पारिवारिक >> गृहभंग गृहभंगभैरप्पा
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इस उपन्यास की कथावस्तु तिपटूर और चन्नपट्टण तालुका प्रदेशों में 1920 से 40-50 की अवधि में घटी घटना है। ‘गृहभंग’ का प्रथम अध्याय पटवारी रामण्य के परिवार के चित्रण से प्रारंभ होता है। गंगम्मा विधवा है। उसे संस्कृति की गंध तक नहीं। उसकी जबान से निकलने वाला हर शब्द ‘गृहभंग’ का मूल कारण बनता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह उपन्यास भैरप्पा के उपन्यास के महत्त्पूर्ण अंग को प्रस्तुत करता है।
वह गुण यह है कि जब वह अपने व्यक्तिगत ग्राम्य जीवन को अद्भुत सम्पदा को
छूते हैं तो उपन्यासकार की वैचारिकता से सहज ही मुक्त हो जाते हैं, और जब
बौद्धिक समस्याओं को उठाते हैं तो अधिकांशतः नगरों को ही अपने
केन्द्र-बिन्दु के रुप में चुनते हैं।
‘गृहभंग’ में उपन्यासकार की निर्लिप्तता अद्भुत है। वह अपने सृष्टि-कार्य के बाहर खड़े होकर देखने वाले नियन्ता की भाँति उसके कलाकार को कृति-रचना में लग जाना पड़ता है। इस कला का उदाहरण ‘गृहभंग’ में हैं।
जीवन के एक अंश को सफल रुप से ‘गृहभंग’ का निरुपण-विधान वास्तव में बहुत ही मौलिक और अद्भुत है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भैरप्पा का कहना है- ‘‘यह उपन्यास किसी भी समस्या किसी से संबंधित नहीं है-जीवन को वस्तुनिष्ठ रुप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न है।’’ इस प्रयत्न के लेखक निःसन्देह बहुत सफल हैं। ‘गृहभंग’ की गणना भैरप्पा की श्रेष्ठतम कृतियों में है।
इस कालजयी औपन्यासिक कृति को हिन्दी पाठकों तक पहुँचा पाने में हम गौरव अनुभव करते हैं। ‘शब्दकार’ से श्री भैरप्पा के प्रकाशित उपन्यासः
‘पर्व’, ‘उल्लंघन’, ‘वशंवृक्ष’, ‘गोधूलि’, ‘गृहभंग’, ‘आधार’ और ‘साक्षी’ (शीघ्र प्रकाश्य)
‘गृहभंग’ में उपन्यासकार की निर्लिप्तता अद्भुत है। वह अपने सृष्टि-कार्य के बाहर खड़े होकर देखने वाले नियन्ता की भाँति उसके कलाकार को कृति-रचना में लग जाना पड़ता है। इस कला का उदाहरण ‘गृहभंग’ में हैं।
जीवन के एक अंश को सफल रुप से ‘गृहभंग’ का निरुपण-विधान वास्तव में बहुत ही मौलिक और अद्भुत है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भैरप्पा का कहना है- ‘‘यह उपन्यास किसी भी समस्या किसी से संबंधित नहीं है-जीवन को वस्तुनिष्ठ रुप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न है।’’ इस प्रयत्न के लेखक निःसन्देह बहुत सफल हैं। ‘गृहभंग’ की गणना भैरप्पा की श्रेष्ठतम कृतियों में है।
इस कालजयी औपन्यासिक कृति को हिन्दी पाठकों तक पहुँचा पाने में हम गौरव अनुभव करते हैं। ‘शब्दकार’ से श्री भैरप्पा के प्रकाशित उपन्यासः
‘पर्व’, ‘उल्लंघन’, ‘वशंवृक्ष’, ‘गोधूलि’, ‘गृहभंग’, ‘आधार’ और ‘साक्षी’ (शीघ्र प्रकाश्य)
भूमिका
संक्षेप में कहना चाहिए कि कन्नड़ उपन्यास की परंपरा का प्रारंभ बिंदु इस
शताब्दी के आदि में ही देखा जाता है। लेकिन अब उस बिंदुके महत्त्व के घटक
के रूप में केवल स्व. गळगनाथ जी बचे हुए हैं। ऐतिहासिक विषयों को, वर्तमान
की विपुलता के साथ, गळगनाथ जी ने उपन्यासों के विवरणों में प्रस्तुत किया
है। वे कन्नड़ उपन्यास-जगत् के निरुपण-विधान के लिए सशक्त नींव डालने के
साथ-साथ विभिन्न भाषाओं के उपन्यासों को पढ़कर तृप्त होने वाले’
कन्नड़ के प्रति अभिरुचि रखने वाले गुटों में आशा-किरण बनकर उदित हुए।
गळगनाथजी के पश्चात् वही परंपरा संपत्ति के रूप में बढ़ने के साथ
प्रगतिशील, नवोदय, रम्य, आदि गुटों में शाखोपशाखाएं उग आयीं। लेकिन यहाँ
दो महत्वपूर्ण विषयों को जान लेना आवश्यक होगा। पहला है, नव्य साहित्य के
अतिरिक्त अन्य समस्त गुट, जो संप्रदायबद्ध निरुपण-विधान में ही संतुष्ट
हुए; और दूसरा, इन गुटों से दूर रहने वाले प्रमुख उपन्यासकार। यह द्वितीय
विषय प्रायः आजकल के कन्नड़ साहित्य के संबंध में लिखी गयी व्याख्या ही
प्रतीत होता है।
