कहानी संग्रह >> चौखट चौखटमंजु मधुकर
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यह एक अत्यन्त रोचक कथानक, जो पाठक को बाँधे रखने में समर्थ है
Chaukhat
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘सारगुति’ एवं ‘चौखट’ ये दो नवीन कृतियाँ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत हैं। ‘सारगुति’ एक लघु उपन्यासिका है और ‘चौखट’ एक लंबी कहानी। दोनों ही मेरी प्रिय रचनाएँ हैं। परंतु यह सत्य है कि ‘सारगुति’ मेरी सर्वप्रिय रचना है। इसका प्रथम कारण तो यह है कि कहानियाँ लिखते-लिखते मैंने एक उपन्यास लिखने का विचार किया और यह मेरा प्रथम लघु उपन्यास है। इसे मैंने अत्यंत मनोयोग से लिखा है। इसे लिखने से पहले कुछ पुस्तकें पढ़ीं, शोध एवं खोज की; क्योंकि यह बस्तर, छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा के आदिवासियों के रहन-सहन, खान-पान एवं भाषा-व्यवहार पर लिखी गई रचना है।
इन आदिवासियों को मैंने अपने भ्रमण के दौरान काफी निकट से निरखा-परखा है। जहाँ एक ओर मानव समाज आधुनिकता की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कितना पिछड़ा हुआ है, यह वहाँ जाकर ही ज्ञात होता है।
परंतु उन जंगली आदिवासियों को सभ्यता की ओर जानेवाले और उन्हें चिकित्सा एवं सुख-सुविधाएँ प्रदान करने वाले कुछ लोगों ने कितना त्याग तथा बलिदान किया है, उसे मैंने अपनी कल्पना की तूलिका से चित्रित किया है। ‘सारगुति’ का शाब्दिक अर्थ बस्तर की भाषा में ‘सहेली’ होता है। संभवतया पाठकों को यह शीर्षक आकर्षित न कर सके, इस कारण मैंने इस संग्रह का शीर्षक ‘चौखट’ रखा है, जो मेरी लंबी कहानी है।
‘चौखट’ एक संस्कारी रजवाड़े परिवार की खूबसूरत कन्या ‘कांचना’ की कथा है, जो किशोरावस्था में एक मध्यमवर्गीय गैर-जाति के युवक से प्रेम करती है, परंतु माता-पिता की मर्यादा को ध्यान में रखकर वह उनके द्वारा तय किए वर से ब्याहकर ससुराल जाती है।
उसके मायके-गृह से विपरीत उसका श्वसुर-गृह है। वहाँ धन-वैभव एवं अटूट संपदा है, बड़ा राजघराना है। मुंबई महानगरी में रहनेवाले उसके श्वसुर पक्ष के लोग अति आधुनिक हैं। उनके संस्कारी मूल्य भिन्न हैं; परंतु फिर भी उनकी नसों में दौड़ता राजसी रक्त उन्हें उनकी परंपराओं एवं उसूलों से बाँधे रखता है।
प्रथम प्यार को भुला वह पति से जुड़ने का प्रयत्न करती है, परंतु पति से उसे वह सब नहीं मिल पाता जो एक ब्याहता स्त्री को पति से प्राप्त होना चाहिए। उसके जीवन में एक और पुरुष आता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसा मोड़ लेती हैं कि वह युवती एक बच्चे की माँ बनती है।
मेरी कहानी की नायिका ‘कांचना’ द्विविधा में ही रहती है कि यह बच्चा क्या उसके पति का ही है। अनमनी हो वह व्यापार सिलसिले में विदेश जाती है, किंतु तभी उसे ज्ञात होता है कि श्वसुर-गृह की ‘चौखट’ के कपाट उसके लिए बंद हो चुके हैं।
वह एकाकी विदेश में रहती है, परंतु अनायास ही एक दिन उसे अपनी बाल सखी, ‘कांचना’ विदेश प्रवास के दौरान मिलती है। वह उसे पहचानने से इनकार करती है; परंतु क्यों ?’ इस क्यों ? को जानने के लिए पढ़िए ‘चौखट’। यह अति रोचक कथानक है। ‘कांचना’ की सहेली उसके एकाकीपन को तोड़ ‘कांचना’ की अन्तर्व्यथा को जानने का प्रयास करती है।
सीधी, सरल, सामाजिक और शिष्ट भाषा में लिखना मेरी कमजोरी है। यदि कुछ भूल हुई हो तो पाठकगण क्षमा करें।
174, वीनस अपार्टमेंट
कफ परेड, मुंबई-5
इन आदिवासियों को मैंने अपने भ्रमण के दौरान काफी निकट से निरखा-परखा है। जहाँ एक ओर मानव समाज आधुनिकता की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कितना पिछड़ा हुआ है, यह वहाँ जाकर ही ज्ञात होता है।
