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भैरप्पा की कल्पनामय यथार्थ शैली का अदभुत चमत्कार
Chhor
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
कुशाग्र बुद्धि अमृता ने चाची के कुचक्र की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया और अपनी पढ़ाई-लिखाई में ही व्यस्त रही। कुछ समय उपरान्त पिता भी स्वर्गवासी हुए और तब घर-परिवार तथा व्यापार पर चाची का वर्चस्व स्थापित हो गया। अमृता की सम्पत्ति धीरे-धीरे और भीतर-ही-भीतर चाची उसके बच्चों की ओर खिसकने लगी। अमृता की सम्पत्ति पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए चाची ने अमृता को बहला-फुसलाकर उसका ब्याह अपने छोटे भाई से करा दिया। हालात को स्वीकार करके मजबूर अमृता एक कालिज में अध्यापन करने लगी और अपने दोनों बच्चों के साथ बागान से दूर पिता की एक पुरानी कोठी में रहने लगी। वहीं उसकी मुलाकात वास्तुकार सोमशेखर से हुई जो बम्बई छोड़कर मैसूर आ गया था। दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे की ओर आकृष्ट होने लगे। इस बीच अमृता को चाची के कुचक्रों का भी आभास होने लगा। परिस्थितियों ने उसके स्वभाव में अजीब चिढ़चिढ़ापन, जीवन के प्रति अरुचि, कुंठा और विकर्षण को जन्म दिया। उसे जीवन बेमानी करने लगा किन्तु बेटों के प्रति मोह और सोमशेखर के प्रति अस्पष्ट आकर्षण उसे बार-बार आत्महत्या की कगार से लौटा लाता। अमृता की जिंदगी में जीवन और मृत्यु की ऊहापोह, उसकी कुंठा ही उसकी जिंदगी के दो छोर हैं जिनके बीच वह बार-बार झोंटे खाती रहती। यह उपन्यास रोचक होने के साथ-साथ एक विशेष मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को पैदा करता है। जो यथार्थ के साथ-साथ विचित्र भी हो गई हैं। यहाँ है भैरप्पा की कल्पनामय यथार्थ शैली का अदभुत चमत्कार
नई इमारत के नए-नए प्रतिमान आदि तैयार करना उस वास्तुकार की प्रतिष्ठा के योग्य ठहरता है जो अपना फलक फैलाये रहता है। किन्तु सोम-शेखर पुरानी इमारत की मरम्मत के बारे में सलाह देना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध नहीं मानता। वैसे मरम्मत का काम लेकर कोई आज तक उसके पास आया भी नहीं था। मैसूर शहर के बाहरी प्रदेश की ललित महल रोड के किनारे की इमारत थी। विशाल कम्पाउंड और मदरासी छत वाली इकतल्ला इमारत जब से बनी है तब से शायद एक-दो बार रंग व रोगन हुआ हो और इसीलिए उजड़ी-उजड़ी सी नजर आती है। इमारत पुरानी थी; इसलिए निश्चयपूर्वक कहा जा सकता था कि उसके दरवाजे, खिड़की आदि असली सागवान के बने हैं। इतनी सागवान का उपयोग उन दिनों सम्भव था। सिर उठाकर देखने से पन्द्रह फुट ऊँती छत फाँसी के फंदे के अनुकूल दिखाई पड़ती है। किन्तु उसी छत के बीचों-बीच दो दरारों से आसमान झाँकने लगा था और इसी रास्ते बरसात के दिनों में आकाश का पानी नीचे उतर आता था। गारे-सुर्खी से बने फर्श पर भी बरसाती पानी से भीग-भीगकर काई जम गई थी और देखने में वह भद्दी लगती। गृहस्वामिनी डा. अमृता की कार भी तो पुरानी ही है। बरसात में भीगते, गर्मी में सूखते हुए आयु में बूढ़ी लगने वाली प्रारम्भिक मॉडल की फिएट कार। फिर भी उस घर की तरह ही मजबूत, अजड़।
‘‘इस चुआन को कैसे रोका जाए ? सारे घर में रंग-रोगन भी करवाना है। दोनों कामों पर कुल कितना खर्च होगा ? दोनों काम आपको करने होंगे।’’
उसने सारा परिकलन करके बताया, ‘‘ऊपर जहाँ कहीं दरारें पड़ी हैं वहाँ ऊपरी तह तुड़वाकर नई सुर्खी भरवानी पड़ेगी। इसकी लागत नौ हजार होगी। सारे घर का पुराना चूना खुरचकर डिस्टेम्पर और रंग चढ़ाने में तीस हजार लग जाएँगे।’’
इतनी राशि सुनकर अमृता के चेहरे का रंग उड़ गया, सोच-विचार करके, ‘‘फिर आऊँगी,’’ इतना कहकर जो वह गई तो महीना भर तक आई नहीं। फिर एक साँझ आकर झिझकते हुए बोली, ‘‘फिलहाल रंग का काम रहने दें। आपने छत पर सुर्खी डलवाने की जो सलाह दी है, उसके लिए नौ हजार की रक़म तत्काल जोड़ पाना मेरे लिए ज़रा कठिन है। उससे कम खर्च वाला क्या कोई और तरीका नहीं है ? बरसात सिर पर है। मरम्मत निहायत जरूरी है। वरना, ऊपर से पानी टपकने लगा तो डर लगने लगता है। इसलिए, फिलहाल....’’ अपनी आर्थिक स्थिति की विवशता बताते हुए झिझकते हुए उसने बस इतना ही कहा।
