योग >> पातञ्जलि योग दर्शन पातञ्जलि योग दर्शनकिरीट भाई जी
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पातन्जलि योग-दर्शन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रीमद्भागवत, ज्ञान कथा और लोकमंगलकारी रामचरित कथा के प्रवचन में समान
अधिकार रखने वाले युवा श्री किरीट ‘भाई जी’ का जन्म
21 जुलाई सन् 1962 को पोरबंदर (गुजरात) में हुआ। उन्होंने आत्मज्ञान और
ज्ञान के लोक विकास के लिए सात वर्ष की आयु में वल्लभकुल गोस्वामी श्री
गोविन्द रायजी (गुरूजी) महाराज से दीक्षा प्राप्त की। दीक्षा प्राप्त करने
के तुरंत बाद इंग्लैंड निवासी हुए और वहां जीविका के लिए निमित्त चार्टर्ड
एकाउंटेंसी में डिग्री प्राप्त की। ‘भाई जी’ का लंदन
आना विश्व के धर्मशील व्यक्तियों के लिए उस समय वरदान सिद्ध हुआ, जब 1987
में हनुमान जयंती के अवसर पर आपने कथा प्रवचन प्रारंभ किया। लंदन में इस
कथा प्रवचन से भक्तों को एक नया प्रकाश मिला और उसके बाद विभिन्न रूपों
में मारीशस, दक्षिण अफ्रीका (डर्बन), पाकिस्तान, कीनिया, इटली, हालैंड आदि
स्थानों पर मधुर और अगाध ज्ञानयुक्त कथा प्रवचन से वर्तमान जीवन की
विसंगतियों से युक्त मनुष्य क धर्मशीलता का मार्ग दिखाया। पूज्य किरीट भाई
भक्तिभाव का एक ऐसा सागर है, जिसका कोई किनारा नहीं, उसकी लहर ही रसामृत
का पान कराने के लिए गतिमान होती है और उसकी लहर ही प्राप्ति के किनारे का
आभास कराती है।
देखो, भारत के ऋषि-महापुरुष हमारे शुभेच्छुक हैं। इतना ही नहीं, ये
ऋषि-महापुरुष हमारे माता-पिता, हमारे पूर्वज हैं। कोई भी मां हो, कोई भी
पिता हो, वह यही चाहता है कि मेरी संतान का कल्याण हो। इन महापुरुषों ने
भाजी के पत्ते, दूर्वा का रस पी-पी कर, अपने शरीर को कृश करके हमारे लिए
अपने अनुभूत के रूप में जो शब्द रचना की है, उसे ही हम सद्ग्रंथ कहते हैं।
इन विरक्त महात्माओं ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया, तो इसका अर्थ
यह नहीं कि उनके हृदय में मां की ममता नहीं है। मां की ममता है। पातञ्जलि
हो, चाहे कोई भी महापुरुष हो, वे हमारी मां भी हैं, हमारे पिता भी हैं।
पातञ्तजलि योग-दर्शन
1
परमात्मा जब जीवात्मा पर कृपा करते हैं, तो उसे सम्पत्ति नहीं, संतों का
दर्शन कराते हैं। संतों का दर्शन करने से मन की शुद्धि होती है। मति
सुधरती है। संतों के दर्शन करने से जीवात्मा पापवृत्ति से मुक्त हो जाती
है।
महर्षि पातञ्जलि ने समाज के सामने, चाहे वह संसारी हो या साधु हो, चाहे प्रवृत्ति मार्ग में हो, चाहे निवृत्ति मार्ग में हो, एक विचारणीय बिन्दु रखा है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? परमात्मा ने मानव शरीर क्यों दिया है ? और जब परमात्मा ने यह साधन दिया है, तो इस साधन का सदुपयोग कैसे किया जाता है ? लक्ष्य की प्राप्ति करने में साधक को क्या-क्या करना चाहिए ? अपनी साधना के माध्यम से साधक को क्रमश: जो ऊर्ध्व गति होती है, उसमें समय-समय पर स्थान-स्थान पर जो रुकावटें आती हैं, उन्हें दूर करने का उपाय क्या है ? कांटे पत्थर-कंकड़ों को हटा कर वही कैवल्य पद, वही परम निर्वाण, वही परम शांति, जहां योगीजन ‘अहं ब्रह्मस्मि’ की अनुभूति करते हैं, कैसे प्राप्त की जाए ?
सामान्य दृष्टि से संसारी लोगों के मन में यही है कि यह हमारा मार्ग नहीं है। हम यह कर नहीं सकते। घर-गृहस्थी में बंधे हुए, सुबह से शाम तक अर्थोपार्जन करते हुए, पेट को भरने के उपायों में जब हम लगे हुए हैं, तो इस मार्ग पर हम कैसे चलेंगे ?
