यात्रा वृत्तांत >> हँसते निर्झर दहकती भट्ठी हँसते निर्झर दहकती भट्ठीविष्णु प्रभाकर
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लेखक द्वारा देश-विदेश, नगर और प्रकृति के प्रांगण की यात्रा की चर्चा
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
देश-विदेश में, नगरों में और प्रकृति के प्रांगण में जब-जब भी और
जहाँ-जहाँ भी मुझे यात्रा करने का अवसर मिला है, उस सबकी चर्चा मैंने
प्रस्तुत पुस्तक में की है। इसमें जानकारी देने का प्रयत्न इतना नहीं हैं,
जितना अनुभूति का वह चित्र प्रस्तुत करने का है, जो मेरे मन पर अंकित हो
गया है। इन अर्थों में ये सब चित्र मेरे अपने हैं। कहीं मैं कवि हो उठा
लगता हूँ, कहीं दार्शनिक, कहीं आलोचक, कहीं मात्र एक दर्शक। मैं कुछ नहीं,
हूँ। मुझे दर्शक रहना चाहिए था, लेकिन मन की दुर्बलता कभी-कभी इतनी भारी
हो उठती है कि उससे मुक्त होना असंभव हो जाता है।
शायद यही किसी लेखक की असफलता है। मेरी भी है। लेकिन एक बात निश्चय ही कही जा सकती है कि इस पुस्तक में विविधता की कमी पाठकों को नहीं मिलेगी। कहीं विहँसते निर्झर, मुस्कराते उद्यान उनका स्वागत करेंगे तो कहीं विगत के खँडहर उनकी ज्ञानपिपासा को शांत करेंगे, कहीं उन्हें भीड़ के अंतर में झाँकने की दृष्टि मिलेगी तो कहीं नई सभ्यता का संगीत भी वे सुनेगें। वे पाएँगे कि कहीं वे मेरे साथ कंटकाकीर्ण दुर्गम-पंथों पर चलते-चलते सुरम्य उद्यानों में पहुँच गए हैं, कहीं विस्तृत जल राशि पर नावों में तैर रहे हैं, कहीं पृथ्वी के नीचे तीव्रगामी रेलों में दौड़ रहे हैं तो कहीं वायु के पंखों पर सवार होकर विद्युत् और मेघों द्वारा निर्मित तूफान को झेल रहे हैं। मुझे विश्वास है कि इससे जो अनुभूति उन्हें जो प्राप्त होगी, वह निरी निराशाजनक ही न होगी।
शायद यही किसी लेखक की असफलता है। मेरी भी है। लेकिन एक बात निश्चय ही कही जा सकती है कि इस पुस्तक में विविधता की कमी पाठकों को नहीं मिलेगी। कहीं विहँसते निर्झर, मुस्कराते उद्यान उनका स्वागत करेंगे तो कहीं विगत के खँडहर उनकी ज्ञानपिपासा को शांत करेंगे, कहीं उन्हें भीड़ के अंतर में झाँकने की दृष्टि मिलेगी तो कहीं नई सभ्यता का संगीत भी वे सुनेगें। वे पाएँगे कि कहीं वे मेरे साथ कंटकाकीर्ण दुर्गम-पंथों पर चलते-चलते सुरम्य उद्यानों में पहुँच गए हैं, कहीं विस्तृत जल राशि पर नावों में तैर रहे हैं, कहीं पृथ्वी के नीचे तीव्रगामी रेलों में दौड़ रहे हैं तो कहीं वायु के पंखों पर सवार होकर विद्युत् और मेघों द्वारा निर्मित तूफान को झेल रहे हैं। मुझे विश्वास है कि इससे जो अनुभूति उन्हें जो प्राप्त होगी, वह निरी निराशाजनक ही न होगी।
भूमिका
काका साहब ने कहीं लिखा है, ‘यदि जीवन में यौवनपूर्ण प्राण हों तो
