लोगों की राय

स्वास्थ्य-चिकित्सा >> प्रतिदिन का भारतीय संसाधित आहार

प्रतिदिन का भारतीय संसाधित आहार

के.टी.अच्चया

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 34
आईएसबीएन :00000000

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

43 पाठक हैं

प्रस्तुत पुस्तक आधारभूत भोज्य पदार्थों पोषणिक, रसायनिक और प्रौद्योगिकी गुणवत्ता को रेखांकित करती है।

Pratidin Ka Bhartiya Sansadhit Aahar - A hindi Book by - K. T. Achchya प्रतिदिन का भारतीय संसाधित आहार - के.टी.अच्चया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक आधारभूत भोज्य पदार्थों जैसे कि चावल, गेहूँ, दूध तथा वनस्पति तेल और अधिक परिष्कृत संसाधित आहारों जैसे कि डबलरोटी, बिस्कुट, जैम, आचार, वनस्पति, चाकलेट, पापड़, इडली और कुछ दूध से बनी मिठाइयों के समस्त प्रकारों की पोषणिक, रासायनिक और प्रौद्योगिकी गुणवत्ता को रेखांकित करती है। यहां तक कि विषय के प्रति सामान्य ज्ञान भी पाठक के लिए बहुतायत में सूचना प्राप्त करने का एक जीवंत और रुचिकर रास्ता प्रदान कर सकता है।
डा. के. टी. अच्चया एक अन्य पुस्तक ‘हम और हमारा आहार’ के भी लेखक हैं, जिसका प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा ही किया गया है, जिसके अग्रेंजी, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। डा. अच्चया को इस क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

1. आधार

अन्न और दालें

चावल

क्या कोई ऐसा भी भारतीय है, जो क्षुधावर्धक सुगंध, बर्फ से सफेद रूप-रंग, फलों के गूदे से कोमल स्वाद और चबाने में नर्म बनावट वाले उबले चावलों की थाली देखकर प्रसन्नता से भर न उठे। यहां तक कि परंपरागत प्रकारों के नाम आह्नान-सा करते हैं। बास (गंध) और मती से बासमती, दिल पसंद यानी दिल को अच्छा लगने वाला, हिम-श्नवेत हंसों का राजा हंसराज, बंगाल का दूध-सा सफेद दूधकलमा और कर्नाटक का छोटे दानों वाला सन्नारसना चावल। यदाकदा नई किस्मों के नाम भी काव्यात्मक रखे जाते हैं-जया, पद्मा, सोना, मधु-फिर भी हमारे पास सीओ-25, एमटीयू-15 और टी-136 जैसे गद्यात्मक किंतु तकनीकी रूप से सुविधाजनक नाम भी हैं।

आकार, प्रकार, गंध और पकाने के ढंग को लेकर सुस्पष्ट क्षेत्रीय प्राथमिकताएं हैं। मोटे तौर पर चावल का वर्गीकरण बढ़िया, मध्यम और मोटा (घटिया) के रूप में किया जाता है। उत्तर में सुगंधित, लंबे दानों वाले प्रकारों को रोज के खाने में भी अधिक पसंद किया जाता है। दक्षिण में इनका उपयोग बिरयानी, पुलाव या घी वाले चावल बनाने में किया जाता है और रोजमर्रा के उपयोग में सामान्य रूप से मोटे प्रकार के चावलों को प्राथमिकता दी जाती है। उसना या सेला, चावल, जो रंग में थोड़ा पीलापन लिए होता है, पूर्वी भारत में लोकप्रिय है, जबकि थोड़ा अधिक उबले हुए ढंग का उसना चावल धुर दक्षिण में लोकप्रिय है। भारत में हर कहीं ऐसा चावल, जो कम से कम एक साल पुराना हो, ज्यादा पसंद किया जाता है क्योंकि यह एक-सा गाढ़ापन लिए पकता है और हर दाना अलग-अगल रहता है। यह सुदूर पूर्व के देशों के विपरीत है, जहां पकाने के बाद एक अर्ध-लसदार पुंज वांछित होता है।

