कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (विद्यासागर नौटियाल) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (विद्यासागर नौटियाल)विद्यासागर नौटियाल
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प्रस्तुत संकलन में जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया गया है, वे हैं; ‘उमर कैद’,‘खच्चर फगणू नहीं होते’, ‘फट जा धार’, ‘सुच्ची डोर’, ‘भैंस का कट्या’, ‘माटी खायँ जनावराँ’, घास’, ‘सोना’, ‘मुलज़िम अज्ञात’ तथा ‘सन्निपात’।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक
महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा जगत् के सभी शीर्षस्थ
कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों, तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये ऐसी कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
‘किताबघर’ प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज के महत्त्वपूर्ण कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं; ‘उमर कैद’, ‘खच्चर फगणू नहीं होते’, ‘फट जा पंचधार’, ‘सुच्ची डोर’, ‘भैंस का कट्या’, ‘माटी खायँ जनावराँ’, ‘घास’, ‘सोना’, ‘मुलज़िम अज्ञात’ तथा ‘सन्निपात’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक विद्यासागर नौटियाल की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों, तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये ऐसी कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
‘किताबघर’ प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज के महत्त्वपूर्ण कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं; ‘उमर कैद’, ‘खच्चर फगणू नहीं होते’, ‘फट जा पंचधार’, ‘सुच्ची डोर’, ‘भैंस का कट्या’, ‘माटी खायँ जनावराँ’, ‘घास’, ‘सोना’, ‘मुलज़िम अज्ञात’ तथा ‘सन्निपात’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक विद्यासागर नौटियाल की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
पात्रों का दबाव, पाठकों की मंशा
ज़िंदगी की कहानी से बड़ी कोई कहानी नहीं हो सकती। कहानी लिखना कोई बहुत
आसान काम नहीं होता। लेकिन अपनी कहानियों के बारे में कुछ लिखना बेहद कठिन
लगता है (मुझे)। एक दुष्कर कर्म। कहानी लिखना और कहानी के बारे में
लिखना-दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है. अपनी रचनाओं की भूमिका
लिखने के मामले में मैं जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का अनुकरण करना अपने वश की बात
नहीं समझता। मेरा मानना है कि लेखक को अपनी पूरी बात अपनी रचना में दे
देने की कोशिश करनी चाहिए। उसके नुक्स निकालने, भाष्य करने का भार (या
कहीं ज़िक्र तक न करने का सुख, मजे लूटने की स्वतंत्रता !) विद्वान्
समीक्षकों-आलोचकों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। पाठकों के सामने सही बातों का
खुलासा कर देने में मुझे कोई हर्ज नहीं मालूम होता।
मैंने साहित्य के गुप्त, सजे-धजे सुवासित शांत बैठकखाने में ढीले, मोटे कुर्ते के ऊपर की जेब में एक कलम लटकाकर खरामा-खरामा चलते हुए प्रवेश नहीं किया, खतरनाक राजनीति के खुले मैदानों को पार करता और तंग गलियारों से बच-बचकर निकलता हुआ वहाँ तक पहुँच पाया था। पूरे भारत पर अंग्रेज़ काबिज था और उत्तर भारत के जिस पहाड़ी भाग, टिहरी-गढ़वाल रियासत में 29 सितंबर, 1933 को मेरा जन्म हुआ उस पर पुश्तैनी तौर पर एक अंग्रेज़-भक्त सामंत का खानदानी राज चल रहा था। अंग्रेज़ को मुल्क हिंदुस्तान से अपना टाट-पलाम समेटने से पेश्तर अपना दिल थोड़ा कड़ा कर देना पड़ा था। अपने दिल पर पत्थर रखकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी वफादारी में लिप्त नवाबों-महाराजाओं की कतार फरियाद ठुकरा देनी पड़ी कि भारत को हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो हिस्सों में बाँटने के बजाय तीन खंडों में बाँटा जाए। कि कुल देशी रियासतों को वह एक तीसरे मुल्क ‘राजस्थान’ के रूप में मान्यता देता जाए।
अपने आश्रितों-सहायकों की हताश, सूजी हुई आँखों से बह रहे आँसुओं की अविरल धारा से आखिर उस महाप्रभु का दिल भी पसीज उठा था। वह उनको एक अलग मुल्क के रूप में तस्लीम-तकसीम नहीं कर पाया लेकिन उसने उन्हें यह स्वतंत्रता दे दी कि वे अपनी इच्छानुसार नए बनाए जा रहे ‘हिन्दुस्तान’ या ‘पाकिस्तान’ नामक देशों में जिसमें चाहें शामिल हो सकते हैं। किस रूप में शामिल होंगे, यह बात कतई स्पष्ट नहीं की गई। कहाँ हैदराबाद जाएगा और कहाँ कश्मीर जाएगा, इस प्रश्न को गोल छोड़ दिया, जानबूझकर । दूसरे शब्दों में कहें तो उस तरह का कोई प्रश्न ही नहीं उठाया गया। अंग्रेज़ के सत्ता छोड़ते ही नवाब हैदराबाद, महाराजा कश्मीर, दीवान त्रावनकोर और अनेक दूसरी रियासतों के सामंती शासकों की तरह महाराजा टिहरी-गढ़वाल ने भी अपने को रातों-रात ‘स्वाधीन’ घोषित कर दिया था।
स्वाधीन माने हम न हिंदुस्तान में हैं, न पाकिस्तान में। हम अपनी मर्ज़ी से अलग रहेंगे। तब पाकिस्तानी कबीलों ने एक अलग अस्तित्व की घोषणा करने वाले कश्मीर पर हमला बोल दिया। उसके नतीजे हमारे मुल्क को आज दिन तक भुगतने पड़ रहे हैं। टिहरी-गढ़वाल रियासत के प्रजामंडल ने भी उसी दिन 15 अगस्त, 1947 को ‘पूर्ण स्वतंत्रता तथा भारत में विलय’ के महान् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंतिम संघर्ष छेड़ने की घोषणा कर दी थी। उस घोषणा के पहले से ही काफी छोटी आयु में मैं क्रूर सामंती शासन से सीधे-सीधे टक्कर लेने वाले सिरफिरों की कतार में शामिल हो चुका था। गिरफ्तारी, दमन, फरारगी सभी कुछ से गुज़रने के बाद जब अंतत: 14 जनवरी, 1948 को हमारी रियासत आजाद हो पाई तो मुझे अपने राजनीतिक विचारों के कारण नए शासकों के कोप का भाजन भी होना पड़ा। प्रजा ने असीम कुर्बानियाँ देकर जिस सामंत को सत्ता से हटाया था, कांग्रेस ने राज-पाट हाथ में लेते ही उसे अपने दल का सदस्य और संसद में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज दिया। हमारे रास्ते बहुत जुदा हो गए।
सिर से पाँव तक राजनीति में डूबे रहते हुए मुझे आम चुनाव भी लड़ने पड़े। आजीवन। काशी से टिहरी तक। कभी जीता, कभी हारा। समझ में सिर्फ इतना आ पाता था कि आम मतदाता जिसे ठीक समझता है उसे अपना प्रतिनिधि चुन देता है। कलमकारों की जमात में सन् 1949 से ही शामिल होने की कोशिशें करने लगा था। अपने शहर की एक नव-विवाहिता की आकस्मिक मौत से दु:खी होकर मैंने एक कहानी लिखी ‘मूक बलिदान’। वह प्रताप इंटर कॉलेज, टिहरी की मैग्ज़ीन में प्रकाशित हुई थी। शुरु-शुरु में कुछ-कुछ कवियाने भी लगा था। पढ़ाई के सिलसिले में पहाड़ों के घेरे से निकलकर दो-तीन वर्षों के अंदर ही सन् 1952 में काशी जा लगा। मैं भगवानदास छात्रावास, काशी में रहने लगा था। वहाँ कवि केदारनाथ सिंह मेरा सहपाठी होने के अलावा निकटतम पड़ोसी भी था।
