कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (चित्रा मुदगल) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (चित्रा मुदगल)चित्रा मुदगल
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चित्रा मुदगल के द्वारा चुनी हुई दस सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक
महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा-जगत के सभी शीर्षस्थ
कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ की महत्त्वपूर्ण कथाकार चित्रा मुद्गल ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘गेंद’, ‘लेन’, ‘जिनावर’, ‘जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं’, ‘भूख’, ‘प्रेतियोनि’, ‘बलि’, ‘दशरथ का बनवास’, ‘केंचुल’, तथा ‘बाघ’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल की प्रतिनिधि कहानियों को ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ की महत्त्वपूर्ण कथाकार चित्रा मुद्गल ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘गेंद’, ‘लेन’, ‘जिनावर’, ‘जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं’, ‘भूख’, ‘प्रेतियोनि’, ‘बलि’, ‘दशरथ का बनवास’, ‘केंचुल’, तथा ‘बाघ’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल की प्रतिनिधि कहानियों को ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
इस तरह भी...
बीसवीं शताब्दी के अंतिम पड़ाव में हिंदी कहानी की अनेक महत्त्वपूर्ण
पत्र-पत्रिकाओं में सौ वर्षों की साहित्यिक विकास यात्रा की उपलब्धियों को
रेखांकित करने की, लगभग होड़-सी मच गई। शताब्दी के हिंदी के बीस कालजयी
उपन्यास सौ वर्षों की सौ प्रतिनिधि कहानियाँ ! सौ वर्षों की पच्चीस
प्रतिनिधि कहानियाँ या पचास चुनी हुई प्रतिनिधि कहानियाँ जैसे अनेक आकलन और
संकलन प्रकाशित हुए और उन पर जमकर विवाद हुआ। साथ ही असंतोष ने असहमतियों
के कई रूप धरे। चयनकर्ताओं की निष्पक्षता पर उँगली उठी। उठनी ही थी। न
उठती तो विस्मय होता। चर्चा में रही चीजों को चर्चा में बनाए रखने के लिए
जरूरी भी था। प्रतिवाद में लंबे-लंबे लेख लिखे गए। चयनकर्ताओं की धूमिल हो
आई स्मृति को झाड़-पोंछकर स्मरण कराया गया कि आखिर
‘इन’ या
‘उन’ महत्त्वपूर्ण उपन्यासों को वे किस खाते में ले
जाकर
डालेंगे? फलाँ-फलाँ दिग्गज कहानीकारों की फलाँ-फलाँ कहानी के बिना उनका सौ
वर्षों की सौ प्रतिनिधि कहानियों का यह महत्त्वपूर्ण आयोजन और उसका
प्रयोजन ‘अपना गल्ला अपनी चलनी’ जैसा चाहो वैसा
चलो’ वाली कहावत बनकर नहीं रह गया है ?
आरोप-प्रत्यारोपों के बीच इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय आयोजन था-‘बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ’, जो दशकों में विभाजित अपने संपुष्ट कलेवर में 232 प्रतिनिधि कहानियाँ समेटे बारह खंडों में प्रकाशित हुआ। समीक्षक, कथाकार, संपादक महेश दर्पण की साढ़े पाँच सौ पृष्ठों की क्रमशः प्रकाशित भूमिका इस आयोजन की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही, जो संभवतः किसी भी प्रतिनिधि कहानी के चयन के पीछे रही स्वयं की दृष्टि और कहानी के जन-सरोकारों की शल्य-क्रिया करते हुए कहानी, अपने समय की किन चुनौतियों से टकराती है और पाठकों की आंतरिक बेचैनी और द्वंद्व का हिस्सा बनते हुए उनकी अपनी हो उठती है, को सतर्क प्रस्तुत किया है।
प्रतिनिधि कहानियों के ऐसे उत्सवी आयोजनों में जब भी उनके संपादकों ने मेरी किसी कहानी को सम्मिलित करने के योग्य समझा और मुझसे उक्त कहानी की प्रतिलिपि प्रेषित करने का अनुरोध किया, तो उनमें से एकाध ने यह भी प्रस्तावित किया कि अगर मैं उस कहानी के संग उन्हें कोई अन्य कहानी भी विचारार्थ भेजना चाहूँ तो भेज सकती हूँ। जाने क्यूँ ऐसी उदारता मुझे उदास और निरुत्साहित करती है। माँगी गई कहानी भेजते हुए मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करती हूँ कि उन्हें अपनी ओर से मैं अपनी कोई अन्य कहानी सुझाने में कठिनाई अनुभव कर रही हूँ। वे स्वयं बताएँ कि क्या मेरी कोई अन्य कहानी उनकी दृष्टि में ऐसी है, जिसे वे मेरी प्रतिनिधि कहानी के रूप में अपने आयोजन में सम्मिलित कर सकते हैं ? क्या उन्होंने मेरी अन्य कहानियाँ पढ़ी हैं ?
उनका उत्तर होता है, उन्होंने मेरी अनेक कहानियाँ पढ़ी हैं। लेकिन सारी कहानियाँ पढ़ पाने का दावा वे नहीं कर सकते।
मेरा तर्क होता है-और जो निश्चय ही उन्हें अनमना कर जाता है-कि ऐसी स्थिति में वे अपने संपादकीय दायित्व के साथ न्याय कैसे कर सकेंगे ? संभव है, जिस कहानी को वे मेरी प्रतिनिधि कहानी के रूप में संकलन में संकलित करने का मन बनाए हुए हैं वह मेरी श्रेष्ठ रचना न हो ? उनका उत्तर होता है, प्रबुद्ध समीक्षकों ने समकालीन हिंदी कहानी के परिदृश्य पर जब भी गंभीरता से आकलनपरक लेख लिखे हैं-मेरी उसी कहानी की चर्चा की है। भला वे उन प्रबुद्ध समीक्षकों की महत्त्वपूर्ण राय की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ?
कचोटें तमाम प्रयत्नों के बावजूद हरियाने लगती हैं। उचित मूल्यांकन के लिए रचनाकार की अतृप्ति घुमड़ती छूट जाती है। और इसे मूल्यांकन मानकर खुश भी कैसे हुआ जा सकता है ! जब भी जिस रूप में होता है और अगर ऐसे होता है तो उससे तो निश्चय ही लेखक की उँगली की एक पोर पर भी मेहँदी नहीं चढ़ती।
यह मूल्यांकन नहीं, सरलीकरण है। सुविधाजनक है।
है न अजीब-सी बात ! लेखक की ढेर सारी कहानियों में से किसी एक कहानी मात्र को उसकी प्रतिनिधि कहानी मान लिया जाता है। ‘कोसी का घटवार’ यानी शेखर जोशी। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ यानी राजेन्द्र यादव। ‘वापसी’ यानी उषा प्रियंवदा। अपराध यानी संजीव। ‘गुलरा के बाबा’ यानी मार्कण्डेय। ‘गदल‘ यानी रांगेय राघव। लंबी लिस्ट है। दशकों से चली आ रही है। राई-रत्ती रद्दोबदल नहीं। इतना भर ही है अवदान ! अधिकांश को गुलेरी की पाँत में लाकर ख़ड़ा कर दिया है। वे एक कहानी से अमर हो गए। लिखीं ही तीन। उन्हें अपवाद माना जाता है-बाकी भी अपवाद हो गए ?