कुटाई तथा परिष्करण

धान का एक मोटा बाहरी भूरा छिलका होता है जो उसके वजन का लगभग एक चौथाई होता है। इसके नीचे एक महीन रेशमी, हल्का भूरा आवरण-स्तर होता है, जो निकाल लिए जाने पर भूसी या चोकर कहलाता है, पारंपरिक रूप से इसे थावडु या गुरा कहते हैं, जो मवेशियों का भोजन है। हर दाने के एक सिरे पर एक बीजांकुर होता है, एक कठोर, छोटी-सी सफेद कणिका, जिसमें भ्रूण होता है, जिससे चावल का वह दाना बोने पर पौधा निकलता है। यदि मूंगफली के किसी दाने को दो भागों में विभाजित किया जाए, तो इसी तरह का बीजांकुर सरलता से देखा जा सकता है।
धान की चक्की (मिल) में कुटाई इसलिए की जाती है कि पहले मोटा छिलका फटकर उतर जाए और ऐसा करते हुए, थोड़ी या सारी भूसी और बीजांकुर भी उतर आता है। ऐसा व्यापक परिष्करण बर्फ जैसा सफेद चावल देता है, जिसकी उपभोक्ता में मांग है। फिर भी विटामिन और प्रोटीन जैसे अनेक पोषक तत्व भूसे और बीजांकुर में विद्यमान होते हैं जो परिष्कृत चावल खानेवाले को नहीं मिल पाते। इस पर बाद में चर्चा की जाएगी।

चावल की कुटाई एक पुरातन पारंपरिक प्रक्रिया है, जो कई प्रकार से की जाती है। इनमें सबसे सरल तरीका है कि धान को एक लकड़ी या पत्थर की ओखली या चक्की में रखा जाता है और फिर लकड़ी के एक मजबूत मूसल से हाथों या एक पांव से कूटा जाता है। इससे छिलका तो उतर जाता है किंतु बहुत सारा चावल भी चूरा हो जाता है। साबुत चावल को शेष से अलग करने के लिए ओसाने या फटकने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है। कुटाई के सिद्धान्त का उत्कर्ष धेनकी में पाया जाता है, जिससे लकड़ी का एक खंभा, मध्य में धुरी के रूप में लगा होता है और जिसके एक छोर पर लकड़ी का एक छोटा मूसल लगा होता है, जो जमीन में गड़ी हुई लकड़ी की ओखली में रखे धान को ऊपर-नीचे होकर कूटता है। क्षैतिज, एक पत्थर वाले, कुटाई यंत्र (हलर) में एक खोल के भीतर दो वृत्ताकार पत्थर के बेलन घूमते हैं, जिसमें फौलाद की पत्ती लगी होती है जो धान के छिलके को तोड़ती है। पत्थर का एक खंड नालीदार होता है जिसमें पूरा धान का दाना डाला जाता है और दूसरा खंड सफेद चावल का दाना बाहर निकालता है।

एक दुहरे कुटाई यंत्र में कुछ अपघर्षित छिलका बचा रहने के बाद, एक अन्य परिष्करण प्रक्रिया के द्वारा चावल के दाने निकाले जा सकते हैं, जिसमें बचे और चिपके हुए भूसे को निकालने के लिए अधिक परिष्कृत व्यवस्था की जाती है। मोटे छिलके के टुकड़े, टूटे हुए दानों और भूसी से सरलता के साथ अलग किए जा सकते हैं, जिन्हें फिर फटकने या ओसाने की क्रिया द्वारा अलग किया जा सकता है। छिलका उतारने वाले एक अन्य प्रकार के यंत्र में दो लोहे के पाट (डिस्क, तवे) होते हैं जिन पर रेगमाल और सीमेंट का खुरदरा मिश्रण लगा देते है। ऊपर का पाट स्थिर होता है, जबकि नीचे का पाट घूमता है और ऊपर बने एक छेद (फीडर) से धान डाला जाता है, जो दोनों पाटों के बीच समायोजित अंतराल से गुजरते हुए दोनों पाटों की रगड़ से छिलका उतार देता है। बाहर निकलने वाले मिश्रण से फटकने की क्रिया द्वारा छिलका, साबुत धान, साबुत दाने, लंबे टुकड़े, छोटे टुकड़े और भूसी को अलग-अलग कर लिया जाता है। खुरदरे, कांटेदार, हिलते हुए यंत्रीकृत तख्ते पर ऊपर से नीचे डालने पर साबुत चावल, धान के दानों की तुलना में अधिक सरलता से नीचे गिरते हैं और अलग से एकत्रित किए जा सकते हैं। बचे हुए धान को अगली प्रक्रिया में शामिल कर दिया जाता है। एक अन्य व्यवस्था केवल परिष्करण (पॉलिशिंग) के लिए काम में लाई जाती है। इसमें पत्थर का एक उल्टा शुंक तार की छलनी में चक्कर लगाता हैं, जिसमें रबर की अंगुलियां जैसी लगी होती हैं। ये दानों को रोके रखती हैं, जबकि बची हुई भूरी भूसी पर पॉलिश हो जाती है या वह सफेद हो जाती है। दानों पर चमक लाने के लिए इस प्रक्रिया के दौरान तेल या सिलखड़ी का उपयोग किया जाता है।

