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इस दौर में हमसफर

अमर गोस्वामी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :315
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3426
आईएसबीएन :81-7016-543-1

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अमर गोस्वामी का पहला उपन्यास ‘इस दौर में हमसफ़र’ उनकी लंबी और धीरज-भरी यात्रा का स्वाभाविक फल है

Is Daur Mein Hamsafar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अमर गोस्वामी उन थोड़े से कथाकारों में से हैं जिनकी कहानियों पर उनका नाम न हो, तो भी आप यकीनन कह सकते हैं कि यह कहानी अमर गोस्वामी ही लिख सकते थे। आज के दौर में जबकि रचनाएँ ही नहीं, लेखक भी एक-दूसरे की ‘जेरोक्स कापियों’ में तब्दील हो रहे हैं, अमर गोस्वामी की यह पहचान और कूवत-या कहिए कि रचनात्मक सामर्थ्य काबिलेगौर है। इस सामर्थ्य के बूते ही अपनी लम्बी कथा-यात्रा में कभी रचना पर उनका विश्वास डिगा नहीं और वे उन हड़बड़िए लेखकों की पाँत में शामिल नहीं हुए, जो सिर्फ चर्चित होने के लिए लिखते हैं और अपने आसपास की हर चीज, हर संबंध को ‘कैश’ कर लेने के लिए उतावले दिखते हैं।

इन बातों की ओर ध्यान दिलाना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि अमर गोस्वामी का पहला उपन्यास ‘इस दौर में हमसफ़र’ उनकी इस लंबी और धीरज-भरी यात्रा का ही स्वाभाविक फल है-और अमर जी का पहला उपन्यास होते हुए भी, गंभीर चर्चा और विश्लेषण की माँग करता है। ऊपर से देखने पर ‘इस दौर में हमसफ़र’ भले ही प्रेमचंदीय वर्णनात्मक शैली में लिखा उपन्यास नजर आए, पर थोड़ा भीतर उतरते ही समझ में आ जाता है कि यह सिर्फ एक उपन्यास ही नहीं, हमारे दौर की एक गहरी और स्तब्ध कर देने वाली ‘एक्स-रे पड़ताल’ भी है। यह दीगर बात है कि यह लिख गया है इतनी जानदार भाषा और पुरलुफ्त अंदाज में कि जब तक आप इसे खत्म नहीं कर लेते, यह आपको चैन नहीं लेने देता। बल्कि उपन्यास खत्म होने के बाद भी लंबे अरसे तक पाठकों का ‘हमसफ़र’ बना रहता है।

इसकी वजह शायद यह है कि एक उपन्यासकार के रूप में अमर गोस्वामी नई कथा-प्रविधियों के दास नहीं है और उन्हें उथले रूप में जैसे-तैसे, जहाँ-तहाँ टाँक लेने को हरगिज पसंद नहीं करते। उनके यहाँ जो कुछ है, वह अपने ठेठ मौलिक अंदाज में है और अमर गोस्वामी का निहायत अपना है। इसीलिए वे बगैर दिखावटी स्त्री-विमर्श के शोर-शराबे के, अनन्या के रूप में हमें एक ऐसी विलक्षण और शक्तिशाली स्त्री से मिलवाते हैं जो अपनी बेबनाव शख्सियत में अति आधुनिक ही नहीं, ‘नई पीढ़ी की नई नारी’ लगती है, जिसकी धमक आगे आने वाले युगों में और ज्यादा साफ सुनी जा सकेगी। अनन्या के मित्र और सहयात्री के रूप में अनिरुद्ध का ‘विचलन’ या हार, सिर्फ उसी की हार नहीं, आधुनिकता के उन तमाम नकली प्रत्ययों की हार भी है जो आधुनिकता को सिर्फ ‘देह-भोग के सुख’ तक सीमित कर देना चाहते हैं। अनन्या के भाई मधुसूदन के चेहरे में मुझे तो जगह-जगह स्वयं अमर गोस्वामी का दर्द से तिलमिलाता चेहरा नजर आया। यह दीगर बात है कि मधुसूदन की कहानी अपनी है, और वह अमरजी की नहीं, अपनी ही राह पर आगे बढ़ता दिखाई देता है।

‘इस दौर में हमसफ़र’ में आधुनिकता की ‘विकृत’ और ‘रचनात्मक’ दोनों ही शक्लें हैं और अपने पूरे विश्वसनीय रूप में हैं। इस लिहाज से यह एक ऐसा उपन्यास भी है जिसे कई किस्म के ‘कन्फ्यूज़न’ और मतिभ्रम-भरे आज के समाज में सही दिशा की ओर इशारा करने वाली एक पहल के रूप में भी देखा जा सकता है। हाँ, यह जरूर है कि अमर गोस्वामी कहीं-कहीं ज्यादा खुल गये हैं और जहाँ सिर्फ इशारों से काम चल सकता था, वहाँ भी ‘रस’ लेते नजर आते हैं। शायद महानगरीय समाज के ‘रंगीन विकारों’ की ओर ध्यानाकर्षण की यह उनकी अपनी शैली हो।

