ऐतिहासिक >> छत्रपति छत्रपतिमनु शर्मा
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छत्रपति शिवाजी के जीवन की रोचक, रोमांचक व प्रेरणादायी घटनाओं का विश्लेषणपरक एवं प्रामाणिक विवेचन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इतिहास घटनाओं और परिस्थियों की याद दिलाता है, जिसमें जीवन का सत्य रहस्य
में छिपा रहता है। इतिहास की परिधि ‘क्यों’ और कब
के भीतर ही समाप्त हो जाती है, वह ‘कैसे’ पर बहुत कम
विचार करता है। यह विचार साहित्य की सीमा के भीतर ही होता है। इतिहास जीवन
से अधिक घटनाओं के विषय में जागरूक रहता है और साहित्य घटनाओं से अधिक
जीवन के विषय में। आमंत्रण पर शिवाजी अफजल खाँ से मिले। खाँ ने धोखा देकर
शिवाजी पर वार किया; किंतु वे पहले से तैयार थे। उन्होंने उसका सामना किया
और उसे मार भगाया। बस, इतिहास का उद्देश्य इतने से समाप्त हो गया। किंतु
मिलते समय शिवाजी में कैसा अंतर्द्वंद्व था, अफजल खाँ क्या सोच रहा था,
पूरी मराठा सेना रहस्यमय भविष्य की ओर किस प्रकार एकटक निहार रही थी- यह
बताना इतिहास के दायरे के बाहर की चीज है। किंतु जीवन-चरित्र में दोनों
चाहिए। इतिहास सत्य के बाह्म पक्ष की ओर जहाँ सकेंत करता है वहाँ कल्पना
उसके आंतरिक सत्य का दर्शन कराती है। इसी के सत्य को सजीव बनाने के लिए,
उसका जीवंत चित्र खींचने के लिए कल्पना के पुट की भी आवश्यकता पड़ती है;
किंतु यह कल्पना परियों के देश की नहीं होती जो आदमी को सोने की चिड़िया
बना देती है, वरन् इतिहास में वर्णित हाड़-मांस के आदमी में प्राण फूँककर
पाठकों के सामने चलता-फिरता, हँसता-बोलता मनुष्य तक ही सीमित रखती है। इस
उपन्यास में भी शिवाजी को पाठकों के समक्ष ऐसा ही उपस्थिति करने का प्रयास
है।
शिवाजी का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब संपूर्ण भारत पर मुगलों का एकच्छत्र शासन था। औरंगजेब के अत्याचारों से भारतीय जन-मानस त्राहि-त्राहि कर रहा था। ऐसी विकट परिस्थियों में भी शिवाजी ने अपने पराक्रम, युद्ध-कौशल एवं बुद्धि-चातुर्य से मुगलों को नाकों चने चबवाए और हिंदुत्व एवं हिंदू का परचम लहराया।
इसमें शिवाजी के जीवन की रोचक, रोमांचक व प्रेरणादायी घटनाओं का विश्लेषणपरक, ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक विवेचन किया गया है।
शिवाजी का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब संपूर्ण भारत पर मुगलों का एकच्छत्र शासन था। औरंगजेब के अत्याचारों से भारतीय जन-मानस त्राहि-त्राहि कर रहा था। ऐसी विकट परिस्थियों में भी शिवाजी ने अपने पराक्रम, युद्ध-कौशल एवं बुद्धि-चातुर्य से मुगलों को नाकों चने चबवाए और हिंदुत्व एवं हिंदू का परचम लहराया।
इसमें शिवाजी के जीवन की रोचक, रोमांचक व प्रेरणादायी घटनाओं का विश्लेषणपरक, ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक विवेचन किया गया है।
पुरोवाक्
कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि की भाँति जीवन-चरित्र भी साहित्य का एक
अंग है। ‘जो महान् चरित्र एवं पराक्रम के कारण अपने देशवासियों
में स्वयं ख्याति प्राप्त कर लेते हैं, उनकी स्मृति के सम्मान की नैसर्गिक
इच्छा ‘साहित्य के इस अंग के सर्जन का प्रेरक तत्त्व है। ऐसे ही
सम्मान की पुनीत भावना ‘शिवानी का आशीर्वाद’ के
निर्माण के मूल में भी है, जो इस पुस्तक को इतिहास के कोरे तथ्यों एवं
घटनाओं की शुष्क तालिकाओं तक ही सीमित न रखकर, उस युग के समाज और जनजीवन
तक पहुँचा देती है।
‘साहित्य का ऐसा अंग, जो किसी के व्यक्तिगत जीवन का इतिहास हो’, जीवन-चरित्र कहलाता है। अतएव ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ उसमें साहित्य के तत्त्वों का भी समावेश अपेक्षित है। इतिहास के अभाव में जीवन-चरित्र प्राणहीन है, और साहित्य के अभाव में वह कोरी घटनाओं की तालिका मात्र रह जाता है। एक प्राण है तो दूसरा तन एक सुमन की सुरभि है, तो दूसरा उसका रूप-आकर्षण। दोनों के सामंजस्य पर ही इस कला का सौंदर्य है।
इतिहास घटनाओं और परिस्थियों की याद दिलाता है, जिसमें जीवन का सत्य रहस्य में छिपा रहता है। कल्पना की सुकुमार अँगुलियाँ परिस्थिति के गर्भ में छिपे सत्य पर से रहस्य का अवगुंठन हटाती हैं। इतिहास की परिधि ‘क्यों’ और ‘कब’ के भीतर ही समाप्त हो जाती है। वह ‘कैसे’ पर बहुत कम विचार करता है। यह विचार साहित्य की सीमा के भीतर ही होता है। इतिहास जीवन से अधिक घटनाओं के विषय में जागरूक रहता है और साहित्य घटनाओं से अधिक जीवन के विषय में। निमंत्रण पर शिवाजी अफ़ज़ल ख़ाँ से मिले। ख़ाँ ने धोखा देकर शिवाजी पर वार किया, किंतु वे पहले से तैयार थे। उन्होंने उसका सामना किया और उसे मार भगाया। बस, इतिहास का उद्देश्य इतने से समाप्त हो गया। किंतु मिलते समय शिवाजी में कैसा अंतर्द्वंद्व था, अफ़ज़ल क्या सोच रहा था, पूरी मराठी सेना रहस्यमय भविष्य की ओर किस प्रकार एकटक निहार रही थी, यह बताना इतिहास के दायरे के बाहर की चीज है, किंतु जीवन-चरित्र में दोनों चाहिए। इतिहास सत्य के बाह्य पक्ष की ओर जहाँ संकेत करता है वहाँ कल्पना उसके आंतरिक सत्य का दर्शन कराती है। इसी से सत्य को सजीव बनाने के लिए, उसका जीवंत चित्र खींचने के लिए कल्पना के पुट की भी आवश्यकता पड़ती है; किंतु यह कल्पना परियों के देश की नहीं होती, जो आदमी को सोने की चिड़िया बना देती है, वरन् इतिहास में वर्णित हाड़-मांस के आदमी में प्राण फूँककर पाठकों के सामने चलता-फिरता, हँसता-बोलता मनुष्य तक ही सीमित रखती है। मेरा प्रयास भी शिवाजी को आपके समक्ष ऐसा ही उपस्थित करने का है।