परंपरागत प्रक्रिया के दौरान ज्यादा दाने टूटते हैं। ये टूटे हुए दाने जो ‘धारी’ कहलाते हैं, बर्बाद नहीं होते बल्कि इनका विशेष प्रकार के भोजन में या जहां चावल के पिसे आटे की आवश्यकता होती है, जैसे इडली या डोसा बनाने में उपयोग किया जाता है। हर उत्पादन को अलग अलग प्राप्त करने में कठिनाई के कारण धान-संसाधन की उन्नत विधियों की खोज हुई। रबड़ के पट्टे वाले शैलर में धान को ऊपर छेद में से नहीं डाला जाता, बल्कि रबर के पट्टे के द्वारा पाटों के बीच के अंतराल में ले जाया जाता है, और अधिक उन्नत शैलर में रबर या रबर लगे बेलनों की एक जोड़ी होती है जो अलग अलग गतियों से विपरीत दिशाओं में घूमते हैं और जब उनके बीच में से धान का दाना गुजरता है, तो टूटन नगण्य होती है और उत्पादन अधिक होता है। यदि छिलका उतारने की क्रिया दो भागों में की जाए तो छिलका और चोकर को अलग अलग प्राप्त किया जा सकता है। इसमें एक नवीनतम विकास आधुनिक चावल मिल है, जिसमें धान के दाने के हर घटक को स्पष्ट रूप से अलग अलग करने के दो आवश्यक सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है।

पहला सिद्धांत-दो सतहों के बीच अंतराल में कतरने का है, जिसमें अंतराल के आकार, दोनों सतहों के खुरदरेपन और क्रिया की गति को वांछित उद्देश्यों के अनुरूप बदला जा सकता है। यह उद्देश्य छिलका फाड़ना, छिलका कतरना, मोटा परिष्करण या बढ़िया परिष्करण, कुछ भी हो सकता है। दूसरा सिद्धांत-भार, आकार, प्रकार और प्रचुर विशिष्टताओं में अंतर के आधार पर घटकों का अलगाव जिसके लिए भार-पतन, छानना, हवा के बहाव और कंपन की क्रियाए काम में लाई जाती हैं। सामान्यतया ये क्रियाएं एक निरंतर क्रम में आगे बढ़ती हैं। छोटी क्षमता वाली आधुनिक चावल मिलें (चक्कियां) जो भारत भर में बिखरे हुए कामकाज के लिए अनुकूल हैं, अब देश में ही बनाई जाती हैं और जिनमें निम्नांकित इकाइयां इस क्रम में होती हैं :-(क) पूर्वमार्जक, पहले अवरोधों की एक श्रृंखला और फिर एक छलनी; (ख) छिलका उतारने के लिए रबर का रोल शैलर; (ग) छिलके और भूरे चावल को अलग करने वाला पृथककारी; (घ) भूसी उतारने का यंत्र-हलर; (ङ) अवरोधकों और हवा के द्वार खींचने वाले यंत्र सहित भूसी और चावल के लिए पृथककारी और (च) छलनी, जो मोटी भूसी से महीन भूसी को अलग करती है। इस प्रकार चावल के दाने का हर भाग अलग से एकत्रित कर लिया जाता है।

