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कुछ और नज्में

गुलजार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3254
आईएसबीएन :9788183616638

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गुलजार की कुछ और नज्में....

Kuch aur Najeme - A Hindi and Urdu Book of Gazals by Gulzar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गुलजार के गीत हिंदी फिल्मों की गीत परंपरा में अपनी पहचान खुद हैं, प्रकृति के साथ उनके कवि का जैसा अनौपचारिक और घरेलू रिश्ता है, वैसा और कहीं नहीं मिलता। जितने अधिकार से गुलजार कुदरत से अपने कथ्य और मंतव्य के संप्रेषण का काम लेते रहे है, वैसा और भी कोई रचनाकार नहीं कर पाया है। न फिल्मों में और न ही साहित्य में।
इस किताब में वे नज्में शामिल हैं जिनमें से ज्यादातर को आप इस किताब में ही पढ़ सकते हैं, यानी कि ये गीतों के रूप में फिल्मों के मार्फत आप तक सभी नहीं पहुँचीं। इसमें गुलजार की कुछ लम्बी नज्में भी शामिल हैं, कुछ छोटी और कुछ बहुत छोटी जिन्हें उन्होंने ‘त्रिवेणी’ नाम दिया है। इनको पढ़ना एक अलग ही तजुर्बा है।


मेरा किताब से लगाव नहीं जाता।
शुरू-शुरू में जब किताबें छपी थीं तो बड़ी तसल्ली होती थी कि कापियों, डायरियों और काग़जों के पुरज़ों पर लिखी नज़्में किसी मंजिल को पहुँच गईं। किताब तक पहुँचते ही लगता था नज़्में अपने घर पहुँच गईं। फिर जैसे आदमी घर बदलता है, कुछ नज़्में भी अपना घर बदलने लगीं। एक किताब से वह के दूसरी किताब में चली गईं।

मैं एक किताब, दूसरी किताब में इसलिए उँड़ेलता रहा कि वक़्त के साथ-साथ नज़्में मेरे ज़ेहन में बार-बार छनती रहीं। शुरू-शुरू में ज़्यादा कह जाता था। वक़्त के साथ समझ में आया कि कम कहने में ज़्यादा तास्सुर है। ज़्यादा कहने से मानी डाइल्यूट हो जाते हैं। ‘जानम’ अपना पहला मजमूआ, देवनागरी में देखने के लिए ‘एक बूँद चाँद’ छपी। जब वो छनी तो मोटा पीसा हुआ निकल गया और बाक़ी माँदा अगली किताब में उँड़ेल दिया। ‘कुछ और नज़्में’—

अशोक माहेश्वरी वो फिर से छापना चाहते हैं। हालाँकि इसमें बहुत-सी नज़्में हैं जिन्हें मैं फिर से छानना चाहता हूँ। मगर वो मना करते हैं। बस कीजिए, सब मैदा हो जाएगा। आपकी मर्जी....अब मैदा हो कि मलीदा, हाज़िर है।

 

त आरुफ़

 

 

इस मजमूए का, जिसे मैं हिन्दी में संग्रह भी कह सकता हूँ, परिचय कराना कुछ ज़रूरी लग रहा है। इसमें क़रीब 1965 से लेकर 1979 तक की चुनी हुई नज़्में हैं, जिन्हें मैंने अपनी मर्जी से चुना है। उससे पहले की नज़्में भी अपनी मर्जी से ही एक बार तैश में आकर जला दी थीं। बाद में कुछ नज़्में कहीं-कहीं पड़ी हुई हाथ लगती रहीं, लेकिन उन्हें मैंने किसी मजमूए में शामिल नहीं किया। इससे पहले भी एक मजमूआ नज़्मों का छपा था, ‘एक बूँद चाँद’ के नाम से। इस संग्रह में वह नज़्में भी शामिल हैं। हाँ, कुछ घट गई हैं, कुछ बढ़ गई हैं। ज़बान तमाम नज़्मों की उर्दू है या उर्दू-मायल हिन्दुस्तानी। कुछ ऐसी ही ज़बान मैं बोलता हूँ; इसीलिए वही सच लगती है।

अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने के कारण और फिल्मों की स्क्रिप्ट में अंग्रेजी माध्यम इस्तेमाल करने की वजह से बहुत कुछ अंग्रेजी में ही सोचने की आदत हो गई है, इसलिए कहीं-कहीं अंग्रेजी का लफ़्ज़ भी नज़र आ जाता है। लेकिन सिर्फ़ उतना ही ज़ितना कि चेहरे पर एक ‘पिम्पल’। खुजली करता है लेकिन अगर तोड़ दो तो ज़ख़्म हो जाता है। लहू की बूँद नज़र आने लगती है। उसे तजुर्मा कर दो तो कुछ कम हो जाता है, जैसे म्यूज़ियम, गेट-टुगेदर, फ़ेमिली-ट्री। इन लफ़्ज़ों के हिन्दी या उर्दू लफ़्ज़ मिल जाते हैं, लेकिन वही कि, अनुवाद से ही लगते हैं। मुझे वे अनुवाद सूखे हुए अमलों की तरह लगते हैं। तासीर वही है लेकिन न रस रहा न मस।

लम्बी नज़्मों का एक हिस्सा है, जिनके उनवान अंग्रेज़ी में दे रहा हूँ।
दूसरे हिस्सों में नज़्मों के उनवान नहीं हैं, सिर्फ़ हिस्सों के नाम हैं।
उर्दू में एक शे’र के दो मिसरे होते हैं, जिसमें पहले मिसरे को ‘ऊला’ कहते हैं और दूसरे मिसरे को ‘सानी’।
मिसला-ए-उला में क़ैफ़ियत तो होती है, लेकिन वह अपने आप में पूरा नहीं होता। उसे मिसला-ए-सानी की जरूरत होती है, जो पिछले मिसरे की बात पूरी कर दे और शे’र के माने को गिरह लगा दे।

इस किताब में ‘ऊला’ की नज़्में उन मिसरों की तरह हैं जो अपने दूसरे हिस्से को ढूँढ़ती नज़र आती हैं। उनमें क़ैफ़ियत तो है लेकिन कहीं गिरह नहीं लगा पातीं। और जब गिरह लगी, कुछ-कुछ माने कहीं-कहीं समझ आने लगे तो अपने-आप ‘सानी’ की नज़्में हो गईं। ऐसा अकसर होता है ज़िन्दगी में ‘ऊला’ क़ैफ़ियत से गुज़रते रहते हैं और सानी को गिरह देर तक नहीं लगती।
एक और बात।
सैल्फ़-कनफ़ैशन।
बोलते-बोलते अपनी बात बनाना भी सीख जाता है। कभी चाहते हुए, कभी न चाहते हुए।

हो सकता है, ऊला और सानी को आप इस तरह न देखें जैसे मैं देख रहा हूँ। और वह ज़रूरी भी नहीं। ज़रूरी नहीं कि शाम की शफ़क़ आप भी उसी तरह देखें जैसे मैं देखता हूँ। ज़रूरी नहीं कि उसकी सुर्खी आपके अन्दर भी वही रंग घोले जो मेरे अन्दर घोलती है। पर लम्हा, हर इंसान अपनी तरह खोलकर देखता है इसलिए मैंने उन लम्हों पर कोई मुहर नहीं लगाई, कोई नाम नहीं दिया। लेकिन इतना ज़रूर है कि उन लम्हों को मैंने बिल्कुल इसी तरह महसूस किया है जिस तरह कहने की कोशिश की है और बग़ैर महसूस किए कभी कुछ नहीं कहा।

एक और हिस्सा है, ‘ख़ाके’। इनमें पेंटिंग्ज़ हैं, कुछ पोर्ट्रेट हैं, कुछ लैंडस्केप हैं और कुछ महज़ स्केचेज़। जी चाहता था, अपनी फ़िल्म की ज़ुबान में उन्हें क्लोज-अप, लांग-शाट या डिज़ाल्व कहके बुलाऊँ, लेकिन ऐसा नहीं किया, आपकी आसानी के लिए।

