विविध उपन्यास >> खुदा सही सलामत है खुदा सही सलामत हैरवीन्द्र कालिया
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हिन्दू-मुस्लिम जनता के सहजीवन का मार्मिक चित्रण.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अगर ‘झूठा सच’ बँटवारे का ऐतिहासिक दस्तावेज है, तो बँटवारे के बावजूद भारत में हिन्दु-मुस्लिम जनता के सहजीवन का मार्मिक उद्घाटन ‘खुदा सही सलामत है’ में सम्भव हुआ है। हजरी, अजीवन, गुलबदन, शर्मा, सिद्दीकी, पंडित, पंडिताइन, गुलाबदेई, लतीफ, हसीना, उमा, लक्ष्मीधर, ख्वाजा और प्रेम जैनपुरी जैसे जीवन्त और गतिशील पात्र अपनी तमाम इन्सानी ताकत और कमजोरियों के साथ हमें अपने परिवेश का हिस्सा बना लेते हैं। शर्मा और गुल का प्रेम इन दो धाराओं के मिश्रण को पूर्णता तक पहुँचाने को है कि साम्प्रदायिकता की आड़ लेकर रंग-बिरंगे निहित स्वार्थ उनके आड़े आ जाते हैं। जैसे प्रेम कुर्बानी माँगता है, वैसे ही मकान सामाजिक उद्देश्य भी। यह उपन्यास अतंतः इसी सत्य को रंखाकित करता है।
साम्प्रदायिकता के अलावा यह उपन्यास नारी प्रश्न पर गहराई से विचार करता है। इसके महिला पात्र भेदभाव करने वाली पुरुष मानसिकता की सारी गंदगी का सामना करने के बावजूद अंत तक अविचलित रहते हैं। अपनी समस्त मानवीय दुर्बलताओं के साथ चित्रित होने के बावजूद एक क्षण भी ऐसा नहीं लगता कि उन्हें उनके न्यायोचित मार्ग से हटाया जा सकता है। उत्तर मध्यकालीन भारतीय संस्कृति की वारिस, तवाफओं के माध्यम से आनेवाली यह व्यक्तित्व सम्पन्नता काफी मानीखेज है। यह हमें याद दिलाती है कि औपनिवेशिक आधुनिक की आत्महीन राह पर चलते हुए हम अपना क्या कुछ गँवा चुके हैं।
1980 के दशक में हमारे शासकवर्ग ने साम्प्रदायिक ममलों को हवा देने का रवैया अपनाया था वह जमीनी स्तर पर कैसे दोनों सम्प्रदायों के निहित स्वार्थों को खुल खेलने के नए-नए मौके मुहैया करा रहा था, और भारत का सवैधानिक धर्मनिरपेक्षता इस घिनौने खेल को बन्द करने वाला नहीं, इसे ढ़ँकने-तोपने वाला परदा बनी हुई थी, इसकी पड़ताल इस उपन्यास में आद्यान्त निहित है। आजाद भारत में गैरमुस्लिम कथाकारों के यहाँ मुस्लिम समाज की बहुश्रुत अनुपस्थिति के बीच यह उपन्यास एक सुखद और आशाजनक अपवाद की तरह हमारे सामने है। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण यह उपन्यास ‘आग का दरिया’, ‘उदास नस्लें’ ‘झूठा सच’ और ‘आधा गाँव’ की परम्परा की अगली कड़ी साबित होता है।
साम्प्रदायिकता के अलावा यह उपन्यास नारी प्रश्न पर गहराई से विचार करता है। इसके महिला पात्र भेदभाव करने वाली पुरुष मानसिकता की सारी गंदगी का सामना करने के बावजूद अंत तक अविचलित रहते हैं। अपनी समस्त मानवीय दुर्बलताओं के साथ चित्रित होने के बावजूद एक क्षण भी ऐसा नहीं लगता कि उन्हें उनके न्यायोचित मार्ग से हटाया जा सकता है। उत्तर मध्यकालीन भारतीय संस्कृति की वारिस, तवाफओं के माध्यम से आनेवाली यह व्यक्तित्व सम्पन्नता काफी मानीखेज है। यह हमें याद दिलाती है कि औपनिवेशिक आधुनिक की आत्महीन राह पर चलते हुए हम अपना क्या कुछ गँवा चुके हैं।
1980 के दशक में हमारे शासकवर्ग ने साम्प्रदायिक ममलों को हवा देने का रवैया अपनाया था वह जमीनी स्तर पर कैसे दोनों सम्प्रदायों के निहित स्वार्थों को खुल खेलने के नए-नए मौके मुहैया करा रहा था, और भारत का सवैधानिक धर्मनिरपेक्षता इस घिनौने खेल को बन्द करने वाला नहीं, इसे ढ़ँकने-तोपने वाला परदा बनी हुई थी, इसकी पड़ताल इस उपन्यास में आद्यान्त निहित है। आजाद भारत में गैरमुस्लिम कथाकारों के यहाँ मुस्लिम समाज की बहुश्रुत अनुपस्थिति के बीच यह उपन्यास एक सुखद और आशाजनक अपवाद की तरह हमारे सामने है। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण यह उपन्यास ‘आग का दरिया’, ‘उदास नस्लें’ ‘झूठा सच’ और ‘आधा गाँव’ की परम्परा की अगली कड़ी साबित होता है।
मनदिर में है चाँद चमकता, मस्जिद में है मुरली का तान।
मक्का हो चाहे वृन्दावन, होते आपस में कुर्बान।।
मक्का हो चाहे वृन्दावन, होते आपस में कुर्बान।।
तवायफ़-सभा काशी की अध्यक्षा
हुसनाबाई का भाषण
प्रिय बहनों !
आपने आज मुझे इस सभा में सभापति का स्थान देकर जो मेरी इज़्ज़त बढ़ाई है, उसके लिए मैं आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि इस काम को अंजाम देने में आप लोग हमेशा इसी तरह की इम्दाद देती रहेंगी।
संस्कृत ज़बान में हम लोगों को ‘गणिका’ और फ़ारसी में ‘तवायफ़’ तथा ‘परी’ नाम से पुकारा गया है। पुराने ज़माने में हम लोगों को सर्वत्र उत्तम स्थान मिलता आया है। इन्द्र की सभा में, राजाओं के स्वयंवर में यज्ञ में, बड़े से बड़े बादशाहों के दरबार में, रईस और गरीबों में, मन्दिर तथा मस्जिदों में-सर्वत्र हम लोगों की इज़्ज़त होती आई है। मैंने पंडितों से यह भी सुना है कि शास्त्र में लिखा है कि राजा और गणिका के दर्शन से फल होता है। हरेक शुभ कार्य में हम लोगों का भाग निकाला जाता था। और कहीं-कहीं रजवाड़ों में यह रिवाज़ अब तक जारी है। गायन और नृत्य हमारा खा़स पेशा है। जन्नत की हूर और पुराणों की ‘अप्सरा’ हमीं हैं। शकुन्तला भी एक अप्सरा ही से पैदा हुई थी, जिनके पुत्र राजा भरत का नाम आज भी तवारीखों में सोने के हरूफ़ों में लिखा है। हमारी जाति और गुणों का वर्णन बहुत सी पुस्तकों में मौजूद है। उसे देखा जाए अथवा लिखाकर प्रकाशित किया जाए तो आप बहन और भाईयों को अच्छी तरह मालूम हो जाए कि हम लोग किस दर्जे पर थीं और हमारा महत्त्व क्या था। बड़े लोगों से यह भी सुनने में आया है कि बड़े रईसों के लड़के-विशेषकर जौहरियों के-हमारे घरों पर पढ़ने के लिए आते थे और होशियार होने के बाद वे लौट जाते थे। एक समय की बात है कि एक महाजन का लड़का एक गणिका के यहाँ पढ़ता था।
