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तपस्या

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3430
आईएसबीएन :81-284-0057-6

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मूल बंगला से अनुवादित...

Tapasya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित आशापूर्णा देवी का जन्म 8 जनवरी, 1910 को हुआ था। कलकत्ता विश्वविद्यालय के ‘भुवन मोहिनी’ स्वर्ण पदक से अलंकृत आशापूर्णा जी को 1976 में पद्मश्री से विभूषित किया गया। सन् 1977 में अपने उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ पर टैगोर पुरस्कार तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया। अपनी 175 से भी अधिक औपन्यासिक कृतियों के माध्यम से आशापूर्णा जी ने समाज के विभिन्न पक्षों को उजागर किया है।



लाल बनारसी साड़ी !
दुल्हन ने नाक सिकोड़ ली। बोली, ‘‘छि:-छि:, लाल बनारसी ? वह भी बड़े-बड़े फूलों वाली। हर्गिज़ नहीं। दुहाई दीदी, खामखा इतने पैसे बर्बाद मत करो।’’

प्रतिवाद की इस धारा से मन्दिरा सहम गयी। फिर भी कोशिश कर आवाज़ को थोड़ा कठोर कर बोली, ‘‘खामखा बर्बादी की बात क्यों करती है, छन्दा ? शादी के लिए लाल बनारसी साड़ी से खूबसूरत और क्या चीज़ हो सकती है ?’’

छन्दिता उस युग की लड़की नहीं जो अपने विवाह के मामले में कुछ कहने में संकोच का अनुभव करे। थोड़ी बहुत लज्जा का ढोंग इन्दिरा, नन्दिता, उसकी दूसरी दीदियों ने ही किया पर छन्दिता इस मामले में बिलकुल लापरवाह लड़की थी। अपने नाम से फालतू अंश को छांटकर अनायास ही वह छन्दा बन गयी थी। अपनी शादी की हर बात में वह रुचि ले रही थी। यहां तक कि दूल्हे की घड़ी, अंगूठी और उसके छाते को भी उसने स्वयं पसन्द किया था। और यह तो ठहरी अपनी साड़ी।
बड़ी दीदी मन्दिरा के टोकने पर झंकार के साथ वह बोली, ‘‘हां-हां, एक बार विवाह-मण्डप पर सजकर बैठने के ही तो काम आएगी। फिर उसके बाद इस साड़ी का क्या होगा एक-दो घंटों की खूबसूरती के लिए नाहक दो सौ रुपये बर्बाद क्यों हो ?’’

मन्दिरा ने उदास-सी दृष्टि से छोटी बहन को देखा। कितनी उम्र होगी छन्दा की ! पर कितनी व्यावहारिक बन गयी है। नववधू के मोहक साज-श्रृंगार का कोई स्वप्न उसके मन में नहीं है। वह रुपयों को देख रही है। सोच रही है, भविष्य में उस साड़ी के दाम वसूल होंगे या नहीं। और फिर ऊंची आवाज़ में अपनी राय व्यक्त कर रही है।

पर नये गहनों और साज-साजवट के और सामान में लाल बनारसी साड़ी के अलावा और कुछ जंचेगा भी तो नहीं। जरी के बड़े-बड़े फूलों वाली लाल बनारसी साड़ी ! नया दूल्ला पहली बार तो उस लावण्यमयी छवि को ही देखेगा। पहली दृष्टि, पहला सुर, पहला रंग। शिराओं में प्रवाहित खून में हलचल मचा देगा। बेवकूफ लड़की इस सीधी-सी बात को नहीं समझ रही है ? मन्दिरा कमजोर सी आवाज़ में बोली, ‘‘बाद में काम नहीं आएगी, ऐसा क्यों कह रही है, छन्दा ? लाल साड़ी क्या कोई पहनता नहीं ?’’

