विवेचनात्मक व उपदेशात्मक संग्रह >> वेदों की कथाएं वेदों की कथाएंमहेश शर्मा
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वेद ज्ञान के भण्डार है जिनके उचित अध्धयन के लिए मनुष्य यदि उसमें प्रवेश करे तो वह ब्रह्मज्ञानी बनकर निकलेगा और स्वयं का उद्धार करेगा ही साथ ही में और का उद्धार करेगा।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वेद - बच्चों जैसे की दिमाग की उपज है। इस कथन पर आप विश्वास करेंगे।
परन्तु यह कथन उतना ही सत्य है जितना सूर्य का पूर्व से निकलना। वेदों की
रचना ऋषि मुनियों ने की है। ऋषि मुनियों के हृदय बच्चों की तरह निर्मल
होते हैं। वे किसी बात को जैसा देखते हैं, वैसा ही शब्दों में अभिव्यक्त
करते हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि वेद बच्चों जैसे निर्मल मन वाले
ऋषियों की सत्य वाणी हैं। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसके बारे
में कहा गया है -
"यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावऋग्वेदमहिमा लोकेषु प्रचरिष्यति।।"
तावऋग्वेदमहिमा लोकेषु प्रचरिष्यति।।"
अर्थात् जब तक पृथ्वी पर पर्वत स्थित रहेंगे और नदियाँ बहती रहेंगी, तब तक
ऋग्वेद की महिमा संसार में फैली रहेंगी।
वेदों में विभिन्न कथाओं के माध्यम से ब्रह्माण्ड की उत्त्पत्ति, ब्रह्म, ईश्वर, प्रकृति, पशु-पक्षी, मनुष्य की उत्पत्ति, प्रलय, समाज, काल, संस्कृति, ग्रह, नक्षत्र, राजा, प्रजा, स्वर्ग, नरक, यम, पाप, पुण्य, जीवन, मृत्यु आदि का विहंगम वर्णन किया गया है। वेद गागर में सागर की भाँति हैं। कुछ अक्षरों से मिलकर बने छोटे से मंत्र में ब्रह्माण्ड जैसी व्यापकता के दर्शन होते हैं। दिव्य ज्ञान के इसी भण्डार से कुछ कथाओं को पिरोकर यह पुस्तक तैयार की गयी है।
वेद ज्ञान के भंडार हैं जिनके उचित अध्ययन के लिए मनुष्य यदि उनमें प्रवेश करे तो वह ब्रह्मज्ञानी बनकर निकलेगा और स्वयं का तो उद्धार करेगा साथ ही में औरों का भी उद्धार करेगा। इस बात को ध्यान में रखकर वेदों के ज्ञान को हमने सरल कथाओं में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है आशा है, यह सुनकर पाठकों के लिए शिक्षाप्रद, रोचक औप उपयोगी सिद्ध होगी। अपनी प्रेरक प्रतिक्रियाओं और सुझावों से अवश्य अवगत कराएं।
वेदों में विभिन्न कथाओं के माध्यम से ब्रह्माण्ड की उत्त्पत्ति, ब्रह्म, ईश्वर, प्रकृति, पशु-पक्षी, मनुष्य की उत्पत्ति, प्रलय, समाज, काल, संस्कृति, ग्रह, नक्षत्र, राजा, प्रजा, स्वर्ग, नरक, यम, पाप, पुण्य, जीवन, मृत्यु आदि का विहंगम वर्णन किया गया है। वेद गागर में सागर की भाँति हैं। कुछ अक्षरों से मिलकर बने छोटे से मंत्र में ब्रह्माण्ड जैसी व्यापकता के दर्शन होते हैं। दिव्य ज्ञान के इसी भण्डार से कुछ कथाओं को पिरोकर यह पुस्तक तैयार की गयी है।
वेद ज्ञान के भंडार हैं जिनके उचित अध्ययन के लिए मनुष्य यदि उनमें प्रवेश करे तो वह ब्रह्मज्ञानी बनकर निकलेगा और स्वयं का तो उद्धार करेगा साथ ही में औरों का भी उद्धार करेगा। इस बात को ध्यान में रखकर वेदों के ज्ञान को हमने सरल कथाओं में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है आशा है, यह सुनकर पाठकों के लिए शिक्षाप्रद, रोचक औप उपयोगी सिद्ध होगी। अपनी प्रेरक प्रतिक्रियाओं और सुझावों से अवश्य अवगत कराएं।