एक दिन एक मनुष्य उस गणिका के यहाँ गया, और उसने उस लड़के से ‘शराब’ लाने के लिए कहा। उस समय रात का एक बजा था। शराब कहीं मिल नहीं सकती थी। लड़के ने विचार किया कि बाईजी तो शराब पीती नहीं, इस बेवकूफ़ को इसकी ज़रूरत है। यह सोचकर लड़का गया और गधे की पेशाब बोतल में भर लाया और मतवाले के सामने रख दिया। सुबह यह बात बाईजी को मालूम हुई तब उन्होंने शागिर्द की पीठ ठोंकी और उसे घर जाने की आज्ञा दी। यह कहानी हमारे गौरव तथा बड़ाई को आज भी जा़हिर कर रही है। इससे यह मालूम होता है कि बाई लोग शराब नहीं पीती थीं। इन बातों के अलावा हम लोगों में विद्या का प्रचार भी इतना था कि दरबारों में राजा या बादशाहों की आज्ञा होते ही नए-नए पदों की रचना कर गाना पड़ता था और जिस गायक के उत्तम पद होते थे, उसे उत्तम इनाम मिलता था।...हमारा खास रोज़गार गाना-बजाना और नाचना है, परन्तु इसका बहुत कुछ लोप हो गया है। लड़कियों को गाने और नाचने में पूर्ण पंडित नहीं बनाया जाता। उन्हें संगीत विद्या की उच्च शिक्षा नहीं दी जाती। इधर-उधर से दस-बीस गानें सीखकर पेट भरने की पड़ जाती है। इससे हमारी सर्वगुणमयी संगीत विद्या के ह्रास के साथ हमारा भी पतन हो चला। यह हम लोगों के लिए बड़ी ही लज्जा की बात है। इसके अतिरिक्त अश्लील गानों तथा कई एक कारणों से देश में तवायफ़ों का नाच-मुजरा बन्द कराने की कोशिश बहुत से लोग कर रहे हैं। और यह बिल्कुल सच है कि कई एक मुकामों पर जहां आज से चार साल पेश्तर तवायफ़ों का नाच होता था, वहाँ अब नहीं होता। इसके बहुत से सबूत हैं।
इस वक्त देशवासियों का झुकाव राष्ट्रीय गीत की ओर है। इसलिए हम लोगों को भी राष्ट्रीय गानों को याद कर मुजरों तथा महफिलों में गाना चाहिए। इससे हमारी प्रशंसा होगी, रोज़गार बढ़ेगा। हम लोगों को जो बहुत से लोग ह़िकारत की निगाह से देखने लग गए हैं। सो भी कम हो जाएगा और लोग इज़्ज़त की निगाह से देखेंगे, जिधर की हवा बहे उसी तरफ़ सबका जाना फ़र्ज है और संसार का भी यही नियम है। इसी में हमारी तरक्की होगी। राजनीतिक गानों की बहुत सी पुस्तकें बन गई हैं, उन्हें मँगाकर गाने याद कीजिए। जिसे पुस्तक न मिले, विद्याधरी बहन के यहाँ से मँगा ले।
अब मैं आप लोगों का खयाल शराब की ओर दिलाती हूँ। हम लोगों में शराबखोरी इतनी बढ़ गई है कि इसने अर्थ और धर्म-दोनों का नाश कर दिया है। मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि शराब पीना हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कौमों के मज़हब के खिलाफ़ है। हमने कहीं लिखा देखा है कि यदि मुसलमानों के ज़िस्म के किसी हिस्से पर शराब का कतरा गिर पड़े तो उसे उस हिस्से को काटकर फेंक देना चाहिए-यदि वह सच्चा इस्लाम धर्म मानने वाला है। ऐसा ही हिन्दुओं के यहाँ भी है। परन्तु बड़े शर्म की बात है कि हम लोग खुदगर्जी़ के जाल में फँसकर अपने धर्म पर चोट पहुँचा रही हैं। अतः हिन्दू हो अथवा मुसलमान, उसे शराब को हराम समझकर उसका पीना शीघ्र ही बन्द कर देना चाहिए।
हमारी जीविका याचना है और हम लोगों को याचक भी कहते हैं। हमारी आमदनी तब बढ़ेगी, जब हमारा मुल्क धनी होगा और छोटे-बड़े सब सुखी होंगे। जब सब काम से पैसा बचेगा तब लोग हमारा गाना-बजाना सुनेंगे। हिन्दुस्तान धनी हो इसके लिए हमें ईश्वर से सदैव प्रार्थना करनी चाहिए, परन्तु हम यह देखते हैं कि हमारा मुल्क बहुत गरीब हो गया है। यहाँ का धन अनेक रूपों में विलायत पहुँच गया। चीनी के खिलौने, शीशे-काठकवाड़ तथा ग्रामोफ़ोन बाजे वगैरह में लाखों रुपए हमसे दूसरे मुल्कवाले लूट ले गए। इन चीज़ों में सबसे बड़ा हिस्सा कपड़े का है। करीब 69 करोड़ रुपया हर साल हमारे मुल्क से दूसरे देशों में कपड़े के व्यापारी ले जाते हैं। एक रूपए की तीन और चार सेर की रूई हिन्दुस्तान से खरीदकर उसी का कपड़ा बना सोलह और बीस रूपये सेर में हिन्दुस्तान के ही हाथ बेचा जाता है। मियाँ की जूती मियाँ के सिर-वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। आबरवाँ, मखमल, अद्धी और तंजेब ने हमारे मुल्क को बरबाद कर दिया। लाखों बच्चे तथा करोड़ों गौ-बैल भूख से मरने लगे। हजारों पशु गोरे सैनिकों के लिए कटने लगे, जिससे घी-दूध महँगा हो गया, जो कि बच्चों की मृत्यु का एक प्रधान कारण है। हमारी बहुत सी बहनें गरीबी के कष्ट उठा रही हैं। उनके साथ हम लोगों को हमदर्दी करना चाहिए। उन्हें चरखे कातने तथा कपड़े बुनने की शिक्षा देनी चाहिए जिससे उनकी गरीबी कटे और देश की भलाई हो। महात्मा गांधीजी की आज्ञा से अब भारत ने स्वाधीनता और स्वराज्य की घोषणा कर दी है। भारत को आज़ाद करने के लिए विलायती माल का व्यवहार बन्द करना जरूरी है। मैं आज से विलायती माल न खरीदने की प्रतिज्ञा करती हूँ कि आप लोग भी आज से ही विलायती माल लेना बन्द कर देंगी और अपने बच्चों से कह देंगी कि मरने पर हमारे जनाज़े में नापाक विलायती कपड़ा मत लगाना। मेरी बहनें मुझसे यह सवाल कर सकती हैं कि यदि विलायती कपड़ा सस्ता होगा और देशी महँगा तो हम उसे कैसे खरीदेंगी। उसके जवाब में हमारी प्रार्थना यह है कि विलायती से देशी अधिक दिन तक चलता है। इससे हमारे मुल्क का फ़ायदा होगा। गरीबों को पेट भरने का एक रोज़गार मिल जाएगा, हिन्दुस्तान बहुत जल्द आज़ाद हो जाएगा, इसलिए साल में चार कपड़े की जगह तीन ही काम में लाइए-पर देशी लाइए।
अब मैं आप लोगों का ध्यान उन स्त्रियों की ओर दिलाती हूँ, जिन्होंने अपने मुल्क और मज़हब की भलाई के लिए अपना प्राण तक दे दिया है। पन्द्रहवीं शताब्दी में जिस समय अंग्रेज शासक फ्रांस में बेतहर जुल्म कर रहे थे, उस समय फ्रांस की सोलह वर्ष की बालिका ‘जॉन आफ़ आर्क’ ने फ्रांस को आजा़द करने के लिए कौमी झंडा उठाया था, जिसके लिए उसे यहाँ तक तकलीफ़ सहनी पड़ी थी कि उसके सुकुमार हाथों और पैरों में हथकड़ी डाल दी गई और बड़े ही बेरहमी के साथ रस्सियों में बाँधकर फ्रांस के अंग्रेज़ शासकों द्वारा जीते जी जला दी गई। परन्तु वह अपने सिद्धान्तों से ज़रा भी विचलित नहीं हुई।
इसी तरह चित्तौड़ की रक्षा के लिए कितनी ही वीर बालाओं ने लड़ाई के मैदान में अपने प्राणों की आहुति दे दी। तेरह हजार स्त्रियों ने एक ही समय अपने हाथों से चिता लगाकर अपने को भस्म कर दिया, परन्तु अपने मुल्क को जीते जी गुलाम न होने दिया। संसार में स्त्रियों और पुरुषों का अधिकार बराबर है। भारत पर पुरुषों से ज़्यादा हक स्त्रियों का है। यदि पुरुष आज़ादी के लिए के लिए लड़ रहे हैं तो हम भी उनके साथ प्राण देने को तैयार हैं। यदि वे जेल जा रहे हैं तो हम भी उनकी पूजा करने के लिए पहले से बैठी हैं। क्या आप भारत को गुलामी से आज़ाद करना चाहती हैं ? यदि चाहती हैं तो क्या उनके लिए आप सोने के गहनों की जगह लोहे की ज़ंज़ीरें पहनने के लिए तैयार हैं ? क्या अन्य बाजों के सहारे न गाकर ज़ंज़ीरों की झनझनाहट के साथ राष्ट्रीय गीत गाने के लिए तैयार हैं ? क्या आप मख़मलों की सेज के बदले कम्बलों पर सोने के लिए तैयार हैं ? यदि हाँ, तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि वह दिन करीब है, जिस दिन हम लोग भारत को आज़ाद देखेंगी।