सोमशेखर समझ गया दो-एक पल सोचकर बोला, ‘‘एक और तरीका है। जहाँ दरार पड़ी है, उसकी जरा कुटाई करके आर-पार उसमें डामर भरा जा सकता है। उससे केवल एक बरसात की राहत मिल सकती है। अगली गर्मी में जब डामर पिघल जाएगा तब फिर टपकने लगेगा। लगभग चार-पाँच सौ में काम बन जाएगा। घर को रंग के बदले प्राइमर से पुतवा दें तो हजार के आसपास खर्च आएगा।’’
वह दो-एक पल सोचती रही। फिर बोली, ‘‘फिलहाल डामर भरवा दीजिए। एक-दो महीने के बाद प्राइमर पुतवाऊँगी।’’ सोमशेखर ने राज को बुलवाया, खुद बड़ी नसेनी से चढ़कर काम की निगरानी करके उसके घर की मरम्मत करवाई। वह समझ गया कि परिवार जो कभी मालदार था अब उसके बुरे दिन आ गए हैं। ‘‘बिलकुल मामूली-सा काम था। फिर भी आपने बड़ी हमदर्दी के साथ उसे पूरा किया। आपकी फीस कितनी हुई; कृपा करके बताइए।’’ उसने आग्रह किया।
‘‘अगर बड़ा काम होता तब फ़ीस या पर्सेंटेज की बात थी। अब रहने दीजिए।’’-उसने सविनय किन्तु दृढ़ता से कह दिया। सात वर्ष तथा चार वर्ष के दो बेटों की माँ। गोल चेहरा, ऊँचा क़द सुन्दर महिला। कालेज में कन्नड़ साहित्य की प्रवक्ता। डाक्टरेट की उपाधि-प्राप्त तेज़ बुद्धि वाली, चुस्त आँखों वाली विदुषी। हर काम स्वयं करती है। पता नहीं, पति कहाँ है ! उसने इस बारे में कभी ज़बान नहीं खोली। आप पूछे भी कैसे ? यह सोचकर चुप रह गया कि उन्हें जिस सहायता की आवश्यकता थी वह तो कर दी। आगे उनसे सम्पर्क भी नहीं रहेगा। फिर भी वह कई दिनों तक याद बनकर दिमाग में मँडराती रही।
केवल अमृता ही नहीं, बल्कि वह समूचा घर कभी-कभार उसकी यादों में तैर जाता था। कई बार उसने स्वयं विश्वलेषण करके देखा कि उस मद्रासी छत वाले पुराने बँगले में ऐसी क्या विशेषता है जिसे वास्तुकारी की दृष्टि से याद रखा जा सके ! एक दिन बात समझ में आ गई। घर की पृष्ठभूमि में आकाश को छूता हुआ चामुंडी पर्वत खड़ा है। चाहे हरियाली हो या न हो, उस पर्वत का एक अपना विशिष्ट अस्तित्व है। निगूढ़ नीलाकाश के साथ सम्पर्क स्थापित करने का भाव है। जिस घर को ऐसे पर्वत से सटी हुई पृष्ठभूमि प्राप्त हो उस घर को और किस आच्छादन की आवश्यकता होगी भला ! इस दृश्य को मन-ही-मन में सराहने लगा तो बरबस उसे अपने बम्बई वाले व्यावसायिक जीवन की नीरसता याद हो आई। ऐसी विशाल खुली जगह उस शैतानी शहर में तो कहीं नहीं है। अपनी तरह का ऐसा अकेला घर वहाँ पाना सम्भव ही नहीं। जो भी हैं, सभी तल्ले पर तल्ले चढ़े हुए इन दिनों तो दस, पन्द्रह, बीस तल्लों वाली सभी भावशून्य इमारतें हैं। वहाँ की वास्तुकारी की खूबी यही होती है कि यूरोप और अमरीका में शोध की गई नई-नई सामग्री को यहाँ की तंग सँकरी दुनिया से जोड़ देना। बम्बई के रहन-सहन, वहाँ के व्यवसाय से ऊबकर चार वर्षों के पश्चात् मैसूर आने का विचार आया था उसके मन में। चाहे कुछ न हो, यहाँ छोटी ही सही, अपनी निजी पहचान रखने वाली, अपनी छाप अंकित करने वाली इमारतों के निर्माण की सम्भावना दिखाई देने लगी। भले ही आज मैसूर बढ़ गया हो। भीड़ अधिक हो गई हो; किन्तु गरदन उठाकर देखने पर आज भी निरापद मुक्त आकाश देखा जा सकता है।
पुराना कुक्करहल्ली ताल तो आज भी ज्यों का त्यों है। कुछ भागों में पेड़-पौधों की हरियाली भले ही न रही हो, किन्तु चामुंडी पर्वत तो किसी कल-कारखाने का ग्रास नहीं बना है। बचपन की वे यादें जागकर गुदगुदाने लगीं जब साँझ या सवेरे जब कभी मन करता तो अकेला पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर नजर घुमा शान्त, गौरवशाली, फिर भी अहंकारहीन होकर सविनय सौन्दर्य से झुके हुए उस व्यापक मैसूर शहर को घण्टों बैठा देखता रहता और पसीना सूख जाने पर नीचे उतर आता। हाल ही में, जब वह नया-नया यहाँ आया था तब अपने काम को छोड़कर कितनी साँझें इसी पर चढ़कर डूबते सूरज की लाल-सफेद किरणों से निर्मित क्षितिज की दीवार को निहारते बिताई थीं। इसकी याद करते एक बार फिर पहाड़ की चोटी चढ़कर उस घर को ढूँढ़ निकालने का उसका मन हुआ जिसकी हाल ही में उसने मरम्मत करवाई थी।
उस दिन सोमवार था। शाम के चार बजे उसे अमृता का फ़ोन आया, ‘‘आपका समय बर्बाद कर रही हूँ। आगामी इतवार को आपको हमारे यहाँ चाय पर आना होगा। कृपा करके ना मत कहिए।’’
यह आवाज़ सुनकर तथा चाय का निमन्त्रण पाकर उसे खुशी हुई। तुरन्त समझ गया कि निःशुल्क काम कर देने के कारण कृतज्ञता दर्शाने के लिए यह चाय की पार्टी दी जा रही है। और परसों खासा पानी भी बरसा था, साल की पहली बारिश। उस बारिश में शायद घर में बरसात का पानी टपका नहीं होगा-यह भी एक कारण हो सकता है ! उसने पूछा, ‘‘परसों की बारिश में घर चूआ तो नहीं ?’’
