्टा है ‘अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति।’ हालांकि वे पारंपरिक दर्शन की बांसुरी के चितेरे हैं फिर भी इसमें सुर सिर्फ रवीन्द्र के हैं। अपनी आस्था और शोध के सुर। कला उनके लिए शाश्वत मूल्यों का संसार था।


दो शब्द


दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के पारंपरिक ढाँचे के लेखक नहीं थे। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावजूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज्यादातर रचनाएँ बांग्ला में लिखी हुई हों, मगर उन्हें इस आधार पर किसी भाषिक चौखटे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। न ही प्रांतवाद की चुन्नट में कसा जाना चाहिए। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था।

वह मनुष्य मात्र के स्पंदन के कवि थे। एक ऐसा कलाकार जिनके रंगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके रंगमंच पर सिर्फ ‘ट्रेजडी’ ही जिंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास के कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा के आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है। वर्तमान की गवेषणा, तर्क और स्थितियों के प्रति रवीन्द्रनाथ सदैव सजग रहे हैं। इसी वजह से वह मानते रहे कि सिर्फ आर्थिक उपलब्धियों और जैविक जरूरतें मनुष्य को ठीक स्पंदन नहीं देते। मौलिक सुविधाओं के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह सोचे कि इसके बाद क्या है। उत्पादन उत्पाद और उपभोग की निस्संगता के बाद भी ‘कुछ है जो पहुंच के पार है।’ यही कारण है कि रवीन्द्रनाथ क्षैतिजीय आकांक्षा के लेखक हैं।

इन तमाम आधारों से रवीन्द्र, कालीदास और कीट्स के समकक्ष ठहरते हैं। उनके वर्षा गीत इस बात के समर्थन में खड़े हैं। ‘प्रक्रिया’ और ‘व्यक्तिवाद’ में आस्था के कारण वह पारंपरिक सिलसिलों में परम्परावादी नहीं है। अपनी निबंध कला और परंपरा में वह कहते हैं-
‘कला कोई भड़कीला मकबरा नहीं, विगत के एकाकी वैभव पर गहन चिंतनशील-जीवन के जुलूस को निवेदित, यथार्थ-चेतना है, भविष्य की तीर्थयात्रा पर निकली यथार्थ चेतना, भविष्य जो अतीत से उतना ही अलग है जितना बीज से पेड़।
तीर्थों के तमाम बिखरे हुए संदर्भों के बावजूद रवीन्द्र साहित्य पुनरुत्थानावादी नहीं है। वह किसी खांचे में फिट नहीं बैठते। जैसे-
भीड़ से अलग
अपना भाव जगत
टोहा है मैंने
चौराहे पर...।’


चौराहे पर यूं भी मनुष्य मुक्त भाव में रहता है। जिसे शापेनहावर व्यक्तिवाद का संत्रास कहता है। इसके परिष्कार का रवीन्द्रनाथ का तरीका अलग रहा है। वह मानते थे कि व्यक्तियों की अभिव्यक्तियां अलग हो सकती हैं, पर उनकी नियति अलग नहीं हो सकती, उन्हें चाहिए कि वे अपनी हर कृति में उसे शाश्वत की गवेषणा करे, उसका स्पर्श अनुभव करे जो सबका नियति नियंता है। टायनबी इसे रेशीरियलाइजेशन कहते हैं। समझा जा सकता है कि मार्क्स यदि ‘अतिरिक्त’ का भौतिक स्वरूप व्यक्त करते हैं तो रवीन्द्र आधिभौतिक। राबर्ट फ्रास्ट की तरह वह भी मानते हैं कि देवी अतिरेक के स्पर्श से मनुष्य लौकिक यथार्थ के पार चला जाता है।

रवीन्द्र साहित्य पर, उनके मूल्यांकन पर और उनकी मनुष्य की अवधारणा पर काफी काम होना है। संभवतया इसलिए भी कि वैश्विक चेतना का इससे बड़ा कवि और कहीं नहीं है। डायमंड पॉकेट बुक्स और उसके निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार सदैव ही हिन्दी के आम पाठकों तक भारतीय भाषा के रचनाकारों को पहुंचाने में सक्रिय रहे हैं। यह सब भी इसी की कड़ी है।

