नारी विमर्श >> उबाल उबालरांगेय राघव
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गाँव की एक दीन हीन लड़की पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उसने सरस्वती के घर में प्रवेश किया। द्वार खुले थे। वह भीतर घुस गया।
बाहर के आंगन में पानी भर गया था। सामने के छप्पर पर जो धारासार वर्षा हो
रही थी तो पानी छप-छप करता और बगल की छत पर परनाला तड़-तड़ करता गिर रहा
था। सत्यपाल उसके बगल में होकर चबूतरे के पास पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही
बिजली बहुत जोर से कौंधी। उसकी आंखें मिच गईं। जब कुछ देर बाद आंखें खुलीं
तो सत्यपाल ने देखा कि उसके पास ही, दो हाथ की दूरी पर सरस्वती एक खंभा
पकड़े खड़ी थी। उसके हाथ पर पानी की बूँदें टपक रही थीं। वह शांत थी,
निस्तब्ध, जैसे वह सारा तूफान भी उसे दबाने में असमर्थ था।
‘क्या था इस गांव की लड़की में,’ सत्यपाल ने सोचा, ‘जो यह ऐसी
अपराजित है ? शिक्षा...’ सत्यपाल ने सोचा, फिर सिर हिलाया। पढ़े-लिखे
स्वार्थ के लिए बड़े जघन्य हो जाते हैं।
उबाल
गांव के एक छोटे-से घर में वह बिस्तर पर पड़ी ‘नारी का मोल’
पढ़ रही थी। वह तन्मय हो रही थी। वह एक साड़ी और कुर्ती पहने थी। घर गांव
के ब्राह्मणों के पाड़े में था। किसी ने आवाज दी—‘‘सरस्वती ! सरस्वती
!!’’
और बिना रुके वह आदमी घर के भीतर आ गया। किताब पढ़ते देख कर वह ठिठक गया। उसे कुछ झुंझलाहट-सी हुई। उसने कहा—‘‘पढ़ती ही रहोगी ?’’
और उसने एक मूढ़ी पर बैठ कर कहा—‘‘इतनी किताबें तू क्यों पढ़ती है ?’’
लड़की उठ कर बैठ गई। सांवला रंग, लंबी आंखें, गम्भीर मुख। पर स्पष्ट ही ग्राम्यत्व उसकी आकृति में प्रकट था।
लड़की ने कहा—‘‘गांव के पंडित की बेटी हूं ? दादा होते तो आज मैं न जाने कितना पढ़ गई होती।’’
‘‘कितना पढ़ जाती ? वे होते तो अब तू दो बच्चों की मां होती।’’
‘‘चलो हटो। तुमको यह बातें करते लाज नहीं आती ?’’ लड़की ने चिढ़ कर कहा।
अपने घने बालों में उंगली फेरते हुए उस आदमी ने कहा—आती क्यों नहीं है ? पर अक्सर तुझे देखकर मैं अपनी मास्टरी भूल जाता हूं। दिन-भर पढ़ती है, दिन-भर।’’
आगंतुक ने किताब छीन ली। दोपहर का एकान्त था, जब गांव में रास्ते सुनसान-से हो जाते हैं। लड़की ने कहा—‘‘तुम काका की गैर-हाज़िरी में भीतर कैसे आ गए। अजीब मास्टर हो। पढ़ने तक नहीं देते।
आदमी ने कहा—‘‘विलास तेरे सामने मास्टर नहीं रहता। आज मैं तुझसे पूछने आया हूं।’’
‘‘क्या पूछते हो, पूछो ?’’
विलास का मुख एकदम लाल हो उठा। उसने धीमे से कहा—‘‘यहां नहीं कहूंगा।’’
‘‘तो कहां कहोगे ! मेरे पास तुम्हारी बात सुनने को इतनी फुरसत है कहां, मैं तो अपना बाग देखने जाती हूं। तुम जाओ। कोई तुम्हें यहां देख लेगा तो मैं बदनाम हो जाऊंगी।’’
लड़की की आंखों में एक मुस्कराहट दिखाई दी। विलास उठ खड़ा हुआ। बोला—‘‘जाता हूं।’’
उसके चले जाने के बाद वह उठी और उसने बालों में लकड़ी की कंघी फेरी फिर और धीरे-धीरे अपने बाग की तरफ चल पड़ी।
जहां गांव खतम होता था वहां नदी के किनारे, सामने के छोटे पहाड़ के शहर जाने वाले रास्ते को देखता हुआ सरस्वती का आम का बाग था। सरस्वती ने वहां गांव के एक गरीब लड़के को रखवाली पर रख दिया था। बाप मरा तो काकी ने उसे पाला, पर जब वह मरी तो सरस्वती खुद खाना बनाना जानती थी। गांव की लड़की को एकान्त में ही रहना पड़ा। यार लोगों ने नज़र तो डाली, पर तभी काका ने शहर से आकर विलास से शादी तय कर दी। अबकी बार के फागुन में ही होनेवाली थी, क्योंकि देव सो गए थे। गांव वालों का मुंह तो बंद हो गया, पर काका को शहर और गांव दोनों संभालने का काम हो गया।
छोटा-सा आम का बाग सुन्दर था। जिस समय सरस्वती पहुंची, रखवाला वहां नहीं था। सरस्वती मन ही मन बुदबुदा उठी। अजीब मूर्ख है, जब देखो गायब। एकाएक किसी ने उसकी आंखें मींच लीं। सरस्वती भय से चीख उठी। मुड़कर देखा, विलास था।
‘‘तुम यहां ?’’ वह चौंक उठी।
‘‘क्यों ?’’ विलास ने कहा—‘‘क्या हुआ ? तुमने ही तो कहा था, बाग में मिलना।’’
‘‘छिः’’ सरस्वती ने कहा—‘‘तुम मेरे कोई दोस्त नहीं हो, पति होने वाले हो।’’ यह कहते-कहते उसका मुंह कान तक लाल हो उठा।
पेड़ पर कोयल बोली। सरस्वती उसे देखती हुई बढ़ी। विलास चुप रहा। उसने धीरे से कहा—‘‘सरस्वती !’’