उस अज्ञात का आमंत्रण टाले नहीं टलता। अज्ञात का पीछा करना, उसका अनुभव
करना, उसे पाकर ज्ञात बनाना ही जीवन का बड़े से बड़ा आनंद और अच्छे से
अच्छा पौष्टिक अन्न है।’
मैंने भी अपने जीवन में यही अनुभव किया है। मानव-जीवन स्वयं में अभियान है। हरेक व्यक्ति यहाँ यात्री है। इस यात्रा में सुख-दुःख, आनंद-ग्लानि, प्रकाश-अंधकार, सभी से उसका परिचय होता है। कोई बाधा उसे नहीं रोक पाती। वह निरंतर बढ़ता रहता है, इसीलिए वह यात्री है।
जीवन की इस लंबी डगर में उसे कई हमराही मिलते हैं। कुछ दो-चार कदम चलकर बिछुड़ जाते हैं, कुछ अंतिम क्षण तक मित्र बने रहते हैं। छोटी-छोटी यात्राओं में भी जीवन के इसी विराट् रूप का वामन-रूप हमें मिलता है। लेकिन वह वामन ही हमारी सबसे बड़ी अनुभूति है और वही हमें दूसरों को समझने की दृष्टि भी देता है। मैं नहीं जानता, वह किसी को समाजशास्त्री बना सकता है या नहीं, लेकिन मनुष्य अवश्य बना देता है—वह मनुष्य जो सचमुच ही वैज्ञानिक है। विज्ञान आखिर क्या है ? यह न, कि संसार में सीमित कुछ नहीं है। अंत किसी वस्तु का नहीं है। सब कुछ असीम और अनंत है। जिस ज्ञान पर आज हम गर्व करते हैं, वह दूसरे ही क्षण नगण्य हो रहता है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि हमने बसना न सीखा होता, निरंतर घुमक्कड़ बने रहते, कभी हमारा पथ कंटकाकीर्ण रहता, कभी प्रकृति के सुंदरतम पुष्पों से आच्छादित, कभी आँधी-अंधड़ और तेज तूफान आते, कभी हड्डियों को गला देने वाली बर्फीली हवाएँ चलतीं, तो कभी विहँसते निर्झरों का मादक संगीत हमें लोरियाँ सुनाता; वह जीवन कैसा सुखद होता। न होता द्वेष, न होता दंभ, क्योंकि अपना सब कुछ नहीं होता वह सबका होता। लेकिन मनुष्य क्या कहीं रुका है ? ज्ञान की प्यास उसे अनंत लोकों में ले जाती है। और यह कैसा संयोग है कि अनंत की यह प्यास ही उसे घरौंदों में बंद कर देती है। और फिर उससे मुक्ति पाने के लिए ही वह अज्ञात का आमंत्रण पाकर फिर-फिर से बेड़ियाँ तोड़ने को आतुर हो उठता है।
इसी लक्ष्य ने मुझे भी तरसाया है और इसी से प्रेरित होकर कभी-कभी मैं भाग निकला हूँ। उसी का परिणाम मेरी ये थोड़ी-सी यात्राएँ हैं, जिनकी एक झाँकी मैंने ‘हँसते निर्झर, दहकती भट्ठी’ में देने का प्रयत्न किया है। देश-विदेश में, नगरों में और प्रकृति के प्रांगण में, जब-जब भी और जहाँ-जहाँ भी मुझे यात्रा करने का अवसर मिला है, उन सभी की चर्चा इन 21 लेखों में हुई है। इनमें जानकारी देने का प्रयत्न इतना नहीं है, जितना अनुभूति का वह चित्र प्रस्तुत करने का है जो मेरे मन पर अंकित हो गया है। इन अर्थों में ये सब चित्र मेरे अपने हैं। कहीं मैं कवि हो उठा लगता हूँ, कहीं दार्शनिक, कहीं आलोचक, कहीं एक मात्र दर्शक।