अन्त में मैं विद्याधरी को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने मुझे इस कार्य को करने में अग्रसर किया तथा एक बार आप लोगों को भी इस मान को देने के लिए धन्यवाद देती हूँ।
वह एक सँकरी-सी गली थी। बेलन के आकार की। बीच में अचानक गुब्बारे की तरह फूल गई थी। नदी के बीचोबीच उग आए टापू की तरह। दूसरे आम चुनाव से पहले गली के मुहाने पर नगर महापालिका की ओर से एक छोटा-सा नल लगा दिया गया था। शुरू-शुरू में लोगों को नल का पानी बहुत फीका लगा। लोग-बाग नल के पानी से कपड़े वगै़रह तो धो लेते मगर पीने से परहेज़ करते। पीने के लिए कुएँ से ही पानी लिकालते। जाने क्या हुआ कि कुछ ही वर्षों में कुआँ बेचारा इतना तिरस्कृत हो गया कि उसकी सतह पर काई जमने लगी और नल पर पनघट का माहौल दूनी शान-शौकत से पैदा हो गया। सुबह हो या शाम, कमर पर एक तरफ़ बच्चा और दूसरी तरफ़ गगरा लिये औरतों का जमगट लगा रहता। बुर्का ओढ़े स्त्रियाँ हों या लुंगी-बनियान पहने पुरुष- सब अपनी बारी की हड़बड़ी में बेचैन नज़र आते। कभी-कधार मारपीट भी हो जाती। पानी लेने की जल्दबाज़ी में बहुत से लोग थाने-अस्पताल पहुँच चुके थे। क्या दूसरे आम चुनाव से पूर्व कुआँ जरूरत भर का पानी मुहय्या करता रहा होगा-यह एक शोध और आश्चर्य का विषय था।
गली के बीचों एक बड़ा-सा अहाता था और अहाते के बीचोबीच नीम का एक पुराना पेड़। लगता है पेड़ के नीचे कभी एक कुआँ रहा होगा, जिसे भरकर उसके ऊपर एक चौतरा-सा बना दिया गया था। चौतरे पर अपना सामाजिक महत्त्व था। ईद के मौके पर ईद- मिलन और होली के अवसर पर होली-मिलन के रंगारंग कार्यक्रम इसी चौतरे पर आयोजित किए जाते। दोनों ही त्यौहारों पर रात-रात भर कव्वाली होती। दोनों तरफ़ के आयोजकों की कोशिश रहती कि कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए जिलाधीश अथवा पुलिस अधीक्षक तैयार हो जाएँ। इससे छुटभैये नेताओं को ज़िला प्रशासन से सम्पर्क साधने का अवसर मिल जाता था।
मगर चौतरे का एक और इतिहास भी था। गली के बूड़े-बूढ़ों का दृढ़ विश्वास था कि इस नीम और कुएँ पर भूतों का डेरा है। भूतों के डर से लोग-बाग रात दस बजे के बाद से अपना रास्ता बदल लेते थे। मुहल्ले की कुँआरी कन्याओं को कुएँ से पानी भरने की मुमानियत थी। रात-बिरात नीम के नीचे से अकेले गुज़रना तो दूर, भाई लोगों ने यहाँ तक प्रचारित कर रखा था कि जहाँ-जहाँ तक नीम का साया पड़ता है, कोई औरत सुखी नहीं रह सकती। भूतों को लेकर जितनी भी कहानियाँ सुनी जाती थीं, उनसे लगता था कि इन भूतों की दिलचस्पी केवल स्त्रियों और बच्चों में थी। कुएँ के इतिहास से एक से एक कारुणिक त्रासदियाँ वाबस्ता थीं। शीरीं ने इसी कुएँ में कूदकर आत्महत्या की थी। शीरीं ने फरहाद के लम्बे इन्तजा़र से आजिज़ आकर अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी और सरला को दहेज का यही अन्धा कुआँ निगल गया था। अमावस की रात को लोग सूरज डूबते ही अपने-अपने घरों में बन्द हो जाते, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि अमावस की रात को कभी तो शैतान के अट्टहास की तरह आवाज़ें उठती हैं और कभी किसी औरत के सिसकने की। किस्से यहीं ख़त्म नहीं होते। पार्वती ने शादी के दूसरे रोज़ अपने को इसी कुएँ के हवाले रख दिया था।
पार्वती को आप नहीं जानते। पार्वती शिवलाल चक्कीवाले की दूसरी पत्नी थी। नीम के नीचे खाट बिछाए यह जो शख्स करवटें बदलता दिखाई देता है, शिवलाल उसी का नाम है। शिवलाल की समझ में आज तक नहीं आया कि पार्वती क्यों उसे इतनी बड़ी दुनिया में यकायक अकेला छोड़ गई। उधर एक दिन उसे सपने में दिखाई दिया शींरी और सरला मिलकर पार्वती को भी कुएँ की तरफ़ घसीट रही हैं और पार्वती है कि चिल्ला रही है। शिवलाल पार्वती को बचाने की कोशिश करता है, मगर उसकी टाँगों में कुव्वत नहीं। जब वह बहुत कोशिश के बाद भी नहीं उठ पाया तो वहीं खटिया पर औंधा गिर पड़ा। कुएँ में गिरने से पहले पार्वती उसकी तरफ़ बहुत आशा और अपेक्षा से देखती है, मगर शिवलाल चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। एक तरफ पार्वती को कुएँ में धकेल दिया जाता है और दूसरी तरफ शिवलाल खटिया के पाए से अपना माथा फोड़ लेता है।
शिवलाल ने सपना देखा तो दहशत में आ गया। वह खटिया पर बैठ गया। नीम के पत्तों से छनकर आती हुई चाँदनी उसकी खटिया पर बिखर रही थी। चारों तरफ सन्नाटा था। वह कुछ भी तय न कर पाया। पार्वती की याद उसके सीने पर एक वज़नी सिल की तरह सुबह तक पड़ी रही। सुबह से उसे लगता रहा, जाते-जाते भूत यह कह गए हैं-नीम के नीचे से चक्की उठा लो शिवलाल ! शिवलाल ने भी तय कर लिया था कि वह चक्की उठाकर कहीं दूर चला जाएगा, मगर इस बीच कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि वह पड़ा रह गया। एक दिन नगर महापालिका ने अचानक कुआँ भरना शुरू कर दिया और शिवलाल की माँ शिवलाल का, एक जगह रिश्ता भी पक्का कर आई।
इस बीच देश ने बहुत तरक्की की। मगर इस गली का ही दुर्भाग्य कहा जाएगा कि देश में हो रहे विकास कार्यों का बहुत हल्का प्रभाव इस गली के वासियों के जीवन पर पड़ रहा था। गली के औसत आदमी के घर में आज भी न पानी का नल था, न बिजली का कनेक्शन। शाम होते ही घर में जगह-जगह जुगनुओं की तरह ढिबरियाँ टिमटिमाने लगतीं। अगर भूले भटके गली में दो-एक जगह सड़क के किनारे बल्ब लगा दिए जाते तो बच्चे लोग तब तक अपनी निशानेबाज़ी की आज़माइश करते रहते, जब तक बल्ब टूट न जाते। दरअसल गली के लोग सदियों से अँधेरे में रह रहे थे और अब अँधेरे में रहने के आदी हो चुके थे। अब उजाला उनकी आँखों में गड़ता था। यही वजह थी कि अगर बच्चों से बल्ब फोड़ने में कोताही हो जाती तो कोई रोशनी का दुश्मन चुपके से बल्ब फोड़ देता। रोशनी में जीना उन्हें ऐसा लगता जैसे निर्वसन जीना। रोशनी से बचने के लिए लोग टाट के पर्दे गिरा देते।
