विविध >> बिन शिक्षा उद्धार नहीं बिन शिक्षा उद्धार नहींओम प्रकाश
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नवसाक्षरों के लिए उपयोगी पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरी बात
कहते हैं ज्ञानहीन व्यक्ति पशु के समान होता है और शिक्षा के बिना
ज्ञान-प्राप्ति का अन्य कोई उपाय नहीं। शिक्षा के बगैर ग्रामीण लोगों को
कदम-कदम पर कई मुश्किलों का सामना तो करना ही पड़ता है, अशिक्षित लोगों के
आश्रितों को भी एक अभिशप्त जीवन जीना पड़ता है। अशिक्षित व्यक्ति ही समाज
में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों का शिकार होकर न सिर्फ अपनी
दुर्दशा कराता है, बल्कि धूर्तों और धोखेबाजों के चक्कर में सहज में फँसकर
अपने को कंगाल भी बनाता है। इन्हीं सब वास्तविकताओं को चित्रित कर उसके
समाधान का मार्ग सुझाया गया है एक रोचक कथा के माध्यम से इस पुस्तक में।
बिन शिक्षा उद्धार नहीं
शंकर ने ज्योंही गेट के अंदर जाने की कोशिश की, गेट पर बैठे दरबान ने उसे
टोक दिया, ‘‘ऐ-ऐ, अंदर कहाँ जाता है
?’’
पहले से ही सहमा हुआ शंकर और सिकुड़ गया। थूक निगलने के बाद उसके मुँह से एक मरी-सी आवाज निकली, ‘‘मिलना है।’’
हाथ में खैनी को फटकारकर चुटकी से होंठों के नीचे दबाते हुए दरबान ने आवाज में जरा रोब का पुट ज्यादा किया, ‘‘अबे किससे मिलना है ?’’
शंकर का ठेठ गँवारू पहनावा देखकर ही शायद वह ‘अबे’ जोड़ बैठा था।
‘‘साहब से।’’ बड़ी मुश्किल से कह पाया शंकर।
‘‘तो मैं यहाँ काहे के लिए बैठा हूँ ?’’
अब शंकर ने जरा अचरज से पूछा, ‘‘आप साहब हो क्या ?’’
‘‘अरे, साहब तो नहीं हूँ; पर यहाँ कोई भी आए और तुम्हारी तरह मुँह उठाए अंदर चला जाए तो मेरे यहाँ बैठने का क्या मतलब ? कंपनी वालों ने फिर मुझे यहाँ तनखा देकर क्यों बैठा रखा है ?’’
शंकर ने दरबान का ही प्रश्न दोहरा दिया, ‘‘क्यों बैठा रखा है ?’’
‘‘इसलिए, ताकि मैं हर आने-जाने वाले पर नजर रखूँ। आने वाले से यह पता करूँ कि वह किस काम से अंदर जा रहा है।’’ फिर शायद रुतबा बुलंद करने की ही गरज से दरबान ने अपने घुटने पर पड़ी टोपी अपने सिर पर लगा ली और बोला, ‘‘हाँ, अब ये बताओ तुम्हें किस साहब से मिलना है ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’ शंकर कुछ समझ नहीं पाया।
‘‘मतलब यह कि यहाँ एक साहब तो हैं नहीं, बहुत-से हैं। तो तुम बताओ कि तुम्हें किससे मिलना है ?’’
‘‘कोई भी साहब हो, चलेगा।’’
‘‘कोई भी साहब हो चलेगा !’’ शंकर की ही बात दोहरा, अजीब-सी मुद्रा बना दरबान ने मुँह बिचकाकर कंधे उचकाए और पूछा, ‘‘काम क्या है ?’’
‘‘काम नहीं है।’’
‘‘काम नहीं है तो क्यों मिलना चाहता है ?’’
‘‘मेरा मतलब है कि मेरे पास कोई काम नहीं है।’’ शंकर ने बात साफ की।
‘‘ओह, फालतू है !’’
‘‘जी !’’ गँवार शंकर कुछ उसकी ओर झुक गया।
‘‘मेरा मतलब है, बेकार। बेकार समझता है ?’’
‘‘हाँ, समझता हूँ। जिसके पास कोई काम नहीं होता, लोग उसे बेकार कहते हैं। यही मतलब है न ?’’
‘‘हाँ, यही मतलब है।’’ कहकर दरबान पैंतरा बदलकर यूँ बैठ गया, मानो वही साहब हो और किसी उम्मीदवार का इंटरव्यू ले रहा हो, ‘‘कहाँ तक पढ़ा है ?’’
‘‘पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ।’’
‘‘अँगूठा छाप है ! कोई हुनर जानता है ?’’
‘‘कैसा हुनर ?’’