परंतु उन जंगली आदिवासियों को सभ्यता की ओर जानेवाले और उन्हें चिकित्सा एवं सुख-सुविधाएँ प्रदान करने वाले कुछ लोगों ने कितना त्याग तथा बलिदान किया है, उसे मैंने अपनी कल्पना की तूलिका से चित्रित किया है। ‘सारगुति’ का शाब्दिक अर्थ बस्तर की भाषा में ‘सहेली’ होता है। संभवतया पाठकों को यह शीर्षक आकर्षित न कर सके, इस कारण मैंने इस संग्रह का शीर्षक ‘चौखट’ रखा है, जो मेरी लंबी कहानी है।
‘चौखट’ एक संस्कारी रजवाड़े परिवार की खूबसूरत कन्या ‘कांचना’ की कथा है, जो किशोरावस्था में एक मध्यमवर्गीय गैर-जाति के युवक से प्रेम करती है, परंतु माता-पिता की मर्यादा को ध्यान में रखकर वह उनके द्वारा तय किए वर से ब्याहकर ससुराल जाती है।
उसके मायके-गृह से विपरीत उसका श्वसुर-गृह है। वहाँ धन-वैभव एवं अटूट संपदा है, बड़ा राजघराना है। मुंबई महानगरी में रहनेवाले उसके श्वसुर पक्ष के लोग अति आधुनिक हैं। उनके संस्कारी मूल्य भिन्न हैं; परंतु फिर भी उनकी नसों में दौड़ता राजसी रक्त उन्हें उनकी परंपराओं एवं उसूलों से बाँधे रखता है।
प्रथम प्यार को भुला वह पति से जुड़ने का प्रयत्न करती है, परंतु पति से उसे वह सब नहीं मिल पाता जो एक ब्याहता स्त्री को पति से प्राप्त होना चाहिए। उसके जीवन में एक और पुरुष आता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसा मोड़ लेती हैं कि वह युवती एक बच्चे की माँ बनती है।
मेरी कहानी की नायिका ‘कांचना’ द्विविधा में ही रहती है कि यह बच्चा क्या उसके पति का ही है। अनमनी हो वह व्यापार सिलसिले में विदेश जाती है, किंतु तभी उसे ज्ञात होता है कि श्वसुर-गृह की ‘चौखट’ के कपाट उसके लिए बंद हो चुके हैं।
वह एकाकी विदेश में रहती है, परंतु अनायास ही एक दिन उसे अपनी बाल सखी, ‘कांचना’ विदेश प्रवास के दौरान मिलती है। वह उसे पहचानने से इनकार करती है; परंतु क्यों ?’ इस क्यों ? को जानने के लिए पढ़िए ‘चौखट’। यह अति रोचक कथानक है। ‘कांचना’ की सहेली उसके एकाकीपन को तोड़ ‘कांचना’ की अन्तर्व्यथा को जानने का प्रयास करती है।
सीधी, सरल, सामाजिक और शिष्ट भाषा में लिखना मेरी कमजोरी है। यदि कुछ भूल हुई हो तो पाठकगण क्षमा करें।
174, वीनस अपार्टमेंट
कफ परेड, मुंबई-5
मंजु मधुकर
चौखट
कविता लंदन सुपरमार्केट से सामान लेकर बाहर निकल रही थी कि अनायास एक सुसंस्कृत महिला से टकरा गई। ‘सॉरी’ कहा तो जींस-टॉप पहने उस महिला ने भी पलटकर मुसकराकर नो, ‘दैट्‘स ओ.के.’, कहा। एक क्षण को दोनों की दृष्टि चार हुई।
और जब तक कविता कुछ सोच पाती, वह युवती तेजी से अपने सामान की ट्रॉली खिसकाती कार पार्किंग की ओर मुड़ गई। सामान रख कार के शीशे चढ़ाती वह युवती कनखियों से ही सही, कविता की ओर देखने का प्रयत्न कर रही थी। यह कविता को स्पष्ट दिख रहा था।
कविता अपने मस्तिष्क पर बार-बार जोर डाल रही थी कि यह सूरत जानी-पहचानी-सी क्यों है ?
‘ओह ! कांचना, कांचना ही तो है वह।’
परदेश में स्वदेश की एक ठोस पहचान। विदेश की धरती पर अपनी मातृभूमि की सोंघी स्मृतियों की ओर ले जाने वाली कांचना। आज क्या मुझे पहचानी नहीं ? और वह यहाँ कैसे ? किंतु उसके नेत्रों में पहचान के चित्र उभरे तो थे, पर वह रुकी क्यों नहीं। नहीं-नहीं, वह कांचना से मिलती-जुलती कोई युवती होगी, वरना क्या वह अपनी प्यारी सखी को न पहचानती—यही सब सोचती कविता अपनी गाड़ी में बैठ घर आ गई।
कविता के पति भारतीय उच्चायुक्त में डिप्टी हाई कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए थे। अभी तक कविता यूरोप, अमेरिका, सोवियंत संघ आदि में ही घूमती थी। पदोन्नति के पश्चात् अब उसके पति छोटे से द्वीप में उच्चपद पर नियुक्त हुए थे। इस द्वीप के खूबसूरत कहे जाने वाले इलाके फ्लोरिपाल में उसके पति को एक खूबसूरत बँगला मिला था। एक ओर गहरी खाई पर्वतों की कतार से घिरी हुई, छोटी-छोटी पहाड़ियों पर पेड़-पौधे तथा दूसरी ओर खूबसूरत बँगलों की पंक्तियाँ थीं।