देखो, भारत के ऋषि-महापुरुष हमारे शुभेच्छुक हैं। इतना ही नहीं, ये ऋषि-महापुरुष हमारे माता-पिता, हमारे पूर्वज हैं। कोई भी मां हो, कोई भी पिता हो, वह यही चाहता है कि मेरी संतान का कल्याण हो। इन महापुरुषों ने भाजी के पत्ते, दूर्वा का रस पी-पी कर, अपने शरीर को कृश करके हमारे लिए अपने अनुभूत के रूप में जो शब्द रचना की है, उसे ही हम सद्ग्रंथ कहते हैं। इन विरक्त महात्माओं ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उनके हृदय में मां की ममता नहीं है। मां की ममता है। पातञ्जलि हो, चाहे कोई भी महापुरुष हो, वे हमारी मां भी है, हमारे पिता भी हैं।
‘रास पंचाध्यायी में गोपी ने एक सवाल परमात्मा से पूछा था कि हे प्रभु ! आप कौन है ? तीन प्रकार की श्रेणियां बताई है गोपी ने-एक तो, जो प्रेम करते हैं, उन्हें प्रेम करने वाले होते हैं। दूसरे जो एक पक्ष से प्रेम करता है, सामने वाला नहीं करता और तीसरी श्रेणी में-ये भी प्रेम नहीं करे, सामने वाला भी न करे। यह दूसरी श्रेणी माता-पिता की होती है। माता-पिता, पुत्र को प्रेम करते ही हैं बेटा, माता-पिता को प्रेम करे या न करे, कहना कठिन है। आद्य गुरु शंकाराचार्य महाराज का कहना है-‘कुपुत्रों जायते क्वचित्, कुमाता न भवति’। पुत्र रूठ सकता है, पुत्र सम्बन्ध तोड़ भी सकता है, किन्तु मां तो मां ही रहती है। जो असीम ममता, जो प्रेम की वर्षा केवल अमुक माह में, चौमासे में ही बरसे, ऐसा प्रेम मां का नही हैं। मां का प्रेम तो बारहों मास बरसता है। तो, ये ऋषि हमारी मां भी हैं, हमारे पिता भी हैं।
शास्त्र में बताया है कि जीव मां-बाप को कब याद करता है। आज हम यदि पातञ्जलि का दर्शन करने बैठे हैं, तो क्यों बैठे हैं ? ऐसी कौन-सी अवस्था आई है, जो हमें हमारी मां की याद दिला रही है। शंकराचार्य महाराज का कथन है-‘क्षुधा तृषार्तां जननी स्मरन्ति।’ जब भूख-प्यास लगती है, तब बालक अपनी मां की याद करता है। हमारी भूख कोई लौकिक तो है नहीं। इस गद्दी पर से जो चर्चा होगी, वह कोई लौकिक चर्चा तो है नहीं। मैं कोई मनोरंजन करने वाला तो हूँ नहीं। मैं तो मनोमंथन करने वाला हूँ और योगदर्शन जो हैं, वह बासुन्दी है, क्रीम है। हरेक आदमी पचा भी नहीं सकेगा, यह मैं भी जानता हूँ। लेकिन यदि अपने जीवन का कल्याण चाहते हो, अपने जीवन को सार्थक करना चाहते हो, जिस कारण से परमात्मा ने अनुग्रह करके हमें यह शरीर दिया है, उसका साफल्य करना है, उसका श्रेय करना है तो अवश्य यहां आकर शांत चित्त से विराजमान होओ और सुनो, क्योंकि ‘यस्या: श्रवण मामेण हरिश्चितं समाश्रयेत्।’
शब्द ब्रह्मरूप है, चाहे किसी भी रूप में ले लो। यह जरूरी नहीं है कि हम यहां महाभारत की ही चर्चा करें। यह जरूरी नहीं है कि हम श्रीमद्भागवत का पाठ आपको सुनाएँ, यह जरूरी नहीं है कि आपको गीता का पाठ सुनाऊं जगह-जगह पर रामायण की चौपाई भी आ जाएगी, महाभारत के श्लोक भी आएंगे, उपनिषद् के सूत्र भी आपको सुनाऊंगा, वेद की ऋचाएं भी आएंगी। कुछ बात आपको समझाने के लिए, सिद्धांत को पचाने के लिए जो अस्त्र-शस्त्र हमें उठाने पड़ें, सो उठाएंगे।
देखो, केवल पुस्तक पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति तैरना नहीं जानता। यदि तैरना सीखना हो, समझना हो, तो पानी में हौज में कहीं न कहीं गोता लगाना पड़ेगा, महर्षि पातञ्जलि का योग दर्शन कोई व्याख्या नहीं है। कोई प्रयास नहीं है। योग, उपलब्धि है। यदि प्रयास करना पड़ेगा, तो केवल इसे एक ‘एक्सरसाइज’ कहा जाएगा। यह तो जीवन में उतारने के लिए सूत्र है। अभ्यास नहीं करना। अभ्यास करोगे, तो प्राप्ति नहीं होगी। परम भागवत पुरुष कृष्णमूर्ति ने यही कहा है-‘एकर्टलेस एफर्ट’ बिना प्रयास के प्रयास। एक सहजता जो हो जाती है। मानव जब सांस लेता है, तो उसके बारे में सोचता नहीं, सांस लेना सहज हो गया है। तो, ये योग जो है, लोग नाम सुनते ही घबरा जाते हैं। घबराओ मत। इतनी कठिनता नहीं है। मैं उसी शब्दकोश का प्रयोग करूँगा, ताकि आपको समझ में आए। जब तक समझ में नहीं आएगा, तब तक आप आचरण में कैसे लाएंगे।
योग में हम प्रवेश करें-पातञ्जलि महाराज ने ‘समाधान प्रकरण’ में स्वयं कहा है कि इस मार्ग पर चलना है, तो यह नहीं समझना कि आप अकेले हैं और अपने बल पर चल रहे हैं। योग के प्रारम्भ के सूत्र में उन्होंने बताया ईश्वर प्राणिधान। परमात्मा का आश्रय ले कर जाना है। अकेले जाओगे, तो भटक जाओगे। या तो गुरु, शुक्रदेव जी महाराज जैसे महापुरुष की अंगुली पकड़ लो, या कन्हैया की चरण-रज का आश्रय ले लो। ईश्वर के आधार के बगैर जीव निराधार है।
पातञ्जलि योगी है, परम योगी है, अपने बल और अपनी साधना पर उन्हें पूरा भरोसा है, लेकिन परमात्मा के अस्तित्व को नकारा नहीं उन्होंने। जगह-जगह पर उनका आश्रय लिया है। अन्त में बिन्दु को सिन्धु तो होना है। जैसे हमारी गोपी कहती हैं-‘कृष्णोऽहम् पश्यद्गतिम् ललिताम् इति तन्मना:।’ तो यहां पातञ्जलि कहेंगे-‘अहं ब्रह्मस्मि।’ तो प्राज्ञपुरुष कैसे बनें, कूटस्थ अवस्था कैसे प्राप्त करनी है, कैवल्य अवस्था किसे कहा जाता है, आइए जितना सरल हो सके, मैं आपके लिए बनाऊं।
महापुरुषों ने योग की अनेक व्याख्याएं की हैं। योग माने समतुलना। योग माने जोड़ना-यजुर्योगे। परमात्मा के साथ समरूप हो जाना-यजुर्योगे। ‘युज्य समाधौ’ समाधि में स्थिर होना, इसे भी योग कहा गया है।
महर्षि पातञ्जलि ने समाज के सामने, चाहे वह संसारी हो या साधु हो, चाहे प्रवृत्ति मार्ग में हो, चाहे निवृत्ति मार्ग में हो, एक विचारणीय बिन्दु रखा है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? परमात्मा ने मानव शरीर क्यों दिया है ? और जब परमात्मा ने यह साधन दिया है, तो इस साधन का सदुपयोग कैसे किया जाता है ? लक्ष्य की प्राप्ति करने में साधक को क्या-क्या करना चाहिए ? अपनी साधना के माध्यम से साधक को क्रमश: जो ऊर्ध्व गति होती है, उसमें समय-समय पर स्थान-स्थान पर जो रुकावटें आती हैं, उन्हें दूर करने का उपाय क्या है ? कांटे पत्थर-कंकड़ों को हटा कर वही कैवल्य पद, वही परम निर्वाण, वही परम शांति, जहां योगीजन ‘अहं ब्रह्मस्मि’ की अनुभूति करते हैं, कैसे प्राप्त की जाए ?