छन्दा तुनककर बोली, ‘‘जो पहनती है वह पहना करे, दीदी ! कनकवर्णा कन्याएं तो चलो पहन भी सकती हैं, पर मुझसे नहीं पहनी जाएगी। शादी का दिन तो तमाशे-तमाशे में चला जाएगा, पर उसके बाद कभी नहीं।’’
मन्दिरा फिर भी बोली, ‘‘क्यों री, तू क्या कोई काली लड़की है ?’’
‘‘तुम लोगों की आंखों में न सही। पर परायी नज़रों में तो काली-कलूटी हूं।’’
‘‘हर बात में रंग चढ़ाकर बोलती है। नन्दी ने भी अपने को काली बताकर लाल साड़ी न लेने की जिद ठान ली थी। याद है न उसका पागलपन ! पर बाद में क्या बुरी दिख रही थी ? दुल्हन को देखकर सबने तारीफ ही तो की।’’
छन्दिता हंसकर बोली, ‘‘देखो दीदी, शादी के दिन भी बदसूरत दिखें, ऐसी लड़कियां कम होंगी। चाहे जैसी भी लड़की हो, चन्दन, कुंकुम की बिन्दी और फूलमालाओं की सजावट में जंच ही जाती है।’’

मन्दिरा हंस पड़ी, ‘‘तू ठीक कह रही है। मन की खुशी से चेहरा भी बदल जाता है। पर यह बात रहने दे। साड़ी की बात बता।’’
‘‘बताया तो, गहरा रंग नहीं चलेगा। कोई भी गहरा रंग नहीं चलेगा। हल्का-सा कोई रंग।’’
मन्दिरा बोली, ‘‘शादी के दिन हल्का रंग क्यों ? उस दिन तो गाढ़ा रंग ही ठीक है रे, छन्दा। यह दिन ही कुछ ऐसा है...’’
मन्दिरा इस बात को परिहास में ही बोल गयी, पर आवाज़ उसकी गम्भीर थी। इस सुर को सुनते ही छन्दा हंसकर बोली, ‘‘कविता छोड़ो, दीदी एक शाम के सेंटिमेंट के लिए अगर तुम्हारे पास दो-चार सौ रुपये फालूत खरचने के लिए हैं तो खर्च कर डालो, पर यह निश्चित जान लो, तुम्हारी इस भावपूर्ण अर्थात् सीधी बातों में निर्बुद्धि का चमकता प्रमाण दूसरी दीदियों की तरह मेरी भी अलमारी के कोने में विराजमान रहेगा।’’

छन्दा कुछ ज्यादा ही बोलती है। झर-झरकर बहुत-सी बातें एक साथ ही बक जाती है। और दीदी को बीस साल बड़ी दीदी की तरह मानती भी नहीं। शायद बीस साल बड़ी थी, इसीलिए नहीं मानती। इतनी छोटी होने के कारण ही मन्दिरा से उसे इतना दुलार और बढ़ावा मिला था। छन्दा मन्दिरा की लड़की की तरह थी, सिर्फ़ रिश्ता बहन का था।
जन्म के साथ ही नवजात शिशु को गोद में उठाना पड़ा था मन्दिरा को। आंसू बहाने का अवसर उसे नहीं मिला था।
छन्दा उसकी मां वंदना की आखिरी संतान थी। छन्दा को धरती पर लाते ही वंदना खुद इस धरती से चल बसी थी। मन्दिरा उस समय बीस साल की थी। घर की बड़ी लड़की, मां का भरपूर प्यार सबसे अधिक उसने अकेले ही भोगा था, पर वह भी बहुत दिनों तक नहीं। एक-एक कर वंदना ने चार लड़के-लड़कियों को और जन्म दिया था।
पहले आया लड़का सुनन्द-मन्दिरा से कई साल छोटा। उसके बाद कतार से इन्दिरा, नन्दिता और छन्दिता। नाम लेकर कोई जन्मा नहीं था। छन्दा के अनुसार नाम रखने का श्रेय भी मन्दिरा को ही था।

वंदना ने जिस दिन अंतिम सांस ली, छन्दा बस चार दिनों की थी। मन्दिरा के पिताजी ने रुंधी आवाज़ में उससे कहा था, ‘‘उसका नाम छन्द मिलाकर रखने की ज़रूरत नहीं, मन्दि। उसका नाम रख दे अश्रु, छाया या करुणा। सबों की करुणा पर ही तो जिएगी।’’
मन्दिरा बोली थी, ‘‘क्यों पिताजी, करुणा पर क्यों ! मां नहीं है इसलिए संसार पर से उसका सारा अधिकार भी छिन गया क्या ? छन्द मिलाकर ही नाम रखूंगी। नन्दिता के बाद छन्दिता अच्छा नाम रहेगा।’’
पर पिता से भी इस अबोध बच्ची के लिए मन्दिरा आखिर कितने दिनों तक अधिकार की लड़ाई कर सकी थीं ? लड़की का नाम अश्रु न रखने पर भी आंसुओं की बाढ़ ने उसके पिता के दिल को हिला दिया। स्वास्थ्य गिर गया। उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।
मन्दिरा अवर्णनीय स्थिति में आ पड़ी। एक तरफ मातृहीन असहाय शिशु, दूसरी तरफ पत्नीहारा असहाय एक बूढ़ा। प्रौढ़ आदमी भी शिशु की तरह नासमझ बन गया। साथ में एक ऐसी गृहस्थी जहां तीन छोटे भाई-बहन दीदी का मुंह ताक रहे थे। दीदी न दे तो बेचारों को समझ नहीं कि रोज़ के कपड़े कौन-से पहनें ? क्या खाएं ? घर भी इतना सम्पन्न नहीं कि चारों तरफ नौकर-चाकर खट रहे हों। सारा काम काज अपने ही हाथों संभालना। किसी शाम थोड़ी तबीयत खराब रही तो लगा, न जाने क्या अपराध हो गया।
 
