कहानी संग्रह >> कहानी का अभाव कहानी का अभावनरेन्द्र कोहली
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नरेन्द्र कोहली के द्वारा चुनी हुई कुछ कहानियों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आज अपनी इन पुरानी कहानियों को पढ़ना, मेरे लिए लगभग वैसा ही है, जैसे कोई
अपनी तस्वीरों का पुराना एलबम ले बैठे। शैशव को पीछे छोड़, अपनी आंखे
खोलता हुआ तरुण मन और बाहर घटती हुई घटनाओं की अनुभूतियों का ताजापनः
कॉलेज के अनुभव, हल्का रोमांस, घर में पहला विवाह, नए बनते संबंध और
पुराने संबंधों के प्रति विद्रोह। मस्ती से भरा चुलबुला मन, चुहल की
कटाक्ष तथा विद्रूप तक जाती वाणी, अपने को बड़ों के बराबर मनवाने का किशोर
प्रयास और बड़ों के गरिमायुक्त व्यक्तित्व का क्रमशः हल्का पड़ते
जाना...कितना जाना-पहचाना, कितना दूर लगने लगा है, आज वह संसार!
बदतमीज़ी
भैया अपने किसी मित्र के पास एक विशेष प्रकार का रुमाल देख आए थे। वह
रुमाल उन्हें बहुत पसन्द आया था। उन्होंने ऐलान कर दिया कि अब वे वैसे ही
रुमालों का प्रयोग करेंगे। हम लोगों के रुमाल देखकर वे खिल्ली उड़ाते,
‘चले हैं रुमाल रखने ! अरे भई, चीज रखनी है तो ढंग की रखो। आदमी
का आखिर कोई स्टैंडर्ड होना चाहिए।’
भैया के शादी के सूटों का कपड़ा आया, तो साथ-साथ एक विशेष प्रकार का सफेद कपड़ा भी आया। पता चला कि यह भैया के रुमालों के लिए है। ये रुमाल विशेष उनकी शादी के लिए बनेंगे। सूट तो बाद में बने, भैया के रुमाल पहले बन गए। जिस दिन रुमाल बने, उसी दिन एक हमने उनके हाथ में देखा।
‘‘भैया ! ये तो शादी के लिए बने थे न ?’’ मैंने पूछा।
‘‘शादी के लिए छह मैंने रख दिए हैं।’’ उन्होंने कहा।
‘‘और ?’’
‘‘और छह अभी डेली यूज के लिए निकाल लिये हैं।’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘और क्या...!’’
उसी दिन से भैया को एक आदत पड़ गई। जब-तब वे नाक पोंछते, चश्मा साफ करते या मुख का पसीना सुखाते हुए नज़र आते। उनके हाथ में वैसा ही रुमाल होता। हम सब भाई-बहन उनकी इस आदत पर खूब हंसते। उनके पीठ फेरते ही, जेब से अपना-अपना रुमाल निकालकर मुख साफ करने लगते। ‘रुमाल’ हमारा सांकेतिक शब्द बन गया। शब्द ‘रुमाल’ सुनते ही हम हंस पड़ते। भैया जेब में हाथ डालते तो हम में से कोई फुसफुसाकर कहता, ‘निकला स्टैंडर्ड रुमाल !’ और सचमुच ही भैया के हाथ में वही रुमाल होता।
भैया की शादी का दिन एकदम समीप आ पहुंचा। भैया दिन-रात तैयारियों में लगे हुए थे। हम सब भी काफी व्यस्त थे। किसी को फुर्सत ही नहीं कि किसी दूसरे को देखता। पर फिर भी उस दिन हम सबने नोट किया कि भैया अधिक बौखलाए हुए हैं। बात किसी की समझ में न आती थी कि आखिर हुआ क्या है। किसी में इतना साहस भी न था कि पूछ ही लेता, पर जब भैया अपने ही शब्दों में अपनी ट्रबल की सारी सीमाएं पार करते दीख पड़े तो जीजी ने पूछ ही लिया, ‘‘भैया, क्या बात है ? बहुत परेशान हैं आप ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ उन्होंने उदासीनता से कहा।
‘‘फिर भी ?’’
‘‘भागो यहां से !’’ भैया झल्ला गए।
जीजी वापस आ गईं। हमें कुछ पता न चल सका। पर हमारी काउंसिल कैसे चुप बैठती। हम सब सिर जोड़कर बैठ गए। आखिर परेशानी का कारण भी तो कुछ हो।
बहुत सी बातें सोचीं, पर कोई जची नहीं। अन्त में तंग आकर जीजी ने कहा, ‘‘अरे छोड़ो, शायद रुमाल गुम हो गए हैं।’’
और हम सब फूट पड़े शब्द रुमाल सुनकर।