मैं जानता हूँ कि हुआ मैं कुछ नहीं हूँ। मुझे मात्र दर्शक रहना चाहिए था। लेकिन मन की दुर्बलता कभी-कभी इतनी भारी हो उठती है कि उससे मुक्त होना असंभव हो जाता है। शायद यही किसी लेखक की असफलता है। मेरी भी है, लेकिन एक बात निश्चय ही कही जा सकती है कि इस पुस्तक में विविधता की कमी पाठकों को नहीं मिलेगी। (कहीं विहँसते निर्झर, मुस्कराते उद्यान उसका स्वागत करेंगे तो कहीं विगत के खँडहर उसकी ज्ञानपिपासा को शांत करेंगे, कहीं उसे भीड़ के अंतर में झाँकने की दृष्टि मिलेगी तो कहीं नई सभ्यता का संगीत भी वह सुनेगा। यही संतोष क्या कम है ? इसी संतोष के साथ मैं यह लेख-संग्रह अपने पाठकों को अर्पित करता हूँ।) वे पाएँगे कि कहीं वे मेरे साथ कंटकाकीर्ण दुर्गम पथों पर चलते-चलते सुरम्य अद्यानों में पहुँच गए हैं। कहीं विस्तृत जलराशि पर नावों में तैर रहे हैं, कहीं पृथ्वी के नीचे तीव्रगामी रेलों में दौड़ रहे हैं तो कहीं वायु के पंखों पर सवार होकर विद्युत और मेघों द्वार निर्मित तूफान झेल रहे हैं। मुझे विश्वास है कि इससे अनुभूति उन्हें प्राप्त होगी, वह निरी निराशाजनक ही न होगी।
मैंने भी अपने जीवन में यही अनुभव किया है। मानव-जीवन स्वयं में अभियान है। हरेक व्यक्ति यहाँ यात्री है। इस यात्रा में सुख-दुःख, आनंद-ग्लानि, प्रकाश-अंधकार, सभी से उसका परिचय होता है। कोई बाधा उसे नहीं रोक पाती। वह निरंतर बढ़ता रहता है, इसीलिए वह यात्री है।
जीवन की इस लंबी डगर में उसे कई हमराही मिलते हैं। कुछ दो-चार कदम चलकर बिछुड़ जाते हैं, कुछ अंतिम क्षण तक मित्र बने रहते हैं। छोटी-छोटी यात्राओं में भी जीवन के इसी विराट् रूप का वामन-रूप हमें मिलता है। लेकिन वह वामन ही हमारी सबसे बड़ी अनुभूति है और वही हमें दूसरों को समझने की दृष्टि भी देता है। मैं नहीं जानता, वह किसी को समाजशास्त्री बना सकता है या नहीं, लेकिन मनुष्य अवश्य बना देता है—वह मनुष्य जो सचमुच ही वैज्ञानिक है। विज्ञान आखिर क्या है ? यह न, कि संसार में सीमित कुछ नहीं है। अंत किसी वस्तु का नहीं है। सब कुछ असीम और अनंत है। जिस ज्ञान पर आज हम गर्व करते हैं, वह दूसरे ही क्षण नगण्य हो रहता है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि हमने बसना न सीखा होता, निरंतर घुमक्कड़ बने रहते, कभी हमारा पथ कंटकाकीर्ण रहता, कभी प्रकृति के सुंदरतम पुष्पों से आच्छादित, कभी आँधी-अंधड़ और तेज तूफान आते, कभी हड्डियों को गला देने वाली बर्फीली हवाएँ चलतीं, तो कभी विहँसते निर्झरों का मादक संगीत हमें लोरियाँ सुनाता; वह जीवन कैसा सुखद होता। न होता द्वेष, न होता दंभ, क्योंकि अपना सब कुछ नहीं होता वह सबका होता। लेकिन मनुष्य क्या कहीं रुका है ? ज्ञान की प्यास उसे अनंत लोकों में ले जाती है। और यह कैसा संयोग है कि अनंत की यह प्यास ही उसे घरौंदों में बंद कर देती है। और फिर उससे मुक्ति पाने के लिए ही वह अज्ञात का आमंत्रण पाकर फिर-फिर से बेड़ियाँ तोड़ने को आतुर हो उठता है।