तीन साल बाद पिताजी ने इस परिस्थिति से मुक्ति दी। पर लम्बे अर्से की बीमारी ने गृहस्थी को बिलकुल खोखला कर दिया था।
पिता के मरने के बाद खोखलेपन को अनुभव कर मन्दिरा को तो दिन में भी तारे नज़र आने लगे। भाई-बहन इन तीन वर्षों में और भी बड़े हो गए। उनकी खुराक बढ़ी, कपड़ों का नाप बढ़ा, शैतानी भी बढ़ गयी।
मन्दिरा की आंखों के आगे सिर्फ़ अंधेरा था।
तेईस साल की जवान लड़की इस अंधेरे में कर्तव्यों से लदे इस जहाज़ को कैसे ठेले ? मां-बाप के मरने पर जिस चाचा ने कुछ पूछा नहीं, उसी चाचा के आगे हाथ फैलाए या फिर जो पत्नी तक को भूलकर गुरु के नाम पर मतवाला होकर फिर रहा है, उस मामा के घर आश्रय मांगे ?
लोगों ने तो मन्दिरा को वही उपदेश दिया जो सबसे आसान था। कहा, ‘‘मकान तो अपना है ही। अच्छा-खासा मकान है, आज के जमाने में किराया भी अच्छा मिल जायेगा। इसलिए अब इस मकान को ही एक कमाऊ पुरुष समझो और सब लोग मामा के घर जाकर रहो। मामा का घर बड़ा है। गुरु कब अपने चेलों के साथ आएगा इसीलिए किराए पर भी नहीं चढ़ाता। वहीं जाकर दो कमरे मांग लो।’’

इन हितैषियों की बातें टालकर मन्दिरा यह नहीं बोली कि जब तक जान में जान रहेगी, वह ऐसा नहीं करेगी। नम्र भाव से सिर्फ इतना ही बोली थी, ‘देखूं शायद यही करना पड़े।’’

यह हितैषी वर्ग पिता के श्राद्ध के अवसर पर आया था। अब और रहना उसके लिए भी भारी पड़ रहा था। उसमें से कुछ बोले, ‘‘हमें भी तो अब लौटना पड़ेगा।’’
मन्दिरा घबराकर बोली, ‘‘आप ठीक ही कह रहे हैं। अपनी घर-गृहस्थी छोड़कर...’’
‘‘यही तो बात है। पर बेटी, तुम लोगों का....’’
अनभिज्ञ की भांति मन्दिरा ने आंखें उठाईं, ‘‘जी ?’’
‘‘तुम अकेली पड़ जाओगी। इस उम्र में अकेली रहोगी। यह ठीक नहीं।’’
मन्दिरा ने जवाब दिया, ‘‘अकेली कहां ? हम पांच जने हैं।’’
‘‘पांच जने ? इन बच्चों के लिए कह रही हो ?’’
‘‘बच्चे ही तो घर की शान हैं।’’ मन्दिरा बोली।
रिश्ते की एक बुआ नाराज होकर बोली, ‘‘तू तो मानो आकाश से टपक पड़ी है, मन्दिरा ! बंगाली समाज तूने अभी देखा नहीं ! अपने जैसी लड़की को अकेली रहते देखा है कभी तूने ?’’