उसने सुना नहीं। कोयल को ही देखती रही। विलास ने आम खींचकर उसके मारा। सरस्वती चिहुंक उठी। उसने धीरे से मुस्कराकर कहा—‘‘मेरी कमर टूट गई तो कोई ब्याह भी नहीं करेगा।’’
विलास ने कहा—‘‘शायद मैं फिर भी कर लूंगा।’’
सरस्वती ने दृढ़ता से कहा—‘‘यह आम का पेड़ हमारा गवाह है।’’
‘‘नहीं, गवाह नहीं, पुरोहित है।’’
‘‘मैं इस पेड़ के नीचे सौगंध खाती हूं कि जब तक जीऊंगी, तुम्हारे लिए जीऊंगी।’’
‘‘और,’’ विलास ने कहा—‘‘मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि तेरे सिवा सपने में भी किसी को अपने ध्यान में न लाऊंगा।’’
कुछ देर दोनों एक-दूसरे को निस्तब्ध अमराई में देखते रहे। उनकी राय में यह उनके जीवन का एक महान क्षण था। दूर मंदिर में शंख बजा। सरस्वती ने कहा—‘‘हाय राम ! कितनी देर हो गई। जीवन काका बैठे होंगे। जल्दी चलो।’’
वृद्ध जीवन द्वार पर आ बैठा था। गांव की एक बूढ़ी रमिया उधर से निकली। किशन ने टोका, ‘‘सरस्वती कहां है काका ?’’
किशन को गांव बेवकूफ समझता था। जीवन ने अपने माथे पर हाथ फेरकर रमिया से कहा—‘देखती हो मंगू की मां ! बच्चे बड़े शैतान होते जा रहे हैं। फिर अब तो बड़े होते जो रहे हैं, पर अकल फिर भी नहीं आई।’’
मंगू की मां ने कहा—‘‘अब अपना वक्त याद करो। तुम्हीं कौन सीधे थे ! बिना प्यास के पनघट पर पानी पीने आते थे। तुम्हारी भतीजी है। जल्दी ब्याह क्यों नहीं कर देते ?’’
किशन ने चौंककर पूछा—‘‘अच्छा पहले जीवन काका भी ऐसे ही थे ?’’
एकाएक इस प्रश्न पर दोनों चौंक उठे। मंगू की मां चल दी जीवन ने डांटा—‘‘चुप रह। गधा !’’
इसी समय विलास और सरस्वती ने प्रवेश किया। जीवन क्षण-भर उन्हें बिना ब्यह के ऐसे खुलकर घूमते देखकर ठिठका। फिर उसने धीरे से कहा—‘‘तुमको शायद याद नहीं रहा कि मुझे शहर जाना है।’’
सरस्वती ने जीभ काट ली। खाना खाकर वे लौटे। अमराई की ओर चलते हुए विलास ने पूछा—‘‘हवाई जहाज से ?’’
जीवन ने गर्व से कहा—‘‘नहीं तो क्या ?’’
विलास प्रभावित हुआ। उसके मुख से निकला—‘‘क्या ठाठ होते हैं उनके जो हवाई जहाज़ पर चढ़ते हैं ?’’
सरस्वती चिढ़ी। कहा—‘‘फिर तुम अमीरों के रोब में आने लगे। होते कैसे हैं ? जैसे हम-तुम, वैसे ही वे।’’
जीवन वार्द्धक्य के अनुभव से यह वितृष्णा समझा, हंसा। कहा—‘‘अच्छा, अब तुम लौट जाओ। मैं चला जाऊंगा। आज मालिक हवाई जहाज़ से लौटेंगे, तब मेरा घर में रहना ज़रूरी है।’’
सरस्वती ने चरण छुए। कहा—‘‘कब लौटोगे ?’’
काका ने मुस्कराकर कहा—‘‘तेरे ब्याह पर।’’
सरस्वती ने लजाकर सिर झुका लिया। काका चला गया।
और बिना रुके वह आदमी घर के भीतर आ गया। किताब पढ़ते देख कर वह ठिठक गया। उसे कुछ झुंझलाहट-सी हुई। उसने कहा—‘‘पढ़ती ही रहोगी ?’’
और उसने एक मूढ़ी पर बैठ कर कहा—‘‘इतनी किताबें तू क्यों पढ़ती है ?’’
लड़की उठ कर बैठ गई। सांवला रंग, लंबी आंखें, गम्भीर मुख। पर स्पष्ट ही ग्राम्यत्व उसकी आकृति में प्रकट था।
लड़की ने कहा—‘‘गांव के पंडित की बेटी हूं ? दादा होते तो आज मैं न जाने कितना पढ़ गई होती।’’
‘‘कितना पढ़ जाती ? वे होते तो अब तू दो बच्चों की मां होती।’’
‘‘चलो हटो। तुमको यह बातें करते लाज नहीं आती ?’’ लड़की ने चिढ़ कर कहा।
अपने घने बालों में उंगली फेरते हुए उस आदमी ने कहा—आती क्यों नहीं है ? पर अक्सर तुझे देखकर मैं अपनी मास्टरी भूल जाता हूं। दिन-भर पढ़ती है, दिन-भर।’’
आगंतुक ने किताब छीन ली। दोपहर का एकान्त था, जब गांव में रास्ते सुनसान-से हो जाते हैं। लड़की ने कहा—‘‘तुम काका की गैर-हाज़िरी में भीतर कैसे आ गए। अजीब मास्टर हो। पढ़ने तक नहीं देते।
आदमी ने कहा—‘‘विलास तेरे सामने मास्टर नहीं रहता। आज मैं तुझसे पूछने आया हूं।’’
‘‘क्या पूछते हो, पूछो ?’’