डा. भैरप्पा जी के उपन्यासों के बारे में लिखते समय तो यह और भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। क्योंकि कन्नड़ के दो महान उपन्यासकार-डा. शिवराम कारंत जी और डा. एस.एस. भैरप्पीजी सदा गुटबाजियों से दूर, उपन्यास-दृष्टि से जीवन को देखकर सृजन-क्रिया की जिम्मेदारी को निभाने में निरत हैं। मार्ग, पंथ अथवा विचार, आदर्शों के प्रति आबद्ध होकर अपनी साहित्य-क्रिया की बलि होने वाले नव्यपंथ के अनुभव की व्याप्ति अत्यंत कम होकर, अब हमें दिखाई न देने पर भी उन सबको त्याग कर उपन्यास को जीवन की जटिलता को समझाने में संवहन मार्ग का उपयोग करने वाले भी काफी लोग हैं।
कन्नड़ के श्रेष्ठतम नाटककार ‘श्रीरंग’ ने कन्नड़, साहित्य-जगत् को प्रथम मनोवैज्ञानिक उपन्यास प्रदान किया है; ‘देवुडु’ अपने अनुभव को हाड़-मांस में भरकर सप्राण बना देने में सफल हुए हैं; चदुरंगजी ने अपने उपन्यास ‘सर्वमंगळ’ के द्वारा पुनः उपन्यास जगत् को त्रासद दृष्टि दे दी; विनायक गोकाकजी ने ‘समरसवे जीवन’ (समरस ही जीवन है) के माध्यम से पीढ़ियों के वृत्तांत को पचाने का कमाल कर दिखाया है और उन सबके कलश के समान के.वी.पुट्टप्प (कुवेंपु) श्री ने ‘नानूर सुब्बम्मा हेगडती’ एवं ‘मलेगळल्लि मदुमगळ’ (पहाड़ी प्रदेश की वधू) के द्वारा बताया है कि उन्होंने ग्राम-जीवन में महाकाव्य के विस्तार को पहचाना है। ‘ग्रामायण’ के माध्यम से रावबहद्दर जी ने हमारे एक गाँव को सप्राण पात्र बनाकर व्यक्ति से श्रेष्ठ समष्टित्रासदी के सम्मुख हमें मूकवत् बना दिया है। यह सूची इस तरह बढ़ायी जा सकती है। लेकिन मार्मिक विषय यह है कि उपयुक्त सभी उपन्यासों में उन लेखकों के उत्कट क्षणों की भावनाएँ प्रकट हुई हैं-इन सब लेखकों ने जीवन को न उपन्यास की दृष्टि से ही देखा और न ही अपने को व्यक्त करने के लिए उपन्यास को माध्यम बनाया। इनमें से अधिकांश ने साहित्य के अन्य अंगों में अपनी प्रतिभा व्यक्त की है। यहाँ भुला नहीं सकते कि डा. शंकर मोकाशी पुणेकर’ जी कृत बहुचर्चित उपन्यास ‘गंगव्वा गंगाबाई’ (इनका एकमात्र उपन्यास) और डा.यू. आर. अनंतमूर्ति जी कत ‘संस्कार’ उपन्यास भी ऐसे ही उत्कट क्षणों का परिणाम हैं।
कन्नड़ उपन्यास की इस पृष्ठभूमि में जब डा. भैरप्पा जी की साधना देखते हैं तो लगता है कि अपनी मान्यताओं, अनुभवों और विचारों को केवल उपन्यास-जगत् को सफल बनाने के उद्देश्य से समाज के समस्त स्तरों के लोगों को अनुभव कराते हुए, उन सबको अपने में समेट कर कहने वालों में डा. शिवराम कारंत जी के पश्चात् इन्हीं का नाम आता है। वर्तमान कन्नड़ उपन्यासों की फसल काफी विपुल होते हुए भी भैरप्पा जी की तरह आज के समस्त स्तरों को समेटकर ले चलने वाला और कोई उपन्यासकार दृष्टिगोचर नहीं होता।
संक्रमण काल से गुजरने वाले हमारे भारत की समस्त समस्याओं को पकड़ने की शक्ति केवल उपन्यास में ही होने के कारण, उपन्यासकार का दायित्व भी काफी बढ़ जाता है। डा. भैरप्पा जी एक सप्राण प्रतिक्रियापूर्ण व्यक्तित्व होने के कारण, पुराने से नये में परिवर्तित होते समय में निहित संकट, मानसिक हलचल, संघर्ष आदि उनके उपन्यासों की कथा-वस्तु हैं।
‘धर्मश्री’ डा. भैरप्पा जी का प्रथम उपन्यास है। इसमें प्यार के बंधन में बंधकर हिंदू से ईसाई बनने वाले एक युवक का द्वंद्व चित्रण है। बुद्धि और भावनाओं का द्वन्द्व आगे बृहदाकार बनकर उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में साकार होने वाली कथावस्तु यहीं अपना प्रथम बीज बोती है। यह उपन्यास एक हिंदू युवक की, मतांतर के पूर्व की तनावपूर्ण भावनाओं की बलि होकर शिथिल होना उचित समझकर चित्रित करने पर भी, इसका दूसरा छोर मतांतर नहीं, बल्कि इस बात को विचित्र करना है कि जाति त्यागने की विधि भी होनी चाहिए। तत्पश्चात प्रकाशित ‘दूर सरिदरु’ (दूर हट गये) में बौद्धिक असमानता से उत्पन्न स्थिति-गतियों का विवरण देने का प्रयास होते हुए भी वह केवल वैचारिक स्तर पर ही उपन्यास का अधिकांश भाग दो पात्रों की चर्चा बनकर रह जाता है; और चर्चा में प्राण संचार का माध्यम नहीं बनता।