‘‘याद नहीं आ रहा है। पर अपनी जैसी हालत भी तो और किसी की देखी हो, याद नहीं आता।’’ मन्दिरा बोली।
‘‘तो फिर तुमने अकेले रहने का निश्चय किया है ?’’ बुआ ने पूछा।
‘‘मैंने निश्चय किया है, यही सही नहीं है। सच तो यह है कि भगवान ऐसा ही चाहते हैं।’’
‘‘राम जाने किसी पुरुष अभिभावक के बिना बारह महीने कैसे बिताए जा सकते हैं-यह मेरी बुद्धि के तो बाहर की चीज़ है।’’ बुआ खिसियायी।
मन्दिरा हंसकर बोली, ‘‘मेरी भी समझ में नहीं आता। पर क्या करूं, हालत ही कुछ ऐसी है। देखें, क्या होता है।’’
उसी समय से मन्दिरा ने सबको अपनी बांहों में समेट लिया था।

आज भी उन दिनों की बातें आंखों के सामने तसवीर की तरह घूम जाती हैं। लगता है, ये तसवीरें सामने की दीवार पर टंगी हैं-केवल आंखें उठाने भर की देर है। नज़र उठाते ही मन्दिरा देख सकती है-वंदना की आकस्मिक मृत्यु और पिता बिजन बाबू को तीन साल का मृत्युशैया का कष्ट। मन्दिरा देख सकती है कि आज की छन्दा, इन्दिरा, नन्दिता और सुनन्द उस दिनों कितने छोटे-छोटे थे। ये तसवीरें बोल नहीं सकतीं, पर आज के युग में यह कोई अनहोनी बात तो नहीं। इस युग में तो ‘आश्चर्य’ शब्द ही आश्चर्य की वस्तु है।
पर मन्दिरा की घटना से सभी को आश्चर्य हुआ था। तसवीरें मानो बातें कर उठीं।
मन्दिरा की मां अंतिम घड़ियां गिन रही थी। अस्पताल का कमरा दवाइयों की तेज गन्ध से भर चुका था। नर्सें दौड़ रही थीं। दूसरे रोगियों के आगे पर्दा रख दिया गया। वंदना मानो आहत पशु की भांति दीवार की तरफ एकटक देख रही थी।
वंदना पति को भी नहीं देख रही थी, लड़की की तरफ भी नहीं। उसकी आंखें सफ़ेद सूनी दीवार पर टिकी थीं। उस दीवार पर क्या लिखा हुआ था ?

बहुत बार मन्दिरा के मन में आया है कि उस समय मां किसकी बात सोच रही थी ? किसके लिए उसके चेहरे पर वेदना की छाप इतनी स्पष्ट उभर आयी थी ? इस दुनिया में तुरंत आयी लड़की की बात सोचकर या ?
मां के होंठ बोलने की व्यर्थ चेष्टा में दो बार कांप उठे थे। अगर वह चेष्टा सफल होती तो मां क्या कहती ?
बिजन बाबू ने बुझे स्वर में नर्स से पूछा था, ‘‘उसकी आखिरी बात क्या थी ?’’
पत्थर-सी आवाज़ में नर्स बोली थी, ‘‘अंत में तो डिलिरियम हो गया था।’’
‘‘फिर भी ?’’ उम्र की मर्यादा छोड़ वह विनती के स्वर से बोल उठे थे, ‘‘उस डिलिरियम की बात ही बताइए। जब बात बिलकुल बंद हो गयी, उसके पहले की आखिरी बात क्या थी ?’’
‘‘नहीं कह सकती।’’ फिर होंठ दबाकर ऑक्सीजन की नली टेढ़ी करती हुई बोली, ‘‘पेशेन्ट के रिश्तेदार कैसे अजीब सवाल कर बैठते हैं।’’

अचानक मन्दिरा रूखे स्वर में बोली, ‘‘उसका कारण यह है कि पेशेन्ट के रिश्तेदार आप लोगों की तरह पत्थर की पुतलियां नहीं हैं ! वे रक्त मांस के जीव हैं।’’
इस आक्रमण के लिए नर्स तैयार नहीं थी। उसकी आंखें चमक उठीं। पर नली पकड़े उसके हाथ काँपे नहीं, गला भी नहीं कांपा। केवल दृढ़ आवाज़ में बोली, ‘‘सीरियस केस के सामने उत्तेजना पैदा करने के अपराध में मैं आपको बाहर जाने के लिए कहने पर मजबूर हूं।’’
मन्दिरा बेंच पर से उठकर गुस्से से बोली, ‘‘आप लोगों ने अपने आपको समझ क्या रखा है-अस्पताल का सर्वेसर्वा ?’’
‘‘मन्दि !’’ बिजन बाबू ने धीरे से कहा, ‘‘अभी झगड़ा-फसाद का वक्त नहीं है, बेटी !’’
‘‘झगड़ा मैं नहीं कर रही, बाबू जी !’’ कहकर मन्दिरा बेंच पर दूसरी तरफ मुंह फेरकर बैठ गयी।
कर्तव्य-रत नर्स ने कर्तव्य में कोई ढिलाई नहीं दिखाई। शायद मन ही मन शिकायत का ढांचा बना रही थी।