विलास का मुख एकदम लाल हो उठा। उसने धीमे से कहा—‘‘यहां नहीं कहूंगा।’’
‘‘तो कहां कहोगे ! मेरे पास तुम्हारी बात सुनने को इतनी फुरसत है कहां, मैं तो अपना बाग देखने जाती हूं। तुम जाओ। कोई तुम्हें यहां देख लेगा तो मैं बदनाम हो जाऊंगी।’’
लड़की की आंखों में एक मुस्कराहट दिखाई दी। विलास उठ खड़ा हुआ। बोला—‘‘जाता हूं।’’
उसके चले जाने के बाद वह उठी और उसने बालों में लकड़ी की कंघी फेरी फिर और धीरे-धीरे अपने बाग की तरफ चल पड़ी।
जहां गांव खतम होता था वहां नदी के किनारे, सामने के छोटे पहाड़ के शहर जाने वाले रास्ते को देखता हुआ सरस्वती का आम का बाग था। सरस्वती ने वहां गांव के एक गरीब लड़के को रखवाली पर रख दिया था। बाप मरा तो काकी ने उसे पाला, पर जब वह मरी तो सरस्वती खुद खाना बनाना जानती थी। गांव की लड़की को एकान्त में ही रहना पड़ा। यार लोगों ने नज़र तो डाली, पर तभी काका ने शहर से आकर विलास से शादी तय कर दी। अबकी बार के फागुन में ही होनेवाली थी, क्योंकि देव सो गए थे। गांव वालों का मुंह तो बंद हो गया, पर काका को शहर और गांव दोनों संभालने का काम हो गया।
छोटा-सा आम का बाग सुन्दर था। जिस समय सरस्वती पहुंची, रखवाला वहां नहीं था। सरस्वती मन ही मन बुदबुदा उठी। अजीब मूर्ख है, जब देखो गायब। एकाएक किसी ने उसकी आंखें मींच लीं। सरस्वती भय से चीख उठी। मुड़कर देखा, विलास था।
‘‘तुम यहां ?’’ वह चौंक उठी।
‘‘क्यों ?’’ विलास ने कहा—‘‘क्या हुआ ? तुमने ही तो कहा था, बाग में मिलना।’’
‘‘छिः’’ सरस्वती ने कहा—‘‘तुम मेरे कोई दोस्त नहीं हो, पति होने वाले हो।’’ यह कहते-कहते उसका मुंह कान तक लाल हो उठा।
पेड़ पर कोयल बोली। सरस्वती उसे देखती हुई बढ़ी। विलास चुप रहा। उसने धीरे से कहा—‘‘सरस्वती !’’
उसने सुना नहीं। कोयल को ही देखती रही। विलास ने आम खींचकर उसके मारा। सरस्वती चिहुंक उठी। उसने धीरे से मुस्कराकर कहा—‘‘मेरी कमर टूट गई तो कोई ब्याह भी नहीं करेगा।’’
विलास ने कहा—‘‘शायद मैं फिर भी कर लूंगा।’’
सरस्वती ने दृढ़ता से कहा—‘‘यह आम का पेड़ हमारा गवाह है।’’
‘‘नहीं, गवाह नहीं, पुरोहित है।’’
‘‘मैं इस पेड़ के नीचे सौगंध खाती हूं कि जब तक जीऊंगी, तुम्हारे लिए जीऊंगी।’’
‘‘और,’’ विलास ने कहा—‘‘मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि तेरे सिवा सपने में भी किसी को अपने ध्यान में न लाऊंगा।’’
कुछ देर दोनों एक-दूसरे को निस्तब्ध अमराई में देखते रहे। उनकी राय में यह उनके जीवन का एक महान क्षण था। दूर मंदिर में शंख बजा। सरस्वती ने कहा—‘‘हाय राम ! कितनी देर हो गई। जीवन काका बैठे होंगे। जल्दी चलो।’’
वृद्ध जीवन द्वार पर आ बैठा था। गांव की एक बूढ़ी रमिया उधर से निकली। किशन ने टोका, ‘‘सरस्वती कहां है काका ?’’
किशन को गांव बेवकूफ समझता था। जीवन ने अपने माथे पर हाथ फेरकर रमिया से कहा—‘देखती हो मंगू की मां ! बच्चे बड़े शैतान होते जा रहे हैं। फिर अब तो बड़े होते जो रहे हैं, पर अकल फिर भी नहीं आई।’’
मंगू की मां ने कहा—‘‘अब अपना वक्त याद करो। तुम्हीं कौन सीधे थे ! बिना प्यास के पनघट पर पानी पीने आते थे। तुम्हारी भतीजी है। जल्दी ब्याह क्यों नहीं कर देते ?’’
किशन ने चौंककर पूछा—‘‘अच्छा पहले जीवन काका भी ऐसे ही थे ?’’
एकाएक इस प्रश्न पर दोनों चौंक उठे। मंगू की मां चल दी जीवन ने डांटा—‘‘चुप रह। गधा !’’
इसी समय विलास और सरस्वती ने प्रवेश किया। जीवन क्षण-भर उन्हें बिना ब्यह के ऐसे खुलकर घूमते देखकर ठिठका। फिर उसने धीरे से कहा—‘‘तुमको शायद याद नहीं रहा कि मुझे शहर जाना है।’’
सरस्वती ने जीभ काट ली। खाना खाकर वे लौटे। अमराई की ओर चलते हुए विलास ने पूछा—‘‘हवाई जहाज से ?’’