उसकी कविताओं को सुनने व पढ़ने का मौका मिलने लगा। त्रिलोचन शास्त्री से उनकी कविताएँ सुनने लगा। इन कवियों के सामने कभी अपनी यह बताने की भी हिम्मत नहीं हुई कि मैं भी कविता लिखता हूँ। निराला, रवि ठाकुर, नाजिम हिमकत और पाब्लो नेरूदा जैसे महान् कवियों की रचनाओं से भी परिचय होने लगा। तब अच्छी कविताओं ने तुकबंदी करने की मेरी प्रवृत्ति पर खुद ही रोक लगा दी। और सबसे अधिक प्रभाव पड़ा केदार की संगत का। मेरे मुख से किसी शेर का पहला ही मिसरा निकल पाता था-‘‘रेख़्ते के उस्ताद तुम्हीं नहीं हो ग़ालिब’’ कि केदार खटाक से टोक देता-‘‘आँ-आँ, कर दिया न तुमने गुड़-गोबर !’’ गुड़ और गोबर-ये दोनों एकदम अलग-अलग चीजें होती हैं, जिन्हें शरीर को तकलीफ दे रहे किसी न पक रहे फोड़े को पकाने के लिए सिर्फ पुटलिस बनाने में एक साथ इस्तेमाल किया जाता है। अन्यथा नहीं। कई बार जरूरत पर गोबर के गणेशजी बना लिए जाते हैं, पर उसमें भी गुड़ नहीं मिलाया जाता। निकटतम पड़ोसी कवि की रोज़-रोज़ की टोकाटाकी। होस्टल तो मैं छोड़ नहीं सकता था। कहाँ जाता ? तंग आकर मैंने सदा के लिए कविता का रास्ता ही छोड़ दिया था।
तब अपना ध्यान पूरी तरह कहानी लिखने पर ही केंद्रित करने लगा। काशी नगरी ने मेरे जीवन में साहित्य की दुनिया के नए दरवाज़े खोल दिए। और त्रिशूल नगरी में कदम रखते ही दिमाग ठिकाने पर आ लगा कि कविता करना मेरे वश की बात नहीं। उसके लिए कोई और मेधा चाहिए। मुझे लगा कि सम्मेलनी कवि बनने में कोई तुक नहीं। गद्य लिखना हम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। गद्य की दुनिया से तो मुझे कोई नहीं हटा सकता। अपने मन में मैंने खुद ही भाई-बाँट भी कर ली थी-लो केदारनाथ सिंह ! अब से तुम गुड़, मैं गोबर।
बनारस में मैंने एक-दो कहानियाँ लिखीं। उन्हें किसी जानकार को दिखना चाहता था। अपने पुराने संस्मरणों के कुछ कागज़ात इस बीच मेरे हाथ लगे हैं। एक जगह मैंने कभी ऐसा दर्ज किया था-‘‘तो हम अड़ोस-पड़ोस के होस्टलों के निवासी थे। सिंह की चाल। न्यू होस्टल्स (राधाकृष्ण, भगवानदास, गुर्टू) सामने चौड़ी, कच्ची सड़क के किनारे रोज़ चलने वाला छरहरा व्यक्ति। धोती, कुर्ता। सफेद, उजले। पांव में सादी चप्पलें। तीन-चार दिनों से मैं उस व्यक्ति को आते-जाते देख रहा था। आज सामान्य हिंदी की क्लास में गया। श्रीमन् हमारी क्लास ले रहे हैं। किसी सहपाठी ने हल्के से मेरी जिज्ञासा शांत की-नामवर सिंह। रिसर्च स्कॉलर हैं। श्रोता खामोश। मूर्तिवत्। जादू वाणी का था। विद्यार्थियों के दिमागों पर पकड़ कथ्य की थी। कुछ नई बात बोली जा रही थी, नए ढंग से बोली जा रही थी। निर्मल झरने की तरह अनमोल शब्दों, वाक्यों की झड़ी लग गई थी। भाषा सरल, आडंबरहीन। शब्द भारी नहीं थे। उनका अर्थ भी बोझिल नहीं था। भीड़। सेंट्रल हिंदू कॉलेज की निचली मंज़िल। खूब चौड़ा बरामदा, जहाँ राह चलते छात्र भी खड़े होने लगे थे। वे वहाँ पहुँचते ही एक फुट ज़मीन से चिपक जाते थे। वे दरवाज़ों खिड़कियों से अंदर खड़े व्यक्ति का भाषण सुन रहे थे। कमरे के अंदर लगाई गई सभी सीटों पर विद्यार्थी बैठे थे। सीटों के बाद जो खाली जगह थी वहाँ भी छात्र खड़े थे। छात्र समूह अवाक् था। नामवर सिंह की वाणी ने उनकी चेतना को झकझोरना शुरू कर दिया था।
‘‘शाम को मैं डॉ.भगवानदास होस्टल के गेट पर खड़ा था। सामने की सड़क पर प्रोफेसर नामवर सिंह को जाते देखा। वे गुर्टू में रहते थे। यह जासूसी मेरी आँखों ने दो-तीन दिन पहले ही कर ली थी। मैंने होस्टल गेट से बाहर निकलकर सड़क पार की और देहरादूनी लहजे में ‘गुरुजी प्रणाम कहा।’ प्रणाम तो हो गया। अब क्या बात की जाए ? बहुत साहस बटोरकर मैंने कहा-मैंने एक-दो कहानियाँ लिखी हैं, क्या आप उन्हें देख सकते हैं ?
‘‘मैंने प्रणाम पीछे से किया था। संस्कार ऐसे थे कि अपने से बड़ो के आगे या बराबरी पर नहीं चलते। नामवर सिंह ने एक बार कनखियों से पीछे की ओर नज़र घुमाई थी। फिर आगे बढ़ गए। यह आभास था कि मैं साथ लगा हूँ। थम नहीं गया हूँ। मेरे प्रणाम ने उन्हें रोक दिया। मैंने संक्षिप्त परिचय दिया-टिहरी गढ़वाल का निवासी हूं, देहरादून से इंटर किया है। थर्ड इयर जनरल हिंदी में आपका विद्यार्थी हूँ।
‘‘हाँ, हुई कि मैं कमरे की ओर लपका। कहानियों की कॉपी उठाई। नामवर सिंह गुर्टू होस्टल में अपने कमरे का ताला खोल रहे थे कि मैं हाजिर हो गया। कमरा खुला। वहाँ चारों ओर किताबें ही किताबें थीं। मैंने कॉपी मेज़ पर रख दी। रात अपने बिस्तर पर (तख्त के ऊपर, जिसका प्रावधान महामना ने बी.एच.यू. के छात्रों के लिए करवाया था) लेटे-लेटे मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि उस विद्वान को मेरी कहानियाँ पढ़ने की फुरसत मिल भी पाएगी या नहीं ? मैंने कल्पना की कि मेरी कहानियों के पात्र बारी-बारी से नामवर सिंह के सामने हाजिर हो रहे हैं। और मैं यह भी सोचता रहा कि अगर नामवर सिंह मेरी कहानियों की गलतियों को ठीक कर दें (कक्षा के निबंधों की तरह) तो कितना अच्छा होता। मुझे कहानियाँ लिखना सिखा दें तो क्या कहने।’’
दूसरे दिन, शाम के मौके पर, मैं नामवर सिंह के कमरे में पहुँचा तो वहाँ पहले से ही एक भारी-भरकम दिव्य व्यक्ति विराजमान थे। मेरे कमरे में पहुँचते ही नामवर सिंह ने उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर कहा-शिवप्रसाद जी ! मैं आपको एक सिद्धहस्त कहानीकार से मिलवा रहा हूँ। ये हैं विद्यासागर नौटियाल।
नामवर सिंह द्वारा दिए गए उस परिचय को शिवप्रसाद सिंह सीधे भाव से नहीं ले पाए थे। वे उखड़ गए। उनकी मौजूदगी में एक नौसिखिए, थर्ड इयर के विद्यार्थी, सींकिया पहलवान को (जो कि मैं वास्तव में था) सिद्धहस्त कहकर परिचित कराना उन्हें खल गया। उन्होंने मेरी काया पर ऊपर से नीचे तक एक सरसरी पैनी निगाह फेरी (ठाकुर की आँख !) अपने आसन (मोढ़े) से उठे और बिना कुछ कहे तत्काल कमरे से बाहर निकल गए। उनके जाने के बाद नामवर सिंह ने मेरी कहानी के बारे में अपनी बात कही। उसके सही होने का प्रमाण दे दिया। तब तक मैं सही और गलत दो ही चीज़ें जानता था। आलोचना की कूटनीतिक भाषा ‘‘आपकी रचना तो बहुत दमदार है, लेकिन...’’ आज भी समझ में नहीं आती। उस वक्त तो उसे कहीं छपा हुए देखने का सौभाग्य भी नहीं मिला था।