आरंभ में कविता का मन इस द्वीप से उचटता ही रहा, किंतु अब इस द्वीप का प्राकृतिक सौंदर्य एवं रमणीयता मन को बाँधती जा रही थी। दोनों बेटियों को मन माफिक स्कूल मिल गए थे। परंतु पहचान की डोर केवल दूतावास के लोगों या फिर मॉ़रीशस के गणमान्य लोगों तक ही सिमट कर रह गई थी—जहाँ थी केवल पार्टियों, कॉकटेलों की औपचारिकता। वह चाहती थी ऐसी सखी, जो भावात्मक स्तर पर उसका संग-साथ दे सके, जिसके साथ वह हृदय की परतों को उघाड़कर अपने दिल की बात कर सके।
अब यदि उसकी अंतरंग सखी कांचना ही है तो कविता फिर किसी और परिचय की मोहताज नहीं है। कांचना के साथ परदेश की धरती पर दिन सोने के और रातें चाँदी की हो जाएँगी।
परंतु यदि कांचना ही है तो पहचानी क्यों नहीं ? और यदि नहीं है, तो ठिठक क्यों गई ? कांचना के नेत्र उसका पीछा क्यों करते रहे ? क्या वह इतनी बदल गई है कि कोई पहचान न सके। कविता आईने के समक्ष खड़ी हो गई; किंतु चिर-परिचित तो यही कहते हैं कि विवाह के आठ वर्षों के बाद भी वह नहीं बदली। हाँ, अलबत्ता पति के पद ने उसकी गरिमा अवश्य बढ़ा दी है।
दोपहर की गहरी नींद ले जब वह उठी तो देखा कि जोरों की वर्षा हो रही है। इस द्वीप की विशेषता है कि जब देखो तब काले घुमड़ते बादलों से नभ आच्छादित हुआ रहता है और अनायास ही तीव्र –प्रखर धूप को चीरता इंद्रधनुष अपने सात रंग बिखेरता स्वच्छ नील गगन में विराजमान हो जाता है।
ऑफिस से घर आकर पति ने बताया कि आज एक स्थानीय सुप्रसिद्ध उद्योगपति के आवास पर रात्रि-भोज है।
पार्टी की व्यवस्था एक विशाल सुसज्जित हॉल में थी। हॉल खचाखच भरा था। मेजबान ने विशिष्ट स्थान पर उन्हें बैठाया। थोड़ा तटस्थ होने के पश्चात् कविता ने ज्यों ही दृष्टि घुमाई तो आभास हुआ कि कोई उसे घूर रहा है। कविता ने स्वभाववश एक हलकी-सी मुसकान उन काली-कजरारी आँखों की ओर फेंकी तो अचकचाकर वह दूसरी ओर मुख फेर अपने साथियों से बात करने लगी। उस भारतीय युवती के सभी साथी फ्रेंच, चाइनीज आदि स्थानीय पुरुष ही थे। कोई और महिला उस मेज पर नहीं थी।
नहीं-नहीं, वह युवती कोई और है, पूर्णतया पाश्चात्य रंग में रँगी। यह कांचना हो ही नहीं सकती। अत्यंत संस्कारी, दबे-ढके रजवाड़े उद्योपति की कन्या, जो दुपट्टा भी ऐसे ओढ़ती कि सम्पूर्ण तन ढका रहे। काली नागिन-सी बलखाती वेणियाँ, शरमीली सी हँसी, गदबदा शरीर और भक्क गोरा रंग—यही थी कांचना की पहचान। परंतु यहाँ तो कानों तक कटे-छँटे केश, छरहरा तन और हलकी सी पीत आभा लिये गोरा रंग, शरमीली सी हँसी अब उन्मुक्त ठहाकों में परिवर्तित हो गई थी। हाँ, काले-कजरारे बड़े-बड़े नेत्र उतने ही आकर्षक और पनीले हैं। क्या कांचना आपादमस्तक बदल गई अथवा वह उससे मिलती सूरत की कोई युवती है।
परंतु उसका कविता को यूँ घूरना, क्या वह भी कविता को पहचानना चाहती है !
पार्टी की समाप्त पर जब घर आई तो देर रात्रि तक उस युवती के विषय में ही सोचती रही।
व्यस्त दिनचर्या में शनैः-शनैः वह उस युवती को भी भूल चली और घर-परिवार जब कुछ व्यवस्थित हुआ तो अपनी अभिरुचि की वस्तुएँ निकालनी आरंभ कीं।
ईजल स्टैंड निकलवा उसे बॉलकनी में रखवा दिया। उस बॉलकनी से क्युरपिप की पहाड़ियों का दृश्य बहुत मनोरम दिखता था।
रंगों और ब्रशों की छटा बिखेर उसने अति सुंदर पर्वत, नदी, समुद्र और वृक्षों का दृश्य उपस्थित कर दिया।