-प्रदीप पण्डित



घर और बाहर
विमला की आत्मकथा


ओ मां ! आज मुझे याद आ रहा है तुम्हारे माथे का सिंदूर, तुम्हारी चौड़े लाल पाड़ की साड़ी और तुम्हारी शांत, स्निग्ध, गंभीर आंखे। जो कुछ मैंने देखा, वह मेरे हृदय के आकाश में भोर बेला की लालिमा की भांति छा गया। हमारी जीवन की यात्रा उसी स्वर्ण संबल के साथ आरंभ हुई। और उसके बाद ? पथ में काले बादल डकैतों की तरह घिर आए। उन्होंने हमारे प्रकाश संबल का एक कण भी नहीं छोड़ा परन्तु जीवन के ब्रह्ममुहूर्त में जो उमा सती का दान मिला था, वह कुसमय में छिना अवश्य किन्तु वह क्या नष्ट हो सकता था ?

हमारे देश में सुंदर उसी को कहते हैं जो गौर वर्ण हो किन्तु जो आकाश हमें प्रकाश देता है वह स्वयं नील वर्ण है। मेरी मां श्यामल वर्ण थीं, उनमें पुण्य की दीप्ति थी। उनका रूप, रूप के गर्व को लज्जित करता था।
सब यही कहते हैं कि मैं एकदम मां की तरह दिखती हूं। इसी बात पर बचपन में मैं दर्पण पर क्रोधित हो उठी थी। जैसे उसी ने मेरे सर्वांग के प्रति अन्याय किया हो। मेरी देह का रंग मानो मेरा न हो, वह जैसे किसी और की चीज हो, आरंभ से अंत तक गलत।
सुंदरी तो नहीं थी किन्तु मां की भांति सतीत्व का यश पाने की प्रार्थना देवता से किया करती थी। विवाह तय होते समय मेरे ससुराल से आए ज्योतिषी जी ने मेरा हाथ देख कर कहा था- ‘‘यह कन्या सुलक्षणा है, यह सती लक्ष्मी होगी।’’ सुनकर सभी स्त्रियां कहने लगीं-
‘‘हाँ, क्यों नहीं, विमला अपनी मां की तरह तो दिखती है।’’

राजा के यहां मेरा विवाह हुआ। बादशाह के समय से उनका यह सम्मान चला आ रहा था। बालपन में राजकुमार की रूपकथा सुनी थी जिससे हृदय-पटल पर एक छवि अंकित हो गई थी। राजा के पुत्र की देह चमेली की पंखुरियों से बनी होगी, युगों-युगों से जो कुमारिकाएं शिवपूजन करती आई हैं उन्हीं की एकाग्र मनोकामनाओं की भांति उनका मुख रचा गया होगा। क्या नयन होंगे, कैसी सुन्दर नाक होगी। भीगती हुई नसों की रेखाएं भंवरे के दो पंखों की भांति काली व कोमल होंगी।
स्वामी (पति) के साक्षात् दर्शन हुए तो पाया कि उस कल्पना से कोई मेल नहीं है, उनका रंग भी मेरी तरह ही है। अपने रूप के अभाव का संकोच कुछ कम हुआ किंतु छाती से एक गहरी हूक निकली। अपने रूप के लिए भले ही मारे लज्जा से मर जाती, किंतु हृदय में बसे राजकुमार की छवि तो निहार लेती।