दिक्कतें अनेक हैं और उनमें से एक यह भी हो सकती है कि ऐसे दस्तावेजी संकलनों की योजना जब किसी संपादक के मस्तिष्क में उपजती होगी और उसके क्रियान्वयन का निश्चय होता होगा तो लेखक के कथा-संकलनों की अनुपलब्धता, उसके उद्देश्य में खासी अड़चनें उत्पन्न करती होगी।
हिंदी के विपुल और व्यापक रचना संसार में से किसी लेखक की अनेक समर्थ कहानियों को खोज निकालना समंदर से मोती ढूँढ निकालने जैसा ही दुरूह कार्य है। वह भी तटस्थ दृष्टि से। विचारधारा और खेमेबंदी की संकीर्ण घेरेबंदी से सर्वथा विमुक्त होकर। शोधकार्य वैसे भी आसान काम नहीं। पुस्तकालयों की शरण में जाना होगा और अलमारी में सजी किताबों की धूल झाड़ उनसे रिश्ता कायम करना होगा। दुखद पक्ष तो यह है कि जब ऐसे बहुप्रतीक्षित कथा-संकलन सामने आते हैं और अनुक्रमणिका पर हमारी नजर पड़ती है तो गहन विषाद की छाया अनायास जकड़ लेती है। पाठकीय मन निरुत्साहित हो उठता है। सूची में वही कहानियाँ होती हैं, जिन्हे पहले भी प्रतिनिधि कहानियों के अनेक कथा-संकलनों में पढ़ा जा चुका होता है।
आठ-दस ऐसे संकलनों को साथ में रखकर अगर उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो नतीजा एक ही हाथ लगेगा कि अधिकांश उन्हीं कहानियों का संकलन में स्थान दिया गया है, जो पहले से ही स्थापित हैं। लेखक भी वहीं है। इससे यह आभास होता है और वैसा न सोचने के लिए कोई तर्क भी आगे बढ़कर काट प्रस्तुत नहीं करता कि प्रतिनिधि रचनाओं के चयन में संपादक विशेष की स्वयं की दृष्टि लगभग नदारद है। जिन भी विद् समीक्षकों ने अपने मानदंड़ों की कसौटी पर कसते हुए दशकों पूर्व उन कहानियों को उन लेखकों की प्रतिनिधि कहानी के रूप में व्याख्यायित और रेखांकित किया होगा-आज भी लोग उसी लीक को पीट रहे हैं और पीटते चले जा रहे हैं। असहमति उन प्रतिनिधि कहानियों से नहीं है। सामर्थ्य में वे रचनाएँ निश्चय ही मील का पत्थर हैं। समय की विद्रूपताओं और जन-संघर्षों को गहरी अभिव्यक्ति देतीं। संवेदना-तंतुओं को अपने सघन रचाव से एकबारगी झकझोरतीं। कहानी का नया समाजशास्त्र निर्मित करतीं। किंतु जरूरत इस बात की है कि प्रचलित पर ही निर्भर न रहकर निरंतर नए भावबोधों का उत्खनन करती रचनाओं को खोजा ही न जाए, खोजकर उन्हें उनकी जगह प्रतिष्ठित भी किया जाए ताकि हिंदी कहानी का चेहरा एक रेखकीय न नजर आए और अन्य भाषा-भाषियों को उन्हें पढ़ते हुए ऐसा न प्रतीत हो कि साहब, हिंदी कहानी का बहुकोणीय स्वरूप अविकसित और ठिठका हुआ है। जबकि दूसरी भाषाओं में बहुत अच्छा लिखा जा रहा है और उनका वैविध्य निस्संदेह चमत्कृत करने वाला है !
जैसा कि मैंने पहले भी संकेत किया है कि बड़े काम का सरलीकरण है। उपलब्ध प्रतिनिधि कहानियों को उठा लेने में भला कैसा संकोच ! पुस्तकालय की खाक छानने में महीनों नहीं सालों लग सकते हैं। बीतती सदी उनकी योजना के पूरा होने की प्रतीक्षा में ठहर तो नहीं सकती ! सदी की रचनाओं का मूल्यांकन उसकी अंतिम साँस पूरी होने से पूर्व आ जाने से कम से कम वह सुख-शांति से तो आँखें मूँद सकेगी कि चलो, उसकी उपलब्धियाँ साहित्य में भी कम नहीं रहीं। भविष्य का जिम्मा अगली सदी के कंधों पर। उसका सिर दर्द। तो चुटकियों में संपादक की पांडुलिपि तैयार। केवल भूमि लिखने भर की मेहनत करनी होगी। सिद्ध रचना के पचासों अन्य विद् समीक्षक पहले ही सिद्ध कर चुके हैं तो नए कोण से उसे व्याख्यायित करने की गुंजाइश ही शेष नहीं बचाती। उनकी क्या गलती ?
लेखकों की जरूरत से ज्यादा विनयशीलता भी कम खिन्न करने वाली नहीं है। स्वयं की प्रतिनिधि रचना वे उसे ही मान लेते हैं जिसे समीक्षक ने उदार हो कुर्सी पर बैठा दिया। बड़ी मुश्किल से समीक्षक के मुँह से किसी रचना के लिए ‘अद्भुत’ या ‘मील का पत्थर’ जैसे उद्गार फूटते हैं तो रचना अमूल्य बन जाती है और साहित्य की धरोहर बनने में उसे देर नहीं लगती। जाहिर है, समीक्षक की राय उसके लिए मामूली राय नहीं है। यही वजह है कि कोई जब उससे उसकी प्रतिनिधि कहानी की प्रतिलिप माँगता है तो बिना समय गँवाये वह उसी कहानी की प्रतिलिपि उसे प्रेषित कर देता है। अपेक्षाकृत कम कद के किसी समीक्षक ने उसकी किसी अन्य कहानी को प्रतिनिधि रचना के रूप में रेखांकित किया भी होता है तो उसका उतना साहस नहीं जुटता कि वह उस कहानी को भी अपनी प्रतिनिधि रचना के रूप में स्वीकार कर सके। यानी लेखक स्वयं भेड़चाल का हिस्सा बनने से गुरेज नहीं करता।
पिछले दिनों दूरदर्शन के लिए भारतीय भाषाओं की क्लासिक 22 रचनाओं में से हिंदी की प्रतिनिधि रचनाओं की चयन समिति के सदस्य विद् समीक्षक विश्वनाथ त्रिपाठी ने बताया कि शताब्दी के बीस कालजयी उपन्यासों का चयन करते हुए उन्होंने कृष्णा सोबती के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ को छोड़ उनके दूसरे बहुचर्चित उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ को कालजयी रचना के रूप में चुना। ‘मित्रो मरजानी’ उन्हें ‘जिंदगीनामा’ से बेहतर कृति लगती है किंतु कृष्णा सोबती उनके इस निर्णय से भयंकर खफा हो गईं। उन्होंने निर्णय से असहमति जताते हुए अपनी आपत्ति दर्ज की कि हिंदी क्लासिक उपन्यासों की श्रेणी में उनका ‘जिंदगीनामा’ ही शामिल किया जाना चाहिए था। कृष्णा जी को चयन समिति के इस निर्णय में राजनीति की बू आई। किंतु त्रिपाठी जी का कहना था कि वे आज भी अपने निर्णय पर कायम हैं और ‘मित्रो मरजानी’ को उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानते हैं।
सहमति-असहमति की बात छोड़ दें तो जो बात मुझे कृष्णा जी का मुरीद बनाती है, वह है, उनके लेखक का समीक्षकों के समक्ष घुटने न टेकना। उनके निर्णय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करना। समीक्षकों का मूल्यांकन और रचना को कुर्सी देना उनके लिए पत्थर की लकीर नहीं है, न वे उसे जस का तस स्वीकार करती हैं। संभव है, बहुत-से लेखक समीक्षकों के मूल्यांकन से असहमति रखते हों, मगर उसे दर्ज कराने का साहस वे चाहकर भी नहीं दिखा पाते।
साहित्य के शोधार्थी विद्यार्थियों की कठिनाई यह है कि उपलब्ध समीक्षाएँ और लेखादि उनकी दिशा-निर्देशिका होती हैं। उनके अधिकांश प्रबुद्ध निर्देशकों की भी यही सीमा है। बँधे दायरे में विचरण करना उनकी मजबूरी नहीं है-अकर्मण्यता है। पंक्तियों के बीच अनकहा पाठ उनकी पकड़ में नहीं आता। पकड़ने का प्रयत्न होता है तो चीजें पकड़ में आती भी हैं। साहित्य पढ़ना वैसे भी सबसे आसान काम समझा जाता है और इस तरह की बैरी धारणाओं ने उस मान्यता को और भी पुख्ता किया है कि मूल्यांकन कर्म के लिए जिबह होने की आवश्यकता क्या है ? एक व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा। पूरे देश में अब तक ‘आवा’ पर 33 पी-एच॰डी॰ और एम॰फिल॰ हो रही हैं। चार हो गई हैं। मेरे आग्रह पर शोधार्थियों ने शोध-प्रबंध की एक-एक प्रति अवलोकनार्थ मेरे पास भेजी है।