‘वंशवृक्ष’ भैरप्पा जी का प्रथम महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।1 संक्रमण काल में आने वाली समस्त समस्याओं का दर्पण-धरा-सा यह उपन्यास, कात्यायनी की शोकांतिका को चित्रित करने में अद्भुत सफल हुआ है। सात्विकता के प्रतीक बनकर श्रोत्रिजी उपन्यास भर में छाये रहते हैं तो आधुनिकता का स्पर्श करने वाली कात्यायनी विधवा होते हुए पुनर्विवाह कर उनके स्पर्श करने वाली कात्यायनी विधवा होते हुए भी पुनर्विवाह कर उनके समान उभरती है। सनातन धर्म और आधुनिकता का समांतर चित्रण वैचारिकता को स्पर्श किये बिना ही इतना शक्तियुक्त होकर कन्नड़ के किसी और उपन्यास में नहीं निखरा है। दोनों लक्ष्य, विश्वास को अर्थ प्रदान कर पात्रों के द्वारा मन के त्रासदों के माध्यम से चित्रित, भैरप्पा जी
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1. यह डा. पुत्रन द्वारा हिन्दी में अनूदित और विकास प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।
का यह उपन्यास सचमुच एक अर्थपूर्ण कृति है। (स्मरण रहे कि इस अति जनप्रिय उपन्यास और उस पर निर्मित राष्ट्रपति प्रशस्ति प्राप्त चलचित्र ने भैरप्पा जी को अखिल भारत ख्याति-शिखर पर पहुँचाया है।)
‘जलपात’ दांपत्य जीवन की समस्या की कल्पना को सुन्दर ढंग से चित्रित करता है। अति वैज्ञानिक दृष्टि दांपत्य जीवन को त्रासदी में समाप्त करने में सफल होती है। लेकिन संतान बनने से रोकने वाले कलाकार के कृत्रिम विधान, उसकी कला के विकास में नाशक बनते हैं। यहाँ का कलाकार और उसके समांतर उभरता डॉक्टर-ये दोनों बंबई की पृष्ठिभूमि में निखरते हैं। ‘जलपात’ इन सब विषयों की विपुलता लिये हुए भी ‘दूर सरिदरु’ उपन्यास की अपेक्षा रचना की दृष्टि से अधिक सफल है।
इनका एक और उपन्यास ‘नायी नेरळु’ (कुत्ते की छाया) अन्यों से भिन्न रूप लेकर आया है।1 पुनर्जन्म को कथावस्तु के रूप में प्रस्तुत करने वाली पूरे कन्नड़ उपन्यास-जगत् के लिए नयी है। भैरप्पा जी के ही शब्दों में-‘‘कहानी दो परस्पर विरोधी बौद्धिक-जगत् में चलती है।’’ ‘नयी नेरळु’ को पढ़ने के पश्चात् कथा के विवरण में रह जाते हैं-पात्र नहीं। इस उपन्यास में आने वाला जोगय्य आगे ‘गृहभंग’ में मुख्य पात्र के रूप में आने वाले अय्यजी का स्मरण कराता है। यहाँ भी फिर विश्वास, नयी वैज्ञानिक दृष्टि की कथावस्तु प्रस्तुत होने के बावजूद भैरप्पा जी ने इस कथावस्तु को अन्य उपन्यासों की कथावस्तुओं के साथ ला जोड़ा है। यही कथावस्तु बृहद समस्या बनकर ‘तब्बलियु नीनादे मगने’ (तुम अनाथ हुए बेटे) उपन्यास में उपस्थित होती है। दिखावे के लिए कहानी यद्यपि गौ से सबंधित लगती है, जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे हमारे देश के देहातों की संपूर्ण जटिलता बटोर लेता है। ग्वालों का एक लड़का विदेश से लौटने के बाद देश में फैले अंधविश्वास को धिक्कारता है। उसकी संगिनी है उसकी पत्नी। अंत में, इस प्रश्न के पैदा होने तक कि पत्नी को वापस अमरीका लौट जाना
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1. यह, डा. पुत्रन द्वारा हिन्दी में अनूदित और भारतीय ज्ञानपीठ से ‘दायरे : आस्थाओं के’ नाम से प्रकाशित है।
चाहिए, उपन्यास आगे बढ़ता है। लेकिन इस सबसे मुख्य बात है गाय-बैलों के चारागाहों को खेतों में बदलकर अधिक फसल उपजाने की सरकारी नीति से संपूर्ण देहात पर होने वाला परिणाम। नये को छोड़ने में असमर्थ और पुराने के बंधन से मुक्त होने में असमर्थ, छटपटाता कालिया सात्विक बनकर, नये को जानने की जिज्ञासा रखने वाले वेंकटरमण आदि को उपन्यासों में सफल रूप से प्रस्तुत करने के कारण लेखक की मूल समस्या (सनातन एवं आधुनिक) वहाँ से ग्रामीण वातावरण में नया रूप लेकर उपस्थित होती है। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन के प्रति भैरप्पा जी ने सूक्ष्म परिज्ञान को प्रस्तुत करता है।