जब जीवन-चरित्र लेखन की कला में इतिहास के साथ कल्पना का पुट आवश्यक है, तो क्या जीवन-चरित्र ऐतिहासिक उपन्यास से भिन्न नहीं ? नहीं, भिन्न है। इसमें न तो ऐतिहासिक उपन्यासों की भाँति सुगठित कथानक की योजना ही होती है और न आदि से अंत तक कल्पना की प्रौढ़ परंपरा ही चलती है। ऐतिहासिक उपन्यासों में कल्पना से परिवेष्ठित सत्य होता है और जीवन-चरित्र में सत्य से परिवेष्ठित कल्पना।
कल्पना के अभाव में जीवन-चरित्र नीरस हो जाता है। प्रेमचंदजी के ‘दुर्गादास’ को छोड़कर यह कमी हिंदी के प्रायः सभी जीवन-चरित्रों में अब तक खटकती रही है। यही कारण है कि हिंदी में जीवन-चरित्रों को पढ़ते समय ऐसा अनुभव होता है, मानो चरित्र-निर्माण के लिए कोई कड़ुवा घूँट पिलाया जा रहा हो, किंतु कल्पना की अधिकता भी बहुत घातक है। जहाँ कल्पना अधिक हुई, जीवन-चरित्र दो कौड़ी के उपन्यास से अधिक नहीं रहता। रहस्य के उद्घाटन तथा सत्य के प्रदर्शन के साथ-ही-साथ पाठकों को मधुर घूँट-सा रस मिले, इसीलिए इस पुस्तक में मैंने कल्पना की सहायता ली है। घटनाएँ सब सत्य हैं, संवाद काल्पनिक हैं।
जीवन-चरित्र लेखन की कला का आरंभ संसार में सभी जगह संत-चरित्र (Hagiography) के लेखन से होता है। इसके बाद राजाओं के चरित्रों का नंबर आता है राजाओं का जीवन-चरित्र तो बराबर काल के कराल गाल में समाता रहा है। कुछ जो अधिक जनप्रिय थे, उनकी कथा समय की प्रौढ़ दीवारों को गिराकर आज भी दिखाई पड़ जाती है। किंतु संत-चरित्र अब तक किसी-न-किसी रूप में जीवित है। संत-चरित्र लेखन की कला में केवल ‘गुरु की महिमा’ को ही स्थान मिलता रहा है। उनके दोषों का वर्णन करना तो दूर रहा, उनकी कल्पना करना भी पाप माना गया। इससे इन चरित्रों में सदा जीवन के उज्ज्वल पक्ष ही दिखाई दिए, श्याम पक्ष आ न सका। संत-चरित्र का यह दोष जीवन-चरित्रों में भी दिखाई पड़ जाता है। लेखक जिसकी जीवनी लिखता है, उसके सम्मान तथा महत्ता की रक्षा करने में अपनी सारी शक्ति लगा देता है, जिससे उनके दोषों का कहीं भी उद्घाटन नहीं होता। मनुष्य भी दूध का धोया देवता मालूम पड़ने लगता है। वस्तुतः यह प्रवृत्ति इस कला के लिए घातक है। इस पुस्तक में मैंने किसी भी सत्य को छिपाने की चेष्टा नहीं की है। शिवाजी को देवता या दानव बनाना, न तो मेरा प्रयोजन था और न इस कला का उद्देश्य।
‘साहित्य का ऐसा अंग, जो किसी के व्यक्तिगत जीवन का इतिहास हो’, जीवन-चरित्र कहलाता है। अतएव ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ उसमें साहित्य के तत्त्वों का भी समावेश अपेक्षित है। इतिहास के अभाव में जीवन-चरित्र प्राणहीन है, और साहित्य के अभाव में वह कोरी घटनाओं की तालिका मात्र रह जाता है। एक प्राण है तो दूसरा तन एक सुमन की सुरभि है, तो दूसरा उसका रूप-आकर्षण। दोनों के सामंजस्य पर ही इस कला का सौंदर्य है।
इतिहास घटनाओं और परिस्थियों की याद दिलाता है, जिसमें जीवन का सत्य रहस्य में छिपा रहता है। कल्पना की सुकुमार अँगुलियाँ परिस्थिति के गर्भ में छिपे सत्य पर से रहस्य का अवगुंठन हटाती हैं। इतिहास की परिधि ‘क्यों’ और ‘कब’ के भीतर ही समाप्त हो जाती है। वह ‘कैसे’ पर बहुत कम विचार करता है। यह विचार साहित्य की सीमा के भीतर ही होता है। इतिहास जीवन से अधिक घटनाओं के विषय में जागरूक रहता है और साहित्य घटनाओं से अधिक जीवन के विषय में। निमंत्रण पर शिवाजी अफ़ज़ल ख़ाँ से मिले। ख़ाँ ने धोखा देकर शिवाजी पर वार किया, किंतु वे पहले से तैयार थे। उन्होंने उसका सामना किया और उसे मार भगाया। बस, इतिहास का उद्देश्य इतने से समाप्त हो गया। किंतु मिलते समय शिवाजी में कैसा अंतर्द्वंद्व था, अफ़ज़ल क्या सोच रहा था, पूरी मराठी सेना रहस्यमय भविष्य की ओर किस प्रकार एकटक निहार रही थी, यह बताना इतिहास के दायरे के बाहर की चीज है, किंतु जीवन-चरित्र में दोनों चाहिए। इतिहास सत्य के बाह्य पक्ष की ओर जहाँ संकेत करता है वहाँ कल्पना उसके आंतरिक सत्य का दर्शन कराती है। इसी से सत्य को सजीव बनाने के लिए, उसका जीवंत चित्र खींचने के लिए कल्पना के पुट की भी आवश्यकता पड़ती है; किंतु यह कल्पना परियों के देश की नहीं होती, जो आदमी को सोने की चिड़िया बना देती है, वरन् इतिहास में वर्णित हाड़-मांस के आदमी में प्राण फूँककर पाठकों के सामने चलता-फिरता, हँसता-बोलता मनुष्य तक ही सीमित रखती है। मेरा प्रयास भी शिवाजी को आपके समक्ष ऐसा ही उपस्थित करने का है।