इसी लक्ष्य ने मुझे भी तरसाया है और इसी से प्रेरित होकर कभी-कभी मैं भाग निकला हूँ। उसी का परिणाम मेरी ये थोड़ी-सी यात्राएँ हैं, जिनकी एक झाँकी मैंने ‘हँसते निर्झर, दहकती भट्ठी’ में देने का प्रयत्न किया है। देश-विदेश में, नगरों में और प्रकृति के प्रांगण में, जब-जब भी और जहाँ-जहाँ भी मुझे यात्रा करने का अवसर मिला है, उन सभी की चर्चा इन 21 लेखों में हुई है। इनमें जानकारी देने का प्रयत्न इतना नहीं है, जितना अनुभूति का वह चित्र प्रस्तुत करने का है जो मेरे मन पर अंकित हो गया है। इन अर्थों में ये सब चित्र मेरे अपने हैं। कहीं मैं कवि हो उठा लगता हूँ, कहीं दार्शनिक, कहीं आलोचक, कहीं एक मात्र दर्शक।
मैं जानता हूँ कि हुआ मैं कुछ नहीं हूँ। मुझे मात्र दर्शक रहना चाहिए था। लेकिन मन की दुर्बलता कभी-कभी इतनी भारी हो उठती है कि उससे मुक्त होना असंभव हो जाता है। शायद यही किसी लेखक की असफलता है। मेरी भी है, लेकिन एक बात निश्चय ही कही जा सकती है कि इस पुस्तक में विविधता की कमी पाठकों को नहीं मिलेगी। (कहीं विहँसते निर्झर, मुस्कराते उद्यान उसका स्वागत करेंगे तो कहीं विगत के खँडहर उसकी ज्ञानपिपासा को शांत करेंगे, कहीं उसे भीड़ के अंतर में झाँकने की दृष्टि मिलेगी तो कहीं नई सभ्यता का संगीत भी वह सुनेगा। यही संतोष क्या कम है ? इसी संतोष के साथ मैं यह लेख-संग्रह अपने पाठकों को अर्पित करता हूँ।) वे पाएँगे कि कहीं वे मेरे साथ कंटकाकीर्ण दुर्गम पथों पर चलते-चलते सुरम्य अद्यानों में पहुँच गए हैं। कहीं विस्तृत जलराशि पर नावों में तैर रहे हैं, कहीं पृथ्वी के नीचे तीव्रगामी रेलों में दौड़ रहे हैं तो कहीं वायु के पंखों पर सवार होकर विद्युत और मेघों द्वार निर्मित तूफान झेल रहे हैं। मुझे विश्वास है कि इससे अनुभूति उन्हें प्राप्त होगी, वह निरी निराशाजनक ही न होगी।
विष्णु प्रभाकर
दूसरे संस्करण की भूमिका
‘हँसते निर्झर, दहकती भट्ठी’—मेरे
यात्रा-संस्मरणों का
यह संकलन पहली बार सन् 1966 में प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशक थे
‘नेशनल पब्लिशिंग हाउस’। जब यह संस्करण समाप्त हो गया
तब
मैंने उनसे इसे वापस ले लिया था, लेकिन फिर किसी कारणवश बहुत दिनों तक
इसकी ओर ध्यान नहीं दे पाया। अब जब ‘किताबघर प्रकाशन’
इसका
दूसरा संस्करण निकालने के लिए सहमत हो गए हैं तो प्रश्न उठा कि क्या इन
लेखों को वैसे का वैसा प्रकाशित किया जा सकता है या इनमें कुछ संशोधन की
आवश्यकता है ?