रोगिणी की सांस अचानक तेजी से क्षीण होती गई। फिर रुक-रुककर चलने लगी। बिजन बाबू दोनों हाथों से मुंह ढककर बैठे थे। डॉक्टर आए। रोगिणी पर एक नज़र दौड़ाई। फिर दूसरों की समझ में नहीं आए, ऐसी धीमी आवाज़ में नर्स से कुछ कहा। नर्स ने उससे भी धीमे स्वर में कुछ जवाब दिया। डॉक्टर ने भौं तानकर इन लोगों को देखा, फिर बाहर निकल गए।
और उसके चंद मिनटों बाद ही वह घटना घट गयी। वह निष्ठुर निश्चित चिरंतन घटना। केवल अंतिम मुहूर्त में एक अमानवीय स्वर कमरे की हवा में गूंज उठा। बिजन बाबू चौंक उठे। मन्दिरा चौंक उठी।
क्या ?...क्या ? रोगिणी ने क्या कहा ? वह पृथ्वी पर अपनी कौन-सी बात छोड़ गयी ?
बिजन बाबू हाहाकार कर उठे, ‘‘नर्स ! नर्स ! आपने कुछ सुना ?’’
इस बार नर्स ने यह नहीं कहा-कैसे अजीब सवाल करते हैं आप लोग ! सिर्फ़ बोली, ‘‘ठीक से समझी नहीं। ऐसा लगा, जैसे कहना चाह रही थी-‘शादी’। माफ कीजिएगा, आप लोगों को अब बाहर जाना पड़ेगा।’’
पचास के करीब के बिजन बाबू ने अचानक बच्चों की तरह हाहाकार कर पलंग पकड़ लिया। बोले, ‘‘मैं नहीं जाऊंगा, मैं नहीं जाऊंगा। वंदना, तुम्हें यहां छोड़कर मैं नहीं जाऊंगा।’’
‘‘बाबूजी, उठिए।’’

पिता की पीठ पर हाथ रखकर एक तरह से उन्हें खींचकर मन्दिरा बाहर निकल आयी।
मृत्यु ने पर्दा गिरा दिया था। रंगमंच पर अंधेरा था। दर्शकों को बैठने की ज़रूरत नहीं थी। बाहर मन्दिरा के चाचा बिजन बाबू के भाई निर्जन बाबू बैठे थे और मोहल्ले का लड़का अभिजित। मन को बल मिले, इसलिए करीब रोज़ ही बिजनबिहारी उसे अपने साथ लाते।
वंदना की मृत्यु बिजनबिहारी को अपंग-सा बना गयी। शायद उन्होंने यह भी सोचा होगा-इस बच्ची को जन्मने की ज़रूरत क्या थी। यह भी सोचा होगा कि नन्दिता के जन्म के बाद ही वंदना का स्वास्थ्य टूट गया था। मैंने गौर नहीं किया, नहीं तो न यह लड़की जन्मती और न ही वंदना जाती। जिस क्षण उन्हें यह मालूम पड़ा कि प्रसव के साथ ही वंदना की जीवन-हानि की संभावना है, उसी क्षण से टूटी घड़ी की तरह बिजनबिहारी भी थम गए थे। शायद इसीलिए अस्पताल आने के लिए भी उन्हें किसी की मदद चाहिए थी।