अपनी बात
वेदों में परम सत्य ईश्वर की वाणी संगृहीत की गई है। वेद हमारी प्राचीन
भारतीय संस्कृति के अक्षुण्णा भण्डार हैं।
हमारे ऋषि-मुनियों ने युगों तक गहन चिंतन-मनन कर इस ब्राह्मांड में उपस्थित कण-कण के गूढ़ रहस्य का सत्याज्ञान वेदों में संगृहीत किया। उन्होंने अपना समस्त जीवन इन गूढ़ रहस्यों को खोजते में लगाकर भारतीय संस्कृति और परम्पराओं की नींव सुदृढ़ की। इन गूढ़ रहस्यों का विश्व के अनेक देशों के विद्वानों के अध्ययन कर अपने-अपने देशों का विकास किया। चाहे वह चिकित्सा, औषधि शास्त्र का क्षेत्र हो या खलोग शास्त्र का, ज्योतिष शास्त्र का हो अथवा साहित्य का। उन्होंने भारतीय ऋषियों की कठिन तपस्या का भरपूर लाभ उठाया और उसे और उसे अपनाया भी। बहुत से देशों के विद्वान आज भी इनका अध्ययन कर रहे है और उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं।
लेकिन भारतीय आम आदमी लोग वेदों की दुरूहता के कारण इनके संगृहीत गूढ़ रहस्यों का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं कर पाते हैं। यदि उन्हें स्कूल-कालेज से ही वैदिक संस्कृति का अनिवार्य रूप से उचित अध्ययन करवाया जाए तो उनके ज्ञान चक्षु खुल जाएँ और उनकी रुचि भारतीय संस्कृति के सवंर्धन तथा अंगीकरण में संकलन हो जाए।
संक्षेप में कहे तो वेद ज्ञान के वे भण्डार हैं जिनके उचित अध्ययन के लिए मनुष्य यदि उनमें प्रवेश करे तो वह ब्रह्माज्ञानी बनकर निकलेगा और स्वयं का तो उद्वार करेगा ही साथ में औरों का भी उद्धार करेगा। इस बात को ध्यान में रखकर वेदों के ज्ञान को हमने सरल सथाओं में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा है, यह पुस्तक पाठकों के लिए शिक्षाप्रद, रोचक और उपयोगी सिद्ध होगी। अपनी प्रेरक प्रतिक्रियाओं और सुक्षावों से अवश्य अवगत् कराएं।
हमारे ऋषि-मुनियों ने युगों तक गहन चिंतन-मनन कर इस ब्राह्मांड में उपस्थित कण-कण के गूढ़ रहस्य का सत्याज्ञान वेदों में संगृहीत किया। उन्होंने अपना समस्त जीवन इन गूढ़ रहस्यों को खोजते में लगाकर भारतीय संस्कृति और परम्पराओं की नींव सुदृढ़ की। इन गूढ़ रहस्यों का विश्व के अनेक देशों के विद्वानों के अध्ययन कर अपने-अपने देशों का विकास किया। चाहे वह चिकित्सा, औषधि शास्त्र का क्षेत्र हो या खलोग शास्त्र का, ज्योतिष शास्त्र का हो अथवा साहित्य का। उन्होंने भारतीय ऋषियों की कठिन तपस्या का भरपूर लाभ उठाया और उसे और उसे अपनाया भी। बहुत से देशों के विद्वान आज भी इनका अध्ययन कर रहे है और उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं।
लेकिन भारतीय आम आदमी लोग वेदों की दुरूहता के कारण इनके संगृहीत गूढ़ रहस्यों का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं कर पाते हैं। यदि उन्हें स्कूल-कालेज से ही वैदिक संस्कृति का अनिवार्य रूप से उचित अध्ययन करवाया जाए तो उनके ज्ञान चक्षु खुल जाएँ और उनकी रुचि भारतीय संस्कृति के सवंर्धन तथा अंगीकरण में संकलन हो जाए।
