सामाजिक >> विषाद मठ विषाद मठरांगेय राघव
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विषाद मठ हमारे भारतीय साहित्य की महान् परम्परा की एक छोटी-सी कड़ी है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
जब मुगलों का राज्य समाप्त होने को आया था तब बंगाल की हरी-भरी धरती पर
अकाल पड़ा था। उस पर बंकिमचंद्र चटर्जी ने ‘आनंद मठ’ लिखा था।
जब अँग्रेजों का राज्य समाप्त होने पर आया तब फिर बंगाल की हरी-भरी धरती
पर अकाल पड़ा। उसका वर्णन करते हुए मैंने इसलिए इस पुस्तक को
‘विषाद मठ’ नाम दिया।
प्रस्तुत उपन्यास तत्कालीन जनता का सच्चा इतिहास है। इसमें एक भी अत्युक्ति नहीं, कहीं भी ज़बर्दस्ती अकाल की भीषणता को गढ़ने के लिए कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं। जो कुछ है, यदि सामान्य रुप से दिमाग में, बहुत अमानुषिक होने के कारण, आसानी से नहीं बैठता, तब भी अविश्वास की निर्बलता दिखाकर ही इतिहास को भी तो फुसलाया नहीं जा सकता। ‘विषाद मठ’ हमारे भारतीय साहित्य की महान् परंपरा की एक छोटी-सी कड़ी है। जीवन अपार है, अपार वेदना भी है, किंतु यह श्रृंखला भी अपना स्थायी महत्त्व रखती है।
प्रस्तुत उपन्यास तत्कालीन जनता का सच्चा इतिहास है। इसमें एक भी अत्युक्ति नहीं, कहीं भी ज़बर्दस्ती अकाल की भीषणता को गढ़ने के लिए कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं। जो कुछ है, यदि सामान्य रुप से दिमाग में, बहुत अमानुषिक होने के कारण, आसानी से नहीं बैठता, तब भी अविश्वास की निर्बलता दिखाकर ही इतिहास को भी तो फुसलाया नहीं जा सकता। ‘विषाद मठ’ हमारे भारतीय साहित्य की महान् परंपरा की एक छोटी-सी कड़ी है। जीवन अपार है, अपार वेदना भी है, किंतु यह श्रृंखला भी अपना स्थायी महत्त्व रखती है।
-रांगेय राघव
विषाद मठ
पुरानी कहानी
साँझ बीत चली थी। झोंपड़ों पर अंधेरा छाने लगा था। पेड़ों पर धुँधलापन रात
की कालिमा की तरह मँडराने लगा था। जंगल में दूर मधुर स्वर हवा की झूम में
मचलता और कोमल-सा दिशाओं में व्याप उठता था। नीले आसमान में दूज का कँटीला
चाँद तैर रहा था। दूर-दूर फैले हुए तारे रात की सनसनाहट से काँप उठते थे।
एक ओर मछुओं का गाँव था, दूसरी ओर ताल के परे किसानों, मुख्यतः किसानों का। चारों तरफ हरियाली छा रही थी। तालों पर नीले रंग के बैगनी फूल खिल रहे थे। मच्छरों से घिरे तालों पर जब हवा गूँजती थी, पेड़ सनसना उठते थे और उन पर पेड़ों के बीच-बीच में बसे बाँसों के घेरे में हवा खटर-खटर कर उठती थी, या ऊपर लगे टीनों के ऊपर से फिसलती भाग जाती थी। गाँव में अनेक पाड़े थे। उसका नाम था उत्तरी कटोली। कर्णफूली चटगाँव के एक ओर थी, तो गाँव दूसरी तरफ और समुद्र, पास ही गाँव से, गजरता था, लरज़ता था। फेन तीर पर कुंफार उठते थे, मछुओं की अधिकांश नावें सरकार ने ले ली थीं; क्योंकि जापानी हमले का खतरा था।
शाम को ही मछुए नावें किनारे से सटा देते और शोर मचाते हुए जालों को खींचने लगते। मछुआरिनें मछलियों को बड़ी साध से उठाकर डलियों में, टोकरियों में सजा कर रखतीं और बच्चे ऊधम करते हुए एक–दूसरे के पीछे दौड़ा करते या पानी में कूद-कूद कर हो हल्ला करते, बूढ़े अपने नारियलों पर मुँह हटाकर कहते, ‘‘अरे क्या गाँव नहीं लौटना धीरे-धीरे अब ? रात घिरने लगी।’’ और सारा का सारा समाज एक शोरगुल करता धीरे-धीरे लौटने लगता। घर की बूढ़ियाँ भात पकाकर रख देतीं और अपने-अपने चबूतरों पर खड़ी हो, चिल्ला-चिल्लाकर लड़तीं या बातें करतीं। ‘‘हरिकृष्ण के बच्चे ने आज चरन की बड़ी मछली का काँटा खींचा ही क्यों जो हाथ में लग गया ?