कश्मीर, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और सोवियत रूस की यात्राओं के संबंध में जो लेख इसमें आए हैं, क्या इनमें कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता है ? यह प्रश्न इसलिए उठा क्योंकि इन देशों की राजनीतिक स्थिति में काफी परिवर्तन आ गया है मुझे लगता है कि उन लेखों में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मैं तो उसी स्थिति का साक्षी हूँ जो उन देशों में उस समय थी, जब मैं वहाँ गया था। एक और बात है, किसी भी देश में भौगोलिक परिवर्तन किन्ही विशेष परिस्थितियों के कारण होता है। हाँ, राजनीतिक परिवर्तन होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त एक और बात है—यदि परिवर्तन हुए भी हैं तो उस समय की स्थिति, जब पहली बार मैं वहाँ गया था, अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
हम थोड़ा विस्तार से चर्चा करेंगे। इस पुस्तक में मेरे 21 लेख संकलित हैं। छह लेखों का संबंध हिमालय में स्थित तीर्थ स्थानों से है, जैसे बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री। पाँच लेख कश्मीर के संबंध में हैं। चार का संबंध सोवियत रूस से, तीन का दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से और एक-एक लेख भारत के तीन नगरों के बारे में है, कलकत्ता, भिलाई और वैशाली।
हिमालय के जिन तीर्थों की यात्रा की उनमें केदारनाथ, बदरीनाथ, यमनोत्री और गंगोत्री प्रमुख हैं। पहली बार मैं बदरीनाथ और केदारनाथ सन् 1950 में गया था और अंतिम बार गंगोत्री, गोमुख और तपोवन सन् 1980 में। इन तीर्थ स्थानों के मूल रूप में तो कोई अंतर नहीं आया, हाँ, एक अंतर अवश्य आया है,
यात्रा के साधनों में। बदरीनाथ और केदारनाथ जब मैं पहली बार सन् 1950 में गया था तो रुद्रप्रयाग तक बस जाती थी, उसके बाद पैदल जाना पड़ता था। अब केदारनाथ के लिए गौरीकुंड तक बस जाती है, पर उसके बाद 6-7 मील की कठिन चढ़ाई पैदल ही पूरी करनी पड़ती है। केदारनाथ के मंदिर में या उसके आसपास की प्रकृति वैसी की वैसी है। हम वहाँ के वासुकि-ताल गए थे जो साढ़े पंद्रह हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। मार्ग अगम्य है। इसके अतिरिक्त हम लोग वहाँ बर्फ के तूफान में घिर गए थे। आज भी वहाँ लगभग वैसी ही स्थिति है इसलिए मेरे लेख में जो चित्र अंकित हुआ है, वह आज भी वैसा का वैसा ही है। हाँ, बदरीनाथ-यात्रा में एक अंतर पड़ा है। अब सीधे बदरीनाथ के मंदिर तक बस जाती है। इस कारण पीपलकोटी से बदरी नाथ तक जो प्राकृतिक दृश्य हैं और मार्ग की जो मोहक कठिनाइयाँ हैं, उनसे आज का यात्री वंचित रह जाता है। मेरी दृष्टि है, इसलिए मैं समझता हूँ कि बीच के जो अद्भुत प्राकृतिक दृश्य हैं, उनको न देख पाना एक पर्यटक की बहुत बड़ी क्षति है। पैदल यात्रा का अपना ही एक आनंद होता है। वह इन लेखों को पढ़कर ही जाना जा सकता है।
इसी तरह गंगोत्री की यात्रा पहले बस द्वारा उत्तरकाशी तक ही हो सकती थी, अब सीधे गंगोत्री तक बस जाती है, इसलिए मार्ग में पड़ने वाले जितने स्थल हैं उनको देखने से भी यात्री वंचित रह जाता है। अनेक कुंड, नदियों के उद्गम स्थल उद्यान, सब छूट जाते हैं।
गंगोत्री से आगे गोमुख का रास्ता पहली बार जब हम वहाँ गए थे तो इतना बीहड़ था कि सभी लोगों ने हमें वहाँ जाने से रोका, लेकिन स्वामी सुंदरानंद जी की सहायता से इन बीहड़ रास्तों को पार करते हुए हम सीधे गंगा-हिमानी के द्वार पर पहुँच गए। उस द्वार का नाम ही गोमुख है।