जब जीवन-चरित्र लेखन की कला में इतिहास के साथ कल्पना का पुट आवश्यक है, तो क्या जीवन-चरित्र ऐतिहासिक उपन्यास से भिन्न नहीं ? नहीं, भिन्न है। इसमें न तो ऐतिहासिक उपन्यासों की भाँति सुगठित कथानक की योजना ही होती है और न आदि से अंत तक कल्पना की प्रौढ़ परंपरा ही चलती है। ऐतिहासिक उपन्यासों में कल्पना से परिवेष्ठित सत्य होता है और जीवन-चरित्र में सत्य से परिवेष्ठित कल्पना।
कल्पना के अभाव में जीवन-चरित्र नीरस हो जाता है। प्रेमचंदजी के ‘दुर्गादास’ को छोड़कर यह कमी हिंदी के प्रायः सभी जीवन-चरित्रों में अब तक खटकती रही है। यही कारण है कि हिंदी में जीवन-चरित्रों को पढ़ते समय ऐसा अनुभव होता है, मानो चरित्र-निर्माण के लिए कोई कड़ुवा घूँट पिलाया जा रहा हो, किंतु कल्पना की अधिकता भी बहुत घातक है। जहाँ कल्पना अधिक हुई, जीवन-चरित्र दो कौड़ी के उपन्यास से अधिक नहीं रहता। रहस्य के उद्घाटन तथा सत्य के प्रदर्शन के साथ-ही-साथ पाठकों को मधुर घूँट-सा रस मिले, इसीलिए इस पुस्तक में मैंने कल्पना की सहायता ली है। घटनाएँ सब सत्य हैं, संवाद काल्पनिक हैं।
जीवन-चरित्र लेखन की कला का आरंभ संसार में सभी जगह संत-चरित्र (Hagiography) के लेखन से होता है। इसके बाद राजाओं के चरित्रों का नंबर आता है राजाओं का जीवन-चरित्र तो बराबर काल के कराल गाल में समाता रहा है। कुछ जो अधिक जनप्रिय थे, उनकी कथा समय की प्रौढ़ दीवारों को गिराकर आज भी दिखाई पड़ जाती है। किंतु संत-चरित्र अब तक किसी-न-किसी रूप में जीवित है। संत-चरित्र लेखन की कला में केवल ‘गुरु की महिमा’ को ही स्थान मिलता रहा है। उनके दोषों का वर्णन करना तो दूर रहा, उनकी कल्पना करना भी पाप माना गया। इससे इन चरित्रों में सदा जीवन के उज्ज्वल पक्ष ही दिखाई दिए, श्याम पक्ष आ न सका। संत-चरित्र का यह दोष जीवन-चरित्रों में भी दिखाई पड़ जाता है। लेखक जिसकी जीवनी लिखता है, उसके सम्मान तथा महत्ता की रक्षा करने में अपनी सारी शक्ति लगा देता है, जिससे उनके दोषों का कहीं भी उद्घाटन नहीं होता। मनुष्य भी दूध का धोया देवता मालूम पड़ने लगता है। वस्तुतः यह प्रवृत्ति इस कला के लिए घातक है। इस पुस्तक में मैंने किसी भी सत्य को छिपाने की चेष्टा नहीं की है। शिवाजी को देवता या दानव बनाना, न तो मेरा प्रयोजन था और न इस कला का उद्देश्य।
-मनु शर्मा
यह रंगीन मौसम की एक रंगीन कहानी है।
होली सिर पर सवार थी। रंगपंचमी का उत्सव था। पिचकारी के रंगीन पानी की फुहार, अबीर-गुलाल की बहार और आपसी प्यार के इस ग़ज़ब के त्योहार में लोग जैसे अपने को भूल से गए थे। लखूजी यादवराज भी आज मस्ती में थे। उनके यहाँ तो पूरा दरबार ही लगा था। नाच-गाना हो रहा था। मौज से सराबोर वातावरण था। हँसी-ख़ुशी की बातें थीं। कभी-कभी ज़ोर के ठहाके से पूरा महल गूँज उठता था।
मालोजी भोंसले तथा उनके छोटे भाई विठोजी भी यहाँ आए थे। ये यादवराव के विश्वासपात्र कर्मचारी हैं। स्वामी के उत्सव में उनका आना तो ज़रूरी है ही, और फिर मालोजी से यादवराव बड़े प्रसन्न रहते हैं। उनके पराक्रम की प्रशंसा करते वह शीघ्र नहीं अघाते। अपने घर-सा उन्हें समझते हैं। मालोजी का एक छोटा पुत्र है-शाहजी, जिसकी अवस्था क़रीब पाँच-छह साल की होगी।* इसे तो वे अपना बालक ही समझते हैं। वह जब आता, यादवराव के पास ही रहता और नहीं तो अंतःपुर की दासियों के साथ खेलता। महारानी भी इसे ख़ूब चाहती थीं। कमर में छोटी सी तलवार बाँधे उछलते-कूदते इस बालक पर महाराज लट्टू हो जाते बहुधा वह महारानी से कहते-‘‘गिरजा, ईश्वर की यह अनुपम कृति काश मेरे यहाँ होती !’’ महारानी मुसकरा देतीं।
पिता के साथ आज वह भी आया है। सुंदर वेशभूषा में नाटा-सा, ठिगना, प्रभावशाली बालक उस जन-समूह के बीच जैसे खिलौना हो गया है।
यादवराव ने उसे प्यार से अपनी ओर खींचा और गोद में बिठा लिया। स्नेह से चूमते हुए उन्होंने उससे कहा, ‘‘देख तो, वह कौन आई ?’’ उसने मुसकराते हुए
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• ग्रांट डफ, यदुनाथ सरकार आदि अनेक लेखकों ने शाहजी की अवस्था पाँच साल मानी है, किंतु ‘शिवादिग्विजय’ में शाहजी की अवस्था 9-10 वर्ष लिखी है।
देखा। तब तक जीजाबाई हाथ में अबीर लिये उसपर झपट चुकी थीं। उसने अपने साथी शाहजी के मुँह पर ख़ूब अबीर लगाई। किंतु शाह भी रोनेवाला नहीं था। वह भी अपनी मुट्ठी भरकर उठा। उसने जीजाबाई के मुँह पर अच्छी तरह अबीर लगाई और अपना बदला ले लिया। सभी हँस पड़े। यादवराव ने दोनों को खींचकर अपनी दोनों जाँघों पर बैठाया और मुसकराते हुए बोले, ‘‘बस बेटे, अब नहीं।’’
शाहजी और जीजाबाई के गालों पर अबीर लगी थी। श्वेत संगमरमर पर उषा उतर आई थी। यादवराव ने दोनों को ममत्व भरी आँखों से एक-एक बार देखा और शाहजी से बोले, ‘‘क्यों बेटा, कैसी दुलहिन है ?’’ शाह हँस पड़ा। अरुण अधरों के बीच श्वेत दाँत दिखाई पड़े। मुसकराते हुए उन्होंने पुनः जीजाबाई से कहा, ‘‘क्यों बेटी, कैसा सुंदर दूल्हा है !’’ वह हँस तो न सकी, पर मुसकराती हुई उठकर भागने लगी। यादवराव ने उसे रोका और ज़ोर से हँसते हुए मालोजी से बोले, ‘‘भगवान् ने मेरी लड़की और तुम्हारे लड़के को भी ख़ूब बनाया है ! एक चाँद का टुकड़ा दूसरा गुलाब का फूल। ईश्वर ने सौंदर्य की इन दोनों मूर्तियों को मिलाया भी कैसा !’’