‘‘सच बात तो यह है कि इस मरम्मत से टपकना इस कदर बन्द हो जाएगा इसका मुझे विश्वास ही नहीं था। एक बूँद भी नहीं टपकी। मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि किन शब्दों में आपको धन्यवाद दूँ ! आइए, इतवार को।’’-इन बातों से वह सहसा लजा-सा गया। वह मना करता रहा। किन्तु, अमृता ने उसे मनवाकर ही छोड़ा।
उसमें इस बात की उत्सुकता बढ़ी कि आज से छठे दिन वह अमृता के घर चाय पर जाएगा। उसके सामने बैठकर घण्टों उससे बतियाता रहेगा। फुरसत के समय मन इसी विचार को पगुराता रहा। लेकिन बुधवार की शाम किसी बहाने से उस निमन्त्रण को टाल देने का विचार उसके मन में आया। क्यों ? चला भी जाएगा तो कौन-सी आफ़त आ पड़ेगी भला ? इस प्रश्न का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया। फिर भी टाल देने की इच्छा ज़ोर पकड़ने लगी। इतवार के दिन कहीं बाहर जाने का बहाना दूसरे दिन सवेरे निकल आया। विराजपेट के बोपण्णा नाम के एक सज्जन अपने कॉफी ऐस्टेट में एक नया घर बनवाने के सिलसिले में उसकी सलाह लेने आए। मौक़े का मुआइना उसने जान-बूझकर इतवार को ही रख लिया और मैसूर से शनिवार की शाम को ही निकल जाने की योजना बनाई। शुक्रवार के दिन एक कार्ड उसके पते पर यों पोस्ट किया कि वह उसे ठीक शनिवार के दिन मिल जाए। ‘‘कारोबार के सिलसिले में बाहर जाना है। इसलिए कल आपके यहाँ नहीं आ पाऊँगा-खेद है। कृपया क्षमा करें।’’-बस, इतनी सी बात लिख दी। किन्तु, उसे बोपण्णा के कावेरी ऐस्टेट का चक्कर लगाकर जगह का चुनाव, उसकी पृष्ठभूमि, प्रतिवेश, इमारत की लम्बाई-चौड़ाई आदि की नाप-जोख करते समय मन में इस बात का खेद होने लगा कि नाहक मैंने उसके सौहार्दपूर्ण निमन्त्रण को क्यों अस्वीकार किया आज यदि उसके यहाँ जाकर कल यहाँ आता तो क्या फ़र्क पड़ने वाला था ? शाम को जब मैसूर के लिए लौट रहा था तब घड़ी की ओर देखकर विचार आया कि इस समय उसके साथ बैठकर गप्पे हाँकी जा सकती हैं।
मैसूर आकर एक सप्ताह बीत गया था। अमृता का विचार लगभग दिमाग से निकल ही गया था। काम का तनाव भी बढ़ गया था। विराजपेट के ऐस्टेट वाले घर का प्रारूप तैयार करने में मन खासा व्यस्त था। सोमवार दोपहर के एक बजे अमृता का फिर फोन आया। असिस्टेंट नीलकण्ठप्पा अभी-अभी खाने के लिए गया था। उसके लौटने के बाद सोमशेखर जाया करता था, यह रोज़ का सिलसिला था। अमृता ने पूछा, ‘‘मिस्टर सोमशेखर हैं ?’’
‘‘हाँ मैं बोल रहा हूँ, नमस्कार !’’
‘‘मैं डा. अमृता हूँ, नमस्कार ! मेरे घर की मरम्मत की बाबत फ़ीस देना रह गयी है। कैसे पहुँचाऊँ ? खुद आकर अदा करूँ ? या चेक भेज दूँ ?’’
‘‘कैसी फ़ीस ? कौन ऐसा बड़ा काम किया है ? पहले ही आपसे कह दिया है न, उसकी जरूरत नहीं ?’’-उसने चौंककर कहा।
पल भर के लिए वह चुप रही। फिर बोली, ‘‘सुनिए; काम चाहे छोटा हो या बड़ा, उसका शुल्क अदा करना मेरा कर्त्तव्य है। मित्रों की बात कुछ और होती है।’
‘‘मुझे अपना मित्र ही समझिए, मैडम ?’’
‘‘जो व्यक्ति घर आने से और साथ बैठकर चाय पीने से मुकर जाए उसे मित्र कैसे माना जा सकता है ?’’ उसके इस प्रश्न पर सोमशेखर अवाक् रह गया।
वह बोला, ‘‘मुझे तत्काल बाहर जाना पड़ा।’’
‘‘हाँ, विराजपेट जाना पड़ा। उसे किसी और दिन के लिए स्थगित किया जा सकता था। कम-से-कम मुझे फोन पर बताया भी जा सकता था कि बात ऐसी है, इतवार के दिन नहीं आ सकेंगे, किसी और दिन आएँगे। लेकिन, इस अंदाज का कार्ड डाक के डिब्बे में फेंककर चले जाना कि ‘नहीं आऊँगा’, का क्या मतलब होता है ?’’ उसकी बात खत्म होने पर सोमशेखर को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। वह बेचैन हो उठा कि अब क्या बहाना करके बचा जा सकेगा। फिर अमृता ने ही बात जारी रखी, ‘‘आपका कार्ड पाकर मुझे क्या लगा, जानते हैं ? मानो मैं बड़ी मुसीबत में हूँ, टपकती छत पर सुर्खी डलवाकर उसकी मरम्मत करवाने की भी मुझमें सामर्थ्य नहीं। इसलिए आपने फीस लेने से इन्कार किया; कृतज्ञता के संकेत-स्वरूप एक उपहार का भी आपने तिरस्कार किया। ठीक है न ?’’
‘‘छिः छिः, मेरे मन में ऐसा कोई इरादा नहीं था, मैडम ! आज भी नहीं है। कृपा करके गलत मत समझिए। मैं खुद एक दिन आपके घर आकर चाय क्या, खाना खाऊँगा।’’ क्षमा-याचना के अंदाज से वह बोला।
‘‘ठीक है, कल दोपहर एक बजे खाने पर आ जाइए। चलेगा न ?’’ अमृता की सलाह को वह तुरन्त मान गया। उसका मन पछताने लगा। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था; वे समझ गई हैं कि मैंने उद्देश्यपूर्वक उस दिन टाल-दिया था। वे समझ रही हैं कि उनकी माली हालत को देखकर मैंने नज़र-अंदाज़ किया हैं। फिर, उनकी बातों में उन्मुक्त स्नेह भरा रहता है। नाहक मैंने क्यों ऐसे स्नेह का तिरस्कार करने का, उससे वंचित रहने का निर्णय लिया ?