उपन्यास के अन्त में मधुसूदन और हेमंती ही नहीं, शर्वाणी की चोट झेलकर अंततः फिर से सागरिका की ओर मुड़ा शांतनु जिस नए समाज की नींव रखना चाहता है, उसमें मूल्यों के उपहास वाली ‘मजावादी’ दृष्टि नहीं, बल्कि विडंबनाओं को पहचानकर उनके बीच से रास्ता खोजती ‘मनुष्य की जय-यात्रा’ का अगला पड़ाव नजर आ सकता है।
‘इस दौर में हमसफ़र’ में बेहद तीव्र गति और हलचल है तो विचारों का तेज संघर्ष भी। लेकिन खुशी की बात यह है कि ये तेज बहसें दिल्ली से मीरजापुर और चुनार तक फैली उपन्यास की प्रदीर्घ कथा का एक सहज हिस्सा बनकर आती हैं। दिल्ली जैसे महानगरों की बनिस्बत छोटे शहरों, कस्बों में अब भी इंसानी संवेदना और आर्द्रता कैसे बची हुई है, इसकी परख उपन्यासकार के रूप में अमर गोस्वामी जगह-जगह करवाते हैं। कोई हैरत की बात नहीं कि इसी कोशिश में वे डॉ. प्रशांत सिन्हा जैसे बड़े कद के इंसान से हमें रू-ब-रू होने का मौका देते हैं, जिनके आगे सारी महानगरीय भभ्भड़ और चमक-दमक फीकी लगती है।

अलबत्ता अमर गोस्वामी ‘इस दौर में हमसफ़र’ को एक उपन्यास के साथ-साथ सहज ही बहुरंगी छवियों और गतियों वाले हमारे दौर का ‘एक विशद समाजशास्त्रीय अध्ययन’ भी बना सके-यह एक बड़ी सफलता है। अपने पहले ही उपन्यास से अमर गोस्वामी आज के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की पाँत में आ गए हैं, यह बात उनकी रचनात्मक सामर्थ्य के प्रति मन में ‘आश्वस्ति’ के साथ-साथ आदर भी पैदा करती है।   


अपनी बात


पूरे एक वर्ष के परिश्रम का फल अपने पाठकों के हाथों में सौंपते हुए मुझे खुशी हो रही है। उपन्यास-लेखन के लिए भले ही यह समय ज्यादा न रहा हो, पर पहला उपन्यास लिखने की मानसिक तैयारी में मुझे काफी समय लग गया। बीस वर्षों से कुछ ज्यादा ही। मैं जब-जब उपन्यास लिखने बैठता, तब-तब थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद कुछ न कुछ व्यवधान उपस्थित हो जाता था। अंतराल ज्यादा हो जाने के बाद उस कथासूत्र से मेरा लगाव खत्म हो जाता था। कई बार सूत्र भी खो जाता था। संपादन-कार्य की अति व्यस्तता के चलते एक बड़े लेखन के लिए निरंतरता बनाए रखना भी कठिन होता था। इसलिए उपन्यास लिखने की इच्छा होते हुए भी इसे लिखने की पूरी तैयारी मैं नहीं कर पाया। उसके अलावा उपन्यास के लिए अनुभव की जितनी विविधता की जरूरत होती है, उसकी कमी भी मैं महसूस करता था। अपने कहानीकार से ज्यादा विस्तार की मैं अपेक्षा भी नहीं कर पाता था। इसलिए उपन्यास लिखने के सिलसिले में बीच-बीच में कलम उठाना और रखना मेरे लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन गई थी।

 अपने कथानकों की असबनी इमारतों के खँडहरों को देखकर कभी-कभी अपनी क्षमता के प्रति संशय भी होने लगता था। पर आखिरकार मैं इस स्थिति से उबर आया। वक्त जरूर लगा।
इस उपन्यास में मैंने अपने समय के समाज को देखने की कोशिश करते हुए अपने अनुभवों को अपने पाठकों से बाँटना चाहा है। ‘इस दौर में हमसफ़र’ का अनुभव-क्षेत्र हाशिए पर पड़े जनस्थानों से लेकर केंद्रीय महानगरों और उससे भी दूर विदेशों में स्थित अधुनातन नगरों तक विस्तृत है। बढ़ी हुई महत्त्वाकांक्षाओं ने भूगोल की परिधि को समेट दिया है। हमारे समय के समाज में एक तरफ बटुवे-भर इच्छाओं के साथ मगन जीने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ ऐसे अति सक्रिय नागर जन भी हैं, जिनके उड़ने के लिए यह आकाश भी छोटा पड़ जाता है। अब दुनिया-भर के महानगर एक-दूसरे के पड़ोसी होते जा रहे हैं, जिसके फलस्वरूप विभिन्न संस्कृतियों की सदियों की विचारधाराएँ भी आपस में गड्डमड्ड होने लगी हैं। इससे समाज में नई जटिलताओं और भ्रांतियों का भी प्रवेश हुआ है, जो स्वाभाविक है।

बदलती विचारधाराओं का भारतीय समाज पर काफी प्रभाव पड़ा है। इसके बावजूद परंपरागत जीवन-शैली में जीने वाले परिवार भी यहाँ हर जगह मौजूद हैं। समाज में लोग एक-दूसरे की जीवन-शैली को देखते हैं, मनलायक कुछ को अपना लेते हैं, बाकी को छोड़ देते हैं। अगर कुछ लोग अपना नहीं पाते तो उस बदलाव को मन ही मन स्वीकार कर लेते हैं, उसका मुखर विरोध नहीं करते। जो ऐसा नहीं कर पाते, वे भीतर ही भीतर उखड़ते और टूटते जाते हैं। टूटने और जुड़ने की यह प्रक्रिया इस पूरे समाज में चल रही है।