चरन की बहू क्या करती ?’’ और कोई कहती, ‘‘क्यों, चरन की बहू अंधी है जो बच्चा देखकर रोका नहीं ! दूसरी तरफ की औरतें दूसरी तरह काँय-काँय करतीं और जब वे लोग भी लौट आते, सब का शोर एक-आध घंटे बिना सिलसिले के गूँजता रहता और सब बँट जाते और सरे-शाम वे खा-पीकर या तो ढोल बजाते, अजीब-अजीब भजन गाते या सो जाते। जब कभी कर्णफूली के माँझी मिलते, शिकायत करते उनका काम रात को देर तक चलता है, तब समुद्र-तीर के माँझी मुस्कराते, अपनी अच्छी तकदीर पर अपने आप रीझते और फिर अपना रोना ले बैठते कि नावें घट रही हैं। नए-नए कानून सिर पर लग गए हैं दाम बढ़ रहे हैं। जाल जो टूटे हैं उनकी मरम्मत का कहीं कोई सिलसिला ही नहीं लग पाता और वे अपने को दुखी कहते, फिर उदास हो जाते और अंधकार को देखकर भीतर ही भीतर उनका हृदय काँप उठता।
दूसरी ओर के गाँव के किसान सदा की भाँति किस्मत को कोसते, ईश्वर का अधिक भय करते, अधिक लड़ते और कचहरियों में जाकर सिर टेकते; आए दिन सिर-फुटौवल की नौबत आती; किंतु फिर भी जब कोई बाहर का आदमी आता, वे गँवारों-से उसे देखकर सकपकाते, उसके सामने बोलती बंद रहती, किंतु उसके जाने के बाद, उसे गालियाँ देते, आपस में एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाते और अपने बैलों को पानी देते हुए दूसरों के घरों के बाहर अपने घर के सामने के कूड़े को सरका देने का प्रयत्न करते। पकड़े जाने पर लड़ते और थोड़ी देर बाद चौधरी के घर के सामने इकट्ठा होकर समझौता करते या और लड़ते और फिर महँगाई का ज़िक्र करते, निराई या गोड़ाई पर बहस करते और चट्टोपाध्याय को गालियाँ देते चट्टोपाध्याय का पक्का मकान पेड़ों की आड़ से चमका करता चौधरी कहता ‘‘आदमी फिर भी बुरा नहीं हैं।
इसका बाप तो पराई बहू-बेटियों पर नज़र फेंकता था।’’ इस अपराध को विस्तारपूर्वक जानने की हर जवान की इच्छा थी, किंतु खुले आम चट्टोपाध्याय के भय के कारण, उसके कर्जों से दबे रहने के कारण किसी बूढ़े ने इस बात का कभी भी जिक्र नहीं किया। सुबह उठकर पुरुष खेतों पर चले जाते, औरतें घर पर काम करतीं; बच्चों के बदन से सदा तेल-सा निकलता रहता और वे गुदडडियों पर आकर लोटते, किलकारियाँ मारते और दिन के अंत तक फिर जो अँधेरा आता, झोपड़ियों से धुँआ उठने लगता।
बूढ़ा हेमंतपद चुपचाप बैठा अपनी झोंपड़ी में नारियल पीता रहा। खटिया पर व पड़ा बसंत कभी-कभी कराह उठता था। ज़मीन पर बिछी चटाई पर इंदु सिकुड़ी-सी सो रही थी। सन्नाटे में जब नारियल की गुड़गुड़ में वह कराहें मिलकर अजीब आवाज़ पैदा करतीं; बूढ़े का ध्यान टूट जाता और वह भयंकरता से खाँसने लगता। ‘‘बाबा !’’ बसंत का क्षीण स्वर सुनाई पड़ा।
वृद्ध ने कहा, ‘‘क्या है बसंत ?’’