टाट इस गली का राष्ट्रीय परिधान था। दरअसल टाट चिलमन भी था और चादर भी। टाट पाजामा भी था और लंहगा भी। टाट बिस्तर था और कम्बल भी। अक्सर लोग टाट पर सोते थे और टाट ओढ़ते थे। टाट के साइज़-बेसाइज़ के परदे छोटी-छोटी कोठरियों के बाहर जैसे सदियों से लटक रहे थे। टाट के उन पर्दों पर टाट की ही थिगलियाँ लगी रहती थीं।
साँझ घिरते-घिरते गली में आमदोरफ्त बढ़ जाती। मस्जिद से आजा़न की आवाज़ सुनाई दी नहीं कि लोग जल्दी-जल्दी बावजू होकर मग़रिब की नमाज़ में मशगूल हो जाते। बड़ी-बूढ़ी औरतें दालान में एक तरफ चटाई बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगतीं।
दीया-बत्ती का समय होते ही छोटे-छोटे बच्चे पुश्तैनी बोतलें थामे मिट्टी के तेल की कतार में जुड़ जाते। किसी बोतल की गर्दन टूटी होती या नीचे से पेंदे की परत। इन्हीं बच्चों को सुबह आँखें मलते हुए टेढ़े-मेढ़े गिलास अथवा कुल्हड़ लिये दूध लाते देखा जा सकता था। प्रति परिवार पाव-लीटर दूध और आधा लीटर किरासिन चौबीस घण्टों के लिए पर्याप्त होता।
अधिकांश घरों में पाखाने की कोई व्यवस्था न थी। सुबह मुँह-अँधेरे पूरी गली सार्वजनिक शौचालय का रूप ले लेती। खुदा न खास्ता किसी को दस्त लग जाते तो अजी़ज़न बी का ज़ीने के नीचे बना पाखाना काम में लाया जाता। पाखाने की चाबी नफ़ीस के पास रहती थी और चाबी लेने के लिए नफ़ीस की बहुत चिरौरी करनी पड़ती थी। नफ़ीस खुश हो जाता तो न केवल चाबी बल्कि सनलाइट का छोटा-सा टुकड़ा भी दे देता। मगर लोगों ने इन तमाम अभावों के बीच जीने का एक ढर्रा ईजाद कर लिया था। चुनाव के दिनों जब गली को झंड़ियों और फूल पत्तियों से सजाया जाता तो लगता जैसे कोई बूढ़ी वैश्या लिपस्टिक पोते इतरा रही है।
शहर की खुशहाल बस्तियों में शाम के समय जो जंगल की वीरानी और श्मशान का सन्नाटा छाया रहता है, वह इस गली में दूर-दूर तक नहीं मिल सकता था। इस लिहाज़ से यह गली एक भरे-पूरे परिवार के आबाद आँगन की तरह महकती थी। दीवाली हो या ईद, मुहर्रम हो या होली यह गली रतजगे पर उतर आती। दीवाली के दिनों पूरी गली मिठाई के डिब्बों का कारखाना बन जाती। रमजान के महीने में रात-भर चहल-पहल रहती और अलसुबह जब बाँगी ‘सहरी का वक्त हो गया है, खुदा के बन्दो जागो’ की बाँग देता तो बर्तनों की खनक के साथ एक नए दिन की शुरूआत हो जाती। होली पर रंग बेचनेवाले इसी गली से रंगों के पहाड़ ठेलों पर लादे हुए निकलते। रात-रात भर पिचकारियाँ बनतीं। मुहर्रम के दिनों नीमतले पेट्रोमैक्स की रोशनी में छुरियाँ तेज़ होतीं-किर्र किरर्र किर्र...
टाट गली का राष्ट्रीय परिधान था तो बीड़ी उद्योग राष्ट्रीय रोज़गार। स्त्रियाँ, बच्चे और बेकार नवयुवक रात-भर राष्ट्र के लिए पत्तों में तम्बाकू लपेटते। सुबह सड़े-गले पत्तों को जलाकर उनके ताप से चाय बनाते।
शिवलाल की चक्की गली के मुहाने पर ही थी, इसलिय वह एक तरह से गली का ‘गेटकीपर था। उसे मालूम रहता था कि इस समय नफ़ीस इमामबाड़े के पास खड़ा पान चबा रहा है या गुल को लेने विश्वविद्यालय गया है। हजरी बी चमेली के पास बैठी है या पंडिताइन की जुएँ बीन रही है। कोई अजनबी अगर किसी का अता-पता पूछता तो शिवलाल न केवल अता-पता बता देता बल्कि संक्षेप में उस व्यक्ति का इतिहास भी।
शिवलाल के बहुत कम दोस्त थे। एक पंडित शिवनारायण दुबे था और दूसरे एक मौलाना थे। मौलाना शफ़ी। पुराने रईस। मगर अब हालात बिगड़ चुके थे। इधर रद्दी की खरीदो-फरोख्त का कारोबार करते थे। अपनी-पुरानी रईसी के किस्से वह खुद इस अन्दाज़ से सुनाते थे कि शिवलाल को बहुत मज़ा आता। जब मौलाना बताते कि उन्होंने बम्बई में ग्रांट रोडवाला मकान सिर्फ़ सात हजा़र रुपए में बेंच दिया और अब उसका दाम डेढ़ लाख है तो शिवलाल के सारे बदन में खुजली छिड़ जाती। वह बेचैन होने लगता। जब मौलाना बताते कि सात हजा़र रूपया भी उसने सात दिनों में तबाह कर दिया तो शिवलाल और बेचैन हो जाता।
‘अमाँ यार ज़िन्दगी भी एक ड्रामा है। एक वक्त था मौलाना शफी़ का नाम सुनते ही दोस्तों की भीड़ लग जाया करती थी और एक ज़माना यह है कि मौलाना शफ़ी दिन-भर रद्दी बटोरता घूमता है और खर्च लायक दस-बीस रूपये कमाने में अच्छी-खासी मशक्कत हो जाती है। शिवलाल, तुम्हें क्या बताएँ एक ज़माना था कि कागज की कतरन ढाई रूपये किलो थी। गेहूँ और कतरन दोनों का एक दाम था। आज वही कतरन कोई अस्सी पैसे में नहीं पूछ रहा। जितना पैसा एक क्विंटल माल खरीदने पर बचता था आज तीन क्विंटल में भी नहीं बचता।’
मौलाना शफ़ी नमाज़ के वक्त का हमेशा खयाल रखते थे। बात बीच में ही छोड़कर चल देते। पाँचों वक्त की नमाज़ से उनकी रूह को चैन मिलता था। उन्हें याद है जब तक उन्होंने नमाज़ की तरफ़ ध्यान नहीं दिया था उन्हें अजीब-सी दहशत दबोचे रहती। उन्हें लगता कोई उनका पीछा कर रहा है। वे अपनी साइकिल पर हाँफते हुए आते और शिवलाल के पास ही साइकिल खड़ी करके उससे पानी पिलाने के लिए कहते। पानी पीने के बाद वे बुदबुदाते, ‘शिवलाल भाई, कैसा ज़माना आ गया है। कल एक प्रेस से रद्दी उठाई। घर जाकर छटाई में लगा गया तो क्या देखता हूँ, दसियों सेर सीसा मिस्त्री ने रद्दी में मिला रखा है। रद्दी का भाव दो सौ रुपये और सीसे का दो हजा़र रूपये। मैंने उसी वक्त कपड़े पहने और जाकर सीसा लौटा आया। हराम की कमाई मेरे ज़मीर ने कुबूल ही नहीं की। वरना क्या सीसा बेचकर मैं एक अच्छी-खासी रकम खड़ी नहीं कर सकता था ? तुम आज भी किसी से मेरे बारे में दरियाफ़्त कर लो, सब लोग तफ़सील से मेरे बारे में बताएँगे ! सब लोग हैरत में हैं एक नेक-दिल खुदातरस इंसान के पीछे वे लोग क्यों पड़ गए हैं ? आप ही की तरह सब पूछते हैं कि कौन है वे जो तुम्हारे पीछे पड़े हैं ? हम क्या बतावें ? कोई सामने आवे तो बतावें। बस छिप-छिप कर इशारे करते हैं और जीना मुहाल किये हैं। किसी ने किसी का कान भरा तो वही जाने। मेरा जिन्दगी का तो फ़लसफ़ा है कि इंसान बनके जीओ और दूसरों को जीने दो। चन्दरोज़ा जिन्दगी को यों ही बर्बाद न होने दो। मुनि, दरवेश और फकीर की कीमत कोई भी समझ सकता है। ज़ाहिल इंसान यह सब नहीं जानता। मैं इसे उनकी जहालत ही कहूँगा जो बेसबब अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं। मुझ जैसे मुफ़लिस से उन्हें क्या हासिल होगा ? कोई उनको सामने लाकर खड़ा कर दे तो हम बता दें कि हर इंसान का एक मैयार होता है। ग़लती भी न बताओ, उसके पीछे पड़े रहो, यह कहाँ का दस्तूर है ? दिन भर इन्हीं ख़यालात में डूबा रहता हूँ कि उनका मकसद क्या है ?’