‘‘अरे, हुनर नहीं जानता ? जैसे वेल्डिंग, बाइंडिंग, ग्रिंडिंग वगैरह-वगैरह।’’
अंग्रेजी के आड़े-टेढ़े नामों को सुनकर शंकर ने अपनी अल्पबुद्धि से इतना तो जान ही लिया कि जितना कठिन उनका उच्चारण है, उतना ही कठिन वह हुनर होगा। बोला, ‘‘नहीं जानता। लेकिन मैं जो देंगे, कोई भी काम कर लूँगा।’’
‘‘कोई भी काम बिना जाने कैसे कर लेगा ?’’ शंकर को लगभग गिड़गिड़ाते देख दरबान ने अपना साहबी रुतबा बढ़ाया, ‘‘मैं कहूँगा कि जाकर उस मोटर को चला, चला लेगा ?’’
शंकर ने इनकारी में सिर हिलाकर कहा, ‘‘पर दफ्तर में और भी तो कई काम होते हैं।’’
दरबान ने ठहाका लगाया और कहा, ‘अबे, अँगूठा छाप होकर दफ्तर में काम करने की बात करता है ? भाई, ये दिल्ली है, यहाँ तो जेब काटने के लिए भी हुनर चाहिए।’’
शंकर अब एकदम ही दयनीय स्वर में बोला, ‘‘भाई, मैं मुसीबत का मारा हूँ, मुझ पर तरस खाकर कोई काम दिलवा दो। मैं गाँव से आया हूँ।’’
‘‘वह तो मैं तुझे देखकर ही समझ गया था कि तू गाँव से आया है। तुम गाँव के लोग आखिर सोचते क्या हो कि शहर में नौकरी पड़ी मिलती है ? बस, मुँह उठाया और चले आए शहर। तुम गाँव वालों ने ही दिल्ली में बेजा भीड़ मचा रखी है।’’
‘‘क्या इस शहर में बेपढ़ा कोई नहीं ?’’
‘‘हैं क्यों नहीं ! हजारों क्या, लाखों हैं।’’
शंकर ने पूछा, ‘‘तो वो क्या करते हैं ?’’
‘‘रिक्शा चलाते हैं, कुलीगिरी करते हैं, चोरी करते हैं, नशीले पदार्थ बेचते हैं, पुलिस से चोरी-छिपे।’’ कहकर दरबान ने शंकर का सिर से पैर तक अच्छी तरह निरीक्षण किया और फिर बोला, ‘‘तुम्हारी शक्लो-सूरत और हुलिए से तो ऐसा लगता नहीं कि पुलिस से निपटने का दम-गुर्दा तुममें है, इसलिए चोरी करने और नशीले पदार्थ बेचने के लिए तुम अनफिट हो। अब ये बताओ, पैसे कितने हैं तुम्हारे पास ?’’
‘‘मैं बहुत गरीब हूँ भाई। बड़ी मुश्किल से किराए-भाड़े और एक-दो रोज के खाने-पीने की रकम जुटाकर काम की उम्मीद से यहाँ आया हूँ।’’
‘‘तो फिर रिक्शा चलाने और कुलीगिरी करने के लिए भी अनफिट, क्योंकि इसमें लाइसेंस बनवाने के लिए ही हजारों लग जाते हैं।’’
‘‘रिक्शा क्या, मैं तो साइकिल चलाना भी नहीं जानता।’’ शंकर ने सच्चाई बताई।
सहसा दरबान एकदम से भड़ककर बोला, ‘‘अबे, जब कुछ नहीं जानता तो मेरा भेजा क्यों चाट रहा है ! चल फूट यहाँ से। गाड़ी पकड़ और सीधे अपने गाँव जा।’’
‘‘बाप ने बड़ी उम्मीद से यहाँ भेजा है।’’ शंकर रुआँसा होकर बोला, ‘‘गाँव जाकर मैं कौन-सा अपना मुँह उन्हें दिखाऊँगा ?’’
‘‘मुँह नहीं दिखाना चाहता तो किसी रेल के नीचे कूदकर अपनी जान दे दे, पर अब दफा हो यहाँ से नहीं तो मुझे गुस्सा आ रहा है।’’ ताव में आकर दरबान ने पास में रखी अपनी छोटी-सी लठिया को उठाकर हवा में जो लहराया तो शंकर सहम कर गेट से निकल फुटपाथ पर आ गया। गर्दन लटकाए वह मरी-सी चाल से चल पड़ा।
दरबान उसी की ओर देखता रहा। अभी शंकर पाँच-छह कदम ही जा पाया होगा कि दरबान ने उसे पीछे से पुकारा, ‘‘अरे सुनना रे !’’
शंकर ने वापस मुड़कर दरबान की ओर देखा। दरबान ने हाथ के इशारे से अपने पास बुलाया। नई आशा और नए उत्साह से भरकर शंकर सामने जा खड़ा हो गया।
‘‘देख, तेरे लायक मुझे एक काम और याद आ गया। मोरी गेट देखा है ?’’