उसनना

धान से चावल प्राप्त करने की एक और तकनीक उसनना है, जिसमें कुछ दिनों के लिए धान को ठंडे पानी में भिगोया जाता है और फिर पानी को तब तक उबाला जाता है, जब तक कि दाना नरम न हो जाए, बाद में फिर दानों को सूखने के लिए फैला दिया जाता है। इस उपचार से छिलका आसानी से उतारने लायक हो जाता है, दाना कम भुरभुरा और अधिक लचीला हो जाता है। और मांड (स्टार्च) के श्लेषीकरण के द्वारा चावल के दाने का बाहरी भाग अधिक मजबूत हो जाता है। इस प्रक्रिया के फल स्वरूप बाद में धान को चक्की में डालने पर साबुत चावल का अधिक संशोधित उत्पादन प्राप्त होता है। भारत में उपजाया गया लगभग आधा चावल उसनाया जाता है और आज उसनना व्यावसायिक और उन्नत हो गया है। सीमेंट के बने द्रोणों में एक से तीन दिनों तक धान को भिगोए रखने की व्यवसायिक विधि निश्चय ही घरेलू तकनीक का उन्नत रूप है, जिसके बाद नकली छेददार पेंदे वाले धातु के बर्तनों में 10 मिनट तक उबाला जाता है, जिन पर चावल रखा होता है, जबकि उसके नीचे पानी उबलता है। व्यापक स्तर पर प्रयोग में लाई जानेवाली एक अन्य विधि में पहले एक या दो मिनट भाप दी जाती है, फिर ठंड़े पानी में एक या दो दिन भिगोया जाता है, फिर पानी निथारकर कुछ मिनटों तक भाप दी जाती है और उसके बाद फर्श पर फैलाकर उसनाया हुआ चावल सुखा लिया जाता है। भिगोया हुआ चावल गर्म रेत पर भून कर भी प्राप्त किया जा सकता है। ये सारी प्रक्रियाएं धीमी हैं, इनमें कई दिन लग जाते हैं और उसनाए हुए चावल में सूक्ष्म जैविक क्रिया द्वारा खमीर उठने के फलस्वरूप एक खराब गंध आ सकती है। गीले खाद्य पदार्थों पर बढ़ने वाली कुछ विशेष प्रकार की फफूंदी यदि विकसित हो जाए, तो जहरीले माइकोटॉक्सिन (जिनमें से एफ्लेटॉक्सिन प्रंसिद्ध है) भी फैल सकते हैं। नई व्यावसायिक उसनाने की तकनीक, प्रक्रिया को छोटा कर देती है, जिसमें गर्म पानी में केवल कुछ घंटों के लिए भिगोया जाता है और फिर सुखा लिया जाता है। इससे गंध और जैव विषाक्तता दोनों का निराकरण हो जाता है, जबकि सतह के लचीलेपन का वांछित फल प्राप्त होता है।

चावल संसाधन उद्योग

भारत में हर वर्ष 520 लाख टन धान का उत्पादन होता है जो छोटी और बड़ी अनेक इकाइयों द्वारा संसाधित किया जाता है। पूरे देश भर में कोई 73,000 एकल हलर (चावल का छिलका उतारने वाले यंत्र), 2500 दोहरा हलर, 8000 हलर-शैलर (छिलका उतारने और भूसी अलग करने वाले यंत्र), 3800 शैलर और 5000 आधुनिक चावल मिलें हैं। इसमें से आधुनिक चावल मिलें पिछले दशक में हुई अपेक्षाकृत नई प्रगति है। हलर यंत्रों के स्थान पर हलर-शैलर यंत्र लगाने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन द्वारा बढ़ावा देने का सरकार द्वारा सुविचारित प्रयत्न किया जा रहा है, जिससे चावल का अधिक उत्पादन मिलता है। व्यवसायिक रूप से उसनाने के कार्य में आधुनिक उपकरणों के उपयोग से ऐसा उत्पादन मिलने लगा है जो पूरी तरह गंध-मुक्त है, और, जैसा कि हम देखते हैं उत्कृष्ठ पोषक महत्व से युक्त है। उसनाने की प्रक्रिया लंबी कर दिए जाने पर चावल सुनहरा रंग ग्रहण कर लेता है, जो सेला कहलाता है। यद्यपि पकाने में इसका यह रंग गायब हो जाता है, फिर भी पूर्वी भारत में इसकी विशेष मांग है। इस पसंद का संबंध उस पीले से क्रीम रंग से जोड़ा जा सकता है, जो चावल परिपक्व (पुराना) होने पर ग्रहण कर लेता है, जिसके कम से कम तीन कारण पाए गए हैं। एक तो प्रोटीनों और शर्कराओं के बीच होने वाली प्रतिक्रिया है जो कि सामान्य रूप से अनेक भोज्य पदार्थों में होती है और एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक के नाम पर माययार्ड प्रतिक्रिया कहलाती है। यह अवांछनीय भी हो सकती है, जैसी दुग्ध उत्पादनों में, जिनमें पोषक तत्व कम हो जाते हैं या फिर ऐसी भी हो सकती है जो भुनी हुई कॉफी, ताजा ब्रेड या गरम चपाती की क्षुधावर्धक गंद को बढ़ाती है। मायवार्ड या ब्राउनिंग प्रतिक्रिया को हम इसी अध्याय के अंतर्गत आगे चपाती के बारे में चर्चा करते हुए अधिक गहराई से देखेंगे। चावल के पीले पड़ने का दूसरा कारण पोलीफेनोल कहलाने वाले घटकों के साथ होनेवाली किण्वकीय ऑक्सीकरण प्रतिक्रिया भी हो सकती है। यह अनेक खाद्य-उत्पादनों में पाई जाती है और रंग को गहरा करने की क्रिया को तेज कर देती है। इसका एक बहुज्ञात उदाहरण है, सेब या नाशपाती के कटे हुए टुकड़ों को हवा में खुला रखने पर बहुत तेजी से उनके रंग का गहरा पड़ जाना। पीले पड़ जाने का तीसरा कारण चावल की सतह पर लगी फफूंद के कारण पैदा हुए वे पीले उत्पाद हैं जो माइकोटॉक्सिन कहलाते हैं, जिनमें से कुछ तो मनुष्यों और जानवरों के लिए भी विषाक्त होते हैं।