कहीं यह ताकत बन जाती है तो कहीं अंतर्विरोध के चलते समस्या भी। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के चलते हमारा समाज अभी और कितना बदलेगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। इतना तय है कि अब स्त्रियाँ दिनोदिन निर्णायक शक्ति के तौर पर सामने आएँगी- और उनकी ‘पुरुषोचित’ क्षमता को भी स्वीकारना पड़ेगा। यही स्थिति दलितों के साथ भी है। अब कौन दबेगा और कौन दबाएगा, इसका फैसला आने वाला कल करेगा। ‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूँदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रूँदूँगी तोय।’

काफी दिनों से भारतीय समाज का एक झूठा, असहनीय और विकृत रूप टेलीविजन के विभिन्न चैनलों से प्रसारित धारावाहिकों के जरिए घरेलू दर्शकों के सामने परोसा जा रहा है। हमारे देश में जो अपसंस्कृति आ रही है, उसकी तुलना में घर-घर में दिखाई जानेवाली यह नाटकीय अपसंस्कृति ज्यादा क्षति कारक है। ‘इस दौर में हमसफ़र’ की विषयवस्तु के चयन के पीछे झूठ से परे वास्तविक समाज और सहज आपसी रिश्तों का चित्रण भी एक कारण था, साथ ही बी. ए. जी. फिल्म्स की प्रमुख श्रीमती अनुराधा प्रसाद द्वारा आधुनिक परिवार को केंद्र में रखकर कुछ अलग लिखने का आग्रह भी। उपन्यास लिखने के लिए मुझे निरंतर उकसाने वाले शुभचिंतकों में मेरे दो घनिष्ठ मित्र- अग्रज डॉ. शेरजंग गर्ग और भाई प्रकाश मनु प्रमुख रहे हैं। मुझे मानसिक तौर पर इनसे हमेशा लिखने का बल मिलता रहा है। इस तरह आखिरकार छोटी कहानियाँ लिखने वाली एक कलम ने इतने सारे चरित्रों वाला उपन्यास लिखने का साहस सँजो लिया।

इस उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा कोलकाता के आई.आई.एम. परिसर में मेरे सबसे छोटे साले प्रोफेसर आशीष कुमार भट्टाचार्य के आवास में लिखा गया। उपन्यास पूरा हो जाने के बाद राजधानी की बहुचर्चित साहित्यिक संस्था ‘डायलॉग’ में इसके एक अंश का पाठ भी हुआ, जिसमें देश के विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों की बड़ी संख्या उपस्थित थी। संस्था के तत्कालीन संयोजक कवि विनोद शर्मा और इसकी संस्थापिका पंजाबी की प्राख्यात रचनाकार श्रीमती अजीत कौर का मैं आभारी हूँ।
चित्र-कला संगम के भाई पद्मश्री वीरेंद्र प्रभाकर का भी मैं कृतज्ञ हूँ, जिनके सहयोग से यह उपन्यास आप तक पहुँच पाया।        

-अमर गोस्वामी


इस दौर में हमसफ़र


पीली चाँदनी बड़े जतन से बनाए बगीचे के टोस्ट पर मक्खन-सी फैली हुई थी। चारों तरफ लगे दूधिया फुटबाल जैसे बल्बों की रोशनी के बड़े-बड़े धब्बे छोटे-छोटे समूह में बँटे लोगों पर पड़ रहे थे। बीच-बीच में एक समूह के कुछ लोग दूसरे समूह में घुस जाते थे। इस तरह कोई समूह कभी बड़ा तो कभी छोटे समूह में बदलता रहता था। इससे ये समूह पेट की तरह कभी फूल तो कभी पिचक रहे थे। देखते-देखते एक समूह की हैसियत कभी कम तो कभी ज्यादा हो जाती थी। वहाँ उपस्थित लगभग सभी इस तरह बड़ी गरिमा से संभ्रांत घुसपैठिए की भूमिका निभाने में लगे हुए थे। किसी समूह का कोई सूट कभी बड़ी अदा से इस जनगोष्ठी में घुसकर वहाँ मौजूद लोगों की बातों में टाँग अड़ाकर कुछ देर से अपनी अहमियत की तलाश करके फिर किसी दूसरी जनगोष्ठी में घुस जाता। इस तरह कोई पैंट किसी साड़ी के पास चला आता, कोई पाजामा किसी नितंबिनी के पास खड़ा हो जाता और कोई जींस किसी स्कर्ट के पास जाकर हालचाल पूछने लगता। यह दृश्य एक पार्टी का था, जो मेहरा सेठ ने दी थी। बैरा ट्रे लिए बड़ी व्यस्तता से घूम रहे थे।

ट्रे में भाँति-भाँति के पकवान और गिलासों में शीतल पेय थे। मदिरा एक कोने में खड़ी वारवनिता-सी-इशारे से बुला रही थी। जनगोष्ठियों से कुछ तोंद और नितंब निकल-निकलकर उधर ही पहुँचते और वहाँ खड़े एक संभ्रांत प्रौढ़ बैरे के चपल हाथों की सेवा से संतुष्ट होकर बर्फ का थोड़ा-सोड़ा मिश्रित व्हिस्की का गिलास उठा लेते। उसकी चुस्की लेते-लेते वे फिर किसी जनगोष्ठी में शामिल हो जाते। मद्धिम आवाज में जो पॉप संगीत बज रहा था उसमें एक मुंड़े को पंजाब की कुड़ी बहुत परेशान कर रही थी। उस परेशानी की अनदेखी करते हुए मेहरा सेठ अपनी ही व्यस्तता में खोए हुए थे। वे घूम-फिरकर अपने विशिष्ट मेहमानों से मिल रहे थे, उनका कुशल-क्षेम पूछ रहे थे और अपने खाली गिलासों को निरंतर भरते रहने का आग्रह कर रहे थे।