‘दस्तख़त’ का एक हिस्सा है। उसमें बड़ी निज़ी-सी नज़्में हैं, बड़ी निजी-से लम्हे हैं। कुछ ऐसे लम्हे, जिनमें से लोग गुजरते तो हैं लेकिन उन्हें ‘रफ़-वर्क़’ की तरह अलग रख देते हैं। मैंने उन अलग रखे पन्नों पर भी दस्तख़त कर दिए हैं।
ख़ास चीज़ जिसका ख़ासतौर से त’आरुफ़ कराना चाहता हूँ, वह ‘त्रिवेणी’ है।

भूषण बनमाली बड़े पुराने एक दोस्त हैं, और सिर्फ़ एक ही हैं। त्रिवेणी की ‘फ़ार्म’ उन्हीं की इंस्पिरेशन’ का नतीजा है। ‘त्रिवेणी’ की फ़ार्म कुछ ऐसी ही है कि पहले दो मिसरों में शे’र अपने-आप में पूरा हो जाता है और वह तीसरा मिसरा, जो गुप्त है, उसके जाहिर होते ही शे’र का मक़सद यानी ‘स्ट्रेस’ बदल जाता है, जो ज़ाहिर है कि किसी हद तक माने में तब्दील कर देगा।
लेकिन ज़रूरी है कि ‘त्रिवेणी’ तीन मिसरों में कहीं नज़्म न हो। बस।

 

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो !
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार1 ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है

यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू2 फिर बगूला बनकर यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम3-जो-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरे !

 

1. चरित्र 2. तलाश-कामना 3. नतीजा, परिणति

 

ख़लाओं1 में तैरते जज़ीरों2 पे चम्पई धूप देख कैसे बरस रही है
महीन कोहरा सिमट रहा है
हथेलियों में अभी तलक तेरे नर्म चेहरे का लम्स3 ऐसे छलक रहा है
कि जैसे सुबह को ओक में भर लिया हो मैंने
बस एक मद्धम-सी रोशनी मेरे हाथों-पैरों में बह रही है

तेरे लबों पर ज़बान रखकर
मैं नूर का वह हसीन क़तरा भी पी गया हूँ
जो तेरी उजली धुली हुई रूह से फिसलकर तेरे लबों पर ठहर गया था

 आज फिर चाँद की पेशानी1 से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा।

आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसे
फटके बस टूट ही जाएँगी बिखर जाएँगी
आज फिर जागते-गुज़रेगी तेरे ख़्वाब में रात

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ

नीले-नीले से शब के गुम्बद में
तानपूरा मिला रहा है कोई

एक शफ़्फ़ाक1काँच का दरिया
जब खनक जाता है किनारों से
देर तक गूँजता है कानों में

पलकें झपका के देखती हैं श’में
और फ़ानूस गुनगुनाते हैं
गुनगुनाती हैं बिल्लौर की बूँदें

तेरी आवाज़ पहन रखी है कानों में मैंने

 

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1.निर्मल

 

तकिये पे तेरे सर का वह टिप्पा है, पड़ा है
चादर में तेरे जिस्म की वह सोंधी सी–ख़ुशबू
हाथों में महकता है तेरे चेहरे का एहसास1
माथे पे तेरे होठों की मोहर लगी है

तू इतनी क़रीब है कि तुझे देखूँ तो कैसे
थोड़ी-सी अलग हो तेरे चेहरे को देखूँ

 

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1.अभ्यास

 

कहाँ छुपा दी है रात तूने
कहाँ छुपाए हैं तूने अपने गुलाबी हाथों से ठंडे फाये
कहाँ हैं तेरे लबों के चेहरे
कहाँ है तू आज-तू कहाँ है ?

यह मेरे बिस्तर पे कैसा सन्नाटा सो रहा है ?

बन्द शीशों के परे देख दरीचों1 के उधर
सब्ज पेड़ों पे घनी शाख़ों पे फूलों पे वहाँ
कैसे चुपचाप बरसता है मुसलसल2 पानी

कितनी आवाज़ें हैं, यह लोग हैं, बातें हैं मगर
ज़हन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर3 तेरा

रूह देखी है, कभी रूह को महसूस किया है ?
जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपटकर
साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?