‘‘स्टैंडर्ड रुमाल कहो, जीजी !’’ नवीन बोला। हम सब फिर हंस पड़े। बात जीजी ने यूं ही कही थी, पर हमें जंच गई ! शायद भैया के रुमाल ही गुम हो गए हैं। कोई और बात होने पर भैया हम सबों की ड्यूटी लगा देते, खोज पर। पर शायद वे भी जानते थे कि हमने ‘रुमाल’ उनकी चिढ़ निकाल ली है। इसलिए रुमाल कहने से झिझकते थे। हमारी काउंसिल ने अन्त में यही पास किया कि भैया से कुछ न पूछा जाए। हमें मालूम था कि यदि कोई वस्तु गुम हो गई है और वह न मिली, तो भैया अवश्य ही हमारी सहायता लेंगे। हुआ भी यही। दूसरे दिन भैया ने धीरे से जीजी के कान में कह दिया कि वे शादी के लिए रखे कुछ रुमाल न जाने कहां खो बैठे हैं। साथ ही साथ खोज देने की प्रार्थनामय आज्ञा भी दी। जीजी को कोई बात मालूम हो जाए और हमें उसका पता न चले, भला यह कैसे संभव था ! जीजी ने दूसरे ही क्षण हमें बता दिया कि भैया अपने ‘स्टैंडर्ड रुमाल’ खो बैठे हैं। हमारी सेना ने खोज आरम्भ कर दी। बड़ी देर तक हम खोजते रहे, पर वे कहीं नहीं मिले। अन्त में मैंने खीझ के मारे भैया का सूटकेस उलटना-पलटना आरम्भ कर दिया। परन्तु आश्चर्य ! छह के छह रुमाल वहीं पड़े हुए थे। मैंने जीजी को बताया और जीजी ने भैया को। भैया खिसियाकर हंस पड़े, ‘‘शायद मैंने पहले ही वहां रख दिए थे और फिर भूल गया।’’
भैया की इस हंसी को नवीन ने नाम दिया, ‘‘स्टैंडर्ड हंसी।’’
फिर तो भैया अपने स्टैंडर्ड रुमालों को साथ लेकर गए और विवाह के पश्चात भाभी को लेकर ही लौटे। दो-तीन दिन तो रीति-रिवाज पूर्ण करने में लग गए। हम न तो भाभी को ठीक से देख पाए और न ही भैया को।
चौथे दिन, पिताजी घर पर नहीं थे। भैया ने चुपके से ही भाभी के साथ स्टूडियो जाकर चित्र खिंचवाने का प्रोग्राम बना डाला। यह कार्य इतनी सतर्कता के साथ किया गया कि हमारी काउंसिल के किसी भी सदस्य को पता न चला। पता तो तब चला, जब भैया और भाभी दोनों ही खूब सज-धजकर अपने कमरे से बरामद हुए। नवीन ने मेरी ओर देखा और मैंने जीजी की ओर। वे भी कुछ न जानने का संकेत कर भैया की ओर देखने लगीं।
‘‘कहां भैया ?’’ अन्त में जीजी ने पूछ ही लिया।
‘‘ज़रा चित्र खिंचवाने जा रहे हैं।’’ नई भाभी ने घबराहट के मारे बता दिया।
हम तीनों एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकरा पड़े। भैया को कुछ सूझ नहीं रहा था। आदतवश उनका हाथ जेब में गया और जेब से निकला स्टैंडर्ड रुमाल। भाभी की दृष्टि भी रुमाल पर पड़ी।
‘‘आपने फिर वही रुमाल ले लिया ?’’ भाभी ने शिकायत की।
‘‘ओ हां-हां।’’ भैया घबरा- गए।
अब भैया ने स्टैंडर्ड रुमाल जेब में डाला और एक विचित्र-सी मुद्रा बनाकर एक दूसरा रुमाल निकाला-यह निश्चय ही उनके स्टैंडर्ड रुमालों में से नहीं था।
हम तीनों ने फिर आश्चर्य से एक-दूसरे को देखा, पर समझ में कुछ न आया। भैया और भाभी जा चुके थे। पर जाते हुए भैया की रुआंसी सूरत देखकर हमने समझ लिया कि कुछ हुआ अवश्य है।
‘‘क्या हुआ ?’’ मैंने सरगोशी की।
‘‘स्टैंडर्ड बात !’’ नवीन का उत्तर था।
हमने उसी समय से उस स्टैंडर्ड बात की खोज आरम्भ कर दी। कुछ पता नहीं चल रहा था कि बात क्या है। अन्त में हमने यह भार जीजी पर छोड़ा। उन्होंने विश्वास दिलाया कि वे भैया से अवश्य इस विषय में पूछेंगी।
दूसरे दिन उन्होंने पूछ ही लिया। भैया ने सबकुछ बता दिया। कुछ भी नहीं छिपाया। वे बेचारे बड़ी विपत्ति में फंस गए थे। हुआ यह था कि भाभी मायके से ही बनाकर कुछ वस्तुएं उपहारस्वरूप उनके लिए लाई थीं। दुर्भाग्यवश उन वस्तुओं में कुछ रुमाल भी थे। भाभी चाहती थीं कि भैया उनके दिए हुए रुमालों का ही उपयोग करें। पर वे रुमाल भैया के स्टैंडर्ड पर पूरे न उतरते थे। यही कारण था कि वे उनका उपयोग भी नहीं करना चाहते थे।
हमने वे रुमाल देखे भी। जहां भैया के रुमाल सफेद और किसी भी तरह की कढ़ाई से मुक्त थे, वहां भाभी-वाले रुमाल सफेद होने पर भी सफेद नहीं रहे थे। उन पर रंगीन धागों से खूब सजाकर भैया और भाभी दोनों का नाम काढ़ा हुआ था। भाभी चाहती थीं कि भैया बार-बार उसी रुमाल से अपना मुख पोंछें।
दो दिनों के पश्चात, हमने फिर वैसी ही घटना देखी। भैया ने अपना स्टैंडर्ड रुमाल निकाला और भाभी रो-सी पड़ीं, ‘‘आपको मेरे रुमाल पसन्द नहीं हैं क्या ?’’
