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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मन्नू भंडारी)

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3285
आईएसबीएन :81-7016-214-9

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मन्नू भंडारी की सर्वश्रेष्ठ दस प्रतिनिधि कहानियों का वर्णन...

10 Pratinidhi Kahaniyan - Hindi Stories by Mannu Bhandari - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - मन्नू भंडारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किसी भी लेखक की प्रतिनिधि कहानियों की कसौटी उन कहानियों से मिलने वाला यश और प्रसिद्धि नहीं होती, न ही समीक्षकों से मिलने वाली प्रशंसा। उस दृष्टि से तो मुझे सबसे पहले अपनी ‘यही सच है’ कहानी को इस संकलन में रखना चाहिए था, क्योंकि इस कहानी ने मुझे केवल यश ही नहीं दिलवाया था, बल्कि एक तरह से कहानी-जगत में स्थापित भी किया था। इसी पर बनी फिल्म ‘रजनीगन्धा’ ने सिल्वर-जुबली भी मनाई थी लेकिन इस सबके बावजूद न तो मुझे उसमें अपनी बहुत ही निजी भावनाओं और संवेदनओं की अनुगूँज सुनाई देती है, न ही अपने हृदय की धड़कन (जबकि वह डायरी फॉर्म में लिखी गई है)। यों तो अपनी हर कहानी में लेखक कहीं-न-कहीं मौजूद रहता ही है, लेकिन सही अर्थों में तो प्रतिनिधि कहानियाँ शायद वे ही होती हैं, जिनके साथ जाने-अनजाने लेखक-मन का कोई तार भी जुड़ा होता है। कितने व्यक्ति हमारे संपर्क में आते हैं—कितनी घटनाओं के हम साक्षी होते हैं लेकिन उनमें से लिखने के लिए तो हमें केवल वे ही प्रेरित करती हैं जो पात्रों और कथानक के सारे ताने-बाने के बीच हमारी भावनाओं, मूल्यों और मान्यताओं को भी स्वर देती हैं....केवल इतना ही नहीं, अपनी निजता से परे व्यापक सन्दर्भों से जुड़कर जो हमारे लेखन को अर्थवान भी बनाती हैं। ऐसी कहानियाँ ही शायद हमें अधिक अपनी लगती हैं—अपनी प्रतिनिधि।

इस दृष्टि से जब चुनाव करने बैठी तो आश्चर्य तो इस बात का हुआ कि दस में से आठ कहानियों के पात्र और घटनाएँ तो कोई तीस-पैंतीस वर्ष पहले की हैं। एकाध को छोड़कर सब लिखी भी कोई पच्चीस-तीस वर्ष पहले ही गई थीं। तो क्या उस समय छोटी-छोटी घटनाएँ—व्यक्ति के सुख-दुःख इतना उद्वेलित करते थे कि अपने ही बन जाते थे ? उन पर लिखते हुए लगता था कि जैसे हम अपने को ही उँडेल रहे हैं। और आज चारों ओर बड़ी-बड़ी घटनाएँ घटती रहती हैं, पर फिर भी कुछ व्यापता ही नहीं ? तो क्या उस समय मन बहुत कोमल था और संवेदनाएँ बेहद नर्म-नाजुक—हर किसी का दुःख अपने में समो लेने को तत्पर, और आज घटनाओं के घटाटोप ने संवेदनाओं को बिल्कुल बन्द कर दिया है ? हो सकता है, यह मेरी अपनी त्रासदी हो, शायद है भी लेकिन आज जब इन कहानियों पर एक सरसरी नज़र डाली तो कैसे वे वर्षों पुराने पात्र अपनी पूरी व्यथा-कथा के साथ फिर से जीवित हो उठे और मेरी कुन्द संवेदना भी सजीव !