शिवलाल की आत्मा हमेशा सन्तप्त रहती थी। अपने आसपास किसी ग़ैरतवाले आदमी को देखकर उसे बहुत तसल्ली होती। उसे सारी दुनिया एक शोषक के रूप में नज़र आती थी। उसे लगता पूरे समाज की आँख उसकी छोटी–सी जमा-पूँजी पर है, चाहे उसकी अम्मा की नजर हो या भाई की। मौलाना शफ़ी ही उसे एक ऐसा व्यक्ति लगता था जो इस षड्यंत्र में शामिल नहीं था। मगर मौलना की बातों से उसे बहुत उलझन होती, डर भी लगता। कोई उसके पीछे न लग जाए। क्या भरोसा इस दुनिया का ! कौन कब किसके पीछे पड़ जाए, कौन जानता है। वह बहुत देर तक इस समस्या पर विचार करता रहता। जब उसका मन न मानता तो वह हुक्के का एक लम्बा कश खींचता और पूछ बैठता, ‘मगर वे क्यों आपके पीछे पड़े हैं ?’
‘अपना मतलब हल करना चाहते हैं। यही मक़सद हो सकता है कि तरक्की न करने पावे। बच्चों की शादी न करे।’
‘इसके पीछे कोई वजह तो ज़रूर होगी ?’
मैं दिन भर सोचता रहता हूँ। मेरी समझ में खुद कुछ नहीं आता। क़ुरानशरीफ़ की कसम, मैं कुछ नहीं जानता। घर से निकलता हूँ तो उनकी आवाज़ें सुनाई देती हैं। दस आदमी-बारह आदमी का हौवा लाकर खड़ा कर देते हैं। हमारा दिल कहता है कि हमको देखकर बकना शुरू कर देते हैं कि इसके दिमाग़ को खराब करो। गलती भी न बताओ, इसके पीछे पड़े रहो। यह तो ग़लत है, सरासर ग़लत है। वे नहीं जानते की बुलन्द खयाल के लोग ही अच्छी जिन्दगी बसर कर सकते हैं। बुरी चीज को रोकने के लिए ही अच्छे लोग पैदा होते हैं। खुदा खूब वाकिफ है किस पर क्या गुज़रती है।
आपने आज मुझे इस सभा में सभापति का स्थान देकर जो मेरी इज़्ज़त बढ़ाई है, उसके लिए मैं आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि इस काम को अंजाम देने में आप लोग हमेशा इसी तरह की इम्दाद देती रहेंगी।
संस्कृत ज़बान में हम लोगों को ‘गणिका’ और फ़ारसी में ‘तवायफ़’ तथा ‘परी’ नाम से पुकारा गया है। पुराने ज़माने में हम लोगों को सर्वत्र उत्तम स्थान मिलता आया है। इन्द्र की सभा में, राजाओं के स्वयंवर में यज्ञ में, बड़े से बड़े बादशाहों के दरबार में, रईस और गरीबों में, मन्दिर तथा मस्जिदों में-सर्वत्र हम लोगों की इज़्ज़त होती आई है। मैंने पंडितों से यह भी सुना है कि शास्त्र में लिखा है कि राजा और गणिका के दर्शन से फल होता है। हरेक शुभ कार्य में हम लोगों का भाग निकाला जाता था। और कहीं-कहीं रजवाड़ों में यह रिवाज़ अब तक जारी है। गायन और नृत्य हमारा खा़स पेशा है। जन्नत की हूर और पुराणों की ‘अप्सरा’ हमीं हैं। शकुन्तला भी एक अप्सरा ही से पैदा हुई थी, जिनके पुत्र राजा भरत का नाम आज भी तवारीखों में सोने के हरूफ़ों में लिखा है। हमारी जाति और गुणों का वर्णन बहुत सी पुस्तकों में मौजूद है। उसे देखा जाए अथवा लिखाकर प्रकाशित किया जाए तो आप बहन और भाईयों को अच्छी तरह मालूम हो जाए कि हम लोग किस दर्जे पर थीं और हमारा महत्त्व क्या था। बड़े लोगों से यह भी सुनने में आया है कि बड़े रईसों के लड़के-विशेषकर जौहरियों के-हमारे घरों पर पढ़ने के लिए आते थे और होशियार होने के बाद वे लौट जाते थे। एक समय की बात है कि एक महाजन का लड़का एक गणिका के यहाँ पढ़ता था।
एक दिन एक मनुष्य उस गणिका के यहाँ गया, और उसने उस लड़के से ‘शराब’ लाने के लिए कहा। उस समय रात का एक बजा था। शराब कहीं मिल नहीं सकती थी। लड़के ने विचार किया कि बाईजी तो शराब पीती नहीं, इस बेवकूफ़ को इसकी ज़रूरत है। यह सोचकर लड़का गया और गधे की पेशाब बोतल में भर लाया और मतवाले के सामने रख दिया। सुबह यह बात बाईजी को मालूम हुई तब उन्होंने शागिर्द की पीठ ठोंकी और उसे घर जाने की आज्ञा दी। यह कहानी हमारे गौरव तथा बड़ाई को आज भी जा़हिर कर रही है। इससे यह मालूम होता है कि बाई लोग शराब नहीं पीती थीं। इन बातों के अलावा हम लोगों में विद्या का प्रचार भी इतना था कि दरबारों में राजा या बादशाहों की आज्ञा होते ही नए-नए पदों की रचना कर गाना पड़ता था और जिस गायक के उत्तम पद होते थे, उसे उत्तम इनाम मिलता था।...हमारा खास रोज़गार गाना-बजाना और नाचना है, परन्तु इसका बहुत कुछ लोप हो गया है। लड़कियों को गाने और नाचने में पूर्ण पंडित नहीं बनाया जाता। उन्हें संगीत विद्या की उच्च शिक्षा नहीं दी जाती। इधर-उधर से दस-बीस गानें सीखकर पेट भरने की पड़ जाती है। इससे हमारी सर्वगुणमयी संगीत विद्या के ह्रास के साथ हमारा भी पतन हो चला। यह हम लोगों के लिए बड़ी ही लज्जा की बात है। इसके अतिरिक्त अश्लील गानों तथा कई एक कारणों से देश में तवायफ़ों का नाच-मुजरा बन्द कराने की कोशिश बहुत से लोग कर रहे हैं। और यह बिल्कुल सच है कि कई एक मुकामों पर जहां आज से चार साल पेश्तर तवायफ़ों का नाच होता था, वहाँ अब नहीं होता। इसके बहुत से सबूत हैं।
इस वक्त देशवासियों का झुकाव राष्ट्रीय गीत की ओर है। इसलिए हम लोगों को भी राष्ट्रीय गानों को याद कर मुजरों तथा महफिलों में गाना चाहिए। इससे हमारी प्रशंसा होगी, रोज़गार बढ़ेगा। हम लोगों को जो बहुत से लोग ह़िकारत की निगाह से देखने लग गए हैं। सो भी कम हो जाएगा और लोग इज़्ज़त की निगाह से देखेंगे, जिधर की हवा बहे उसी तरफ़ सबका जाना फ़र्ज है और संसार का भी यही नियम है। इसी में हमारी तरक्की होगी। राजनीतिक गानों की बहुत सी पुस्तकें बन गई हैं, उन्हें मँगाकर गाने याद कीजिए। जिसे पुस्तक न मिले, विद्याधरी बहन के यहाँ से मँगा ले।
अब मैं आप लोगों का खयाल शराब की ओर दिलाती हूँ। हम लोगों में शराबखोरी इतनी बढ़ गई है कि इसने अर्थ और धर्म-दोनों का नाश कर दिया है। मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि शराब पीना हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कौमों के मज़हब के खिलाफ़ है। हमने कहीं लिखा देखा है कि यदि मुसलमानों के ज़िस्म के किसी हिस्से पर शराब का कतरा गिर पड़े तो उसे उस हिस्से को काटकर फेंक देना चाहिए-यदि वह सच्चा इस्लाम धर्म मानने वाला है। ऐसा ही हिन्दुओं के यहाँ भी है। परन्तु बड़े शर्म की बात है कि हम लोग खुदगर्जी़ के जाल में फँसकर अपने धर्म पर चोट पहुँचा रही हैं। अतः हिन्दू हो अथवा मुसलमान, उसे शराब को हराम समझकर उसका पीना शीघ्र ही बन्द कर देना चाहिए।