‘मतदान’ भैरप्पा जी के उपन्यासों के एक महत्त्वपूर्ण मोड़ को प्रस्तुत करता है। इनके उपन्यास में पहली बार राजनीतिक कथावस्तु ने स्थान पाया। यहाँ एक जनप्रिय डाक्टर द्वारा राजनीति में भाग लेने के फलस्वरूप होने वाले त्रासद चित्रण देखने को मिलते हैं। ‘मतदान’ सफलतापूर्वक उद्घाटित करता है कि आज कि राजनीति में ऐसे कपट नाटक चलते हैं जिसकी कल्पना मूलतः बुद्धिजीवी नहीं कर पाता। इसी कथावस्तु ने भैरप्पा जी के महत्त्वपूर्ण नये उपन्यास ‘टाटु’ (उल्लंघन)1 में विस्तार धारणा किया है।
इस स्तर तक आये हुए भैरप्पा जी के सारे उपन्यास सात्विकता को स्वीकार करते हैं या वैभव बढ़ाने और वैवाहिक समस्याओं को देखने में ही तल्लीन रहते हैं, लेकिन ‘गृहभंग’ इस स्तर से पूर्णतः मुक्त होने के साथ पहले के उपन्यासकारों द्वारा स्वीकृत कुछ मूल्यों पर प्रश्न उठाता है। इस उपन्यास की कथावस्तु तिपटूर और चन्नपट्टण तालुका प्रदेशों में 1920 से 40-50 की अवधि में घटी घटना है। ‘गृहभंग’ का प्रथम अध्याय पटवारी रामण्य के परिवार के चित्रण से प्रारंभ होता है। गंगम्मा विधवा है। उसे संस्कृति की गंध तक नहीं। उसकी जबान से निकलने वाला हर शब्द ‘गृहभंग’ का मूल कारण बनता है। उसके बेटों-चेन्निगराय और अप्पण्णय्या-के स्वभावों में काफी अंतर है। चेन्निगराय आलसी और
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1. यह डा. पुत्रन द्वारा हिन्दी में अनूदित और शब्दकार से प्रकाशित है।
महास्वार्थी है। अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति भी उसे कोई असक्ति नहीं। पत्नी पर अधिकार चलाने का इच्छुक होते हुए भी वह कायर है। वह इतना निर्लिप्त है, आलसी है कि लगता है अगर उसकी पत्नी नंजम्मा अप्पण्णय्या की पत्नी की भाँति झगड़ालू होती तो शायद उसकी चाल कुछ और हो जाती। नंजम्मा, कंठीजोइसजी जैसे की बेटी होते हुए भी सहनशील है। दो परिवारों की प्रतिष्ठा की रक्षा करती है। लेकिन उसका सारा जीवन त्रासद है। पति निरक्षर, पेटू है। सास तो हृदयहीन पशु है ही। नंजम्मा उस नरक को स्वर्ग में परिवर्तित करने का प्रयत्न करती है, लेकिन उसका सारा संघर्ष विफल हो जाता है। विवाहित बेटी और विवेकी बेटा, दोनों दो ही दिनों में प्लेग की बलि चढ़ जाते हैं। इन संकटों से मुक्ति उसे अपनी मृत्यु के साथ ही मिलती है।
इस स्तर के महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘वंशवृक्ष’ के श्रोत्रि जी एवं ‘गृहभंग’ के कंठीजोइसजी की तुलना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। कंठीजोइसजी एक दृष्टि से देव विरोधी, नास्तिक हैं, क्योंकि उन्होंने जादूटोना आदि सीख लिया है। लेकिन वे नीच नहीं हैं। देव-विरोधी नास्तिक होते हुए भी, अच्छे मानव बनने वालों को भैरप्पा जी ने अपने इस उपन्यास में स्थान दिया है, चित्रित किया है। उसी तरह यहाँ आने वाले अय्यजी शुद्धाचारी सनातनी नहीं है, लेकिन अन्य जाति के लड़के के लिए अपने बुढ़ापे में भी जीविन व्यय करते हैं।
यह उपन्यास दिखाता है कि अक्लमंद जाति के नाम से प्रसिद्ध ब्राह्मणों में चेन्निगराय जैसे मूर्ख भी होते हैं। यहाँ तक भैरप्पा जी ने आधुनिक एवं सनातन दोनों को परस्पर आमने-सामने प्रस्तुत किया है तो ‘गृहभंग’ में वैचारिकता से दूर हटकर केवल चरित्र-चित्रण में लग जाते हैं। इसी कारण उपन्यास की नायिका विश्व की माँ नंजम्मा धीरोदात्त पात्र बनकर निखरती है। आलस्य से ही विवाहित उसका जीवन त्रासदी में समाप्त होना सहज प्रतीत होते हुए भी उसका संघर्ष सचमुच त्रासद नायिका का संघर्ष बन जाता है। भय और करुणा, ये दोनों उस पात्र में घुलमिल जाने के कारण भैरप्पा जी ने हमारे ग्राम-जीवन से महाकाव्य के एक पात्र का निर्माण कर प्रस्तुत किया है।