अपने बिल्कुल आरम्भिक दौर की दो कहानियाँ—‘अकेली’ और ‘मजबूरी’ अपनी सारी शिल्पगत अनगढ़ता और कच्चेपन के बावजूद मुझे आज भी बहुत अपनी लगती हैं। कोई चालीस-पैंतालीस साल पहले की वह अकेली बुढ़िया, जो दूसरों से जुड़ने की ललक में मोहल्ले के हर घर में बिन बुलाए जाकर काम करती—हारी-बीमारी में रात-रात-भर जाग कर सेवा करती, शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार पर हाड़-तोड़ मेहनत करती, पर फिर भी वह कभी उनकी नहीं हो पाई। इस पर बने टी.वी. प्ले को देखते समय मेरी एक मित्र ने पूछा था कि इसको अकेली क्यों रखा ? यह तो एक ऐसी औरत की कहानी है, जो सबके साथ जुड़ी हुई है। पर क्या केवल अपनी ओर से दूसरों के साथ जुड़कर ही कोई अपने अकेलेपन से मुक्त हो सकता है ? क्या इसके लिए यह जरूरी नहीं कि दूसरे भी भावना के स्तर पर उससे जुड़ें—उसे अपनों की सूची में शामिल करें, उसके सुख-दुःख के भागीदार बनें ? एक बिल्कुल दूसरे सन्दर्भ में ‘मजबूरी’ की अम्मा की भी यही त्रासदी नहीं है ? मन-प्राण से दूसरों के साथ जुड़ना—वे फिर घर के बाहर हों या बाहर के—इनकी मजबूरी है और जिससे जुड़े, उससे उपेक्षा पाना इनकी नियति ! कहानी लिखते समय तो इन पात्रों की इस त्रास-भरी नियति ने ही मुझे झकझोरा था, पर आज तो जैसे हर जगह, हर परिवार में किसी-न-किसी स्तर पर अकेलेपन की यह अनुगूँज सुनाई देती है। कहीं पीढ़ियों का अन्तराल के कारण फालतू हो आए अकेलेपन का बोझ ढोते माँ-बाप तो कहीं अपनी ही पीढ़ी के बीच अपनी अनसमझी आकांक्षाओं के कारण उपेक्षा का दंश झेलते युवा लोग।

सन्’ 64 में कलकत्ता छोड़कर दिल्ली आए कुल चार महीने ही हुए थे कि सूचना मिली अपने एक निकटस्थ बड़े भाईनुमा मित्र की मृत्यु की। तुरन्त जाना तो सम्भव नहीं हुआ पर जब करीब सवा साल बाद गई तो मकान पूरे करवाने की दिक्कतें, छोटे के एडमिशन की परेशानी और महँगाई का रोना रोने वाले ही नहीं, हमेशा की तरह मेरे हाथ में बिदाई के रुपए थमा कर मुझे बिलकुल स्तब्ध कर देने वाले भाई तो वहाँ जैसे मौजूद थे...बस, अनुपस्थित था तो उस घर का बीस साल का नामी क्रिकेट-प्लेयर...क्रिकेट में जिसके प्राण बसते थे और आँखों में सुनील गावस्कर बनने के सपने जिसकी खिलखिल हँसी और चौकों, छक्कों से घर गुलज़ार रहता था। भाई की मृत्यु पर मैं वहाँ गई थी लेकिन बड़े बेटे की लाश ढोए-ढोए घर लौटी थी (असामयिक मृत्यु)। आदर्शों में पगी और मन में इतना उल्लास और उत्साह लेकर स्कूल में नौकरी शुरू करने वाली दूसरी कुन्ती मैंने आज तक नहीं देखी। अपनी छात्राओं में उसके प्राण बसते थे और शिक्षा के क्षेत्र को पवित्र मानने की उसकी कैसी तो मासूम सी ज़िद थी। (आज चाहें तो उसे मूर्खतापूर्ण कह सकते हैं) उसके क्षय-ग्रस्त पिता को देखने जाना तो कोई साल-भर बाद ही सम्भव हो पाया था। कुन्ती मिली—बुझी आँखें, कान्तिहीन मुर्झाया चेहरा बेजान आवाज ! थोड़ी देर मैं वहाँ बैठी और सब-कुछ जाना। जाना कि पिता की देखभाल करते-करते कैसे पिता का क्षय धीरे-धीरे उसके भीतर प्रवेश कर गया है। नए सिरे से अहसास हुआ कि क्षय है तो आखिर छूत की ही बीमारी ! शादी से पहले लैन्स डाउन रोड वाले हमारे घर के ठीक सामने गराज के ऊपर बनी एक दुछत्ती—आर्थिक दबावों के कारण लम्बे-लम्बे समय तक घर से दूर रहने को मजबूर राखाल का दड़बेनुमा घर। जिसके आगमन की सूचना और स्वामित्व की सनद, कुछ समय बाद पास-पड़ोस के भरोसे पल रहे परिवार में एक सदस्य की बढ़ोत्तरी से मिलती थी। छुट्टी बिताकर लौट जाने के बाद परिवार की दिलचस्पी उससे ज्यादा, उसके द्वारा भेजे हुए रुपयों में सिमटकर रह जाती थी और पारिवारिक सम्बन्धों को ढोने की मजबूरी रह जाती थी राखाल की। तेल देनी ही उसकी नियति थी, वह फिर चाहे जहाज़ के कल-पुर्ज़े हों या घर के और स्वामित्व का खोखला बोध ही जिसका सन्तोष।