‘‘पानी दोगे बाबा ?’’
बूढ़े का दिल एकबारगी उस करुण शब्द को सुनकर विचलित हो उठा। बसंत फिर बुदबुदा उठा, ‘‘भूखी ही सो गई लगती है बिचारी ! दिन-भर की थकी-माँदी चुपचाप हिरन के बच्चे-सी सोने दो उसे। बाबा, तुमने कुछ खाया ? आह ! पानी !’’
बूढ़े ने कुछ नहीं सुना। वह बोला, ‘‘दुर पगले ! इतना दुखी क्यों होता है ? आज घर में चावल नहीं हैं तो क्या कभी नहीं होगा ? ले आएँगे। ले तू पानी पी ले।’’
बूढ़ा मटके में से गिलास भर पानी लाया और बसंत खटिया पर टेढ़ा होकर गट-गटकर पीने लगा। बूढ़े के मुँह पर एक खिसियानी हँसी फीकी-फीकी-सी डोल गई। नारियल की गुड़गुड़ाहट ने उसकी गूँज पर फैलते हुए धुआँ उगलना शुरू कर दिया।
बसंत चुप नहीं हुआ, ‘‘बाबा ! तो जापानी आएँगे ? चावल लेकर आएँगे ?’’
वृद्ध एक बार अनबूझ-सा बैठा रहा, जैसे वह कुछ भी सोच नहीं सका। बोला, ‘‘बेटा, असल में भोला सब कुछ होकर भी पागल है। पहले सावन में तार काटने का झूठा इलज़ाम लगाकर दारोगा ने उससे ज़बर्दस्ती का जुर्माना वसूल किया था। गरीब को अपनी बहू की सुहाग की चूड़ियाँ बेचकर रुपया चुकाना पड़ा था। तभी से वह पागल हो उठा है। क्रोध से अंधा हो गया है। तभी तो वह कस्बे से जब लौटता है, जापानियों के नए गुर सीखकर आता है। देवता समझता है उन्हें, देवता ! कहता है, बरमा को जीतकर उन्होंने आज़ाद कर दिया हैं। मुझे तो विश्वास नहीं होता बसंत ! गरीब की तो गरीब ही जानता है। अरे, हमारे दुःख की ही कौन सुनता है जो कभी कोई पराए की पहचान कर सका है।’’
इसके बाद एक असह्य नीरवता छा गई। बसंतपद कई दिनों से मलेरिया में पड़ा सड़ रहा था। वह एक बत्तीस साल का जवान था, किंतु गंदे खाने और पाड़े के अमर मच्छरों ने उसे मलेरिया की क्रीड़ा-भूमि बना दिया था। पारी का बुखार आता था। कड़कड़ाकर जब उसे सर्दी लगती, बूढ़ा उसे घर के सब कपड़ों से ढककर आग जगाने की दौड़-धूप में भयंकरता से खाँसता और इंदु दौड़-दौड़कर बाबा की सहायता करती। बसंत बड़बड़ाता रहता; कभी-कभी पागल की तरह बर्रा उठता। आज चार महीने से मलेरिया ने उसको पकड़कर झकझोर दिया था। उसकी सारी शक्ति ऐसे ही झड़ गई थी जैसे फूलों से पराग। और जब बुखार उसका बदन तोड़कर चुचाता हुआ भागता, झोपड़ी की संधियों से आती हवा उस पर ज़हर का काम करती थी। इंदु कभी-कभी कारखाने वालों को गाली देती, जो लड़ाई के कारण उक्त स्थान से लगभग सात मील दूर पर खुल गया था। घर की आमदनी बंद हो गई थी। फसल तैयार हो रही थी। सबको अबकी आशा थी कि चढ़े हुए दामों पर बिकेगी, किंतु औरों के घर भात की गंध उठती, ये तीनों निराश-से एक-दूसरे की सूरत देखते और इंदु को देखकर वृद्घ की आँखों में कभी-कभी पानी आ जाता, जिसे छिपाने के लिए वह मुँह फेर लेता।