और सहसा ही एक वृक्ष के तने की ओर झाँकती जिस नारी-मूर्ति की तसवीर उसके हाथों से बन गई, वह हू-ब-हू कांचना की ही तस्वीर थी। वैसे भी कविता पोट्रेट बनाने में महारत हासिल कर चुकी थी और वह खूबसूरत दृश्य मॉरीशस द्वीप के प्राकृतिक सौंदर्य की प्रेरणा से ही बना था; किंतु कांचना की तसवीर और वह भी कुछ उदास, उदास सा सौंदर्य, वह स्वयं नहीं समझ पाई कि कांचना जैसी जीवंत सखी के मुखड़े पर यह उदासी की झलक कैसे चित्रित हो गई ! वह पूर्ण मनोयोग से अपनी कलाकृति को अंतिम रूप दे रही थी की घंटी की मधुर ध्वनि ने उसकी तंद्रा भंग की।
दरवाजा खोला तो देखा—एक श्यामल वर्ण की छरहरी, लंबी, कंधे तक कटे बालोंवाली साधारण रंग-रूप की हँसमुख महिला सम्मुख खड़ी है।
‘‘नमस्कार ! मैं मिसेज इंदु राजकुमार हूँ। आपके ठीक सामनेवाला बँगला मेरा ही है। आप नई-नई आई हैं तो आपसे भेंट करने की अदम्य इच्छा मैं रोक न सकी। वैसे भी इस छोटी सी पहाड़ी पर गिने-चुने पाँच ही तो बँगले हैं। दो में तो वृद्ध फ्रेंच दंपती रहते हैं और एक में मलेशियन एंबेसडर। बहुत एकाकीपन का अनुभव करती थी मैं, किंतु जब से सुना कि इस बँगले में भारतीय दूतावास के डिप्टी हाई कमिश्नर रहने आ रहे हैं, तो खुशी से झूम उठी।
भीतर एक ही साँस में उसकी परिष्कृत हिंदी के संवाद सुन चकित रह गई।
‘‘क्या आप यहीं की हैं ?’’ कविता ने इंदु को सोफे पर बैठाते हुए पूछा।
‘‘जी हाँ, अब तो यहीं की हूँ। वैसे अभी बनारस की हूँ, यहाँ ब्याहकर आ गई हूँ।’’ इंदु हँसते हुए बोली।
‘‘इतनी दूर !’’ चकित नेत्रों से कविता ने पूछा।
‘‘जी हाँ, मैं हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत थी। वहीं मेरे पतिदेव भी पढ़ने आए हुए थे। परिचय प्रेम में परिवर्तित हुआ और मैं ब्याहकर यहाँ आ गई।’’
इंदु की मनमोहिनी हँसी उसके साधारण चेहरे को भी असाधारण बना रही थी। काले-कजरारे, बड़े-बड़े नेत्रों में सम्मोहन-सा था।
ड्राइंगरूम के दरवाजे से ही इंदु की दृष्टि उसकी पेंटिंग पर पड़ी।
‘‘बहुत अच्छी चित्रकार हैं आप तो !’’ और फिर गौर से पेंटिंग के निकट जाकर देखने लगी।
‘‘सच में, आपने यह गिरी-गिरी बीच का कितना सुंदर चित्रण किया है ! और वह युवती भी कितनी सजीव बनाई गई है। लगता है, यह चेहरा भी आपने कहीं देखा है, क्योंकि इस सूरत की एक युवती हमारे द्वीप में भी है।
‘‘नहीं-नहीं, यह तो यूँ ही बन गई थी। अनजाने में ही किसी का चित्र बना बैठी हूँ।’’
‘‘हाँ, आपकी तस्वीर की नायिका यहाँ की एक चर्चित महिला से काफी मिलती है।’’
कविता चौंक उठी।
‘‘कौन है वह ?’’
‘‘आप अभी नई-नई आई हैं। कुछ दिनों में स्वयं ही जान जाएँगी। एक संभ्रांत कुल की उद्योगति महिला हैं। भारतीय हैं, वैसे तो विवाहित ही हैं, पर अकेले रहती हैं।’’ इंदु ने रहस्य भरी मुसकान से कहा।
कॉफी का प्याला गटक तथा अपने घर आने का निमंत्रण देकर वह महिला तो चली गई, किंतु कविता की उत्सुकता बढ़ गई।
कविता समझ गई कि यह कांचना तक पहुँचने की सीढ़ी बन सकती है।
कुछ दिन यूँ ही गुजर गए।
कविता का सामाजिक दायरा बढ़ता जा रहा था। लिहाजा, कांचना उसके मस्तिष्क से उतर गई। किन्तु फिर एक दिन विद्युत-सी कौंध दिखा कांचना कविता को विचलित कर गई।
हुआ यूँ कि राज-दूतावास में गणतंत्र दिवस के उपलक्ष में पार्टी थी। किसी कार्यवश हाई कमिश्नर सपत्नी साहब विदेश गए थे। मेजबानी निभाने का दायित्व कविता एवं उसके पति पर ही था।
द्वार पर खड़ी कविता अतिथियों की अगवानी कर रही थी कि देखा, एक विदेशी पुरुष के पार्श्व में कांचना-सी दिखती वह युवती काले रंग के पश्चिमी परिधान में सज्जित उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर देकर निर्लिप्त सी आगे बढ़ गई; किंतु दो पल ठिठकी अवश्य।
कविता असहज हो उठी और भीड़ में उसे खोजने का प्रयत्न करने लगी; किंतु अतिथियों की भीड़ में वह नहीं जान पाई कि वह कब चली गई।