खील-मुरमुरा और चिउड़ा

धान और चावल दोनों फुलाए जाते हैं। धान को फुलाने पर जो उत्पाद मिलता है उसे खील कहते हैं और उसे पीसकर प्राप्त किया गया आटा सत्तू कहलाता है, फिर भी चावल को फुलाकर प्राप्त किए गए उत्पाद मुड़ी या मुरमुरा बनाने की क्रिया की अपेक्षा यह छोटी प्रक्रिया है। फुलाने के लिए उसना चावल ज्यादा पसंद किया जाता है। आग के ऊपर कढ़ाई में गर्म रेत में मुट्ठी से चावल डाला जाता है। धातु के करछुले से रेत को उलटा पलटा जाता है, और जैसे ही चावल फूलने और फूटने लगता है, कढ़ाई की पूरी सामग्री एक छलनी में उलट दी जाती है। फूला हुआ चावल यानी मुरमुरा छलनी में एकत्रित कर लिया जाता है और गर्म रेत को फिर से उपयोग में लाने के लिए वापस कढ़ाई में डाल दिया जात है। नमक मिले पानी में भिगोया गया चावल पूर्वी भारत में भूनने के लिए ज्यादा पसंद किया जाता है। व्यावसायिक इकाइयों में भूनने के लिए बेलनाकार बर्तनों का उपयोग किया जाता है, जिनके द्वारा चावल गर्म रेत में से गुजरता है और छनकर वापस बेलनाकार बर्तन में आ जाता है। उपभोक्ता फुलाए हुए चावल से सफेद, चमकते हुए मोटे दानों की अपेक्षा करता है।
चपटा किया हुआ चावल यानी चिउड़ा या अवल पतला, कागजी भुरभुरा और आकार तथा रंग में यथा संभव चौड़ा और सफेद होना चाहिए। धान को नरम होने तक दो या तीन दिन भिगोकर रखा जाता है और फिर उसी पानी को कुछ मिनट के लिए उबालकर ठंड़ा कर लिया जाता है। फिर उन फूले हुए दानों को कुछ मिनट के लिए उबालकर ठंडा कर लिया जाता है। फिर उन फूले हुए दानों को लोहे या मिट्टी के अवतल पात्र में रखकर तब तक तेज आंच पर चढा़ए रखते हैं जब तक कि दाने फूट न जाएं। इसके बाद दानों को चपटा करने और छिलका अलग करने के लिए मूसल से कूटा जाता है, जिसे बाद में फटकर अलग अलग कर दिया जाता है।