संक्षेप में कहे तो वेद ज्ञान के वे भण्डार हैं जिनके उचित अध्ययन के लिए मनुष्य यदि उनमें प्रवेश करे तो वह ब्रह्माज्ञानी बनकर निकलेगा और स्वयं का तो उद्वार करेगा ही साथ में औरों का भी उद्धार करेगा। इस बात को ध्यान में रखकर वेदों के ज्ञान को हमने सरल सथाओं में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा है, यह पुस्तक पाठकों के लिए शिक्षाप्रद, रोचक और उपयोगी सिद्ध होगी। अपनी प्रेरक प्रतिक्रियाओं और सुक्षावों से अवश्य अवगत् कराएं।
महेश शर्मा
जीवन दान
यह कथा महर्षि दधीचि की है, जिन्होंने देवराज इन्द्र की रक्षा
के
लिए अपनी अस्थियाँ दान कर दीं। यह कार्य उन्होंने परोपकार की भावना से
किया और संसार के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया। यह कथा इस प्रकार है।
एक बार इन्द्र के मन में यह बात घर कर गई कि ‘वे त्रिलोकीनाथ हैं। देवता उन्हें पूजते हैं। यज्ञ के समय ब्राह्मण एवं ऋषिगण उन्हें आहुतियाँ प्रदान करते हैं। देवगुरु बृहस्पति भी मात्र एक ब्राह्मण हैं, फिर वे उनका आदर-सत्कार क्यों करें ?’ यह सोचकर वे देवगुरु बृहस्पति के इन्द्रलोक में आने पर अपने सिंहासन से नहीं उठे और न ही उन्होंने उन्हें आसन ग्रहण करने के लिए कहा। बृहस्पति परम ज्ञानी थे। वे इन्द्र के मन की बात भांप गए और बिना कुछ कहे वापस चले गए।
कुछ देवगण के समझाने पर इन्द्र को अपनी गलती का आभास हुआ। वे दौड़े-दौड़े देवगुरु के यहाँ पहुँचे।
लेकिन इन्द्र द्वारा अपमानित देवगुरु अन्यत्र चले गए थे, इसलिए नहीं मिले। इन्द्र ने उन्हें प्रत्येक स्थान पर ढूंढा। लेकिन निराशा ही हाथ लगी। देवगुरु के बिना यज्ञ कार्य रुक गए और देवताओं की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होने लगी। शीघ्र ही इसकी भनक असुरों को भी हो गई। वे देवताओं पर चढ़ाई करने की योजना बनाने लगे।
एक दिन दैत्यगुरु शुक्राचार्य से आज्ञा प्राप्त कर असुरों ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी और मारकाट मचा दी। देवताओं में हड़कम्प मच गया। वे प्राण बचाकर इधर-उधर भागने लगे। इन्द्र भी सिंहासन छो़ड़कर भाग खड़े हुए। असुरों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।
पराजित इन्द्र देवगण सहित ब्राह्मजी की शरण में पहुँचे और उचित मार्गदर्शन की याचना करने लगे।
ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि वे त्वष्टा के पुत्र विश्वरुप को; जो वेदज्ञ, विद्वान हैं, उन्हें अपना गुरु मानकर उनसे यज्ञ आदि कार्य सम्पन्न करवाएँ। इन्द्र ने उनकी आज्ञा मानकर विश्वरुप को देवगुरु बनाने के लिए मना लिया और विश्वरूप इन्द्र आदि देवताओं के लिए यज्ञ करवाने लगे। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे। उनका यह कार्य इन्द्र से छुपा न रह सका। एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा।
इन्द्र तेजहीन हो गए। सभी उनकी उपेक्षा करने लगे। इन्द्र की यह दुर्दशा देश देवगुरु बृहस्पति का हृदय करुणा से भर आया और वे स्वतः ही उनके समक्ष प्रकट हो गए। इन्द्र ने उनसे क्षमा माँगी। तब प्रसन्न होकर बृहस्पति ने देवताओं के यज्ञ आदि कार्य संपन्न करवाए और इन्द्र की ब्रह्महत्या को पृथ्वी, जल, वृक्ष एवं स्त्रियों में वितरित कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने इन्द्र को उनका राजपाठ वापस दिलवाया।
इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्र हत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। उसके पराक्रम से सभी देवता भयभीत हो गए। इन्द्र भी भय से काँपने लगे और देवताओं के साथ फिर ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियाँ उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।
दधीचि ब्रह्माजी के पौत्र तथा अथर्वा ऋषि के पुत्र थे। उन्होंने अपना आश्रम चन्द्रभागा के तट पर बनाया था। एक बार की बात है, महर्षि दधीचि ने अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया जो इन्द्र को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उनका सिर उतार लिया।
किंतु अश्विनी कुमारों ने उनके धड़ पर अश्व का सिर लगा दिया जिससे वे ‘अश्वसिरा’ नाम से प्रसिद्ध हुए। जिस इन्द्र ने महर्षि दधीचि के साथ इतना घोर अन्याय किया हो, वही इन्द्र आज उनके पास इनकी अस्थियाँ माँगने आ रहे थे। नैमिषारण्य में पहुँचकर इन्द्र सहित समस्त देवताओं ने महर्षि दधीचि की स्तुति की। महर्षि ने प्रसन्न होकर उनसे इच्छित वरदान माँगने के लिए कहा। इन्द्र ने सारा वृतान्त सुनाकर उनसे उनकी अस्थियाँ माँगी।
तब दधीचि बोले—‘‘देवराज ! प्रत्येक जीवधारी का स्वयं प्राण त्यागन एक कठिन कार्य अवश्य है किंतु आपकी बात सुनकर ऐसा करना आवश्यक हो गया है। त्रिलोकी की रक्षा। के लिए मैं आपको अपनी अस्थियाँ अवश्य दूँगा। किंतु इससे पूर्व मैं तीर्थ दर्शन करना चाहता हूँ।’’
तब इन्द्र ने नैमिषारण्य में ही सभी तीर्थों को बुलवा लिया। महर्षि दधीचि तीर्थ-दर्शन कर समाधि में लीन हो गए और प्राण त्याग दिए। देवताओं की आज्ञा से एक जंगली गाय ने अपनी कंटीली जीभ से चाट-चाटकर महर्षि की सारी चमड़ी उधेड़ दी। तब महातपस्वी के तप से अभिमंत्रित रीढ़ की अस्थि को इन्द्र ने ले लिया और उस अस्थि से अपने महाशक्तिशाली वज्र का निर्माण करवाया। उस वज्र से इन्द्र ने महापराक्रमी असुर वृत्तासुर का अन्त किया। ,
एक बार इन्द्र के मन में यह बात घर कर गई कि ‘वे त्रिलोकीनाथ हैं। देवता उन्हें पूजते हैं। यज्ञ के समय ब्राह्मण एवं ऋषिगण उन्हें आहुतियाँ प्रदान करते हैं। देवगुरु बृहस्पति भी मात्र एक ब्राह्मण हैं, फिर वे उनका आदर-सत्कार क्यों करें ?’ यह सोचकर वे देवगुरु बृहस्पति के इन्द्रलोक में आने पर अपने सिंहासन से नहीं उठे और न ही उन्होंने उन्हें आसन ग्रहण करने के लिए कहा। बृहस्पति परम ज्ञानी थे। वे इन्द्र के मन की बात भांप गए और बिना कुछ कहे वापस चले गए।
कुछ देवगण के समझाने पर इन्द्र को अपनी गलती का आभास हुआ। वे दौड़े-दौड़े देवगुरु के यहाँ पहुँचे।
लेकिन इन्द्र द्वारा अपमानित देवगुरु अन्यत्र चले गए थे, इसलिए नहीं मिले। इन्द्र ने उन्हें प्रत्येक स्थान पर ढूंढा। लेकिन निराशा ही हाथ लगी। देवगुरु के बिना यज्ञ कार्य रुक गए और देवताओं की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होने लगी। शीघ्र ही इसकी भनक असुरों को भी हो गई। वे देवताओं पर चढ़ाई करने की योजना बनाने लगे।
एक दिन दैत्यगुरु शुक्राचार्य से आज्ञा प्राप्त कर असुरों ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी और मारकाट मचा दी। देवताओं में हड़कम्प मच गया। वे प्राण बचाकर इधर-उधर भागने लगे। इन्द्र भी सिंहासन छो़ड़कर भाग खड़े हुए। असुरों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।