शंकर ने इनकारी में सिर हिला दिया। दरबान की मुख-मुद्रा ऐसी हुई मानो वह कोई भद्दी-सी गाली देने जा रहा हो, परंतु फिर जाने क्या सोचकर अपने स्वर को सामान्य बनाते हुए उसने कहा, ‘‘यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है, पूछता-पाछता वहाँ पहुँच जाएगा। वहाँ कई ट्रांसपोर्ट कंपनियाँ हैं। रोज सैकड़ों ट्रक वहाँ आते हैं, जाते हैं। उनमें माल लादने-उतारने का काम तुझे मिल जाएगा। अगर मेहनत से काम करेगा तो दिन में सौ रुपए तक मिल सकते हैं।’’
‘‘एक दिन में सौ रुपए !’’ शंकर के स्वर में हर्षमिश्रित आश्चर्य था, ‘‘मैं बहुत मेहनत करूँगा भैया ! हाँ, कौन-सी कंपनी आपने बताई थी ?’’
‘‘अरे, माल ढुलाई के ट्रक जहाँ आते-जाते हैं, उसकी कंपनियाँ। तू वहाँ पहुँचेगा तो तुझे अपने-आप दिख जाएगा। मोरी गेट याद रहेगा न ?’’
‘हाँ, अब याद रहेगा।’’ कहकर शंकर ने हाथ जोड़कर दरबान को नमस्कार किया और मुड़कर चल पड़ा। अब उसके कदम नई उमंग व उत्साह से तेजी से उठ रहे थे।
विकास और समृद्धि की दौड़ में पिछला हुआ-सा भारत का एक औसत-सा गाँव—वनहर। पिछले दो साल में आबादी बढ़ने के साथ विकास के कुछ कार्य हुए हैं। इस कुछ को केवल एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना और पंचायत के गठन के दायरे में ही बाँधा जा सकता है। बाकी सब वैसा ही है, जैसा पहले था। जैसे—डाकिया अब भी तीन दिनों में यहाँ आता है, किसी को सिर का दर्द भी हो जाए तो उसकी एक टिकिया के लिए पाँच मील दूर दूसरे गाँव में स्थापित चिकित्सा केंद्र की दौड़ लगानी पड़े।
गाँव में अधिकाँश लोग खेती-किसानी करते हैं, एक-दो घर की लुहारी के पेशे से जुड़े हैं तो चार-छह घर हरिजनों के भी हैं। पंचायत पर कब्जा मुख्यतः संपन्न किसानों और उन साहूकारों का है जो गाँव के किसानों को वक्त जरूरत सूद पर रुपया देते हैं।
बस्ती में और सामान्य किसानों की तरह एक किसान है—माधो। उस दिन माधो अपने घर के सामने बिछी खाट पर परेशान हाल में बैठा था कि सामने से गंगू गुजरा। गंगू भी उसके गाँव का उसी की तरह एक मामूली किसान है।
‘‘क्या बात है माधो ?’’ गंगू ने पूछा, ‘‘कुछ परेशान नजर आ रहे हो !’’
‘‘आ भई गंगू, बैठ। हाँ, भई इस चिट्ठी को लेकर परेशान हूँ। कल ही आई है। सोच रहा हूँ, किसके पास जाऊँ उसे बँचवाने।’’
‘‘इसमें परेशान होने की क्या बात है ! मैं भी चिट्ठी बँचवाने ही जा रहा हूँ।’
‘‘ऐं ! किसके पास ?’’
‘‘पाठशाला के मास्टर के पास।’’
‘‘याद है, एक बार दो-तीन लोग मास्टर के पास चिट्टी बँचवाने गए थे तो मास्टर ने उन्हें दुत्कार कर भगा दिया था। कहा था—मैं यहाँ मास्टरी करने आया हूँ या तुम्हारी चिट्ठी बाँचने ? क्या सरकार मुझे चिट्ठी बाँचने की तनखा देती है ?’’
‘हाँ, हाँ, मुझे अच्छी तरह याद है।’’
‘‘और फिर भी तू उनकी दुत्कार-फटकार सुनने उनके पास जा रहा है ? न भई न, मुझे अपनी बेइज्जती नहीं करवानी है।’’
‘‘अरे भाई, दुत्कारने-फटकारने वाला वह बुड्ढा चश्माधारी कब का यहाँ से चला गया। अब तो नौजवान नया मास्टर आया है।’’ गंगू ने जानकारी दी, ‘‘फिर आज छुट्टी का दिन है।’’
‘‘छुट्टी का दिन है ? तब तो और भी मुश्किल है।’’
‘‘अब क्या मुश्किल है ?’’