उन्हें पढ़कर संतुष्ट होना तो दूर की चीज है, स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि प्रकाशित समीक्षाएँ शोधार्थियों के शोध-प्रबंध की आधार भूमि ही नहीं हैं, बल्कि पूरी की पूरी इमारत का ईटा गारा भी वहीं से प्राप्त किया गया है। किसी आयाम से कोई नई पड़ताल पाठकों की विचार-दृष्टि की चौखटें नहीं खोलती। कहानी में होने वाले शोध कार्यों की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही है। पूर्व स्थापनाओं के स्थायी प्रभाव से शोधार्थी स्वयं को बचा नहीं पाते। प्रतिनिधि कहानी के रूप में प्रचलित लेखक की वही कहानी उनके लिए भी प्रतिनिधि होती है। उस कहानी पर अब तक हुए तमाम विश्लेषण, वर्तमान में भी उसकी प्रासंगिकता तो विवेचित,रेखांकित करने वाले अनेक लेख और समीक्षाओं के उद्धरण शोधार्थियों को उस कहानी के इतर लेखक की कोई अन्य प्रतिनिधि कहानी या कहानियाँ खोजने के परिश्रम से दूर धकेल देते हैं।
चौतरफा मार से त्रस्त-ध्वस्त लेखक इस संदर्भ में चूँ-चपड़ न कर इसी बात से प्रसन्न हो लेता है कि चलो, उस पर एम.फिल. और पी॰एच॰डी॰ हो रही है-जैसी भी हो रही है।
हिंदी में पुनर्मूल्यांकन की परंपरा कितनी थी और कितनी शेष रह गई है, इसकी प्रामाणिक जानकारी तो केवल हिंदी विभागों के विभागाध्यक्ष ही दे सकते हैं; लेकिन वर्तमान में जरूरत इस बात की है कि पुनर्मूल्यांकन की लुप्तप्राय सरस्वती को ढूँढ़ निकालना ही पर्याप्त नहीं होगा, उसे यथासंभव सींचना भी होगा।
तटस्थ मूल्यांकन-विरोधी ऐसे विपरीत समय में प्रतिनिधि कहानियों की पुस्तक श्रृंखला आरंभ कर निश्चय ही किताबघर प्रकाशन ने एक स्तुत्य महत्त्वपूर्ण पहल की है। लेखक के कहानी-कर्म के आकलन की दिशा में यह प्रयास मात्र अँजुरी भर जल सही, मगर उसकी विशेष भूमिका बनेगी, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता।
यह विनय कदापि नहीं है कि संकोच और झिझक से भरी होने के बावजूद मैं अपनी कहानियों में से स्वयं अपनी प्रतिधिनि कहानियों का चयन कर रही हूँ। चयन कितना न्यायसंगत होगा इसका दावा भी संभव नहीं। निरंतर यह प्रश्न मेरे विवेक को घेरे हुए ही है कि आखिर मेरे चयन की कसौटी क्या होनी चाहिए ? किसी भी कहानी को कागजों पर उतारते जूझते दूर दूर तक यह भाव निकट नहीं फटकता था कि मेरी प्रतिनिधि कहानी होगी या मैं अपने जीवन की सबसे अच्छी कहानी लिख रही हूँ। दरअसल, मुझे तो लगता है कि मैं कहानी लिखती नहीं हूँ, कहानी मुझमें घटित होती है। घटते हुए में अस्तित्वहीन हो आया लेखक तब यह सोचने के लिए स्वयं उपस्थित ही कहाँ होता है ?
1982 के आस पास कथाकार मणि मधुकर की एक चिट्ठी मिली थी। वे हिंदी की प्रेम-कहानियों पर एक पुस्तक की योजना बना रहे थे-हिंदी की ‘प्रतिनिधि प्रेम कहानियाँ’। मुझसे वे मेरी कहानी ‘केंचुल’ चाहते थे। उन्होंने लिखा कि ‘केंचुल’ मेरी अद्भुत प्रेम-कहानी है। मुबंई की कोस्मापॉलिटन झोपड़पट्टियों में रह रहे लोगों के आत्मसंघर्ष और दबावों से उपजी। चिट्ठी पढ़कर मैं दंग ! ‘पुनश्च’ के महिला विशेषांक में जब ‘केंचुल’ प्रकाशित हुई तो पाठकों से ज्यादा लेखक बंधुओं ने उसकी खुले दिल से प्रशंसा की थी। लघु पत्रिकाएँ वैसे भी पाठकों तक अधिक नहीं पहुँचतीं लेकिन विस्मय जिस बात से हुआ और जिसके बारे में मैंने भी पहले कभी सोचा नहीं था, न प्रशंसा करने वाले बंधुओं ने ही उस पक्ष पर गौर किया, जिसकी ओर मणि मधुकर जी ने ध्यान दिलाया।
‘केंचुल’ एक घाटी के संघर्ष का मर्मस्पर्शी आख्यान मात्र नहीं है, हिंदी की अद्भुत प्रेम-कहानी है। मैंने बिना द्वंद्व में पड़े ‘केंचुल’ को मणि मुधकर जी के पत्र के आधार पर अपनी प्रतिनिधि कहानी के रूप में चयनित कर लिया। शेष कहानियों का चयन भी मैंने इसी आधार पर किया है।
‘ज्ञानरंजन’ ने एक पत्र में लिखा था, ‘साक्षात्कार’ में ‘प्रेतयोनि’ को पढ़ने से पूर्व मैं ‘उत्तरा’ में उसे पढ़ चुका था। कहानी इतनी अच्छी है चित्रा की कई बार कई पत्रिकाओं में छप सकती है।
चयन का यह मानदंड बहुतों को विस्मित करेगा और हो सकता है, वे चयन के मेरे इस तरीके से सहमत न हों; मगर मैं निरुपाय हूँ। यही तरीका सूझा।
किताबघर प्रकाशन के पिछले वार्षिक उत्सव में मंच का संचालन करते हुए (दस प्रतिनिधि कहानियों की पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर) वरिष्ठ कवि अजित कुमार जी की प्रतिक्रिया थी कि लेखकों की प्रतिनिधि कहानियों का चयन उनके द्वारा न होकर किसी अन्य के द्वारा होता तो स्थिति अधिक न्यायसंगत होती।
अजित कुमार जी से मैं सहमत हूँ। प्रश्न यह है कि यह सुझाव उन्हें बहुत पहले सत्यव्रत जी को दे देना चाहिए था। योजना की जानकारी शायद उन्हें नहीं रही होगी।
मैं कटघरे में हूँ और आपकी प्रतिक्रिया शायद वो साँकल खोल दे, जो मुझे यह एहसास करवा सके कि जिम्मेदारी पड़ी तो किसी सीमा तक वह निभाई भी गई। और इस तरह भी निभाई जा सकती है।
बी-105, बर्धमान अपार्टमेंट्स
मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091
आरोप-प्रत्यारोपों के बीच इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय आयोजन था-‘बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ’, जो दशकों में विभाजित अपने संपुष्ट कलेवर में 232 प्रतिनिधि कहानियाँ समेटे बारह खंडों में प्रकाशित हुआ। समीक्षक, कथाकार, संपादक महेश दर्पण की साढ़े पाँच सौ पृष्ठों की क्रमशः प्रकाशित भूमिका इस आयोजन की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही, जो संभवतः किसी भी प्रतिनिधि कहानी के चयन के पीछे रही स्वयं की दृष्टि और कहानी के जन-सरोकारों की शल्य-क्रिया करते हुए कहानी, अपने समय की किन चुनौतियों से टकराती है और पाठकों की आंतरिक बेचैनी और द्वंद्व का हिस्सा बनते हुए उनकी अपनी हो उठती है, को सतर्क प्रस्तुत किया है।
प्रतिनिधि कहानियों के ऐसे उत्सवी आयोजनों में जब भी उनके संपादकों ने मेरी किसी कहानी को सम्मिलित करने के योग्य समझा और मुझसे उक्त कहानी की प्रतिलिपि प्रेषित करने का अनुरोध किया, तो उनमें से एकाध ने यह भी प्रस्तावित किया कि अगर मैं उस कहानी के संग उन्हें कोई अन्य कहानी भी विचारार्थ भेजना चाहूँ तो भेज सकती हूँ। जाने क्यूँ ऐसी उदारता मुझे उदास और निरुत्साहित करती है। माँगी गई कहानी भेजते हुए मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करती हूँ कि उन्हें अपनी ओर से मैं अपनी कोई अन्य कहानी सुझाने में कठिनाई अनुभव कर रही हूँ। वे स्वयं बताएँ कि क्या मेरी कोई अन्य कहानी उनकी दृष्टि में ऐसी है, जिसे वे मेरी प्रतिनिधि कहानी के रूप में अपने आयोजन में सम्मिलित कर सकते हैं ? क्या उन्होंने मेरी अन्य कहानियाँ पढ़ी हैं ?