मेरी नोट-बुक में दर्ज है कि ता.10-7-53 को मैंने ‘भैंस का कट्या’ कहानी ‘हिंदुस्तान साप्ताहिक’ को भेजी थी। वहाँ से उसे लौटा दिया गया था। कुछ दिन बाद प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में मुझे उस कहानी ‘भैंस का कट्या’ का पाठ करने का मौका मिला। नामवर सिंह उसे पहले ही पढ़ चुके थे। गोष्ठी में उपस्थित साहित्यकारों को कहानी बहुत अच्छी लगी जगत शंखधर, चंद्रबली सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, विष्णुचंद्र शर्मा, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, ठाकुरप्रसाद सिंह, शिवप्रसाद सिंह और काशी के अनेक दूसरे रचनाधर्मी गोष्ठी में उपस्थित थे। शिवप्रसाद सिंहजी ने भी होस्टल में अकेले मिलने पर भी उसकी बहुत तारीफ की। (शिवप्रसाद सिंहजी हमें छोड़कर जा चुके हैं। विनीत श्रद्धांजलि) कहानी ‘कल्पना’ के पते पर हैदराबाद भेज दी गई। लेकिन ‘कल्पना’ में प्रकाशित होने से पहले ही उस कहानी के माध्यम से मेरा नाम काशी की सीमाएँ लाँघकर प्रयाग के साहित्य-जगत् तक जा पहुँचा था। उसके छप जाने के बाद प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र-कथाकार मार्कंडेय ने उसे एक संकलन में लेने की योजना बनाई।
चौक से आगे एक और नवयुवक कथाकार रहता था, जिसका नाम कमलेश्वर था। मेरे प्रयाग पहुँचने पर वह रात्रि-विश्राम के लिए मुझे अपने घर ले गया। मेरे परिचित साहित्यकारों का दायरा बढ़ने लगा। देश के विभिन्न शहरों से पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मुझसे कहानी की माँग करने लगे।
‘भैंस का कट्या’ 1953 में लिखी गई और अक्टूबर, 1954 में प्रकाशित हुई। सोवियत संघ के प्राच्य विद्या संस्थान में अकादमीशियन डॉ.वी.चेर्निशोव ने इस कहानी का रूसी अनुवाद किया और अपनी लंबी टिप्पणी के साथ एक कहानी-संकलन में सम्मिलित किया, जिसका शीर्षक था-‘दीती इंदी’ (भारतीय बच्चे)। उस संकलन में जिन अन्य कथाकारों की कहानियाँ ली गई थीं, उनके नाम थे- प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामवृक्ष बेनीपुरी, सुदर्शन, जैनेद्र, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भारती, सियारामशरण गुप्त, भगवतीप्रसाद बाजपेयी, सत्यवती मलिक, मोहन राकेश, भीष्म सहानी और सत्येन्द्र शरत। उसी दौरान प्रसिद्ध कहानीकार विनोदशंकर व्यास ने हिंदी कहानियों का ‘मधुकरी’ नाम से चार भागों में एक वृहद संकलन भी संपादित और प्रकाशित किया। ‘भैंस का कट्या’ को उसमें भी सम्मिलित किया गया। काशी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह ने कुछ वर्ष पूर्व हम अनेक ज़िंदा, लगातार साँसें (या उसाँसें) भरते जा रहे लेखकों को सूचित तक किए बगैर (स्वीकृति लेना तो दूर की बात) ‘मधुकरी’ का नया संस्करण प्रकाशित कर दिया। इस ज़िंदगी में अभी पता नहीं और क्या-क्या देखना होगा !
देश-विदेश के विद्वानों, आलोचकों, समीक्षाकारों व पाठकों ने ‘भैंस का कट्या’ को अपने-अपने नजरिए से देखा और परखा। ज़्यादातर को उसमें करुणा-रस रिसता दिखाई दिया और कुछ ने एक अबोध बालक की मन:स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन पाया। करीब पचास बरसों के अंतराल के उपरांत 4 जून, 2000 को इस कहानी के आदि-पाठक (अब डॉ.) नामवर सिंह ने देहरादून में आयोजित ‘पहल सम्मान’ समारोह के अवसर पर अपने अध्यक्षीय भाषण में ‘भैंस का कट्या’ के मूल तत्व की ओर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करते हुए स्पष्ट किया कि इसमें प्रमुख तत्व करुणा नहीं है, सामंत-विरोध है। उस सुहावनी शाम देहरादून के टाउन हॉल में बैठे-बैठे उनके श्रीमुख से उस विश्लेषण को सुनते हुए मेरे अशांत मन को परम शांति मिल रही थी कि इस कहानी के तथा मेरी अधिकांश रचनाओं के मूल तत्व को अंतत: पहचान लिया गया है। देर से ही सही। किसी रचना के मूल्यांकन में आधी सदी का समय लग जाना यों भी कोई ज्यादा मायने नहीं रखता। शुरु में कह चुका हूँ कि मैं एक रियासत में पैदा हुआ था। होश सँभालने के बाद से मैं उस सदेह सामंतवाद के रक्त, मज्जा, मांस और उन सामंती प्रवृत्तियों के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहा, जो हमारे भारतीय मानस पर सनातन तौर पर हावी रहती आई हैं। जीवन में भी और अपनी रचनाओं में भी उन प्रवृत्तियों से लोहा लेता रहा। मेरी राजनीति का यह एक मुख्य अंश है।
अब ठीक त्रेपन वर्षों के अंतराल के बाद, इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लेने पर मुझे लगा कि इस कहानी को कुछ मामूली संशोधन दरकार है। आखिर कहानी तो मेरी है। अपनी ज़िम्मेदारी से जीते-जी मैं कैसे भाग सकता हूँ ? इस संग्रह की पांडुलिपि तैयार करने से पेश्तर मैंने कहानी के शुरूआती अंश में कुछ मामूली संशोधन भी कर दिए। ‘भैंस का कट्या’ कहानी अपने संशोधित रूप में पहली बार इस संग्रह में प्रकाशित हो रही है।
इस संग्रह के लिए कहानियों का चयन करते वक्त मैंने अपने राजनीतिक चुनावों की याद करते हुए वही फॉर्मूला अपनाना बेहतर समझा। कोई प्रत्याशी अपने को कितना ही योग्य समझता हो, मतदाता भी योग्य समझेगा तभी तो वह निर्वाचित हो पाएगा। इसीलिए अपनी पसंद को गौण मानते हुए मैंने अपने पात्रों के दवाब और पाठकों की पसंद का ध्यान रखना ही बेहतर समझा। फिर भी अपनी पसंद की एक, मात्र एक, कहानी देने के लोभ से मैं अपने को रोक नहीं पाया। वह कहानी ‘सुच्ची डोर’ है। उस कहानी की अपनी एक अलग कहानी है और मैं उसे बयान कर रहा हूँ।
मेरे पिता वन विभाग में रेंज ऑफीसर थे। रेंज कार्यालय डाँगचौंरा में था। घाटी में होने के कारण वहाँ गर्म होने लगता था। लिहाज़ा गर्मी से निजात पाने के लिए हमारा परिवार गर्मियों में एक ऊंचे पहाड़ चंद्रबदनी पर चला जाता था। उन दिनों (शायद सन् 1953 में) गर्मियों की छुट्टियों में मैं बनारस से घर आया था। पिता बहुत अच्छे घुड़सवार थे और अच्छे घोड़े रखने का उन्हें बहुत शौक था। हमारे पास एक लाल रंग का बलिष्ठ घोड़ा था, जिसकी ऊँचाई औसत घोड़ों से कुछ ज़्यादा थी। घोड़े को जंगल में चरने के लिए छोड़ दिया जाता था। कई बार घास चरते रहने में वह इस तरह मगन हो जाता कि रात में घर लौटना ही भूल जाता था। पिता ने वह घोड़ा किसी गूजर से खरीदा था। उसके संस्कार गूजरों के घोडों के जैसे थे, जो मैदानी क्षेत्र से एक बार ऊंचे चरागाहों में पहुँचा लिए जाने के बाद अपने डेरों पर नहीं लौटते। न रात में, न दिन में। दो महीनें तक खुले घूमते रहते हैं। गूजरों के घोड़े तो झुंड में रहते हैं।