पराजित इन्द्र देवगण सहित ब्राह्मजी की शरण में पहुँचे और उचित मार्गदर्शन की याचना करने लगे।
ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि वे त्वष्टा के पुत्र विश्वरुप को; जो वेदज्ञ, विद्वान हैं, उन्हें अपना गुरु मानकर उनसे यज्ञ आदि कार्य सम्पन्न करवाएँ। इन्द्र ने उनकी आज्ञा मानकर विश्वरुप को देवगुरु बनाने के लिए मना लिया और विश्वरूप इन्द्र आदि देवताओं के लिए यज्ञ करवाने लगे। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे। उनका यह कार्य इन्द्र से छुपा न रह सका। एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा।
इन्द्र तेजहीन हो गए। सभी उनकी उपेक्षा करने लगे। इन्द्र की यह दुर्दशा देश देवगुरु बृहस्पति का हृदय करुणा से भर आया और वे स्वतः ही उनके समक्ष प्रकट हो गए। इन्द्र ने उनसे क्षमा माँगी। तब प्रसन्न होकर बृहस्पति ने देवताओं के यज्ञ आदि कार्य संपन्न करवाए और इन्द्र की ब्रह्महत्या को पृथ्वी, जल, वृक्ष एवं स्त्रियों में वितरित कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने इन्द्र को उनका राजपाठ वापस दिलवाया।
इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्र हत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। उसके पराक्रम से सभी देवता भयभीत हो गए। इन्द्र भी भय से काँपने लगे और देवताओं के साथ फिर ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियाँ उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।
दधीचि ब्रह्माजी के पौत्र तथा अथर्वा ऋषि के पुत्र थे। उन्होंने अपना आश्रम चन्द्रभागा के तट पर बनाया था। एक बार की बात है, महर्षि दधीचि ने अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया जो इन्द्र को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उनका सिर उतार लिया।
किंतु अश्विनी कुमारों ने उनके धड़ पर अश्व का सिर लगा दिया जिससे वे ‘अश्वसिरा’ नाम से प्रसिद्ध हुए। जिस इन्द्र ने महर्षि दधीचि के साथ इतना घोर अन्याय किया हो, वही इन्द्र आज उनके पास इनकी अस्थियाँ माँगने आ रहे थे। नैमिषारण्य में पहुँचकर इन्द्र सहित समस्त देवताओं ने महर्षि दधीचि की स्तुति की। महर्षि ने प्रसन्न होकर उनसे इच्छित वरदान माँगने के लिए कहा। इन्द्र ने सारा वृतान्त सुनाकर उनसे उनकी अस्थियाँ माँगी।
तब दधीचि बोले—‘‘देवराज ! प्रत्येक जीवधारी का स्वयं प्राण त्यागन एक कठिन कार्य अवश्य है किंतु आपकी बात सुनकर ऐसा करना आवश्यक हो गया है। त्रिलोकी की रक्षा। के लिए मैं आपको अपनी अस्थियाँ अवश्य दूँगा। किंतु इससे पूर्व मैं तीर्थ दर्शन करना चाहता हूँ।’’
तब इन्द्र ने नैमिषारण्य में ही सभी तीर्थों को बुलवा लिया। महर्षि दधीचि तीर्थ-दर्शन कर समाधि में लीन हो गए और प्राण त्याग दिए। देवताओं की आज्ञा से एक जंगली गाय ने अपनी कंटीली जीभ से चाट-चाटकर महर्षि की सारी चमड़ी उधेड़ दी। तब महातपस्वी के तप से अभिमंत्रित रीढ़ की अस्थि को इन्द्र ने ले लिया और उस अस्थि से अपने महाशक्तिशाली वज्र का निर्माण करवाया। उस वज्र से इन्द्र ने महापराक्रमी असुर वृत्तासुर का अन्त किया। ,
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