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मनुष्य के जीवन में कहां हैं भय के बीज? अभय कैसे जन्मे?
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेम का शास्त्र इसके बिलकुल विपरीत है। वह अच्छे को अभय करता है, बुरे
को भयभीत करता है। भयभीत करता है नहीं, बुरा अपने आप भयभीत होता है। अच्छा
अपने आप अभय को उपलब्ध होता है। क्योंकि जितनी ही प्रेम में गति होती है
उतना ही अभय उपलब्ध होता है; प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति डरता नहीं; कोई
कारण डरने का न रहा। प्रेम मृत्यु से भी बड़ा है। तुम मृत्यु से भी नहीं
डर सकते।, तुम कहो, हम मार डालेंगे ! तो प्रेम मरने को तैयार हो जाएगा,
लेकिन डरेगा नहीं। प्रेमी मर सकता है शांति से जीवन को भी दांव पर लगा
सकता है। क्योंकि जीवन से भी बड़ी चीज उसे मिल गई। जब बड़ी चीज मिलती हो,
तो छोटी चीज को दांव पर लगाया जा सकता है।
लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं;
तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए ?
मान लो कि लोग मृत्यु से भयभीत हैं;
और हम उपद्रवियों को पकड़कर मार सकते हैं;
कौन ऐसा करने की हिम्मत करेगा ?
अक्सर ऐसा होता है कि बधिक मारा जाता है।
और बधिक की जगह लेना ऐसा है,
जैसे कोई महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी लेकर चलाए।
जो महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी हाथ में लेता है,
वह शायद अपने ही हाथों को जख्मी करने से बच पाता है।
मनुष्य आज तक भय को आधार बना कर जिया है। इसलिए कुछ आश्चर्य नहीं है कि मनुष्य जीवन नरक हो गया हो। भय नरक का द्वार है। प्रेम अगर स्वर्ग का द्वार है तो भय नरक का।
समाज की, राज्य की सारी व्यवस्था भय-प्रेरित है। हमने डरा कर लोगों को अच्छा बनाने की कोशिश की है। और डर से बड़ी कोई बुराई नहीं है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जहर से लोगों को जिलाने की कोशिश करे। भय सबसे बड़ा पाप है। और उसको ही हमने आधार बनाया है जीवन के सारे पुण्यों का। तो हमारे पुण्य भी पाप जैसे हो गए हैं। हो ही जाएंगे।
इसे हम थोड़ा समझने की कोशिश करें। सुगम है लोगों को भयभीत कर देना। प्रेम से आपूरित करना तो बहुत कठिन है, क्योंकि प्रेम के लिए चाहिए एक आंतरिक विकास। भय के लिए विकास की कोई भी जरूरत नहीं। एक छोटे से बच्चे को भी भयभीत किया जा सकता है। लेकिन छोटे से बच्चे को तुम प्रेम कैसे सिखाओगे ? प्रेम तो लोग नहीं सीख पाते मृत्यु के क्षण तक; अधिक लोग तो बिना प्रेम सीखे ही मर जाते हैं।
छोटे बच्चे को अच्छा काम करवाना हो तो क्या करोगे ?
भयभीत करो, मारो, डांटो, डपटो, भूखा रखो, दंड दो। छोटा बच्चा असहाय है। तुम उसे डरा सकते हो। वह तुम पर निर्भर है। माँ अगर अपना मुंह भी मोड़ ले उससे और कह दे कि नहीं बोलूंगी, तो भी वह उखड़े हुए वृक्ष की भाँति हो जाता है। उसे डराना बिलकुल सुगम है, क्योंकि वह तुम पर निर्भर है। तुम्हारे बिना सहारे के तो वह जी भी न सकेगा। एक क्षण भी बच्चा नहीं सोच सकता कि तुम्हारे बिना कैसे बचेगा।
और मनुष्य का बच्चा सारे पशुओं के बच्चों से ज्यादा असहाय है। पशुओं के बच्चे बिना मां-बाप के सहारे भी बच सकते है। मां-बाप का सहारा गौण है; जरूरत भी है तो दो-चार दिन कि है; महीने, पंद्रह दिन कि है। मनुष्य का बच्चा एकदम असहाय है। इससे ज्यादा असहाय कोई प्राणी नहीं है। अगर मां-बाप न हो तो बच्चा बचेगा ही नहीं। तो मृत्यु किनारे खड़ी है। मां-बाप के सहारे ही जीवन खड़ा होगा। मां-बाप के हटते ही, सहयोग के हटते ही, जीवन नष्ट हो जाएगा। इसलिए बच्चे को डराना बहुत ही आसान है। और तुम्हारे लिए भी सुगम है। क्योंकि डराने में कितनी कठिनाई है ? आंख से डरा सकते हो; व्यवहार से डरा सकते हो। और डरा कर तुम बच्चे को अच्छा बनाने की कोशिश करते हो।