फिर भी कई बार बाघ उन पर हमला कर बैठता है। कुछ साल पहले गूजरों के घोड़ों के साथ पँवाली बुग्याल में भेज दिए गए हमारे एक घोड़े को भी बाघ ने मार गिराया था। यह अकेला घोड़ा है। इस पर कहीं बाघ की नजर पड़ गई तो वह उसे छोड़ेगा नहीं। हमारा पूरा परिवार चिंतित हो उठता। रात पड़ते-पड़ते हम चंद्रबदनी के उस घने, लंबे-चौड़े जंगल में अपने घोड़े की तलाश में निकल पड़ते। वह किसी ऐसी ऊंची चट्टान पर बनी गुफा में नजर आता जहाँ पहुँचने की शायद बाघ भी हिम्मत नहीं कर सकता था। कभी-कभी ऐसा भी हो उठता था कि वह हमें कहीं दिखाई ही न देता। तब निराश होकर हम रात में घर लौट आते। अगले दिन सुबह रात खुलते ही फिर उसकी तलाश में निकल जाते। यह रोज़ का किस्सा हो गया। रोज़-रोज़ उसकी तलाश में भटकते रहने के कारण एक दिन मेरा जूता टें बोल गया। जूते की मरम्मत करवाने के लिए मैं किसी मोची की तलाश में चल दिया। बनारस लौट जाने पर अपने उस दिन के अनुभव को काफी वर्षों के बाद मैंने ‘सुच्ची डोर’ कहानी में परिणत कर दिया। कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी पत्रिका के पास भेज दी। वह छप भी गई। कहानी का भाग एक समाप्त।
कहानी का दूसरा भाग। सन् 1959 में मैं काशी से अपने घर टिहरी लौट आया और पहाड़ों पर कम्युनिस्ट पार्टी के कुलवक्ती कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगा। ज़्यादातर पैदल चलता हुआ मैं पहाड़ी गाँवों की खाक छानने लगा। मेरी लिखाई-पढ़ाई पूरी तरह ठप हो गई। करीब पच्चीस वर्षों के बाद मेरे दिमाग में आया कि मुझे बनारस के ज़माने में लिखी अपने कहानियों का एक संग्रह छपवा देना चाहिए। पुरानी पत्रिकाओं की फाइलों में अपनी कहानियों की तलाश जारी करवा दी। कुछ कहानियाँ मिल गईं। ‘टिहरी की कहानियाँ’ शीर्षक से उनकी पांडुलिपि तैयार कर ‘राजकमल प्रकाशन’ को सौंप दी। ‘सुच्ची डोर’ कहानी उपलब्ध नहीं हो पाई। मैं यह भी भूल गया कि वह किस पत्रिका में छपी थी। वह मेरी एक अत्यंत प्रिय कहानी थी। उसका कथानक ऐसा था कि उसे भूल जाने का सवाल ही नहीं उठ सकता था।
और उसका मुख्य पात्र मोची लगातार मेरे भीतर बैठा रहता था। कई बार वह मुझसे संवाद करता लगता-हाँ जी ! तो मेरा क्या हुआ ? मुझे यों ही अधबीच में छोड़ दिया ? उस कहानी को संग्रह में न दे पाने का दु:ख मुझे सालता रहता था। मैंने हिम्मत की और उसे दुबारा लिखने का निश्चय कर लिया। पच्चीस वर्षों के अंतराल के बाद, अपनी याददाश्त के आधार पर, उसे नए सिरे से लिख डाला। लिख लेने के बाद फिर अपने दैनिक कामों में कदम-कदम चलते हुए इस पहाड़ के शिखर पर इस ओर से ऊपर चढ़ो, उधर से नीचे उतरो, उलझ गया। आज, कल, आज, कल करते-करते समय बीतता चला। उसकी नकल कर कहीं प्रकाशनार्थ नहीं भेज पाया। साहित्य के प्रति मेरी बेरुखी भाँपकर वह लाचार कहानी अंतत: टिहरी में मेरे दूसरे कागजात के ढेर में कहीं आराम फरमाने लगी और लुक गई। कहानी का दूसरा भाग समाप्त।
कहानी सुच्ची डोर का तीसरा भाग यों शुरु होता है कि मैंने देहरादून में एक घर खरीदा और वहाँ आकर रहने लगा। बूढ़े, कृषकाय मोची की याद फिर मुझे कोंचने लगी, जो युगों से मेरे भीतर जमकर बैठा था। मेरी बेचैनी फिर बढ़ने लगी। अपनी ज़िंदगी में तीसरी बार मैंने हिम्मत की और नए सिरे से उसकी कहानी लिख डाली। ले बुढ़ऊ ! तू इन कागजों में आबाद हो जा। अब निकल मेरे दिल से बाहर। मैं इसके कथानक से खुद इतना प्रभावित रहता था कि इसे अपने जीवन की कथा-पूँजी से यों ही गायब नहीं होने दे सकता था। कहानी को पूरा लिख लेने के बाद मैंने इसे देहरादून की साहित्यिक संस्था ‘संवेदना’ की गोष्ठी में पढ़कर सुनाया। मित्रों को कहानी बहुत पसंद आई।
लेकिन उसके कुछ अंशों को घटाने-बढ़ाने की बात प्रमुखता से उठाई गई। घर पहुंचते ही मैं टाइपराइटर पर बैठ गया और मित्रों की सम्मत्तियों, सुझावों के आधार पर पूरी कहानी को नए सिरे से लिख डाला। उसे जनसत्ता ने प्रकाशित किया था। समझदार संपादक मंगलेश डबराल ने लेखक की जगह सिर्फ मेरा ही नाम छापा था। कहानी को परिष्कृत कर अंतिम रूप देने में जिन-जिन मित्रों के विचारों का समावेश किया गया था उनके नाम कभी उजागर नहीं हो पाएँगे। रचनाओं के साथ ऐसा ही अन्याय होता रहता है। यह कथा मुख्यता दो पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है-एक राजा और एक मोची। राजा एक पौराणिक पात्र है। दक्ष प्रजापति। वह कभी सामने नहीं आता। राजे-महाराजे अपने दरबारों में रहते हैं। वे प्रजा के सामने क्यों आने लगे ? मोची हमारे बीच का एक अछूत है, जिससे अजीब स्थिति में मेरी भेंट हुई थी। उसी दिन वह मोची मेरे दिल के भीतर जमकर बैठ गया और उसने अपनी कहानी मुझसे ज़बर्दस्ती लिखवा ही डाली। एक बार नहीं, तीन-तीन बार (कायदे में चार बार)। हर बार उसे लिख लेने के बाद मेरे दिल को शांति मिल जाती थी।
इस कहानी का किसी भी समीक्षक ने कहीं जिक्र तक नहीं किया। अधिकांश हिंदी आलोचकों शोधकर्ताओं के गाइडों की प्राइवेट लिमिटेड सूची में यों भी मेरे नाम का कोई कहानीकार है ही नहीं। इस कहानी के बारे में किसी पाठक तक ने कोई पत्र नहीं लिखा। लेकिन मैं ‘सुच्ची डोर’ को अपने जीवन की एक बेहतरीन कहानी मानता आया हूँ। इसलिए अपनी रुचि (और अपने एक पात्र की मंशा) अपने निरीह, कृपालु पाठकों पर थोपने की धृष्टता कर रहा हूँ। आखिर दस कहानियों में एक कहानी अपनी ओर से देने का हक़ तो मुझे मिलना ही चाहिए। टेन परसेंट का हक। निर्माण-कार्यों में तो, सुनता हूँ दस की जगह अब फ़िफ़्टी परसेंट तक लिए जाने का आम रिवाज प्रचलित हो गया है।
आठ बरस तक मैं काशी-वासी होकर रहा। काशी को मैं अपने पुनर्जन्म की भूमि मानता आया हूँ। मेरी कहानियों में अधिकांश काशी में रहते हुए लिखी गईं या उनको लिखने का विचार वहीं रहते हुए पनपने लगा था। ‘भैंस का कट्या’ के अलावा इस संग्रह में दी जा रही अन्य कहानियों में ‘सोना’, ‘सुच्ची डोर’ तथा ‘घास’ भी वहीं लिखी गईं ‘फट जा पंचधार, ‘खच्चर फगणू नहीं होते’ तथा ‘सन्निपात’ के बीज मेरे दिमाग में काशी से ही अंकुरित होने लगे थे।
‘सोना’ कहानी का सर्वप्रथम अनुवाद गुजराती में मनहर चौहान ने किया। एक गुजराती दैनिक ने अपने साहित्यिक परिशिष्ट में उसे प्रकाशित किया था। बाद में डॉ.वी.चेर्निशोव ने रूसी में अनूदित किया, जिसे सन् 1958 में मास्को के ‘लिटरेरी गजेट’ पत्रिका ने प्रकाशित किया। मंजूसिंह ने ‘एक कहानी’ सीरियल के अंतर्गत 80 के दशक में एक टेलीफिल्म का निर्माण किया, जिसे दूरदर्शन ने अनेक बार प्रदर्शित किया। इस फिल्म को आम दर्शक ‘नथ’ नाम से जानने लगे। भारत के विभिन्न शहरों में यह फिल्म मेरी पहचान का माध्यम बन गई। छोटे बच्चों से लेकर आम लोग, यहाँ तक कि साहित्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता न रखने वाली घरों की सभी उम्रों की महिलाएँ भी मुझे इस फिल्म का नाम लेते ही पहचानने लगती हैं।