हमारी जीविका याचना है और हम लोगों को याचक भी कहते हैं। हमारी आमदनी तब बढ़ेगी, जब हमारा मुल्क धनी होगा और छोटे-बड़े सब सुखी होंगे। जब सब काम से पैसा बचेगा तब लोग हमारा गाना-बजाना सुनेंगे। हिन्दुस्तान धनी हो इसके लिए हमें ईश्वर से सदैव प्रार्थना करनी चाहिए, परन्तु हम यह देखते हैं कि हमारा मुल्क बहुत गरीब हो गया है। यहाँ का धन अनेक रूपों में विलायत पहुँच गया। चीनी के खिलौने, शीशे-काठकवाड़ तथा ग्रामोफ़ोन बाजे वगैरह में लाखों रुपए हमसे दूसरे मुल्कवाले लूट ले गए। इन चीज़ों में सबसे बड़ा हिस्सा कपड़े का है। करीब 69 करोड़ रुपया हर साल हमारे मुल्क से दूसरे देशों में कपड़े के व्यापारी ले जाते हैं। एक रूपए की तीन और चार सेर की रूई हिन्दुस्तान से खरीदकर उसी का कपड़ा बना सोलह और बीस रूपये सेर में हिन्दुस्तान के ही हाथ बेचा जाता है। मियाँ की जूती मियाँ के सिर-वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। आबरवाँ, मखमल, अद्धी और तंजेब ने हमारे मुल्क को बरबाद कर दिया। लाखों बच्चे तथा करोड़ों गौ-बैल भूख से मरने लगे। हजारों पशु गोरे सैनिकों के लिए कटने लगे, जिससे घी-दूध महँगा हो गया, जो कि बच्चों की मृत्यु का एक प्रधान कारण है। हमारी बहुत सी बहनें गरीबी के कष्ट उठा रही हैं। उनके साथ हम लोगों को हमदर्दी करना चाहिए। उन्हें चरखे कातने तथा कपड़े बुनने की शिक्षा देनी चाहिए जिससे उनकी गरीबी कटे और देश की भलाई हो। महात्मा गांधीजी की आज्ञा से अब भारत ने स्वाधीनता और स्वराज्य की घोषणा कर दी है। भारत को आज़ाद करने के लिए विलायती माल का व्यवहार बन्द करना जरूरी है। मैं आज से विलायती माल न खरीदने की प्रतिज्ञा करती हूँ कि आप लोग भी आज से ही विलायती माल लेना बन्द कर देंगी और अपने बच्चों से कह देंगी कि मरने पर हमारे जनाज़े में नापाक विलायती कपड़ा मत लगाना। मेरी बहनें मुझसे यह सवाल कर सकती हैं कि यदि विलायती कपड़ा सस्ता होगा और देशी महँगा तो हम उसे कैसे खरीदेंगी। उसके जवाब में हमारी प्रार्थना यह है कि विलायती से देशी अधिक दिन तक चलता है। इससे हमारे मुल्क का फ़ायदा होगा। गरीबों को पेट भरने का एक रोज़गार मिल जाएगा, हिन्दुस्तान बहुत जल्द आज़ाद हो जाएगा, इसलिए साल में चार कपड़े की जगह तीन ही काम में लाइए-पर देशी लाइए।
अब मैं आप लोगों का ध्यान उन स्त्रियों की ओर दिलाती हूँ, जिन्होंने अपने मुल्क और मज़हब की भलाई के लिए अपना प्राण तक दे दिया है। पन्द्रहवीं शताब्दी में जिस समय अंग्रेज शासक फ्रांस में बेतहर जुल्म कर रहे थे, उस समय फ्रांस की सोलह वर्ष की बालिका ‘जॉन आफ़ आर्क’ ने फ्रांस को आजा़द करने के लिए कौमी झंडा उठाया था, जिसके लिए उसे यहाँ तक तकलीफ़ सहनी पड़ी थी कि उसके सुकुमार हाथों और पैरों में हथकड़ी डाल दी गई और बड़े ही बेरहमी के साथ रस्सियों में बाँधकर फ्रांस के अंग्रेज़ शासकों द्वारा जीते जी जला दी गई। परन्तु वह अपने सिद्धान्तों से ज़रा भी विचलित नहीं हुई।
इसी तरह चित्तौड़ की रक्षा के लिए कितनी ही वीर बालाओं ने लड़ाई के मैदान में अपने प्राणों की आहुति दे दी। तेरह हजार स्त्रियों ने एक ही समय अपने हाथों से चिता लगाकर अपने को भस्म कर दिया, परन्तु अपने मुल्क को जीते जी गुलाम न होने दिया। संसार में स्त्रियों और पुरुषों का अधिकार बराबर है। भारत पर पुरुषों से ज़्यादा हक स्त्रियों का है। यदि पुरुष आज़ादी के लिए के लिए लड़ रहे हैं तो हम भी उनके साथ प्राण देने को तैयार हैं। यदि वे जेल जा रहे हैं तो हम भी उनकी पूजा करने के लिए पहले से बैठी हैं। क्या आप भारत को गुलामी से आज़ाद करना चाहती हैं ? यदि चाहती हैं तो क्या उनके लिए आप सोने के गहनों की जगह लोहे की ज़ंज़ीरें पहनने के लिए तैयार हैं ? क्या अन्य बाजों के सहारे न गाकर ज़ंज़ीरों की झनझनाहट के साथ राष्ट्रीय गीत गाने के लिए तैयार हैं ? क्या आप मख़मलों की सेज के बदले कम्बलों पर सोने के लिए तैयार हैं ? यदि हाँ, तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि वह दिन करीब है, जिस दिन हम लोग भारत को आज़ाद देखेंगी।
अन्त में मैं विद्याधरी को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने मुझे इस कार्य को करने में अग्रसर किया तथा एक बार आप लोगों को भी इस मान को देने के लिए धन्यवाद देती हूँ।
वह एक सँकरी-सी गली थी। बेलन के आकार की। बीच में अचानक गुब्बारे की तरह फूल गई थी। नदी के बीचोबीच उग आए टापू की तरह। दूसरे आम चुनाव से पहले गली के मुहाने पर नगर महापालिका की ओर से एक छोटा-सा नल लगा दिया गया था। शुरू-शुरू में लोगों को नल का पानी बहुत फीका लगा। लोग-बाग नल के पानी से कपड़े वगै़रह तो धो लेते मगर पीने से परहेज़ करते। पीने के लिए कुएँ से ही पानी लिकालते। जाने क्या हुआ कि कुछ ही वर्षों में कुआँ बेचारा इतना तिरस्कृत हो गया कि उसकी सतह पर काई जमने लगी और नल पर पनघट का माहौल दूनी शान-शौकत से पैदा हो गया। सुबह हो या शाम, कमर पर एक तरफ़ बच्चा और दूसरी तरफ़ गगरा लिये औरतों का जमगट लगा रहता। बुर्का ओढ़े स्त्रियाँ हों या लुंगी-बनियान पहने पुरुष- सब अपनी बारी की हड़बड़ी में बेचैन नज़र आते। कभी-कधार मारपीट भी हो जाती। पानी लेने की जल्दबाज़ी में बहुत से लोग थाने-अस्पताल पहुँच चुके थे। क्या दूसरे आम चुनाव से पूर्व कुआँ जरूरत भर का पानी मुहय्या करता रहा होगा-यह एक शोध और आश्चर्य का विषय था।
गली के बीचों एक बड़ा-सा अहाता था और अहाते के बीचोबीच नीम का एक पुराना पेड़। लगता है पेड़ के नीचे कभी एक कुआँ रहा होगा, जिसे भरकर उसके ऊपर एक चौतरा-सा बना दिया गया था। चौतरे पर अपना सामाजिक महत्त्व था। ईद के मौके पर ईद- मिलन और होली के अवसर पर होली-मिलन के रंगारंग कार्यक्रम इसी चौतरे पर आयोजित किए जाते। दोनों ही त्यौहारों पर रात-रात भर कव्वाली होती। दोनों तरफ़ के आयोजकों की कोशिश रहती कि कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए जिलाधीश अथवा पुलिस अधीक्षक तैयार हो जाएँ। इससे छुटभैये नेताओं को ज़िला प्रशासन से सम्पर्क साधने का अवसर मिल जाता था।