इस शहर में अपना कहलाने वाला आख़िर कौन है ? इस विचार से उसका मन हलका हुआ। आकाश की ऊँचाई तक, उसी आकाश के विस्तार तक व्याप्त होने वाली चेतना जाग उठी।
दूसरे दिन दोपहर के ठीक एक बजे वह उस जगह के लिए निकल पड़ा जहाँ घरों का घना जमाव नहीं, जहाँ भीड़-भाड़ नहीं। दाहिनी ओर पहाड़ जो आकाश की ऊँचाई नापते खड़ा था उस विशाल मैदान वाले पुराने घर के दरवाजे पर वह खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। हेल्मेट उतारकर हाथ में पकड़ लिया और इससे पहले की वह आगे बढ़कर घण्टी दबाये दरवाजा स्वयं खुल गया और बरामदे की दीवार पर लटकी पुराने जमाने की बड़ी घड़ी ने एक का घण्टा बजाया। ‘‘भीतर आइए’’, मुस्कराते हुए उसने स्वागत किया। भीतर लौंजनुमा भाग में सोमशेखर को ले जाकर एक बड़े किन्तु पुराने और जहाँ-तहाँ फटे सोफ़े पर बिठाया।
‘‘आपका कालेज नहीं है आज ?’’-सोमशेखर ने बात शुरू की।
‘‘कला विभाग सवेरे साढ़े सात से साढ़े ग्यारह तक चलता है। जब तक अपनी अलग इमारत नहीं बनती मैं पौने बारह बजे ही घर आ जाती हूँ।’’-कहते हुए वह सामने वाले सोफ़े पर बैठ गई।
‘‘आपका विषय कन्नड़ साहित्य है न ? जब तक मैसूर में था तब कन्नड़ उपन्यास पढ़ा करता था, कन्नड़ कविताएँ गुनगुनाया करता था। बम्बई की भीड़ में सब छूट गया। कभी-कभी अगर आप पुस्तकें दें तो फुर्सत के समय पढ़ना चाहूँगा। वास्तव में बम्बई छोड़कर मैसूर आने का मेरा यह भी एक उद्देश्य था।’’
उसने बात जारी रखी। दोनों हँसी-खुशी से आधे घण्टे तक गप-शप कहते रहे। फिर भीतर बड़े पुराने डाइनिंग टेबुल पर खाना लगाकर वह खुद भी सामने बैठ गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। सोमशेखर ने समझ लिया कि अमृता के चार और सात वर्ष के बच्चे स्कूल गए हैं। रसम्, सब्जी, पुलाव, फ्रूट-सलाद बनाया था। मना करने पर भी आग्रह करती रही। थाली छिपाने के लिए धरे आड़े हाथों पर उँडेलने का डर दिखाकर सोमशेखर की कटोरी फ्रूट-सलाद से भरती रही। भोजन के बाद पुनः लौंज-में आकर सोफ़ें पर आमने-सामने बैठ गए। अमृता के जूड़े की चमेली की भीनी-भीनी महक सोमशेखर की नाक में भर रही थी। वह लम्बी किन्तु, हलकी-सी साँस लेकर उन फूलों की महक का मज़ा लेने लगा।
उसे याद हो आया कि अमृता को चमेली बहुत भाती है। उसे हलका रंग बहुत भाता है। उसे याद आया कि फ्रूट-सलाद का रंग भी इतना हलका था कि रंग का आभास मात्र होता था। उसकी साड़ियों का रंग और डिजाइन भी उसी ढंग का रहता है। तमिलों के प्रिय लाल-सुर्ख या जर्द-बसन्ती रंगों से मानो वह डरती हो। उसने अनुमान लगाया कि पंजाबियों का गहरा गुलाबी या लोहित रंग भी शायद वह पसन्द नहीं करती। बिना सोचे-समझे उसने पूछा, ‘‘चमेली की महक मालती से भी सुकुमार होती है; इसीलिए आपको चमेली पसन्द है न ?’’ सोमशेखर उसके जूड़े के फूलों की ओर ध्यान दे रहा है, इस बात से अमृता के चेहरे पर लाली-सी छा गई। उस लाली को देखकर सोमशेखर अपने कथन को एक सामान्य अभिरुचि की बात बनाते हुए बोला, ‘‘जो लोग घर बनवाते हैं उनकी रुचि को पहचानकर कह रहा हूँ। अधिक पढ़े-लिखे लोग हलका रंग पसन्द करते हैं। हलकी भीनी-भीनी सुगन्ध उन्हें भाती हैं। जो कम पढ़े-लिखे होते हैं वे हर चीज में तड़क-भड़क चाहते हैं। रंग, गन्ध, स्वाद सभी चीजों में। नाक और जीभ को तिलमिला देने वाली खटाई, नमक, मिर्च, मसाला अनपढ़ लोगों का लक्षण होता है। आपकी रसोई की हर चीज़ में एक नाजुकपन, एक सौम्यता थी। ऐसी रसोई बनाने के लिए सुरुचि चाहिए।’’
अमृता को अहसास हुआ कि वह पुनः उसकी प्रशंसा कर रहा है। इससे उसका मन खिल उठा। ‘‘लगता है आपको भी गहरा रंग, गहरी गन्ध, तेज ज़ायका पसन्द नहीं। इसीलिए आपको यह सब भाने लगा है।’’
‘‘तब तो हम दोनों का एक ही वेव-लेंग्थ बन गया।’’ उत्साहित होकर वह बोला।
साढ़े चार बजे तक वे इसी तरह बतियाते रहे। बीच में ही वह बोला, ‘‘पर्वत की पृष्ठभूमि ने आपके घर को बहुत सुन्दर बना दिया है। बड़ा कम्पाउंड भी है। कुछ पेड़-पौधे लगवाइए। सामने वाली पोर्टिको पर मालती की लता चढ़ा देने से इसकी शोभा और बढ़ेगी। घर में फूलों की बागवानी हो तो मन को खुशी होती है। ‘उद्यान-कृषि’ कार्यालय में मनपसन्द पौधे, कलम, बीज मिलते हैं। अब बरसात भी शुरू होने वाली है। तुरन्त जड़ जमा लेंगे।’’
अमृता को यह सलाह बहुत अच्छी लगी। ‘‘मैं पहाड़ी इलाके की हूँ। ऐस्टेट वाली हरियाली मुझे बहुत पसन्द है।’’ वह बोली। सोमशेखर जब जाने के लिए उठा तो अमृता कमरे में गई और चार उपन्यास, तथा दो कविता संग्रह ले आई। उन्हें सोमशेखर के हाथों में थमाते हुए बोली, ‘‘फुर्सत से पढ़िए। फिलहाल मुझे इनकी जरूरत नहीं है। इनके पढ़ने के बाद और पुस्तकें दूँगी।’’