चावल और उसके उत्पादों में पोषक तत्व

तालिका 1.1 के प्रथमार्थ में भूरे चावल (जिस पर अभी भूसी या चोकर चिपका हुआ है) परिष्कृत चावल, हाथ में कुटे चावल और उसना चावल में विद्यमान विभिन्न स्थूल पोषक तत्व दर्शाए गए हैं। परिष्कृत चावल में, उसका चोकर और छोटा-सा बीजांकुर नहीं रहता और चूंकि ये प्रोटीन, वसा, भस्म (जो कि अजैव खनिज घटकों का एक मापदंड़ है) और रेशा (खुरदरी अपाच्य सामग्री) से संपन्न होते हैं, इसलिए ये घटक कम हो जाते हैं। हाथ कुटा चावल, जिसके चोकर का एक बड़ा भाग उसके साथ बचा रहता है, संरचना में भूरे चावल के समान होता है। चूंकि चावल के इन सभी प्रकारों में मांड, प्रोटीन और पानी सापेक्षित अनुपात में 95 से 99 प्रतिशत हैं, इसलिए उनका उष्माजनक (कैलोरीफिक) परिमाण लगभग 350 के समान है।

तालिका -1.1
क. चावल के विभिन्न प्रकारों के मुख्य घटक

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
भूरा चावल परिष्कृत चावल सफेद हाथ कुटा चावल उसना चावल
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

सारी संख्याएं प्रतिशत में

मांड 77.1 80.9 78.1 78.0
प्रोटीन 7.5 7.1 7.7 7.0
वसा 2.4 0.4 1.5 0.8
भस्म 1.2 0.5 0.8 0.5
रेशा 0.9 0.1 0.9 0.1
नमी 10.9 11.0 11.0 13.6

ख. चावल के विभिन्न प्रकारों में विटामिनों और खनिजों का अवधारण

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
भूरा चावल परिष्कृत चावल हाथ कुटा चावल उसना चावल
मात्रा प्रतिशत
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
माइक्रोग्राम भूरे चावल में मात्रा प्रतिशत के अनुसार
थायमाइन 320 100 15 66 72
रिबोफ्लेविन 56 100 35 87 66
नायसिन 4600 100 37 85 83
फॉलिक एसिड 36 100 22 60 30
मिलीग्राम
कैल्शियम 40 100 25 65 95
आयरन (लोहा) 2 100 155 145 133

नोट: 1 ग्राम = 1000 मिलीग्राम (मि.ग्रा.)
1 मि.ग्रा. = 1000 माइक्रोग्राम (मा.ग्रा.)

अंतर विटामिनों और खनिजों में है क्योंकि यही मुख्य रूप से भूसी (चोकर) और बीजांकुर में विद्यमान हैं जो कि धान से चावल प्राप्त करने की प्रक्रिया में नष्ट हो जाते हैं। तालिका के द्वितीयार्थ में इन्हीं सूक्ष्म-पोषकों के प्रतिशत दिखाए गए हैं, जो विभिन्न विधियों से चावल को संसाधित करने के बाद रह जाते हैं। पालिश किया गया चावल सबसे खराब है, पालिश करने की प्रक्रिया के बाद विटामिनों का केवल लगभग एक-तिहाई और कैल्शियम का आधा भाग ही रह जाता है। लोहे की मात्रा के आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं, क्योंकि चावल संसाधिक करने में प्रयुक्त लोहे की मशीन भी उत्पाद में धात्वीय लोहा छोड़ेगी, किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसे रूप में नहीं होता कि जब चावल पका कर खाया जाए, तो शरीर उसे शोक सके और काम में ला सके। हाथ से कुटे चावल में लगभग तीन-चौथाई विटामिन और कैल्शियम रह जाता है और इसी के आधार पर इसके उपयोग की सलाह दी जाती है। थायमाइन या विटामिन बी-1 का विशेष महत्त्व है। हमारे भोजन में इसकी कमी से बेरी-बेरी नाम की बीमारी हो सकती है जो दो प्रकार की होती है।