कभी सम्पर्क में आए हाड़-मांस के ये जीते-जागते पात्र ही मेरी कहानियों के प्रेरणा-स्रोत रहे थे। लेकिन आज तो कहीं अपने ध्वस्त सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं के ढेर पर बैठे दीपकों का हजूम दिखाई देता है तो कहीं आनन्द, उल्लास आदर्शों से भरे हुए अपना कैरियर शुरू करने वाले कुन्ती के प्रतिरूपों की भीड़। लेकिन परिस्थितियों के निर्मम दबाव के आगे देखते ही देखते उनका सारा उल्लास, सारे आदर्श सब-कुछ बह जाते हैं, रह जाती है तो केवल उसी भ्रष्ट व्यवस्था का एक निर्जीव पुर्ज़ा भर बन जाने की मजबूरी। कभी अपनी कहानियों में चित्रित इन पात्रों के बहाने यदि मेरी भावनाओं को अभिव्यक्ति मिली थी तो आज उनके अनेक रूपों के बहाने मेरे लेखन की सार्थकता।

शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतन्त्र लेकिन फिर भी परिस्थिति के आगे समर्पण करने को मजबूर आज की आधुनिक स्त्री की स्थिति को उजागर करती दो कहानियाँ—‘नई नौकरी’ और ‘बन्द दराज़ों के साथ’। ‘नई नौकरी’ के रमा-कुन्दन, हमारे जिगरी दोस्त। मेरे कहने पर ही रमा ने कॉलेज में नौकरी शुरू की थी। आत्मविश्वास के अभाव में उसकी आरम्भिक झिझक को दूर किया था पति के प्रोत्साहन-भरे आग्रह ने। कोई साल भर बाद ही रमा के भीतर से एक नई रमा निकल आई थी—आत्मविश्वास से पूर्ण, अपनी योग्यता और क्षमता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त, अपने काम को समर्पित। आश्चर्य होता था कि अपने भीतर कितना कुछ समोए बैठी थी रमा। कोई सात-आठ साल बाद अचानक कुन्दन को एक बहुत बड़ी नौकरी मिल जाती है। बड़ी जिम्मेदारी, बड़ा ओहदा, बड़ा घर ! और तब बाँहों में भरकर, सारा प्यार उँडेलते हुए, वह रमा से इसका इसरार करता है कि कॉलेज से कहीं अधिक उसे रमा की ज़रूरत है। घर की सजावट, पार्टियाँ, कॉकटेल, विदेशी मेहमान...। कुन्दन की ज़रूरत बड़ी थी क्योंकि वह कुन्दन की थी और जिसका रोज सवेरे-शाम, उठते-बैठते ऐलान होता रहता था। अन्ततः रमा नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लेती है। रमा के इस निर्णय से रमा से अधिक मुझे विचलित किया था तो कुन्दन के इस रिमार्क ने—‘‘आप हमें लड़वाने पर आमादा हैं’’ मुझे कुपित।