‘‘पसन्द क्यों नहीं हैं !’’ भैया बौखलाए, ‘‘बहुत पसन्द हैं।’’
और उन्होंने झट भाभीवाला रुमाल निकालकर खामखाह मुख रगड़ना आरम्भ कर दिया। उनकी वाणी तो रुमालों को पसन्द करने का इकरार कर चुकी थी, पर मुख पर विद्यमान भाव कुछ और ही कह रहे थे।
हमने एक-दूसरे की ओर देखा और बरबस मुसकरा पड़े। हम समझ रहे थे कि भैया को भाभीवाले रुमाल एकदम पसन्द नहीं हैं, पर भाभी की स्टैंडर्ड जिद थी कि दूसरे रुमाल को भैया के हाथ में कभी न देखें।
उस दिन भैया और भाभी के साथ हम लोग एक टी-पार्टी में गए। चलने से पहले उनमें काफी खच-खच हो चुकी थी, कपड़ों के विषय में। जो कपड़े भैया चाहते थे, वे भाभी पहनना नहीं चाहती थीं, और जो भाभी ने पहन रखे थे, वे भैया को पसन्द नहीं थे।
पार्टी में भी दोनों सूजे ही रहे। हम तीनों मुसकराते रहे और भैया-भाभी के इस स्टैंडर्ड झगड़े का आनन्द उठाते रहे।
सहसा हमारे कान खड़े हो गए, क्योंकि भैया ने एक स्टैंडर्ड बदतमीज़ी कर डाली।
उन्होंने पानी का गिलास उठाया और घबराहट के मारे पूरा-का-पूरा ही पी गए। दोनों हाथों से पैंट की जेबें टटोलीं। उनके मुख पर एक निराशा-सी झलकी। उन्होंने ढंकी-छिपी नजर से भाभी को देखा और झट से कमीज की आस्तीन से अपना गीला मुख पोंछ डाला।
भैया के शादी के सूटों का कपड़ा आया, तो साथ-साथ एक विशेष प्रकार का सफेद कपड़ा भी आया। पता चला कि यह भैया के रुमालों के लिए है। ये रुमाल विशेष उनकी शादी के लिए बनेंगे। सूट तो बाद में बने, भैया के रुमाल पहले बन गए। जिस दिन रुमाल बने, उसी दिन एक हमने उनके हाथ में देखा।
‘‘भैया ! ये तो शादी के लिए बने थे न ?’’ मैंने पूछा।
‘‘शादी के लिए छह मैंने रख दिए हैं।’’ उन्होंने कहा।
‘‘और ?’’
‘‘और छह अभी डेली यूज के लिए निकाल लिये हैं।’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘और क्या...!’’
उसी दिन से भैया को एक आदत पड़ गई। जब-तब वे नाक पोंछते, चश्मा साफ करते या मुख का पसीना सुखाते हुए नज़र आते। उनके हाथ में वैसा ही रुमाल होता। हम सब भाई-बहन उनकी इस आदत पर खूब हंसते। उनके पीठ फेरते ही, जेब से अपना-अपना रुमाल निकालकर मुख साफ करने लगते। ‘रुमाल’ हमारा सांकेतिक शब्द बन गया। शब्द ‘रुमाल’ सुनते ही हम हंस पड़ते। भैया जेब में हाथ डालते तो हम में से कोई फुसफुसाकर कहता, ‘निकला स्टैंडर्ड रुमाल !’ और सचमुच ही भैया के हाथ में वही रुमाल होता।
भैया की शादी का दिन एकदम समीप आ पहुंचा। भैया दिन-रात तैयारियों में लगे हुए थे। हम सब भी काफी व्यस्त थे। किसी को फुर्सत ही नहीं कि किसी दूसरे को देखता। पर फिर भी उस दिन हम सबने नोट किया कि भैया अधिक बौखलाए हुए हैं। बात किसी की समझ में न आती थी कि आखिर हुआ क्या है। किसी में इतना साहस भी न था कि पूछ ही लेता, पर जब भैया अपने ही शब्दों में अपनी ट्रबल की सारी सीमाएं पार करते दीख पड़े तो जीजी ने पूछ ही लिया, ‘‘भैया, क्या बात है ? बहुत परेशान हैं आप ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ उन्होंने उदासीनता से कहा।
‘‘फिर भी ?’’
‘‘भागो यहां से !’’ भैया झल्ला गए।
जीजी वापस आ गईं। हमें कुछ पता न चल सका। पर हमारी काउंसिल कैसे चुप बैठती। हम सब सिर जोड़कर बैठ गए। आखिर परेशानी का कारण भी तो कुछ हो।
बहुत सी बातें सोचीं, पर कोई जची नहीं। अन्त में तंग आकर जीजी ने कहा, ‘‘अरे छोड़ो, शायद रुमाल गुम हो गए हैं।’’
और हम सब फूट पड़े शब्द रुमाल सुनकर।
‘‘स्टैंडर्ड रुमाल कहो, जीजी !’’ नवीन बोला। हम सब फिर हंस पड़े। बात जीजी ने यूं ही कही थी, पर हमें जंच गई ! शायद भैया के रुमाल ही गुम हो गए हैं। कोई और बात होने पर भैया हम सबों की ड्यूटी लगा देते, खोज पर। पर शायद वे भी जानते थे कि हमने ‘रुमाल’ उनकी चिढ़ निकाल ली है। इसलिए रुमाल कहने से झिझकते थे। हमारी काउंसिल ने अन्त में यही पास किया कि भैया से कुछ न पूछा जाए। हमें मालूम था कि यदि कोई वस्तु गुम हो गई है और वह न मिली, तो भैया अवश्य ही हमारी सहायता लेंगे। हुआ भी यही। दूसरे दिन भैया ने धीरे से जीजी के कान में कह दिया कि वे शादी के लिए रखे कुछ रुमाल न जाने कहां खो बैठे हैं। साथ ही साथ खोज देने की प्रार्थनामय आज्ञा भी दी। जीजी को कोई बात मालूम हो जाए और हमें उसका पता न चले, भला यह कैसे संभव था ! जीजी ने दूसरे ही क्षण हमें बता दिया कि भैया अपने ‘स्टैंडर्ड रुमाल’ खो बैठे हैं। हमारी सेना ने खोज आरम्भ कर दी। बड़ी देर तक हम खोजते रहे, पर वे कहीं नहीं मिले। अन्त में मैंने खीझ के मारे भैया का सूटकेस उलटना-पलटना आरम्भ कर दिया। परन्तु आश्चर्य ! छह के छह रुमाल वहीं पड़े हुए थे। मैंने जीजी को बताया और जीजी ने भैया को। भैया खिसियाकर हंस पड़े, ‘‘शायद मैंने पहले ही वहां रख दिए थे और फिर भूल गया।’’