उनका उत्तर होता है, उन्होंने मेरी अनेक कहानियाँ पढ़ी हैं। लेकिन सारी कहानियाँ पढ़ पाने का दावा वे नहीं कर सकते।
मेरा तर्क होता है-और जो निश्चय ही उन्हें अनमना कर जाता है-कि ऐसी स्थिति में वे अपने संपादकीय दायित्व के साथ न्याय कैसे कर सकेंगे ? संभव है, जिस कहानी को वे मेरी प्रतिनिधि कहानी के रूप में संकलन में संकलित करने का मन बनाए हुए हैं वह मेरी श्रेष्ठ रचना न हो ? उनका उत्तर होता है, प्रबुद्ध समीक्षकों ने समकालीन हिंदी कहानी के परिदृश्य पर जब भी गंभीरता से आकलनपरक लेख लिखे हैं-मेरी उसी कहानी की चर्चा की है। भला वे उन प्रबुद्ध समीक्षकों की महत्त्वपूर्ण राय की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ?
कचोटें तमाम प्रयत्नों के बावजूद हरियाने लगती हैं। उचित मूल्यांकन के लिए रचनाकार की अतृप्ति घुमड़ती छूट जाती है। और इसे मूल्यांकन मानकर खुश भी कैसे हुआ जा सकता है ! जब भी जिस रूप में होता है और अगर ऐसे होता है तो उससे तो निश्चय ही लेखक की उँगली की एक पोर पर भी मेहँदी नहीं चढ़ती।
यह मूल्यांकन नहीं, सरलीकरण है। सुविधाजनक है।
है न अजीब-सी बात ! लेखक की ढेर सारी कहानियों में से किसी एक कहानी मात्र को उसकी प्रतिनिधि कहानी मान लिया जाता है। ‘कोसी का घटवार’ यानी शेखर जोशी। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ यानी राजेन्द्र यादव। ‘वापसी’ यानी उषा प्रियंवदा। अपराध यानी संजीव। ‘गुलरा के बाबा’ यानी मार्कण्डेय। ‘गदल‘ यानी रांगेय राघव। लंबी लिस्ट है। दशकों से चली आ रही है। राई-रत्ती रद्दोबदल नहीं। इतना भर ही है अवदान ! अधिकांश को गुलेरी की पाँत में लाकर ख़ड़ा कर दिया है। वे एक कहानी से अमर हो गए। लिखीं ही तीन। उन्हें अपवाद माना जाता है-बाकी भी अपवाद हो गए ?
दिक्कतें अनेक हैं और उनमें से एक यह भी हो सकती है कि ऐसे दस्तावेजी संकलनों की योजना जब किसी संपादक के मस्तिष्क में उपजती होगी और उसके क्रियान्वयन का निश्चय होता होगा तो लेखक के कथा-संकलनों की अनुपलब्धता, उसके उद्देश्य में खासी अड़चनें उत्पन्न करती होगी।
हिंदी के विपुल और व्यापक रचना संसार में से किसी लेखक की अनेक समर्थ कहानियों को खोज निकालना समंदर से मोती ढूँढ निकालने जैसा ही दुरूह कार्य है। वह भी तटस्थ दृष्टि से। विचारधारा और खेमेबंदी की संकीर्ण घेरेबंदी से सर्वथा विमुक्त होकर। शोधकार्य वैसे भी आसान काम नहीं। पुस्तकालयों की शरण में जाना होगा और अलमारी में सजी किताबों की धूल झाड़ उनसे रिश्ता कायम करना होगा। दुखद पक्ष तो यह है कि जब ऐसे बहुप्रतीक्षित कथा-संकलन सामने आते हैं और अनुक्रमणिका पर हमारी नजर पड़ती है तो गहन विषाद की छाया अनायास जकड़ लेती है। पाठकीय मन निरुत्साहित हो उठता है। सूची में वही कहानियाँ होती हैं, जिन्हे पहले भी प्रतिनिधि कहानियों के अनेक कथा-संकलनों में पढ़ा जा चुका होता है।
आठ-दस ऐसे संकलनों को साथ में रखकर अगर उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो नतीजा एक ही हाथ लगेगा कि अधिकांश उन्हीं कहानियों का संकलन में स्थान दिया गया है, जो पहले से ही स्थापित हैं। लेखक भी वहीं है। इससे यह आभास होता है और वैसा न सोचने के लिए कोई तर्क भी आगे बढ़कर काट प्रस्तुत नहीं करता कि प्रतिनिधि रचनाओं के चयन में संपादक विशेष की स्वयं की दृष्टि लगभग नदारद है। जिन भी विद् समीक्षकों ने अपने मानदंड़ों की कसौटी पर कसते हुए दशकों पूर्व उन कहानियों को उन लेखकों की प्रतिनिधि कहानी के रूप में व्याख्यायित और रेखांकित किया होगा-आज भी लोग उसी लीक को पीट रहे हैं और पीटते चले जा रहे हैं। असहमति उन प्रतिनिधि कहानियों से नहीं है। सामर्थ्य में वे रचनाएँ निश्चय ही मील का पत्थर हैं। समय की विद्रूपताओं और जन-संघर्षों को गहरी अभिव्यक्ति देतीं। संवेदना-तंतुओं को अपने सघन रचाव से एकबारगी झकझोरतीं। कहानी का नया समाजशास्त्र निर्मित करतीं। किंतु जरूरत इस बात की है कि प्रचलित पर ही निर्भर न रहकर निरंतर नए भावबोधों का उत्खनन करती रचनाओं को खोजा ही न जाए, खोजकर उन्हें उनकी जगह प्रतिष्ठित भी किया जाए ताकि हिंदी कहानी का चेहरा एक रेखकीय न नजर आए और अन्य भाषा-भाषियों को उन्हें पढ़ते हुए ऐसा न प्रतीत हो कि साहब, हिंदी कहानी का बहुकोणीय स्वरूप अविकसित और ठिठका हुआ है। जबकि दूसरी भाषाओं में बहुत अच्छा लिखा जा रहा है और उनका वैविध्य निस्संदेह चमत्कृत करने वाला है !