जीवन ने गर्व से कहा—‘‘नहीं तो क्या ?’’
विलास प्रभावित हुआ। उसके मुख से निकला—‘‘क्या ठाठ होते हैं उनके जो हवाई जहाज़ पर चढ़ते हैं ?’’
सरस्वती चिढ़ी। कहा—‘‘फिर तुम अमीरों के रोब में आने लगे। होते कैसे हैं ? जैसे हम-तुम, वैसे ही वे।’’
जीवन वार्द्धक्य के अनुभव से यह वितृष्णा समझा, हंसा। कहा—‘‘अच्छा, अब तुम लौट जाओ। मैं चला जाऊंगा। आज मालिक हवाई जहाज़ से लौटेंगे, तब मेरा घर में रहना ज़रूरी है।’’
सरस्वती ने चरण छुए। कहा—‘‘कब लौटोगे ?’’
काका ने मुस्कराकर कहा—‘‘तेरे ब्याह पर।’’
सरस्वती ने लजाकर सिर झुका लिया। काका चला गया।
2
हवाई अड्डे पर दुबले-पतले इंद्रभान ने जहाज़ से उतरते ही सत्यपाल को देखकर
सिर झुकाकर सलाम किया। सत्यपाल अधेड़ आदमी था, लगभग चालीस का। उसकी
कनपटियों पर दो-चार बाल सफेद हो चले थे। जीवन का अनुभव उसके लिए केवल
आनन्द ही था, वह उसकी मुद्रा से प्रकट होता था। गम्भीर व्यक्ति था,
विलायती कपड़े पहने था, और उसमें एक दबी हुई अहम्मन्यता थी कि वह सबको
अपने सामने इतना छोटा समझता था कि मुस्कराकर उत्तर देता था। बहुत ही नम्र
बनकर बातें करता। उसे घंटों चुप रहने की आदत थी। व्यापार की चालाकियों ने
उसे सभ्यता के सारे जाल फैलाना सिखा दिया था।
उसने बहुत ही हर्ष दिखाकर पूछा—‘‘मज़े में तो रहे ?’’
इन्द्रभान ने सिर झुकाया। वह इतना गम्भीर था कि उसका कुछ भी अर्थ हो सकता था।
लम्बी मोटर भाग चली। पूरे रास्ते में सत्यपाल ने कहा, ‘‘फ्रांस ! फ्रांस भी देखने लायक जगह है, मैनेजर !’’
गूंगे का गुड़ था। आगे कहना जैसे उसके लिए कठिन था। हृदय में अभी तक ऊष्मा छा रही थी।
इन्द्रभान ने तिरछी आंखों से देखा, और धीरे से कहा—‘‘हरीश बाबू विलायत गए हैं।’’
सत्यपाल हंसा। उसने पूछा, ‘‘अब गया है जब हम लौट आए !’’
उसके मन में प्रश्न उठा। पर वह पूछ नहीं सका। ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। इन्द्रभान ने उतरकर दरवाजा खोल दिया। सत्यपाल जब अपने आलीशान मकान में घुसा, एक अजीब-सी निस्तब्धता छाई हुई थी। सब कुछ था, किन्तु जैसे कहीं प्राण नहीं थे। वस्तु ने जैसे अपना गुणात्मक परिवर्तन छोड़ दिया था और वह जड़ भौतिक हो गई थी। उसने चारों ओर देखा। सब नौकर सिर झुकाए खड़े थे। सत्यपाल समझा नहीं। उसने पूछा—‘‘क्या बात है ? तुम लोगों को हमें इतने दिन बाद देखकर भी कोई खुशी नहीं हुई ?’’
किन्तु किसी ने उत्तर नहीं दिया। माली के कातर मुख पर जो अवसाद की छाया थी, वह सबके मुखों पर ऐसे फैल गई थी जैसे दर्पण एक-दूसरे के सम्मुख ऐसे रख दिए गए थे कि एक-दूसरे का ही एक-दूसरे पर प्रतिबिम्ब पड़ता रहे।
सत्यपाल भीतर चला गया। उदास जीवन चन्दा के तैलचित्र के नीचे खड़ा था। सत्यपाल ने सिर उठाकर चित्र देखा और अधीर स्वर में पूछा ‘‘जीवन ! चन्दा कहां है ?’’
जीवन का हाथ कांपता हुआ बढ़ा। उसमें एक पत्र था। सत्पाल ने गम्भीर होकर पढ़ा। केवल लिखा था—‘‘मैं जा रही हूं, तुम्हारे चंगुल से बचकर—चन्दा।’
आंखों को विश्वास नहीं हुआ। फिर पढ़ा वही था। चन्दा ! कहां चली गई ? क्यों ? और जैसे-जैसे यह शब्द बड़ा होता गया, सत्यपाल को लगा वह मर गया था। धरती फट गई थी और वह उसमें समाता जा रहा था। उसको जैसे चक्कर-सा आया। उसने स्तंभ पकड़ लिया। सात समन्दरों पर उड़कर आने पर उसे ज्ञात हुआ था कि उसकी पत्नी भाग गई थी। अपमान की दारुण ज्वाला ने उसके स्वप्नों की कोर को छू दिया और वे सब रुई की ढेर की भांति सुलग उठे। उसकी आंखों में पागलपन तड़प उठा। एक-एक करके सब नौकर सिर झुकाए चले गए। सत्यपाल को लगा जैसे चन्दा खड़ी हंस रही है। चारों ओर चन्दा ही चन्दा थी। और तब अन्तराल में गूंजा—‘‘मैं जा रही हूं, तुम्हारे चंगुल से बचकर...’
सत्यपाल कुर्सी पर लड़खड़ाकर बैठ गया। फिर एकाएक वह खड़ा होकर चिल्ला उठा, ‘‘इन्द्रभान ! जीवन !’’