उपन्यास के अंत में आने वाला प्लेग, बचे-खुचे को भी लपेट कर ले जाने वाली घातक शक्ति के रूप में प्रस्तुत होता है लेकिन यह शक्ति भी उपन्यास की सम्मिलित त्रासदी को दुर्बल नहीं बनाती, क्योंकि उपन्यास, जीवन की शिल्प रचना की ओर ध्यान देने की अपेक्षा जीवन के एक अंश को ही वास्तविक स्तर पर चित्रित करने की ओर अधिक ध्यान देता है।
यह उपन्यास भैरप्पाजी के उपन्यास-जगत के महत्त्वपूर्ण गुण को प्रस्तुत करता है। वह यह है कि जब वे अपने वैयक्तिक ग्राम-जीवन की संपत्ति में हाथ लगाते हैं तो ये उपन्यासकार वैचारिकता से सहज ही मुक्त हो जाते हैं; और बौद्धिक समस्याओं को उठा लेते हैं तो अधिकांशतः नगरों को ही अपने उपन्यास के केंद्र के रूप में चुनते हैं।
जीवन के एक अंश को सफल रूप में चित्रित करने में ‘गृहभंग’ का निरुपण विधान ही कारण है। कन्नड़ की उपन्यास-परंपरा के समस्त तत्त्वों का प्रयोग इस उपन्यास में हुआ। मुख्य ग्राम-जीवन के यथार्थ चित्रण के लिए आवश्यक ग्रामीण भाषा यहाँ के कथोपकथनों में निखर आयी है। कन्नड़ का यह महत्त्वपूर्ण उपन्यास गंभीर होते हुए भी, जटिल होते हुए भी, जनप्रिय बनने का कारण यह है कि जहाँ वैचारिकता से युक्त मुक्ति, ग्रामीण स्तर का वास्तविक चित्रण ‘वंशवृक्ष’ के कुछ विचारों की प्रतिक्रिया के रूप में निखर आया है, वहाँ ‘गृहभंग’ एक शुद्ध साहित्यिक कृति बन पड़ा है। ‘गृहभंग’ की तुलना कन्नड़ उपन्यास ‘ग्रामायण’ से करें तो रावबहद्दुर जी और भैरप्पाजी की त्रासद-दृष्टियों के बीच स्थित अंतर स्पष्ट होता है।
‘ग्रामायण’ में एक गाँव की त्रासदी को सांकेतिक रूप से पूर्ण देश की त्रासदी के रूप में चित्रण किया है, साथ ही ‘ग्रामायण’ अवनति के चित्र को भी उपस्थित करता है। लेकिन ‘गृहभंग’ नंजम्मा नामक महिला के संघर्ष की कथा है; एक व्यक्ति के संघर्ष त्रासद के माध्यम से उसके आस-पास के वातावरण में अनुकंपा, निर्दयता, मूर्खता एवं जिद व्यक्त होते हैं। अगर भैरप्पा जी व्यक्तिगत त्रासद के पीछे पड़ते हैं तो रावबहद्दुर जी समष्टि की त्रासदी को प्रस्तुत करते हैं।
डा. भैरप्पा जी के उपन्यासों के बारे में लिखते समय तो यह और भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। क्योंकि कन्नड़ के दो महान उपन्यासकार-डा. शिवराम कारंत जी और डा. एस.एस. भैरप्पीजी सदा गुटबाजियों से दूर, उपन्यास-दृष्टि से जीवन को देखकर सृजन-क्रिया की जिम्मेदारी को निभाने में निरत हैं। मार्ग, पंथ अथवा विचार, आदर्शों के प्रति आबद्ध होकर अपनी साहित्य-क्रिया की बलि होने वाले नव्यपंथ के अनुभव की व्याप्ति अत्यंत कम होकर, अब हमें दिखाई न देने पर भी उन सबको त्याग कर उपन्यास को जीवन की जटिलता को समझाने में संवहन मार्ग का उपयोग करने वाले भी काफी लोग हैं।
कन्नड़ के श्रेष्ठतम नाटककार ‘श्रीरंग’ ने कन्नड़, साहित्य-जगत् को प्रथम मनोवैज्ञानिक उपन्यास प्रदान किया है; ‘देवुडु’ अपने अनुभव को हाड़-मांस में भरकर सप्राण बना देने में सफल हुए हैं; चदुरंगजी ने अपने उपन्यास ‘सर्वमंगळ’ के द्वारा पुनः उपन्यास जगत् को त्रासद दृष्टि दे दी; विनायक गोकाकजी ने ‘समरसवे जीवन’ (समरस ही जीवन है) के माध्यम से पीढ़ियों के वृत्तांत को पचाने का कमाल कर दिखाया है और उन सबके कलश के समान के.वी.पुट्टप्प (कुवेंपु) श्री ने ‘नानूर सुब्बम्मा हेगडती’ एवं ‘मलेगळल्लि मदुमगळ’ (पहाड़ी प्रदेश की वधू) के द्वारा बताया है कि उन्होंने ग्राम-जीवन में महाकाव्य के विस्तार को पहचाना है। ‘ग्रामायण’ के माध्यम से रावबहद्दर जी ने हमारे एक गाँव को सप्राण पात्र बनाकर व्यक्ति से श्रेष्ठ समष्टित्रासदी के सम्मुख हमें मूकवत् बना दिया है। यह सूची इस तरह बढ़ायी जा सकती है। लेकिन मार्मिक विषय यह है कि उपयुक्त सभी उपन्यासों में उन लेखकों के उत्कट क्षणों की भावनाएँ प्रकट हुई हैं-इन सब लेखकों ने जीवन को न उपन्यास की दृष्टि से ही देखा और न ही अपने को व्यक्त करने के लिए उपन्यास को माध्यम बनाया। इनमें से अधिकांश ने साहित्य के अन्य अंगों में अपनी प्रतिभा व्यक्त की है। यहाँ भुला नहीं सकते कि डा. शंकर मोकाशी पुणेकर’ जी कृत बहुचर्चित उपन्यास ‘गंगव्वा गंगाबाई’ (इनका एकमात्र उपन्यास) और डा.यू. आर. अनंतमूर्ति जी कत ‘संस्कार’ उपन्यास भी ऐसे ही उत्कट क्षणों का परिणाम हैं।