यादवराव ने यह हँसी में कहा था। कुछ भावावेश में आकर बिना समझे-बूझे वह बोल उठे थे, पर मालोजी को तो मौक़ा मिला। वह झट उठ खड़े हुए। सभी उपस्थिति व्यक्तियों को संबोधित कर कहने लगे-‘‘भाइयो ! आपने सुना, यादवरावजी क्या कह रहे हैं ? वे अब अपनी लड़की का विवाह मेरे लड़के से करने के लिए वचनवद्ध हो चुके हैं। आज से वे हमारे समधी हुए; जीजाबाई मेरे बेटे की बहू हुई।’’ इतना कहकर मालोजी अपने स्थान पर बैठ गए।
बात बात की तरह फैल गई। हँसी-हँसी में एक बड़ी प्रतिज्ञा यादवराव से करा दी गई। तिल का ताड़ हो गया। मालोजी की बात सुनते ही यादवराव की सारी मस्ती कपूर की तरह उड़ गई। उन्हें स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि विनोद में कही गई बात का इतना गंभीर रूप हो जाएगा। वे खिन्न मन से उठे और जीजाबाई को साथ ले अंतःपुर में चले गए। आज शाहजी उनके साथ नहीं गया। थोड़े समय के लिए गंभीरता छा गई। पर सभा के सामूहिक वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। सभा उसी मौज-मस्ती में विसर्जित हुई, पर मालोजी ने सबकुछ समझ लिया।
होली का उत्सव समाप्त हो गया, पर बात समाप्त नहीं हुई। लखूजी यादवराव ने आज अपने मित्रों को भोज देने का आयोजन किया है। घर-घर निमंत्रण बँट रहे हैं। मालोजी भी आमंत्रित हैं, पर वे नहीं आए। उन्होंने कहला भेजा कि जो बातें हुई हैं, उनके अनुसार अब हम और आप एक संबंध-सूत्र में बँध गए हैं। आप हमारे समधी हैं। अच्छा होता, विवाह के अवसर पर ही साथ बैठकर हम भोजन करते। परंपरा के अनुसार आपका हमें या हमारा आपको निमंत्रण देना अब अच्छा नहीं लगता।
भोज समाप्त हुआ। मालोजी नहीं आए। लोगों के लिए आज उनका तथा विठोजी का अभाव एक नई बात थी, किंतु उनके न आने का कारण किसी ने नहीं पूछा। सभी बाढ़ के पानी को थहा रहे थे। बात तो पुरानी थी, पर सोचना नए ढंग से था। लोगों के चले जाने के बाद यादवराव ने सोचा, इसकी चर्चा गिरजाबाई से भी कर देनी चाहिए। गिरजाबाई यादवराव की पत्नी थीं। वीरांगना, तीव्र बुद्धिमती रमणी थीं। वे उन्हें अत्यधिक मानते भी थे। इतना होने पर भी उनके कानों तक यह बात पहुँची नहीं थी। अचानक अपनी पुत्री के विवाह की बात सुनकर गिरजाबाई बिगड़ उठीं। उन्होंने कहा, ‘‘शाहजी, मालोजी का पुत्र ! और कहाँ मेरी पुत्री ! मालोजी आपके अधीन हैं। आपके अनुसार चलने में ही उनकी भलाई है। धन, मान प्रतिष्ठा आदि किसी में भी वह आपके बराबर नहीं। छोटे से पत्थर की हिमालय से क्या तुलना ? यह संबंध मुझे कदापि स्वीकार नहीं है। साधारण घुड़सवार के लड़के को मैं अपना दामाद कभी भी नहीं बना सकती।’’ कहते-कहते उनकी आँखें लाल हो गई थीं। अधर क्रोध से काँप रहे थे।
गिरजाबाई की बात सुनकर यादवराव बड़े ही लज्जित हुए। ऐसी भयंकर परिस्थिति को वे पहले ही समझ गए थे। उन्होंने बड़े साधारण ढंग से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, तू तो व्यर्थ ही लाल-पीली हो रही है। मैंने तो यह सब मज़ाक़ में कहा था। भला मैं कब अपने ख़ानदान की इज्ज़त डुबोना चाहूँगा ?’’