सामान्य दृष्टि से संसारी लोगों के मन में यही है कि यह हमारा मार्ग नहीं है। हम यह कर नहीं सकते। घर-गृहस्थी में बंधे हुए, सुबह से शाम तक अर्थोपार्जन करते हुए, पेट को भरने के उपायों में जब हम लगे हुए हैं, तो इस मार्ग पर हम कैसे चलेंगे ?
देखो, भारत के ऋषि-महापुरुष हमारे शुभेच्छुक हैं। इतना ही नहीं, ये ऋषि-महापुरुष हमारे माता-पिता, हमारे पूर्वज हैं। कोई भी मां हो, कोई भी पिता हो, वह यही चाहता है कि मेरी संतान का कल्याण हो। इन महापुरुषों ने भाजी के पत्ते, दूर्वा का रस पी-पी कर, अपने शरीर को कृश करके हमारे लिए अपने अनुभूत के रूप में जो शब्द रचना की है, उसे ही हम सद्ग्रंथ कहते हैं। इन विरक्त महात्माओं ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उनके हृदय में मां की ममता नहीं है। मां की ममता है। पातञ्जलि हो, चाहे कोई भी महापुरुष हो, वे हमारी मां भी है, हमारे पिता भी हैं।
‘रास पंचाध्यायी में गोपी ने एक सवाल परमात्मा से पूछा था कि हे प्रभु ! आप कौन है ? तीन प्रकार की श्रेणियां बताई है गोपी ने-एक तो, जो प्रेम करते हैं, उन्हें प्रेम करने वाले होते हैं। दूसरे जो एक पक्ष से प्रेम करता है, सामने वाला नहीं करता और तीसरी श्रेणी में-ये भी प्रेम नहीं करे, सामने वाला भी न करे। यह दूसरी श्रेणी माता-पिता की होती है। माता-पिता, पुत्र को प्रेम करते ही हैं बेटा, माता-पिता को प्रेम करे या न करे, कहना कठिन है। आद्य गुरु शंकाराचार्य महाराज का कहना है-‘कुपुत्रों जायते क्वचित्, कुमाता न भवति’। पुत्र रूठ सकता है, पुत्र सम्बन्ध तोड़ भी सकता है, किन्तु मां तो मां ही रहती है। जो असीम ममता, जो प्रेम की वर्षा केवल अमुक माह में, चौमासे में ही बरसे, ऐसा प्रेम मां का नही हैं। मां का प्रेम तो बारहों मास बरसता है। तो, ये ऋषि हमारी मां भी हैं, हमारे पिता भी हैं।
शास्त्र में बताया है कि जीव मां-बाप को कब याद करता है। आज हम यदि पातञ्जलि का दर्शन करने बैठे हैं, तो क्यों बैठे हैं ? ऐसी कौन-सी अवस्था आई है, जो हमें हमारी मां की याद दिला रही है। शंकराचार्य महाराज का कथन है-‘क्षुधा तृषार्तां जननी स्मरन्ति।’ जब भूख-प्यास लगती है, तब बालक अपनी मां की याद करता है। हमारी भूख कोई लौकिक तो है नहीं। इस गद्दी पर से जो चर्चा होगी, वह कोई लौकिक चर्चा तो है नहीं। मैं कोई मनोरंजन करने वाला तो हूँ नहीं। मैं तो मनोमंथन करने वाला हूँ और योगदर्शन जो हैं, वह बासुन्दी है, क्रीम है। हरेक आदमी पचा भी नहीं सकेगा, यह मैं भी जानता हूँ। लेकिन यदि अपने जीवन का कल्याण चाहते हो, अपने जीवन को सार्थक करना चाहते हो, जिस कारण से परमात्मा ने अनुग्रह करके हमें यह शरीर दिया है, उसका साफल्य करना है, उसका श्रेय करना है तो अवश्य यहां आकर शांत चित्त से विराजमान होओ और सुनो, क्योंकि ‘यस्या: श्रवण मामेण हरिश्चितं समाश्रयेत्।’
शब्द ब्रह्मरूप है, चाहे किसी भी रूप में ले लो। यह जरूरी नहीं है कि हम यहां महाभारत की ही चर्चा करें। यह जरूरी नहीं है कि हम श्रीमद्भागवत का पाठ आपको सुनाएँ, यह जरूरी नहीं है कि आपको गीता का पाठ सुनाऊं जगह-जगह पर रामायण की चौपाई भी आ जाएगी, महाभारत के श्लोक भी आएंगे, उपनिषद् के सूत्र भी आपको सुनाऊंगा, वेद की ऋचाएं भी आएंगी। कुछ बात आपको समझाने के लिए, सिद्धांत को पचाने के लिए जो अस्त्र-शस्त्र हमें उठाने पड़ें, सो उठाएंगे।
देखो, केवल पुस्तक पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति तैरना नहीं जानता। यदि तैरना सीखना हो, समझना हो, तो पानी में हौज में कहीं न कहीं गोता लगाना पड़ेगा, महर्षि पातञ्जलि का योग दर्शन कोई व्याख्या नहीं है। कोई प्रयास नहीं है। योग, उपलब्धि है। यदि प्रयास करना पड़ेगा, तो केवल इसे एक ‘एक्सरसाइज’ कहा जाएगा। यह तो जीवन में उतारने के लिए सूत्र है। अभ्यास नहीं करना। अभ्यास करोगे, तो प्राप्ति नहीं होगी। परम भागवत पुरुष कृष्णमूर्ति ने यही कहा है-‘एकर्टलेस एफर्ट’ बिना प्रयास के प्रयास। एक सहजता जो हो जाती है। मानव जब सांस लेता है, तो उसके बारे में सोचता नहीं, सांस लेना सहज हो गया है। तो, ये योग जो है, लोग नाम सुनते ही घबरा जाते हैं। घबराओ मत। इतनी कठिनता नहीं है। मैं उसी शब्दकोश का प्रयोग करूँगा, ताकि आपको समझ में आए। जब तक समझ में नहीं आएगा, तब तक आप आचरण में कैसे लाएंगे।
योग में हम प्रवेश करें-पातञ्जलि महाराज ने ‘समाधान प्रकरण’ में स्वयं कहा है कि इस मार्ग पर चलना है, तो यह नहीं समझना कि आप अकेले हैं और अपने बल पर चल रहे हैं। योग के प्रारम्भ के सूत्र में उन्होंने बताया ईश्वर प्राणिधान। परमात्मा का आश्रय ले कर जाना है। अकेले जाओगे, तो भटक जाओगे। या तो गुरु, शुक्रदेव जी महाराज जैसे महापुरुष की अंगुली पकड़ लो, या कन्हैया की चरण-रज का आश्रय ले लो। ईश्वर के आधार के बगैर जीव निराधार है।
पातञ्जलि योगी है, परम योगी है, अपने बल और अपनी साधना पर उन्हें पूरा भरोसा है, लेकिन परमात्मा के अस्तित्व को नकारा नहीं उन्होंने। जगह-जगह पर उनका आश्रय लिया है। अन्त में बिन्दु को सिन्धु तो होना है। जैसे हमारी गोपी कहती हैं-‘कृष्णोऽहम् पश्यद्गतिम् ललिताम् इति तन्मना:।’ तो यहां पातञ्जलि कहेंगे-‘अहं ब्रह्मस्मि।’ तो प्राज्ञपुरुष कैसे बनें, कूटस्थ अवस्था कैसे प्राप्त करनी है, कैवल्य अवस्था किसे कहा जाता है, आइए जितना सरल हो सके, मैं आपके लिए बनाऊं।
महापुरुषों ने योग की अनेक व्याख्याएं की हैं। योग माने समतुलना। योग माने जोड़ना-यजुर्योगे। परमात्मा के साथ समरूप हो जाना-यजुर्योगे। ‘युज्य समाधौ’ समाधि में स्थिर होना, इसे भी योग कहा गया है।
2
योग का प्रारंभ करें, इसके पहले तीन सवालों का प्राकट्य होता
है-‘कोऽहम्, किनाऽहम्, कस्याऽहम्। सर्वप्रथम तो मैं कौन हूँ ?