मगर चौतरे का एक और इतिहास भी था। गली के बूड़े-बूढ़ों का दृढ़ विश्वास था कि इस नीम और कुएँ पर भूतों का डेरा है। भूतों के डर से लोग-बाग रात दस बजे के बाद से अपना रास्ता बदल लेते थे। मुहल्ले की कुँआरी कन्याओं को कुएँ से पानी भरने की मुमानियत थी। रात-बिरात नीम के नीचे से अकेले गुज़रना तो दूर, भाई लोगों ने यहाँ तक प्रचारित कर रखा था कि जहाँ-जहाँ तक नीम का साया पड़ता है, कोई औरत सुखी नहीं रह सकती। भूतों को लेकर जितनी भी कहानियाँ सुनी जाती थीं, उनसे लगता था कि इन भूतों की दिलचस्पी केवल स्त्रियों और बच्चों में थी। कुएँ के इतिहास से एक से एक कारुणिक त्रासदियाँ वाबस्ता थीं। शीरीं ने इसी कुएँ में कूदकर आत्महत्या की थी। शीरीं ने फरहाद के लम्बे इन्तजा़र से आजिज़ आकर अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी और सरला को दहेज का यही अन्धा कुआँ निगल गया था। अमावस की रात को लोग सूरज डूबते ही अपने-अपने घरों में बन्द हो जाते, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि अमावस की रात को कभी तो शैतान के अट्टहास की तरह आवाज़ें उठती हैं और कभी किसी औरत के सिसकने की। किस्से यहीं ख़त्म नहीं होते। पार्वती ने शादी के दूसरे रोज़ अपने को इसी कुएँ के हवाले रख दिया था।
पार्वती को आप नहीं जानते। पार्वती शिवलाल चक्कीवाले की दूसरी पत्नी थी। नीम के नीचे खाट बिछाए यह जो शख्स करवटें बदलता दिखाई देता है, शिवलाल उसी का नाम है। शिवलाल की समझ में आज तक नहीं आया कि पार्वती क्यों उसे इतनी बड़ी दुनिया में यकायक अकेला छोड़ गई। उधर एक दिन उसे सपने में दिखाई दिया शींरी और सरला मिलकर पार्वती को भी कुएँ की तरफ़ घसीट रही हैं और पार्वती है कि चिल्ला रही है। शिवलाल पार्वती को बचाने की कोशिश करता है, मगर उसकी टाँगों में कुव्वत नहीं। जब वह बहुत कोशिश के बाद भी नहीं उठ पाया तो वहीं खटिया पर औंधा गिर पड़ा। कुएँ में गिरने से पहले पार्वती उसकी तरफ़ बहुत आशा और अपेक्षा से देखती है, मगर शिवलाल चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। एक तरफ पार्वती को कुएँ में धकेल दिया जाता है और दूसरी तरफ शिवलाल खटिया के पाए से अपना माथा फोड़ लेता है।
शिवलाल ने सपना देखा तो दहशत में आ गया। वह खटिया पर बैठ गया। नीम के पत्तों से छनकर आती हुई चाँदनी उसकी खटिया पर बिखर रही थी। चारों तरफ सन्नाटा था। वह कुछ भी तय न कर पाया। पार्वती की याद उसके सीने पर एक वज़नी सिल की तरह सुबह तक पड़ी रही। सुबह से उसे लगता रहा, जाते-जाते भूत यह कह गए हैं-नीम के नीचे से चक्की उठा लो शिवलाल ! शिवलाल ने भी तय कर लिया था कि वह चक्की उठाकर कहीं दूर चला जाएगा, मगर इस बीच कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि वह पड़ा रह गया। एक दिन नगर महापालिका ने अचानक कुआँ भरना शुरू कर दिया और शिवलाल की माँ शिवलाल का, एक जगह रिश्ता भी पक्का कर आई।
इस बीच देश ने बहुत तरक्की की। मगर इस गली का ही दुर्भाग्य कहा जाएगा कि देश में हो रहे विकास कार्यों का बहुत हल्का प्रभाव इस गली के वासियों के जीवन पर पड़ रहा था। गली के औसत आदमी के घर में आज भी न पानी का नल था, न बिजली का कनेक्शन। शाम होते ही घर में जगह-जगह जुगनुओं की तरह ढिबरियाँ टिमटिमाने लगतीं। अगर भूले भटके गली में दो-एक जगह सड़क के किनारे बल्ब लगा दिए जाते तो बच्चे लोग तब तक अपनी निशानेबाज़ी की आज़माइश करते रहते, जब तक बल्ब टूट न जाते। दरअसल गली के लोग सदियों से अँधेरे में रह रहे थे और अब अँधेरे में रहने के आदी हो चुके थे। अब उजाला उनकी आँखों में गड़ता था। यही वजह थी कि अगर बच्चों से बल्ब फोड़ने में कोताही हो जाती तो कोई रोशनी का दुश्मन चुपके से बल्ब फोड़ देता। रोशनी में जीना उन्हें ऐसा लगता जैसे निर्वसन जीना। रोशनी से बचने के लिए लोग टाट के पर्दे गिरा देते।
टाट इस गली का राष्ट्रीय परिधान था। दरअसल टाट चिलमन भी था और चादर भी। टाट पाजामा भी था और लंहगा भी। टाट बिस्तर था और कम्बल भी। अक्सर लोग टाट पर सोते थे और टाट ओढ़ते थे। टाट के साइज़-बेसाइज़ के परदे छोटी-छोटी कोठरियों के बाहर जैसे सदियों से लटक रहे थे। टाट के उन पर्दों पर टाट की ही थिगलियाँ लगी रहती थीं।
साँझ घिरते-घिरते गली में आमदोरफ्त बढ़ जाती। मस्जिद से आजा़न की आवाज़ सुनाई दी नहीं कि लोग जल्दी-जल्दी बावजू होकर मग़रिब की नमाज़ में मशगूल हो जाते। बड़ी-बूढ़ी औरतें दालान में एक तरफ चटाई बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगतीं।
दीया-बत्ती का समय होते ही छोटे-छोटे बच्चे पुश्तैनी बोतलें थामे मिट्टी के तेल की कतार में जुड़ जाते। किसी बोतल की गर्दन टूटी होती या नीचे से पेंदे की परत। इन्हीं बच्चों को सुबह आँखें मलते हुए टेढ़े-मेढ़े गिलास अथवा कुल्हड़ लिये दूध लाते देखा जा सकता था। प्रति परिवार पाव-लीटर दूध और आधा लीटर किरासिन चौबीस घण्टों के लिए पर्याप्त होता।
अधिकांश घरों में पाखाने की कोई व्यवस्था न थी। सुबह मुँह-अँधेरे पूरी गली सार्वजनिक शौचालय का रूप ले लेती। खुदा न खास्ता किसी को दस्त लग जाते तो अजी़ज़न बी का ज़ीने के नीचे बना पाखाना काम में लाया जाता। पाखाने की चाबी नफ़ीस के पास रहती थी और चाबी लेने के लिए नफ़ीस की बहुत चिरौरी करनी पड़ती थी। नफ़ीस खुश हो जाता तो न केवल चाबी बल्कि सनलाइट का छोटा-सा टुकड़ा भी दे देता। मगर लोगों ने इन तमाम अभावों के बीच जीने का एक ढर्रा ईजाद कर लिया था। चुनाव के दिनों जब गली को झंड़ियों और फूल पत्तियों से सजाया जाता तो लगता जैसे कोई बूढ़ी वैश्या लिपस्टिक पोते इतरा रही है।
शहर की खुशहाल बस्तियों में शाम के समय जो जंगल की वीरानी और श्मशान का सन्नाटा छाया रहता है, वह इस गली में दूर-दूर तक नहीं मिल सकता था। इस लिहाज़ से यह गली एक भरे-पूरे परिवार के आबाद आँगन की तरह महकती थी। दीवाली हो या ईद, मुहर्रम हो या होली यह गली रतजगे पर उतर आती। दीवाली के दिनों पूरी गली मिठाई के डिब्बों का कारखाना बन जाती। रमजान के महीने में रात-भर चहल-पहल रहती और अलसुबह जब बाँगी ‘सहरी का वक्त हो गया है, खुदा के बन्दो जागो’ की बाँग देता तो बर्तनों की खनक के साथ एक नए दिन की शुरूआत हो जाती। होली पर रंग बेचनेवाले इसी गली से रंगों के पहाड़ ठेलों पर लादे हुए निकलते। रात-रात भर पिचकारियाँ बनतीं। मुहर्रम के दिनों नीमतले पेट्रोमैक्स की रोशनी में छुरियाँ तेज़ होतीं-किर्र किरर्र किर्र...