‘‘लेकिन जब मालोजी ने भरी सभा में विवाह की घोषणा की तब तो आपकी ज़बान पर दही जमा था ?’’ गिरजाबाई के इस तीखे तर्क में बड़ा दम था। यादवरावजी कुछ समय के लिए बिलकुल चुप हो गए। बाद में सँभलते हुए बोले, ‘‘गिरजा, तू तो अपनी भी बात कहती है। ज़रा सोच तो, मैं एक प्रसिद्ध प्रभावशाली मनसबदार हूँ। मालोजी मेरा नौकर है। सभा में तू-तू, मैं-मैं करना, उसके मुँह लगना क्या अच्छी बात थी ? मेरा शिष्टाचार मुझे विविश कर रहा था कि मैं आपकी बात को हँसकर टाल दूँ।’’ यादवराव के चुप होते ही गिरजा बोली, ‘‘आप यह क्यों नहीं कहते कि हमारे शिष्टाचार ने एक धनाढ्य मनसबदार की पुत्री से एक घुड़सवार के पुत्र की शादी की स्वीकृति हँसकर प्रदान करा दी।’’ व्यंग्य बड़ा तीखा था। बड़ी विचित्र मुद्रा में कहा गया था।
‘‘कुत्ते की दुम सीधी हो सकती है, पर औरत का दिमाग़ सीधा नहीं हो सकता....’’ कहते हुए यादवराव कमरे से बाहर निकल आए। बात बढ़ाना उन्होंने ठीक नहीं समझा था। उनकी मुद्रा गंभीर थी, वे मन में बहुत कुछ सोच रहे थे। यह फड़कते हुए होंठों से मालूम हो रहा था; किंतु वे क्या सोच रहे थे, पता नहीं। हाँ, आँखें बता रही थीं कि घृणा तथा क्रोध के मिश्रण ने उनके मस्तिष्क में आग लगा दी है। शीघ्र ही उन्होंने मालोजी को लिख भेजा कि ‘‘मैंने जो कुछ कहा था वह हँसी-दिल्लगी में कहा था। हँसी की बात को सत्य समझना ठीक नहीं। हमारी-तुम्हारी कोई समानता नहीं। दुनिया इस संबंध से क्या सोचेगी ? बीती को भुला दो। शीघ्र ही मिलो। मैं तुम्हें पुनः आमंत्रित करता हूँ।’’
किंतु, मालोजी कब माननेवाले थे ! उन्हें तो अवसर से लाभ उठाने की धुन सवार थी। उन्होंने सम्मान का अनुभव करते हुए उत्तर लिखा, जिसका आशय इस प्रकार था-‘‘आदरणीय यादवरावजी, आपने विवाह की प्रतिज्ञा चाहे जिस मनःस्थिति में की हो, किंतु वह भी एक प्रतिज्ञा थी। इतने लोगों के बीच की गई प्रतिज्ञा एक मराठा इतनी सरलता से कभी भी नहीं टालता। अब तो हम आपकी प्रतिज्ञा के ही अनुसार आपके घराने से सगाई करने के अधिकारी हैं।’’
पत्र देखते ही यादवराव जल उठे। ख़ून आँखों में उत्तर आया। उन्होंने सोचा, ‘यह हमारा नौकर, हमारे अन्य पर पलनेवाला ही हमें शिक्षा देता है, मराठा शिष्टाचार सिखाता है। कल तक जब अपने विरुल गाँव में खेती करता था तब तक सारी शिक्षा पेट में रही। आज चला है बात बनाने।’ उन्होंने तत्काल ही कारकुन को बुलाकर कहा कि शीघ्र ही मालोजी तथा विठोजी का जितना हिसाब हो, वह चुका दो और उन्हें शीघ्र सूचना दे दो कि लखूजी यादवराव को आपकी सेवाओं की आवश्यकता नहीं है। आप तत्काल जागीर छोड़कर चले जाइए। यादवरावजी का चेहरा ताँबा हो गया। उनकी रंगों में ख़ून उबाल खा रहा था।
कारकुन ने यह नहीं जाना कि आख़िर बात क्या है ? कल तक तो दोनों भाई बड़े ही प्यारे थे। उन्हें समधी बनाया जा रहा था, फिर आज क्या बात हुई कि वे शत्रु हो गए ? कुछ भी हो, हिसाब जोड़ा गया। वेतन तथा यादवराव की आज्ञा मालोजी तक भेजी गई। यह सबकुछ तत्काल हुआ।
मालोजी वेतन देखते ही घबरा गए। उन्होंने शीघ्र ही पत्र खोला और पढ़ा। कुछ समय के लिए होशहवास गुम हो गया। बाद में कुछ सोच-समझकर मुसकराते हुए बोले-पत्रवाहक सामने खड़ा ही था-‘‘कोई बात नहीं। हम मराठे हैं। सत्य को ठीक समझते हैं। हमने सत्य कहा। यदि इससे यादवरावजी को क्रोध आ गया, तो उनका क्रोध सिर-आँखों पर। हम किसी से डरते नहीं। पुरुषार्थ हमारा साथी है। भाग्य मार्ग-निर्देशक है। भवानी का आशीर्वाद हमारे साथ है। हमें संसार के किसी भी व्यक्ति का भय नहीं।’’ उन्होंने पुनः पत्रवाहक से वैसी ही सम्मानपूर्ण वाणी में कहा, ‘‘अच्छा जाओ, अपने स्वामी से कह देना कि मालोजी ने नमस्कार कहा है, पर मेरा नमस्कार महत्त्व का नमस्कार नहीं है। महत्त्व का नमस्कार तो उस दिन होगा, जब हम यादवराव के समधी बनेंगे। ऐसे अपमान का बदला लिये बिना मालो कभी शांत नहीं होगा।’’
पत्रवाहक उचित अभिवादन कर चला गया। शीघ्रातिशीघ्र दोनों जागीर के बाहर निकल गए। अहमदनगर के गाँव विरुल में पुनः खेती करने लगे। ज़िंदगी पुरानी डगर पर चलने लगी।
माघ पूर्णिमा की सुहावनी रात्रि है। आकाश में चंद्र हँस रहा है। शीत बढ़ चली है। समीर तीर-सी लगती है। वृक्षों से टकराती हवा साँय-साँय कर रही है। ज्वार-बाजरे के खेत झूम रहे हैं। चाँद ने इन खेतों पर दूधिया पोत दी है। लोग खेतों पर पहरा देने आ गए हैं। इस पहाड़ी प्रदेश में फसल कभी अच्छी नहीं होती। पानी ठीक बरसता नहीं। धरती भी अच्छी नहीं है। फसल जब अच्छी हो जाती है, तब ये भेड़िए कलमुँहे उसपर टूट पड़ते हैं और खेत-खेत साफ़ कर जाते हैं। इसी से रात में पहरा देना बड़ा ही आवश्यक होता है।