बसंत मानो अपनी बीमारी के हफ्ते अपनी पसलियों पर हाथ रखकर गिन सकता था बूढ़े का नारियल मंदा हो चला था। आखिर दो-चार कश खींचकर खाँसते हुए उसने अपनी चिलम औंधा दी और अपने आप बड़बडा उठा, ‘‘बेटा, सोया नहीं ?’’
बसंत हँस पड़ा। मानो कंकाल की अपराजित आत्मा पुकार उठी, ‘‘सोया कब था मैं, बाबा ! नींद ही नहीं आती जो। घुटनों का दरद ! आह ! चैन नहीं मालूम देता। कभी कमर, कभी सिर कैसा चलत दरद है यह ? तुम भी नहीं सोए अभी ! मैं जो कंबख्त रात-दिन यह खाँ-खूँ करता हूँ, कोई मानुस सो सकेगा क्या इसमें ?’’
‘‘कुछ नहीं, मैं तो नारियल पी रहा था। पेट में कुछ खलबली-सी पड़ गई थीं यह तो एक बुरी आदत ही है।’’
बंसत ने कहा, ‘‘बाबा ! भैया होते तो तुम कुछ देर सो तो सकते। मैं तो अब ठीक नहीं हो सकता। तुम क्यों व्यर्थ मुझ पर पैसा तोड़ रहे हो ?’’
छिः छि’’, बूढ़े ने कहा, ‘‘असगुन की बात न छेड़ा कर तू यों ही।
बात-कुबात का ध्यान नहीं करता। अब क्या तू कोई बच्चा है !’’
बसंत चुप हो रहा।
बूढ़े की आँखों के आगे अनेक चित्र खेलने लगे। उसे धीरे-धीरे फिर याद आया फिर याद आने लगा। बसंत का बड़ा भाई शिशिर उसके जीवन की बागडोर था। कितने प्यार से पाला था उसे ! आज वह ही टूट गई तो इस अटूट का क्या, चाहे जिधर मुड़ जाए। चला गया निरमोही, इस बूढे को छ़ोड़कर चला।
बूढ़े की आंतरात्मा पर वज्र का-सा प्रहार होने लगा।
उसकी माँ ने उसके लिए क्या न किया। किंतु वह तो अच्छी ही रही। यह दिन रात तो न देखे उसने। स्वागल आई, स्वागल मरी। रहमान कहता था-उसने पाड़े में वैसी औरत नहीं देखी।
एक ओर मछुओं का गाँव था, दूसरी ओर ताल के परे किसानों, मुख्यतः किसानों का। चारों तरफ हरियाली छा रही थी। तालों पर नीले रंग के बैगनी फूल खिल रहे थे। मच्छरों से घिरे तालों पर जब हवा गूँजती थी, पेड़ सनसना उठते थे और उन पर पेड़ों के बीच-बीच में बसे बाँसों के घेरे में हवा खटर-खटर कर उठती थी, या ऊपर लगे टीनों के ऊपर से फिसलती भाग जाती थी। गाँव में अनेक पाड़े थे। उसका नाम था उत्तरी कटोली। कर्णफूली चटगाँव के एक ओर थी, तो गाँव दूसरी तरफ और समुद्र, पास ही गाँव से, गजरता था, लरज़ता था। फेन तीर पर कुंफार उठते थे, मछुओं की अधिकांश नावें सरकार ने ले ली थीं; क्योंकि जापानी हमले का खतरा था।