अपने घर में मगन, पति में विभोर और होने वाले बच्चे के ख्यालों में डूबी हुई युवा मंजरी उस दिन कमरे में नंगे फर्श को भिगोती हुई लोट रही थी—इतना बड़ा धोखा...इतना बड़ा छल...क्यों...क्यों...आखिर क्यों ? और उसका वह कुन्दन मेरे भीतर क्रोध बनकर उफनने लगा था, लेकिन एक नपुंसक क्रोध, जो उसके पति की जगह मुझे ही ध्वस्त किए जा रहा था। कुछ समय बाद बड़ी बेबसी में लिपटी ठण्डी, सर्द आवाज़ में उसने अपना निर्णय सुनाया था कि वह पति से अलग हो रही है। वह हुई भी और यह महज़ संयोग ही था कि कुछ वर्ष बाद ही कोई एक नये जीवन का प्रस्ताव लेकर उसके सामने जा खड़ा हुआ था। बच्चे के साथ उसे अपने जीवन का सहभागी बनाने को उत्सुक, इच्छुक, तत्पर। एक ओर नया जीवन सामने खड़ा था और दूसरी ओर संस्कार-जनित यह संशय कि मुझे एक बार स्वीकार कर भी ले पर मेरे बच्चे को लेकर कैसे सहज रह पाएगा...और रहा भी तो उसके इस अहसान के बोझ के नीचे मैं कैसे सहज रह पाऊँगी ? पुरुष एक तलाकशुदा स्त्री को स्वीकार करे तो अहसान और बच्चे के साथ स्वीकार करे तो इतना बड़ा अहसान कि जिसके नीचे साँस ही घुटकर रह जाए। पति से मुक्त होने का साहस जुटा सकने वाली मंजरी इस मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकी और फिर वही अकेली अधूरी जिन्दगी जीने की विवशता ! यानी कि स्त्री के साथ रहे तो अपने को स्थगित करके और अलग हो तो टूटी-बिखरी ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त !

बातों में चाहे संस्कारों की धज्जियाँ बिखेरें...परिवेश को ठेंगे पर रखने का दम भरे पर एक स्तर पर कैसे दोनों ने आधुनिकता का दम भरने वाली पीढ़ी को जकड़ रखा है- इसका अहसास ही तब होता है, जब अपने को व्यवहार की कसौटी पर कसने की चुनौती आ खड़ी होती है। कहानी चाहे मेरे निजी अनुभवों की हो जाने पर आधुनिकता और सस्कारों के ऊहापोह में फँसी, त्रिशंकु की तरह लटकी हमारी पूरी पीढ़ी की विडम्बना ही उजागर हुई है ‘त्रिशंकु’ में। कहानी में अपनी पक्षधरता कतई नहीं, बल्कि अपनी ही धज्जियाँ बिखेरने का एक तटस्थ विवेक ही है, जो अपनी सीमाओं से उबरने का संकेत भी करता है, सारी ऊहापोह के बाद विकास की दिशा में बढ़ता कदम—आज की वास्तविकता।
हीनभावना से ग्रस्त और आत्मविश्वास से शून्य ‘तीसरा आदमी’ के नायक की व्यथा बिल्कुल उसकी अपनी है। आज भी ख्याल आता है उस भरे-पूरे आदमी का जा डॉक्टरी जाँच कराने के भय से न जाने कितनी कुंठाओं का शिकार होता चला जाता है। पत्नी के लिए बेहद शंकालु, अपने लिए दयनीय और दूसरों के लिए हास्यास्पद।

कहीं व्यक्ति की व्यथा, कहीं जाति की त्रासदी तो कहीं पूरी पीढ़ी की विडम्बना को उजागर करने वाली मेरी इन प्रतिनिधि कहानियों के पीछे जो असली कहानियाँ हैं, उनके पात्रों के साथ मेरा गहरा लगाव रहा और उनकी घटनाओं में से कुछ की मैं साक्षी रही हूँ तो कुछ की साझेदार। उनकी एक हल्की-सी रूप-रेखा देने के बाद अपनी कथा-यात्रा की बात करना मुझे न ज़रूरी लग रहा है, न प्रासंगिक। इन कहानियों में व्यक्त मान्यताओं और पक्षधरता के बहाने ही बड़ी आसानी से मेरा मूल्यांकन किया जा सकता है क्योंकि लेखक सबसे अधिक ईमानदार अपनी रचनाओं में ही होता है। इस बात को एकाएक जितनी शिद्दत के साथ पिछले दो सालों में मैंने महसूस किया, पहले इतने सचेत रूप से कभी नहीं किया था। इन दो सालों में एक कहानी के न जाने कितने ड्राफ्ट मैंने बनाए और खुद ही उन्हें अस्वीकार भी करती रही। एक विशेष स्थिति के सन्दर्भ में मैं ‘क’ की पक्षधर। केवल उनका ही समर्थन नहीं करती बल्कि जोरदार शब्दों में उसकी पैरवी भी करती रही और सोचा कि इस पर कहानी लिखकर अपने समर्थन की पुष्टि भी कर दूँ लेकिन जितनी बार प्रयत्न किया, जिस-जिस एंगिल से कहानी उठाई, बात कुछ बनी ही नहीं और तब एकाएक महसूस किया कि विचारों और बुद्धि के स्तर पर मैं चाहे कुछ भी कहती-सोचती रही होऊँ पर मेरे मन की भीतरी परत जैसे उस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी और मन की यह परत मेरी ज़िन्दगी की हकीकत है उसे मैं झुठला नहीं पा रही थी। कहानी भला बनती तो कैसे ? तब ‘क’ पृष्ठभूमि’ में चली गई और रचना के सन्दर्भ में एक मन की आवाज़ और बौद्धिकता के द्वन्द्व में फँसा एक लेखक आकार लेने लगा---एक नई कहानी का जीवन्त पात्र !
थोपा हुआ तो कुछ भी हो—बौद्धिकता, नैतिकता, करुणा या फिर कोई विचारधारा—ज़िन्दगी के असली रंग के धुँधला और कहानी के सारे असन्तुलन को डगमगा तो देता ही है।