कन्नड़ उपन्यास की इस पृष्ठभूमि में जब डा. भैरप्पा जी की साधना देखते हैं तो लगता है कि अपनी मान्यताओं, अनुभवों और विचारों को केवल उपन्यास-जगत् को सफल बनाने के उद्देश्य से समाज के समस्त स्तरों के लोगों को अनुभव कराते हुए, उन सबको अपने में समेट कर कहने वालों में डा. शिवराम कारंत जी के पश्चात् इन्हीं का नाम आता है। वर्तमान कन्नड़ उपन्यासों की फसल काफी विपुल होते हुए भी भैरप्पा जी की तरह आज के समस्त स्तरों को समेटकर ले चलने वाला और कोई उपन्यासकार दृष्टिगोचर नहीं होता।
संक्रमण काल से गुजरने वाले हमारे भारत की समस्त समस्याओं को पकड़ने की शक्ति केवल उपन्यास में ही होने के कारण, उपन्यासकार का दायित्व भी काफी बढ़ जाता है। डा. भैरप्पा जी एक सप्राण प्रतिक्रियापूर्ण व्यक्तित्व होने के कारण, पुराने से नये में परिवर्तित होते समय में निहित संकट, मानसिक हलचल, संघर्ष आदि उनके उपन्यासों की कथा-वस्तु हैं।
‘धर्मश्री’ डा. भैरप्पा जी का प्रथम उपन्यास है। इसमें प्यार के बंधन में बंधकर हिंदू से ईसाई बनने वाले एक युवक का द्वंद्व चित्रण है। बुद्धि और भावनाओं का द्वन्द्व आगे बृहदाकार बनकर उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में साकार होने वाली कथावस्तु यहीं अपना प्रथम बीज बोती है। यह उपन्यास एक हिंदू युवक की, मतांतर के पूर्व की तनावपूर्ण भावनाओं की बलि होकर शिथिल होना उचित समझकर चित्रित करने पर भी, इसका दूसरा छोर मतांतर नहीं, बल्कि इस बात को विचित्र करना है कि जाति त्यागने की विधि भी होनी चाहिए। तत्पश्चात प्रकाशित ‘दूर सरिदरु’ (दूर हट गये) में बौद्धिक असमानता से उत्पन्न स्थिति-गतियों का विवरण देने का प्रयास होते हुए भी वह केवल वैचारिक स्तर पर ही उपन्यास का अधिकांश भाग दो पात्रों की चर्चा बनकर रह जाता है; और चर्चा में प्राण संचार का माध्यम नहीं बनता।
‘वंशवृक्ष’ भैरप्पा जी का प्रथम महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।1 संक्रमण काल में आने वाली समस्त समस्याओं का दर्पण-धरा-सा यह उपन्यास, कात्यायनी की शोकांतिका को चित्रित करने में अद्भुत सफल हुआ है। सात्विकता के प्रतीक बनकर श्रोत्रिजी उपन्यास भर में छाये रहते हैं तो आधुनिकता का स्पर्श करने वाली कात्यायनी विधवा होते हुए पुनर्विवाह कर उनके स्पर्श करने वाली कात्यायनी विधवा होते हुए भी पुनर्विवाह कर उनके समान उभरती है। सनातन धर्म और आधुनिकता का समांतर चित्रण वैचारिकता को स्पर्श किये बिना ही इतना शक्तियुक्त होकर कन्नड़ के किसी और उपन्यास में नहीं निखरा है। दोनों लक्ष्य, विश्वास को अर्थ प्रदान कर पात्रों के द्वारा मन के त्रासदों के माध्यम से चित्रित, भैरप्पा जी
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1. यह डा. पुत्रन द्वारा हिन्दी में अनूदित और विकास प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।
का यह उपन्यास सचमुच एक अर्थपूर्ण कृति है। (स्मरण रहे कि इस अति जनप्रिय उपन्यास और उस पर निर्मित राष्ट्रपति प्रशस्ति प्राप्त चलचित्र ने भैरप्पा जी को अखिल भारत ख्याति-शिखर पर पहुँचाया है।)
‘जलपात’ दांपत्य जीवन की समस्या की कल्पना को सुन्दर ढंग से चित्रित करता है। अति वैज्ञानिक दृष्टि दांपत्य जीवन को त्रासदी में समाप्त करने में सफल होती है। लेकिन संतान बनने से रोकने वाले कलाकार के कृत्रिम विधान, उसकी कला के विकास में नाशक बनते हैं। यहाँ का कलाकार और उसके समांतर उभरता डॉक्टर-ये दोनों बंबई की पृष्ठिभूमि में निखरते हैं। ‘जलपात’ इन सब विषयों की विपुलता लिये हुए भी ‘दूर सरिदरु’ उपन्यास की अपेक्षा रचना की दृष्टि से अधिक सफल है।