दोनों गम्भीर-से नतशिर आ खड़े हुए।
सत्यपाल कुछ देर घूमता रहा। फिर उसने धीरे से कहा—‘‘वह क्यों चली गई ?’’
कोई नहीं बोला। सत्यपाल को वह उदासी कचोटने लगी। उसने कहा—‘‘जाओ !’’
वे दोनों चले गए। सत्यपाल चन्दा के चित्र को देखता हुआ बैठा रहा।
शाम हो गई। जीवन ने बत्ती जलाई तो देखा मालिक उदास-से वहीं बैठे कुछ सोच रहे हैं। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। कहा—‘‘मालिक !’’
सत्यपाल मुड़ा नहीं। पूछा—‘‘जीवन !’’
‘‘सरकार !’’
‘‘उसे इस घर में किस चीज़ की कमी थी ?
‘‘किसीकी भी नहीं, मालिक !’’
सत्यपाल ने तीव्र दृष्टि से देख कर कहा—‘‘तुम झूठ बोलते हो।’’
वृद्ध सकपका गया। कुछ देर बीत गई। उसने फिर कहा—‘‘मालिक बहूजी को ढूंढ़ना चाहिए।’’
‘‘नहीं,’’ सत्यपाल ने कटुता से कहा—‘‘चली गई तो जाने दो। कोई किसी के बांधे नहीं बंधता। जाओ।’’
पुरुष का विक्षोभ उदासीनता का आडम्बर खड़ा करके अपने अधिकारों पर पड़ी चोट के विष से आक्रान्त होकर अपनी अपमानित विभीषिका को छिपा लेना चाहता था।
जीवन चला गया। सत्यपाल ने उठकर सेफ खोला। नोटों को देखकर उसे स्वयं को विश्वास नहीं हुआ। उसने चन्दा के चित्र को देखा जैसे पूछता था—‘‘तुझे इस घर में किसकी कमी थी ?’’ और फिर सेफ बन्द कर दिया। वह अपने-आप ही दर्पण के सामने खड़ा हो गया, जैसे उसने मन से पूछा—‘क्या मैं कुरूप था ? क्या वह इसीलिए चली गई ?’
कोई उत्तर नहीं मिला। वह पराजित-सा सिर पकड़कर बैठ गया। घड़ी की नीरवता में टिक-टिक बज रही थी। सत्यपाल ने सिगरेट जला कर रेडियो खोल दिया। वह उसे भूल जाना चाहता था। और रेडियो में सुनाई दिया—‘समुद्र के किनारे एक औरत की कीमती गहनों से लदी लाश पाई गई है। पुलिस तलाश कर रही है। कुछ लोगों का खयाल है कि वह एक राजकुमारी है जो रियासत...’
इसके बाद भर्र-भर्र में कुछ भी सुनाई नहीं दिया। सत्पाल ने सुना और एकाएक वह पागल की भांति हंस उठा। चन्दा के चित्र को देखकर वह बर्बर हास्य टुकड़े-टुकड़े होकर फर्श पर फैल गया। फैला और फिर वे स्वर सब उठ-उठकर सत्यपाल के कानों में ऐसे घूमने लगे जैसे दीपक पर पतंगे चक्कर लगाते हैं।
उसने बहुत ही हर्ष दिखाकर पूछा—‘‘मज़े में तो रहे ?’’
इन्द्रभान ने सिर झुकाया। वह इतना गम्भीर था कि उसका कुछ भी अर्थ हो सकता था।
लम्बी मोटर भाग चली। पूरे रास्ते में सत्यपाल ने कहा, ‘‘फ्रांस ! फ्रांस भी देखने लायक जगह है, मैनेजर !’’
गूंगे का गुड़ था। आगे कहना जैसे उसके लिए कठिन था। हृदय में अभी तक ऊष्मा छा रही थी।
इन्द्रभान ने तिरछी आंखों से देखा, और धीरे से कहा—‘‘हरीश बाबू विलायत गए हैं।’’
सत्यपाल हंसा। उसने पूछा, ‘‘अब गया है जब हम लौट आए !’’
उसके मन में प्रश्न उठा। पर वह पूछ नहीं सका। ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। इन्द्रभान ने उतरकर दरवाजा खोल दिया। सत्यपाल जब अपने आलीशान मकान में घुसा, एक अजीब-सी निस्तब्धता छाई हुई थी। सब कुछ था, किन्तु जैसे कहीं प्राण नहीं थे। वस्तु ने जैसे अपना गुणात्मक परिवर्तन छोड़ दिया था और वह जड़ भौतिक हो गई थी। उसने चारों ओर देखा। सब नौकर सिर झुकाए खड़े थे। सत्यपाल समझा नहीं। उसने पूछा—‘‘क्या बात है ? तुम लोगों को हमें इतने दिन बाद देखकर भी कोई खुशी नहीं हुई ?’’
किन्तु किसी ने उत्तर नहीं दिया। माली के कातर मुख पर जो अवसाद की छाया थी, वह सबके मुखों पर ऐसे फैल गई थी जैसे दर्पण एक-दूसरे के सम्मुख ऐसे रख दिए गए थे कि एक-दूसरे का ही एक-दूसरे पर प्रतिबिम्ब पड़ता रहे।
सत्यपाल भीतर चला गया। उदास जीवन चन्दा के तैलचित्र के नीचे खड़ा था। सत्यपाल ने सिर उठाकर चित्र देखा और अधीर स्वर में पूछा ‘‘जीवन ! चन्दा कहां है ?’’