काम के दबाव के कारण उपन्यास पढ़ने का समय तो वह नहीं निकाल पाया, किन्तु फुर्सत के समय कुछ कविताएँ उसने अवश्य पढ़ीं। पर्वतीय पृष्ठभूमिवाले उस मकान से मेल खाने वाले कुछ पेड़, पौधे, कटिंग्स, कलम, बीज आदि चुनकर अमृता को लाकर दिए। अमृता ने बड़ी लगन एवं कृतज्ञता के भाव से साथ उन्हें लगवाया। पोर्टिको पर चढ़ने लायक चमेली की लता लगवाई। हर रोज जब वह उसे पानी देने लगती तब अपनी रुचि का खयाल रखने वाले सोमशेखर की याद आए बिना न रहती। अब वे एक महीने में लगभग पन्द्रह बार मिल चुके हैं। दो बार साथ मिलकर अमृता की कार में पहाड़ चढ़कर वहाँ बादलों से घिरे प्रदेश में घूमकर आए हैं। आकाश, बादल, हरियाली, क्षितिज आदि कल्पनाओं का विस्तार करने वाले दृश्यों का ‘अवलोकन’ करते-करते बातों-बातों में दोनों में परस्पर लगाव बढ़ गया, स्नेह हो गया। सोमशेखर को जब अहसास हुआ कि वह लगाव व स्नेह नहीं, उसके परे की भावनाएँ हैं तब वह सहसा वहाँ से लौट पड़ने के लिए बेचैन होने लगा।
नई इमारत के नए-नए प्रतिमान आदि तैयार करना उस वास्तुकार की प्रतिष्ठा के योग्य ठहरता है जो अपना फलक फैलाये रहता है। किन्तु सोम-शेखर पुरानी इमारत की मरम्मत के बारे में सलाह देना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध नहीं मानता। वैसे मरम्मत का काम लेकर कोई आज तक उसके पास आया भी नहीं था। मैसूर शहर के बाहरी प्रदेश की ललित महल रोड के किनारे की इमारत थी। विशाल कम्पाउंड और मदरासी छत वाली इकतल्ला इमारत जब से बनी है तब से शायद एक-दो बार रंग व रोगन हुआ हो और इसीलिए उजड़ी-उजड़ी सी नजर आती है। इमारत पुरानी थी; इसलिए निश्चयपूर्वक कहा जा सकता था कि उसके दरवाजे, खिड़की आदि असली सागवान के बने हैं। इतनी सागवान का उपयोग उन दिनों सम्भव था। सिर उठाकर देखने से पन्द्रह फुट ऊँती छत फाँसी के फंदे के अनुकूल दिखाई पड़ती है। किन्तु उसी छत के बीचों-बीच दो दरारों से आसमान झाँकने लगा था और इसी रास्ते बरसात के दिनों में आकाश का पानी नीचे उतर आता था। गारे-सुर्खी से बने फर्श पर भी बरसाती पानी से भीग-भीगकर काई जम गई थी और देखने में वह भद्दी लगती। गृहस्वामिनी डा. अमृता की कार भी तो पुरानी ही है। बरसात में भीगते, गर्मी में सूखते हुए आयु में बूढ़ी लगने वाली प्रारम्भिक मॉडल की फिएट कार। फिर भी उस घर की तरह ही मजबूत, अजड़।
‘‘इस चुआन को कैसे रोका जाए ? सारे घर में रंग-रोगन भी करवाना है। दोनों कामों पर कुल कितना खर्च होगा ? दोनों काम आपको करने होंगे।’’
उसने सारा परिकलन करके बताया, ‘‘ऊपर जहाँ कहीं दरारें पड़ी हैं वहाँ ऊपरी तह तुड़वाकर नई सुर्खी भरवानी पड़ेगी। इसकी लागत नौ हजार होगी। सारे घर का पुराना चूना खुरचकर डिस्टेम्पर और रंग चढ़ाने में तीस हजार लग जाएँगे।’’
इतनी राशि सुनकर अमृता के चेहरे का रंग उड़ गया, सोच-विचार करके, ‘‘फिर आऊँगी,’’ इतना कहकर जो वह गई तो महीना भर तक आई नहीं। फिर एक साँझ आकर झिझकते हुए बोली, ‘‘फिलहाल रंग का काम रहने दें। आपने छत पर सुर्खी डलवाने की जो सलाह दी है, उसके लिए नौ हजार की रक़म तत्काल जोड़ पाना मेरे लिए ज़रा कठिन है। उससे कम खर्च वाला क्या कोई और तरीका नहीं है ? बरसात सिर पर है। मरम्मत निहायत जरूरी है। वरना, ऊपर से पानी टपकने लगा तो डर लगने लगता है। इसलिए, फिलहाल....’’ अपनी आर्थिक स्थिति की विवशता बताते हुए झिझकते हुए उसने बस इतना ही कहा।
सोमशेखर समझ गया दो-एक पल सोचकर बोला, ‘‘एक और तरीका है। जहाँ दरार पड़ी है, उसकी जरा कुटाई करके आर-पार उसमें डामर भरा जा सकता है। उससे केवल एक बरसात की राहत मिल सकती है। अगली गर्मी में जब डामर पिघल जाएगा तब फिर टपकने लगेगा। लगभग चार-पाँच सौ में काम बन जाएगा। घर को रंग के बदले प्राइमर से पुतवा दें तो हजार के आसपास खर्च आएगा।’’
वह दो-एक पल सोचती रही। फिर बोली, ‘‘फिलहाल डामर भरवा दीजिए। एक-दो महीने के बाद प्राइमर पुतवाऊँगी।’’ सोमशेखर ने राज को बुलवाया, खुद बड़ी नसेनी से चढ़कर काम की निगरानी करके उसके घर की मरम्मत करवाई। वह समझ गया कि परिवार जो कभी मालदार था अब उसके बुरे दिन आ गए हैं। ‘‘बिलकुल मामूली-सा काम था। फिर भी आपने बड़ी हमदर्दी के साथ उसे पूरा किया। आपकी फीस कितनी हुई; कृपा करके बताइए।’’ उसने आग्रह किया।
‘‘अगर बड़ा काम होता तब फ़ीस या पर्सेंटेज की बात थी। अब रहने दीजिए।’’-उसने सविनय किन्तु दृढ़ता से कह दिया। सात वर्ष तथा चार वर्ष के दो बेटों की माँ। गोल चेहरा, ऊँचा क़द सुन्दर महिला। कालेज में कन्नड़ साहित्य की प्रवक्ता। डाक्टरेट की उपाधि-प्राप्त तेज़ बुद्धि वाली, चुस्त आँखों वाली विदुषी। हर काम स्वयं करती है। पता नहीं, पति कहाँ है ! उसने इस बारे में कभी ज़बान नहीं खोली। आप पूछे भी कैसे ? यह सोचकर चुप रह गया कि उन्हें जिस सहायता की आवश्यकता थी वह तो कर दी। आगे उनसे सम्पर्क भी नहीं रहेगा। फिर भी वह कई दिनों तक याद बनकर दिमाग में मँडराती रही।