वहीं भ्रांति हो जाती है। क्योंकि भय तो पहली बुराई है। अगर बच्चा डर गया और डर के कारण शान्त बैठने लगा तो उसकी शांति के भीतर अशांति छिपी होगी। उसने शांति का पाठ नहीं सीखा; उसने भय का पाठ सीखा। अगर डर के कारण उसने बुरे शब्दों का उपयोग बंद कर दिया, गालियां देनी बंद कर दीं, तो भी गालियां उसके भीतर घूमती रहेंगी, उसकी अंतरात्मा की वासिनी हो जाएंगी।
वह ओंठों से बाहर न लाएगा। उसने पाठ यह नहीं सीखा कि वह सदव्यवहार करे, सदवचन बोले, भाषा का काव्य सीखे, भाषा की गंदगी नहीं। वह नहीं सीखा, उसने इतना ही सीखा कि कुछ चीजें हैं जो प्रकट नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनसे खतरा है। मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को सिखा रहा था कि गालियां देना बुरा है। बेटा बड़ा होने लगा था, आस-पड़ोस भी जाने लगा था, स्कूल भी; वह गालियां सीख कर आने लगा था। सब तरफ गालियों का बाजार है। तो मुल्ला नसरुद्दीन ने वही किया जो कोई भी पिता करेगा। उसने बच्चे को कहा कि देखो, यह दंड की व्यवस्था है।
अगर तुमने इस, तरह की गाली दी कि कि तुमने किसी को गधा कहा, उल्लू का पट्ठा कहा, तो तुम्हें चार आने- तुम्हें जो रुपया रोज मिलता है- उसमें से चार आने कट जाएँगे, एक बार गाली दी तो। दो बार दी, तो आठ आने कट जाएंगे। चार बार तुमने इस तरह की गाली का उपयोग किया, पूरा रुपया कट जाएगा। ज्यादा गाली दी, कल का रुपया भी आज कटेगा। नंबर दो की गाली, पिता ने कहा के और अगर तुमने किसी को कहा साला, बदमाश, तो आठ आने कटेंगे। ऐसा उसने फेहरिस्त बना दी,
चार तरह की गहरी गालियां बता दी। एक रुपया कटने का इंतजाम कर दिया अगर चौथे ढंग की गाली दी। लड़के ने कहा तो ठीक है, लेकिन मुझे ऐसी भी गालियाँ मालूम हैं कि पांच रुपया भी काटो तो भी कम पड़ेगा। उसका क्या होगा ?
ऊपर से तुम दबा दोगे, भीतर चीजें भरी रह जाएंगी।
ऊपर से ढक्कन बंद कर दोगे, आत्मा में धुआं गूंजता रह जाएगा। यह ढक्कन भी तभी तक बंद रहेगा जब तक भय जारी रहेगा। कल बच्चा जवान हो जाएगा, तुम बूढ़े हो जाओगे, तब भय उलटा रूप ले लेगा। तब जो-जो दबाया था वही-वही प्रकट होने लगेगा। बहुत कम बच्चे हैं जो बड़े होकर अपने बाप के साथ सदव्यवहार कर सकें। पैर भी छूते हों तो भी उससे सद्भाव नहीं होता। बूढ़े बाप के साथ अच्छा व्यवहार बड़ा कठिन है। कारण ?
कारण है कि जब तुम बच्चे थे तब बाप ने जो व्यवहार किया था वह अच्छा नहीं था। इसे तो कोई भी नहीं देखता कि बाप बेटे के साथ बचपन में कैसा व्यवहार कर रहा है। यह सभी को दिखाई पड़ेगा कि बेटा बाप के साथ बुढ़ापे में कैसा व्यवहार कर रहा है। लेकिन जो तुम बोओगे उसे काटना पड़ेगा उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। आज बच्चा सबल हो गया है। बाप अब बूढ़ा होकर दुर्बल हो गया है, इसलिए नाव उलटी हो गई है। अब बच्चा भयभीत करेगा। अब वह जवान है, अब वह तुम्हें डराएगा। वह तुम्हें दबाएगा।
भय से कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ दब जाता है। और जब भय की स्थिति बदल जाती है तो बाहर आ जाती है। तो तुम्हें समाज में दिखाई पड़ेंगे वे लोग जो भय के कारण अच्छे हैं। उनका अच्छा होना नपुंसक ब्रह्मचर्य जैसा है। वे जबरदस्ती अच्छे हैं। अच्छा होना नहीं चाहते; अच्छे का उन्हें स्वाद नहीं मिला। वे सिर्फ बुरे से डरे हैं और घबड़ा रहे हैं, और भीतर कंप रहे हैं। इस कंपन के कारण लोग अच्छे हैं।
इसलिए अच्छे आदमी में फूल खिलते दिखाई नहीं पड़ते। उलटा ही दिखाई पड़ता है, कभी-कभी बुरा आदमी तो मुस्कुराते और हंसते भी मिल जाए, अच्छा आदमी तुम्हें हंसते भी न मिलेगा वह इतना डर गया है कि हंसी में पाप मालूम पड़ता है। वह इतना भयभीत हो गया है कि जीवन को कहीं से भी अभिव्यक्ति देने में डर लगता है कि कहीं कोई भूल न हो जाए, कहीं कोई गलती न हो जाए।
लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं;
तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए ?