जैसा कि मैंने पहले भी संकेत किया है कि बड़े काम का सरलीकरण है। उपलब्ध प्रतिनिधि कहानियों को उठा लेने में भला कैसा संकोच ! पुस्तकालय की खाक छानने में महीनों नहीं सालों लग सकते हैं। बीतती सदी उनकी योजना के पूरा होने की प्रतीक्षा में ठहर तो नहीं सकती ! सदी की रचनाओं का मूल्यांकन उसकी अंतिम साँस पूरी होने से पूर्व आ जाने से कम से कम वह सुख-शांति से तो आँखें मूँद सकेगी कि चलो, उसकी उपलब्धियाँ साहित्य में भी कम नहीं रहीं। भविष्य का जिम्मा अगली सदी के कंधों पर। उसका सिर दर्द। तो चुटकियों में संपादक की पांडुलिपि तैयार। केवल भूमि लिखने भर की मेहनत करनी होगी। सिद्ध रचना के पचासों अन्य विद् समीक्षक पहले ही सिद्ध कर चुके हैं तो नए कोण से उसे व्याख्यायित करने की गुंजाइश ही शेष नहीं बचाती। उनकी क्या गलती ?
लेखकों की जरूरत से ज्यादा विनयशीलता भी कम खिन्न करने वाली नहीं है। स्वयं की प्रतिनिधि रचना वे उसे ही मान लेते हैं जिसे समीक्षक ने उदार हो कुर्सी पर बैठा दिया। बड़ी मुश्किल से समीक्षक के मुँह से किसी रचना के लिए ‘अद्भुत’ या ‘मील का पत्थर’ जैसे उद्गार फूटते हैं तो रचना अमूल्य बन जाती है और साहित्य की धरोहर बनने में उसे देर नहीं लगती। जाहिर है, समीक्षक की राय उसके लिए मामूली राय नहीं है। यही वजह है कि कोई जब उससे उसकी प्रतिनिधि कहानी की प्रतिलिप माँगता है तो बिना समय गँवाये वह उसी कहानी की प्रतिलिपि उसे प्रेषित कर देता है। अपेक्षाकृत कम कद के किसी समीक्षक ने उसकी किसी अन्य कहानी को प्रतिनिधि रचना के रूप में रेखांकित किया भी होता है तो उसका उतना साहस नहीं जुटता कि वह उस कहानी को भी अपनी प्रतिनिधि रचना के रूप में स्वीकार कर सके। यानी लेखक स्वयं भेड़चाल का हिस्सा बनने से गुरेज नहीं करता।
पिछले दिनों दूरदर्शन के लिए भारतीय भाषाओं की क्लासिक 22 रचनाओं में से हिंदी की प्रतिनिधि रचनाओं की चयन समिति के सदस्य विद् समीक्षक विश्वनाथ त्रिपाठी ने बताया कि शताब्दी के बीस कालजयी उपन्यासों का चयन करते हुए उन्होंने कृष्णा सोबती के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ को छोड़ उनके दूसरे बहुचर्चित उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ को कालजयी रचना के रूप में चुना। ‘मित्रो मरजानी’ उन्हें ‘जिंदगीनामा’ से बेहतर कृति लगती है किंतु कृष्णा सोबती उनके इस निर्णय से भयंकर खफा हो गईं। उन्होंने निर्णय से असहमति जताते हुए अपनी आपत्ति दर्ज की कि हिंदी क्लासिक उपन्यासों की श्रेणी में उनका ‘जिंदगीनामा’ ही शामिल किया जाना चाहिए था। कृष्णा जी को चयन समिति के इस निर्णय में राजनीति की बू आई। किंतु त्रिपाठी जी का कहना था कि वे आज भी अपने निर्णय पर कायम हैं और ‘मित्रो मरजानी’ को उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानते हैं।
सहमति-असहमति की बात छोड़ दें तो जो बात मुझे कृष्णा जी का मुरीद बनाती है, वह है, उनके लेखक का समीक्षकों के समक्ष घुटने न टेकना। उनके निर्णय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करना। समीक्षकों का मूल्यांकन और रचना को कुर्सी देना उनके लिए पत्थर की लकीर नहीं है, न वे उसे जस का तस स्वीकार करती हैं। संभव है, बहुत-से लेखक समीक्षकों के मूल्यांकन से असहमति रखते हों, मगर उसे दर्ज कराने का साहस वे चाहकर भी नहीं दिखा पाते।
साहित्य के शोधार्थी विद्यार्थियों की कठिनाई यह है कि उपलब्ध समीक्षाएँ और लेखादि उनकी दिशा-निर्देशिका होती हैं। उनके अधिकांश प्रबुद्ध निर्देशकों की भी यही सीमा है। बँधे दायरे में विचरण करना उनकी मजबूरी नहीं है-अकर्मण्यता है। पंक्तियों के बीच अनकहा पाठ उनकी पकड़ में नहीं आता। पकड़ने का प्रयत्न होता है तो चीजें पकड़ में आती भी हैं। साहित्य पढ़ना वैसे भी सबसे आसान काम समझा जाता है और इस तरह की बैरी धारणाओं ने उस मान्यता को और भी पुख्ता किया है कि मूल्यांकन कर्म के लिए जिबह होने की आवश्यकता क्या है ? एक व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा। पूरे देश में अब तक ‘आवा’ पर 33 पी-एच॰डी॰ और एम॰फिल॰ हो रही हैं। चार हो गई हैं। मेरे आग्रह पर शोधार्थियों ने शोध-प्रबंध की एक-एक प्रति अवलोकनार्थ मेरे पास भेजी है।
उन्हें पढ़कर संतुष्ट होना तो दूर की चीज है, स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि प्रकाशित समीक्षाएँ शोधार्थियों के शोध-प्रबंध की आधार भूमि ही नहीं हैं, बल्कि पूरी की पूरी इमारत का ईटा गारा भी वहीं से प्राप्त किया गया है। किसी आयाम से कोई नई पड़ताल पाठकों की विचार-दृष्टि की चौखटें नहीं खोलती। कहानी में होने वाले शोध कार्यों की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही है। पूर्व स्थापनाओं के स्थायी प्रभाव से शोधार्थी स्वयं को बचा नहीं पाते। प्रतिनिधि कहानी के रूप में प्रचलित लेखक की वही कहानी उनके लिए भी प्रतिनिधि होती है। उस कहानी पर अब तक हुए तमाम विश्लेषण, वर्तमान में भी उसकी प्रासंगिकता तो विवेचित,रेखांकित करने वाले अनेक लेख और समीक्षाओं के उद्धरण शोधार्थियों को उस कहानी के इतर लेखक की कोई अन्य प्रतिनिधि कहानी या कहानियाँ खोजने के परिश्रम से दूर धकेल देते हैं।
चौतरफा मार से त्रस्त-ध्वस्त लेखक इस संदर्भ में चूँ-चपड़ न कर इसी बात से प्रसन्न हो लेता है कि चलो, उस पर एम.फिल. और पी॰एच॰डी॰ हो रही है-जैसी भी हो रही है।
हिंदी में पुनर्मूल्यांकन की परंपरा कितनी थी और कितनी शेष रह गई है, इसकी प्रामाणिक जानकारी तो केवल हिंदी विभागों के विभागाध्यक्ष ही दे सकते हैं; लेकिन वर्तमान में जरूरत इस बात की है कि पुनर्मूल्यांकन की लुप्तप्राय सरस्वती को ढूँढ़ निकालना ही पर्याप्त नहीं होगा, उसे यथासंभव सींचना भी होगा।
तटस्थ मूल्यांकन-विरोधी ऐसे विपरीत समय में प्रतिनिधि कहानियों की पुस्तक श्रृंखला आरंभ कर निश्चय ही किताबघर प्रकाशन ने एक स्तुत्य महत्त्वपूर्ण पहल की है। लेखक के कहानी-कर्म के आकलन की दिशा में यह प्रयास मात्र अँजुरी भर जल सही, मगर उसकी विशेष भूमिका बनेगी, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता।
यह विनय कदापि नहीं है कि संकोच और झिझक से भरी होने के बावजूद मैं अपनी कहानियों में से स्वयं अपनी प्रतिधिनि कहानियों का चयन कर रही हूँ। चयन कितना न्यायसंगत होगा इसका दावा भी संभव नहीं। निरंतर यह प्रश्न मेरे विवेक को घेरे हुए ही है कि आखिर मेरे चयन की कसौटी क्या होनी चाहिए ? किसी भी कहानी को कागजों पर उतारते जूझते दूर दूर तक यह भाव निकट नहीं फटकता था कि मेरी प्रतिनिधि कहानी होगी या मैं अपने जीवन की सबसे अच्छी कहानी लिख रही हूँ। दरअसल, मुझे तो लगता है कि मैं कहानी लिखती नहीं हूँ, कहानी मुझमें घटित होती है। घटते हुए में अस्तित्वहीन हो आया लेखक तब यह सोचने के लिए स्वयं उपस्थित ही कहाँ होता है ?