भैया की इस हंसी को नवीन ने नाम दिया, ‘‘स्टैंडर्ड हंसी।’’
फिर तो भैया अपने स्टैंडर्ड रुमालों को साथ लेकर गए और विवाह के पश्चात भाभी को लेकर ही लौटे। दो-तीन दिन तो रीति-रिवाज पूर्ण करने में लग गए। हम न तो भाभी को ठीक से देख पाए और न ही भैया को।
चौथे दिन, पिताजी घर पर नहीं थे। भैया ने चुपके से ही भाभी के साथ स्टूडियो जाकर चित्र खिंचवाने का प्रोग्राम बना डाला। यह कार्य इतनी सतर्कता के साथ किया गया कि हमारी काउंसिल के किसी भी सदस्य को पता न चला। पता तो तब चला, जब भैया और भाभी दोनों ही खूब सज-धजकर अपने कमरे से बरामद हुए। नवीन ने मेरी ओर देखा और मैंने जीजी की ओर। वे भी कुछ न जानने का संकेत कर भैया की ओर देखने लगीं।
‘‘कहां भैया ?’’ अन्त में जीजी ने पूछ ही लिया।
‘‘ज़रा चित्र खिंचवाने जा रहे हैं।’’ नई भाभी ने घबराहट के मारे बता दिया।
हम तीनों एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकरा पड़े। भैया को कुछ सूझ नहीं रहा था। आदतवश उनका हाथ जेब में गया और जेब से निकला स्टैंडर्ड रुमाल। भाभी की दृष्टि भी रुमाल पर पड़ी।
‘‘आपने फिर वही रुमाल ले लिया ?’’ भाभी ने शिकायत की।
‘‘ओ हां-हां।’’ भैया घबरा- गए।
अब भैया ने स्टैंडर्ड रुमाल जेब में डाला और एक विचित्र-सी मुद्रा बनाकर एक दूसरा रुमाल निकाला-यह निश्चय ही उनके स्टैंडर्ड रुमालों में से नहीं था।
हम तीनों ने फिर आश्चर्य से एक-दूसरे को देखा, पर समझ में कुछ न आया। भैया और भाभी जा चुके थे। पर जाते हुए भैया की रुआंसी सूरत देखकर हमने समझ लिया कि कुछ हुआ अवश्य है।
‘‘क्या हुआ ?’’ मैंने सरगोशी की।
‘‘स्टैंडर्ड बात !’’ नवीन का उत्तर था।
हमने उसी समय से उस स्टैंडर्ड बात की खोज आरम्भ कर दी। कुछ पता नहीं चल रहा था कि बात क्या है। अन्त में हमने यह भार जीजी पर छोड़ा। उन्होंने विश्वास दिलाया कि वे भैया से अवश्य इस विषय में पूछेंगी।
दूसरे दिन उन्होंने पूछ ही लिया। भैया ने सबकुछ बता दिया। कुछ भी नहीं छिपाया। वे बेचारे बड़ी विपत्ति में फंस गए थे। हुआ यह था कि भाभी मायके से ही बनाकर कुछ वस्तुएं उपहारस्वरूप उनके लिए लाई थीं। दुर्भाग्यवश उन वस्तुओं में कुछ रुमाल भी थे। भाभी चाहती थीं कि भैया उनके दिए हुए रुमालों का ही उपयोग करें। पर वे रुमाल भैया के स्टैंडर्ड पर पूरे न उतरते थे। यही कारण था कि वे उनका उपयोग भी नहीं करना चाहते थे।
हमने वे रुमाल देखे भी। जहां भैया के रुमाल सफेद और किसी भी तरह की कढ़ाई से मुक्त थे, वहां भाभी-वाले रुमाल सफेद होने पर भी सफेद नहीं रहे थे। उन पर रंगीन धागों से खूब सजाकर भैया और भाभी दोनों का नाम काढ़ा हुआ था। भाभी चाहती थीं कि भैया बार-बार उसी रुमाल से अपना मुख पोंछें।
दो दिनों के पश्चात, हमने फिर वैसी ही घटना देखी। भैया ने अपना स्टैंडर्ड रुमाल निकाला और भाभी रो-सी पड़ीं, ‘‘आपको मेरे रुमाल पसन्द नहीं हैं क्या ?’’
‘‘पसन्द क्यों नहीं हैं !’’ भैया बौखलाए, ‘‘बहुत पसन्द हैं।’’
और उन्होंने झट भाभीवाला रुमाल निकालकर खामखाह मुख रगड़ना आरम्भ कर दिया। उनकी वाणी तो रुमालों को पसन्द करने का इकरार कर चुकी थी, पर मुख पर विद्यमान भाव कुछ और ही कह रहे थे।
हमने एक-दूसरे की ओर देखा और बरबस मुसकरा पड़े। हम समझ रहे थे कि भैया को भाभीवाले रुमाल एकदम पसन्द नहीं हैं, पर भाभी की स्टैंडर्ड जिद थी कि दूसरे रुमाल को भैया के हाथ में कभी न देखें।
उस दिन भैया और भाभी के साथ हम लोग एक टी-पार्टी में गए। चलने से पहले उनमें काफी खच-खच हो चुकी थी, कपड़ों के विषय में। जो कपड़े भैया चाहते थे, वे भाभी पहनना नहीं चाहती थीं, और जो भाभी ने पहन रखे थे, वे भैया को पसन्द नहीं थे।
पार्टी में भी दोनों सूजे ही रहे। हम तीनों मुसकराते रहे और भैया-भाभी के इस स्टैंडर्ड झगड़े का आनन्द उठाते रहे।
सहसा हमारे कान खड़े हो गए, क्योंकि भैया ने एक स्टैंडर्ड बदतमीज़ी कर डाली।
उन्होंने पानी का गिलास उठाया और घबराहट के मारे पूरा-का-पूरा ही पी गए। दोनों हाथों से पैंट की जेबें टटोलीं। उनके मुख पर एक निराशा-सी झलकी। उन्होंने ढंकी-छिपी नजर से भाभी को देखा और झट से कमीज की आस्तीन से अपना गीला मुख पोंछ डाला।
राजा दशरथ के बेटे
भैया की ससुराल से पत्र आया था कि वे इस वर्ष भी विवाह नहीं कर सकते। पिता
जी ने कहा, ‘‘चलो, अच्छा हुआ, अगले वर्ष तक हम अच्छी
तरह विवाह की तैयारी कर लेंगे।’’ भैया कुछ नहीं बोले।
सदा की तरह शान्त रहे। मझले भैया और छोटे भैया भी कुछ न बोले। मैं क्या
बोलता !
