कहानी संग्रह >> रोमांचक विज्ञान कथाएँ रोमांचक विज्ञान कथाएँजयंत विष्णु नारलीकर
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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...
1
हिम युग की वापसी
पापा, पापा ! जल्दी उठो। देखो, बाहर कितनी सारी बर्फ है! कितना अच्छा लग रहा
है!"
राजीव शाह की सुबह-सुबह की गहरी नींद बच्चों के शोरगुल से उचट गई। पहले तो
उसे समझ नहीं आया कि शोरगुल किस बात पर हो रहा है। कविता और प्रमोद क्यों
इतने उत्तेजित हो रहे थे?
'पापा, क्या हम नीचे जाकर बर्फ में खेल सकते हैं?" कविता ने पूछा।
बर्फ ! यहाँ मुंबई में! यह कैसे मुमकिन है ? राजीव की नींद फौरन गायब हो गई।
वह लपककर खिड़की के पास पहुँचा और बाहर झाँका। उसे अपनी आँखों पर विश्वास
नहीं हुआ। वाकई! बाहर बर्फबारी हुई थी। दूर-दूर तक घरों के बीच में बर्फ की
सफेद चादर बिछी हुई थी और तभी उसे महसूस हुआ कि कितनी ठंड पड़ रही थी। बच्चों
ने तो दो-दो स्वेटर तक चढ़ा लिये थे। गरम कपड़ों के नाम पर उनके पास वही
स्वेटर थे। वैसे भी मुंबई में गरम कपड़ों की जरूरत किसे पड़ती है। ये स्वेटर
भी उन्होंने पिछले साल ऊटी में खरीदे थे और तब उन्होंने सपने में भी नहीं
सोचा था कि एक दिन मुंबई में उनकी जरूरत पड़ेगी।
"नहीं! नीचे मत जाओ।" ठंड से सिहरते हुए राजीव बोला और फिर अपने चारों ओर शॉल
लपेटते हुए उसने भी हथियार डाल दिए, “हम छत पर चलेंगे। लेकिन पहले अपने
जूते-मोजे पहन लो।"
प्रमोद और कविता दौड़कर पहले ही छत पर पहुँच गए। राजीव ने भी एक और मोटा शॉल
निकाल लिया। उसकी दिली इच्छा हो रही थी कि उनके पास भी कोई हीटर होता। यहाँ
तक कि कोयलेवाली अँगीठी से भी काम चल जाता है।
पिछले एक हफ्ते से जलवायु में जो बदलाव आ रहे थे उसी की परिणति थी यह बर्फ।
आमतौर पर तापमान 15 डिग्री सेल्सियस तक गिरने पर ही मुंबईवाले शोर मचाने लगते
हैं कि ठंड पड़ रही है। कल दिन का तापमान मुश्किल से 5 डिग्री पहुंचा था और
रात में 0 डिग्री हो गया। लेकिन किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि बर्फ भी पड़ने
लगेगी। इस बर्फबारी ने मौसम के अच्छे-अच्छे पंडितों के मुँह बंद कर दिए थे।
अब मौसम में कहाँ और क्या परिवर्तन आएगा, कोई नहीं जानता।
"जल्दी आओ, पापा!" छत की ऊपरी सीढ़ी से प्रमोद चिल्लाया। अपार्टमेंट के सबसे
ऊँचे माले पर बने इस फ्लैट के मालिक होने के नाते छत पर भी उन्हीं का अधिकार
था। मुंबई जैसे शहर में यह बड़े शान की बात थी।
'मैं आ रहा हूँ। पर अपना ध्यान रखो। बर्फ फिसलन भरी हो सकती है।"
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए राजीव ने बच्चों को सावधान किया। वह समझ नहीं पा रहा था
कि छत पर कितनी ठंड होगी।
लेकिन छत पर पहुँचते ही आस-पास का नजारा देखकर वह अपनी चिंता भूल गया। उसे
लगा कि गरम और आर्द्र जलवायु के शहर मुंबई की बजाय वह क्रिसमस कार्ड पर छपे
किसी यूरोपीय शहर की तसवीर देख रहा हो। हिंदू कॉलोनी की कुंज गलियों में लगे
पेड़ों पर भी सफेद चादर बिछी हुई थी। लेकिन फुटपाथों और सड़कों पर यातायात के
कारण काले-सफेद का बेमेल संगम हो रहा था। दादर के पार जाती रेल लाइन भी
सुनसान पड़ी थी।
"मैं शर्त लगा सकता हूँ कि मध्य रेलवेवालों ने भी अपना तामझाम समेट लिया
होगा। उन्हें किसी बड़े बहाने की जरूरत नहीं पड़ती।" राजीव बड़बड़ाया, "मुझे
हैरानी है कि पश्चिम रेलवेवाले क्या कह रहे होंगे।" जवाब के तौर पर तभी उसे
माहिम की ओर जाती पटरी पर लोकल ट्रेन दिखाई दी।
लेकिन राजीव की कल्पनाएँ पाँच साल पीछे की उड़ान भर रही थीं, जब उसने एक शर्त
लगाई थी। उस वक्त तो शर्त लगाना बहुत आसान लग रहा था कि क्या मुंबई में बर्फ
पड़ेगी? उसका दावा था, 'कभी नहीं।' लेकिन वसंत ने बड़े यकीन के साथ कहा था,
'अगले दस वर्षों के भीतर मुंबई में बर्फ पड़ेगी।'
लेकिन ऐसा केवल पाँच वर्षों के भीतर ही हो गया।
वाशिंगटन में भारतीय राजदूत द्वारा दी गई दावत में पहली बार वह वसंत से मिला
था। वसंत यानी प्रो. वसंत चिटनिस, जो उस दौरान अमरीका में जगह-जगह पर
व्याख्यान दे रहे थे। राजदूत ने उस दावत में डी.सी. मैरीलैंड और वर्जीनिया के
बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को बुलाया था। कुछ पत्रकार भी थे, जिनमें राजीव भी एक
था।
विज्ञान और राजनीति पर गपशप का दौर जारी था। लेकिन वसंत चुपचाप बैठा था। ऐसी
दावतों और गपशप में वह शायद ही कभी शामिल होता हो।
'टेलीप्रिंटर पर अभी-अभी एक संदेश आया है। ज्वालामुखी वेसूवियस दोबारा फट
पड़ा है।' एक पत्रकार लगभग चिल्लाता हुआ अंदर दाखिल हुआ।
'हे भगवान् ! तीन महीनों के भीतर फटनेवाला यह चौथा ज्वालामुखी है। ऐसा लगता
है कि धरती माता का पेट खराब हो गया है।' राजीव ने वसंत से कहा, जो उसकी बगल
में ही बैठा था।
'पर हमें धरती माँ के पेट की बजाय उसकी खाल की परवाह करनी चाहिए।' वसंत ने
तुरंत ही जवाब दिया।
आपका क्या मतलब है ?' राजीव ने पूछा।
'हाँ-हाँ, वसंत! हमें भी बताओ।' मैरीलैंड विश्वविद्यालय से आए एक प्रोफेसर ने
कहा।
'अच्छा! जब कोई ज्वालामुखी फटता है तो उसका सबकुछ धरती पर ही नहीं गिरता है।
कुछ पदार्थ वायुमंडल में भी घुल-मिल जाता है। यह निर्भर करता है कि कितना?
क्योंकि एक निश्चित स्तर पार करने पर प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। मुझे
डर है कि हम उस सीमा को अगर पार नहीं कर गए हैं तो उसके निकट तो पहुँच ही गए
हैं।' वसंत ने गंभीरतापूर्वक बताया।
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