1982 के आस पास कथाकार मणि मधुकर की एक चिट्ठी मिली थी। वे हिंदी की प्रेम-कहानियों पर एक पुस्तक की योजना बना रहे थे-हिंदी की ‘प्रतिनिधि प्रेम कहानियाँ’। मुझसे वे मेरी कहानी ‘केंचुल’ चाहते थे। उन्होंने लिखा कि ‘केंचुल’ मेरी अद्भुत प्रेम-कहानी है। मुबंई की कोस्मापॉलिटन झोपड़पट्टियों में रह रहे लोगों के आत्मसंघर्ष और दबावों से उपजी। चिट्ठी पढ़कर मैं दंग ! ‘पुनश्च’ के महिला विशेषांक में जब ‘केंचुल’ प्रकाशित हुई तो पाठकों से ज्यादा लेखक बंधुओं ने उसकी खुले दिल से प्रशंसा की थी। लघु पत्रिकाएँ वैसे भी पाठकों तक अधिक नहीं पहुँचतीं लेकिन विस्मय जिस बात से हुआ और जिसके बारे में मैंने भी पहले कभी सोचा नहीं था, न प्रशंसा करने वाले बंधुओं ने ही उस पक्ष पर गौर किया, जिसकी ओर मणि मधुकर जी ने ध्यान दिलाया।
‘केंचुल’ एक घाटी के संघर्ष का मर्मस्पर्शी आख्यान मात्र नहीं है, हिंदी की अद्भुत प्रेम-कहानी है। मैंने बिना द्वंद्व में पड़े ‘केंचुल’ को मणि मुधकर जी के पत्र के आधार पर अपनी प्रतिनिधि कहानी के रूप में चयनित कर लिया। शेष कहानियों का चयन भी मैंने इसी आधार पर किया है।
‘ज्ञानरंजन’ ने एक पत्र में लिखा था, ‘साक्षात्कार’ में ‘प्रेतयोनि’ को पढ़ने से पूर्व मैं ‘उत्तरा’ में उसे पढ़ चुका था। कहानी इतनी अच्छी है चित्रा की कई बार कई पत्रिकाओं में छप सकती है।
चयन का यह मानदंड बहुतों को विस्मित करेगा और हो सकता है, वे चयन के मेरे इस तरीके से सहमत न हों; मगर मैं निरुपाय हूँ। यही तरीका सूझा।
किताबघर प्रकाशन के पिछले वार्षिक उत्सव में मंच का संचालन करते हुए (दस प्रतिनिधि कहानियों की पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर) वरिष्ठ कवि अजित कुमार जी की प्रतिक्रिया थी कि लेखकों की प्रतिनिधि कहानियों का चयन उनके द्वारा न होकर किसी अन्य के द्वारा होता तो स्थिति अधिक न्यायसंगत होती।
अजित कुमार जी से मैं सहमत हूँ। प्रश्न यह है कि यह सुझाव उन्हें बहुत पहले सत्यव्रत जी को दे देना चाहिए था। योजना की जानकारी शायद उन्हें नहीं रही होगी।
मैं कटघरे में हूँ और आपकी प्रतिक्रिया शायद वो साँकल खोल दे, जो मुझे यह एहसास करवा सके कि जिम्मेदारी पड़ी तो किसी सीमा तक वह निभाई भी गई। और इस तरह भी निभाई जा सकती है।
बी-105, बर्धमान अपार्टमेंट्स
मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091
चित्रा मुद्गल
गेंद
‘‘अंकल...ओ अंकल !...प्लीज. सुनिए न
अंकल....!’’
सँकरी सड़क से लगभग सटे बँगले की फेंसिंग के उस ओर से किसी बच्चे ने उन्हें पुकारा।
सचदेवा जी ठिठके, आवाज कहाँ से आई, भाँपने। कुछ समझ नहीं पाए। कानों और गंजे सिर को ढके कसकर लपेटे हुए मफलर को उन्होंने तनिक ढीला किया। मधुमेह का सीधा आक्रमण उनकी श्रवण-शक्ति पर हुआ है। अकसर मन चोट खा जाता है जब उनके न सुनने पर सामने वाला व्यक्ति अपनी खीज को संयत स्वर के बावजूद दबा नहीं पाता। सात-आठ महीने से ऊपर ही रहे होंगे। विनय को अपनी परेशानी लिख भेजी थी उन्होंने। जवाब में उसने फोन खटका दिया। श्रवण-यंत्र के लिए वह उनके नाम रुपए भेज रहा है। आश्रम वालों की सहायता से अपना इलाज करवा लें। बड़े दिनों तक वे अपने नाम आने वाले रुपयों का इंतजार करते रहे। गुस्से में आकर उन्होंने उसे एक और खत लिखा। जवाब में उसका एक और फोन आया। एक पीचेदे काम में उलझा हुआ था। इसीलिए उन्हें रुपए नहीं भेज पाया। अगले महीने हैरो के एक भारतीय मित्र आ रहे हैं। घर उनका लाजपत नगर में है। फोन नंबर लिख लें उनके घर का।
उनके हाथों पौंड्स भेज रहा हूँ। रुपये या तो वे स्वयं आश्रम आकर पहुँचा जाएँगे या किसी के हाथों भेज देंगे। नाम है उनका डॉ. मनीष कुशवाहा। डॉ. मनीष कुशवाहा का फोन आ गया। रामेश्वर ने सूचना दी तो उमगकर फोन सुनने पहुँचे। मनीष कुशवाहा ने बड़ी आत्मीयता से उनका हाल-चाल पूछा। जानना चाहा, क्या क्या तकलीफें हैं उन्हें। शुगर कितना है ? ब्लडप्रेशर के लिए कौन-सी गोली ले रहे हैं ? कितनी ले रहे हैं ? पेशाब में यूरिया की जाँच करवाई ? करवा लें। क्यों अकेले रह रहे हैं वहाँ ? विनय के पास लंदन क्यों नहीं चले जाते ? उसकी बीवी...यानी उनकी बहू तो स्वयं डॉक्टर है.,...! रुपयों की कोई बात ही न शुरू हुई हो। झिझकते हुए उन्होंने खुद ही पूछ लिया, ‘‘बेटा, विनय ने तुम्हारे हाथों इलाज के लिए कुछ रुपये भेजने को कहा था।’’
मनीष। को सहसा स्मरण हो आया-‘‘कहा तो था विनय ने, आश्रम का फोन नंबर लिख लो, बाबूजी के लिए कुछ रुपये भिजवाने हैं....मगर मेरे निकलने तक...दरअसल, मुझे अभी अति व्यस्तता में समय नहीं मिला कि मैं उन्हें याद दिला देता...’’