आज की पार्टी न बड़ी थी, न छोटी। यह एक मँझोली पार्टी थी। ऐसी पार्टियों में मेहरा सेठ के खास दोस्त और मेहमान मौजूद रहते थे। मेहरा सेठ अकसर ऐसी पार्टियाँ दिया करते थे। कभी दिल्ली की वसंत विहार की अपनी कोठी में, कभी किसी पंचतारा होटल में तो कभी किसी फार्म हाउस में। कोई पारिवारिक उत्सव मनाना होता था तो उसकी पार्टी वे अपनी कोठी में ही करते थे। जब कोई बिजनेस पार्टी अरेंज करनी होती थी तो उस पार्टी का आयोजन वे पंचतारा होटल में करते थे। जब महानगर के खास लोगों से अपने संबंधों को पालिश करने की जरूरत समझते तो उस पार्टी की व्यवस्था वे अपने महरौली के फार्म हाउस में करते थे। आज की पार्टी ऐसी ही थी। इस पार्टी में राजधानी के मोटे व्यवसायी, स्मार्ट ब्यूरोक्रेटस्, मँझोले स्तर के नेता, नेताओं और अधिकारियों के बिगड़ैल घोड़ों की तरह बेटे, तराशे बदनों वाली स्त्री और पुरुष मॉडल, अपनी पलायन कर रही जवानी को उग्र मेकअप के जाल से बाँधने की कोशिश करने वाली सोशलाइट महिलाएँ, दबंग पुलिस अधिकारी, पहुँचे हुए पत्रकार, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के फैशन डिजाइनर, विज्ञापन और प्राइवेट फर्मों के जनसंपर्क अधिकारी, ऊँची पहुँच वाले पेंटर, उच्चस्तरीय कॉलगर्ल और एक –आध मध्यस्तरीय हास्य रस के कवि मौजूद थे। सबके अपने वृत्त थे और यहाँ भी अपने धंधे में सब बुत थे। ऐसी पार्टियों में कुछ संभ्रांत अपनी लंतरानी हाँकते, कुछ संभ्रांत एक-दूसरे का अहं सहलाते, कुछ उच्च स्तर के संभ्रांत निम्न स्तर की चापलूसी करते और बाकी सब न जाने क्या-क्या करते नजर आते थे। इन पार्टियों में कुछ अपना धन बढ़ाने का जुगाड़ करते और कुछ दिल बहलाने का। दिल बहलाने के लिए मेहरा सेठ के आधुनिक कामोद्यान यानी फार्म हाउस के बगीचे में उच्च स्तर की सुरा से लेकर उच्च स्तर की झाड़ियाँ तक मौजूद थीं।

मेहरा सेठ कई उद्योगों और दिल्ली से निकलने वाले एक अखबार के मालिक भी थे। अखबार का नाम था ‘धर्मयुद्ध’। धर्म सदा सत्ता के साथ होता है। धर्मयुद्ध जो भी सत्ता में होता, उसका बिगुल बजाता था। ‘धर्मयुद्ध’ अखबार का संपादक था युद्धवीर तलवार। पत्रकारिता जगत में वह ‘पुरानी पापी’ के नाम से मशहूर था। वह नेता और अधिकारियों से संपर्क बनाने में माहिर था। उसके कुछ संपर्कों का उपयोग मेहरा सेठ करते थे। वे युद्धवीर से खुश रहते
थे। युद्धवीर को भी उनके होमफ्रंट तक पहुँच थी। मेहरा सेठ जब खुश होते थे तो उसके बारे में दूसरों से कहते, ही इज़ माई हॉर्स। ऐसा शायद वे इसलिए भी कहते थे कि युद्धवीर तलवार जब हँसता तो लगता वह हिनहिना पहा है। वैसै भी ‘धर्मयुद्ध’ मेहरा सेठ के लिए घोड़े का ही काम करता था। वे अपने घोड़े पर चढ़कर जहाँ जरूरत होती वहाँ जाकर अपना करम करवा आते थे।

आज की पार्टी अकारण पार्टी थी। मेहरा सेठ अकारण पार्टियाँ दिया करते थे। मगर वे अच्छी तरह जानते थे कि ऐसी अकारण पार्टियाँ सकारण साबित होती हैं। वे समय आने पर फलदायक होती हैं। मेहरा सेठ की कई इच्छाएँ पूरी हो चुकी थीं, पर कुछ इच्छाएँ अभी बाकी थीं। उनके मन में राज्य सभा में जाने की इच्छा लौ की तरह लपलपा रही थी। इस काम में उन्होंने अपने मध्यस्थों को लगा रखा था। देश की सेवा करने का जज्बा उनके मन में जाग्रत हो गया था और उनके लिए वह बिना एम. पी. बने संभव नहीं था। वे इस सुकार्य के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के अध्यक्षों को चंदा देने में जुट गए थे। वे नेताओं को खुश रखने के लिए उन्हें पार्टियाँ देते, उनकी ताबेदारी करते और फॉर्म हाउस के विशेष सेज पर उनका हर प्रकार का तनाव अपनी रंभाओं से दूर करने की कोशिश करते। मेहरा सेठ जिस काम में हाथ डालते उसे पूरा करके ही दम लेते। वे पक्के व्यवसायी थे। उनके जीवन का उद्देश्य था, ‘एक लगाओ चार वसूलो।’