मैं समझती हूं कि नेत्रों के पहरे से दूर भीतर ही भीतर खिलनेवाला सौंदर्य अच्छा होता है। तब वह भक्ति रूपी स्वर्ग में जा विराजता है। तब उसे किसी श्रृंगार की आवश्यकता नहीं रह जाती। मैंने बालपन में देखा है कि भक्ति के सौंदर्य में सब कुछ ही मनोहारी हो उठता है। मां जब सफेद पत्थर की तश्तरी में छिले फलों के टुकड़ों से जलपान संजोती, केवड़े की सुगंध में रचे कपड़े में पान के बीड़े सहेजती, पिताजी भोजन करते तो ताड़ के पंखे से मक्खियां हटाती, तब उस लक्ष्मी स्वरूपा मां का स्नेह व हृदय के अमृतरस की धारा अपरूप सौंदर्य के सागर में जा मिलती थी, यह मैं बालपन से ही समझती आई हूं।
भक्ति का वह सुर क्या मेरे हृदय में न था ? अवश्य था। उसमें न तो तर्क था, न भले-बुरे का विवेक, वह एक सुर मात्र था। समस्त जीवन को यदि जीवन विधाता के मंदिर प्रांगण में एक स्तुतिगान के रूप में बज उठने की सार्थकता होती हो, प्रभात के सुर ने अपना काम आरंभ कर दिया था।

आज भी याद है जब मैं सुबह-सुबह पति के चरणों की धूलि सिर से लगाती थी तो ऐसा लगता था मानो मेरा सुहाग सिंदूर शुक्र तारे की भांति झिलमिला उठा हो। एक दिन सहसा आंख खुल जाने पर वह हंसकर बोले-‘‘अरे विमला ! क्या कर रही हो ?’’ तब ऐसी लाज आई कि पूछो मत, वह घटना मैं भूली नहीं हूँ। उन्होंने शायद सोचा था कि मैं छिप कर पुण्य कमाना चाहती हूँ। किंतु न, वह मेरा पुण्य न था, वह मेरा नारी हृदय था, जिसका प्रेम स्वयं ही पूजा करना चाहता था।
हमारा ससुर परिवार अनेक नियम-कायदों से बंधा था। वहां कितनी ही परंपराएं मुगल व पठानों की थीं तथा कितने ही विधान मनु व पराशर के युग से थे। मेरे स्वामी एकदम निराले थे। अपने वंश में केवल उन्होंने ही विधिवत अध्ययन किया व एम.ए.पास किया। उनसे बड़े दो भाई अल्पायु में चल बसे, उनकी कोई संतान भी न थी। मेरे स्वामी मदिरा नहीं पीते, उनके चरित्र में कोई चंचलता भी नहीं है। इस कुल में यह गुण ही मानो दोष की श्रेणी में आता था। वे लोग मानते थे कि इतनी पवित्रता गरीबों को ही शोभा देती है। कालिमा तारों में नहीं चंद्रमा में ही अधिक होती है।

सास-ससुर की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी, अत: ददिया सास ही घर की मालकिन थीं। मेरे पति उनकी आंखों के तारे थे, अत: वह परिवार के नियम कानूनों की अवहेलना का साहस रखते थे। जब उन्होंने मिस गिल्बी को मेरी शिक्षिका व संगिनी नियुक्त किया तो सभी को विष वमन का अवसर मिल गया किंतु उनका हठ बना रहा। उन दिनों उन्होंने ‘बी.ए.’ पास कर ‘एम.ए.’ में प्रवेश लिया था। पढ़ाई-लिखाई के कारण वह कलकत्ता में ही रहते थे। वह प्राय: मुझे पत्र लिखते। पत्र की भाषा बेहद सादी व संक्षिप्त होती किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता कि पत्र पर उभरे गोल-सुघड़ अक्षर मुझे एकटक निहार रहे हैं।

एक चंदन के संदूक में मैं उन पत्रों को सहेजती व रोज बाग से फूल लाकर उन पर चढ़ाती। उन दिनों मेरी परीकथाओं का वह राजकुमार अरुणलोक में चन्द्रमा की भांति खो गया था। तब वास्तविक राजपुत्र मेरे हृदयसिंहासन पर आ विराजे थे। मैं राजपुत्र की रानी थी किंतु मेरा सच्चा सुख उनके चरणों में ही था।
मैंने कुछ पढ़ाई-लिखाई की है इसलिए आज की भाषा से परिचित हूँ। अपनी ही बातें मुझे कविता जैसी लगती हैं। इस काल से अनजान होती तो मैं उन दिनों उत्पन्न भावों को गव्य मान बैठती, समझती कि कन्या रूप में जन्म पाया है, जैसे यह मेरी गढ़ी कहानी नहीं है वैसे ही स्त्रियों को प्रेम की भक्ति का जामा पहना देती है, यह भी साधारण-सी बात है। इसमें कोई काव्य का गुण है, यह एक क्षण भी न सोचती।
किशोरावस्था से युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते मैं एक नए ही युग में आ पहुंची हूं। जो विश्वास की भांति सहज व साधारण था वह काव्य कला की भांति हो गया ? किसी सधवा की पति-भक्ति व विधवा के ब्रह्मचर्य में कैसा कवित्व भरा हो यह बात प्रतिदिन कही व सुनी जाती है। इसी से जान लें कि सत्य व सुंदर अब एक नहीं रहे। क्या सुंदर की गुहार लगा कर सत्य की वापसी संभव है ?