‘‘और दिन तो स्कूल के मास्टर स्कूल में मिल जाते हैं, लेकिन छुट्टी के दिन हम उसे कहाँ ढूँढ़ते फिरेंगे ?’’ माधो ने समस्या बताई।
‘‘अरे, अपना गाँव कोई बड़ा शहर तो है नहीं, जो एक इंसान को न ढूँढ़ सकें। फिर मैं उसका घर जानता हूँ। मंदिर वाली बगिया की एक कोठरी में रहता है।’’
‘‘ऐसी बात है ! तब चल भई, मैं भी चलता हूँ।’’
माधो गंगू के साथ हो लिया। दोनों मंदिर वाली बगिया की ओर चल पड़े।
सरकार ने गाँवों की साक्षरता बढ़ाने की दृष्टि से एक नई योजना लागू की है। इसके तहत प्राथमिक शाला में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाने वाले हर उम्मीदवार को यह अनुबंध करना पड़ता है कि अपनी नियुक्ति के प्रथम वर्ष तक गाँवों की पाठशालाओं में अध्यापन करेंगे। ऐसी ही नियुक्ति पाकर युवा शिक्षक प्रभात वनहर आया है। सौम्य, शालीन और मृदुभाषी प्रभात।
गाँव के सरपंच रतनसिंह ने सरकारी हुक्म के तहत उसे रहने के लिए मंदिर की बगिया में स्थित यह कोठरी दिलाई है।
सुबह-सुबह अपनी कोठरी के दरवाजे पर सर्वथा अपरिचित दो अधेड़ वय के ग्रामीणों को देख प्रभात मुसकराकर उनका स्वागत किया। हाथ जोड़कर विनम्रता से बोला वह, ‘‘नमस्कार।’
‘‘तुम ही गाँव के स्कूल के नए मास्टर हो ?’’ माधो ने पूछा।
‘‘हाँ। आइए, अंदर बैठिए।’’
प्रभात के आग्रह पर दोनों अंदर गए और वहाँ बिछी खाट पर बैठ गए।
‘‘कहिए, कैसे कष्ट किया ?’’ प्रभात ने पूछा।
‘‘हमने तो कोई कष्ट नहीं किया मास्टर !’ गंगू ने हँसकर कहा, ‘‘हम तो उलटे आपको कष्ट देने आए हैं।’’
‘‘कष्ट कैसा ? आप लोगों का कोई छोटा-मोटा काम होगा, इसलिए मेरे पास आ गए।’’ प्रभात ने मुसकराकर ही कहा, ‘‘मैं तो आया ही हूँ आप लोगों की सेवा करने।’’
माधो ने पूछा, ‘‘यानी स्कूल में पढ़ाने नहीं ?’’
‘‘स्कूल में बच्चों को तो पढ़ाऊंगा ही, लेकिन गांव में रहने के दौरान आप लोगों की कोई सेवा बन जाए तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।’’
गंगू ने अपने लट्ठे के मैले कुर्ते की जेब में से एक मुड़ी हुई चिट्ठी निकाली और उसे प्रभात की ओर बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘यह चिट्ठी कल ही आई है मास्टर जी ! इसे जरा बाँच दीजिए।’’
‘‘ओह, इतनी-सी बात !’’ चिठ्ठी हाथ में ले उसे खोलते हुए प्रभात ने कहा।
प्रभात ने चिट्ठी खोलकर पढ़ी। फिर गंभीरता से उसने पूछा, ‘‘अब बताइए, किसना किसका नाम है ?’’
‘‘मेरे बेटे का।’’ गंगू बोला।
‘‘और कमला ?’’
‘‘किसना की घरवाली, यानी मेरी बहू।’’
‘‘आप तो बुजुर्ग हैं। पति-पत्नी में कैसा रिश्ता है, यह तो आप अच्छी तरह जानते हैं !’’
‘‘जानता नहीं तो क्या पाँच बच्चे ऐसे ही पैदा कर लेता ?’’ गंगू हँसकर बोला।
‘‘तो आप भी यह अंदाजा लगा सकते हैं कि पति अपनी पत्नी को चिट्ठी में क्या लिख सकता है !’’
‘‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं लगा सकता।’’
‘‘अब किसना यानी आपके बेटे ने अपनी घरवाली यानी आपकी बहू के लिए यह चिट्ठी लिखी है। चिट्ठी में उसने जो भी लिखा है, अगर मैं आपको पढ़कर सुना दूँ तो क्या आप वह सब कुछ अपनी बहू को जाकर सुना सकेंगे ?’’
सिर झुकाए निरुत्तर सोचता रह गया गंगू।
‘‘यहाँ से कितनी दूर रहते हैं आप ?’’ पूछा प्रभात ने।
‘‘अजी मास्टरजी छोटा-सा गाँव। इसमें भला क्या दूर और क्या पास !’’