कविता कांचना की इस आँख-मिचौनी और अटपटे व्यवहार से त्रस्त हो गई थी, अतः उसने इस रहस्यात्मक आवरण से यवनिका उठाना आवश्यक समझा और वह अपनी प्रतिवेशिनी इंदु के द्वार पर पहुँच गई।
इंदु का विशाल गृह साज-सज्जा से परिपूर्ण था। बाग में खिलते पुष्प, जंजीर से बँधे एल्सेशियन और दो प्यारे-प्यारे बेटा-बेटी। चार-चार नौकरानियाँ, बड़े से पिंजरे में ‘काकातुआ’, छोटे से मखमली गद्दे पर विराजती काली पर्शियन बिल्ली, जो उसे देख गोल-गोल आँखों को घुमा गुर्राने लगी।
नौकरानी ने ससम्मान उसे भीतर बैठाया। कुछ ही पल में हँसती इंदु अंदर आई। उसकी अभ्यर्थना में प्रसन्नता से दोहरी हुई जा रही थी; किंतु चेहरे से कुछ कमजोर, नेत्रों और काले घेरे एवं होंठों पर फीकी मुस्कान थी।
‘‘आइए, आइए, आज तो हमारे अहोभाग्य ! आपने हमारे घर को पवित्र किया।’’
‘‘अरे, अरे क्या कह रही हैं ! आना तो बहुत समय से चाह रही थी, किंतु अवकाश ही नहीं मिला। आप भी तो नहीं दिखीं, अस्वस्थ थीं क्या ?’’ कविता ने इंदु को गौर से देखते हुए कहा।
‘‘हाँ आ-आ, कुछ ऐसा ही है।’’ इंदु के नेत्र पनीले हो उठे। थोड़ा मौन रहकर इंदु बोली, ‘‘दरअसल, कभी-कभी बहुत अकेलापन लगता है। डिप्रेशन हो जाता है, कोई पीहर का है भी तो नहीं। फिर यहाँ की आबोहवा भी माफिक नहीं—दमा भी हो जाता है।’’
‘‘खैर, छोड़िए, क्या पिएँगी ? मेरे हाथ की कॉफी बड़ी स्वादिष्ट होती है।’’ वह हास्य से उत्साहित होते हुए बोली।
किंतु, हास्य की परतों में छिपा हुआ रुदन कविता को स्पष्ट दिख रहा था।
कॉफी के साथ चीज-पकौड़े तथा घर के बने बेसन के लड्डू भी आए तो इंदु थोड़ा सहज हुई।
‘‘बात दरअसल यह है, कविताजी, कि बच्चे बड़े हो रहे हैं। अपने में व्यस्त हैं। पतिदेव अपने कारोबार के सिलसिले में यहाँ-वहाँ घूमते रहते हैं। बच्चे छोटे थे तो मैं भी संग जाती थी। समय के साथ-साथ इनके बिजनेस का विस्तार हुआ तो विदेशों के दौर भी प्रायः बढ़ने लगे। परिणामस्वरूप न तो यह मुझे साथ ले जाने का आग्रह करते हैं और न मैं घर-गृहस्थी छोड़कर जा पाती हूँ।’’
‘‘हाँ, यह तो है, बच्चों के लालन-पोषण का यही तो समय है जब हम उन्हें मार्गदर्शन दे सकते हैं।’’
कविता के इतना कहते ही इंदु खिलखिलाकर हँस पड़ी—
‘‘आजकल के बच्चे बड़ों के कान काटते हैं, कविताजी, यह तो हमें ही मार्गदर्शन दिखा दें। वैसे मैं तो आपसे यही आग्रह कर रही हूँ कि भाई साहब से कहकर एंबैसी में मेरी नौकरी लगवा दें, क्योंकि इससे एक तो मेरा समय व्यतीत होगा और दूसरा कुछ अर्थोपार्जन भी होगा।’’
‘‘ठीक है, यदि कुछ संभावना होगी तो आपका कार्य अवश्य ही होगा।’’
धीरे-धीरे कविता एवं इंदु की मित्रता गहरी हो गई। इंदु के पति एवं कविता में औपचारिक मित्रता हो गई। बच्चे समवयस्क थे, अतः परस्पर मेल-जोल बढ़ा तो अंतरंग बात-व्यवहार भी बढ़ा।
इंदु से ही उसे ज्ञात हुआ कि अनेक भारतीय युवतियाँ स्वेच्छा से अथवा रीति-रिवाज से तथा कभी-कभी छल-बल से भी ब्याहकर यहाँ आई हैं। कुछ तो उच्च स्तर पाकर सुखी हैं, किंतु अनेक की दशा ठीक नहीं है। यहाँ के और भारत के रहन-सहन में बहुत अंतर है। भारतीय होते हुए, हिंदू होते हुए भी कहीं-न-कहीं ये लोग फ्रांसीसी सभ्यता के दीवाने हैं। हो सकता है कि जिस परिस्थिति में इनके पूर्वज ढाई सौ वर्ष पूर्व आए तो कहीं-न-कहीं हीन भावना घर कर गई हो।
और जब तक कविता कुछ सोच पाती, वह युवती तेजी से अपने सामान की ट्रॉली खिसकाती कार पार्किंग की ओर मुड़ गई। सामान रख कार के शीशे चढ़ाती वह युवती कनखियों से ही सही, कविता की ओर देखने का प्रयत्न कर रही थी। यह कविता को स्पष्ट दिख रहा था।
कविता अपने मस्तिष्क पर बार-बार जोर डाल रही थी कि यह सूरत जानी-पहचानी-सी क्यों है ?