मैंने साहित्य के गुप्त, सजे-धजे सुवासित शांत बैठकखाने में ढीले, मोटे कुर्ते के ऊपर की जेब में एक कलम लटकाकर खरामा-खरामा चलते हुए प्रवेश नहीं किया, खतरनाक राजनीति के खुले मैदानों को पार करता और तंग गलियारों से बच-बचकर निकलता हुआ वहाँ तक पहुँच पाया था। पूरे भारत पर अंग्रेज़ काबिज था और उत्तर भारत के जिस पहाड़ी भाग, टिहरी-गढ़वाल रियासत में 29 सितंबर, 1933 को मेरा जन्म हुआ उस पर पुश्तैनी तौर पर एक अंग्रेज़-भक्त सामंत का खानदानी राज चल रहा था। अंग्रेज़ को मुल्क हिंदुस्तान से अपना टाट-पलाम समेटने से पेश्तर अपना दिल थोड़ा कड़ा कर देना पड़ा था। अपने दिल पर पत्थर रखकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी वफादारी में लिप्त नवाबों-महाराजाओं की कतार फरियाद ठुकरा देनी पड़ी कि भारत को हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो हिस्सों में बाँटने के बजाय तीन खंडों में बाँटा जाए। कि कुल देशी रियासतों को वह एक तीसरे मुल्क ‘राजस्थान’ के रूप में मान्यता देता जाए।
अपने आश्रितों-सहायकों की हताश, सूजी हुई आँखों से बह रहे आँसुओं की अविरल धारा से आखिर उस महाप्रभु का दिल भी पसीज उठा था। वह उनको एक अलग मुल्क के रूप में तस्लीम-तकसीम नहीं कर पाया लेकिन उसने उन्हें यह स्वतंत्रता दे दी कि वे अपनी इच्छानुसार नए बनाए जा रहे ‘हिन्दुस्तान’ या ‘पाकिस्तान’ नामक देशों में जिसमें चाहें शामिल हो सकते हैं। किस रूप में शामिल होंगे, यह बात कतई स्पष्ट नहीं की गई। कहाँ हैदराबाद जाएगा और कहाँ कश्मीर जाएगा, इस प्रश्न को गोल छोड़ दिया, जानबूझकर । दूसरे शब्दों में कहें तो उस तरह का कोई प्रश्न ही नहीं उठाया गया। अंग्रेज़ के सत्ता छोड़ते ही नवाब हैदराबाद, महाराजा कश्मीर, दीवान त्रावनकोर और अनेक दूसरी रियासतों के सामंती शासकों की तरह महाराजा टिहरी-गढ़वाल ने भी अपने को रातों-रात ‘स्वाधीन’ घोषित कर दिया था।
स्वाधीन माने हम न हिंदुस्तान में हैं, न पाकिस्तान में। हम अपनी मर्ज़ी से अलग रहेंगे। तब पाकिस्तानी कबीलों ने एक अलग अस्तित्व की घोषणा करने वाले कश्मीर पर हमला बोल दिया। उसके नतीजे हमारे मुल्क को आज दिन तक भुगतने पड़ रहे हैं। टिहरी-गढ़वाल रियासत के प्रजामंडल ने भी उसी दिन 15 अगस्त, 1947 को ‘पूर्ण स्वतंत्रता तथा भारत में विलय’ के महान् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंतिम संघर्ष छेड़ने की घोषणा कर दी थी। उस घोषणा के पहले से ही काफी छोटी आयु में मैं क्रूर सामंती शासन से सीधे-सीधे टक्कर लेने वाले सिरफिरों की कतार में शामिल हो चुका था। गिरफ्तारी, दमन, फरारगी सभी कुछ से गुज़रने के बाद जब अंतत: 14 जनवरी, 1948 को हमारी रियासत आजाद हो पाई तो मुझे अपने राजनीतिक विचारों के कारण नए शासकों के कोप का भाजन भी होना पड़ा। प्रजा ने असीम कुर्बानियाँ देकर जिस सामंत को सत्ता से हटाया था, कांग्रेस ने राज-पाट हाथ में लेते ही उसे अपने दल का सदस्य और संसद में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज दिया। हमारे रास्ते बहुत जुदा हो गए।
सिर से पाँव तक राजनीति में डूबे रहते हुए मुझे आम चुनाव भी लड़ने पड़े। आजीवन। काशी से टिहरी तक। कभी जीता, कभी हारा। समझ में सिर्फ इतना आ पाता था कि आम मतदाता जिसे ठीक समझता है उसे अपना प्रतिनिधि चुन देता है। कलमकारों की जमात में सन् 1949 से ही शामिल होने की कोशिशें करने लगा था। अपने शहर की एक नव-विवाहिता की आकस्मिक मौत से दु:खी होकर मैंने एक कहानी लिखी ‘मूक बलिदान’। वह प्रताप इंटर कॉलेज, टिहरी की मैग्ज़ीन में प्रकाशित हुई थी। शुरु-शुरु में कुछ-कुछ कवियाने भी लगा था। पढ़ाई के सिलसिले में पहाड़ों के घेरे से निकलकर दो-तीन वर्षों के अंदर ही सन् 1952 में काशी जा लगा। मैं भगवानदास छात्रावास, काशी में रहने लगा था। वहाँ कवि केदारनाथ सिंह मेरा सहपाठी होने के अलावा निकटतम पड़ोसी भी था।
उसकी कविताओं को सुनने व पढ़ने का मौका मिलने लगा। त्रिलोचन शास्त्री से उनकी कविताएँ सुनने लगा। इन कवियों के सामने कभी अपनी यह बताने की भी हिम्मत नहीं हुई कि मैं भी कविता लिखता हूँ। निराला, रवि ठाकुर, नाजिम हिमकत और पाब्लो नेरूदा जैसे महान् कवियों की रचनाओं से भी परिचय होने लगा। तब अच्छी कविताओं ने तुकबंदी करने की मेरी प्रवृत्ति पर खुद ही रोक लगा दी। और सबसे अधिक प्रभाव पड़ा केदार की संगत का। मेरे मुख से किसी शेर का पहला ही मिसरा निकल पाता था-‘‘रेख़्ते के उस्ताद तुम्हीं नहीं हो ग़ालिब’’ कि केदार खटाक से टोक देता-‘‘आँ-आँ, कर दिया न तुमने गुड़-गोबर !’’ गुड़ और गोबर-ये दोनों एकदम अलग-अलग चीजें होती हैं, जिन्हें शरीर को तकलीफ दे रहे किसी न पक रहे फोड़े को पकाने के लिए सिर्फ पुटलिस बनाने में एक साथ इस्तेमाल किया जाता है। अन्यथा नहीं। कई बार जरूरत पर गोबर के गणेशजी बना लिए जाते हैं, पर उसमें भी गुड़ नहीं मिलाया जाता। निकटतम पड़ोसी कवि की रोज़-रोज़ की टोकाटाकी। होस्टल तो मैं छोड़ नहीं सकता था। कहाँ जाता ? तंग आकर मैंने सदा के लिए कविता का रास्ता ही छोड़ दिया था।
तब अपना ध्यान पूरी तरह कहानी लिखने पर ही केंद्रित करने लगा। काशी नगरी ने मेरे जीवन में साहित्य की दुनिया के नए दरवाज़े खोल दिए। और त्रिशूल नगरी में कदम रखते ही दिमाग ठिकाने पर आ लगा कि कविता करना मेरे वश की बात नहीं। उसके लिए कोई और मेधा चाहिए। मुझे लगा कि सम्मेलनी कवि बनने में कोई तुक नहीं। गद्य लिखना हम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। गद्य की दुनिया से तो मुझे कोई नहीं हटा सकता। अपने मन में मैंने खुद ही भाई-बाँट भी कर ली थी-लो केदारनाथ सिंह ! अब से तुम गुड़, मैं गोबर।