मान लो कि लोग मृत्यु से भयभीत हैं;
और हम उपद्रवियों को पकड़कर मार सकते हैं;
कौन ऐसा करने की हिम्मत करेगा ?
अक्सर ऐसा होता है कि बधिक मारा जाता है।
और बधिक की जगह लेना ऐसा है,
जैसे कोई महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी लेकर चलाए।
जो महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी हाथ में लेता है,
वह शायद अपने ही हाथों को जख्मी करने से बच पाता है।
मनुष्य आज तक भय को आधार बना कर जिया है। इसलिए कुछ आश्चर्य नहीं है कि मनुष्य जीवन नरक हो गया हो। भय नरक का द्वार है। प्रेम अगर स्वर्ग का द्वार है तो भय नरक का।
समाज की, राज्य की सारी व्यवस्था भय-प्रेरित है। हमने डरा कर लोगों को अच्छा बनाने की कोशिश की है। और डर से बड़ी कोई बुराई नहीं है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जहर से लोगों को जिलाने की कोशिश करे। भय सबसे बड़ा पाप है। और उसको ही हमने आधार बनाया है जीवन के सारे पुण्यों का। तो हमारे पुण्य भी पाप जैसे हो गए हैं। हो ही जाएंगे।
इसे हम थोड़ा समझने की कोशिश करें। सुगम है लोगों को भयभीत कर देना। प्रेम से आपूरित करना तो बहुत कठिन है, क्योंकि प्रेम के लिए चाहिए एक आंतरिक विकास। भय के लिए विकास की कोई भी जरूरत नहीं। एक छोटे से बच्चे को भी भयभीत किया जा सकता है। लेकिन छोटे से बच्चे को तुम प्रेम कैसे सिखाओगे ? प्रेम तो लोग नहीं सीख पाते मृत्यु के क्षण तक; अधिक लोग तो बिना प्रेम सीखे ही मर जाते हैं।
छोटे बच्चे को अच्छा काम करवाना हो तो क्या करोगे ?
भयभीत करो, मारो, डांटो, डपटो, भूखा रखो, दंड दो। छोटा बच्चा असहाय है। तुम उसे डरा सकते हो। वह तुम पर निर्भर है। माँ अगर अपना मुंह भी मोड़ ले उससे और कह दे कि नहीं बोलूंगी, तो भी वह उखड़े हुए वृक्ष की भाँति हो जाता है। उसे डराना बिलकुल सुगम है, क्योंकि वह तुम पर निर्भर है। तुम्हारे बिना सहारे के तो वह जी भी न सकेगा। एक क्षण भी बच्चा नहीं सोच सकता कि तुम्हारे बिना कैसे बचेगा।
और मनुष्य का बच्चा सारे पशुओं के बच्चों से ज्यादा असहाय है। पशुओं के बच्चे बिना मां-बाप के सहारे भी बच सकते है। मां-बाप का सहारा गौण है; जरूरत भी है तो दो-चार दिन कि है; महीने, पंद्रह दिन कि है। मनुष्य का बच्चा एकदम असहाय है। इससे ज्यादा असहाय कोई प्राणी नहीं है। अगर मां-बाप न हो तो बच्चा बचेगा ही नहीं। तो मृत्यु किनारे खड़ी है। मां-बाप के सहारे ही जीवन खड़ा होगा। मां-बाप के हटते ही, सहयोग के हटते ही, जीवन नष्ट हो जाएगा। इसलिए बच्चे को डराना बहुत ही आसान है। और तुम्हारे लिए भी सुगम है। क्योंकि डराने में कितनी कठिनाई है ? आंख से डरा सकते हो; व्यवहार से डरा सकते हो। और डरा कर तुम बच्चे को अच्छा बनाने की कोशिश करते हो।
वहीं भ्रांति हो जाती है। क्योंकि भय तो पहली बुराई है। अगर बच्चा डर गया और डर के कारण शान्त बैठने लगा तो उसकी शांति के भीतर अशांति छिपी होगी। उसने शांति का पाठ नहीं सीखा; उसने भय का पाठ सीखा। अगर डर के कारण उसने बुरे शब्दों का उपयोग बंद कर दिया, गालियां देनी बंद कर दीं, तो भी गालियां उसके भीतर घूमती रहेंगी, उसकी अंतरात्मा की वासिनी हो जाएंगी।