गोमुख तो आज भी लगभग वैसा ही है। ‘हिमानी’ होने के कारण आगे-पीछे होता रहता है। अब वहाँ जाने के लिए दूसरी ओर सँकरी पगडंडी बन गई है, लेकिन बीहड़ रास्तों को पार करने का जो आनंद होता है, वह कुछ और ही होता है। पहले उस पार के रास्तों पर एक टूटी-फूटी धर्मशाला को छोड़कर कोई रहने लायक नहीं था। लेकिन इस ओर अब रास्ते पर डाकबँगला है, साधुओं के आश्रम हैं और ठीक गोमुख के पास एक डाकबँगला बन गया है। मैंने अपनी पुस्तक ‘ज्योतिपुंज हिमालय’ में तीनों बार की यात्रा का वर्णन किया है। जो आनंद प्रकृति को उसके वास्तविक रूप में देखने में आता है, उसे स्थान-स्थान पर बनने वाले भवन नष्ट कर देते हैं। आज न वहाँ भोजपत्रों के वृक्षों का वन ‘भोजवासा’ है, न चीड़ के वृक्षों का ‘चीड़वासा’। उनके सौंदर्य का वर्णन करना अब बड़ा मुश्किल है। हाँ, एक महिला, ने बड़ा साहस करके फिर से भोजपत्रों के वृक्ष लगाना शुरू कर दिया है। प्रकृति की गोद में सोने और डाकबँगले में सोने में जो अंतर है, उसका वर्णन तो कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है, इसलिए इन लेखों का सौंदर्य हमेशा पाठकों के आकर्षण का केंद्र बना रहेगा।
कश्मीर तो ‘पृथ्वी पर स्वर्ग’ कहलाता है। राजनीतिक कुचक्रों की वजह से वहाँ जो भयानक स्थिति पैदा हो गई है, उसके कारण यात्री वहाँ जाते हुए डरते हैं, लेकिन आतंक के कारण वहाँ की प्रकृति तो नहीं बदली जा सकती। पुराने ऐतिहासिक भवनों का सौंदर्य हमें आज भी आकर्षित करता है। इनके संबंध में जो मेरे लेख हैं इस संकलन में आए हैं, उनको पढ़ते हुए पाठक बार-बार सोचने को विवश हो जाता है। हिंदुओं का तीर्थस्थल अमरनाथ वहीं पर है। आतंकवाद प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक आस्था को नष्ट नहीं कर सकता, इसी कारण तो उसे देखने के लिए साहसी लोग आज भी पृथ्वी के इस स्वर्ग की ओर खिंचे चले आते हैं। कश्मीर संबंधी अपने पाँच लेखों में मैंने इसी सौंदर्य का वर्णन किया है।
भारत के तीन और शहरों की यात्रा का वर्णन मैंने किया है—कलकत्ता, वैशाली और भिलाई। वैशाली का ऐतिहासिक महत्त्व है। यहीं पर तीर्थंकर महावीर और तथागत बुद्ध का कार्य-स्थल है। इसका महत्त्व आज भी वैसा ही है, जैसा पिछली सदी में था। कलकत्ता और भिलाई तो आधुनिक नगर हैं। उनमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है।
बाँग्ला के सुप्रसिद्ध लेखक शरत्चंद्र की जीवनी की सामग्री की खोज में मैं सन् 1960 में दक्षिण-पूर्व एशिया के छह देशों में गया था। आज चवालीस वर्ष बाद वहाँ की राजनीतिक स्थिति में बहुत परिवर्तन हो गया है, लेकिन प्राकृति और ऐतिहासिक स्थल हर जगह वैसे ही हैं। कंबोदिया ‘कंपूचिया’ भले ही बन गया हो, लेकिन हिंदुओं के जो सुंदर मंदिर वहाँ पर हैं, वे आज भी वैसे ही हैं। थाईलैंड की स्थिति भी वैसी ही है। ‘एमराल्ड बुद्धा’ का विशाल मंदिर, जिसे देखने दुनिया-भर के लोग आते हैं, वैसा ही है। भले ही वरमा का नाम और शासक बदल गए हों, भारतवासी भी अब वहाँ उतने नहीं रहे, जितने सन् 1970 में थे, लेकिन उसके बौद्ध मंदिर और प्राकृतिक झीलें, वे सभी वैसी की वैसी हैं। इसलिए जो लेख मैंने लिखे उनमें ये सब परिवर्तन हो जाने के बाद भी स्थिति वैसी ही है।