कृषक अपने-अपने खेतों की रखवाली कर रहे हैं। मालो तथा विठो भी खेत पर आ गए हैं। दूर कहीं से कुछ किसानों के गाने-बजाने की आवाज़ आ रही है। बहुधा लोग खेत में अकेले नहीं आते। कुछ लोगों का साथ रहने से मन बहला रहता है। बातचीत होती है। दिन भर की पंचायत यहीं निपटाई जाती है। नाच-गाना हो हल्ला, मज़ाक इनके मनोरंजन हैं। इस खेत पर मालोजी तथा विठोजी दोनों हैं। यह उन्हीं का खेत हैं। मालोजी तो विश्राम कर रहे हैं। विठोजी खेत के चारों ओर घूमते हुए पहरा दे रहे हैं। हाथ में एक बड़ा डंडा है। बग़ल में तलवार लटक रही है।
इधर विठोजी के पहरा देने का काम चल रहा था, उधर मालोजी करवटें बदलते हुए नींद को आमंत्रण दे रहे थे, किंतु नींद कहाँ ? उनके मस्तिष्क में तो एक विकट संघर्ष चल रहा था। वे सोच रहे थे-‘यादवराव ने मेरा बड़ा अपमान किया। अब मैं अपने मित्रों को भी मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ। आख़िर ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि मेरे पास पैसा नहीं है, क्योंकि मैं जागीरदार नहीं हूँ। पैसा ही इज्ज़त है, पैसा ही सम्मान है, पैसा ही हमारी योग्यता का उचित मापदंड है; तो हमें उसकी ही आराधना करनी चाहिए।’ सोचते-सोचते मालोजी का हाथ बग़ल में बँधी तलवार पर गया, वे पुनः भावसागर में डूब गए-‘...और यह तलवार ? मैं इसकी आराधना करूँ या पैसे की।....नहीं-नहीं मैं पैसे की ओर कभी नहीं जा सकता। तलवार ही मेरा सबकुछ है। यह भवानी का प्रतीक है।...जय माँ, जगज्जननी तू मेरी रक्षा कर।’ मालोजी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे। नींद उनसे दूर खेतों में टहल रही थी।
होली सिर पर सवार थी। रंगपंचमी का उत्सव था। पिचकारी के रंगीन पानी की फुहार, अबीर-गुलाल की बहार और आपसी प्यार के इस ग़ज़ब के त्योहार में लोग जैसे अपने को भूल से गए थे। लखूजी यादवराज भी आज मस्ती में थे। उनके यहाँ तो पूरा दरबार ही लगा था। नाच-गाना हो रहा था। मौज से सराबोर वातावरण था। हँसी-ख़ुशी की बातें थीं। कभी-कभी ज़ोर के ठहाके से पूरा महल गूँज उठता था।
मालोजी भोंसले तथा उनके छोटे भाई विठोजी भी यहाँ आए थे। ये यादवराव के विश्वासपात्र कर्मचारी हैं। स्वामी के उत्सव में उनका आना तो ज़रूरी है ही, और फिर मालोजी से यादवराव बड़े प्रसन्न रहते हैं। उनके पराक्रम की प्रशंसा करते वह शीघ्र नहीं अघाते। अपने घर-सा उन्हें समझते हैं। मालोजी का एक छोटा पुत्र है-शाहजी, जिसकी अवस्था क़रीब पाँच-छह साल की होगी।* इसे तो वे अपना बालक ही समझते हैं। वह जब आता, यादवराव के पास ही रहता और नहीं तो अंतःपुर की दासियों के साथ खेलता। महारानी भी इसे ख़ूब चाहती थीं। कमर में छोटी सी तलवार बाँधे उछलते-कूदते इस बालक पर महाराज लट्टू हो जाते बहुधा वह महारानी से कहते-‘‘गिरजा, ईश्वर की यह अनुपम कृति काश मेरे यहाँ होती !’’ महारानी मुसकरा देतीं।
पिता के साथ आज वह भी आया है। सुंदर वेशभूषा में नाटा-सा, ठिगना, प्रभावशाली बालक उस जन-समूह के बीच जैसे खिलौना हो गया है।
यादवराव ने उसे प्यार से अपनी ओर खींचा और गोद में बिठा लिया। स्नेह से चूमते हुए उन्होंने उससे कहा, ‘‘देख तो, वह कौन आई ?’’ उसने मुसकराते हुए
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• ग्रांट डफ, यदुनाथ सरकार आदि अनेक लेखकों ने शाहजी की अवस्था पाँच साल मानी है, किंतु ‘शिवादिग्विजय’ में शाहजी की अवस्था 9-10 वर्ष लिखी है।
देखा। तब तक जीजाबाई हाथ में अबीर लिये उसपर झपट चुकी थीं। उसने अपने साथी शाहजी के मुँह पर ख़ूब अबीर लगाई। किंतु शाह भी रोनेवाला नहीं था। वह भी अपनी मुट्ठी भरकर उठा। उसने जीजाबाई के मुँह पर अच्छी तरह अबीर लगाई और अपना बदला ले लिया। सभी हँस पड़े। यादवराव ने दोनों को खींचकर अपनी दोनों जाँघों पर बैठाया और मुसकराते हुए बोले, ‘‘बस बेटे, अब नहीं।’’
शाहजी और जीजाबाई के गालों पर अबीर लगी थी। श्वेत संगमरमर पर उषा उतर आई थी। यादवराव ने दोनों को ममत्व भरी आँखों से एक-एक बार देखा और शाहजी से बोले, ‘‘क्यों बेटा, कैसी दुलहिन है ?’’ शाह हँस पड़ा। अरुण अधरों के बीच श्वेत दाँत दिखाई पड़े। मुसकराते हुए उन्होंने पुनः जीजाबाई से कहा, ‘‘क्यों बेटी, कैसा सुंदर दूल्हा है !’’ वह हँस तो न सकी, पर मुसकराती हुई उठकर भागने लगी। यादवराव ने उसे रोका और ज़ोर से हँसते हुए मालोजी से बोले, ‘‘भगवान् ने मेरी लड़की और तुम्हारे लड़के को भी ख़ूब बनाया है ! एक चाँद का टुकड़ा दूसरा गुलाब का फूल। ईश्वर ने सौंदर्य की इन दोनों मूर्तियों को मिलाया भी कैसा !’’