केवल अमृता ही नहीं, बल्कि वह समूचा घर कभी-कभार उसकी यादों में तैर जाता था। कई बार उसने स्वयं विश्वलेषण करके देखा कि उस मद्रासी छत वाले पुराने बँगले में ऐसी क्या विशेषता है जिसे वास्तुकारी की दृष्टि से याद रखा जा सके ! एक दिन बात समझ में आ गई। घर की पृष्ठभूमि में आकाश को छूता हुआ चामुंडी पर्वत खड़ा है। चाहे हरियाली हो या न हो, उस पर्वत का एक अपना विशिष्ट अस्तित्व है। निगूढ़ नीलाकाश के साथ सम्पर्क स्थापित करने का भाव है। जिस घर को ऐसे पर्वत से सटी हुई पृष्ठभूमि प्राप्त हो उस घर को और किस आच्छादन की आवश्यकता होगी भला ! इस दृश्य को मन-ही-मन में सराहने लगा तो बरबस उसे अपने बम्बई वाले व्यावसायिक जीवन की नीरसता याद हो आई। ऐसी विशाल खुली जगह उस शैतानी शहर में तो कहीं नहीं है। अपनी तरह का ऐसा अकेला घर वहाँ पाना सम्भव ही नहीं। जो भी हैं, सभी तल्ले पर तल्ले चढ़े हुए इन दिनों तो दस, पन्द्रह, बीस तल्लों वाली सभी भावशून्य इमारतें हैं। वहाँ की वास्तुकारी की खूबी यही होती है कि यूरोप और अमरीका में शोध की गई नई-नई सामग्री को यहाँ की तंग सँकरी दुनिया से जोड़ देना। बम्बई के रहन-सहन, वहाँ के व्यवसाय से ऊबकर चार वर्षों के पश्चात् मैसूर आने का विचार आया था उसके मन में। चाहे कुछ न हो, यहाँ छोटी ही सही, अपनी निजी पहचान रखने वाली, अपनी छाप अंकित करने वाली इमारतों के निर्माण की सम्भावना दिखाई देने लगी। भले ही आज मैसूर बढ़ गया हो। भीड़ अधिक हो गई हो; किन्तु गरदन उठाकर देखने पर आज भी निरापद मुक्त आकाश देखा जा सकता है।
पुराना कुक्करहल्ली ताल तो आज भी ज्यों का त्यों है। कुछ भागों में पेड़-पौधों की हरियाली भले ही न रही हो, किन्तु चामुंडी पर्वत तो किसी कल-कारखाने का ग्रास नहीं बना है। बचपन की वे यादें जागकर गुदगुदाने लगीं जब साँझ या सवेरे जब कभी मन करता तो अकेला पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर नजर घुमा शान्त, गौरवशाली, फिर भी अहंकारहीन होकर सविनय सौन्दर्य से झुके हुए उस व्यापक मैसूर शहर को घण्टों बैठा देखता रहता और पसीना सूख जाने पर नीचे उतर आता। हाल ही में, जब वह नया-नया यहाँ आया था तब अपने काम को छोड़कर कितनी साँझें इसी पर चढ़कर डूबते सूरज की लाल-सफेद किरणों से निर्मित क्षितिज की दीवार को निहारते बिताई थीं। इसकी याद करते एक बार फिर पहाड़ की चोटी चढ़कर उस घर को ढूँढ़ निकालने का उसका मन हुआ जिसकी हाल ही में उसने मरम्मत करवाई थी।
उस दिन सोमवार था। शाम के चार बजे उसे अमृता का फ़ोन आया, ‘‘आपका समय बर्बाद कर रही हूँ। आगामी इतवार को आपको हमारे यहाँ चाय पर आना होगा। कृपा करके ना मत कहिए।’’
यह आवाज़ सुनकर तथा चाय का निमन्त्रण पाकर उसे खुशी हुई। तुरन्त समझ गया कि निःशुल्क काम कर देने के कारण कृतज्ञता दर्शाने के लिए यह चाय की पार्टी दी जा रही है। और परसों खासा पानी भी बरसा था, साल की पहली बारिश। उस बारिश में शायद घर में बरसात का पानी टपका नहीं होगा-यह भी एक कारण हो सकता है ! उसने पूछा, ‘‘परसों की बारिश में घर चूआ तो नहीं ?’’
‘‘सच बात तो यह है कि इस मरम्मत से टपकना इस कदर बन्द हो जाएगा इसका मुझे विश्वास ही नहीं था। एक बूँद भी नहीं टपकी। मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि किन शब्दों में आपको धन्यवाद दूँ ! आइए, इतवार को।’’-इन बातों से वह सहसा लजा-सा गया। वह मना करता रहा। किन्तु, अमृता ने उसे मनवाकर ही छोड़ा।
उसमें इस बात की उत्सुकता बढ़ी कि आज से छठे दिन वह अमृता के घर चाय पर जाएगा। उसके सामने बैठकर घण्टों उससे बतियाता रहेगा। फुरसत के समय मन इसी विचार को पगुराता रहा। लेकिन बुधवार की शाम किसी बहाने से उस निमन्त्रण को टाल देने का विचार उसके मन में आया। क्यों ? चला भी जाएगा तो कौन-सी आफ़त आ पड़ेगी भला ? इस प्रश्न का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया। फिर भी टाल देने की इच्छा ज़ोर पकड़ने लगी। इतवार के दिन कहीं बाहर जाने का बहाना दूसरे दिन सवेरे निकल आया। विराजपेट के बोपण्णा नाम के एक सज्जन अपने कॉफी ऐस्टेट में एक नया घर बनवाने के सिलसिले में उसकी सलाह लेने आए। मौक़े का मुआइना उसने जान-बूझकर इतवार को ही रख लिया और मैसूर से शनिवार की शाम को ही निकल जाने की योजना बनाई। शुक्रवार के दिन एक कार्ड उसके पते पर यों पोस्ट किया कि वह उसे ठीक शनिवार के दिन मिल जाए। ‘‘कारोबार के सिलसिले में बाहर जाना है। इसलिए कल आपके यहाँ नहीं आ पाऊँगा-खेद है। कृपया क्षमा करें।’’-बस, इतनी सी बात लिख दी। किन्तु, उसे बोपण्णा के कावेरी ऐस्टेट का चक्कर लगाकर जगह का चुनाव, उसकी पृष्ठभूमि, प्रतिवेश, इमारत की लम्बाई-चौड़ाई आदि की नाप-जोख करते समय मन में इस बात का खेद होने लगा कि नाहक मैंने उसके सौहार्दपूर्ण निमन्त्रण को क्यों अस्वीकार किया आज यदि उसके यहाँ जाकर कल यहाँ आता तो क्या फ़र्क पड़ने वाला था ? शाम को जब मैसूर के लिए लौट रहा था तब घड़ी की ओर देखकर विचार आया कि इस समय उसके साथ बैठकर गप्पे हाँकी जा सकती हैं।
मैसूर आकर एक सप्ताह बीत गया था। अमृता का विचार लगभग दिमाग से निकल ही गया था। काम का तनाव भी बढ़ गया था। विराजपेट के ऐस्टेट वाले घर का प्रारूप तैयार करने में मन खासा व्यस्त था। सोमवार दोपहर के एक बजे अमृता का फिर फोन आया। असिस्टेंट नीलकण्ठप्पा अभी-अभी खाने के लिए गया था। उसके लौटने के बाद सोमशेखर जाया करता था, यह रोज़ का सिलसिला था। अमृता ने पूछा, ‘‘मिस्टर सोमशेखर हैं ?’’