-मन्नू भंडारी

अकेली


सोमा बुआ बुढ़िया हैं।
सोमा बुआ परित्यक्ता हैं।
सोमा बुआ अकेली हैं।
सोमा बुआ का जवान बेटा क्या जाता रहा, उनकी अपनी जवानी चली गई। पति को पुत्र वियोग में ऐसा सदमा लगा कि वे पत्नी, घर-बार तजकर तीरथवासी हुए और परिवार में कोई ऐसा सदस्य नहीं था जो उनके एकाकीपन को दूर करता। पिछले बीस वर्षों में उनके जीवन की इस एकरसता में किसी प्रकार का कोई व्यवधान उपस्थित नहीं हुआ, कोई परिवर्तन नहीं आया। यों हर साल एक महीने के लिए उनके पति उनके पास आकर रहते थे, पर कभी उन्होंने पति की प्रतीक्षा नहीं की, उनकी राह में आँखें नहीं बिछाईं। जब तक पति रहे, उनका मन और भी मुरझाया हुआ रहता, क्योंकि पति के स्नेहहीन व्यवहार पर अंकुश उनके रोजमर्रा के जीवन की अबाध गति से बहती स्वछन्द धारा को कुंठित कर देता। उस समय उनका घूमना-फिरना, मिलना-जुलना बन्द हो जाता, और संन्यासी महाराज से यह भी नहीं होता कि दो मीठे बोल बोलकर सोमा बुआ को ऐसा सम्बल ही पकड़ा दें, जिसका आसरा लेकर वे उनके वियोग के ग्यारह महीने काट दें। इस स्थिति में बुआ को अपनी ज़िन्दगी पास-पड़ोस वालों के भरोसे ही काटनी पड़ती थी। किसी के घर मुण्डन हो, छठी हो, जनेऊ हो, शादी हो या गमी हो, बुआ पहुँच जातीं और फिर छाती फाड़कर काम करतीं, मानो वे दूसरे के घर में नहीं अपने ही घर में काम कर रहीं हों।

आजकल सोमा बुआ के पति आए हैं, और अभी-अभी कुछ कहा-सुनी होकर चुकी है। बुआ आँगन में बैठी धूप खा रही हैं, पास रखी कटोरी से तेल लेकर हाथों में मल रही हैं, और बड़बड़ा रही हैं। इस एक महीने में अन्य अवयवों के शिथिल हो जाने के कारण उनकी जीभ ही सबसे अधिक सजीव और सक्रिय हो उठी है। तभी हाथ में एक फटी साड़ी और पापड़ लेकर ऊपर से राधा भाभी उतरीं।