यादवराव ने यह हँसी में कहा था। कुछ भावावेश में आकर बिना समझे-बूझे वह बोल उठे थे, पर मालोजी को तो मौक़ा मिला। वह झट उठ खड़े हुए। सभी उपस्थिति व्यक्तियों को संबोधित कर कहने लगे-‘‘भाइयो ! आपने सुना, यादवरावजी क्या कह रहे हैं ? वे अब अपनी लड़की का विवाह मेरे लड़के से करने के लिए वचनवद्ध हो चुके हैं। आज से वे हमारे समधी हुए; जीजाबाई मेरे बेटे की बहू हुई।’’ इतना कहकर मालोजी अपने स्थान पर बैठ गए।
बात बात की तरह फैल गई। हँसी-हँसी में एक बड़ी प्रतिज्ञा यादवराव से करा दी गई। तिल का ताड़ हो गया। मालोजी की बात सुनते ही यादवराव की सारी मस्ती कपूर की तरह उड़ गई। उन्हें स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि विनोद में कही गई बात का इतना गंभीर रूप हो जाएगा। वे खिन्न मन से उठे और जीजाबाई को साथ ले अंतःपुर में चले गए। आज शाहजी उनके साथ नहीं गया। थोड़े समय के लिए गंभीरता छा गई। पर सभा के सामूहिक वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। सभा उसी मौज-मस्ती में विसर्जित हुई, पर मालोजी ने सबकुछ समझ लिया।
होली का उत्सव समाप्त हो गया, पर बात समाप्त नहीं हुई। लखूजी यादवराव ने आज अपने मित्रों को भोज देने का आयोजन किया है। घर-घर निमंत्रण बँट रहे हैं। मालोजी भी आमंत्रित हैं, पर वे नहीं आए। उन्होंने कहला भेजा कि जो बातें हुई हैं, उनके अनुसार अब हम और आप एक संबंध-सूत्र में बँध गए हैं। आप हमारे समधी हैं। अच्छा होता, विवाह के अवसर पर ही साथ बैठकर हम भोजन करते। परंपरा के अनुसार आपका हमें या हमारा आपको निमंत्रण देना अब अच्छा नहीं लगता।
भोज समाप्त हुआ। मालोजी नहीं आए। लोगों के लिए आज उनका तथा विठोजी का अभाव एक नई बात थी, किंतु उनके न आने का कारण किसी ने नहीं पूछा। सभी बाढ़ के पानी को थहा रहे थे। बात तो पुरानी थी, पर सोचना नए ढंग से था। लोगों के चले जाने के बाद यादवराव ने सोचा, इसकी चर्चा गिरजाबाई से भी कर देनी चाहिए। गिरजाबाई यादवराव की पत्नी थीं। वीरांगना, तीव्र बुद्धिमती रमणी थीं। वे उन्हें अत्यधिक मानते भी थे। इतना होने पर भी उनके कानों तक यह बात पहुँची नहीं थी। अचानक अपनी पुत्री के विवाह की बात सुनकर गिरजाबाई बिगड़ उठीं। उन्होंने कहा, ‘‘शाहजी, मालोजी का पुत्र ! और कहाँ मेरी पुत्री ! मालोजी आपके अधीन हैं। आपके अनुसार चलने में ही उनकी भलाई है। धन, मान प्रतिष्ठा आदि किसी में भी वह आपके बराबर नहीं। छोटे से पत्थर की हिमालय से क्या तुलना ? यह संबंध मुझे कदापि स्वीकार नहीं है। साधारण घुड़सवार के लड़के को मैं अपना दामाद कभी भी नहीं बना सकती।’’ कहते-कहते उनकी आँखें लाल हो गई थीं। अधर क्रोध से काँप रहे थे।
गिरजाबाई की बात सुनकर यादवराव बड़े ही लज्जित हुए। ऐसी भयंकर परिस्थिति को वे पहले ही समझ गए थे। उन्होंने बड़े साधारण ढंग से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, तू तो व्यर्थ ही लाल-पीली हो रही है। मैंने तो यह सब मज़ाक़ में कहा था। भला मैं कब अपने ख़ानदान की इज्ज़त डुबोना चाहूँगा ?’’
‘‘लेकिन जब मालोजी ने भरी सभा में विवाह की घोषणा की तब तो आपकी ज़बान पर दही जमा था ?’’ गिरजाबाई के इस तीखे तर्क में बड़ा दम था। यादवरावजी कुछ समय के लिए बिलकुल चुप हो गए। बाद में सँभलते हुए बोले, ‘‘गिरजा, तू तो अपनी भी बात कहती है। ज़रा सोच तो, मैं एक प्रसिद्ध प्रभावशाली मनसबदार हूँ। मालोजी मेरा नौकर है। सभा में तू-तू, मैं-मैं करना, उसके मुँह लगना क्या अच्छी बात थी ? मेरा शिष्टाचार मुझे विविश कर रहा था कि मैं आपकी बात को हँसकर टाल दूँ।’’ यादवराव के चुप होते ही गिरजा बोली, ‘‘आप यह क्यों नहीं कहते कि हमारे शिष्टाचार ने एक धनाढ्य मनसबदार की पुत्री से एक घुड़सवार के पुत्र की शादी की स्वीकृति हँसकर प्रदान करा दी।’’ व्यंग्य बड़ा तीखा था। बड़ी विचित्र मुद्रा में कहा गया था।
‘‘कुत्ते की दुम सीधी हो सकती है, पर औरत का दिमाग़ सीधा नहीं हो सकता....’’ कहते हुए यादवराव कमरे से बाहर निकल आए। बात बढ़ाना उन्होंने ठीक नहीं समझा था। उनकी मुद्रा गंभीर थी, वे मन में बहुत कुछ सोच रहे थे। यह फड़कते हुए होंठों से मालूम हो रहा था; किंतु वे क्या सोच रहे थे, पता नहीं। हाँ, आँखें बता रही थीं कि घृणा तथा क्रोध के मिश्रण ने उनके मस्तिष्क में आग लगा दी है। शीघ्र ही उन्होंने मालोजी को लिख भेजा कि ‘‘मैंने जो कुछ कहा था वह हँसी-दिल्लगी में कहा था। हँसी की बात को सत्य समझना ठीक नहीं। हमारी-तुम्हारी कोई समानता नहीं। दुनिया इस संबंध से क्या सोचेगी ? बीती को भुला दो। शीघ्र ही मिलो। मैं तुम्हें पुनः आमंत्रित करता हूँ।’’