पर दूसरे कमरे में आते ही छोटे भैया बरसने लगे, ‘‘मैंने तो पहले ही कह दिया था कि इस घर में विवाह की रीति ही नहीं है। पता नहीं पिताजी ने कैसे भूल से विवाह कर लिया, नहीं तो यहां तो विवाह की आवश्यकता ही नहीं है। पंडित नेहरू को पता चले तो पिताजी को ‘पद्मश्री’ से विभूषित कर दें कि ऐसे लोग भी हैं जो अपने चारों बेटों को कुंवारा बैठाए हुए हैं।’’
‘‘भैया, घबराने की क्या बात है ?’’ मैंने एक प्रकार से उन्हें चिढ़ाया, ‘‘राजा दशरथ के भी चार बेटे थे और चारों कुंवारे थे। जब विवाह का समय आया तो चारों का विवाह एक साथ कर दिया गया।’’
‘‘अरे चल !’’ भैया झल्लाए, ‘‘बड़े आ गए राजा दशरथ के बेटे ! शकल देखो शीशे में ! रामचन्द्र अभी सोलह वर्षों के तो हुए नहीं थे कि उनका विवाह हो गया था और यहां बड़े भैया अट्ठाईस के हो गए हैं और प्रत्येक वर्ष वही-हम इस वर्ष विवाह नहीं कर सकते।’’
‘‘भैया, आपको क्या जल्दी है ?’’ मैंने कहा, ‘‘आप तो अभी चौबीस के ही हुए हैं, दो-तीन वर्ष और प्रतीक्ष कर सकते हैं।’’
‘‘समझोगे क्या ?’’ उन्होंने बुद्धिमत्ता जताई, ‘‘एम.ए. में पढ़ने से ही संसार का ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता। हमारे कारखाने कभी आओ तो मालूम हो।’’
‘‘क्या है वहां, संसार का ज्ञान ?’’ मैंने उत्सुकता दर्शाई।
‘‘अरे, वहां सारे भारत के लोग हैं और सब राजा दशरथ के इन पुत्रों के समान विवाह के लिए प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते। किसी की शादी बारह वर्षों की अवस्था में हुई थी, किसी की चौदह वर्षों की अवस्था में। एक दिन जानते हो क्या हुआ ?’’
‘‘ऊं हूं !’’ मैंने नकारात्मक उत्तर दिया।
‘‘एक ने मुझसे पूछा...’’ छोटे भैया सुनाने के मूड में थे, ‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?’ ‘‘मैंने कहा, ‘कोई नहीं।’ उसने कहा, ‘कोई नहीं ! कितनी उम्र है तुम्हारी ?’ मैंने बताया चौबीस वर्ष ! जानते हो उसने क्या कहा ?’
‘‘नहीं !’’ मैंने फिर सिर हिलाया। ‘‘उसने कहा, ‘बस रह गए साढ़े बाइस ही। चौबीस वर्षों के होने को आए और अभी तक एक बच्चा नहीं ?’ मैंने कहा, ‘अरे भलेमानस, बीवी ही नहीं, तो बच्चा कहां से ?’ वह बहुत घबराया। कहने लगा, ‘अभी तक तुम्हारी शादी नहीं हुई ?’ मैंने कहा, ‘नहीं !’ उसने पूछा, ‘क्यों ?’ मैंने कहा, ‘अभी मेरे बड़े भाई की नहीं हुई।’ वह जैसे आकाश से गिर पड़ा, तुमसे बड़े की भी नहीं हुई।’ ‘नहीं !’ मैंने कहा; पर मैंने उसे नहीं बताया कि उससे भी बड़े एक महाशय हैं और शादी उनकी भी नहीं हुई है। यदि यह बता देता तो शायद उसका हार्ट फेल हो जाता।’’ भैया खूब जोर से हंस पड़े।
ये बातें छोटे भैया के लिए नई नहीं थीं। जब से बड़े भाई की सगाई हुई थी, वे इसी तरह की बातें किया करते थे। जब कभी जोश में आते तो कहते, ‘‘यह जो राजा दशरथ के पुत्रों का घर है न, यह घर नहीं है-कुंवारों का घर है; ‘बैचलर्स-डेन’। मैं दुनिया-भर के कुंवारों को पकड़ लाऊंगा और यहीं रखूंगा। जब वे पूछेंगे तो कहूंगा, ‘यही तुम्हारा उचित स्थान है। यह कुंवरों का घर है; बैचलर्स-डेन’।
एक बार तो वे ‘बैचलर्स डेन’ का एक बोर्ड भी बनवाकर ले आए थे; पर बोर्ड बनवाना एकबात है और उसे घर के फाटक पर लगाकर पिताजी का सामना करना दूसरी।
उत्सुकता मुझे भी थी। मैं भी चाहता था कि हमारे घर में भी कभी कोई विवाह हो। हमारी भी भाभी आए। दूसरों के घर यह सब होता देख मेरा भी मन करता था; पर मैं छोटे भैया के समान हल्ला नहीं कर सकता था। वे तो इस तरह के गुल रोज़ ही खिलाते थे। कभी कोई नई बात लाते, कभी कोई। एक दिन बाहर से आते ही बोले-
‘‘नरेन्द्र ! सुनो, आज एक मज़ेदार बात हुई !’’
‘‘क्या ?’’ मैंने पूछा।
‘‘आज एक गाना सुना।’’
‘‘कौन-सा ?’’
‘‘अरे, वह-
तिरैया दा बुखार बुरा
सुरैये दा प्यार बुरा
बनिये दा उदार बुरा
ते सब कोलों बुरा साडा पाइया
जिन्ने कीती न साडी कुड़माई
ते हुन असी की करिए ?
ओ कोई बने न तेरी परजाई
ते हुन असी की करिए ?’’