‘‘क्या हो गया बुआ क्यों बड़बड़ा रही हो ? फिर संन्यासीजी महाराज ने कुछ कह दिया क्या ?’’
‘‘अरे, मैं कहीं चली जाऊँ सो तो ही इन्हें नहीं सुहाता। कल चौकवाले किशोरीलाल के बेटे का मुण्डन था, सारी बिरादरी का न्यौता था। मैं तो जानती थी कि ये पैसे का गरूर है कि मुण्डन पर सारी बिरादरी का न्यौता है, पर काम उन नई-नवेली बहुओं से सँभलेगा नहीं, सो जल्दी ही चली गई। हुआ भी वही।’’ और सरककर बुआ ने राधा के हाथ से पापड़ लेकर सुखाने शुरू कर दिए।’’ एक काम गत से नहीं हो रहा था। अब घर में कोई बड़ा-बूढ़ा हो तो बतावे, या कभी किया हो तो जानें। गीतोंवाली औरतें मुण्डन पर बन्ना-बन्नी गा रही थीं। मेरा तो हँसते-हँसते पेट फूल गया।’’

और उसकी याद से ही कुछ देर पहले का दुःख और आक्रोश धुल गया। अपने सहज स्वाभाविक रूप में कहने लगीं, ‘‘भट्ठी पर देखो तो अजब तमाशा—समोसे कच्चे ही उतार दिए और इतने बना दिए कि दो बार खिला दो, और गुलाबजामुन इतने कम कि एक पंगत में भी पूरी न पड़ें। उसी समय मैदा सानकर नए गुलाबजामुन बनाए। दोनों बहुएँ और किशोरीलाल तो बेचारे इतना जस मान रहे थे कि क्या बताऊँ ? कहने लगे, अम्माँ ! तुम न होतीं तो आज भद्द उड़ जाती। तुमने लाज रख ली !’’ मैंने तो कह दिया कि अरे अपने ही काम नहीं आवेंगे तो कोई बाहर से आवेगा नहीं। यह तो आजकल इनका रोटी-पानी का काम रहता है, नहीं तो मैं सवेरे से ही चली आती !’’
‘‘तो संन्यासी महाराज क्यों बिगड़ पड़े ? उन्हें तुम्हारा आना-जाना अच्छा नहीं लगता बुआ ?’’

‘‘यों तो मैं कहीं आऊँ-जाऊँ सो ही इन्हें नहीं सुहाता, ओर फिर कल किशोरी के यहाँ से बुलावा नहीं आया। अरे, मैं तो कहूँ कि घरवालों का कैसा बुलावा ? वे लोग तो मुझे अपनी माँ से कम नहीं समझते, नहीं तो कौन भला यों भट्ठी और भण्डारघर सौंप दे ? पर उन्हें अब कौन समझावे ? कहने लगे, तू जबरदस्ती दूसरों के घर में टाँग अड़ाती फिरती है।’’ और एकाएक उन्हें उस क्रोध-भरी वाणी और कटु वचनों का स्मरण हो आया, जिनकी बौछार कुछ देर पहले ही उन पर हो चुकी थी। याद आते ही फिर उनके आँसू बह चले।
‘‘अरे, रोती क्यों हो बुआ ? कहना-सुनना तो चलता ही रहता है। संन्यासीजी महाराज एक महीने को तो आकर रहते हैं, सुन लिया करो और क्या ?’’

‘‘सुनने को तो सुनती ही हूँ, पर मन तो दुखता ही है कि एक महीने तो आते हैं तो भी कभी मीठे बोल नहीं बोलते। मेरा आना-जाना इन्हें सुहाता नहीं, सो तू ही बता राधा, ये तो साल में ग्यारह महीने हरिद्वार में रहते हैं। इन्हें तो नाते-रिश्ते वालों से कुछ लेना-देना नहीं, पर मुझे तो सबसे निभाना पड़ता है। मैं भी सबसे तोड़-ताड़कर बैठ जाऊँ तो कैसे चले ? मैं तो इनसे कहती हूँ कि जब पल्ला पकड़ा है तो अन्त समय में भी साथ रखो, सो तो इनसे होता नहीं। सारा धरम-करम ये ही लूटेंगे, सारा जस ये ही बटोरेंगे और मैं अकेली पड़ी-पड़ी यहाँ इनके नाम को रोया करूँ। उस पर से कहीं आऊँ-जाऊँ वह भी तो इन्हें बर्दाश्त नहीं होता...’’ और बुआ फूट-फूटकर रो पड़ी। राधा ने आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘रोओ नहीं बुआ ! अरे, वे तो इसलिए नाराज़ हुए कि बिना बुलाए तुम चली गईं।’’