टाट गली का राष्ट्रीय परिधान था तो बीड़ी उद्योग राष्ट्रीय रोज़गार। स्त्रियाँ, बच्चे और बेकार नवयुवक रात-भर राष्ट्र के लिए पत्तों में तम्बाकू लपेटते। सुबह सड़े-गले पत्तों को जलाकर उनके ताप से चाय बनाते।
शिवलाल की चक्की गली के मुहाने पर ही थी, इसलिय वह एक तरह से गली का ‘गेटकीपर था। उसे मालूम रहता था कि इस समय नफ़ीस इमामबाड़े के पास खड़ा पान चबा रहा है या गुल को लेने विश्वविद्यालय गया है। हजरी बी चमेली के पास बैठी है या पंडिताइन की जुएँ बीन रही है। कोई अजनबी अगर किसी का अता-पता पूछता तो शिवलाल न केवल अता-पता बता देता बल्कि संक्षेप में उस व्यक्ति का इतिहास भी।
शिवलाल के बहुत कम दोस्त थे। एक पंडित शिवनारायण दुबे था और दूसरे एक मौलाना थे। मौलाना शफ़ी। पुराने रईस। मगर अब हालात बिगड़ चुके थे। इधर रद्दी की खरीदो-फरोख्त का कारोबार करते थे। अपनी-पुरानी रईसी के किस्से वह खुद इस अन्दाज़ से सुनाते थे कि शिवलाल को बहुत मज़ा आता। जब मौलाना बताते कि उन्होंने बम्बई में ग्रांट रोडवाला मकान सिर्फ़ सात हजा़र रुपए में बेंच दिया और अब उसका दाम डेढ़ लाख है तो शिवलाल के सारे बदन में खुजली छिड़ जाती। वह बेचैन होने लगता। जब मौलाना बताते कि सात हजा़र रूपया भी उसने सात दिनों में तबाह कर दिया तो शिवलाल और बेचैन हो जाता।
‘अमाँ यार ज़िन्दगी भी एक ड्रामा है। एक वक्त था मौलाना शफी़ का नाम सुनते ही दोस्तों की भीड़ लग जाया करती थी और एक ज़माना यह है कि मौलाना शफ़ी दिन-भर रद्दी बटोरता घूमता है और खर्च लायक दस-बीस रूपये कमाने में अच्छी-खासी मशक्कत हो जाती है। शिवलाल, तुम्हें क्या बताएँ एक ज़माना था कि कागज की कतरन ढाई रूपये किलो थी। गेहूँ और कतरन दोनों का एक दाम था। आज वही कतरन कोई अस्सी पैसे में नहीं पूछ रहा। जितना पैसा एक क्विंटल माल खरीदने पर बचता था आज तीन क्विंटल में भी नहीं बचता।’
मौलाना शफ़ी नमाज़ के वक्त का हमेशा खयाल रखते थे। बात बीच में ही छोड़कर चल देते। पाँचों वक्त की नमाज़ से उनकी रूह को चैन मिलता था। उन्हें याद है जब तक उन्होंने नमाज़ की तरफ़ ध्यान नहीं दिया था उन्हें अजीब-सी दहशत दबोचे रहती। उन्हें लगता कोई उनका पीछा कर रहा है। वे अपनी साइकिल पर हाँफते हुए आते और शिवलाल के पास ही साइकिल खड़ी करके उससे पानी पिलाने के लिए कहते। पानी पीने के बाद वे बुदबुदाते, ‘शिवलाल भाई, कैसा ज़माना आ गया है। कल एक प्रेस से रद्दी उठाई। घर जाकर छटाई में लगा गया तो क्या देखता हूँ, दसियों सेर सीसा मिस्त्री ने रद्दी में मिला रखा है। रद्दी का भाव दो सौ रुपये और सीसे का दो हजा़र रूपये। मैंने उसी वक्त कपड़े पहने और जाकर सीसा लौटा आया। हराम की कमाई मेरे ज़मीर ने कुबूल ही नहीं की। वरना क्या सीसा बेचकर मैं एक अच्छी-खासी रकम खड़ी नहीं कर सकता था ? तुम आज भी किसी से मेरे बारे में दरियाफ़्त कर लो, सब लोग तफ़सील से मेरे बारे में बताएँगे ! सब लोग हैरत में हैं एक नेक-दिल खुदातरस इंसान के पीछे वे लोग क्यों पड़ गए हैं ? आप ही की तरह सब पूछते हैं कि कौन है वे जो तुम्हारे पीछे पड़े हैं ? हम क्या बतावें ? कोई सामने आवे तो बतावें। बस छिप-छिप कर इशारे करते हैं और जीना मुहाल किये हैं। किसी ने किसी का कान भरा तो वही जाने। मेरा जिन्दगी का तो फ़लसफ़ा है कि इंसान बनके जीओ और दूसरों को जीने दो। चन्दरोज़ा जिन्दगी को यों ही बर्बाद न होने दो। मुनि, दरवेश और फकीर की कीमत कोई भी समझ सकता है। ज़ाहिल इंसान यह सब नहीं जानता। मैं इसे उनकी जहालत ही कहूँगा जो बेसबब अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं। मुझ जैसे मुफ़लिस से उन्हें क्या हासिल होगा ? कोई उनको सामने लाकर खड़ा कर दे तो हम बता दें कि हर इंसान का एक मैयार होता है। ग़लती भी न बताओ, उसके पीछे पड़े रहो, यह कहाँ का दस्तूर है ? दिन भर इन्हीं ख़यालात में डूबा रहता हूँ कि उनका मकसद क्या है ?’
शिवलाल की आत्मा हमेशा सन्तप्त रहती थी। अपने आसपास किसी ग़ैरतवाले आदमी को देखकर उसे बहुत तसल्ली होती। उसे सारी दुनिया एक शोषक के रूप में नज़र आती थी। उसे लगता पूरे समाज की आँख उसकी छोटी–सी जमा-पूँजी पर है, चाहे उसकी अम्मा की नजर हो या भाई की। मौलाना शफ़ी ही उसे एक ऐसा व्यक्ति लगता था जो इस षड्यंत्र में शामिल नहीं था। मगर मौलना की बातों से उसे बहुत उलझन होती, डर भी लगता। कोई उसके पीछे न लग जाए। क्या भरोसा इस दुनिया का ! कौन कब किसके पीछे पड़ जाए, कौन जानता है। वह बहुत देर तक इस समस्या पर विचार करता रहता। जब उसका मन न मानता तो वह हुक्के का एक लम्बा कश खींचता और पूछ बैठता, ‘मगर वे क्यों आपके पीछे पड़े हैं ?’
‘अपना मतलब हल करना चाहते हैं। यही मक़सद हो सकता है कि तरक्की न करने पावे। बच्चों की शादी न करे।’
‘इसके पीछे कोई वजह तो ज़रूर होगी ?’
मैं दिन भर सोचता रहता हूँ। मेरी समझ में खुद कुछ नहीं आता। क़ुरानशरीफ़ की कसम, मैं कुछ नहीं जानता। घर से निकलता हूँ तो उनकी आवाज़ें सुनाई देती हैं। दस आदमी-बारह आदमी का हौवा लाकर खड़ा कर देते हैं। हमारा दिल कहता है कि हमको देखकर बकना शुरू कर देते हैं कि इसके दिमाग़ को खराब करो। गलती भी न बताओ, इसके पीछे पड़े रहो। यह तो ग़लत है, सरासर ग़लत है। वे नहीं जानते की बुलन्द खयाल के लोग ही अच्छी जिन्दगी बसर कर सकते हैं। बुरी चीज को रोकने के लिए ही अच्छे लोग पैदा होते हैं। खुदा खूब वाकिफ है किस पर क्या गुज़रती है।
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