शाम को ही मछुए नावें किनारे से सटा देते और शोर मचाते हुए जालों को खींचने लगते। मछुआरिनें मछलियों को बड़ी साध से उठाकर डलियों में, टोकरियों में सजा कर रखतीं और बच्चे ऊधम करते हुए एक–दूसरे के पीछे दौड़ा करते या पानी में कूद-कूद कर हो हल्ला करते, बूढ़े अपने नारियलों पर मुँह हटाकर कहते, ‘‘अरे क्या गाँव नहीं लौटना धीरे-धीरे अब ? रात घिरने लगी।’’ और सारा का सारा समाज एक शोरगुल करता धीरे-धीरे लौटने लगता। घर की बूढ़ियाँ भात पकाकर रख देतीं और अपने-अपने चबूतरों पर खड़ी हो, चिल्ला-चिल्लाकर लड़तीं या बातें करतीं। ‘‘हरिकृष्ण के बच्चे ने आज चरन की बड़ी मछली का काँटा खींचा ही क्यों जो हाथ में लग गया ?
चरन की बहू क्या करती ?’’ और कोई कहती, ‘‘क्यों, चरन की बहू अंधी है जो बच्चा देखकर रोका नहीं ! दूसरी तरफ की औरतें दूसरी तरह काँय-काँय करतीं और जब वे लोग भी लौट आते, सब का शोर एक-आध घंटे बिना सिलसिले के गूँजता रहता और सब बँट जाते और सरे-शाम वे खा-पीकर या तो ढोल बजाते, अजीब-अजीब भजन गाते या सो जाते। जब कभी कर्णफूली के माँझी मिलते, शिकायत करते उनका काम रात को देर तक चलता है, तब समुद्र-तीर के माँझी मुस्कराते, अपनी अच्छी तकदीर पर अपने आप रीझते और फिर अपना रोना ले बैठते कि नावें घट रही हैं। नए-नए कानून सिर पर लग गए हैं दाम बढ़ रहे हैं। जाल जो टूटे हैं उनकी मरम्मत का कहीं कोई सिलसिला ही नहीं लग पाता और वे अपने को दुखी कहते, फिर उदास हो जाते और अंधकार को देखकर भीतर ही भीतर उनका हृदय काँप उठता।
दूसरी ओर के गाँव के किसान सदा की भाँति किस्मत को कोसते, ईश्वर का अधिक भय करते, अधिक लड़ते और कचहरियों में जाकर सिर टेकते; आए दिन सिर-फुटौवल की नौबत आती; किंतु फिर भी जब कोई बाहर का आदमी आता, वे गँवारों-से उसे देखकर सकपकाते, उसके सामने बोलती बंद रहती, किंतु उसके जाने के बाद, उसे गालियाँ देते, आपस में एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाते और अपने बैलों को पानी देते हुए दूसरों के घरों के बाहर अपने घर के सामने के कूड़े को सरका देने का प्रयत्न करते। पकड़े जाने पर लड़ते और थोड़ी देर बाद चौधरी के घर के सामने इकट्ठा होकर समझौता करते या और लड़ते और फिर महँगाई का ज़िक्र करते, निराई या गोड़ाई पर बहस करते और चट्टोपाध्याय को गालियाँ देते चट्टोपाध्याय का पक्का मकान पेड़ों की आड़ से चमका करता चौधरी कहता ‘‘आदमी फिर भी बुरा नहीं हैं।