 वे जितना देते थे एक दिन उससे ज्यादा वसूल लेते थे। मेहरा सेठ द्वारा दी जानेवाली अकारण पार्टियाँ भी इन्वेसेटमेंट होती थीं। इन पार्टियों में शामिल होने वाले लोग भी पार्टी के बहाने अपना धंधा करते थे। छलकते जामों और परस्पर हँसी-मजाक करते हुए बड़ी चतुराई से व्यवसायिक डीलिंग हो जाया करती थीं। कोई मॉडल किसी बड़ी कंपनी के डायरेक्टर को पसंद आ जाती तो उसके कैरियर की गाड़ी चल निकलती। किसी फैशन डिजाइनर को फैशन शो के लिए प्रायोजक मिल जाता, विज्ञापन कंपनी के किसी डायरेक्टर को ऐसी पार्टियों में मॉडल के लिए उपयुक्त कोई सुंदरी मिल जाती। नए उद्योगपति मुरली भाई को अपनी जिस प्राइवेट सेक्रेटरी मिस करनानी पर अपनी पत्नी से भी ज्यादा भरोसा था, और जिसे वे घर के बाहर हमेशा साथ लिये फिरते थे, उससे उनका परिचय भी मेहरा भाई की ऐसी एक अकारण पार्टी में हुआ था। मुरली भाई की हर गतिविधि का ब्योरा मिस करनानी की डायरी में रहता था। यूँ तो मुरली भाई मिस करनानी के बॉस थे, पर मिस करनानी जिस तरह मुरली भाई के काम के घंटे-मिनट का हिसाब रखती थी और उसी के अनुसार उन्हें चलाती थी उससे लगता था कि मुरली भाई अपनी पी.एम. के हाथ की कठपुतली हैं।

मेहरा सेठ की पार्टी में उनके कुछ खास मेहमान, जिनसे उनका कुछ काम सधता था, अपने मतलब से आते थे। विपक्ष के मँझोले स्तर के एक बड़े नेता मेहरा सेठ की पार्टी में आकर थोड़ी ही देर में इतना थक जाते थे कि मेहरा सेठ को उन्हें अपने खास बेडरूम में भेजना पड़ता था, जहाँ उनकी अंतरंग देखभाल होती थी। प्रशासन के दो आला अफसर, जिनमें से एक पुलिस विभाग से जुड़े थे, वहाँ पर फ्रेंच स्कॉच पीने आते थे। फार्म हाउस के एक कमरे में उनके लिए भी इंतजाम रहता था। राजधानी के दो बड़े अंग्रेजी अखबारों के दो पत्रकार मेहरा सेठ की सभी पार्टियों में नजर आते थे। लौटते समय मेहरा सेठ उनकी जेब में जवान नोटों की एक छोटी-सी गड्डी जरूर डाल देते थे। वे खबरों और पहुँचे हुए लोगों के संबंधों के लिहाज से मेहरा सेठ के बहुत काम आते थे।

मेहरा सेठ के एक मुँहलगे शायर थे खादिम साहब। वे अकसर मेहरा सेठ की ऐसी चापलूसी करते कि कभी-कभी मेहरा सेठ को लगता कि झूठ कितना खूबसूरत होता है। खादिम साहब की तारीफ यह थी कि वे मूड़ में आने पर अपने लिखे शेरों के बजाय उर्दू शायरी के उस्तादों के शेर ज्यादा सुनाया करते थे और जब वे ज्यादा मूड़ में आ जाते, यानी आधी रात के बाद, तो वे शायरी छोड़कर चुटकुले सुनाने लगते थे जो धीरे-धीरे बेडटाइम चुटकुलों में बदल जाते। उस दिन भी वे चुटकुले सुना रहे थे। तभी एक संभ्रांत व्यस्त होकर अपनी घड़ी देखने लगे। उनके बगल में खड़े दूसरे संभ्रांत ने पूछा, ‘अरे साहब, रात की पार्टी में आकर भी आप क्या कर रहे हैं ?’

पहले संभ्रांत ने कहा, ‘कुछ नहीं यूँ ही जरा समय देख रहा था।’
दूसरे संभ्रांत ने कहा, ‘आप खामखाह अपने को तकलीफ दे रहे हैं। इस समय रात के एक बज रहे होंगे।’
उस संभ्रांत ने घड़ी से अपनी नजर हटाकर कहा, ‘आपको समय का वाकई अच्छा अंदाज है।’
दूसरे संभ्रांत ने कहा, ‘ऐसी कोई बात नहीं, आप देख नहीं रहे, खादिम साहब अश्लील चुटकुले सुना रहे हैं। एक बजे के आसपास उनके चुटकुले ऐसे ही होने लगते हैं। ज्यों-ज्यों रात गहराती जाएगी, उनके चुटककुले भी उतने ही एडल्ट होते जाएँगे। आप खादिम साहब के पास खड़े रहिए, आपको वक्त का पता चलता जाएगा।’