बनारस में मैंने एक-दो कहानियाँ लिखीं। उन्हें किसी जानकार को दिखना चाहता था। अपने पुराने संस्मरणों के कुछ कागज़ात इस बीच मेरे हाथ लगे हैं। एक जगह मैंने कभी ऐसा दर्ज किया था-‘‘तो हम अड़ोस-पड़ोस के होस्टलों के निवासी थे। सिंह की चाल। न्यू होस्टल्स (राधाकृष्ण, भगवानदास, गुर्टू) सामने चौड़ी, कच्ची सड़क के किनारे रोज़ चलने वाला छरहरा व्यक्ति। धोती, कुर्ता। सफेद, उजले। पांव में सादी चप्पलें। तीन-चार दिनों से मैं उस व्यक्ति को आते-जाते देख रहा था। आज सामान्य हिंदी की क्लास में गया। श्रीमन् हमारी क्लास ले रहे हैं। किसी सहपाठी ने हल्के से मेरी जिज्ञासा शांत की-नामवर सिंह। रिसर्च स्कॉलर हैं। श्रोता खामोश। मूर्तिवत्। जादू वाणी का था। विद्यार्थियों के दिमागों पर पकड़ कथ्य की थी। कुछ नई बात बोली जा रही थी, नए ढंग से बोली जा रही थी। निर्मल झरने की तरह अनमोल शब्दों, वाक्यों की झड़ी लग गई थी। भाषा सरल, आडंबरहीन। शब्द भारी नहीं थे। उनका अर्थ भी बोझिल नहीं था। भीड़। सेंट्रल हिंदू कॉलेज की निचली मंज़िल। खूब चौड़ा बरामदा, जहाँ राह चलते छात्र भी खड़े होने लगे थे। वे वहाँ पहुँचते ही एक फुट ज़मीन से चिपक जाते थे। वे दरवाज़ों खिड़कियों से अंदर खड़े व्यक्ति का भाषण सुन रहे थे। कमरे के अंदर लगाई गई सभी सीटों पर विद्यार्थी बैठे थे। सीटों के बाद जो खाली जगह थी वहाँ भी छात्र खड़े थे। छात्र समूह अवाक् था। नामवर सिंह की वाणी ने उनकी चेतना को झकझोरना शुरू कर दिया था।
‘‘शाम को मैं डॉ.भगवानदास होस्टल के गेट पर खड़ा था। सामने की सड़क पर प्रोफेसर नामवर सिंह को जाते देखा। वे गुर्टू में रहते थे। यह जासूसी मेरी आँखों ने दो-तीन दिन पहले ही कर ली थी। मैंने होस्टल गेट से बाहर निकलकर सड़क पार की और देहरादूनी लहजे में ‘गुरुजी प्रणाम कहा।’ प्रणाम तो हो गया। अब क्या बात की जाए ? बहुत साहस बटोरकर मैंने कहा-मैंने एक-दो कहानियाँ लिखी हैं, क्या आप उन्हें देख सकते हैं ?
‘‘मैंने प्रणाम पीछे से किया था। संस्कार ऐसे थे कि अपने से बड़ो के आगे या बराबरी पर नहीं चलते। नामवर सिंह ने एक बार कनखियों से पीछे की ओर नज़र घुमाई थी। फिर आगे बढ़ गए। यह आभास था कि मैं साथ लगा हूँ। थम नहीं गया हूँ। मेरे प्रणाम ने उन्हें रोक दिया। मैंने संक्षिप्त परिचय दिया-टिहरी गढ़वाल का निवासी हूं, देहरादून से इंटर किया है। थर्ड इयर जनरल हिंदी में आपका विद्यार्थी हूँ।
‘‘हाँ, हुई कि मैं कमरे की ओर लपका। कहानियों की कॉपी उठाई। नामवर सिंह गुर्टू होस्टल में अपने कमरे का ताला खोल रहे थे कि मैं हाजिर हो गया। कमरा खुला। वहाँ चारों ओर किताबें ही किताबें थीं। मैंने कॉपी मेज़ पर रख दी। रात अपने बिस्तर पर (तख्त के ऊपर, जिसका प्रावधान महामना ने बी.एच.यू. के छात्रों के लिए करवाया था) लेटे-लेटे मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि उस विद्वान को मेरी कहानियाँ पढ़ने की फुरसत मिल भी पाएगी या नहीं ? मैंने कल्पना की कि मेरी कहानियों के पात्र बारी-बारी से नामवर सिंह के सामने हाजिर हो रहे हैं। और मैं यह भी सोचता रहा कि अगर नामवर सिंह मेरी कहानियों की गलतियों को ठीक कर दें (कक्षा के निबंधों की तरह) तो कितना अच्छा होता। मुझे कहानियाँ लिखना सिखा दें तो क्या कहने।’’
दूसरे दिन, शाम के मौके पर, मैं नामवर सिंह के कमरे में पहुँचा तो वहाँ पहले से ही एक भारी-भरकम दिव्य व्यक्ति विराजमान थे। मेरे कमरे में पहुँचते ही नामवर सिंह ने उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर कहा-शिवप्रसाद जी ! मैं आपको एक सिद्धहस्त कहानीकार से मिलवा रहा हूँ। ये हैं विद्यासागर नौटियाल।
नामवर सिंह द्वारा दिए गए उस परिचय को शिवप्रसाद सिंह सीधे भाव से नहीं ले पाए थे। वे उखड़ गए। उनकी मौजूदगी में एक नौसिखिए, थर्ड इयर के विद्यार्थी, सींकिया पहलवान को (जो कि मैं वास्तव में था) सिद्धहस्त कहकर परिचित कराना उन्हें खल गया। उन्होंने मेरी काया पर ऊपर से नीचे तक एक सरसरी पैनी निगाह फेरी (ठाकुर की आँख !) अपने आसन (मोढ़े) से उठे और बिना कुछ कहे तत्काल कमरे से बाहर निकल गए। उनके जाने के बाद नामवर सिंह ने मेरी कहानी के बारे में अपनी बात कही। उसके सही होने का प्रमाण दे दिया। तब तक मैं सही और गलत दो ही चीज़ें जानता था। आलोचना की कूटनीतिक भाषा ‘‘आपकी रचना तो बहुत दमदार है, लेकिन...’’ आज भी समझ में नहीं आती। उस वक्त तो उसे कहीं छपा हुए देखने का सौभाग्य भी नहीं मिला था।
मेरी नोट-बुक में दर्ज है कि ता.10-7-53 को मैंने ‘भैंस का कट्या’ कहानी ‘हिंदुस्तान साप्ताहिक’ को भेजी थी। वहाँ से उसे लौटा दिया गया था। कुछ दिन बाद प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में मुझे उस कहानी ‘भैंस का कट्या’ का पाठ करने का मौका मिला। नामवर सिंह उसे पहले ही पढ़ चुके थे। गोष्ठी में उपस्थित साहित्यकारों को कहानी बहुत अच्छी लगी जगत शंखधर, चंद्रबली सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, विष्णुचंद्र शर्मा, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, ठाकुरप्रसाद सिंह, शिवप्रसाद सिंह और काशी के अनेक दूसरे रचनाधर्मी गोष्ठी में उपस्थित थे। शिवप्रसाद सिंहजी ने भी होस्टल में अकेले मिलने पर भी उसकी बहुत तारीफ की। (शिवप्रसाद सिंहजी हमें छोड़कर जा चुके हैं। विनीत श्रद्धांजलि) कहानी ‘कल्पना’ के पते पर हैदराबाद भेज दी गई। लेकिन ‘कल्पना’ में प्रकाशित होने से पहले ही उस कहानी के माध्यम से मेरा नाम काशी की सीमाएँ लाँघकर प्रयाग के साहित्य-जगत् तक जा पहुँचा था। उसके छप जाने के बाद प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र-कथाकार मार्कंडेय ने उसे एक संकलन में लेने की योजना बनाई।
चौक से आगे एक और नवयुवक कथाकार रहता था, जिसका नाम कमलेश्वर था। मेरे प्रयाग पहुँचने पर वह रात्रि-विश्राम के लिए मुझे अपने घर ले गया। मेरे परिचित साहित्यकारों का दायरा बढ़ने लगा। देश के विभिन्न शहरों से पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मुझसे कहानी की माँग करने लगे।
‘भैंस का कट्या’ 1953 में लिखी गई और अक्टूबर, 1954 में प्रकाशित हुई। सोवियत संघ के प्राच्य विद्या संस्थान में अकादमीशियन डॉ.वी.चेर्निशोव ने इस कहानी का रूसी अनुवाद किया और अपनी लंबी टिप्पणी के साथ एक कहानी-संकलन में सम्मिलित किया, जिसका शीर्षक था-‘दीती इंदी’ (भारतीय बच्चे)। उस संकलन में जिन अन्य कथाकारों की कहानियाँ ली गई थीं, उनके नाम थे- प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामवृक्ष बेनीपुरी, सुदर्शन, जैनेद्र, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भारती, सियारामशरण गुप्त, भगवतीप्रसाद बाजपेयी, सत्यवती मलिक, मोहन राकेश, भीष्म सहानी और सत्येन्द्र शरत। उसी दौरान प्रसिद्ध कहानीकार विनोदशंकर व्यास ने हिंदी कहानियों का ‘मधुकरी’ नाम से चार भागों में एक वृहद संकलन भी संपादित और प्रकाशित किया। ‘भैंस का कट्या’ को उसमें भी सम्मिलित किया गया। काशी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह ने कुछ वर्ष पूर्व हम अनेक ज़िंदा, लगातार साँसें (या उसाँसें) भरते जा रहे लेखकों को सूचित तक किए बगैर (स्वीकृति लेना तो दूर की बात) ‘मधुकरी’ का नया संस्करण प्रकाशित कर दिया। इस ज़िंदगी में अभी पता नहीं और क्या-क्या देखना होगा !
