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युवराज चूण्डा

भगवतीचरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3403
आईएसबीएन :9788126705771

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चित्तौड़ के राणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र युवराज चूण्डा के विलक्षण व्यक्तित्त्व को केन्द्र बनाकर रचा गया एक ऐतिहासिक उपन्यास...

Yuvraj Chunda (Bhagwaticharan Verma)

‘युवराज चूण्डा’ के लेखक भगवतीचरण वर्मा प्रेमचन्दोत्तर युग के वरिष्ठ उपन्यासकार है। उनका जन्म 30 अगस्त सन् 1903 को उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के कस्बे शफ़ीपुर में वकील श्री देवीचरण वर्मा के घर में हुआ था। पाँच वर्ष की आयु में उनके सिर से पिता का साया उठ गया और माँ ने उनका पालन-पोषण किया।

वर्माजी के बालक मन पर एक ओर अपने समय की राष्ट्रीय चेतना का प्रभाव था और दूसरी ओर अपने ताऊ जी के आर्यसमाजी विचारों का। चौदह-पन्द्रह वर्ष की आयु में, जब वे हाईस्कूल के विद्यार्थी थे, उनकी पहली रचना - एक कविता, प्रमुख राष्ट्रीय साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ में छपी थी।

सन् 1920 में उनके ताऊ श्री कालीचरण वर्मा का भी देहान्त हो गया और उनकी लम्बी बीमारी के दौरान वर्माजी पर काफी आर्थिक दबाव रहा। जैसे-तैसे सन् 1928 में वकालत पास की - किन्तु इस पेशे में उनका मन नहीं रमा और 1930 के आसपास वकालत छोड़ दी। अब तक वर्माजी की ख्याति छायावादी शैली के कवि के रूप में हो चुकी थी और उन्हें साहित्य का मार्ग ही अपना मार्ग लगने लगा था। किन्तु उस समय साहित्य आजीविका का साधन नहीं बन सकता था। जमीन-जायदाद बिक चुकी थी। परिणामतः 1930 से 1957 तक का लम्बा समय अभावों और अस्थिरता में गुजरा। वे कानपुर, इलाहाबाद, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली - सब जगह जमने के प्रयत्न में घूमे लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। इस बीच उन्होंने न जाने कितने काम किये और छोड़े।

उनका पहला महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘चित्रलेखा’ 1933 में प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास की लोकप्रियता और प्रसिद्धि ने एकबारगी उन्हें कविता के क्षेत्र से उखाड़कर कथा-साहित्य के क्षेत्र में जमा दिया।

वर्माजी का ‘नियतिवादी’ दर्शन ‘चित्रलेखा’ में भावनात्मक रूप में प्रकट हुआ है। इसी दर्शन ने उनकी बाद की रचनाओं - ‘सामर्थ्य और सीमा’ और ‘सबहिं नचावत राम गुसाईं’ - में अधिक बौद्धिक रूप धारण कर लिया।

उनके अन्य उपन्यासों में ‘भूले-बिसरे चित्र’, ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’, ‘सीधी-सच्ची बातें’ तथा ‘प्रश्न और मारीचिका’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन उपन्यासों में सन् 1885 से 1963 तक के भारत के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को विषय बनाया गया है। इनमें भारतीय जीवन अपनी विविध समस्याओं के साथ मौजूद है। वर्माजी के भीतर का व्यंग्यकार अपनी प्रारम्भिक कहानियों और बाद के दो उपन्यासों ‘अपने खिलौने’ और ‘सबहिं नचावत राम गुसाईं’ में विशेष रूप से प्रकट हुआ है।

कविता और कथा-साहित्य के अतिरिक्त वर्माजी ने कुछ नाटक और आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं।


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