इसका बाप तो पराई बहू-बेटियों पर नज़र फेंकता था।’’ इस अपराध को विस्तारपूर्वक जानने की हर जवान की इच्छा थी, किंतु खुले आम चट्टोपाध्याय के भय के कारण, उसके कर्जों से दबे रहने के कारण किसी बूढ़े ने इस बात का कभी भी जिक्र नहीं किया। सुबह उठकर पुरुष खेतों पर चले जाते, औरतें घर पर काम करतीं; बच्चों के बदन से सदा तेल-सा निकलता रहता और वे गुदडडियों पर आकर लोटते, किलकारियाँ मारते और दिन के अंत तक फिर जो अँधेरा आता, झोपड़ियों से धुँआ उठने लगता।
बूढ़ा हेमंतपद चुपचाप बैठा अपनी झोंपड़ी में नारियल पीता रहा। खटिया पर व पड़ा बसंत कभी-कभी कराह उठता था। ज़मीन पर बिछी चटाई पर इंदु सिकुड़ी-सी सो रही थी। सन्नाटे में जब नारियल की गुड़गुड़ में वह कराहें मिलकर अजीब आवाज़ पैदा करतीं; बूढ़े का ध्यान टूट जाता और वह भयंकरता से खाँसने लगता। ‘‘बाबा !’’ बसंत का क्षीण स्वर सुनाई पड़ा।
वृद्ध ने कहा, ‘‘क्या है बसंत ?’’
‘‘पानी दोगे बाबा ?’’
बूढ़े का दिल एकबारगी उस करुण शब्द को सुनकर विचलित हो उठा। बसंत फिर बुदबुदा उठा, ‘‘भूखी ही सो गई लगती है बिचारी ! दिन-भर की थकी-माँदी चुपचाप हिरन के बच्चे-सी सोने दो उसे। बाबा, तुमने कुछ खाया ? आह ! पानी !’’
बूढ़े ने कुछ नहीं सुना। वह बोला, ‘‘दुर पगले ! इतना दुखी क्यों होता है ? आज घर में चावल नहीं हैं तो क्या कभी नहीं होगा ? ले आएँगे। ले तू पानी पी ले।’’
बूढ़ा मटके में से गिलास भर पानी लाया और बसंत खटिया पर टेढ़ा होकर गट-गटकर पीने लगा। बूढ़े के मुँह पर एक खिसियानी हँसी फीकी-फीकी-सी डोल गई। नारियल की गुड़गुड़ाहट ने उसकी गूँज पर फैलते हुए धुआँ उगलना शुरू कर दिया।
बसंत चुप नहीं हुआ, ‘‘बाबा ! तो जापानी आएँगे ? चावल लेकर आएँगे ?’’
वृद्ध एक बार अनबूझ-सा बैठा रहा, जैसे वह कुछ भी सोच नहीं सका। बोला, ‘‘बेटा, असल में भोला सब कुछ होकर भी पागल है। पहले सावन में तार काटने का झूठा इलज़ाम लगाकर दारोगा ने उससे ज़बर्दस्ती का जुर्माना वसूल किया था। गरीब को अपनी बहू की सुहाग की चूड़ियाँ बेचकर रुपया चुकाना पड़ा था। तभी से वह पागल हो उठा है। क्रोध से अंधा हो गया है। तभी तो वह कस्बे से जब लौटता है, जापानियों के नए गुर सीखकर आता है। देवता समझता है उन्हें, देवता ! कहता है, बरमा को जीतकर उन्होंने आज़ाद कर दिया हैं। मुझे तो विश्वास नहीं होता बसंत ! गरीब की तो गरीब ही जानता है। अरे, हमारे दुःख की ही कौन सुनता है जो कभी कोई पराए की पहचान कर सका है।’’