‘‘तो आप अपनी बहू को जाकर बुला लाइए। यह चिट्ठी मैं उसे ही पढ़कर सुनाऊँगा।’’
‘‘हाँ, यह बात तुमने ठीक कहीं।’’ गंगू उठकर बाहर की ओर जाता हुआ, ‘‘मैं अभी उसे साथ लेकर आता हूँ।’’
गंगू बाहर गया ही था कि माधो ने अपनी चिट्ठी सामने रख दी। बोला, ‘‘जरा इसे बाँच दो मास्टर जी।’’
‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं। प्रभात चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा। पूरी चिट्ठी पढ़ ली तो उसने माधो से पूछा, ‘‘शंकर तुम्हारा बेटा है शायद, जो काम करने शहर गया है। हैं न ?’’
‘‘हाँ-हाँ।’’ उत्साहित होकर माधो बोला, ‘‘उसी की चिट्ठी हैं न मास्टर जी ? क्या उसे काम मिल गया ?’’
पहले से ही सहमा हुआ शंकर और सिकुड़ गया। थूक निगलने के बाद उसके मुँह से एक मरी-सी आवाज निकली, ‘‘मिलना है।’’
हाथ में खैनी को फटकारकर चुटकी से होंठों के नीचे दबाते हुए दरबान ने आवाज में जरा रोब का पुट ज्यादा किया, ‘‘अबे किससे मिलना है ?’’
शंकर का ठेठ गँवारू पहनावा देखकर ही शायद वह ‘अबे’ जोड़ बैठा था।
‘‘साहब से।’’ बड़ी मुश्किल से कह पाया शंकर।
‘‘तो मैं यहाँ काहे के लिए बैठा हूँ ?’’
अब शंकर ने जरा अचरज से पूछा, ‘‘आप साहब हो क्या ?’’
‘‘अरे, साहब तो नहीं हूँ; पर यहाँ कोई भी आए और तुम्हारी तरह मुँह उठाए अंदर चला जाए तो मेरे यहाँ बैठने का क्या मतलब ? कंपनी वालों ने फिर मुझे यहाँ तनखा देकर क्यों बैठा रखा है ?’’
शंकर ने दरबान का ही प्रश्न दोहरा दिया, ‘‘क्यों बैठा रखा है ?’’
‘‘इसलिए, ताकि मैं हर आने-जाने वाले पर नजर रखूँ। आने वाले से यह पता करूँ कि वह किस काम से अंदर जा रहा है।’’ फिर शायद रुतबा बुलंद करने की ही गरज से दरबान ने अपने घुटने पर पड़ी टोपी अपने सिर पर लगा ली और बोला, ‘‘हाँ, अब ये बताओ तुम्हें किस साहब से मिलना है ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’ शंकर कुछ समझ नहीं पाया।
‘‘मतलब यह कि यहाँ एक साहब तो हैं नहीं, बहुत-से हैं। तो तुम बताओ कि तुम्हें किससे मिलना है ?’’
‘‘कोई भी साहब हो, चलेगा।’’
‘‘कोई भी साहब हो चलेगा !’’ शंकर की ही बात दोहरा, अजीब-सी मुद्रा बना दरबान ने मुँह बिचकाकर कंधे उचकाए और पूछा, ‘‘काम क्या है ?’’
‘‘काम नहीं है।’’
‘‘काम नहीं है तो क्यों मिलना चाहता है ?’’
‘‘मेरा मतलब है कि मेरे पास कोई काम नहीं है।’’ शंकर ने बात साफ की।
‘‘ओह, फालतू है !’’
‘‘जी !’’ गँवार शंकर कुछ उसकी ओर झुक गया।
‘‘मेरा मतलब है, बेकार। बेकार समझता है ?’’
‘‘हाँ, समझता हूँ। जिसके पास कोई काम नहीं होता, लोग उसे बेकार कहते हैं। यही मतलब है न ?’’
‘‘हाँ, यही मतलब है।’’ कहकर दरबान पैंतरा बदलकर यूँ बैठ गया, मानो वही साहब हो और किसी उम्मीदवार का इंटरव्यू ले रहा हो, ‘‘कहाँ तक पढ़ा है ?’’
‘‘पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ।’’
‘‘अँगूठा छाप है ! कोई हुनर जानता है ?’’
‘‘कैसा हुनर ?’’
‘‘अरे, हुनर नहीं जानता ? जैसे वेल्डिंग, बाइंडिंग, ग्रिंडिंग वगैरह-वगैरह।’’
अंग्रेजी के आड़े-टेढ़े नामों को सुनकर शंकर ने अपनी अल्पबुद्धि से इतना तो जान ही लिया कि जितना कठिन उनका उच्चारण है, उतना ही कठिन वह हुनर होगा। बोला, ‘‘नहीं जानता। लेकिन मैं जो देंगे, कोई भी काम कर लूँगा।’’
‘‘कोई भी काम बिना जाने कैसे कर लेगा ?’’ शंकर को लगभग गिड़गिड़ाते देख दरबान ने अपना साहबी रुतबा बढ़ाया, ‘‘मैं कहूँगा कि जाकर उस मोटर को चला, चला लेगा ?’’