‘ओह ! कांचना, कांचना ही तो है वह।’
परदेश में स्वदेश की एक ठोस पहचान। विदेश की धरती पर अपनी मातृभूमि की सोंघी स्मृतियों की ओर ले जाने वाली कांचना। आज क्या मुझे पहचानी नहीं ? और वह यहाँ कैसे ? किंतु उसके नेत्रों में पहचान के चित्र उभरे तो थे, पर वह रुकी क्यों नहीं। नहीं-नहीं, वह कांचना से मिलती-जुलती कोई युवती होगी, वरना क्या वह अपनी प्यारी सखी को न पहचानती—यही सब सोचती कविता अपनी गाड़ी में बैठ घर आ गई।
कविता के पति भारतीय उच्चायुक्त में डिप्टी हाई कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए थे। अभी तक कविता यूरोप, अमेरिका, सोवियंत संघ आदि में ही घूमती थी। पदोन्नति के पश्चात् अब उसके पति छोटे से द्वीप में उच्चपद पर नियुक्त हुए थे। इस द्वीप के खूबसूरत कहे जाने वाले इलाके फ्लोरिपाल में उसके पति को एक खूबसूरत बँगला मिला था। एक ओर गहरी खाई पर्वतों की कतार से घिरी हुई, छोटी-छोटी पहाड़ियों पर पेड़-पौधे तथा दूसरी ओर खूबसूरत बँगलों की पंक्तियाँ थीं।
आरंभ में कविता का मन इस द्वीप से उचटता ही रहा, किंतु अब इस द्वीप का प्राकृतिक सौंदर्य एवं रमणीयता मन को बाँधती जा रही थी। दोनों बेटियों को मन माफिक स्कूल मिल गए थे। परंतु पहचान की डोर केवल दूतावास के लोगों या फिर मॉ़रीशस के गणमान्य लोगों तक ही सिमट कर रह गई थी—जहाँ थी केवल पार्टियों, कॉकटेलों की औपचारिकता। वह चाहती थी ऐसी सखी, जो भावात्मक स्तर पर उसका संग-साथ दे सके, जिसके साथ वह हृदय की परतों को उघाड़कर अपने दिल की बात कर सके।
अब यदि उसकी अंतरंग सखी कांचना ही है तो कविता फिर किसी और परिचय की मोहताज नहीं है। कांचना के साथ परदेश की धरती पर दिन सोने के और रातें चाँदी की हो जाएँगी।
परंतु यदि कांचना ही है तो पहचानी क्यों नहीं ? और यदि नहीं है, तो ठिठक क्यों गई ? कांचना के नेत्र उसका पीछा क्यों करते रहे ? क्या वह इतनी बदल गई है कि कोई पहचान न सके। कविता आईने के समक्ष खड़ी हो गई; किंतु चिर-परिचित तो यही कहते हैं कि विवाह के आठ वर्षों के बाद भी वह नहीं बदली। हाँ, अलबत्ता पति के पद ने उसकी गरिमा अवश्य बढ़ा दी है।
दोपहर की गहरी नींद ले जब वह उठी तो देखा कि जोरों की वर्षा हो रही है। इस द्वीप की विशेषता है कि जब देखो तब काले घुमड़ते बादलों से नभ आच्छादित हुआ रहता है और अनायास ही तीव्र –प्रखर धूप को चीरता इंद्रधनुष अपने सात रंग बिखेरता स्वच्छ नील गगन में विराजमान हो जाता है।
ऑफिस से घर आकर पति ने बताया कि आज एक स्थानीय सुप्रसिद्ध उद्योगपति के आवास पर रात्रि-भोज है।
पार्टी की व्यवस्था एक विशाल सुसज्जित हॉल में थी। हॉल खचाखच भरा था। मेजबान ने विशिष्ट स्थान पर उन्हें बैठाया। थोड़ा तटस्थ होने के पश्चात् कविता ने ज्यों ही दृष्टि घुमाई तो आभास हुआ कि कोई उसे घूर रहा है। कविता ने स्वभाववश एक हलकी-सी मुसकान उन काली-कजरारी आँखों की ओर फेंकी तो अचकचाकर वह दूसरी ओर मुख फेर अपने साथियों से बात करने लगी। उस भारतीय युवती के सभी साथी फ्रेंच, चाइनीज आदि स्थानीय पुरुष ही थे। कोई और महिला उस मेज पर नहीं थी।
नहीं-नहीं, वह युवती कोई और है, पूर्णतया पाश्चात्य रंग में रँगी। यह कांचना हो ही नहीं सकती। अत्यंत संस्कारी, दबे-ढके रजवाड़े उद्योपति की कन्या, जो दुपट्टा भी ऐसे ओढ़ती कि सम्पूर्ण तन ढका रहे। काली नागिन-सी बलखाती वेणियाँ, शरमीली सी हँसी, गदबदा शरीर और भक्क गोरा रंग—यही थी कांचना की पहचान। परंतु यहाँ तो कानों तक कटे-छँटे केश, छरहरा तन और हलकी सी पीत आभा लिये गोरा रंग, शरमीली सी हँसी अब उन्मुक्त ठहाकों में परिवर्तित हो गई थी। हाँ, काले-कजरारे बड़े-बड़े नेत्र उतने ही आकर्षक और पनीले हैं। क्या कांचना आपादमस्तक बदल गई अथवा वह उससे मिलती सूरत की कोई युवती है।
परंतु उसका कविता को यूँ घूरना, क्या वह भी कविता को पहचानना चाहती है !