ऐसा नहीं कि प्रत्येक स्त्री का मन एक ही सांचे में ढला होता है, पर मैं इतना जानती हूं कि मेरे मन में मां की तरह भक्ति करने की तीव्र प्यास थी। वही मेरा सहज मनोभाव था किंतु बाहर आते-जाते वह असहज हो उठा है।
मेरा भाग्य ही ऐसा था कि स्वामी मुझे इस भक्ति का अवसर ही नहीं देना चाहते थे। यही उनकी महानता थी। तीर्थ के धनलोलुप पंडित पूजन के लिए कितना जोर डालते हैं क्योंकि वह पूजनीय नहीं होते। संसार में कायर पुरुष ही स्त्री से पूजा करवाना अपना अधिकार समझते हैं। इससे पुजारी व पूज्य दोनों ही अपमानित होते हैं।
किन्तु मेरा इतना आदर क्यों ? श्रृंगार सामग्री, नूतन-वस्त्र, दास-दासी द्वारा नित उनके प्रेम का परिचय मिलता। इन सबको एक ओर धकेल कर मैं चरणसेवा का अवसर कैसे पाती ? स्वयं पाने की अपेक्षा मेरे लिए देना अधिक आवश्यक था। स्वभाव से ही बैरागी प्रेम तो पथ के दोनों ओर उगे फूलों की भांति होता है। वह सजे-संवरे कक्ष में मिट्टी के टब में अपना सौंदर्य व ऐश्वर्य प्रकट नहीं कर पाता।

अंत:पुर की सभी प्रथाओं को ठुकरा देना मेरे पति के वश के बाहर था। इसलिए दिन-दोपहर उनसे भेंट होना संभव न था। मुझे आने का नियत समय ज्ञात था, अत: हमारा मिलन यूं ही नहीं हो जाता था। वह कविता की भांति छंदमय था। दैनिक कार्यों से निबट कर स्नान करके, यत्नपूर्वक बाल संवार कर, सुंदर वस्त्र धारण कर व माथे पर सिंदूर सजाकर मैं अपनी देह व मन को संसार से एक ओर हटाकर उस व्यक्ति को समर्पित कर देती। वह समय अल्प होने पर भी अपनी अल्पता के बाद असीम था। उस सुख की होड़ किससे होगी ?

मेरे पति प्राय: कहते कि स्त्री-पुरुष के अधिकार समान हैं इसीलिए उनमें प्रेम का संबंध है। इस विषय में मैंने कभी तर्क तो नहीं किया किंतु मेरा मानना था कि भक्ति में मानव की समानता से कोई बाधा नहीं आती। भक्ति मनुष्य को समानता के स्तर पर लाती है। प्रेम की थाली में भक्ति की पूजा आरती के समान है। प्रेम करने वाले दोनों जन पर वह प्रकाश समान भाव से ही आलोकित होता है। आज मैं निश्चित रूप से कह सकती हूं कि स्त्रियों का प्रेम पूजा करके ही पूजनीय होता है। यदि नहीं हो पाता तो ऐसे प्रेम पर धिक्कार है। प्रेम का दीपक जलने पर केवल शिखा ही ऊपर उठती है। जला हुआ तेल तो नीचे ही रह जाता है।
प्रियतम ! आपने मेरी पूजा स्वीकार नहीं की, यदि कर लेते तो अच्छा ही होता। तुमने मुझे सजा-संवार कर प्रेम दिया, सिखा-पढ़ा कर प्रेम दिया, जो मैंने चाहा वह देकर प्रेम दिया, जो नहीं चाहा वह भी देकर प्रेम दिया-मुझे प्रेम करते समय तुम्हारी पलक तक नहीं झपकती-मेरी देह को तुमने स्वर्ग सौभाग्य माना है। इसी कारण मैं गर्वित हो उठी, मुझे ऐसा लगा मानो तुम मेरे ही ऐश्वर्य के लोभ के द्वार पर आ खड़े हुए। तब मैं रानी के सिंहासन पर बैठ कर मान करने लगती हूं। मेरे अधिकार, मेरी इच्छाएं बढ़ती ही चली जाती हैं, क्या कभी उनकी तृप्ति नहीं होगी ?