शंकर ने इनकारी में सिर हिलाकर कहा, ‘‘पर दफ्तर में और भी तो कई काम होते हैं।’’
दरबान ने ठहाका लगाया और कहा, ‘अबे, अँगूठा छाप होकर दफ्तर में काम करने की बात करता है ? भाई, ये दिल्ली है, यहाँ तो जेब काटने के लिए भी हुनर चाहिए।’’
शंकर अब एकदम ही दयनीय स्वर में बोला, ‘‘भाई, मैं मुसीबत का मारा हूँ, मुझ पर तरस खाकर कोई काम दिलवा दो। मैं गाँव से आया हूँ।’’
‘‘वह तो मैं तुझे देखकर ही समझ गया था कि तू गाँव से आया है। तुम गाँव के लोग आखिर सोचते क्या हो कि शहर में नौकरी पड़ी मिलती है ? बस, मुँह उठाया और चले आए शहर। तुम गाँव वालों ने ही दिल्ली में बेजा भीड़ मचा रखी है।’’
‘‘क्या इस शहर में बेपढ़ा कोई नहीं ?’’
‘‘हैं क्यों नहीं ! हजारों क्या, लाखों हैं।’’
शंकर ने पूछा, ‘‘तो वो क्या करते हैं ?’’
‘‘रिक्शा चलाते हैं, कुलीगिरी करते हैं, चोरी करते हैं, नशीले पदार्थ बेचते हैं, पुलिस से चोरी-छिपे।’’ कहकर दरबान ने शंकर का सिर से पैर तक अच्छी तरह निरीक्षण किया और फिर बोला, ‘‘तुम्हारी शक्लो-सूरत और हुलिए से तो ऐसा लगता नहीं कि पुलिस से निपटने का दम-गुर्दा तुममें है, इसलिए चोरी करने और नशीले पदार्थ बेचने के लिए तुम अनफिट हो। अब ये बताओ, पैसे कितने हैं तुम्हारे पास ?’’
‘‘मैं बहुत गरीब हूँ भाई। बड़ी मुश्किल से किराए-भाड़े और एक-दो रोज के खाने-पीने की रकम जुटाकर काम की उम्मीद से यहाँ आया हूँ।’’
‘‘तो फिर रिक्शा चलाने और कुलीगिरी करने के लिए भी अनफिट, क्योंकि इसमें लाइसेंस बनवाने के लिए ही हजारों लग जाते हैं।’’
‘‘रिक्शा क्या, मैं तो साइकिल चलाना भी नहीं जानता।’’ शंकर ने सच्चाई बताई।
सहसा दरबान एकदम से भड़ककर बोला, ‘‘अबे, जब कुछ नहीं जानता तो मेरा भेजा क्यों चाट रहा है ! चल फूट यहाँ से। गाड़ी पकड़ और सीधे अपने गाँव जा।’’
‘‘बाप ने बड़ी उम्मीद से यहाँ भेजा है।’’ शंकर रुआँसा होकर बोला, ‘‘गाँव जाकर मैं कौन-सा अपना मुँह उन्हें दिखाऊँगा ?’’
‘‘मुँह नहीं दिखाना चाहता तो किसी रेल के नीचे कूदकर अपनी जान दे दे, पर अब दफा हो यहाँ से नहीं तो मुझे गुस्सा आ रहा है।’’ ताव में आकर दरबान ने पास में रखी अपनी छोटी-सी लठिया को उठाकर हवा में जो लहराया तो शंकर सहम कर गेट से निकल फुटपाथ पर आ गया। गर्दन लटकाए वह मरी-सी चाल से चल पड़ा।
दरबान उसी की ओर देखता रहा। अभी शंकर पाँच-छह कदम ही जा पाया होगा कि दरबान ने उसे पीछे से पुकारा, ‘‘अरे सुनना रे !’’
शंकर ने वापस मुड़कर दरबान की ओर देखा। दरबान ने हाथ के इशारे से अपने पास बुलाया। नई आशा और नए उत्साह से भरकर शंकर सामने जा खड़ा हो गया।
‘‘देख, तेरे लायक मुझे एक काम और याद आ गया। मोरी गेट देखा है ?’’
शंकर ने इनकारी में सिर हिला दिया। दरबान की मुख-मुद्रा ऐसी हुई मानो वह कोई भद्दी-सी गाली देने जा रहा हो, परंतु फिर जाने क्या सोचकर अपने स्वर को सामान्य बनाते हुए उसने कहा, ‘‘यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है, पूछता-पाछता वहाँ पहुँच जाएगा। वहाँ कई ट्रांसपोर्ट कंपनियाँ हैं। रोज सैकड़ों ट्रक वहाँ आते हैं, जाते हैं। उनमें माल लादने-उतारने का काम तुझे मिल जाएगा। अगर मेहनत से काम करेगा तो दिन में सौ रुपए तक मिल सकते हैं।’’
‘‘एक दिन में सौ रुपए !’’ शंकर के स्वर में हर्षमिश्रित आश्चर्य था, ‘‘मैं बहुत मेहनत करूँगा भैया ! हाँ, कौन-सी कंपनी आपने बताई थी ?’’