सूखी बेरी-बेरी में, भूख कम लगती है, हाथों और पैरों में झुनझुनी और जड़ता आने लगती है और पांवों में निर्बलता आ जाती है। गीली बेरी-बेरी की पहचान है जलोदर रोग, धड़कन का बढ़ जाना, सांस का फूलना और हृदय की धमनियों का निर्भल होना, जिससे हृदय-गति तक रुक सकती है। भारत के उन भागों में जहां हाथ से कुटा या उसना चावल और चक्की में संसाधित किया चावल खाया जाता है, बेरी-बेरी रोग नहीं होता, परन्तु जहां पालिश किया गया चावल मुख्य भोजन है, वहां यह रोग होता है। हाथ-कुटा चावल, यद्यपि जब ताजा होता है तो स्वादु होता है, फिर भी पकने पर पूरी तरह सफेद नहीं होता और भंडारण में जल्दी ही बिसांधा (बदबूदार) हो जाने के कारण लोकप्रियता खो रहा है। उसनने के बाद चाहे मशीन से या चाहे हाथ से कुटाई करके संसाधित किए गए चावल के अनेक गुण हैं। उसने की प्रक्रिया के दौरान, सतह पर विद्यमान पोषक तत्व दाने के पुंज के भीतर तक चले जाते हैं, और उससे चावल की सतह पर श्लेषित मांड की एक परत जम जाती है और इसे उबालने के दौरान पोषक तत्व धुलकर बह जाने से रुक जाते हैं। वास्तव में, यदि पकाए गए चावलों के नमूनों का विश्लेषण किया जाए तो विभिन्न प्रकार के चावलों के पोषक तत्वों में अंतर और बढ़ जाएंगे। व्यावसायिक उसनने की आधुनिक विधियों से अत्यंत स्वादिष्ट और सुदर्शन उत्पाद मिलता है, जिसे पकाने पर दाने आपस में चिपकते भी नहीं हैं। भंडारित उसना चावल कीड़ों और फफूंद के आक्रमण का प्रतिरोध भी दूसरे प्रकार के चावलों की अपेक्षा अच्छा करता है। ऐसा लगता है कि ऐसे चावल का उपयोग करने में अधिक लाभ हैं।

मुड़ी या मुरमुरा और चिउड़ा, दोनों पर्याप्त कठोर संसाधन से गुजरते हैं, इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि उनके पोषकों के, विशेष रूप से विटामिनों और खनिजों के स्तर को क्षति पहुंचती है। दोनों उत्पादों में से लगभग आधा थायमिन नष्ट हो जाता है, और रिबोफ्लेविन, फुलाए गए उत्पादों में विशेष रूप से, सारा का सारा नष्ट हो जाता है। नायसिन और कैल्शियम भी, पर्याप्त बचा रहता है।

भारत में उपयोग के पूर्व कंकर-पत्थर, कचरा, चिपका हुआ पाउडर और एरंड का तेल, जो सुरक्षित भंडारण के लिए कभी कभी छिड़क दिया जाता है, को हटाने के लिए चावल धो लेने की प्रथा है। इससे भी-विटामिनों का भी एक बड़ा भाग धुलकर निकल जाता है। चावल बीनकर और एक सूखे कपड़े से उसे रगड़कर साफ कर लेना एक अच्छा विकल्प है। विशेष रूप से दक्षिण भारत में उबालने के लिए थोड़े अतिरिक्त पानी का उपयोग करने और फिर पक जाने पर उस पानी को निकाल देने की प्रथा से भी मूल्यवान पोषक तत्व धुलकर बह जाते हैं। चावल जितना पानी सोख सकता है, केवल उतने ही पानी का उपयोग करके इससे बचा जा सकता है। उसना चावल के मामले में यह प्रथा सरल है, यद्यपि इसे धोने से धुलकर बह जाने वाली कोई हानि नहीं होती।

दुनिया भर में चावल को अतिरिक्त पोषक तत्वों से पुष्ट करने के प्रयत्न किए गए हैं, किंतु ये विशेष सफल नहीं हो पाए हैं। एक विधि तो यह है कि चावल की छोटी मात्रा को आवश्यक पोषकों से पर्याप्त पुष्ट कर दिया जाए और पकाने के पूर्व दो किलो सामान्य चावल में ऐसे 10 ग्राम चावल मिला दिए जाएं। दूसरी विधि में, सारे चावल को पोषकों की वांछित मात्रा से संसिक्त कर दिया जाए, फिर उसे किसी हानिरहित परत से या उसनने जैसे सतह के श्लेषीकरण के किसी तरीके से पक्का कर दिया जाए। भारत की चावल फसल के आकार, उसके विकेन्द्रित और अधिकतर लघु स्तर पर संसाधन के कारण ऐसी पुष्टिकरण प्रक्रिया की सफलता की संभावना अच्छी नहीं है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book