क्या पुरुष को वश में करने में ही स्त्री का सच्चा सुख है ? यदि भक्ति के बीच इस गर्व को नहीं त्याग पाती तो उसकी रक्षा कैसे होगी ? शंकर एक भिक्षुक की भांति अन्नपूर्णा के द्वार पर आए थे किंतु उनके रौद्र तेज को सहन करना अन्नपूर्णा के वश में न था, यदि उन्होंने शिव के लिए घोर तप न किया होता।
आज भी याद आता है कि मेरा सौभाग्य अनेक लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय था। ईर्ष्या स्वाभाविक भी थी-मैंने भी तो सब कुछ बैठे-बिठाये मुफ्त में ही पा लिया था। परंतु क्या मुफ्तखोरी हमेशा चल पाती है ? कभी न कभी तो दाम चुकाने ही पड़ते हैं, नहीं तो विधाता सह नहीं पाता। इस सुख-सौभाग्य का ऋण भी तो चुकाना पड़ता है। ईश्वर सब कुछ देता है परंतु हमें मिलता तो गुणों के अनुसार ही है। कभी-कभी दुर्भाग्य ऐसा भी होता है कि पाई हुई चीज भी हाथ-पल्ले से निकल जाती है।

मेरे सौभाग्य पर अनेक कन्याओं के पिता गहरी सांसे भरते थे। क्या मेरे रूप व गुण इस योग्य थे कि मैं इस घर की बहू बन पाई ? यही जिज्ञासा व चर्चा सबके बीच थी। मेरी सास व ददिया सास बेहद सुंदर थीं। मेरी दोनों विधवा जेठानियों की भांति रूपवती स्त्रियां भी कम ही देखने में आती हैं किंतु जब वे दोनों अल्पायु में ही विधवा हो गईं तो मेरी ददिया सास ने प्रण किया कि वह अपने पोते के लिए अधिक रुपसी की खोज नहीं करेंगी। उनका यही प्रण मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ वरना मेरी औकात ही क्या थी ?
हमारे भोग-विलास से भरपूर घर में बहुत कम स्त्रियां ही यथार्थ सम्मान पा सकीं। शराब के प्यालों की झाग व घुंघरुओं की झनकार में उनका जीवन स्वाहा हो चला था, किंतु तब भी वे बड़े खानदान की बहू होने का अभिमान संजोए बैठी थीं। मेरे पति न तो शराब ही छूते थे न स्त्री देह के लोभ में मारे-मारे फिरते थे तो क्या यह मेरा गुण था ? पुरुषों के उन्मत्त हृदय को वश में रखने का कोई मंत्र भी मेरे पास न था। यह केवल मेरा सौभाग्य ही था और कुछ नहीं। घर की अन्य स्त्रियों का भाग्य लिखते समय जाने कैसे अक्षरों की बनावट टेढ़ी हो गई। संध्या बीतते-बीतते उत्सव समाप्त हो चला, केवल यौवन रूपी बाती ही सारी रात जलती रही। चारों ओर केवल ज्वाला ही शेष रही।