विनय को चिट्ठी लिखने बैठे तो काँपने वाले हाथ गुस्से से अधिक कुछ अधिक ही थर्राने लगे। अक्षर पढ़ने लायक हो पाएँ तभी न अपनी बात कह पाएँगे ! तय किया। फोन पर खरी-खोटी सुना कर ही चैन लेंगे। फोन पर मिली मारग्रेट। बोली, कि वह उनकी बात समझ नहीं पा रही। विनय घर पर नहीं है। मैनचेस्टर गया हुआ है। मारग्रेट के सर्वथा असंबंधित भाव ने उन्हें क्षुब्ध कर दिया। छलनी हो उठे। बहू के साथ बात-बर्ताव का कोई तरीका है यह ? फोन लगभग पटक दिया उन्होंने। कुछ और हो नहीं सकता था। क्रोध में वे सिर्फ हिंदी बोल पाते हैं या पंजाबी। मारग्रेट उनकी अंग्रेजी नहीं समझती तो हिंदी, पंजाबी कैसे समझेगी ? पोती सुवीना से बातें न कर पाने का मलाल कोंचता रहा। हालाँकि बातें तो वह उस गुड़िया की भी नहीं समझते।
ढीले किए गए मफलर में ठंडी हवा सुरसुराती धँसी चली आ रही। ढीठ !
नवंबर के किनारे लगते दिन हैं। ठंड की अवाती सभी को सोहती है। उन्हें बिलकुल नहीं। साँझ असमय सिंदूरी होने लगती। धुँधलका डग नहीं भरता। छलाँग भर बेलज्ज अँधेरे की बाँह में डूब लेता है। आश्रम से सैर को निकले नहीं कि पलटने की खदबद मचने लगती।
मफलर कसकर लपेट आगे बढ़े, ताकि ‘मदर डेयरी’ तक पहुँचने का नियम पूरा हो ले। नियम पूरा ने होने से उद्विग्नता होती है। किसी ने पुकारा नहीं। कौन पुकारेगा ? भ्रम हुआ है। भ्रम खूब खबरमाने लगे हैं इधर। अपनी सुध में दवाई की गोलियाँ रखते हैं पलंग से सटी तिपाई पर, मिलती हैं धरी तकिए पर !
अगल-बगल मुड़कर देख लिया। न सड़क के इस पार न उस पार ही कोई दिखा। हो तब ही न दिखे !
कदम बढ़ा लिया उन्होंने। कब तक भकुआए-से खड़े रहें ?
पहले वे चार-पाँच जने इकट्ठे हो शाम को टहलने निकलते। एक-एक कर वे सारे बिस्तर से लग गए। बीसेक रोज पहले तक उनका रूम-पार्टनर कपूर साथ आया करता था। अचानक उसके दोनों पाँवों में फीलपाव हो गया। डॉक्टर वर्मा ने बिस्तर से उतरने की मनाही कर दी। कपूर उन्हें भी सयानी हिदायत दे रहा था कि टहलने अकेले न जाया करें। एक तो संग-साथ में सैर-सूर का मजा ही कुछ और होता है, और फिर एक-दूसरे का ख्याल भी रखते चलते हैं। सावित्री बहन जी नहीं बता रही थीं मिस्टर चड्ढा का किस्सा ? राह चलते अटैक आया, वहीं ढेर हो गए। तीन घंटे बाद जाकर कहीं खबर लगी। सेहत का खयाल करना ही है तो आश्रम के भीतर ही आठ-दस चक्कर मार लिया करें।
बूढ़ी हड्डियों को बुढ़ापा ही टँगड़ी मारता है।....
कपूर की सलाह ठीक लगकर भी अमल करने लायक नहीं लगी। उन्हें मधुमेह है। केवल गोलियों के बूते पर मोर्चा नहीं लिया जा सकता इस नरभक्षी रोग से। रोजो जिंदा थी तो उन्हें कभी अपनी फिक्र नहीं करनी पड़ी। नित नए नुस्खे घोंट-घोंटकर पिलाती रहती। करेले का रस, मेथी का पानी, जामुन की गुठली की फंकी...और न जाने क्या-क्या !
‘‘येऽऽ अंकल...चाऽऽ च, इधर पीछे देखिए न ! कब से बुला रहा हूँ...फेंसिंग के पीछे हूँ मैं।’’
‘‘पीछे इधर आइए...इधर देखिए न...’’ फेंसिंग के पीछे से उचकता बच्चा उनकी बेध्यानी पर झुँझलाया।
हकबकाए-से वे पुनः ठिठककर पीछे मुड़े। अबकी सही ठिकाने पर नजर टिकी-‘‘ओऽऽ तू पुकार रहा है मुझे ?’’ फेंसिंग के उस पार से बच्चे के उचकते चेहरे ने उन्हें एक बारगी हुलास से भर दिया।
‘‘क्यों भई, किस वास्ते...?’’
उसका स्वर अनमनाया, ‘‘मेरी गेंद बाहर चली गई है।’’
‘‘कैसे ?’’
बच्चे का स्वर उनके फिजूल-से प्रश्न से खीझा-‘‘बॉलिंग कर रहा था।’’
‘‘अच्छा।...तो बाहर आकर खुद क्यों नहीं ढूँढ़ लेते अपनी गेंद ?’’
बच्चे का आशय भाँप वे मुस्कराए।
‘‘गेट में ताला लगा हुआ है।’’
ताला खुलवा लो मम्मी से !’’
‘‘मम्मी नर्सिंग होम गई हैं।’’
‘‘नौकरानी तो होगी घर में कोई ?’’
‘‘बुद्धिराम गाँव गया है। घर पे मैं अकेला हूँ। मम्मी बाहर से बंद करके चली गई हैं।’’ बच्चे के गबदू भोले मुख पर लाचारी ने पंजा कसा।
‘‘हूँअ, अकेले खेल रहे हो ?’’
‘‘अकेले...मम्मी किसी बच्चे के साथ खेलने नहीं देतीं।’’
‘‘भला वो क्यों ?’’
‘‘मुझे भी गुस्सा आता है, बोलती हैं-बिगड़ जाओगे। यहाँ के बच्चे जंगली हैं।’’
‘‘बड़ी गलत सोच है। खैर...। तुम्हें नर्सिंग हों साथ लेकर क्यों नहीं गईं ?’’
माँ की बेवकूफी पर उन्हें गुस्सा आया। घंटे-आध घंटे की ही बात तो थी, बच्चे को इस तरह अकेला छोड़ता है कोई ?
‘‘मम्मी घंटे-भर में नहीं लौटेंगी अंकल, रात को नौ बजे के बाद लौटेंगी।’’
सँकरी सड़क से लगभग सटे बँगले की फेंसिंग के उस ओर से किसी बच्चे ने उन्हें पुकारा।
सचदेवा जी ठिठके, आवाज कहाँ से आई, भाँपने। कुछ समझ नहीं पाए। कानों और गंजे सिर को ढके कसकर लपेटे हुए मफलर को उन्होंने तनिक ढीला किया। मधुमेह का सीधा आक्रमण उनकी श्रवण-शक्ति पर हुआ है। अकसर मन चोट खा जाता है जब उनके न सुनने पर सामने वाला व्यक्ति अपनी खीज को संयत स्वर के बावजूद दबा नहीं पाता। सात-आठ महीने से ऊपर ही रहे होंगे। विनय को अपनी परेशानी लिख भेजी थी उन्होंने। जवाब में उसने फोन खटका दिया। श्रवण-यंत्र के लिए वह उनके नाम रुपए भेज रहा है। आश्रम वालों की सहायता से अपना इलाज करवा लें। बड़े दिनों तक वे अपने नाम आने वाले रुपयों का इंतजार करते रहे। गुस्से में आकर उन्होंने उसे एक और खत लिखा। जवाब में उसका एक और फोन आया। एक पीचेदे काम में उलझा हुआ था। इसीलिए उन्हें रुपए नहीं भेज पाया। अगले महीने हैरो के एक भारतीय मित्र आ रहे हैं। घर उनका लाजपत नगर में है। फोन नंबर लिख लें उनके घर का।
उनके हाथों पौंड्स भेज रहा हूँ। रुपये या तो वे स्वयं आश्रम आकर पहुँचा जाएँगे या किसी के हाथों भेज देंगे। नाम है उनका डॉ. मनीष कुशवाहा। डॉ. मनीष कुशवाहा का फोन आ गया। रामेश्वर ने सूचना दी तो उमगकर फोन सुनने पहुँचे। मनीष कुशवाहा ने बड़ी आत्मीयता से उनका हाल-चाल पूछा। जानना चाहा, क्या क्या तकलीफें हैं उन्हें। शुगर कितना है ? ब्लडप्रेशर के लिए कौन-सी गोली ले रहे हैं ? कितनी ले रहे हैं ? पेशाब में यूरिया की जाँच करवाई ? करवा लें। क्यों अकेले रह रहे हैं वहाँ ? विनय के पास लंदन क्यों नहीं चले जाते ? उसकी बीवी...यानी उनकी बहू तो स्वयं डॉक्टर है.,...! रुपयों की कोई बात ही न शुरू हुई हो। झिझकते हुए उन्होंने खुद ही पूछ लिया, ‘‘बेटा, विनय ने तुम्हारे हाथों इलाज के लिए कुछ रुपये भेजने को कहा था।’’
मनीष। को सहसा स्मरण हो आया-‘‘कहा तो था विनय ने, आश्रम का फोन नंबर लिख लो, बाबूजी के लिए कुछ रुपये भिजवाने हैं....मगर मेरे निकलने तक...दरअसल, मुझे अभी अति व्यस्तता में समय नहीं मिला कि मैं उन्हें याद दिला देता...’’