पार्टी की समाप्त पर जब घर आई तो देर रात्रि तक उस युवती के विषय में ही सोचती रही।
व्यस्त दिनचर्या में शनैः-शनैः वह उस युवती को भी भूल चली और घर-परिवार जब कुछ व्यवस्थित हुआ तो अपनी अभिरुचि की वस्तुएँ निकालनी आरंभ कीं।
ईजल स्टैंड निकलवा उसे बॉलकनी में रखवा दिया। उस बॉलकनी से क्युरपिप की पहाड़ियों का दृश्य बहुत मनोरम दिखता था।
रंगों और ब्रशों की छटा बिखेर उसने अति सुंदर पर्वत, नदी, समुद्र और वृक्षों का दृश्य उपस्थित कर दिया।
और सहसा ही एक वृक्ष के तने की ओर झाँकती जिस नारी-मूर्ति की तसवीर उसके हाथों से बन गई, वह हू-ब-हू कांचना की ही तस्वीर थी। वैसे भी कविता पोट्रेट बनाने में महारत हासिल कर चुकी थी और वह खूबसूरत दृश्य मॉरीशस द्वीप के प्राकृतिक सौंदर्य की प्रेरणा से ही बना था; किंतु कांचना की तसवीर और वह भी कुछ उदास, उदास सा सौंदर्य, वह स्वयं नहीं समझ पाई कि कांचना जैसी जीवंत सखी के मुखड़े पर यह उदासी की झलक कैसे चित्रित हो गई ! वह पूर्ण मनोयोग से अपनी कलाकृति को अंतिम रूप दे रही थी की घंटी की मधुर ध्वनि ने उसकी तंद्रा भंग की।
दरवाजा खोला तो देखा—एक श्यामल वर्ण की छरहरी, लंबी, कंधे तक कटे बालोंवाली साधारण रंग-रूप की हँसमुख महिला सम्मुख खड़ी है।
‘‘नमस्कार ! मैं मिसेज इंदु राजकुमार हूँ। आपके ठीक सामनेवाला बँगला मेरा ही है। आप नई-नई आई हैं तो आपसे भेंट करने की अदम्य इच्छा मैं रोक न सकी। वैसे भी इस छोटी सी पहाड़ी पर गिने-चुने पाँच ही तो बँगले हैं। दो में तो वृद्ध फ्रेंच दंपती रहते हैं और एक में मलेशियन एंबेसडर। बहुत एकाकीपन का अनुभव करती थी मैं, किंतु जब से सुना कि इस बँगले में भारतीय दूतावास के डिप्टी हाई कमिश्नर रहने आ रहे हैं, तो खुशी से झूम उठी।
भीतर एक ही साँस में उसकी परिष्कृत हिंदी के संवाद सुन चकित रह गई।
‘‘क्या आप यहीं की हैं ?’’ कविता ने इंदु को सोफे पर बैठाते हुए पूछा।
‘‘जी हाँ, अब तो यहीं की हूँ। वैसे अभी बनारस की हूँ, यहाँ ब्याहकर आ गई हूँ।’’ इंदु हँसते हुए बोली।
‘‘इतनी दूर !’’ चकित नेत्रों से कविता ने पूछा।
‘‘जी हाँ, मैं हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत थी। वहीं मेरे पतिदेव भी पढ़ने आए हुए थे। परिचय प्रेम में परिवर्तित हुआ और मैं ब्याहकर यहाँ आ गई।’’
इंदु की मनमोहिनी हँसी उसके साधारण चेहरे को भी असाधारण बना रही थी। काले-कजरारे, बड़े-बड़े नेत्रों में सम्मोहन-सा था।
ड्राइंगरूम के दरवाजे से ही इंदु की दृष्टि उसकी पेंटिंग पर पड़ी।
‘‘बहुत अच्छी चित्रकार हैं आप तो !’’ और फिर गौर से पेंटिंग के निकट जाकर देखने लगी।
‘‘सच में, आपने यह गिरी-गिरी बीच का कितना सुंदर चित्रण किया है ! और वह युवती भी कितनी सजीव बनाई गई है। लगता है, यह चेहरा भी आपने कहीं देखा है, क्योंकि इस सूरत की एक युवती हमारे द्वीप में भी है।
‘‘नहीं-नहीं, यह तो यूँ ही बन गई थी। अनजाने में ही किसी का चित्र बना बैठी हूँ।’’
‘‘हाँ, आपकी तस्वीर की नायिका यहाँ की एक चर्चित महिला से काफी मिलती है।’’
कविता चौंक उठी।
‘‘कौन है वह ?’’