‘‘अरे, माल ढुलाई के ट्रक जहाँ आते-जाते हैं, उसकी कंपनियाँ। तू वहाँ पहुँचेगा तो तुझे अपने-आप दिख जाएगा। मोरी गेट याद रहेगा न ?’’
‘हाँ, अब याद रहेगा।’’ कहकर शंकर ने हाथ जोड़कर दरबान को नमस्कार किया और मुड़कर चल पड़ा। अब उसके कदम नई उमंग व उत्साह से तेजी से उठ रहे थे।
विकास और समृद्धि की दौड़ में पिछला हुआ-सा भारत का एक औसत-सा गाँव—वनहर। पिछले दो साल में आबादी बढ़ने के साथ विकास के कुछ कार्य हुए हैं। इस कुछ को केवल एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना और पंचायत के गठन के दायरे में ही बाँधा जा सकता है। बाकी सब वैसा ही है, जैसा पहले था। जैसे—डाकिया अब भी तीन दिनों में यहाँ आता है, किसी को सिर का दर्द भी हो जाए तो उसकी एक टिकिया के लिए पाँच मील दूर दूसरे गाँव में स्थापित चिकित्सा केंद्र की दौड़ लगानी पड़े।
गाँव में अधिकाँश लोग खेती-किसानी करते हैं, एक-दो घर की लुहारी के पेशे से जुड़े हैं तो चार-छह घर हरिजनों के भी हैं। पंचायत पर कब्जा मुख्यतः संपन्न किसानों और उन साहूकारों का है जो गाँव के किसानों को वक्त जरूरत सूद पर रुपया देते हैं।
बस्ती में और सामान्य किसानों की तरह एक किसान है—माधो। उस दिन माधो अपने घर के सामने बिछी खाट पर परेशान हाल में बैठा था कि सामने से गंगू गुजरा। गंगू भी उसके गाँव का उसी की तरह एक मामूली किसान है।
‘‘क्या बात है माधो ?’’ गंगू ने पूछा, ‘‘कुछ परेशान नजर आ रहे हो !’’
‘‘आ भई गंगू, बैठ। हाँ, भई इस चिट्ठी को लेकर परेशान हूँ। कल ही आई है। सोच रहा हूँ, किसके पास जाऊँ उसे बँचवाने।’’
‘‘इसमें परेशान होने की क्या बात है ! मैं भी चिट्ठी बँचवाने ही जा रहा हूँ।’
‘‘ऐं ! किसके पास ?’’
‘‘पाठशाला के मास्टर के पास।’’
‘‘याद है, एक बार दो-तीन लोग मास्टर के पास चिट्टी बँचवाने गए थे तो मास्टर ने उन्हें दुत्कार कर भगा दिया था। कहा था—मैं यहाँ मास्टरी करने आया हूँ या तुम्हारी चिट्ठी बाँचने ? क्या सरकार मुझे चिट्ठी बाँचने की तनखा देती है ?’’
‘हाँ, हाँ, मुझे अच्छी तरह याद है।’’
‘‘और फिर भी तू उनकी दुत्कार-फटकार सुनने उनके पास जा रहा है ? न भई न, मुझे अपनी बेइज्जती नहीं करवानी है।’’
‘‘अरे भाई, दुत्कारने-फटकारने वाला वह बुड्ढा चश्माधारी कब का यहाँ से चला गया। अब तो नौजवान नया मास्टर आया है।’’ गंगू ने जानकारी दी, ‘‘फिर आज छुट्टी का दिन है।’’
‘‘छुट्टी का दिन है ? तब तो और भी मुश्किल है।’’
‘‘अब क्या मुश्किल है ?’’