विनय को चिट्ठी लिखने बैठे तो काँपने वाले हाथ गुस्से से अधिक कुछ अधिक ही थर्राने लगे। अक्षर पढ़ने लायक हो पाएँ तभी न अपनी बात कह पाएँगे ! तय किया। फोन पर खरी-खोटी सुना कर ही चैन लेंगे। फोन पर मिली मारग्रेट। बोली, कि वह उनकी बात समझ नहीं पा रही। विनय घर पर नहीं है। मैनचेस्टर गया हुआ है। मारग्रेट के सर्वथा असंबंधित भाव ने उन्हें क्षुब्ध कर दिया। छलनी हो उठे। बहू के साथ बात-बर्ताव का कोई तरीका है यह ? फोन लगभग पटक दिया उन्होंने। कुछ और हो नहीं सकता था। क्रोध में वे सिर्फ हिंदी बोल पाते हैं या पंजाबी। मारग्रेट उनकी अंग्रेजी नहीं समझती तो हिंदी, पंजाबी कैसे समझेगी ? पोती सुवीना से बातें न कर पाने का मलाल कोंचता रहा। हालाँकि बातें तो वह उस गुड़िया की भी नहीं समझते।
ढीले किए गए मफलर में ठंडी हवा सुरसुराती धँसी चली आ रही। ढीठ !
नवंबर के किनारे लगते दिन हैं। ठंड की अवाती सभी को सोहती है। उन्हें बिलकुल नहीं। साँझ असमय सिंदूरी होने लगती। धुँधलका डग नहीं भरता। छलाँग भर बेलज्ज अँधेरे की बाँह में डूब लेता है। आश्रम से सैर को निकले नहीं कि पलटने की खदबद मचने लगती।
मफलर कसकर लपेट आगे बढ़े, ताकि ‘मदर डेयरी’ तक पहुँचने का नियम पूरा हो ले। नियम पूरा ने होने से उद्विग्नता होती है। किसी ने पुकारा नहीं। कौन पुकारेगा ? भ्रम हुआ है। भ्रम खूब खबरमाने लगे हैं इधर। अपनी सुध में दवाई की गोलियाँ रखते हैं पलंग से सटी तिपाई पर, मिलती हैं धरी तकिए पर !
अगल-बगल मुड़कर देख लिया। न सड़क के इस पार न उस पार ही कोई दिखा। हो तब ही न दिखे !
कदम बढ़ा लिया उन्होंने। कब तक भकुआए-से खड़े रहें ?
पहले वे चार-पाँच जने इकट्ठे हो शाम को टहलने निकलते। एक-एक कर वे सारे बिस्तर से लग गए। बीसेक रोज पहले तक उनका रूम-पार्टनर कपूर साथ आया करता था। अचानक उसके दोनों पाँवों में फीलपाव हो गया। डॉक्टर वर्मा ने बिस्तर से उतरने की मनाही कर दी। कपूर उन्हें भी सयानी हिदायत दे रहा था कि टहलने अकेले न जाया करें। एक तो संग-साथ में सैर-सूर का मजा ही कुछ और होता है, और फिर एक-दूसरे का ख्याल भी रखते चलते हैं। सावित्री बहन जी नहीं बता रही थीं मिस्टर चड्ढा का किस्सा ? राह चलते अटैक आया, वहीं ढेर हो गए। तीन घंटे बाद जाकर कहीं खबर लगी। सेहत का खयाल करना ही है तो आश्रम के भीतर ही आठ-दस चक्कर मार लिया करें।
बूढ़ी हड्डियों को बुढ़ापा ही टँगड़ी मारता है।....
कपूर की सलाह ठीक लगकर भी अमल करने लायक नहीं लगी। उन्हें मधुमेह है। केवल गोलियों के बूते पर मोर्चा नहीं लिया जा सकता इस नरभक्षी रोग से। रोजो जिंदा थी तो उन्हें कभी अपनी फिक्र नहीं करनी पड़ी। नित नए नुस्खे घोंट-घोंटकर पिलाती रहती। करेले का रस, मेथी का पानी, जामुन की गुठली की फंकी...और न जाने क्या-क्या !
‘‘येऽऽ अंकल...चाऽऽ च, इधर पीछे देखिए न ! कब से बुला रहा हूँ...फेंसिंग के पीछे हूँ मैं।’’
‘‘पीछे इधर आइए...इधर देखिए न...’’ फेंसिंग के पीछे से उचकता बच्चा उनकी बेध्यानी पर झुँझलाया।
हकबकाए-से वे पुनः ठिठककर पीछे मुड़े। अबकी सही ठिकाने पर नजर टिकी-‘‘ओऽऽ तू पुकार रहा है मुझे ?’’ फेंसिंग के उस पार से बच्चे के उचकते चेहरे ने उन्हें एक बारगी हुलास से भर दिया।
‘‘क्यों भई, किस वास्ते...?’’
उसका स्वर अनमनाया, ‘‘मेरी गेंद बाहर चली गई है।’’
‘‘कैसे ?’’
बच्चे का स्वर उनके फिजूल-से प्रश्न से खीझा-‘‘बॉलिंग कर रहा था।’’
‘‘अच्छा।...तो बाहर आकर खुद क्यों नहीं ढूँढ़ लेते अपनी गेंद ?’’
बच्चे का आशय भाँप वे मुस्कराए।
‘‘गेट में ताला लगा हुआ है।’’
ताला खुलवा लो मम्मी से !’’
‘‘मम्मी नर्सिंग होम गई हैं।’’
‘‘नौकरानी तो होगी घर में कोई ?’’
‘‘बुद्धिराम गाँव गया है। घर पे मैं अकेला हूँ। मम्मी बाहर से बंद करके चली गई हैं।’’ बच्चे के गबदू भोले मुख पर लाचारी ने पंजा कसा।
‘‘हूँअ, अकेले खेल रहे हो ?’’
‘‘अकेले...मम्मी किसी बच्चे के साथ खेलने नहीं देतीं।’’
‘‘भला वो क्यों ?’’
‘‘मुझे भी गुस्सा आता है, बोलती हैं-बिगड़ जाओगे। यहाँ के बच्चे जंगली हैं।’’
‘‘बड़ी गलत सोच है। खैर...। तुम्हें नर्सिंग हों साथ लेकर क्यों नहीं गईं ?’’
माँ की बेवकूफी पर उन्हें गुस्सा आया। घंटे-आध घंटे की ही बात तो थी, बच्चे को इस तरह अकेला छोड़ता है कोई ?
‘‘मम्मी घंटे-भर में नहीं लौटेंगी अंकल, रात को नौ बजे के बाद लौटेंगी।’’
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अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
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