‘‘बेचारे इतने हंगामें में बुलाना भूल गए तो मैं भी मान करके बैठ जाती ? फिर घरवालों का कैसा बुलाना ? मैं तो अपनेपन की बात जानती हूँ। कोई प्रेम नहीं रखे तो दस बुलावे पर भी नहीं जाऊँ और प्रेम रखे तो बिना बुलाए भी सिर के बल जाऊँ। मेरा अपना हरखू होता और उसके घर काम होता तो क्या मैं बुलावे के भरोसे बैठी रहती ? मेरे लिए जैसा हरखू वैसा किशोरीलाल। आज हरखू नहीं है, इसी से दूसरों को देख-देखकर मन भरमाती रहती हूँ।’’ और वे हिचकियाँ लेने लगीं।
सूखे पापड़ों को बटोरते-बटोरते स्वर को भरसक कोमल बनाकर राधा ने कहा, ‘‘तुम भी बुआ बात को कहाँ से कहाँ ले गईं ! लो अब चुप होओ, पापड़ भूनकर लाती हूँ, खाकर बताना कैसा है ?’’ और वह साड़ी समेटकर ऊपर चढ़ गई।

कोई सप्ताह भर बाद बुआ बड़े प्रसन्न मन से आईं और संन्यासीजी से बोलीं, ‘‘सुनते हो, देवरजी के ससुरालवालों की किसी लड़की का सम्बन्ध भागीरथीजी के यहाँ हुआ है। वे सब लोग यहीं आकर ब्याह कर रहे हैं। देवरजी के बाद तो उन लोगों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, फिर भी हैं तो समधी ही। वे तो तुमको भी बुलाए बिना नहीं मानेंगे। समधी को आखिर कैसे छोड़ सकते हैं ?’’ और बुआ पुलकित होकर हँस पड़ीं। संन्यासीजी की मौन उपेक्षा से उनके मन को ठेस तो पहुँची। फिर भी वे प्रसन्न थीं। इधर-उधर जाकर वे इस विवाह की प्रगति की खबरें लातीं। आखिर एक दिन वे यह भी सुन आईं कि उनके समधी यहाँ आ गए। ज़ोर-शोर से तैयारियाँ हो रही हैं। सारी बिरादरी को दावत दी जाएगी—खूब रौनक होने वाली है। दोनों ही पैसे वाले ठहरे।
‘‘क्या जाने हमारे घर तो बुलावा भी आयेगा या नहीं ? देवरजी को मरे पच्चीस बरस हो गए, उसके बाद से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं रखा। रखे भी कौन ? यह काम तो मरदों का होता है, मैं तो मर्द वाली होकर भी बेमर्द की हूँ।’’ और एक ठण्डी साँस उनके दिल से निकल गई।

‘‘अरे वाह बुआ ! तुम्हारा नाम कैसे नहीं हो सकता ! तुम तो समधिन ठहरीं। सम्बन्धी न रहे तो रिश्ता थोड़े ही टूट जाता है !’’ दाल पीसती हुई घर की बड़ी बहू बोली।
‘‘है बुआ, नाम है। मैं तो सारी लिस्ट देखकर आई हूँ।’’ विधवा ननद बोली। बैठे ही बैठे एकदम आगे सरककर बुआ ने बड़े उत्साह से पूछा, ‘‘तू अपनी प्यारी आँखों से देखकर आई है नाम ? नाम तो होना ही चाहिए। पर मैंने सोचा कि क्या जाने, आजकल के फैशन में पुराने सम्बन्धियों को बुलावा हो, न हो।’’ और बुआ बिना दो पल भी रुके वहाँ से चल पड़ीं। अपने घर जाकर सीधे राधा भाभी के कमरे में चढ़ीं, ‘‘क्यों री राधा, तू तो जानती है कि नए फैशन में लड़की की शादी में क्या दिया जावे है ? समधियों का मामला ठहरा, सो भी पैसेवाले। खाली हाथ जाऊँगी तो अच्छा नहीं लगेगा। मैं तो पुराने जमाने की ठहरी, तू ही बता दे क्या दूँ ? अब कुछ बनने का तो समय रहा नहीं, दो दिन बाकी हैं, सो कुछ बना-बनाया ही खरीद लाना।’’