मेरे स्वामी का पौरुष दोनों भाभियों के लिए अवज्ञा का विषय था। संसार रूपी नाव क्या एक ही आंचल की पाल से खींची जा सकती है ? उन्हें जान पड़ता था कि मैंने स्वामी से सुहाग की चोरी की है। मेरी हर बात में उन्हें छलना व बनावटीपन दिख जाता। पति मुझे नवीनतम फैशन के वस्त्रों से सजाया करते। ढेर से रंग-बिरंगे वस्त्रों के आयोजन से वह जल-भुन जातीं और ताना देतीं-‘‘देखो तनिक भी लाज नहीं है, देह को दुकान की तरह सजा रखा है।’’
मेरे पति सब कुछ जानते थे किंतु स्त्रियों के लिए उनका हृदय करुणा से भरा रहता। वह मुझसे कहते-‘‘क्रोध मत करो।’’ मुझे याद हैं मैंने एक बार कहा था-स्त्रियों का मन छोटा व टेढ़ा होता है। उन्होंने उत्तर दिया-‘‘जिस तरह चीन की स्त्रियों के पांव छोटे व टेढ़े होते हैं उसी तरह हमारे समाज ने स्त्रियों के मन को चारों ओर से दबा कर टेढ़ा व छोटा कर दिया है। भाग्य उनके जीवन के साथ जुआ और चोरी ही करता है। उनका पूरा अस्तित्व दान पर ही निर्भर है, क्या उनका अपना कोई अधिकार नहीं ?’’

दोनों जेठानियां मनमांगी वस्तु पातीं किंतु जब वे इसके बदले जरा भी कृतज्ञता न दर्शातीं तो मुझे बड़ी तकलीफ होती। बड़ी जेठानी का स्वभाव सात्विक था। पूजा-पाठ, जप-तप में ही उनका दिन बीतता किंतु वह भी अपने वकील भाई द्वारा मुकदमा दायर करने की धमकी देतीं-पति के वचन का पालन करना था, अत: मैं उन्हें कुछ न कहती। मेरे मन में कभी-कभी विचार आता कि भलेपन की भी एक सीमा होती है, सीमा पार होने से तो पौरुष पर ही आघात होता है। मेरे पति कहते, ‘‘कानून व समाज उनकी भाभियों के पक्ष में नहीं है। एक दिन जिन वस्तुओं को वे पति के अधिकार बल पर अपना मान कर निश्चिंत थीं, वही अब दूसरे से मांग कर लेनी पड़ती हैं।’’ इस पर भी कृतज्ञता की मांग भी मार खाने के बाद बख्शीश देने की भांति होगा। सच कहूं ? अनेक अवसर ऐसे आए जब मैंने सोचा कि कुछ कठोरता मेरे पति में भी होनी चाहिए।

मंझली जेठानी का स्वभाव कुछ भिन्न था। उनकी उम्र कम थी तथा वह सात्विक होने का ढोंग भी नहीं रचती थीं। उनकी बातचीत, चाल-ढाल व हास-परिहास में रस का विकार था। उनकी युवती दासियां भी चाल-चलन के लिहाज से बहुत अच्छी न थीं। परंतु इस पर आपत्ति कौन करता ? घर का रिवाज ही कुछ ऐसा था। मेरे पति कुमार्गी न थे। शायद मेरा यही सौभाग्य वह सह नहीं पाती थीं तथा मेरे पति की राह में तरह-तरह के जाल बिछातीं। यह कहते हुए मेरा मन लज्जित हो उठता कि ऐसे सज्जन पति के प्रति भी कभी-कभी मैं शंका से भर उठती। वह वातावरण ही कुछ अलग तरह का था। स्वच्छ से स्वच्छ वस्तु भी मैली लगती थी। मंझली जेठानी प्राय: अपने हाथों से भोजन पका कर देवर को निमंत्रण देतीं। मेरी उस समय इच्छा होती कि वह कोई बहाना बनाकर निमंत्रण अस्वीकार कर दें किंतु वह प्रसन्नतापूर्वक भोजन खाने पहुंच जाते। मुझे इसमें भी उनकी चंचलता का दोष दिखाई देता। किसी न किसी बहाने मैं भी वहीं जा पहुंचती। मंझली ताना कसती-‘‘बाप रे ! छोटी रानी की नजरों से बचना आसान नहीं है, एकदम चौकस पहरेदारी है। अरे, मेरे भी तो दिन थे पर ऐसी पहरेदारी तो मैं भी नहीं निभा पाई।’’