इनका एक और उपन्यास ‘नायी नेरळु’ (कुत्ते की छाया) अन्यों से भिन्न रूप लेकर आया है।1 पुनर्जन्म को कथावस्तु के रूप में प्रस्तुत करने वाली पूरे कन्नड़ उपन्यास-जगत् के लिए नयी है। भैरप्पा जी के ही शब्दों में-‘‘कहानी दो परस्पर विरोधी बौद्धिक-जगत् में चलती है।’’ ‘नयी नेरळु’ को पढ़ने के पश्चात् कथा के विवरण में रह जाते हैं-पात्र नहीं। इस उपन्यास में आने वाला जोगय्य आगे ‘गृहभंग’ में मुख्य पात्र के रूप में आने वाले अय्यजी का स्मरण कराता है। यहाँ भी फिर विश्वास, नयी वैज्ञानिक दृष्टि की कथावस्तु प्रस्तुत होने के बावजूद भैरप्पा जी ने इस कथावस्तु को अन्य उपन्यासों की कथावस्तुओं के साथ ला जोड़ा है। यही कथावस्तु बृहद समस्या बनकर ‘तब्बलियु नीनादे मगने’ (तुम अनाथ हुए बेटे) उपन्यास में उपस्थित होती है। दिखावे के लिए कहानी यद्यपि गौ से सबंधित लगती है, जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे हमारे देश के देहातों की संपूर्ण जटिलता बटोर लेता है। ग्वालों का एक लड़का विदेश से लौटने के बाद देश में फैले अंधविश्वास को धिक्कारता है। उसकी संगिनी है उसकी पत्नी। अंत में, इस प्रश्न के पैदा होने तक कि पत्नी को वापस अमरीका लौट जाना
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1. यह, डा. पुत्रन द्वारा हिन्दी में अनूदित और भारतीय ज्ञानपीठ से ‘दायरे : आस्थाओं के’ नाम से प्रकाशित है।
चाहिए, उपन्यास आगे बढ़ता है। लेकिन इस सबसे मुख्य बात है गाय-बैलों के चारागाहों को खेतों में बदलकर अधिक फसल उपजाने की सरकारी नीति से संपूर्ण देहात पर होने वाला परिणाम। नये को छोड़ने में असमर्थ और पुराने के बंधन से मुक्त होने में असमर्थ, छटपटाता कालिया सात्विक बनकर, नये को जानने की जिज्ञासा रखने वाले वेंकटरमण आदि को उपन्यासों में सफल रूप से प्रस्तुत करने के कारण लेखक की मूल समस्या (सनातन एवं आधुनिक) वहाँ से ग्रामीण वातावरण में नया रूप लेकर उपस्थित होती है। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन के प्रति भैरप्पा जी ने सूक्ष्म परिज्ञान को प्रस्तुत करता है।
‘मतदान’ भैरप्पा जी के उपन्यासों के एक महत्त्वपूर्ण मोड़ को प्रस्तुत करता है। इनके उपन्यास में पहली बार राजनीतिक कथावस्तु ने स्थान पाया। यहाँ एक जनप्रिय डाक्टर द्वारा राजनीति में भाग लेने के फलस्वरूप होने वाले त्रासद चित्रण देखने को मिलते हैं। ‘मतदान’ सफलतापूर्वक उद्घाटित करता है कि आज कि राजनीति में ऐसे कपट नाटक चलते हैं जिसकी कल्पना मूलतः बुद्धिजीवी नहीं कर पाता। इसी कथावस्तु ने भैरप्पा जी के महत्त्वपूर्ण नये उपन्यास ‘टाटु’ (उल्लंघन)1 में विस्तार धारणा किया है।
इस स्तर तक आये हुए भैरप्पा जी के सारे उपन्यास सात्विकता को स्वीकार करते हैं या वैभव बढ़ाने और वैवाहिक समस्याओं को देखने में ही तल्लीन रहते हैं, लेकिन ‘गृहभंग’ इस स्तर से पूर्णतः मुक्त होने के साथ पहले के उपन्यासकारों द्वारा स्वीकृत कुछ मूल्यों पर प्रश्न उठाता है। इस उपन्यास की कथावस्तु तिपटूर और चन्नपट्टण तालुका प्रदेशों में 1920 से 40-50 की अवधि में घटी घटना है। ‘गृहभंग’ का प्रथम अध्याय पटवारी रामण्य के परिवार के चित्रण से प्रारंभ होता है। गंगम्मा विधवा है। उसे संस्कृति की गंध तक नहीं। उसकी जबान से निकलने वाला हर शब्द ‘गृहभंग’ का मूल कारण बनता है। उसके बेटों-चेन्निगराय और अप्पण्णय्या-के स्वभावों में काफी अंतर है। चेन्निगराय आलसी और
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1. यह डा. पुत्रन द्वारा हिन्दी में अनूदित और शब्दकार से प्रकाशित है।
महास्वार्थी है। अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति भी उसे कोई असक्ति नहीं। पत्नी पर अधिकार चलाने का इच्छुक होते हुए भी वह कायर है। वह इतना निर्लिप्त है, आलसी है कि लगता है अगर उसकी पत्नी नंजम्मा अप्पण्णय्या की पत्नी की भाँति झगड़ालू होती तो शायद उसकी चाल कुछ और हो जाती। नंजम्मा, कंठीजोइसजी जैसे की बेटी होते हुए भी सहनशील है। दो परिवारों की प्रतिष्ठा की रक्षा करती है। लेकिन उसका सारा जीवन त्रासद है। पति निरक्षर, पेटू है। सास तो हृदयहीन पशु है ही। नंजम्मा उस नरक को स्वर्ग में परिवर्तित करने का प्रयत्न करती है, लेकिन उसका सारा संघर्ष विफल हो जाता है। विवाहित बेटी और विवेकी बेटा, दोनों दो ही दिनों में प्लेग की बलि चढ़ जाते हैं। इन संकटों से मुक्ति उसे अपनी मृत्यु के साथ ही मिलती है।