कश्मीर, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और सोवियत रूस की यात्राओं के संबंध में जो लेख इसमें आए हैं, क्या इनमें कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता है ? यह प्रश्न इसलिए उठा क्योंकि इन देशों की राजनीतिक स्थिति में काफी परिवर्तन आ गया है मुझे लगता है कि उन लेखों में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मैं तो उसी स्थिति का साक्षी हूँ जो उन देशों में उस समय थी, जब मैं वहाँ गया था। एक और बात है, किसी भी देश में भौगोलिक परिवर्तन किन्ही विशेष परिस्थितियों के कारण होता है। हाँ, राजनीतिक परिवर्तन होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त एक और बात है—यदि परिवर्तन हुए भी हैं तो उस समय की स्थिति, जब पहली बार मैं वहाँ गया था, अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
हम थोड़ा विस्तार से चर्चा करेंगे। इस पुस्तक में मेरे 21 लेख संकलित हैं। छह लेखों का संबंध हिमालय में स्थित तीर्थ स्थानों से है, जैसे बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री। पाँच लेख कश्मीर के संबंध में हैं। चार का संबंध सोवियत रूस से, तीन का दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से और एक-एक लेख भारत के तीन नगरों के बारे में है, कलकत्ता, भिलाई और वैशाली।
हिमालय के जिन तीर्थों की यात्रा की उनमें केदारनाथ, बदरीनाथ, यमनोत्री और गंगोत्री प्रमुख हैं। पहली बार मैं बदरीनाथ और केदारनाथ सन् 1950 में गया था और अंतिम बार गंगोत्री, गोमुख और तपोवन सन् 1980 में। इन तीर्थ स्थानों के मूल रूप में तो कोई अंतर नहीं आया, हाँ, एक अंतर अवश्य आया है,
यात्रा के साधनों में। बदरीनाथ और केदारनाथ जब मैं पहली बार सन् 1950 में गया था तो रुद्रप्रयाग तक बस जाती थी, उसके बाद पैदल जाना पड़ता था। अब केदारनाथ के लिए गौरीकुंड तक बस जाती है, पर उसके बाद 6-7 मील की कठिन चढ़ाई पैदल ही पूरी करनी पड़ती है। केदारनाथ के मंदिर में या उसके आसपास की प्रकृति वैसी की वैसी है। हम वहाँ के वासुकि-ताल गए थे जो साढ़े पंद्रह हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। मार्ग अगम्य है। इसके अतिरिक्त हम लोग वहाँ बर्फ के तूफान में घिर गए थे। आज भी वहाँ लगभग वैसी ही स्थिति है इसलिए मेरे लेख में जो चित्र अंकित हुआ है, वह आज भी वैसा का वैसा ही है। हाँ, बदरीनाथ-यात्रा में एक अंतर पड़ा है। अब सीधे बदरीनाथ के मंदिर तक बस जाती है। इस कारण पीपलकोटी से बदरी नाथ तक जो प्राकृतिक दृश्य हैं और मार्ग की जो मोहक कठिनाइयाँ हैं, उनसे आज का यात्री वंचित रह जाता है। मेरी दृष्टि है, इसलिए मैं समझता हूँ कि बीच के जो अद्भुत प्राकृतिक दृश्य हैं, उनको न देख पाना एक पर्यटक की बहुत बड़ी क्षति है। पैदल यात्रा का अपना ही एक आनंद होता है। वह इन लेखों को पढ़कर ही जाना जा सकता है।
इसी तरह गंगोत्री की यात्रा पहले बस द्वारा उत्तरकाशी तक ही हो सकती थी, अब सीधे गंगोत्री तक बस जाती है, इसलिए मार्ग में पड़ने वाले जितने स्थल हैं उनको देखने से भी यात्री वंचित रह जाता है। अनेक कुंड, नदियों के उद्गम स्थल उद्यान, सब छूट जाते हैं।
गंगोत्री से आगे गोमुख का रास्ता पहली बार जब हम वहाँ गए थे तो इतना बीहड़ था कि सभी लोगों ने हमें वहाँ जाने से रोका, लेकिन स्वामी सुंदरानंद जी की सहायता से इन बीहड़ रास्तों को पार करते हुए हम सीधे गंगा-हिमानी के द्वार पर पहुँच गए। उस द्वार का नाम ही गोमुख है।