मैं
किसका हूं और जिसका मैं हूं, उसका और मेरा संबंध क्या है। पातञ्जलि ने यह
सारी सृष्टि दो तत्त्वों के मिलन की फलश्रुति बताई है, जिसकी व्याख्या
परमात्मा ने गीता में की है, और उपनिषद् ने उसका विस्तार किया है।
अर्थर्ववेद में इसकी प्रकृति और पुरुष के रूप में झलक दी गई है। प्रकृति
को सांख्य शास्त्र में भगवान कपिल ने अष्टधा प्रकृति बताया है और पुरुष
यानी आत्मा। अष्टधा प्रकृति और आत्मा इन दोनों के संयोग से इस सारी सृष्टि
का निर्माण हुआ है, पहले तो यह समझ लें।
आत्मा का मिलन प्रकृति के साथ जब-जब हुआ है और प्रकृति के साथ मिलन के कारण जब उसे स्वरूप की विस्मृति हो जाती है, तो मेरा क्या काम, मुझे क्या करना, मैं किस कारण से आया हूं और मेरा गन्तव्य लक्ष्य क्या है, वह भूल जाता है। पुरुष यानी मैं, यह आत्मा जो नित्य शुद्ध-बुद्ध तत्त्व है, वह जहां से अलग हुआ है, उसके साथ इसके मिलन होने को ही योग कहा जाता है। यजुर्योगे समरूप परमात्मा के साथ एकता हो जाना है। क्यों ? भला यह हम क्यों करें ? हमारा अस्तित्व जैसा है, उसे वैसा ही क्यों न रखें ?
प्रकृति के साथ जब-जब जीवात्मा का मिलन हुआ है, और जीवात्मा ने प्रकृति को जब-जब प्रधान्य दिया है तो फल क्षुति में दु:ख, क्लेश, शांति-अशांति, भय, निर्भयता, खाना-पीना सर्दी-गर्मी अनेकानेक विकारों की उत्पत्ति हुई है। योग के माध्यम से जब जीवात्मा अपने असली स्वरूप को जानती है, तब ज्ञान की वृद्धि होती है, तो जीवात्मा के जीवन में जो भी घटना घटती है, उसका वह साक्षी बन जाता है। इसका विस्तार से वर्णन अष्टावक्र महाराज ने किया है। यह ‘साक्षीभाव’ अपने को प्रकट करना है।
शरीर का एक धर्म है और आत्मा का एक भी धर्म है। शरीर अष्टधा प्रकृति से प्रकट हुआ है। इसलिए भूख लगेगी प्यास लगेगी। थकान होगी नींद आएगी कभी हर्ष होगा तो कभी शोक, कभी सर्दी तो कभी गर्मी। ये विकार है, शरीर के। आत्मा का जो स्वरूप, आत्मा का जो स्वभाव, आत्मा का जो धर्म है, वह शरीर से अलग है। आत्मा वास्तव में तत्त्व है क्या ? योग के माध्यम से हमारी मंजिल क्या है ? हमें क्या प्राप्त करना है।
देखो, प्रकृति यानी माया। इसके साथ हमारा संबंध हो गया, तो मैं कौन, यह भूल गया। मानव यह समझता है कि ‘मैं बनवारीलाल हूं।’ तू बनवारीलाल नहीं है। तू बंसी वाला है। ‘मैं बनवारी लाल’ फजीहत देवी का पति, अशांति का बेटा, दु:ख का व्यापारी ये मिट कर, जो नाभि से लेकर नासिका तक एक ब्रह्मनाद बांसुरी का हो रहा है और वो जो बजाने वाला है-कृष्मोऽहम् पश्चद्गतिम् ललिताम् इति तन्मना:। शंकराचार्य महाराज ने इसी की पूर्ति की-‘मैं कौन हूं।’
आत्मा का मिलन प्रकृति के साथ जब-जब हुआ है और प्रकृति के साथ मिलन के कारण जब उसे स्वरूप की विस्मृति हो जाती है, तो मेरा क्या काम, मुझे क्या करना, मैं किस कारण से आया हूं और मेरा गन्तव्य लक्ष्य क्या है, वह भूल जाता है। पुरुष यानी मैं, यह आत्मा जो नित्य शुद्ध-बुद्ध तत्त्व है, वह जहां से अलग हुआ है, उसके साथ इसके मिलन होने को ही योग कहा जाता है। यजुर्योगे समरूप परमात्मा के साथ एकता हो जाना है। क्यों ? भला यह हम क्यों करें ? हमारा अस्तित्व जैसा है, उसे वैसा ही क्यों न रखें ?