इस स्तर के महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘वंशवृक्ष’ के श्रोत्रि जी एवं ‘गृहभंग’ के कंठीजोइसजी की तुलना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। कंठीजोइसजी एक दृष्टि से देव विरोधी, नास्तिक हैं, क्योंकि उन्होंने जादूटोना आदि सीख लिया है। लेकिन वे नीच नहीं हैं। देव-विरोधी नास्तिक होते हुए भी, अच्छे मानव बनने वालों को भैरप्पा जी ने अपने इस उपन्यास में स्थान दिया है, चित्रित किया है। उसी तरह यहाँ आने वाले अय्यजी शुद्धाचारी सनातनी नहीं है, लेकिन अन्य जाति के लड़के के लिए अपने बुढ़ापे में भी जीविन व्यय करते हैं।
यह उपन्यास दिखाता है कि अक्लमंद जाति के नाम से प्रसिद्ध ब्राह्मणों में चेन्निगराय जैसे मूर्ख भी होते हैं। यहाँ तक भैरप्पा जी ने आधुनिक एवं सनातन दोनों को परस्पर आमने-सामने प्रस्तुत किया है तो ‘गृहभंग’ में वैचारिकता से दूर हटकर केवल चरित्र-चित्रण में लग जाते हैं। इसी कारण उपन्यास की नायिका विश्व की माँ नंजम्मा धीरोदात्त पात्र बनकर निखरती है। आलस्य से ही विवाहित उसका जीवन त्रासदी में समाप्त होना सहज प्रतीत होते हुए भी उसका संघर्ष सचमुच त्रासद नायिका का संघर्ष बन जाता है। भय और करुणा, ये दोनों उस पात्र में घुलमिल जाने के कारण भैरप्पा जी ने हमारे ग्राम-जीवन से महाकाव्य के एक पात्र का निर्माण कर प्रस्तुत किया है।
उपन्यास के अंत में आने वाला प्लेग, बचे-खुचे को भी लपेट कर ले जाने वाली घातक शक्ति के रूप में प्रस्तुत होता है लेकिन यह शक्ति भी उपन्यास की सम्मिलित त्रासदी को दुर्बल नहीं बनाती, क्योंकि उपन्यास, जीवन की शिल्प रचना की ओर ध्यान देने की अपेक्षा जीवन के एक अंश को ही वास्तविक स्तर पर चित्रित करने की ओर अधिक ध्यान देता है।
यह उपन्यास भैरप्पाजी के उपन्यास-जगत के महत्त्वपूर्ण गुण को प्रस्तुत करता है। वह यह है कि जब वे अपने वैयक्तिक ग्राम-जीवन की संपत्ति में हाथ लगाते हैं तो ये उपन्यासकार वैचारिकता से सहज ही मुक्त हो जाते हैं; और बौद्धिक समस्याओं को उठा लेते हैं तो अधिकांशतः नगरों को ही अपने उपन्यास के केंद्र के रूप में चुनते हैं।
जीवन के एक अंश को सफल रूप में चित्रित करने में ‘गृहभंग’ का निरुपण विधान ही कारण है। कन्नड़ की उपन्यास-परंपरा के समस्त तत्त्वों का प्रयोग इस उपन्यास में हुआ। मुख्य ग्राम-जीवन के यथार्थ चित्रण के लिए आवश्यक ग्रामीण भाषा यहाँ के कथोपकथनों में निखर आयी है। कन्नड़ का यह महत्त्वपूर्ण उपन्यास गंभीर होते हुए भी, जटिल होते हुए भी, जनप्रिय बनने का कारण यह है कि जहाँ वैचारिकता से युक्त मुक्ति, ग्रामीण स्तर का वास्तविक चित्रण ‘वंशवृक्ष’ के कुछ विचारों की प्रतिक्रिया के रूप में निखर आया है, वहाँ ‘गृहभंग’ एक शुद्ध साहित्यिक कृति बन पड़ा है। ‘गृहभंग’ की तुलना कन्नड़ उपन्यास ‘ग्रामायण’ से करें तो रावबहद्दुर जी और भैरप्पाजी की त्रासद-दृष्टियों के बीच स्थित अंतर स्पष्ट होता है।
‘ग्रामायण’ में एक गाँव की त्रासदी को सांकेतिक रूप से पूर्ण देश की त्रासदी के रूप में चित्रण किया है, साथ ही ‘ग्रामायण’ अवनति के चित्र को भी उपस्थित करता है। लेकिन ‘गृहभंग’ नंजम्मा नामक महिला के संघर्ष की कथा है; एक व्यक्ति के संघर्ष त्रासद के माध्यम से उसके आस-पास के वातावरण में अनुकंपा, निर्दयता, मूर्खता एवं जिद व्यक्त होते हैं। अगर भैरप्पा जी व्यक्तिगत त्रासद के पीछे पड़ते हैं तो रावबहद्दुर जी समष्टि की त्रासदी को प्रस्तुत करते हैं।
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