यह सुनकर बड़ी जोर से ठहाके लगे। खादिम साहब तुनक गए। बोले, ‘हजरात, जाने कहाँ-कहाँ की खाक छानकर मैं मोती लाया हूँ। आपको मजाक सूझ रहा है।’ खादिम साहब को नाराज देखकर एक परिचित लपककर कोने में गए और एक नया पेग बनवाकर फटाफट लौटकर उन्हें थमाते हुए कहा, ‘अरे, खादिम साहब, आप रंग पर बने रहिए, अपने को बदरंग मत कीजिए।’ खादिम साहब खुश हुए और फिर अपने चुटकुलों के प्रवाह में बहने लगे। रात बढ़ रही थी। खादिम साहब पिघल रहे थे। और लोग भीग रहे थे।

धीरे-धीरे महिलाओं का एक निजी समूह बन गया था। वहाँ वे अपनी निजी बातें कर रही थीं। वहाँ दूसरे के गोपन का उद्घाटन था, अपनी रईसी की लंतरानियाँ  थीं, अपना गुणगान था और ऐसी ही तमाम वे बातें थीं जिनसे उन्हें सुख प्राप्त होता था। मगर तभी शायद कुछ पुरुषों से उनका यह ‘सुख’ देखा नहीं गया। उनमें से एक जिंटा साहब लपककर वहाँ आकर बोले, ‘मैडम, ये तो बड़ी ज्यादती है। पार्टी में आकर भी इस तरह गोलबद्ध होकर पुरुषों के खिलाफ षड्यंत्र ठीक नहीं। जो भी कहना हो, हम सबके बीच खुलकर कहिए।’

मिसेज सिंह बोलीं, ‘आप लोगों के दिल में हमेशा यह संदेह क्यों घर किए रहता है ? क्या हम और बात नहीं कर सकतीं ?’
मिसेज दयाल बोलीं, ‘आखिर मिस्टर जिंटा हमारी हेमा जी के पति हैं। इन्होंने पुरुषों से पीड़ित स्त्रियों का एक मंच बना रखा है। बेचारे जिंटा साहब दिन-रात हेमा जी से डरते रहते है।’ सभी हँसने लगीं।
तभी मेहरा सेठ की आवाज आई, ‘लेडीज़ एंड जेंटिलमेन, लेट अस एंज्वॉय डिनर प्लीज़।’ यह सुनकर भीड़ छँटने लगी और डिनर टेबल के आसपास जुटने लगी।

इस पार्टी में प्रभा का परिचय हुआ था अनन्या से। अनन्या एक बड़े फर्म की अधिकारी थी। बिजनेस के सिलसिले में उसे अकसर ऐसी पार्टियों में आना पड़ता था। अनन्या का व्यक्तित्व ऐसा था कि वह सहज ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती था। उसका कद लंबा था और बदन सुडौल। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें कुछ सोचती हुई-सी लगती थीं। उसकी गर्दन तक कटे बालों में हल्की-सी लहर नजर आती। उन्हें पीछे करने के लिए वह गर्दन को जब-तब झटके देती रहती थी।

प्रभा का अनन्या से परिचय एक भवन निर्माता अहलू वालिया ने कराया था। अहलूवालिया जमीन-जायदाद का पक्का दलाल था और इन्हीं पार्टियों में बने संबंधों से अपना बिजनेस चलाता था। अहलूवालिया बाहर से जितना विनम्र और मिलनसार दिखता था, भीतर से उतना ही काइयाँ था। जमीन और मकान दिलाने के मामले में उसने इतनी धोखेधड़ी की थी कि खुद को याद दिलाने के लिए एक वकील रखना पड़ता था जिसकी ख्याति कुख्याति तक पहुँच गई थी। अहलूवालिया के अधिकांश मुकदमे यह वकील तरनेजा ही देखता था। साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में से तीन सौ दिन तो अहलूवालिया के केस के सिलसिले में तरनेजा विभिन्न अदालतों में किसी न किसी जज के सामने बहस करता रहता। अहलूवालिया के कारण कुछ लोग आत्महत्या कर चुके थे। एक अवकाश प्राप्त अधिकारी तो जज के सामने रोता हुआ बेहोश हो गया था, जिसने एक फ्लैट की अपनी जमापूँजी अखबार में एक विज्ञापन देकर अहलूवालिया के एजेंट को सौंप दी थी। बाद में उसे पता चला कि अहलूवालिया के पास उसे देने के लिए कोई फ्लैट नहीं था और न उसे लौटाने के लिए उसके पास रुपए। इसका मुकदमा चलते हुए अब कई साल हो चुके थे। अब हालत यह थी कि उससे न केस छोड़ते बनता था, न लड़ते। अहलूवालिया के घनिष्ट लोग उसे ‘स्वप्न उजाड़क’ कहते थे। वे कहते, यह मैन किलर है। तरनेजा के हवाले करके कोर्ट की पेशियाँ पड़वाते-पड़वाते लोगों को मार डालता है।’

वही अहलूवालिया डॉ. नरेन्द्र सिन्हा उसके फैमिली डॉक्टर थे। इसीलिए अहलूवालिया उनकी पत्नी प्रभा भाभी की इज्जत करता था। जब उसने प्रभा का परिचय अनन्या से करवाया तो अनन्या ने उसके मुँह के सामने ही पूछ लिया, ‘अरे प्रभाजी, क्या आप भी अहलूवालिया के चक्कर में पड़ गई हैं ? कोई फ्लैट वगैरह बुक करने का इरादा है क्या ?’
अहलूवालिया ने बेशर्मी से हँसकर कहा, ‘प्रभा जी के लिए फ्लैटों की क्या कमी ? आप कभी मुझे भी खिदमत का मौका दीजिए।’