प्रकृति के साथ जब-जब जीवात्मा का मिलन हुआ है, और जीवात्मा ने प्रकृति को जब-जब प्रधान्य दिया है तो फल क्षुति में दु:ख, क्लेश, शांति-अशांति, भय, निर्भयता, खाना-पीना सर्दी-गर्मी अनेकानेक विकारों की उत्पत्ति हुई है। योग के माध्यम से जब जीवात्मा अपने असली स्वरूप को जानती है, तब ज्ञान की वृद्धि होती है, तो जीवात्मा के जीवन में जो भी घटना घटती है, उसका वह साक्षी बन जाता है। इसका विस्तार से वर्णन अष्टावक्र महाराज ने किया है। यह ‘साक्षीभाव’ अपने को प्रकट करना है।
शरीर का एक धर्म है और आत्मा का एक भी धर्म है। शरीर अष्टधा प्रकृति से प्रकट हुआ है। इसलिए भूख लगेगी प्यास लगेगी। थकान होगी नींद आएगी कभी हर्ष होगा तो कभी शोक, कभी सर्दी तो कभी गर्मी। ये विकार है, शरीर के। आत्मा का जो स्वरूप, आत्मा का जो स्वभाव, आत्मा का जो धर्म है, वह शरीर से अलग है। आत्मा वास्तव में तत्त्व है क्या ? योग के माध्यम से हमारी मंजिल क्या है ? हमें क्या प्राप्त करना है।
देखो, प्रकृति यानी माया। इसके साथ हमारा संबंध हो गया, तो मैं कौन, यह भूल गया। मानव यह समझता है कि ‘मैं बनवारीलाल हूं।’ तू बनवारीलाल नहीं है। तू बंसी वाला है। ‘मैं बनवारी लाल’ फजीहत देवी का पति, अशांति का बेटा, दु:ख का व्यापारी ये मिट कर, जो नाभि से लेकर नासिका तक एक ब्रह्मनाद बांसुरी का हो रहा है और वो जो बजाने वाला है-कृष्मोऽहम् पश्चद्गतिम् ललिताम् इति तन्मना:। शंकराचार्य महाराज ने इसी की पूर्ति की-‘मैं कौन हूं।’
3
देखो, कोई भी जीवात्मा हो, चाहे संसारी हो, चाहे साधु हो, चाहे व्यापारी
हो, चाहे नौकरी करने वाला हो, चाहे बालक हो, चाहे बूढ़ा हो, पुरुष हो,
स्त्री हो, चाहे कोई भी हो, आपकी और हमारी (सुबह से शाम तक दिनचर्या क्या
है ? और जो है, वो क्यों है ? इन नौ दिनों में सवाल बहुत आएंगे। हमारे ही
सवाल। ये सेठजी ने दुकान क्यों की है ? ये माताएं परिवार में सेवा क्यों
करती हैं ? रसोई क्यों करती हैं आप ? ये बालक स्कूल में क्यों पढ़ता है ?
ये भक्त पूजा-पाठ क्यों कर रहा है ? ये भूदेव कर्मकाण्ड क्यों करते हैं ?
आप गोविन्द देव जी मंदिर में जाकर माथा क्यों टेकते हैं ? सवाल-क्यों ?
क्यों ?
इन सबका जवाब एक ही है सुख में बूयात-दु:ख में माऽभूत। बस ! मुझे सुख चाहिए, मुझे शांति चाहिए, मुझे आनंद चाहिए। मुझे दु:ख नहीं चाहिए। जीवमात्र सुख की खोज में है। शांति की तलाश हो रही है। आप की उम्र को देखो। जो भी उम्र है, क्या आपको मिल गई ? इच्छित मिल गया क्या ? नहीं मिला ? इसका कारण है। आपकी दौड़ सही है, दिशा गलत है। तड़प सही है, तलाश गलत है। देखो, आंख के बाहर जगत् है, आंख के अंदर जगदीश है। दोनों के दरवाजे पर खड़ा है-मन।
हमारे षड्शास्त्र है-पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य योग इत्यादि। सांख्य जो है, वह थ्योरी है। सांख्य शास्त्र पूरे का पूरा मन के ऊपर आश्रित है। सांख्य शास्त्र के आचार्य भगवान कपिल हैं। ‘कपि’ यानी वानर, कपि का अर्थ होता है वानर और ‘ल’ यानी काबू में रखने वाला। वानर और मन दोनों चंचल हैं। एक क्षण के लिए भी वह स्थिर नहीं बैठ सकता। सुई की नोक के ऊपर सरसों का दाना जब तक स्थिर रह सके, इतना ही स्थिर मन रहता है। अर्जुन का यही सवाल था। भगवान् श्री दामोदर को, भगवान योगेश्वर को उन्होंने यही पूछा-चंचलहि मन कृष्ण, प्रभाती बल वत्रणम्। ये मन भारी चंचल है। जैसे वायु का निग्रह करना, ठीक उसी प्रकार इस मन का निग्रह करना मुझे तो असंभव नजर आ रहा है। भगवान् ने कहा-नि:सन्देह अर्जुन मन चंचल है, किन्तु उसका निग्रह असंभव नहीं है।
भगवान् ने तो स्पर्श ही किया है। यहां पातञ्जलि विस्तार से बताएंगे। वो चित्त तत्त्व की व्याख्या करने वाले हैं कि चित्त किसे कहा जाता है ? चित्त क्या वस्तु है ? शरीर स्थूल चित्त है और वही सूक्ष्म शरीर चित्त वृत्ति है। अन्त:करण चतुष्ट्य में वर्णन किया गया है, मन बुद्धि, चित्त और अहंकार। अष्टधा प्रकृति में चित्त का निवास नहीं है। हमने प्रारंभ में यही बताया है कि यह सारी सृष्टि यह सारा जगत् पुरुष और प्रकृति के मिलन से हुआ है। प्रकृति अष्टधा है, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें चित्त तत्त्व नहीं है। ध्यान दें। चित्त का अपना अस्तित्व है। उसी चित्त को प्रवृत्त में से निवृत्त में ले जाना, सक्रिय में से निष्क्रिय में ले जाना, उसका निरोध करना उसे काबू में रखना, इसे ही पातञ्जलि का योग दर्शन कहा गया है। बस, और कुछ नहीं है।