(तिरैया का बुखार बुरा होता है, सुरैया का प्यार बुरा होता है, बनिये का उधार बुरा होता है; किन्तु सबसे बुरे हमारे पिता हैं, जिन्होंने हमारी सगाई तक नहीं की ! अब हम क्या करें ? कोई भी तेरी भाभी बनने को तैयार नहीं, तो अब हम क्या करें ?)
मैं हंस पड़ा।
‘‘क्यों, कैसा है ?’’ उन्होंने पूछा।
‘‘अच्छा है !’’ मैं बोला, ‘‘आपके योग्य !’’
‘‘यह नेशनल सांग है-मालूम है ?’’
‘‘कहां का ?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘‘बैचलर्स-डेन का !’’ और वे फिर हंस पड़े।
‘‘आज एक और बात हो गई, जानते हो ?’’ वे बोले, ‘‘मेरे साथ काम करनेवाला एक लड़का है, छत्तीसगढ़ का। कह रहा था, ‘मालूम होता है तेरा बुड्ढा खूब पैसा जटना मांगता है, इसीलिए शादी नहीं कर रहा है तुम लोगों की।’’
‘‘आपने उसे कुछ कहा नहीं ?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘‘किस बात के लिए ?’’ प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही मिला।
‘‘उसने पिताजी को ‘बुड्ढा’ कहा।’’ मैं बोला, ‘‘यह तो कोई तरीका है बात करने का।’’
‘‘अरे, तुम हो कॉलेजोंवाले सभ्य लोग !’’ वे हंसे, ‘‘हम हैं टाटा कम्पनी के कुली। वहां सभ्यता नहीं चलती। जानते हो, अपने बाप को वह क्या कहता है ?’’
‘‘नहीं !’’ मैंने सिर हिलाया।
बुढ़ऊ !’’ वे फिर हंसे, ‘‘हमारे पिताजी को तो उसने सभ्य भाषा में ही पुकारा है।’’
ये सारी बातें सन-सुनकर मैं समझता था कि छोटे भैया को भी घर में भाभी लाने का शौक है, यही कारण है कि रोज़ कोलाहल मचाए रहते हैं। पर एक दिन संध्या समय एक नई बात हो गई। मैं अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। घर चुपचाप-सा था। पिताजी जाने कहां गए हुए थे। माताजी रसोई में होंगी। बड़े भैया कारखाने में थे, अपनी ड्यूटी पर; और मंझले भैया शायद सोए हुए थे। छोटे भैया अभी नहाकर अपने कमरे में गए थे। बेबी शायद बाहर खेल रही थी।
सहसा बरामदे में बेबी की आवाज आई। वह गा रही थी, फिल्म ‘नवरंग’ का गाना-
यह कौन फूल महका
यह कौन पंक्षी चहका
महफिल में कैसी खुशबू उड़ी, दिल जो मेरा....’
...और ‘चटाक्’ का स्वर !
मैं बाहर निकल आया।
बेबी अपने गाल पर हाथ रखे, छोटे भैया को एकटक निहार रही थी। और छोटे भैया नर्वस-से खड़े उसको ताक रहे थे। उन्होंने केवल पतलून और बनियान पहन रखी थी। बाल बिखरे हुए थे, शायद कंघी नहीं की थी। मैं कुछ समझ न सका। बोल कोई भी नहीं रहा था, केवल ताक रहे थे। आठ वर्ष की बेबी को, जो हमारी एकमात्र बहन थी, छोटे भैया इस प्रकार क्यों घूर रहे थे; मैं समझ नहीं सका। थोड़ी देर में भैया अपने कमरे में चले गए। अब बेबी ने मेरी ओर देखा। उसका हाथ गाल के नीचे आ चुका था।
वह मुसकराई-उस मुसकान में शरारत थी।
वह जाने लगी।
‘‘बेबी !’’ मैंने पुकारा।
वह भागने लगी।
मैंने झपटकर उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘इधर आओ !’’ मैं अपने कमरे में ले आया उसे। वह अब भी मुसकरा रही थी।
‘‘क्या हुआ ?’’ मैंने पूछा।
‘‘कुछ नहीं !’’ वह बोली, ‘‘मैं गा रही थी, ‘महफिल में कैसी खुशबू उड़ी’ और उन्होंने निकलकर मेरा कान खींचा और एक चांटा मार दिया।’’
‘‘क्यों किया ऐसा ?’’
वह कुछ नहीं बोली, केवल मुसकराती रही।
‘‘बोलो न ! क्यों मारा ? तुम रोई क्यों नहीं ? तुमने वह गाना क्यों गाया ?’’
वह बताना नहीं चाहती थी। शायद कमरे से भाग ही जाती, पर मैंने उसके हाथ पकड़ रखे थे।
उसने घूमकर एक बार दरवाजे की ओर देखा। मेरे पास खिसक आई और धीरे से बोली, भैया ! जानते हो, मैंने क्यों गाया ?’’ वह फिर मुसकराई।
मैं भी उत्तर में मुसकराया।
‘‘सुख भैया पाउडर लगा रहे थे !’’
‘‘पाउडर !’’ मैं चौंका।
‘‘हूं !’’ बेबी फिर शरारत से मुसकराई।
‘‘तभी महफिल में खुशबू उड़ी थी !’’ मैं भी मुसकराया। मैंने बेबी के सिर पर चपत जमाया, ‘‘बड़ी शरारतें करने लगी है तू !’’
वह फिर मेरी आंखों में देख कर मुसकराई। मैं उसे छोड़कर छोटे भैया के कमरे में चला गया। भैया कहीं जाने के लिए तैयार थे। उन्होंने एक बार मुझे देखा और फिर दर्पण पर अन्तिम दृष्टि डाली।
‘‘कहीं जा रहे हैं, भैया ?’’ मैंने पूछा।
‘‘हूं !’’
‘‘भैया, बेबी को क्यों मारा आपने ?’’