‘‘और दिन तो स्कूल के मास्टर स्कूल में मिल जाते हैं, लेकिन छुट्टी के दिन हम उसे कहाँ ढूँढ़ते फिरेंगे ?’’ माधो ने समस्या बताई।
‘‘अरे, अपना गाँव कोई बड़ा शहर तो है नहीं, जो एक इंसान को न ढूँढ़ सकें। फिर मैं उसका घर जानता हूँ। मंदिर वाली बगिया की एक कोठरी में रहता है।’’
‘‘ऐसी बात है ! तब चल भई, मैं भी चलता हूँ।’’
माधो गंगू के साथ हो लिया। दोनों मंदिर वाली बगिया की ओर चल पड़े।
सरकार ने गाँवों की साक्षरता बढ़ाने की दृष्टि से एक नई योजना लागू की है। इसके तहत प्राथमिक शाला में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाने वाले हर उम्मीदवार को यह अनुबंध करना पड़ता है कि अपनी नियुक्ति के प्रथम वर्ष तक गाँवों की पाठशालाओं में अध्यापन करेंगे। ऐसी ही नियुक्ति पाकर युवा शिक्षक प्रभात वनहर आया है। सौम्य, शालीन और मृदुभाषी प्रभात।
गाँव के सरपंच रतनसिंह ने सरकारी हुक्म के तहत उसे रहने के लिए मंदिर की बगिया में स्थित यह कोठरी दिलाई है।
सुबह-सुबह अपनी कोठरी के दरवाजे पर सर्वथा अपरिचित दो अधेड़ वय के ग्रामीणों को देख प्रभात मुसकराकर उनका स्वागत किया। हाथ जोड़कर विनम्रता से बोला वह, ‘‘नमस्कार।’
‘‘तुम ही गाँव के स्कूल के नए मास्टर हो ?’’ माधो ने पूछा।
‘‘हाँ। आइए, अंदर बैठिए।’’
प्रभात के आग्रह पर दोनों अंदर गए और वहाँ बिछी खाट पर बैठ गए।
‘‘कहिए, कैसे कष्ट किया ?’’ प्रभात ने पूछा।
‘‘हमने तो कोई कष्ट नहीं किया मास्टर !’ गंगू ने हँसकर कहा, ‘‘हम तो उलटे आपको कष्ट देने आए हैं।’’
‘‘कष्ट कैसा ? आप लोगों का कोई छोटा-मोटा काम होगा, इसलिए मेरे पास आ गए।’’ प्रभात ने मुसकराकर ही कहा, ‘‘मैं तो आया ही हूँ आप लोगों की सेवा करने।’’
माधो ने पूछा, ‘‘यानी स्कूल में पढ़ाने नहीं ?’’
‘‘स्कूल में बच्चों को तो पढ़ाऊंगा ही, लेकिन गांव में रहने के दौरान आप लोगों की कोई सेवा बन जाए तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।’’
गंगू ने अपने लट्ठे के मैले कुर्ते की जेब में से एक मुड़ी हुई चिट्ठी निकाली और उसे प्रभात की ओर बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘यह चिट्ठी कल ही आई है मास्टर जी ! इसे जरा बाँच दीजिए।’’
‘‘ओह, इतनी-सी बात !’’ चिठ्ठी हाथ में ले उसे खोलते हुए प्रभात ने कहा।
प्रभात ने चिट्ठी खोलकर पढ़ी। फिर गंभीरता से उसने पूछा, ‘‘अब बताइए, किसना किसका नाम है ?’’
‘‘मेरे बेटे का।’’ गंगू बोला।
‘‘और कमला ?’’
‘‘किसना की घरवाली, यानी मेरी बहू।’’
‘‘आप तो बुजुर्ग हैं। पति-पत्नी में कैसा रिश्ता है, यह तो आप अच्छी तरह जानते हैं !’’
‘‘जानता नहीं तो क्या पाँच बच्चे ऐसे ही पैदा कर लेता ?’’ गंगू हँसकर बोला।
‘‘तो आप भी यह अंदाजा लगा सकते हैं कि पति अपनी पत्नी को चिट्ठी में क्या लिख सकता है !’’
‘‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं लगा सकता।’’
‘‘अब किसना यानी आपके बेटे ने अपनी घरवाली यानी आपकी बहू के लिए यह चिट्ठी लिखी है। चिट्ठी में उसने जो भी लिखा है, अगर मैं आपको पढ़कर सुना दूँ तो क्या आप वह सब कुछ अपनी बहू को जाकर सुना सकेंगे ?’’
सिर झुकाए निरुत्तर सोचता रह गया गंगू।
‘‘यहाँ से कितनी दूर रहते हैं आप ?’’ पूछा प्रभात ने।
‘‘अजी मास्टरजी छोटा-सा गाँव। इसमें भला क्या दूर और क्या पास !’’
‘‘तो आप अपनी बहू को जाकर बुला लाइए। यह चिट्ठी मैं उसे ही पढ़कर सुनाऊँगा।’’
‘‘हाँ, यह बात तुमने ठीक कहीं।’’ गंगू उठकर बाहर की ओर जाता हुआ, ‘‘मैं अभी उसे साथ लेकर आता हूँ।’’
गंगू बाहर गया ही था कि माधो ने अपनी चिट्ठी सामने रख दी। बोला, ‘‘जरा इसे बाँच दो मास्टर जी।’’
‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं। प्रभात चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा। पूरी चिट्ठी पढ़ ली तो उसने माधो से पूछा, ‘‘शंकर तुम्हारा बेटा है शायद, जो काम करने शहर गया है। हैं न ?’’
‘‘हाँ-हाँ।’’ उत्साहित होकर माधो बोला, ‘‘उसी की चिट्ठी हैं न मास्टर जी ? क्या उसे काम मिल गया ?’’
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