इन सबका जवाब एक ही है सुख में बूयात-दु:ख में माऽभूत। बस ! मुझे सुख चाहिए, मुझे शांति चाहिए, मुझे आनंद चाहिए। मुझे दु:ख नहीं चाहिए। जीवमात्र सुख की खोज में है। शांति की तलाश हो रही है। आप की उम्र को देखो। जो भी उम्र है, क्या आपको मिल गई ? इच्छित मिल गया क्या ? नहीं मिला ? इसका कारण है। आपकी दौड़ सही है, दिशा गलत है। तड़प सही है, तलाश गलत है। देखो, आंख के बाहर जगत् है, आंख के अंदर जगदीश है। दोनों के दरवाजे पर खड़ा है-मन।
हमारे षड्शास्त्र है-पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य योग इत्यादि। सांख्य जो है, वह थ्योरी है। सांख्य शास्त्र पूरे का पूरा मन के ऊपर आश्रित है। सांख्य शास्त्र के आचार्य भगवान कपिल हैं। ‘कपि’ यानी वानर, कपि का अर्थ होता है वानर और ‘ल’ यानी काबू में रखने वाला। वानर और मन दोनों चंचल हैं। एक क्षण के लिए भी वह स्थिर नहीं बैठ सकता। सुई की नोक के ऊपर सरसों का दाना जब तक स्थिर रह सके, इतना ही स्थिर मन रहता है। अर्जुन का यही सवाल था। भगवान् श्री दामोदर को, भगवान योगेश्वर को उन्होंने यही पूछा-चंचलहि मन कृष्ण, प्रभाती बल वत्रणम्। ये मन भारी चंचल है। जैसे वायु का निग्रह करना, ठीक उसी प्रकार इस मन का निग्रह करना मुझे तो असंभव नजर आ रहा है। भगवान् ने कहा-नि:सन्देह अर्जुन मन चंचल है, किन्तु उसका निग्रह असंभव नहीं है।
भगवान् ने तो स्पर्श ही किया है। यहां पातञ्जलि विस्तार से बताएंगे। वो चित्त तत्त्व की व्याख्या करने वाले हैं कि चित्त किसे कहा जाता है ? चित्त क्या वस्तु है ? शरीर स्थूल चित्त है और वही सूक्ष्म शरीर चित्त वृत्ति है। अन्त:करण चतुष्ट्य में वर्णन किया गया है, मन बुद्धि, चित्त और अहंकार। अष्टधा प्रकृति में चित्त का निवास नहीं है। हमने प्रारंभ में यही बताया है कि यह सारी सृष्टि यह सारा जगत् पुरुष और प्रकृति के मिलन से हुआ है। प्रकृति अष्टधा है, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें चित्त तत्त्व नहीं है। ध्यान दें। चित्त का अपना अस्तित्व है। उसी चित्त को प्रवृत्त में से निवृत्त में ले जाना, सक्रिय में से निष्क्रिय में ले जाना, उसका निरोध करना उसे काबू में रखना, इसे ही पातञ्जलि का योग दर्शन कहा गया है। बस, और कुछ नहीं है।
4
देखो, झील हो या समुद्र हो या नदी हो, तेज बहती हुई, उसमें यदि लहरें
आएं-जाएं तो चंद्रमा की प्रतिबिम्ब आपको दिखाई नहीं देता। चंद्रमा का
प्रतिबिम्ब तो तब दिखाई देता है, जब ये लहरें शांत हो जाएं। यह मन, जो
दरवाजे पर खड़ा है। बाहर देखता है, तो उसे जगत् दिखता है और अंदर देखता
है, तो जगदीश। मन की वृत्ति ऐसी है कि इन्द्रियों के साथ संसर्ग होने के
कारण वह लगातार जगत् के सामने देखता है। जगत् दिखता है और जब तक
चित्त-वृत्ति शांत नहीं होती, तब तक जगदीश का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता।
इसीलिए जीवात्मा की श्रद्धा विश्वास और भरोसा पैसे के ऊपर है, परमात्मा के
ऊपर नहीं है। पैसा दिखता है, परमात्मा दिखता नहीं। बस, इतना ही अंतर है।
माया दिखाई देती है, मायापति दिखाई नहीं देता। मायापति का दर्शन करने के
लिए योगदर्शन को सिद्ध करना पडे़गा।
5
पातञ्जलि के योग दर्शन में चार विभाग बताएं गए हैं। सर्वप्रथम तो, यह
समाधि कैसे होती है ? समाधि के कितने प्रकार के होते हैं ? संकल्प, विकल्प
निर्विकल्प से जो प्रकृत, सबीज, निर्बीज, विविध प्रकार की समाधियाँ होती
हैं उन विभिन्न प्रकार की समाधियों का स्तर क्या है ? उसमें अनुभूतियां
क्या होती हैं ? उनसे फायदा क्या हैं ? हम अपने आप कहां तक पहुंचे हैं ?