इसके बाद एक असह्य नीरवता छा गई। बसंतपद कई दिनों से मलेरिया में पड़ा सड़ रहा था। वह एक बत्तीस साल का जवान था, किंतु गंदे खाने और पाड़े के अमर मच्छरों ने उसे मलेरिया की क्रीड़ा-भूमि बना दिया था। पारी का बुखार आता था। कड़कड़ाकर जब उसे सर्दी लगती, बूढ़ा उसे घर के सब कपड़ों से ढककर आग जगाने की दौड़-धूप में भयंकरता से खाँसता और इंदु दौड़-दौड़कर बाबा की सहायता करती। बसंत बड़बड़ाता रहता; कभी-कभी पागल की तरह बर्रा उठता। आज चार महीने से मलेरिया ने उसको पकड़कर झकझोर दिया था। उसकी सारी शक्ति ऐसे ही झड़ गई थी जैसे फूलों से पराग। और जब बुखार उसका बदन तोड़कर चुचाता हुआ भागता, झोपड़ी की संधियों से आती हवा उस पर ज़हर का काम करती थी। इंदु कभी-कभी कारखाने वालों को गाली देती, जो लड़ाई के कारण उक्त स्थान से लगभग सात मील दूर पर खुल गया था। घर की आमदनी बंद हो गई थी। फसल तैयार हो रही थी। सबको अबकी आशा थी कि चढ़े हुए दामों पर बिकेगी, किंतु औरों के घर भात की गंध उठती, ये तीनों निराश-से एक-दूसरे की सूरत देखते और इंदु को देखकर वृद्घ की आँखों में कभी-कभी पानी आ जाता, जिसे छिपाने के लिए वह मुँह फेर लेता।
बसंत मानो अपनी बीमारी के हफ्ते अपनी पसलियों पर हाथ रखकर गिन सकता था बूढ़े का नारियल मंदा हो चला था। आखिर दो-चार कश खींचकर खाँसते हुए उसने अपनी चिलम औंधा दी और अपने आप बड़बडा उठा, ‘‘बेटा, सोया नहीं ?’’
बसंत हँस पड़ा। मानो कंकाल की अपराजित आत्मा पुकार उठी, ‘‘सोया कब था मैं, बाबा ! नींद ही नहीं आती जो। घुटनों का दरद ! आह ! चैन नहीं मालूम देता। कभी कमर, कभी सिर कैसा चलत दरद है यह ? तुम भी नहीं सोए अभी ! मैं जो कंबख्त रात-दिन यह खाँ-खूँ करता हूँ, कोई मानुस सो सकेगा क्या इसमें ?’’
‘‘कुछ नहीं, मैं तो नारियल पी रहा था। पेट में कुछ खलबली-सी पड़ गई थीं यह तो एक बुरी आदत ही है।’’
बंसत ने कहा, ‘‘बाबा ! भैया होते तो तुम कुछ देर सो तो सकते। मैं तो अब ठीक नहीं हो सकता। तुम क्यों व्यर्थ मुझ पर पैसा तोड़ रहे हो ?’’
छिः छि’’, बूढ़े ने कहा, ‘‘असगुन की बात न छेड़ा कर तू यों ही।
बात-कुबात का ध्यान नहीं करता। अब क्या तू कोई बच्चा है !’’
बसंत चुप हो रहा।
बूढ़े की आँखों के आगे अनेक चित्र खेलने लगे। उसे धीरे-धीरे फिर याद आया फिर याद आने लगा। बसंत का बड़ा भाई शिशिर उसके जीवन की बागडोर था। कितने प्यार से पाला था उसे ! आज वह ही टूट गई तो इस अटूट का क्या, चाहे जिधर मुड़ जाए। चला गया निरमोही, इस बूढे को छ़ोड़कर चला।
बूढ़े की आंतरात्मा पर वज्र का-सा प्रहार होने लगा।
उसकी माँ ने उसके लिए क्या न किया। किंतु वह तो अच्छी ही रही। यह दिन रात तो न देखे उसने। स्वागल आई, स्वागल मरी। रहमान कहता था-उसने पाड़े में वैसी औरत नहीं देखी।
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