जीवन का हाथ कांपता हुआ बढ़ा। उसमें एक पत्र था। सत्पाल ने गम्भीर होकर पढ़ा। केवल लिखा था—‘‘मैं जा रही हूं, तुम्हारे चंगुल से बचकर—चन्दा।’
आंखों को विश्वास नहीं हुआ। फिर पढ़ा वही था। चन्दा ! कहां चली गई ? क्यों ? और जैसे-जैसे यह शब्द बड़ा होता गया, सत्यपाल को लगा वह मर गया था। धरती फट गई थी और वह उसमें समाता जा रहा था। उसको जैसे चक्कर-सा आया। उसने स्तंभ पकड़ लिया। सात समन्दरों पर उड़कर आने पर उसे ज्ञात हुआ था कि उसकी पत्नी भाग गई थी। अपमान की दारुण ज्वाला ने उसके स्वप्नों की कोर को छू दिया और वे सब रुई की ढेर की भांति सुलग उठे। उसकी आंखों में पागलपन तड़प उठा। एक-एक करके सब नौकर सिर झुकाए चले गए। सत्यपाल को लगा जैसे चन्दा खड़ी हंस रही है। चारों ओर चन्दा ही चन्दा थी। और तब अन्तराल में गूंजा—‘‘मैं जा रही हूं, तुम्हारे चंगुल से बचकर...’
सत्यपाल कुर्सी पर लड़खड़ाकर बैठ गया। फिर एकाएक वह खड़ा होकर चिल्ला उठा, ‘‘इन्द्रभान ! जीवन !’’
दोनों गम्भीर-से नतशिर आ खड़े हुए।
सत्यपाल कुछ देर घूमता रहा। फिर उसने धीरे से कहा—‘‘वह क्यों चली गई ?’’
कोई नहीं बोला। सत्यपाल को वह उदासी कचोटने लगी। उसने कहा—‘‘जाओ !’’
वे दोनों चले गए। सत्यपाल चन्दा के चित्र को देखता हुआ बैठा रहा।
शाम हो गई। जीवन ने बत्ती जलाई तो देखा मालिक उदास-से वहीं बैठे कुछ सोच रहे हैं। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। कहा—‘‘मालिक !’’
सत्यपाल मुड़ा नहीं। पूछा—‘‘जीवन !’’
‘‘सरकार !’’
‘‘उसे इस घर में किस चीज़ की कमी थी ?
‘‘किसीकी भी नहीं, मालिक !’’
सत्यपाल ने तीव्र दृष्टि से देख कर कहा—‘‘तुम झूठ बोलते हो।’’
वृद्ध सकपका गया। कुछ देर बीत गई। उसने फिर कहा—‘‘मालिक बहूजी को ढूंढ़ना चाहिए।’’
‘‘नहीं,’’ सत्यपाल ने कटुता से कहा—‘‘चली गई तो जाने दो। कोई किसी के बांधे नहीं बंधता। जाओ।’’
पुरुष का विक्षोभ उदासीनता का आडम्बर खड़ा करके अपने अधिकारों पर पड़ी चोट के विष से आक्रान्त होकर अपनी अपमानित विभीषिका को छिपा लेना चाहता था।
जीवन चला गया। सत्यपाल ने उठकर सेफ खोला। नोटों को देखकर उसे स्वयं को विश्वास नहीं हुआ। उसने चन्दा के चित्र को देखा जैसे पूछता था—‘‘तुझे इस घर में किसकी कमी थी ?’’ और फिर सेफ बन्द कर दिया। वह अपने-आप ही दर्पण के सामने खड़ा हो गया, जैसे उसने मन से पूछा—‘क्या मैं कुरूप था ? क्या वह इसीलिए चली गई ?’
कोई उत्तर नहीं मिला। वह पराजित-सा सिर पकड़कर बैठ गया। घड़ी की नीरवता में टिक-टिक बज रही थी। सत्यपाल ने सिगरेट जला कर रेडियो खोल दिया। वह उसे भूल जाना चाहता था। और रेडियो में सुनाई दिया—‘समुद्र के किनारे एक औरत की कीमती गहनों से लदी लाश पाई गई है। पुलिस तलाश कर रही है। कुछ लोगों का खयाल है कि वह एक राजकुमारी है जो रियासत...’
इसके बाद भर्र-भर्र में कुछ भी सुनाई नहीं दिया। सत्पाल ने सुना और एकाएक वह पागल की भांति हंस उठा। चन्दा के चित्र को देखकर वह बर्बर हास्य टुकड़े-टुकड़े होकर फर्श पर फैल गया। फैला और फिर वे स्वर सब उठ-उठकर सत्यपाल के कानों में ऐसे घूमने लगे जैसे दीपक पर पतंगे चक्कर लगाते हैं।
3
चन्दा रोने लगी। यह उसने भयानक पाप किया था। उस छोटे-से कस्बे को सांझ की
धुन्ध ने ढंक दिया। चन्दा अकेली थी। ‘कहां वह विराट् भवन, कहां
यह
छोटा-सा घर !’ ‘वह सोचती। क्या था जो उसे इस पथ पर
खींच लाया
था ? क्यों भाग आई वह हरीश के साथ ? कितना झूठा था वह ! कितना जघन्य था !
पहले तो उसने मित्र से विश्वासघात किया। फिर चन्दा से झूठ बोलकर उसे साथ
ले आया। वह क्यों इतनी मूर्ख थी कि उसके साथ चली आई !’
एकाएक फिर वही हास्य सुनाई दिया। चन्दा का रोम-रोम भय से कांप उठा। वह हरीश ही था। उसके मुख से शराब की दुर्गन्ध आ रही थी। वह सहमी हुई-सी उठ खड़ी हुई। उसने धीरे-से कहा—‘‘तुम फिर शराब पीकर आए हो।’’
‘‘क्यों ?’’ हरीश ने मुस्कराकर सिगरेट जलाते हुए कहा, ‘‘तुम तो बिलकुल बहू बन बैठीं। बड़ी पवित्र स्त्री हो !’’