देश-विदेश के विद्वानों, आलोचकों, समीक्षाकारों व पाठकों ने ‘भैंस का कट्या’ को अपने-अपने नजरिए से देखा और परखा। ज़्यादातर को उसमें करुणा-रस रिसता दिखाई दिया और कुछ ने एक अबोध बालक की मन:स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन पाया। करीब पचास बरसों के अंतराल के उपरांत 4 जून, 2000 को इस कहानी के आदि-पाठक (अब डॉ.) नामवर सिंह ने देहरादून में आयोजित ‘पहल सम्मान’ समारोह के अवसर पर अपने अध्यक्षीय भाषण में ‘भैंस का कट्या’ के मूल तत्व की ओर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करते हुए स्पष्ट किया कि इसमें प्रमुख तत्व करुणा नहीं है, सामंत-विरोध है। उस सुहावनी शाम देहरादून के टाउन हॉल में बैठे-बैठे उनके श्रीमुख से उस विश्लेषण को सुनते हुए मेरे अशांत मन को परम शांति मिल रही थी कि इस कहानी के तथा मेरी अधिकांश रचनाओं के मूल तत्व को अंतत: पहचान लिया गया है। देर से ही सही। किसी रचना के मूल्यांकन में आधी सदी का समय लग जाना यों भी कोई ज्यादा मायने नहीं रखता। शुरु में कह चुका हूँ कि मैं एक रियासत में पैदा हुआ था। होश सँभालने के बाद से मैं उस सदेह सामंतवाद के रक्त, मज्जा, मांस और उन सामंती प्रवृत्तियों के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहा, जो हमारे भारतीय मानस पर सनातन तौर पर हावी रहती आई हैं। जीवन में भी और अपनी रचनाओं में भी उन प्रवृत्तियों से लोहा लेता रहा। मेरी राजनीति का यह एक मुख्य अंश है।
अब ठीक त्रेपन वर्षों के अंतराल के बाद, इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लेने पर मुझे लगा कि इस कहानी को कुछ मामूली संशोधन दरकार है। आखिर कहानी तो मेरी है। अपनी ज़िम्मेदारी से जीते-जी मैं कैसे भाग सकता हूँ ? इस संग्रह की पांडुलिपि तैयार करने से पेश्तर मैंने कहानी के शुरूआती अंश में कुछ मामूली संशोधन भी कर दिए। ‘भैंस का कट्या’ कहानी अपने संशोधित रूप में पहली बार इस संग्रह में प्रकाशित हो रही है।
इस संग्रह के लिए कहानियों का चयन करते वक्त मैंने अपने राजनीतिक चुनावों की याद करते हुए वही फॉर्मूला अपनाना बेहतर समझा। कोई प्रत्याशी अपने को कितना ही योग्य समझता हो, मतदाता भी योग्य समझेगा तभी तो वह निर्वाचित हो पाएगा। इसीलिए अपनी पसंद को गौण मानते हुए मैंने अपने पात्रों के दवाब और पाठकों की पसंद का ध्यान रखना ही बेहतर समझा। फिर भी अपनी पसंद की एक, मात्र एक, कहानी देने के लोभ से मैं अपने को रोक नहीं पाया। वह कहानी ‘सुच्ची डोर’ है। उस कहानी की अपनी एक अलग कहानी है और मैं उसे बयान कर रहा हूँ।
मेरे पिता वन विभाग में रेंज ऑफीसर थे। रेंज कार्यालय डाँगचौंरा में था। घाटी में होने के कारण वहाँ गर्म होने लगता था। लिहाज़ा गर्मी से निजात पाने के लिए हमारा परिवार गर्मियों में एक ऊंचे पहाड़ चंद्रबदनी पर चला जाता था। उन दिनों (शायद सन् 1953 में) गर्मियों की छुट्टियों में मैं बनारस से घर आया था। पिता बहुत अच्छे घुड़सवार थे और अच्छे घोड़े रखने का उन्हें बहुत शौक था। हमारे पास एक लाल रंग का बलिष्ठ घोड़ा था, जिसकी ऊँचाई औसत घोड़ों से कुछ ज़्यादा थी। घोड़े को जंगल में चरने के लिए छोड़ दिया जाता था। कई बार घास चरते रहने में वह इस तरह मगन हो जाता कि रात में घर लौटना ही भूल जाता था। पिता ने वह घोड़ा किसी गूजर से खरीदा था। उसके संस्कार गूजरों के घोडों के जैसे थे, जो मैदानी क्षेत्र से एक बार ऊंचे चरागाहों में पहुँचा लिए जाने के बाद अपने डेरों पर नहीं लौटते। न रात में, न दिन में। दो महीनें तक खुले घूमते रहते हैं। गूजरों के घोड़े तो झुंड में रहते हैं।
फिर भी कई बार बाघ उन पर हमला कर बैठता है। कुछ साल पहले गूजरों के घोड़ों के साथ पँवाली बुग्याल में भेज दिए गए हमारे एक घोड़े को भी बाघ ने मार गिराया था। यह अकेला घोड़ा है। इस पर कहीं बाघ की नजर पड़ गई तो वह उसे छोड़ेगा नहीं। हमारा पूरा परिवार चिंतित हो उठता। रात पड़ते-पड़ते हम चंद्रबदनी के उस घने, लंबे-चौड़े जंगल में अपने घोड़े की तलाश में निकल पड़ते। वह किसी ऐसी ऊंची चट्टान पर बनी गुफा में नजर आता जहाँ पहुँचने की शायद बाघ भी हिम्मत नहीं कर सकता था। कभी-कभी ऐसा भी हो उठता था कि वह हमें कहीं दिखाई ही न देता। तब निराश होकर हम रात में घर लौट आते। अगले दिन सुबह रात खुलते ही फिर उसकी तलाश में निकल जाते। यह रोज़ का किस्सा हो गया। रोज़-रोज़ उसकी तलाश में भटकते रहने के कारण एक दिन मेरा जूता टें बोल गया। जूते की मरम्मत करवाने के लिए मैं किसी मोची की तलाश में चल दिया। बनारस लौट जाने पर अपने उस दिन के अनुभव को काफी वर्षों के बाद मैंने ‘सुच्ची डोर’ कहानी में परिणत कर दिया। कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी पत्रिका के पास भेज दी। वह छप भी गई। कहानी का भाग एक समाप्त।
कहानी का दूसरा भाग। सन् 1959 में मैं काशी से अपने घर टिहरी लौट आया और पहाड़ों पर कम्युनिस्ट पार्टी के कुलवक्ती कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगा। ज़्यादातर पैदल चलता हुआ मैं पहाड़ी गाँवों की खाक छानने लगा। मेरी लिखाई-पढ़ाई पूरी तरह ठप हो गई। करीब पच्चीस वर्षों के बाद मेरे दिमाग में आया कि मुझे बनारस के ज़माने में लिखी अपने कहानियों का एक संग्रह छपवा देना चाहिए। पुरानी पत्रिकाओं की फाइलों में अपनी कहानियों की तलाश जारी करवा दी। कुछ कहानियाँ मिल गईं। ‘टिहरी की कहानियाँ’ शीर्षक से उनकी पांडुलिपि तैयार कर ‘राजकमल प्रकाशन’ को सौंप दी। ‘सुच्ची डोर’ कहानी उपलब्ध नहीं हो पाई। मैं यह भी भूल गया कि वह किस पत्रिका में छपी थी। वह मेरी एक अत्यंत प्रिय कहानी थी। उसका कथानक ऐसा था कि उसे भूल जाने का सवाल ही नहीं उठ सकता था।