‘‘आप अभी नई-नई आई हैं। कुछ दिनों में स्वयं ही जान जाएँगी। एक संभ्रांत कुल की उद्योगति महिला हैं। भारतीय हैं, वैसे तो विवाहित ही हैं, पर अकेले रहती हैं।’’ इंदु ने रहस्य भरी मुसकान से कहा।
कॉफी का प्याला गटक तथा अपने घर आने का निमंत्रण देकर वह महिला तो चली गई, किंतु कविता की उत्सुकता बढ़ गई।
कविता समझ गई कि यह कांचना तक पहुँचने की सीढ़ी बन सकती है।
कुछ दिन यूँ ही गुजर गए।
कविता का सामाजिक दायरा बढ़ता जा रहा था। लिहाजा, कांचना उसके मस्तिष्क से उतर गई। किन्तु फिर एक दिन विद्युत-सी कौंध दिखा कांचना कविता को विचलित कर गई।
हुआ यूँ कि राज-दूतावास में गणतंत्र दिवस के उपलक्ष में पार्टी थी। किसी कार्यवश हाई कमिश्नर सपत्नी साहब विदेश गए थे। मेजबानी निभाने का दायित्व कविता एवं उसके पति पर ही था।
द्वार पर खड़ी कविता अतिथियों की अगवानी कर रही थी कि देखा, एक विदेशी पुरुष के पार्श्व में कांचना-सी दिखती वह युवती काले रंग के पश्चिमी परिधान में सज्जित उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर देकर निर्लिप्त सी आगे बढ़ गई; किंतु दो पल ठिठकी अवश्य।
कविता असहज हो उठी और भीड़ में उसे खोजने का प्रयत्न करने लगी; किंतु अतिथियों की भीड़ में वह नहीं जान पाई कि वह कब चली गई।
कविता कांचना की इस आँख-मिचौनी और अटपटे व्यवहार से त्रस्त हो गई थी, अतः उसने इस रहस्यात्मक आवरण से यवनिका उठाना आवश्यक समझा और वह अपनी प्रतिवेशिनी इंदु के द्वार पर पहुँच गई।
इंदु का विशाल गृह साज-सज्जा से परिपूर्ण था। बाग में खिलते पुष्प, जंजीर से बँधे एल्सेशियन और दो प्यारे-प्यारे बेटा-बेटी। चार-चार नौकरानियाँ, बड़े से पिंजरे में ‘काकातुआ’, छोटे से मखमली गद्दे पर विराजती काली पर्शियन बिल्ली, जो उसे देख गोल-गोल आँखों को घुमा गुर्राने लगी।
नौकरानी ने ससम्मान उसे भीतर बैठाया। कुछ ही पल में हँसती इंदु अंदर आई। उसकी अभ्यर्थना में प्रसन्नता से दोहरी हुई जा रही थी; किंतु चेहरे से कुछ कमजोर, नेत्रों और काले घेरे एवं होंठों पर फीकी मुस्कान थी।
‘‘आइए, आइए, आज तो हमारे अहोभाग्य ! आपने हमारे घर को पवित्र किया।’’
‘‘अरे, अरे क्या कह रही हैं ! आना तो बहुत समय से चाह रही थी, किंतु अवकाश ही नहीं मिला। आप भी तो नहीं दिखीं, अस्वस्थ थीं क्या ?’’ कविता ने इंदु को गौर से देखते हुए कहा।
‘‘हाँ आ-आ, कुछ ऐसा ही है।’’ इंदु के नेत्र पनीले हो उठे। थोड़ा मौन रहकर इंदु बोली, ‘‘दरअसल, कभी-कभी बहुत अकेलापन लगता है। डिप्रेशन हो जाता है, कोई पीहर का है भी तो नहीं। फिर यहाँ की आबोहवा भी माफिक नहीं—दमा भी हो जाता है।’’
‘‘खैर, छोड़िए, क्या पिएँगी ? मेरे हाथ की कॉफी बड़ी स्वादिष्ट होती है।’’ वह हास्य से उत्साहित होते हुए बोली।
किंतु, हास्य की परतों में छिपा हुआ रुदन कविता को स्पष्ट दिख रहा था।
कॉफी के साथ चीज-पकौड़े तथा घर के बने बेसन के लड्डू भी आए तो इंदु थोड़ा सहज हुई।
‘‘बात दरअसल यह है, कविताजी, कि बच्चे बड़े हो रहे हैं। अपने में व्यस्त हैं। पतिदेव अपने कारोबार के सिलसिले में यहाँ-वहाँ घूमते रहते हैं। बच्चे छोटे थे तो मैं भी संग जाती थी। समय के साथ-साथ इनके बिजनेस का विस्तार हुआ तो विदेशों के दौर भी प्रायः बढ़ने लगे। परिणामस्वरूप न तो यह मुझे साथ ले जाने का आग्रह करते हैं और न मैं घर-गृहस्थी छोड़कर जा पाती हूँ।’’
‘‘हाँ, यह तो है, बच्चों के लालन-पोषण का यही तो समय है जब हम उन्हें मार्गदर्शन दे सकते हैं।’’
कविता के इतना कहते ही इंदु खिलखिलाकर हँस पड़ी—
‘‘आजकल के बच्चे बड़ों के कान काटते हैं, कविताजी, यह तो हमें ही मार्गदर्शन दिखा दें। वैसे मैं तो आपसे यही आग्रह कर रही हूँ कि भाई साहब से कहकर एंबैसी में मेरी नौकरी लगवा दें, क्योंकि इससे एक तो मेरा समय व्यतीत होगा और दूसरा कुछ अर्थोपार्जन भी होगा।’’
‘‘ठीक है, यदि कुछ संभावना होगी तो आपका कार्य अवश्य ही होगा।’’
धीरे-धीरे कविता एवं इंदु की मित्रता गहरी हो गई। इंदु के पति एवं कविता में औपचारिक मित्रता हो गई। बच्चे समवयस्क थे, अतः परस्पर मेल-जोल बढ़ा तो अंतरंग बात-व्यवहार भी बढ़ा।
इंदु से ही उसे ज्ञात हुआ कि अनेक भारतीय युवतियाँ स्वेच्छा से अथवा रीति-रिवाज से तथा कभी-कभी छल-बल से भी ब्याहकर यहाँ आई हैं। कुछ तो उच्च स्तर पाकर सुखी हैं, किंतु अनेक की दशा ठीक नहीं है। यहाँ के और भारत के रहन-सहन में बहुत अंतर है। भारतीय होते हुए, हिंदू होते हुए भी कहीं-न-कहीं ये लोग फ्रांसीसी सभ्यता के दीवाने हैं। हो सकता है कि जिस परिस्थिति में इनके पूर्वज ढाई सौ वर्ष पूर्व आए तो कहीं-न-कहीं हीन भावना घर कर गई हो।
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