इसका कहीं न कहीं लक्षण दिखाई देगा। तो, प्रथम प्रकरण ‘समाधि
पाद’ कहा गया है।
समाधि की प्राप्ति कैसे होती है ? इसके लिए दूसरा प्रकरण आता है-‘साधना पाद’। कुछ प्राप्त करना हो, तो साधना तो करनी ही पड़ेगी। श्रम करना पड़ेगा। इस जगत् में कोई भी चीज मुफ्त में नहीं मिलती। आपको कहीं न कहीं कीमत चुकानी पड़ेगी। तो, साधना कैसे की जाती है ? साधना का प्रकार क्या है ? साधना की सफलता और विफलता कैसे होती है, यह भी बताया गया है।
साधना करने के बाद विभूतियों की उत्पत्ति होती है। विभूति यानी परिणाम। इसे ही ‘विभूत पाद’ कहा गया है। परिणाम में साधक यदि फंस जाए, तो यह विघ्नकारक है। विभूति मिलने के बाद यदि पत्थर, कांटे, कंकड़ हटाने के लिए उसका प्रयोग किया जाए, तो अंतिम अवस्था, जिसे कैवल्य पाद कहा गया है, प्राप्त होती है, जहां जीवात्मा अपने आप को कहेगा, अहं ब्रह्मास्मि। मैं वहीं हूं। वहां तक जीवात्मा पहुंचती है तो अंतिम प्रकरण ‘कैवल्य पाद’ का है।
समाधि की प्राप्ति कैसे होती है ? इसके लिए दूसरा प्रकरण आता है-‘साधना पाद’। कुछ प्राप्त करना हो, तो साधना तो करनी ही पड़ेगी। श्रम करना पड़ेगा। इस जगत् में कोई भी चीज मुफ्त में नहीं मिलती। आपको कहीं न कहीं कीमत चुकानी पड़ेगी। तो, साधना कैसे की जाती है ? साधना का प्रकार क्या है ? साधना की सफलता और विफलता कैसे होती है, यह भी बताया गया है।
साधना करने के बाद विभूतियों की उत्पत्ति होती है। विभूति यानी परिणाम। इसे ही ‘विभूत पाद’ कहा गया है। परिणाम में साधक यदि फंस जाए, तो यह विघ्नकारक है। विभूति मिलने के बाद यदि पत्थर, कांटे, कंकड़ हटाने के लिए उसका प्रयोग किया जाए, तो अंतिम अवस्था, जिसे कैवल्य पाद कहा गया है, प्राप्त होती है, जहां जीवात्मा अपने आप को कहेगा, अहं ब्रह्मास्मि। मैं वहीं हूं। वहां तक जीवात्मा पहुंचती है तो अंतिम प्रकरण ‘कैवल्य पाद’ का है।
6
देखो, पातञ्जलि ने तो एक प्रकार का योग बताया है। लेकिन योग केवल एक
प्रकार का नहीं है। महापुरुषों ने, महाऋषियों ने, जैसी-जैसी जीव की मति,
उसी प्रकार योग की व्याख्या की है और जीवन में उतारा है। राज योग, बुद्धि
योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, संन्यास योग, हठ योग, लय योग-ये सब
के सब योग ही हैं, जोड़ना। शरीर का प्राकट्य प्रकृति में से हुआ है। तो
प्रकृति के साथ अपने को मिलाना है। प्रकृति का काम है, पुरुष की सहायता
करना। देखो, ये फूल खिलता है। आपने कभी विचार किया कि ये फूल क्यों खिलते
हैं ? धरती अन्न देती है। धरती अन्न क्यों देती है ? सूर्यनारायण प्रकाश
देते हैं। बादल बरसते हैं, हमें जल मिलता है। यह प्रकृति कुछ न कुछ दे रही
है। वह देती है क्यों यह विचार किया आपने ? यह देती है, इसीलिए कि
हृदयाकाश में जो पुरुष विराजमान है, उसे इन चीजों की जरूरत है।
श्रीमद्भागवत में भक्ति योग है, ज्ञान योग है, वैराग्य योग है, कर्म योग है। पातञ्जलि के योग दर्शन में कोई कहानी नहीं है। भगवान वेदव्यास जी के भागवत में कहानी है, ताकि वही बात आपको समझ में आएगी। कन्हैया जो मक्खन चोरी करता है न यह बात आपको याद रह जाएगी।
लेकिन केवल व्याख्या से काम नहीं चलेगा। जीवन में उतारना पड़ेगा। प्रयोग करना पड़ेगा और गहराई से, ध्यान दे कर सुनोगे, तो यहां बैठे-बैठे योग को मैं सिद्ध कर दूंगा। यह कोई रुपया लेकर आपकी कुण्डलिनी जागृत करवा दे, वो वाली बात नहीं है। यहां कोई व्यापार नहीं है। यह कोई सौदेबाजी नहीं है। यहां समय भ्रांति भजनम्। तुम्हारे मन में जो तंरगे हैं, जो चंचलता है, तुम्हारी चित्तवृत्ति जो इधर-उधर भटक रही है, उसे स्थिर कैसे किया जाता है, वह प्रयोग मैं आपको बताऊंगा। मैं जैसे करूं वैसे आप करोगे, तो नि:सन्देह हमें पूरा भरोसा है कि नौवें दिन आपको कैवल्य समाधि हो सकती है, यदि करना है तो। बाकी घबराना नहीं भाई कि यह हमारे बस की बात नहीं। तुम्हारे लिए ही है। यदि आपके लिए नहीं होती तो पातञ्जलि श्रम उठाकर समाज के सामने ये सामग्री रखते ही क्यों ?
नाथ सम्प्रदाय में गोरखनाथ जी महाराज हो गए। गोरखनाथ महाराज ने तो अष्टांग योग को स्वीकार भी नहीं किया। उन्होंने तो कहा कि छ: योग हैं। पातञ्जलि के अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि, इस प्रकार आठ अंग है। गोरखनाथ ने यम-नियम को तो स्वीकारा ही नहीं है। गोरखनाथ का योग तो आसन से प्रारंभ होता है, यम-नियम से नहीं। यम-नियम तो हरेक जीव को निभाना है।
श्रीमद्भागवत में भक्ति योग है, ज्ञान योग है, वैराग्य योग है, कर्म योग है। पातञ्जलि के योग दर्शन में कोई कहानी नहीं है। भगवान वेदव्यास जी के भागवत में कहानी है, ताकि वही बात आपको समझ में आएगी। कन्हैया जो मक्खन चोरी करता है न यह बात आपको याद रह जाएगी।
लेकिन केवल व्याख्या से काम नहीं चलेगा। जीवन में उतारना पड़ेगा। प्रयोग करना पड़ेगा और गहराई से, ध्यान दे कर सुनोगे, तो यहां बैठे-बैठे योग को मैं सिद्ध कर दूंगा। यह कोई रुपया लेकर आपकी कुण्डलिनी जागृत करवा दे, वो वाली बात नहीं है। यहां कोई व्यापार नहीं है। यह कोई सौदेबाजी नहीं है। यहां समय भ्रांति भजनम्। तुम्हारे मन में जो तंरगे हैं, जो चंचलता है, तुम्हारी चित्तवृत्ति जो इधर-उधर भटक रही है, उसे स्थिर कैसे किया जाता है, वह प्रयोग मैं आपको बताऊंगा। मैं जैसे करूं वैसे आप करोगे, तो नि:सन्देह हमें पूरा भरोसा है कि नौवें दिन आपको कैवल्य समाधि हो सकती है, यदि करना है तो। बाकी घबराना नहीं भाई कि यह हमारे बस की बात नहीं। तुम्हारे लिए ही है। यदि आपके लिए नहीं होती तो पातञ्जलि श्रम उठाकर समाज के सामने ये सामग्री रखते ही क्यों ?