एक दिन उन्होंने समझाते हुए कहा-‘‘तुम्हारी जिन बातों को वह बुरा कहती है, यदि उन्हें सचमुच बुरा मानतीं तो इतना क्रोध न करतीं।’’
-‘‘तो ऐसा बेतुका क्रोध क्यों ?’’ मैंने पूछा।
-‘‘दरअसल इसके मूल में ईर्ष्या छिपी है। प्रत्येक व्यक्ति सुखमय संसार को भोगना चाहता है।’’
-‘‘तो वह इसके लिए ईश्वर से नालिश करें मुझसे क्यों उलझती हैं ?’’
-‘‘ईश्वर भी भला कभी दिखाई देता है।’’
-‘‘जो वह चाहती हैं, सब करें। मेरी तरह नए फैशन के कपड़े पहनें। किसी मेम से पढ़ना चाहें तो अवश्य पढ़े और यदि फिर से विवाह रचाने की इच्छुक हों तो तुम-सा विद्यासागर तो है ही। तुम्हारे लिए तो कुछ भी असंभव नहीं,’’ मैं चिढ़ कर बोली।

-‘‘यही तो मुश्किल है। मनचाही वस्तु पा लेने पर भी उसे हाथ बढ़ा कर उठाने का साहस भी तो होना चाहिए।’’
-‘‘तो नीचता दिखाए बिना गुजारा नहीं होगा। जो मेरा नहीं वही बुरा हो जाएगा, कोई और पा ले तो जी जल उठेगा।’’
-‘‘जिनके पास कुछ नहीं वे अपने अभाव के बल पर ही ऊंचा उठना चाहते हैं-इसी में वे संतुष्टि पाते हैं।’’
-‘‘चाहे जो भी हो, स्त्रियां छलनामयी हैं, वे सच्चाई स्वीकारना ही नहीं चाहती।’’
इस तरह तर्क-वितर्क के बाद जब वह घर की अन्य स्त्रियों का ही पक्ष लेते तो मैं क्रोध से भर उठती और कहती-‘‘क्यों जी, समाज में क्या होना चाहिए यह एक अलग बात है किंतु हर तरफ जो ये टेढ़ी चाल है। बाहर कुछ और भीतर कुछ है, इसे दयापूर्वक क्षमा तो नहीं किया जा सकता ?’’
तब वह कहते-‘‘जहां भी तुम्हारा अपना है वहां दया की गुंजाइश है किंतु जिनके जीवन में अभाव ही अभाव है उन्हें चारों ओर फटकार ही सहनी होगी।’’

मैं रो पड़ती और कहती-‘‘तुम तो घर में रहते नहीं हो इसलिए तुम्हें क्या पता कि-और वह वाक्य पूरा होने से पहले ही,‘‘चंद्रनाथ बाबू बाहर देर से बैठे हैं,’’ या फिर ऐसा ही कोई बहाना बनाकर बाहर चले जाते।
मेरा मन दु:खी हो उठता। कभी-कभी मैं सोचती यदि ईश्वर स्त्रियों को रूप का गर्व करने का अवसर दे दें तो अन्य अभिमानों से वे बच जाएं। धन-संपदा पर अभिमान किया जा सकता था, किंतु उनके घर में इसका क्या मोल था, अत: मुझे अपने सतीत्व का अभिमान था। वहां मेरे पति को भी झुकना होगा, ऐसा मेरा विश्वास था, किंतु जब भी घर-गृहस्थी की छोटी-मोटी बातों पर बहस छिड़ती तो ऐसा लगता कि मैं ही छोटी हो गई हूं। तब मैं चाहती थी कि वह मेरे सामने छोटे हो जाएं। मैं मन ही मन कहती-
-‘‘तुम्हारा यह स्वभाव अच्छा नहीं। आवश्यकता से अधिक भलाई भी तो गले का कांटा बन जाती है
।’’

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