किंतु, मालोजी कब माननेवाले थे ! उन्हें तो अवसर से लाभ उठाने की धुन सवार थी। उन्होंने सम्मान का अनुभव करते हुए उत्तर लिखा, जिसका आशय इस प्रकार था-‘‘आदरणीय यादवरावजी, आपने विवाह की प्रतिज्ञा चाहे जिस मनःस्थिति में की हो, किंतु वह भी एक प्रतिज्ञा थी। इतने लोगों के बीच की गई प्रतिज्ञा एक मराठा इतनी सरलता से कभी भी नहीं टालता। अब तो हम आपकी प्रतिज्ञा के ही अनुसार आपके घराने से सगाई करने के अधिकारी हैं।’’
पत्र देखते ही यादवराव जल उठे। ख़ून आँखों में उत्तर आया। उन्होंने सोचा, ‘यह हमारा नौकर, हमारे अन्य पर पलनेवाला ही हमें शिक्षा देता है, मराठा शिष्टाचार सिखाता है। कल तक जब अपने विरुल गाँव में खेती करता था तब तक सारी शिक्षा पेट में रही। आज चला है बात बनाने।’ उन्होंने तत्काल ही कारकुन को बुलाकर कहा कि शीघ्र ही मालोजी तथा विठोजी का जितना हिसाब हो, वह चुका दो और उन्हें शीघ्र सूचना दे दो कि लखूजी यादवराव को आपकी सेवाओं की आवश्यकता नहीं है। आप तत्काल जागीर छोड़कर चले जाइए। यादवरावजी का चेहरा ताँबा हो गया। उनकी रंगों में ख़ून उबाल खा रहा था।
कारकुन ने यह नहीं जाना कि आख़िर बात क्या है ? कल तक तो दोनों भाई बड़े ही प्यारे थे। उन्हें समधी बनाया जा रहा था, फिर आज क्या बात हुई कि वे शत्रु हो गए ? कुछ भी हो, हिसाब जोड़ा गया। वेतन तथा यादवराव की आज्ञा मालोजी तक भेजी गई। यह सबकुछ तत्काल हुआ।
मालोजी वेतन देखते ही घबरा गए। उन्होंने शीघ्र ही पत्र खोला और पढ़ा। कुछ समय के लिए होशहवास गुम हो गया। बाद में कुछ सोच-समझकर मुसकराते हुए बोले-पत्रवाहक सामने खड़ा ही था-‘‘कोई बात नहीं। हम मराठे हैं। सत्य को ठीक समझते हैं। हमने सत्य कहा। यदि इससे यादवरावजी को क्रोध आ गया, तो उनका क्रोध सिर-आँखों पर। हम किसी से डरते नहीं। पुरुषार्थ हमारा साथी है। भाग्य मार्ग-निर्देशक है। भवानी का आशीर्वाद हमारे साथ है। हमें संसार के किसी भी व्यक्ति का भय नहीं।’’ उन्होंने पुनः पत्रवाहक से वैसी ही सम्मानपूर्ण वाणी में कहा, ‘‘अच्छा जाओ, अपने स्वामी से कह देना कि मालोजी ने नमस्कार कहा है, पर मेरा नमस्कार महत्त्व का नमस्कार नहीं है। महत्त्व का नमस्कार तो उस दिन होगा, जब हम यादवराव के समधी बनेंगे। ऐसे अपमान का बदला लिये बिना मालो कभी शांत नहीं होगा।’’
पत्रवाहक उचित अभिवादन कर चला गया। शीघ्रातिशीघ्र दोनों जागीर के बाहर निकल गए। अहमदनगर के गाँव विरुल में पुनः खेती करने लगे। ज़िंदगी पुरानी डगर पर चलने लगी।
माघ पूर्णिमा की सुहावनी रात्रि है। आकाश में चंद्र हँस रहा है। शीत बढ़ चली है। समीर तीर-सी लगती है। वृक्षों से टकराती हवा साँय-साँय कर रही है। ज्वार-बाजरे के खेत झूम रहे हैं। चाँद ने इन खेतों पर दूधिया पोत दी है। लोग खेतों पर पहरा देने आ गए हैं। इस पहाड़ी प्रदेश में फसल कभी अच्छी नहीं होती। पानी ठीक बरसता नहीं। धरती भी अच्छी नहीं है। फसल जब अच्छी हो जाती है, तब ये भेड़िए कलमुँहे उसपर टूट पड़ते हैं और खेत-खेत साफ़ कर जाते हैं। इसी से रात में पहरा देना बड़ा ही आवश्यक होता है।
कृषक अपने-अपने खेतों की रखवाली कर रहे हैं। मालो तथा विठो भी खेत पर आ गए हैं। दूर कहीं से कुछ किसानों के गाने-बजाने की आवाज़ आ रही है। बहुधा लोग खेत में अकेले नहीं आते। कुछ लोगों का साथ रहने से मन बहला रहता है। बातचीत होती है। दिन भर की पंचायत यहीं निपटाई जाती है। नाच-गाना हो हल्ला, मज़ाक इनके मनोरंजन हैं। इस खेत पर मालोजी तथा विठोजी दोनों हैं। यह उन्हीं का खेत हैं। मालोजी तो विश्राम कर रहे हैं। विठोजी खेत के चारों ओर घूमते हुए पहरा दे रहे हैं। हाथ में एक बड़ा डंडा है। बग़ल में तलवार लटक रही है।
इधर विठोजी के पहरा देने का काम चल रहा था, उधर मालोजी करवटें बदलते हुए नींद को आमंत्रण दे रहे थे, किंतु नींद कहाँ ? उनके मस्तिष्क में तो एक विकट संघर्ष चल रहा था। वे सोच रहे थे-‘यादवराव ने मेरा बड़ा अपमान किया। अब मैं अपने मित्रों को भी मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ। आख़िर ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि मेरे पास पैसा नहीं है, क्योंकि मैं जागीरदार नहीं हूँ। पैसा ही इज्ज़त है, पैसा ही सम्मान है, पैसा ही हमारी योग्यता का उचित मापदंड है; तो हमें उसकी ही आराधना करनी चाहिए।’ सोचते-सोचते मालोजी का हाथ बग़ल में बँधी तलवार पर गया, वे पुनः भावसागर में डूब गए-‘...और यह तलवार ? मैं इसकी आराधना करूँ या पैसे की।....नहीं-नहीं मैं पैसे की ओर कभी नहीं जा सकता। तलवार ही मेरा सबकुछ है। यह भवानी का प्रतीक है।...जय माँ, जगज्जननी तू मेरी रक्षा कर।’ मालोजी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे। नींद उनसे दूर खेतों में टहल रही थी।
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