नाथ सम्प्रदाय में गोरखनाथ जी महाराज हो गए। गोरखनाथ महाराज ने तो अष्टांग योग को स्वीकार भी नहीं किया। उन्होंने तो कहा कि छ: योग हैं। पातञ्जलि के अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि, इस प्रकार आठ अंग है। गोरखनाथ ने यम-नियम को तो स्वीकारा ही नहीं है। गोरखनाथ का योग तो आसन से प्रारंभ होता है, यम-नियम से नहीं। यम-नियम तो हरेक जीव को निभाना है।
7
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग की अधिकता बताई। जब जीवात्मा ने कह
दिया ‘न योत्सम गोविन्दम्’ मैं युद्ध नहीं करूँगा तो
भगवान ने
कहा-‘अर्जुन, कर्म से कोई निवृत्त नहीं हो सकेगा। कर्मयोग से
किसी
जीव को मुक्ति नहीं मिलती। कर्मयोग में ‘मैं करूँ या नहीं
करूं,’ यह विकल्प नहीं है। अर्जुन ने पूछा, महाराज, तो किस
किस्म का
विकल्प है ? भगवान बोले-विकल्प केवल एक है-‘मैं किस-किस का
कर्मयोग
करूंगा। या तो तू भोजन करेगा, या तो तू शयन करेगा, या तो तू युद्ध करेगा,
या तो तू बाजार में घूमेगा, इसी में विकल्प है। लेकिन मैं कुछ करूंगा
नहीं, यह नहीं चलेगा।
कर्मण्ये वाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
मा कर्मफल हेतुर्भू माम संगोस्त्व विकर्माणि।।
मा कर्मफल हेतुर्भू माम संगोस्त्व विकर्माणि।।
हे जीव, कर्म तो तुझे करना ही पड़ेगा सो, परमात्मा ने गीता के प्रथम छ:
अध्यायों को कर्मयोग कहा।
कर्म में शुद्धता आवश्यक है। ‘मति’ सुधरेगी तो ‘गति’ सुधरेगी। मति को सुधारने का उपाय परमात्मा ने बताया कलियुग के लिए भक्तिमार्ग, जो सुगम, सरल और श्रेष्ठ है। इसलिए मध्य में परमात्मा ने छ: अध्याय, ‘भक्तियोग’ सुनाया और अंत में चूंकि सबके साथ युद्ध करते-करते अर्जुन को अष्टधा प्रकृति से मुक्ति प्राप्त करनी है, इसलिए अंत में परमात्मा ने ‘ज्ञानयोग’ सुनाया।
यह सबके लिए उपयोगी है। तो, हम क्यों करें यह सब ? यह श्रम, यह माथाफोड़ी क्यों करें ? देखो, सवाल यह था कि मैं कौन हूं ? मैं यहां क्यों आया हूं, मुझे क्या करना है और मेरा गन्तव्य क्या है ? खाना-पीना, सोना-विषय उपभोग और मर जाना, यह तो गधा भी करता है, कुत्ता भी करता है। क्या भगवान ने हमें इसी के लिए शरीर दिया है ? देवदुर्लभ कहा गया इस मानव शरीर को। परमात्मा जब जीवात्मा पर अति कृपा करें, तब उसे मनुष्य देह देते हैं। मानव शरीर का अर्थ होता है, मुक्ति का, मोक्ष का दरवाजा। पंचीकरण में, मानव जाति में पांच प्रकार के कोश होने के कारण उसे सर्वश्रेष्ठ योनि कहा गया है।
कर्म में शुद्धता आवश्यक है। ‘मति’ सुधरेगी तो ‘गति’ सुधरेगी। मति को सुधारने का उपाय परमात्मा ने बताया कलियुग के लिए भक्तिमार्ग, जो सुगम, सरल और श्रेष्ठ है। इसलिए मध्य में परमात्मा ने छ: अध्याय, ‘भक्तियोग’ सुनाया और अंत में चूंकि सबके साथ युद्ध करते-करते अर्जुन को अष्टधा प्रकृति से मुक्ति प्राप्त करनी है, इसलिए अंत में परमात्मा ने ‘ज्ञानयोग’ सुनाया।
यह सबके लिए उपयोगी है। तो, हम क्यों करें यह सब ? यह श्रम, यह माथाफोड़ी क्यों करें ? देखो, सवाल यह था कि मैं कौन हूं ? मैं यहां क्यों आया हूं, मुझे क्या करना है और मेरा गन्तव्य क्या है ? खाना-पीना, सोना-विषय उपभोग और मर जाना, यह तो गधा भी करता है, कुत्ता भी करता है। क्या भगवान ने हमें इसी के लिए शरीर दिया है ? देवदुर्लभ कहा गया इस मानव शरीर को। परमात्मा जब जीवात्मा पर अति कृपा करें, तब उसे मनुष्य देह देते हैं। मानव शरीर का अर्थ होता है, मुक्ति का, मोक्ष का दरवाजा। पंचीकरण में, मानव जाति में पांच प्रकार के कोश होने के कारण उसे सर्वश्रेष्ठ योनि कहा गया है।
8
पातञ्जलि उवाच-
‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’’
पातञ्जलि महाराज ने योग मार्ग का पूरा सार प्रथम संस्करण के द्वितीय सूत्र
में जितनी स्पष्टता से बताया है, योग के बारे में ऐसी स्पष्टता दुनिया में
किसी भी ग्रंथ में, शास्त्र में, किसी भी महर्षि महानुभाव के चिंतन में,
विचारों में, लेखनी में, अनुभूति में इतनी सरलता इतनी सजगता का कही दर्शन
नहीं है।
भगवान श्यामसुन्दर ने गीता के अनुसार कहा है कि कर्म में जो कुशलता है, वो ही सही माने में योग है योग कहा है। कोई भी जीवात्मा एक क्षण के लिए कर्म किए बगैर रह ही नहीं सकता। मोह का नाश करने के लिए यदि कर्म की शुद्धि हो जाए, कार्य में सावधानी रहे, फल की अपेक्षा को छोड़कर कर्ता होने के अहंकार को त्याग कर यदि जीवात्मा कोई भी कर्म करे, तो नए प्रारब्ध का निर्माण नहीं होता। गीता के इस सूत्र के आधार पर ‘नष्टो मोद्य स्मृतिर्लब्धवा’ यह गीता का सार है।
भगवान श्यामसुन्दर ने गीता के अनुसार कहा है कि कर्म में जो कुशलता है, वो ही सही माने में योग है योग कहा है। कोई भी जीवात्मा एक क्षण के लिए कर्म किए बगैर रह ही नहीं सकता। मोह का नाश करने के लिए यदि कर्म की शुद्धि हो जाए, कार्य में सावधानी रहे, फल की अपेक्षा को छोड़कर कर्ता होने के अहंकार को त्याग कर यदि जीवात्मा कोई भी कर्म करे, तो नए प्रारब्ध का निर्माण नहीं होता। गीता के इस सूत्र के आधार पर ‘नष्टो मोद्य स्मृतिर्लब्धवा’ यह गीता का सार है।
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