उसने धुआं चन्दा के मुख पर छोड़ा। चन्दा उस आघात से लहूलुहान हृदय लिए खड़ी रही। उसे लगा, वह मुरदा थी। और हरीश का वह घृणा-भरा स्वर हास्य बनकर उसके अन्तस्तल पर अंगारे की भांति दहक उठा।
‘‘मैं पवित्र नहीं हूं,’’ चन्दा ने एकाएक कठोरता से कहा, ‘‘क्योंकि मैं मूर्ख थी, और तुम्हारी बातों में आ गई। देवता जैसे पति को छोड़ आई और अपनी रक्षा भी मैं तुमसे नहीं कर सकी।’’
‘‘ठीक है,’’ हरीश ने अचकन उतारकर मलमल के कुरते की आस्तीनें गर्मी के कारण चढ़ाते हुए कहा, ‘‘वह पत्र भी मैं ही लिख कर आया था ?’’ वह एक भयानक विद्रूप से हंसा। चन्दा का हृदय गलने लगा। कितना पापी था वह ! वह पत्र ! पर अब वह कहे तो भी विश्वास कौन करे ? हरीश ने कहा था कि इन्द्रभान उसकी इज्जत के पीछे लगा है। सत्यपाल के आते ही हरीश इन्द्रभान को ठीक कर देगा। नौकर सब इन्द्रभान से मिल गए हैं। यहां रहने में बड़ा खतरा है। हरीश के साथ जाने में ही चन्दा का कल्याण है। उस समय बूढ़ा जीवन भी घर में न था। सभी को डराने के लिए हरीश ने जो कहा था, वही लिख कर वह खुशी से रात को उसके साथ निकल आई थी। फिर ? फिर की याद करके चन्दा का दम घुटने लगा। उसकी इच्छा हुई, वह हरीश का घला घोंट दे। परंतु वह हिंस्र दृष्टि से उसे घूरने लगा था। एक-एक करके उसके सारे गहने ले चुका था। चन्दा के सिर का दर्द बढ़ गया। वह कुछ नहीं बोली। घृणा से उसका मन भर गया था। उस रात हरीश कैसा घबराया-सा आकर कह उठा था—‘‘चन्दा ! चलो। यहां डर है। मैं विलायत जाना छोड़कर तुम्हें बचाने आया हूं। मुझे अभी मालूम हुआ है।’
और आज वही उसी के पत्र को उसके विरुद्ध प्रयुक्त करना चाहता था। चन्दा रोने लगी।
चन्दा ने कहा—‘‘मेरे पास अब कुछ नहीं है। मेरे सिर में दर्द है। मैं बीमार हूं।’’
हरीश हंसा। उसने कहा—‘‘तो लौट जाओ न सत्यपाल के पास।’’
चन्दा चीख उठी। उसने पूछा—‘‘तो तुम मुझे छोड़ दोगे ?’’
हरीश—‘‘बाज़ार पड़ा है। जो औरत अपने मालिक को छोड़कर मुहब्बत की बातों में बहककर आ गई, वह क्या किसी के लिए सच्ची हो सकती है ? कभी नहीं।’’
‘‘तुम्हें झूठ बोलते शर्म नहीं आती ? मेरे बिना न जाने उनका क्या हाल होगा ?’’
हरीश फिर कठोरता से हंसा। उसने कहा—‘‘सत्यपाल समझ रहा होगा कि हरीश विलायत में होगा। तो क्या तू समझती है कि यदि तू उसके पास जाएगी तो वह तुझे स्वीकार कर लेगा ?’’
चन्दा को लगा कि वह पागल हो जाएगी। उसने कहा—‘‘कमीने ! तूने अपने दोस्त को भी धोखा दिया।’’
हरीश को क्रोध आने लगा था। उसने कठोरता से उठकर कहा—‘‘ऐ ! खामोश ! हलक में हाथ डालकर जबान खींच लूंगा। फाहिशा ! मेरे पास तेरी बक-बक सुनने की फुरसत नहीं है। मुझे रुपये की ज़रूरत है।’’
‘‘तो मेरे पास अब क्या रखा है ? जो था, वह सब तुमने शराब में फूंक दिया। अब तो खाने को भी नहीं है। कुछ काम क्यों नहीं कर लेते ?’’
‘‘काम ? तो क्या मैं बेकार घूमता हूं ? जब बैठता हूं, तो एक-एक दांव पर दुनिया पलटने का हौंसला रखता हूं।’’
हठात् चन्दा फूट पड़ी—‘‘जुआरी, तुमने इतने अच्छे खानदान में पैदा होकर...’’
किन्तु हरीश ने काट दिया—‘‘ओह हो ! सती चन्दा ! तुम भी तो बड़े अच्छे खानदान की हो। खानदानी रईस हमेशा पैसा फूंकते हैं, समझी ? ला, मुझे रुपये दे।’’
उसने बढ़कर चन्दा का हाथ पकड़ लिया। चन्दा सहम गई। उसने झटके से हाथ छुड़ाते हुए कहा—‘‘मेरे पास अब यह एक सुहाग की अंगूठी बच रही है...’’
‘‘किसके सुहाग की ?’’ हरीश हंसा।
‘‘उस पवित्र प्रेम की जो मुझे पति से मिला था, जिसे मैं छोड़कर उन्हें धोखा देकर चली आई। मैं इसे कभी नहीं दे सकती।’’
‘‘नहीं देगी ?’’ हरीश का स्वर उठा।
एकाएक फिर वही हास्य सुनाई दिया। चन्दा का रोम-रोम भय से कांप उठा। वह हरीश ही था। उसके मुख से शराब की दुर्गन्ध आ रही थी। वह सहमी हुई-सी उठ खड़ी हुई। उसने धीरे-से कहा—‘‘तुम फिर शराब पीकर आए हो।’’
‘‘क्यों ?’’ हरीश ने मुस्कराकर सिगरेट जलाते हुए कहा, ‘‘तुम तो बिलकुल बहू बन बैठीं। बड़ी पवित्र स्त्री हो !’’