‘‘हाँ मैं बोल रहा हूँ, नमस्कार !’’
‘‘मैं डा. अमृता हूँ, नमस्कार ! मेरे घर की मरम्मत की बाबत फ़ीस देना रह गयी है। कैसे पहुँचाऊँ ? खुद आकर अदा करूँ ? या चेक भेज दूँ ?’’
‘‘कैसी फ़ीस ? कौन ऐसा बड़ा काम किया है ? पहले ही आपसे कह दिया है न, उसकी जरूरत नहीं ?’’-उसने चौंककर कहा।
पल भर के लिए वह चुप रही। फिर बोली, ‘‘सुनिए; काम चाहे छोटा हो या बड़ा, उसका शुल्क अदा करना मेरा कर्त्तव्य है। मित्रों की बात कुछ और होती है।’
‘‘मुझे अपना मित्र ही समझिए, मैडम ?’’
‘‘जो व्यक्ति घर आने से और साथ बैठकर चाय पीने से मुकर जाए उसे मित्र कैसे माना जा सकता है ?’’ उसके इस प्रश्न पर सोमशेखर अवाक् रह गया।
वह बोला, ‘‘मुझे तत्काल बाहर जाना पड़ा।’’
‘‘हाँ, विराजपेट जाना पड़ा। उसे किसी और दिन के लिए स्थगित किया जा सकता था। कम-से-कम मुझे फोन पर बताया भी जा सकता था कि बात ऐसी है, इतवार के दिन नहीं आ सकेंगे, किसी और दिन आएँगे। लेकिन, इस अंदाज का कार्ड डाक के डिब्बे में फेंककर चले जाना कि ‘नहीं आऊँगा’, का क्या मतलब होता है ?’’ उसकी बात खत्म होने पर सोमशेखर को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। वह बेचैन हो उठा कि अब क्या बहाना करके बचा जा सकेगा। फिर अमृता ने ही बात जारी रखी, ‘‘आपका कार्ड पाकर मुझे क्या लगा, जानते हैं ? मानो मैं बड़ी मुसीबत में हूँ, टपकती छत पर सुर्खी डलवाकर उसकी मरम्मत करवाने की भी मुझमें सामर्थ्य नहीं। इसलिए आपने फीस लेने से इन्कार किया; कृतज्ञता के संकेत-स्वरूप एक उपहार का भी आपने तिरस्कार किया। ठीक है न ?’’
‘‘छिः छिः, मेरे मन में ऐसा कोई इरादा नहीं था, मैडम ! आज भी नहीं है। कृपा करके गलत मत समझिए। मैं खुद एक दिन आपके घर आकर चाय क्या, खाना खाऊँगा।’’ क्षमा-याचना के अंदाज से वह बोला।
‘‘ठीक है, कल दोपहर एक बजे खाने पर आ जाइए। चलेगा न ?’’ अमृता की सलाह को वह तुरन्त मान गया। उसका मन पछताने लगा। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था; वे समझ गई हैं कि मैंने उद्देश्यपूर्वक उस दिन टाल-दिया था। वे समझ रही हैं कि उनकी माली हालत को देखकर मैंने नज़र-अंदाज़ किया हैं। फिर, उनकी बातों में उन्मुक्त स्नेह भरा रहता है। नाहक मैंने क्यों ऐसे स्नेह का तिरस्कार करने का, उससे वंचित रहने का निर्णय लिया ?