‘‘वह देखो !’’ वे ज़रा घबराए, ‘‘मैंने कितनी बार मना किया कि फिल्मों के गाने मत गाया करो, अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते; पर वह है कि मानती ही नहीं है।’’
पर दूसरे कमरे में आते ही छोटे भैया बरसने लगे, ‘‘मैंने तो पहले ही कह दिया था कि इस घर में विवाह की रीति ही नहीं है। पता नहीं पिताजी ने कैसे भूल से विवाह कर लिया, नहीं तो यहां तो विवाह की आवश्यकता ही नहीं है। पंडित नेहरू को पता चले तो पिताजी को ‘पद्मश्री’ से विभूषित कर दें कि ऐसे लोग भी हैं जो अपने चारों बेटों को कुंवारा बैठाए हुए हैं।’’
‘‘भैया, घबराने की क्या बात है ?’’ मैंने एक प्रकार से उन्हें चिढ़ाया, ‘‘राजा दशरथ के भी चार बेटे थे और चारों कुंवारे थे। जब विवाह का समय आया तो चारों का विवाह एक साथ कर दिया गया।’’
‘‘अरे चल !’’ भैया झल्लाए, ‘‘बड़े आ गए राजा दशरथ के बेटे ! शकल देखो शीशे में ! रामचन्द्र अभी सोलह वर्षों के तो हुए नहीं थे कि उनका विवाह हो गया था और यहां बड़े भैया अट्ठाईस के हो गए हैं और प्रत्येक वर्ष वही-हम इस वर्ष विवाह नहीं कर सकते।’’
‘‘भैया, आपको क्या जल्दी है ?’’ मैंने कहा, ‘‘आप तो अभी चौबीस के ही हुए हैं, दो-तीन वर्ष और प्रतीक्ष कर सकते हैं।’’
‘‘समझोगे क्या ?’’ उन्होंने बुद्धिमत्ता जताई, ‘‘एम.ए. में पढ़ने से ही संसार का ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता। हमारे कारखाने कभी आओ तो मालूम हो।’’
‘‘क्या है वहां, संसार का ज्ञान ?’’ मैंने उत्सुकता दर्शाई।
‘‘अरे, वहां सारे भारत के लोग हैं और सब राजा दशरथ के इन पुत्रों के समान विवाह के लिए प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते। किसी की शादी बारह वर्षों की अवस्था में हुई थी, किसी की चौदह वर्षों की अवस्था में। एक दिन जानते हो क्या हुआ ?’’
‘‘ऊं हूं !’’ मैंने नकारात्मक उत्तर दिया।
‘‘एक ने मुझसे पूछा...’’ छोटे भैया सुनाने के मूड में थे, ‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?’ ‘‘मैंने कहा, ‘कोई नहीं।’ उसने कहा, ‘कोई नहीं ! कितनी उम्र है तुम्हारी ?’ मैंने बताया चौबीस वर्ष ! जानते हो उसने क्या कहा ?’
‘‘नहीं !’’ मैंने फिर सिर हिलाया। ‘‘उसने कहा, ‘बस रह गए साढ़े बाइस ही। चौबीस वर्षों के होने को आए और अभी तक एक बच्चा नहीं ?’ मैंने कहा, ‘अरे भलेमानस, बीवी ही नहीं, तो बच्चा कहां से ?’ वह बहुत घबराया। कहने लगा, ‘अभी तक तुम्हारी शादी नहीं हुई ?’ मैंने कहा, ‘नहीं !’ उसने पूछा, ‘क्यों ?’ मैंने कहा, ‘अभी मेरे बड़े भाई की नहीं हुई।’ वह जैसे आकाश से गिर पड़ा, तुमसे बड़े की भी नहीं हुई।’ ‘नहीं !’ मैंने कहा; पर मैंने उसे नहीं बताया कि उससे भी बड़े एक महाशय हैं और शादी उनकी भी नहीं हुई है। यदि यह बता देता तो शायद उसका हार्ट फेल हो जाता।’’ भैया खूब जोर से हंस पड़े।
ये बातें छोटे भैया के लिए नई नहीं थीं। जब से बड़े भाई की सगाई हुई थी, वे इसी तरह की बातें किया करते थे। जब कभी जोश में आते तो कहते, ‘‘यह जो राजा दशरथ के पुत्रों का घर है न, यह घर नहीं है-कुंवारों का घर है; ‘बैचलर्स-डेन’। मैं दुनिया-भर के कुंवारों को पकड़ लाऊंगा और यहीं रखूंगा। जब वे पूछेंगे तो कहूंगा, ‘यही तुम्हारा उचित स्थान है। यह कुंवरों का घर है; बैचलर्स-डेन’।
एक बार तो वे ‘बैचलर्स डेन’ का एक बोर्ड भी बनवाकर ले आए थे; पर बोर्ड बनवाना एकबात है और उसे घर के फाटक पर लगाकर पिताजी का सामना करना दूसरी।
उत्सुकता मुझे भी थी। मैं भी चाहता था कि हमारे घर में भी कभी कोई विवाह हो। हमारी भी भाभी आए। दूसरों के घर यह सब होता देख मेरा भी मन करता था; पर मैं छोटे भैया के समान हल्ला नहीं कर सकता था। वे तो इस तरह के गुल रोज़ ही खिलाते थे। कभी कोई नई बात लाते, कभी कोई। एक दिन बाहर से आते ही बोले-
‘‘नरेन्द्र ! सुनो, आज एक मज़ेदार बात हुई !’’
‘‘क्या ?’’ मैंने पूछा।
‘‘आज एक गाना सुना।’’
‘‘कौन-सा ?’’
‘‘अरे, वह-
तिरैया दा बुखार बुरा
सुरैये दा प्यार बुरा
बनिये दा उदार बुरा
ते सब कोलों बुरा साडा पाइया
जिन्ने कीती न साडी कुड़माई
ते हुन असी की करिए ?
ओ कोई बने न तेरी परजाई
ते हुन असी की करिए ?’’