और उसका मुख्य पात्र मोची लगातार मेरे भीतर बैठा रहता था। कई बार वह मुझसे संवाद करता लगता-हाँ जी ! तो मेरा क्या हुआ ? मुझे यों ही अधबीच में छोड़ दिया ? उस कहानी को संग्रह में न दे पाने का दु:ख मुझे सालता रहता था। मैंने हिम्मत की और उसे दुबारा लिखने का निश्चय कर लिया। पच्चीस वर्षों के अंतराल के बाद, अपनी याददाश्त के आधार पर, उसे नए सिरे से लिख डाला। लिख लेने के बाद फिर अपने दैनिक कामों में कदम-कदम चलते हुए इस पहाड़ के शिखर पर इस ओर से ऊपर चढ़ो, उधर से नीचे उतरो, उलझ गया। आज, कल, आज, कल करते-करते समय बीतता चला। उसकी नकल कर कहीं प्रकाशनार्थ नहीं भेज पाया। साहित्य के प्रति मेरी बेरुखी भाँपकर वह लाचार कहानी अंतत: टिहरी में मेरे दूसरे कागजात के ढेर में कहीं आराम फरमाने लगी और लुक गई। कहानी का दूसरा भाग समाप्त।
कहानी सुच्ची डोर का तीसरा भाग यों शुरु होता है कि मैंने देहरादून में एक घर खरीदा और वहाँ आकर रहने लगा। बूढ़े, कृषकाय मोची की याद फिर मुझे कोंचने लगी, जो युगों से मेरे भीतर जमकर बैठा था। मेरी बेचैनी फिर बढ़ने लगी। अपनी ज़िंदगी में तीसरी बार मैंने हिम्मत की और नए सिरे से उसकी कहानी लिख डाली। ले बुढ़ऊ ! तू इन कागजों में आबाद हो जा। अब निकल मेरे दिल से बाहर। मैं इसके कथानक से खुद इतना प्रभावित रहता था कि इसे अपने जीवन की कथा-पूँजी से यों ही गायब नहीं होने दे सकता था। कहानी को पूरा लिख लेने के बाद मैंने इसे देहरादून की साहित्यिक संस्था ‘संवेदना’ की गोष्ठी में पढ़कर सुनाया। मित्रों को कहानी बहुत पसंद आई।
लेकिन उसके कुछ अंशों को घटाने-बढ़ाने की बात प्रमुखता से उठाई गई। घर पहुंचते ही मैं टाइपराइटर पर बैठ गया और मित्रों की सम्मत्तियों, सुझावों के आधार पर पूरी कहानी को नए सिरे से लिख डाला। उसे जनसत्ता ने प्रकाशित किया था। समझदार संपादक मंगलेश डबराल ने लेखक की जगह सिर्फ मेरा ही नाम छापा था। कहानी को परिष्कृत कर अंतिम रूप देने में जिन-जिन मित्रों के विचारों का समावेश किया गया था उनके नाम कभी उजागर नहीं हो पाएँगे। रचनाओं के साथ ऐसा ही अन्याय होता रहता है। यह कथा मुख्यता दो पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है-एक राजा और एक मोची। राजा एक पौराणिक पात्र है। दक्ष प्रजापति। वह कभी सामने नहीं आता। राजे-महाराजे अपने दरबारों में रहते हैं। वे प्रजा के सामने क्यों आने लगे ? मोची हमारे बीच का एक अछूत है, जिससे अजीब स्थिति में मेरी भेंट हुई थी। उसी दिन वह मोची मेरे दिल के भीतर जमकर बैठ गया और उसने अपनी कहानी मुझसे ज़बर्दस्ती लिखवा ही डाली। एक बार नहीं, तीन-तीन बार (कायदे में चार बार)। हर बार उसे लिख लेने के बाद मेरे दिल को शांति मिल जाती थी।
इस कहानी का किसी भी समीक्षक ने कहीं जिक्र तक नहीं किया। अधिकांश हिंदी आलोचकों शोधकर्ताओं के गाइडों की प्राइवेट लिमिटेड सूची में यों भी मेरे नाम का कोई कहानीकार है ही नहीं। इस कहानी के बारे में किसी पाठक तक ने कोई पत्र नहीं लिखा। लेकिन मैं ‘सुच्ची डोर’ को अपने जीवन की एक बेहतरीन कहानी मानता आया हूँ। इसलिए अपनी रुचि (और अपने एक पात्र की मंशा) अपने निरीह, कृपालु पाठकों पर थोपने की धृष्टता कर रहा हूँ। आखिर दस कहानियों में एक कहानी अपनी ओर से देने का हक़ तो मुझे मिलना ही चाहिए। टेन परसेंट का हक। निर्माण-कार्यों में तो, सुनता हूँ दस की जगह अब फ़िफ़्टी परसेंट तक लिए जाने का आम रिवाज प्रचलित हो गया है।
आठ बरस तक मैं काशी-वासी होकर रहा। काशी को मैं अपने पुनर्जन्म की भूमि मानता आया हूँ। मेरी कहानियों में अधिकांश काशी में रहते हुए लिखी गईं या उनको लिखने का विचार वहीं रहते हुए पनपने लगा था। ‘भैंस का कट्या’ के अलावा इस संग्रह में दी जा रही अन्य कहानियों में ‘सोना’, ‘सुच्ची डोर’ तथा ‘घास’ भी वहीं लिखी गईं ‘फट जा पंचधार, ‘खच्चर फगणू नहीं होते’ तथा ‘सन्निपात’ के बीज मेरे दिमाग में काशी से ही अंकुरित होने लगे थे।
‘सोना’ कहानी का सर्वप्रथम अनुवाद गुजराती में मनहर चौहान ने किया। एक गुजराती दैनिक ने अपने साहित्यिक परिशिष्ट में उसे प्रकाशित किया था। बाद में डॉ.वी.चेर्निशोव ने रूसी में अनूदित किया, जिसे सन् 1958 में मास्को के ‘लिटरेरी गजेट’ पत्रिका ने प्रकाशित किया। मंजूसिंह ने ‘एक कहानी’ सीरियल के अंतर्गत 80 के दशक में एक टेलीफिल्म का निर्माण किया, जिसे दूरदर्शन ने अनेक बार प्रदर्शित किया। इस फिल्म को आम दर्शक ‘नथ’ नाम से जानने लगे। भारत के विभिन्न शहरों में यह फिल्म मेरी पहचान का माध्यम बन गई। छोटे बच्चों से लेकर आम लोग, यहाँ तक कि साहित्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता न रखने वाली घरों की सभी उम्रों की महिलाएँ भी मुझे इस फिल्म का नाम लेते ही पहचानने लगती हैं।
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