पर कितने दिनों तक आ ही पाए। चार ही दिनों में अस्पताल से फुरसत मिल गयी। पर घर के काम-काज से तो इतनी जल्दी छुट्टी मिल नहीं सकती थी। अभिजित सभी कामों में हाथ बंटाता। बिजन बाबू भी हर काम के लिए उसे बुलाते। बार बार कहते, बेटे अभिजित तुम्हारी मौसी तुम्हें बहुत मानती थी।’’ फिर न जाने क्यों इस बात के साथ ही उनकी आंखें गीली हो जातीं। अभिजित भी धीरे से कहता, ‘‘मुझे मालूम है, मौसाजी !’’ मालूम तो बिजनबिहारी को भी था, पर वंदना की मृत्यु के बाद उन्हें इसका ज्यादा ही आभास हो रहा था। इसलिए हर शाम वह अभिजित के आने की राह देखते। वंदना के प्यार का लेप मानो अभिजित पर अब भी लगा हुआ था इसीलिए अभिजित को देखते रहना भी बिजन बाबू को अच्छा लगता। उसके एकदिन न आने पर वह सुनन्द को भेज देते। कहते, ‘‘देख तो बेटा, तेरा अभिदा आज क्यों नहीं आया।’’
मन्दिरा कभी-कभार कहती, ‘‘न आने पर आप बुला क्यों भेजते हैं, बिजनबिहारी संकुचित हो जाते। कहते, ‘‘नहीं-नहीं, अपना काम हर्जा करके मैं उसे आने के लिए थोड़े ही कहता हूं। मौका मिले, सुविधा हो तो।’’
मन्दिरा हंसकर बोलती, ‘बुला भेजना इसका सबूत नहीं है, बाबूजी !’’

मन्दिरा की हंसी देखकर बिजनबिहारी उदास हो जाते। सिर्फ़ महीने भर पहले जिसकी मां गुजर गयी हो, वह किसी बात पर हंस पड़ेगी। बिजनबिहारी को यह अजीब सा लगता। बिजनबिहारी के मन में एक और बात के लिए भी दुःख था। उनकी ऐसी धारणा थी कि मन्दिरा के मन में अभिजित के लिए थोड़ी कमज़ोरी है। पर अब लगता था, अभिजित का रोज़-रोज़ आना मन्दिरा को पसन्द नहीं था। यह तो कमज़ोरी की निशानी नहीं।
हालांकि यह कमज़ोरी अगर थी भी तो सिर्फ़ कमज़ोरी बनकर ही रह जाएगी, यह बात भी पक्की थी क्योंकि अभिजित बिजन बाबू से निम्न वर्ग का था। शादी की बात उठ ही नहीं सकती थी। फिर भी उन्हें लगता था, लड़का मन्दिरा को पसन्द है। उसका आना-जाना भी उसे अच्छा लगता था। पर अब न जाने क्यों उसे बला समझने लगी है !
इसीलिए तो अभिजित को बुलवा भेजने पर या उसके आने का आभास पाकर पहले ही मन्दिरा पिता से कह देती थी, ‘‘बाबूजी, आप मुझे चाय वाय लाने के लिए मत कहिएगा। दूध बिलकुल खत्म है।’’
बात गढ़ी हुई थी, सभी समझ सकते थे। गृहस्थ के घर इस तरह से दूध खत्म नहीं होता कि एक प्याला चाय तक नहीं बन सके। दो-चार चम्मच दूध चाय के वास्ते अलग भी रखा जा सकता था। सिर्फ़ बहाना !

बिजनबिहारी कहते, ‘‘रात को मुझे दूध देती है न, इसी में से....’’
तब कोई दूसरा बहाना बनाकर मन्दिरा कहती, ‘‘शाम को चाय का बखेड़ा करने पर छोटी मुन्नी को सुलाने में देर हो जाती है। खामखा हंगामे की ज़रूरत ही क्या है !’’
पर यह बहाना भी विश्वासनीय नहीं था। सुनन्द को पढ़ाते समय, इन्दिरा-नन्दिता को कहानी सुनाकर खिलाते समय क्या छोटी मुन्नी को सुलाने में देरी नहीं होती ? पर हर शाम मन्दिरा इन कामों के लिए समय निकाल ही लेती है।
छोटी मुन्नी छन्दिता पर बिजन बाबू का स्नेह थोड़ा कम था। वह वंदना की मृत्यु का कारण उसी को मानते, इसलिए मन्दिरा का जवाब सुनकर नाराज होकर कहते, ‘पांच ही मिनट का तो मामला है। इससे तेरी छोटी मुन्नी का कुछ बिगड़ नहीं जाएगा।’’
उस दिन पिता की उक्ति सुनकर और दिनों की भांति मन्दिरा मुसकराकर चली नहीं गयी। बोली, ‘‘एक दिन अभिजित के न आने पर आपका भी क्या बिगड़ जाएगा, बाबूजी ! किसी दिन अगर कोई नहीं ही आ सके तो ?’’
बिजनबिहारी संकुचित होकर बोले, ‘‘नहीं-नहीं मेरा क्या बनता-बिगड़ता है। तेरी मां उसे बहुत मानती थी। उसे देखकर मन को थोड़ी शान्ति मिलती है।’’
     
  

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