‘‘क्या देना चाहती हो अम्माँ—जेवर, कपड़ा, श्रृंगारदान या कोई और चाँदी की चीज़ें ?’’
मैं तो कुछ भी नहीं समझूँ री। जो कुछ पास है, तुझे लाकर देती हूँ, जो तू ठीक समझे ले आना, बस भद्द नहीं उड़नी चाहिए ! अच्छा, देख पहले कि रुपए कितने हैं।’’ और वे डगमगाते कदमों से नीचे आईं। दो-तीन कपड़ों की गठरियाँ हटाकर एक छोटा-सा बक्स निकाला। उसका ताला खोला। इधर-उधर करके एक छोटी-सी डिबिया निकाली। बड़े जतन से उसे खोला—उसमें सात रुपए, कुछ रेजगारी पड़ी थी, और एक अँगूठी। बुआ का अनुमान था कि रुपए ज्यादा होंगे, पर जब सात ही रुपए निकले तो सोच में पड़ गईं। रईस समधियों के घर में इतने-से रुपयों से तो बिन्दी भी नहीं लगेगी। उसकी नज़र अँगूठी पर गई। यह उसके मृत पुत्र की एक मात्र निशानी उसके पास रह गई थी। बड़े-बड़े आर्थिक संकटों के समय भी वे उस अँगूठी का मोह नहीं छोड़ सकी थीं। आज भी उसे उठाते समय उनका दिल धड़क गया। फिर भी उन्होंने पाँच रुपये और वह अँगूठी आँचल में बाँध ली। बक्स को बन्द किया और फिर ऊपर को चलीं। पर इस बार उनके मन का उत्साह कुछ
ठण्डा पड़ गया था, और पैरों की गति शिथिल। राधा के पास जाकर बोलीं, ‘‘रुपए तो नहीं निकले बहू। आएँ भी तो कहाँ से, मेरे कौन कमाने वाला बैठा है ? उस कोठरी का किराया आता है, उसमें से दो समय की रोटी निकल जाती है जैसे-तैसे !’’ और वे रो पड़ीं। राधा ने कहा, ‘‘क्या करूँ बुआ, आजकल मेरा भी हाथ तंग है, नहीं तो मैं ही दे देती। अरे, पर तुम देने के चक्कर में पड़ती ही क्यों हों ? आजकल तो लेने-देने का रिवाज उठ ही गया।’’

‘‘नहीं रे राधा ! समधियों का मामला ठहरा ! पच्चीस बरस हो गए तो भी वे नहीं भूले, और मैं खाली हाथ जाऊँ ? नहीं-नहीं, इससे तो न जाऊं सो ही अच्छा है !’’
तो जाओ ही मत। चलो छुट्टी हुई, इतने लोगों में किसे पता लगेगा कि आई या नहीं।’’ राधा ने सारी समस्या का सीधा-सा हल बताते हुए कहा।
‘‘बड़ा बुरा मानेंगे। सारे शहर के लोग जावेंगे, और मैं समधिन होकर नहीं जाऊँगी तो यही समझेंगे कि देवरजी मरे तो सम्बन्ध भी तोड़ लिया। नहीं-नहीं, तू यह अँगूठी बेच ही दे।’’ और उन्होंने आँचल की गाँठ खोल एक पुराने ज़माने की अँगूठी राधा के हाथ पर रख दी। फिर बड़ी मिन्नत-भरे स्वर में बोलीं, ‘‘तू तो बाज़ार जाती है राधा, इसे बेच देना और जो कुछ ठीक समझे खरीद लेना। बस, शोभा रह जावे इतना ख्याल रखना।’’

गली में बुआ ने चूड़ीवाले की आवाज़ सुनी तो एकाएक ही उनकी नज़र अपने हाथ की भद्दी-मटमैली चूड़ीवाले पर जाकर टिक गई। कल समधियों के यहाँ जाना है, ज़ेवर नहीं तो कम से कम काँच की चूड़ी तो अच्छी पहन लें। पर एक अव्यक्त-सी लाज ने उनके कदमों को रोक दिया। कोई देखेगा तो ? लेकिन दूसरे क्षण ही अपनी इस कमज़ोरी पर विजय पाती-सी वे पीछे के दरवाज़े पर पहुँच गईं और एक रुपया कलदार खर्च करके लाल-हरी-सी चूड़ियों के बन्द पहने लिए। पर सारे दिन हाथों को आँचल से ढके-ढके फिरीं।

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