इस शहर में अपना कहलाने वाला आख़िर कौन है ? इस विचार से उसका मन हलका हुआ। आकाश की ऊँचाई तक, उसी आकाश के विस्तार तक व्याप्त होने वाली चेतना जाग उठी।
दूसरे दिन दोपहर के ठीक एक बजे वह उस जगह के लिए निकल पड़ा जहाँ घरों का घना जमाव नहीं, जहाँ भीड़-भाड़ नहीं। दाहिनी ओर पहाड़ जो आकाश की ऊँचाई नापते खड़ा था उस विशाल मैदान वाले पुराने घर के दरवाजे पर वह खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। हेल्मेट उतारकर हाथ में पकड़ लिया और इससे पहले की वह आगे बढ़कर घण्टी दबाये दरवाजा स्वयं खुल गया और बरामदे की दीवार पर लटकी पुराने जमाने की बड़ी घड़ी ने एक का घण्टा बजाया। ‘‘भीतर आइए’’, मुस्कराते हुए उसने स्वागत किया। भीतर लौंजनुमा भाग में सोमशेखर को ले जाकर एक बड़े किन्तु पुराने और जहाँ-तहाँ फटे सोफ़े पर बिठाया।
‘‘आपका कालेज नहीं है आज ?’’-सोमशेखर ने बात शुरू की।
‘‘कला विभाग सवेरे साढ़े सात से साढ़े ग्यारह तक चलता है। जब तक अपनी अलग इमारत नहीं बनती मैं पौने बारह बजे ही घर आ जाती हूँ।’’-कहते हुए वह सामने वाले सोफ़े पर बैठ गई।
‘‘आपका विषय कन्नड़ साहित्य है न ? जब तक मैसूर में था तब कन्नड़ उपन्यास पढ़ा करता था, कन्नड़ कविताएँ गुनगुनाया करता था। बम्बई की भीड़ में सब छूट गया। कभी-कभी अगर आप पुस्तकें दें तो फुर्सत के समय पढ़ना चाहूँगा। वास्तव में बम्बई छोड़कर मैसूर आने का मेरा यह भी एक उद्देश्य था।’’
उसने बात जारी रखी। दोनों हँसी-खुशी से आधे घण्टे तक गप-शप कहते रहे। फिर भीतर बड़े पुराने डाइनिंग टेबुल पर खाना लगाकर वह खुद भी सामने बैठ गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। सोमशेखर ने समझ लिया कि अमृता के चार और सात वर्ष के बच्चे स्कूल गए हैं। रसम्, सब्जी, पुलाव, फ्रूट-सलाद बनाया था। मना करने पर भी आग्रह करती रही। थाली छिपाने के लिए धरे आड़े हाथों पर उँडेलने का डर दिखाकर सोमशेखर की कटोरी फ्रूट-सलाद से भरती रही। भोजन के बाद पुनः लौंज-में आकर सोफ़ें पर आमने-सामने बैठ गए। अमृता के जूड़े की चमेली की भीनी-भीनी महक सोमशेखर की नाक में भर रही थी। वह लम्बी किन्तु, हलकी-सी साँस लेकर उन फूलों की महक का मज़ा लेने लगा।
उसे याद हो आया कि अमृता को चमेली बहुत भाती है। उसे हलका रंग बहुत भाता है। उसे याद आया कि फ्रूट-सलाद का रंग भी इतना हलका था कि रंग का आभास मात्र होता था। उसकी साड़ियों का रंग और डिजाइन भी उसी ढंग का रहता है। तमिलों के प्रिय लाल-सुर्ख या जर्द-बसन्ती रंगों से मानो वह डरती हो। उसने अनुमान लगाया कि पंजाबियों का गहरा गुलाबी या लोहित रंग भी शायद वह पसन्द नहीं करती। बिना सोचे-समझे उसने पूछा, ‘‘चमेली की महक मालती से भी सुकुमार होती है; इसीलिए आपको चमेली पसन्द है न ?’’ सोमशेखर उसके जूड़े के फूलों की ओर ध्यान दे रहा है, इस बात से अमृता के चेहरे पर लाली-सी छा गई। उस लाली को देखकर सोमशेखर अपने कथन को एक सामान्य अभिरुचि की बात बनाते हुए बोला, ‘‘जो लोग घर बनवाते हैं उनकी रुचि को पहचानकर कह रहा हूँ। अधिक पढ़े-लिखे लोग हलका रंग पसन्द करते हैं। हलकी भीनी-भीनी सुगन्ध उन्हें भाती हैं। जो कम पढ़े-लिखे होते हैं वे हर चीज में तड़क-भड़क चाहते हैं। रंग, गन्ध, स्वाद सभी चीजों में। नाक और जीभ को तिलमिला देने वाली खटाई, नमक, मिर्च, मसाला अनपढ़ लोगों का लक्षण होता है। आपकी रसोई की हर चीज़ में एक नाजुकपन, एक सौम्यता थी। ऐसी रसोई बनाने के लिए सुरुचि चाहिए।’’
अमृता को अहसास हुआ कि वह पुनः उसकी प्रशंसा कर रहा है। इससे उसका मन खिल उठा। ‘‘लगता है आपको भी गहरा रंग, गहरी गन्ध, तेज ज़ायका पसन्द नहीं। इसीलिए आपको यह सब भाने लगा है।’’
‘‘तब तो हम दोनों का एक ही वेव-लेंग्थ बन गया।’’ उत्साहित होकर वह बोला।
साढ़े चार बजे तक वे इसी तरह बतियाते रहे। बीच में ही वह बोला, ‘‘पर्वत की पृष्ठभूमि ने आपके घर को बहुत सुन्दर बना दिया है। बड़ा कम्पाउंड भी है। कुछ पेड़-पौधे लगवाइए। सामने वाली पोर्टिको पर मालती की लता चढ़ा देने से इसकी शोभा और बढ़ेगी। घर में फूलों की बागवानी हो तो मन को खुशी होती है। ‘उद्यान-कृषि’ कार्यालय में मनपसन्द पौधे, कलम, बीज मिलते हैं। अब बरसात भी शुरू होने वाली है। तुरन्त जड़ जमा लेंगे।’’
अमृता को यह सलाह बहुत अच्छी लगी। ‘‘मैं पहाड़ी इलाके की हूँ। ऐस्टेट वाली हरियाली मुझे बहुत पसन्द है।’’ वह बोली। सोमशेखर जब जाने के लिए उठा तो अमृता कमरे में गई और चार उपन्यास, तथा दो कविता संग्रह ले आई। उन्हें सोमशेखर के हाथों में थमाते हुए बोली, ‘‘फुर्सत से पढ़िए। फिलहाल मुझे इनकी जरूरत नहीं है। इनके पढ़ने के बाद और पुस्तकें दूँगी।’’
काम के दबाव के कारण उपन्यास पढ़ने का समय तो वह नहीं निकाल पाया, किन्तु फुर्सत के समय कुछ कविताएँ उसने अवश्य पढ़ीं। पर्वतीय पृष्ठभूमिवाले उस मकान से मेल खाने वाले कुछ पेड़, पौधे, कटिंग्स, कलम, बीज आदि चुनकर अमृता को लाकर दिए। अमृता ने बड़ी लगन एवं कृतज्ञता के भाव से साथ उन्हें लगवाया। पोर्टिको पर चढ़ने लायक चमेली की लता लगवाई। हर रोज जब वह उसे पानी देने लगती तब अपनी रुचि का खयाल रखने वाले सोमशेखर की याद आए बिना न रहती। अब वे एक महीने में लगभग पन्द्रह बार मिल चुके हैं। दो बार साथ मिलकर अमृता की कार में पहाड़ चढ़कर वहाँ बादलों से घिरे प्रदेश में घूमकर आए हैं। आकाश, बादल, हरियाली, क्षितिज आदि कल्पनाओं का विस्तार करने वाले दृश्यों का ‘अवलोकन’ करते-करते बातों-बातों में दोनों में परस्पर लगाव बढ़ गया, स्नेह हो गया। सोमशेखर को जब अहसास हुआ कि वह लगाव व स्नेह नहीं, उसके परे की भावनाएँ हैं तब वह सहसा वहाँ से लौट पड़ने के लिए बेचैन होने लगा।
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