अनन्या बोली, ‘धन्यवाद ! जब जरूरत पड़ेगी आपको याद करेंगे।’ अहलूवालिया एक विचित्र हँसी हँसता हुआ चला गया।
अनन्या ने पूछा, ‘आपके श्रीमान जी किधर हैं ?’
‘मैं इन श्रीमानजीयों से बोर हो गई। सब अपने-अपने काम में लगे रहते हैं। कोई यहाँ पर, कोई घर में। काम में फुर्सत नहीं। मेरे श्रीमान जी इस समय अपने अस्पताल में हैं। व्यस्त डॉक्टर तो हैं ही, अपने रिसर्च के सिलसिले में और भी व्यस्त रहते हैं। उन्हें लोगों से मिलने जुलने पार्टियों वगैरह में ज्यादा रुचि नहीं है।’
‘रुचि ते मेरी भी नहीं,’ अनन्या बोली, ‘मगर बिजनेस से जुड़ी हुई हूँ तो आना ही पड़ता है। बड़ी जगह की पार्टियाँ भी नौकरी का हिस्सा हो गई हैं।’

तभी बैरा उधर कोल्ड ड्रिंक ले आया। दोनों ने एक-एक कोल्ड ड्रिंक का गिलास ले लिया। अनन्या बोली, ‘वैसे मुझे पार्टियों में कुछ भी पीना पसंद नहीं। पता नहीं आप मर्दों को कितना जानती हैं, पर मुझे थोड़ा- बहुत अनुभव हो चुका है।’
प्रभा बोली, ‘पता नहीं, मैं जिनसे मिलती-जुलती हूँ वे सभी बहुत उलझे नजर आते हैं।’
अनन्या हँसी, ‘ये रात की पार्टियाँ जंगल होती हैं। क्या आप कभी जंगल में गई हैं ? चारों तरफ कैसा सहमा हुआ सन्नाटा पसरा रहता है, और उस सन्नाटे में अजीब-सी आवाज सुनाई पड़ती है। कई बार लगता है, वे आवाजें जैसे अपने भीतर से आती हों। खासकर जब आसपास खूँखार जानवरों के होने का अहसास हो। वहाँ हरदम सतर्क रहना पड़ता है। मगर यहां खतरा भले ही न हो, पर खतरे का अहसास बना रहता है। बस फर्क यही कि जंगल में जानवर होते हैं और यहाँ इनसान। खतरा हर जगह होता है।  

‘बाप रे,’ प्रभा चौंकती हुई बोली, ‘मैं तो वाकई डर गई।’
अनन्या मुस्कराई, ‘हाँ डरना चाहिए और डर का सामना भी करना चाहिए। डर हमें जगाए रखता है और कभी-कभी वह हममें समझ भी पैदा करता है। पर ज्यादा डर आदमी को खा जाता है। डर भी एक प्रकार का जानवर है।’
प्रभा ने पूछा, ‘अनन्या जी, आपकी शादी हो गई ?’
अनन्या ने एक क्षण प्रभा को गौर से देखा। फिर बोली, ‘अंदाजा लगाइए ! औरतें तो इस मामले में बड़ी होशियार होती हैं।’
प्रभा ने कहा, ‘अभी इतनी होशियार नहीं हुई हूँ।’
अनन्या ने कहा, ‘तो इसे अभी रहस्य ही रहने दीजिए। कभी हम फिर मिलेंगे तो बातें होगीं। आप चाहें तो मुझे फोन भी कर सकती हैं।’ उसने अपना कार्ड प्रभा की ओर बढ़ा दिया।

प्रभा कार्ड लेते हुए मुसकराई। वैनिटी बैग से उसने अपना भी एक कार्ड निकालकर अनन्या को दिया। अनन्या ने उस कार्ड को देखते हुए कहा, ‘यह कार्ड तो आपके डॉक्टर साहब का है।’
प्रभा बोली, ‘आपकी तरह अभी निजी विजिटिंग कार्ड रखने की मेरी हैसियत नहीं हुई है।’
अनन्या घर पहुँची। फ्रेश होकर वह अपने बिस्तर पर बैठी थी कि बंगलौर से अनिरुद्ध का फोन आया। उसे यहाँ से गए पाँच दिन हए थे। वह हर रात को अनन्या को फोन जरूर करता। वह जानता था अनन्या रात को देर से घर लौटती थी। इसलिए वह ग्यारह बजे के आसपास फोन करता था। अनन्या के फोन की घंटी बड़ी मधुर बजती थी। पिछली बार अनिरुद्ध ही इसे खरीद लाया था। चटक आसमानी रंग का था वह। उसमें एक उड़ती चिड़िया की तस्वीर भी बनी थी। अनन्या को यह फोन, खासकर उड़ती चिड़िया बहुत पसंद आई थी। अनन्या जब भी उसे देखती तो लगता एक चिड़िया आसमान के अनंत विस्तार में उड़ती जा रही है। उसे लगता यह चिड़िया वह खुद है। अनन्या ने टेलीफोन उठाकर कहा, ‘हैलो।’
फोन पर दूसरी तरफ अनिरुद्ध था। उसने कहा, ‘हैलो डार्लिंग, पार्टी कैसी रही ?’
‘तुम्हें कैसे पता ?’ अनन्या ने पूछा।