उसने धुआं चन्दा के मुख पर छोड़ा। चन्दा उस आघात से लहूलुहान हृदय लिए खड़ी रही। उसे लगा, वह मुरदा थी। और हरीश का वह घृणा-भरा स्वर हास्य बनकर उसके अन्तस्तल पर अंगारे की भांति दहक उठा।
‘‘मैं पवित्र नहीं हूं,’’ चन्दा ने एकाएक कठोरता से कहा, ‘‘क्योंकि मैं मूर्ख थी, और तुम्हारी बातों में आ गई। देवता जैसे पति को छोड़ आई और अपनी रक्षा भी मैं तुमसे नहीं कर सकी।’’
‘‘ठीक है,’’ हरीश ने अचकन उतारकर मलमल के कुरते की आस्तीनें गर्मी के कारण चढ़ाते हुए कहा, ‘‘वह पत्र भी मैं ही लिख कर आया था ?’’ वह एक भयानक विद्रूप से हंसा। चन्दा का हृदय गलने लगा। कितना पापी था वह ! वह पत्र ! पर अब वह कहे तो भी विश्वास कौन करे ? हरीश ने कहा था कि इन्द्रभान उसकी इज्जत के पीछे लगा है। सत्यपाल के आते ही हरीश इन्द्रभान को ठीक कर देगा। नौकर सब इन्द्रभान से मिल गए हैं। यहां रहने में बड़ा खतरा है। हरीश के साथ जाने में ही चन्दा का कल्याण है। उस समय बूढ़ा जीवन भी घर में न था। सभी को डराने के लिए हरीश ने जो कहा था, वही लिख कर वह खुशी से रात को उसके साथ निकल आई थी। फिर ? फिर की याद करके चन्दा का दम घुटने लगा। उसकी इच्छा हुई, वह हरीश का घला घोंट दे। परंतु वह हिंस्र दृष्टि से उसे घूरने लगा था। एक-एक करके उसके सारे गहने ले चुका था। चन्दा के सिर का दर्द बढ़ गया। वह कुछ नहीं बोली। घृणा से उसका मन भर गया था। उस रात हरीश कैसा घबराया-सा आकर कह उठा था—‘‘चन्दा ! चलो। यहां डर है। मैं विलायत जाना छोड़कर तुम्हें बचाने आया हूं। मुझे अभी मालूम हुआ है।’
और आज वही उसी के पत्र को उसके विरुद्ध प्रयुक्त करना चाहता था। चन्दा रोने लगी।
चन्दा ने कहा—‘‘मेरे पास अब कुछ नहीं है। मेरे सिर में दर्द है। मैं बीमार हूं।’’
हरीश हंसा। उसने कहा—‘‘तो लौट जाओ न सत्यपाल के पास।’’
चन्दा चीख उठी। उसने पूछा—‘‘तो तुम मुझे छोड़ दोगे ?’’
हरीश—‘‘बाज़ार पड़ा है। जो औरत अपने मालिक को छोड़कर मुहब्बत की बातों में बहककर आ गई, वह क्या किसी के लिए सच्ची हो सकती है ? कभी नहीं।’’
‘‘तुम्हें झूठ बोलते शर्म नहीं आती ? मेरे बिना न जाने उनका क्या हाल होगा ?’’
हरीश फिर कठोरता से हंसा। उसने कहा—‘‘सत्यपाल समझ रहा होगा कि हरीश विलायत में होगा। तो क्या तू समझती है कि यदि तू उसके पास जाएगी तो वह तुझे स्वीकार कर लेगा ?’’
चन्दा को लगा कि वह पागल हो जाएगी। उसने कहा—‘‘कमीने ! तूने अपने दोस्त को भी धोखा दिया।’’
हरीश को क्रोध आने लगा था। उसने कठोरता से उठकर कहा—‘‘ऐ ! खामोश ! हलक में हाथ डालकर जबान खींच लूंगा। फाहिशा ! मेरे पास तेरी बक-बक सुनने की फुरसत नहीं है। मुझे रुपये की ज़रूरत है।’’
‘‘तो मेरे पास अब क्या रखा है ? जो था, वह सब तुमने शराब में फूंक दिया। अब तो खाने को भी नहीं है। कुछ काम क्यों नहीं कर लेते ?’’
‘‘काम ? तो क्या मैं बेकार घूमता हूं ? जब बैठता हूं, तो एक-एक दांव पर दुनिया पलटने का हौंसला रखता हूं।’’
हठात् चन्दा फूट पड़ी—‘‘जुआरी, तुमने इतने अच्छे खानदान में पैदा होकर...’’
किन्तु हरीश ने काट दिया—‘‘ओह हो ! सती चन्दा ! तुम भी तो बड़े अच्छे खानदान की हो। खानदानी रईस हमेशा पैसा फूंकते हैं, समझी ? ला, मुझे रुपये दे।’’
उसने बढ़कर चन्दा का हाथ पकड़ लिया। चन्दा सहम गई। उसने झटके से हाथ छुड़ाते हुए कहा—‘‘मेरे पास अब यह एक सुहाग की अंगूठी बच रही है...’’
‘‘किसके सुहाग की ?’’ हरीश हंसा।
‘‘उस पवित्र प्रेम की जो मुझे पति से मिला था, जिसे मैं छोड़कर उन्हें धोखा देकर चली आई। मैं इसे कभी नहीं दे सकती।’’
‘‘नहीं देगी ?’’ हरीश का स्वर उठा।
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