वह ओंठों से बाहर न लाएगा। उसने पाठ यह नहीं सीखा कि वह सदव्यवहार करे, सदवचन बोले, भाषा का काव्य सीखे, भाषा की गंदगी नहीं। वह नहीं सीखा, उसने इतना ही सीखा कि कुछ चीजें हैं जो प्रकट नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनसे खतरा है। मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को सिखा रहा था कि गालियां देना बुरा है। बेटा बड़ा होने लगा था, आस-पड़ोस भी जाने लगा था, स्कूल भी; वह गालियां सीख कर आने लगा था। सब तरफ गालियों का बाजार है। तो मुल्ला नसरुद्दीन ने वही किया जो कोई भी पिता करेगा। उसने बच्चे को कहा कि देखो, यह दंड की व्यवस्था है।
अगर तुमने इस, तरह की गाली दी कि कि तुमने किसी को गधा कहा, उल्लू का पट्ठा कहा, तो तुम्हें चार आने- तुम्हें जो रुपया रोज मिलता है- उसमें से चार आने कट जाएँगे, एक बार गाली दी तो। दो बार दी, तो आठ आने कट जाएंगे। चार बार तुमने इस तरह की गाली का उपयोग किया, पूरा रुपया कट जाएगा। ज्यादा गाली दी, कल का रुपया भी आज कटेगा। नंबर दो की गाली, पिता ने कहा के और अगर तुमने किसी को कहा साला, बदमाश, तो आठ आने कटेंगे। ऐसा उसने फेहरिस्त बना दी,
चार तरह की गहरी गालियां बता दी। एक रुपया कटने का इंतजाम कर दिया अगर चौथे ढंग की गाली दी। लड़के ने कहा तो ठीक है, लेकिन मुझे ऐसी भी गालियाँ मालूम हैं कि पांच रुपया भी काटो तो भी कम पड़ेगा। उसका क्या होगा ?
ऊपर से तुम दबा दोगे, भीतर चीजें भरी रह जाएंगी।
ऊपर से ढक्कन बंद कर दोगे, आत्मा में धुआं गूंजता रह जाएगा। यह ढक्कन भी तभी तक बंद रहेगा जब तक भय जारी रहेगा। कल बच्चा जवान हो जाएगा, तुम बूढ़े हो जाओगे, तब भय उलटा रूप ले लेगा। तब जो-जो दबाया था वही-वही प्रकट होने लगेगा। बहुत कम बच्चे हैं जो बड़े होकर अपने बाप के साथ सदव्यवहार कर सकें। पैर भी छूते हों तो भी उससे सद्भाव नहीं होता। बूढ़े बाप के साथ अच्छा व्यवहार बड़ा कठिन है। कारण ?
कारण है कि जब तुम बच्चे थे तब बाप ने जो व्यवहार किया था वह अच्छा नहीं था। इसे तो कोई भी नहीं देखता कि बाप बेटे के साथ बचपन में कैसा व्यवहार कर रहा है। यह सभी को दिखाई पड़ेगा कि बेटा बाप के साथ बुढ़ापे में कैसा व्यवहार कर रहा है। लेकिन जो तुम बोओगे उसे काटना पड़ेगा उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। आज बच्चा सबल हो गया है। बाप अब बूढ़ा होकर दुर्बल हो गया है, इसलिए नाव उलटी हो गई है। अब बच्चा भयभीत करेगा। अब वह जवान है, अब वह तुम्हें डराएगा। वह तुम्हें दबाएगा।
भय से कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ दब जाता है। और जब भय की स्थिति बदल जाती है तो बाहर आ जाती है। तो तुम्हें समाज में दिखाई पड़ेंगे वे लोग जो भय के कारण अच्छे हैं। उनका अच्छा होना नपुंसक ब्रह्मचर्य जैसा है। वे जबरदस्ती अच्छे हैं। अच्छा होना नहीं चाहते; अच्छे का उन्हें स्वाद नहीं मिला। वे सिर्फ बुरे से डरे हैं और घबड़ा रहे हैं, और भीतर कंप रहे हैं। इस कंपन के कारण लोग अच्छे हैं।
इसलिए अच्छे आदमी में फूल खिलते दिखाई नहीं पड़ते। उलटा ही दिखाई पड़ता है, कभी-कभी बुरा आदमी तो मुस्कुराते और हंसते भी मिल जाए, अच्छा आदमी तुम्हें हंसते भी न मिलेगा वह इतना डर गया है कि हंसी में पाप मालूम पड़ता है। वह इतना भयभीत हो गया है कि जीवन को कहीं से भी अभिव्यक्ति देने में डर लगता है कि कहीं कोई भूल न हो जाए, कहीं कोई गलती न हो जाए।
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