(तिरैया का बुखार बुरा होता है, सुरैया का प्यार बुरा होता है, बनिये का उधार बुरा होता है; किन्तु सबसे बुरे हमारे पिता हैं, जिन्होंने हमारी सगाई तक नहीं की ! अब हम क्या करें ? कोई भी तेरी भाभी बनने को तैयार नहीं, तो अब हम क्या करें ?)
मैं हंस पड़ा।
‘‘क्यों, कैसा है ?’’ उन्होंने पूछा।
‘‘अच्छा है !’’ मैं बोला, ‘‘आपके योग्य !’’
‘‘यह नेशनल सांग है-मालूम है ?’’
‘‘कहां का ?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘‘बैचलर्स-डेन का !’’ और वे फिर हंस पड़े।
‘‘आज एक और बात हो गई, जानते हो ?’’ वे बोले, ‘‘मेरे साथ काम करनेवाला एक लड़का है, छत्तीसगढ़ का। कह रहा था, ‘मालूम होता है तेरा बुड्ढा खूब पैसा जटना मांगता है, इसीलिए शादी नहीं कर रहा है तुम लोगों की।’’
‘‘आपने उसे कुछ कहा नहीं ?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘‘किस बात के लिए ?’’ प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही मिला।
‘‘उसने पिताजी को ‘बुड्ढा’ कहा।’’ मैं बोला, ‘‘यह तो कोई तरीका है बात करने का।’’
‘‘अरे, तुम हो कॉलेजोंवाले सभ्य लोग !’’ वे हंसे, ‘‘हम हैं टाटा कम्पनी के कुली। वहां सभ्यता नहीं चलती। जानते हो, अपने बाप को वह क्या कहता है ?’’
‘‘नहीं !’’ मैंने सिर हिलाया।
बुढ़ऊ !’’ वे फिर हंसे, ‘‘हमारे पिताजी को तो उसने सभ्य भाषा में ही पुकारा है।’’
ये सारी बातें सन-सुनकर मैं समझता था कि छोटे भैया को भी घर में भाभी लाने का शौक है, यही कारण है कि रोज़ कोलाहल मचाए रहते हैं। पर एक दिन संध्या समय एक नई बात हो गई। मैं अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। घर चुपचाप-सा था। पिताजी जाने कहां गए हुए थे। माताजी रसोई में होंगी। बड़े भैया कारखाने में थे, अपनी ड्यूटी पर; और मंझले भैया शायद सोए हुए थे। छोटे भैया अभी नहाकर अपने कमरे में गए थे। बेबी शायद बाहर खेल रही थी।
सहसा बरामदे में बेबी की आवाज आई। वह गा रही थी, फिल्म ‘नवरंग’ का गाना-
यह कौन फूल महका
यह कौन पंक्षी चहका
महफिल में कैसी खुशबू उड़ी, दिल जो मेरा....’
...और ‘चटाक्’ का स्वर !
मैं बाहर निकल आया।
बेबी अपने गाल पर हाथ रखे, छोटे भैया को एकटक निहार रही थी। और छोटे भैया नर्वस-से खड़े उसको ताक रहे थे। उन्होंने केवल पतलून और बनियान पहन रखी थी। बाल बिखरे हुए थे, शायद कंघी नहीं की थी। मैं कुछ समझ न सका। बोल कोई भी नहीं रहा था, केवल ताक रहे थे। आठ वर्ष की बेबी को, जो हमारी एकमात्र बहन थी, छोटे भैया इस प्रकार क्यों घूर रहे थे; मैं समझ नहीं सका। थोड़ी देर में भैया अपने कमरे में चले गए। अब बेबी ने मेरी ओर देखा। उसका हाथ गाल के नीचे आ चुका था।
वह मुसकराई-उस मुसकान में शरारत थी।
वह जाने लगी।
‘‘बेबी !’’ मैंने पुकारा।
वह भागने लगी।
मैंने झपटकर उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘इधर आओ !’’ मैं अपने कमरे में ले आया उसे। वह अब भी मुसकरा रही थी।
‘‘क्या हुआ ?’’ मैंने पूछा।
‘‘कुछ नहीं !’’ वह बोली, ‘‘मैं गा रही थी, ‘महफिल में कैसी खुशबू उड़ी’ और उन्होंने निकलकर मेरा कान खींचा और एक चांटा मार दिया।’’
‘‘क्यों किया ऐसा ?’’
वह कुछ नहीं बोली, केवल मुसकराती रही।
‘‘बोलो न ! क्यों मारा ? तुम रोई क्यों नहीं ? तुमने वह गाना क्यों गाया ?’’
वह बताना नहीं चाहती थी। शायद कमरे से भाग ही जाती, पर मैंने उसके हाथ पकड़ रखे थे।
उसने घूमकर एक बार दरवाजे की ओर देखा। मेरे पास खिसक आई और धीरे से बोली, भैया ! जानते हो, मैंने क्यों गाया ?’’ वह फिर मुसकराई।
मैं भी उत्तर में मुसकराया।
‘‘सुख भैया पाउडर लगा रहे थे !’’
‘‘पाउडर !’’ मैं चौंका।
‘‘हूं !’’ बेबी फिर शरारत से मुसकराई।
‘‘तभी महफिल में खुशबू उड़ी थी !’’ मैं भी मुसकराया। मैंने बेबी के सिर पर चपत जमाया, ‘‘बड़ी शरारतें करने लगी है तू !’’
वह फिर मेरी आंखों में देख कर मुसकराई। मैं उसे छोड़कर छोटे भैया के कमरे में चला गया। भैया कहीं जाने के लिए तैयार थे। उन्होंने एक बार मुझे देखा और फिर दर्पण पर अन्तिम दृष्टि डाली।
‘‘कहीं जा रहे हैं, भैया ?’’ मैंने पूछा।
‘‘हूं !’’
‘‘भैया, बेबी को क्यों मारा आपने ?’’
‘‘वह देखो !’’ वे ज़रा घबराए, ‘‘मैंने कितनी बार मना किया कि फिल्मों के गाने मत गाया करो, अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते; पर वह है कि मानती ही नहीं है।’’
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