गोमुख तो आज भी लगभग वैसा ही है। ‘हिमानी’ होने के कारण आगे-पीछे होता रहता है। अब वहाँ जाने के लिए दूसरी ओर सँकरी पगडंडी बन गई है, लेकिन बीहड़ रास्तों को पार करने का जो आनंद होता है, वह कुछ और ही होता है। पहले उस पार के रास्तों पर एक टूटी-फूटी धर्मशाला को छोड़कर कोई रहने लायक नहीं था। लेकिन इस ओर अब रास्ते पर डाकबँगला है, साधुओं के आश्रम हैं और ठीक गोमुख के पास एक डाकबँगला बन गया है। मैंने अपनी पुस्तक ‘ज्योतिपुंज हिमालय’ में तीनों बार की यात्रा का वर्णन किया है। जो आनंद प्रकृति को उसके वास्तविक रूप में देखने में आता है, उसे स्थान-स्थान पर बनने वाले भवन नष्ट कर देते हैं। आज न वहाँ भोजपत्रों के वृक्षों का वन ‘भोजवासा’ है, न चीड़ के वृक्षों का ‘चीड़वासा’। उनके सौंदर्य का वर्णन करना अब बड़ा मुश्किल है। हाँ, एक महिला, ने बड़ा साहस करके फिर से भोजपत्रों के वृक्ष लगाना शुरू कर दिया है। प्रकृति की गोद में सोने और डाकबँगले में सोने में जो अंतर है, उसका वर्णन तो कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है, इसलिए इन लेखों का सौंदर्य हमेशा पाठकों के आकर्षण का केंद्र बना रहेगा।
कश्मीर तो ‘पृथ्वी पर स्वर्ग’ कहलाता है। राजनीतिक कुचक्रों की वजह से वहाँ जो भयानक स्थिति पैदा हो गई है, उसके कारण यात्री वहाँ जाते हुए डरते हैं, लेकिन आतंक के कारण वहाँ की प्रकृति तो नहीं बदली जा सकती। पुराने ऐतिहासिक भवनों का सौंदर्य हमें आज भी आकर्षित करता है। इनके संबंध में जो मेरे लेख हैं इस संकलन में आए हैं, उनको पढ़ते हुए पाठक बार-बार सोचने को विवश हो जाता है। हिंदुओं का तीर्थस्थल अमरनाथ वहीं पर है। आतंकवाद प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक आस्था को नष्ट नहीं कर सकता, इसी कारण तो उसे देखने के लिए साहसी लोग आज भी पृथ्वी के इस स्वर्ग की ओर खिंचे चले आते हैं। कश्मीर संबंधी अपने पाँच लेखों में मैंने इसी सौंदर्य का वर्णन किया है।
भारत के तीन और शहरों की यात्रा का वर्णन मैंने किया है—कलकत्ता, वैशाली और भिलाई। वैशाली का ऐतिहासिक महत्त्व है। यहीं पर तीर्थंकर महावीर और तथागत बुद्ध का कार्य-स्थल है। इसका महत्त्व आज भी वैसा ही है, जैसा पिछली सदी में था। कलकत्ता और भिलाई तो आधुनिक नगर हैं। उनमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है।
बाँग्ला के सुप्रसिद्ध लेखक शरत्चंद्र की जीवनी की सामग्री की खोज में मैं सन् 1960 में दक्षिण-पूर्व एशिया के छह देशों में गया था। आज चवालीस वर्ष बाद वहाँ की राजनीतिक स्थिति में बहुत परिवर्तन हो गया है, लेकिन प्राकृति और ऐतिहासिक स्थल हर जगह वैसे ही हैं। कंबोदिया ‘कंपूचिया’ भले ही बन गया हो, लेकिन हिंदुओं के जो सुंदर मंदिर वहाँ पर हैं, वे आज भी वैसे ही हैं। थाईलैंड की स्थिति भी वैसी ही है। ‘एमराल्ड बुद्धा’ का विशाल मंदिर, जिसे देखने दुनिया-भर के लोग आते हैं, वैसा ही है। भले ही वरमा का नाम और शासक बदल गए हों, भारतवासी भी अब वहाँ उतने नहीं रहे, जितने सन् 1970 में थे, लेकिन उसके बौद्ध मंदिर और प्राकृतिक झीलें, वे सभी वैसी की वैसी हैं। इसलिए जो लेख मैंने लिखे उनमें ये सब परिवर्तन हो जाने के बाद भी स्थिति वैसी ही है।
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