‘मुझे पता है। इट इज पार्ट ऑफ योर जॉब।’
अनन्या बोली, ‘वेरी टायर्डसम जॉब यार !’
‘हाँ ! आज वहाँ कितने बोर मिले ?’
‘घूम-फिरकर वही लोग होते हैं। वही परिचित उबाऊ चेहरे। वही परिचित उबाऊ अदाएँ। हाँ, अहलूवालिया भी मिला था। मुझे एक फ्लैट देने के लिए ललचा रहा था।’
‘ओह वही, बिगेस्ट फ्रॉड ऑफ डेल्ही ! डार्लिंग, उसके चक्कर में मत पड़ना। मैं फिर से अकेला हो जाऊँगा।’
अनन्या हँसने लगी। बोली, ‘वहाँ क्या गुल खिला रहे हो ?’
‘कसम से, इस बार जरा भी फुर्सत नहीं है। बस यह रात होती है, तब ख्वाबों में तुम होती हो।’
अनन्या ने चुटकी ली, ‘क्या तुम वाकई अकेले हो ?’
‘संसद के शोर की कसम ! मैं इस वक्त अकेला हूँ और तुम्हें बुरी तरह से मिस कर रहा हूँ।’
अनन्या हँसने लगी, ‘संसद कब से कसम खाने वाली जगह हो गई ? और वहाँ का शोर बहुत बोर करता है। प्लीज़। तुम बोर मत करना।’

‘तुम्हें इंटरटेन करने के लिए जल्दी आना चाहता हूँ।’
‘आ जाओ।’
‘कोशिश कर रहा हूँ।’
अनन्या बोली, ‘कोई बात नहीं। मिशन मॉडल पहले। मगर अपना खयाल रखना।’
‘कल फिर फोन करूँगा। इंतजार करना।’ फोन पर अनिरुद्ध के हलके-से चुंबन की आवाज आई।
अनन्या ने ‘गुडनाइट’ कहकर फोन रख दिया।
वह अनिरुद्ध के बारे में सोचने लगी।
रात में कब अपने खयालों में सो गई, उसे पता नहीं चला। सुबह वह अपना सपना देख रही थी कि वह एक आम के पेड़ के नीचे झूला झूल रही है और पेड़ पर कोयल बैठी कूक रही है। मगर यह कोयल की कूकी नहीं थी, उसका फोन बज रहा था। उसने उनींदी आँखों से फोन उठाकर कहा, ‘हैलो।’
दूसरी तरफ से जो आवाज आई, उससे उसका उनींदापन एकदम गायब हो गया। वह बोली, ‘भैया, तुम कहाँ से बोल रहे हो ?’

‘यही यात्री निवास से।’
‘तुम घर क्यों नहीं आ गए ? होटल में ठहरने का क्या तुक था ?’
उधर से जवाब मिला, ‘नाराज क्यों होती हो ? मैं कल शाम को आ गया था। स्टेशन से तुम्हारे यहाँ फोन किया। पर घंटी बजती रही। समझ गया, इस वक्त घर जाऊँगा तो ताला बंद मिलेगा। तुम्हारे अनिरुद्ध का भी कोई भरोसा नहीं। कब दिल्ली में होता है, कब नहीं। तुम्हारे फ्लैट के बाहर बैठकर देर रात तक इंतजार करने का साहस नहीं हुआ। यहाँ गृहमंत्री से एक इंटरव्यू के सिलसिले में आया हूँ। कल ही लौ़ट जाऊँगा।’
‘फिर भेंट कैसे होगी।’
‘दोपहर में वक्त निकालकर कुछ देर के लिए तुम्हारे दफ्तर में आ जाऊँगा।’
‘घर में माँ-बाबूजी कैसे हैं ?’
‘माँ तुम्हें याद करती हैं। बाबूजी भी। दोपहर को मिलने पर बातें होंगी।’
अनन्या ने फोन रख दिया।

अनन्या के भाई का नाम मधुसूदन था। मधुसूदन पत्रकार था। इन दिनों वह जबलपुर के अखबार में काम करता था। अखबार में काम करते उसे कई साल हो गए थे और इस बीच वह तीन अखबार बदल चुका था। बीच में कुछ साल उसने एक पत्रिका में भी काम किया था। मधुसूदन पत्रकारिता की दुनिया में उस आदर्श के साथ आया था जिस भावना से आजादी के आंदोलन के दिनों से अब तक पत्रकारिता होती रही है-यानी देश के लोगों में देश के प्रति आत्मसम्मान और समर्पण की भावना जगाए रखने की, नेताओं की अच्छी-बुरी गतिविधियों से जनता को सूचित करते रहने की, एक सलाहकार की भूमिका निभाने की तथा देश और समाज के विरुद्ध कुप्रवृत्तियों और गलत सोच पर अंकुश लगाने की। अखबार को वह काम आदमी की आकांक्षा समझता था। उसने इसीलिए किसी और नौकरी में न जाकर इस पेशे को अपनाया था। हालाँकि इस पेशे की चुनौतियाँ तथा बाधाएँ अन्य पेशों की तुलना में कहीं बड़ी और खतरनाक थीं।

पत्रकारों को अपने काम में एक साथ कई मोर्चों पर जूझना पड़ता है। अखबार मालिकों के निजी हित होते हैं। अखबार चलाने वाले मालिक दो तरह के होते हैं- एक तो जिनके पास अपने कई व्यवसाय होते हैं, मिल फैक्ट्रियाँ होती हैं, य

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