या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हों टलियाँ1
सुबकियाँ लेती हवाओं के वह  बैन सुने हैं ?

चौदहवीं रात के बर्फ़ाब2 से इस चाँद को जब
ढेर-से साये पकड़ने के लिए भागते हैं
तुमने साहिल3 पे खड़े गिरजे को दीवार से लगकर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है ?

जिस्म सौ बार जले फिर वही मिट्टी का ढेला
रूह इक बार जलेगी तो वह कुन्दन होगी

रूह देखी है, कभी रूह को महसूस किया है ?

 

1.    घंटियाँ 2. ठंडा, किनारा, तट

 

उखाड़ दो अरज़-ओ-तूल खूँटों से बस्तियों के
समेटो सड़कें, लपेटो राहें
उखाड़ दो शहर का कशीदा
कि ईंट-गारे से घर नहीं बन सका किसी का

पनाह मिल जाये रूह को जिसका हाथ छूकर
उसी हथेली पर घर बना लो
कि घर वही है
पनाह भी है।
तुम्हारे हाथों में मैंने देखी थी एक अपनी लकीर, सोनाँ

 

1.    लंबाई और चौड़ाई, विस्तार

 

एक लम्स
हल्का सुबुक1
और फिर लम्स-ए-तवील2
दूर उफ़क़3 के नीले पानी में उतर जाते हैं तारों के हुजूम4
और थम जाते हैं सय्यारों5 की गर्दिश के क़दम
ख़त्म हो जाता है जैसे वक़्त का लम्बा सफ़र
तैरती रहती है इक़ ग़ुंचे6 के होंटों पे कहीं
एक बस निथरी हुई शबनम की बूँद

तेरे होंटों का बस इक लम्स-ए-तावील
तेरी बाँहों की बस एक सन्दली गिरह

 

1.    कोमल1 2. लम्बा स्पर्श 3. क्षितिज 4. तारापुंज 5. ग्रह 6. कली

 

दो सोंधे-सोंधे जिस्म जिस वक़्त एक मुट्ठी में सो रहे थे
लबों की मद्धम तवील सरगोशियों1 में साँसे उलझ गई थीं
मुँदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर ठंडा सावन बरस रहा था—
बस एक ही रूह जागती थी ?

बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था ?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी ?

 

1. चुपके-चुपके बातें करना।

 

कल की रात गिरी थी शबनम
हौले-हौले कलियों के बन्द होंटों पर बरसी थी शबनम
फूलों के रुख़सारों1 से रुख़सार मिलाकर
नीली रात की चुनरी के साये में शबनम
परियों के अफ़सानों के पर खोल रही थी
दिल की मद्धम-मद्धम हलचल में दो रूहें तैर रही थीं
जैसे अपने नाज़ुक पंखों पर आकाश को तोल रही हों

कल की रात बड़ी उजली थी
कल की रात उजले थे सपने
कल की रात...तेरे संग गुज़री

 

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1.    कपोल

 

पाँच बजे हैं
टी.वी. पर आनेवाले हफ़्ते की झाँकी
‘इस हफ़्ते में...’

सोमवार जाना है तुमको—
टी.वी. पर इक ड्रामा होगा
फ़िल्म पुरानी-छाया गीत !

वीरवार तुम लन्दन होगी
तीन दिनों में...मैं और...
हिन्दोस्तान में हिन्दी और....इंदिरा गाँधी—तेहरान का दौरा
विएतनाम में आज़ादी का जश्न मनेगा—
शायद उस दिन ख़त आएगा—
पाँच बचे हैं
चंद घण्टों के बाद तुम्हारा ‘प्लेन’ उड़ेगा।

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए होंटों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ, मैं ‘जानम’
सादे काग़ज़ पर लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल1 है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगा

 

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1. पूरा

 

खोलकर बाँहों के दो उलझे हुए-से मिसरे
हौले से चूमके दो नींद से छलकी हुई पलकें
होंट से लिपटी हुई जुल्फ़ को मिन्नत से हटाकर
कान पर धीमे से रख दूँगा जो आवाज़ के दो होंट
मैं जगाऊँगा तुम्हें नाम से ‘सोनाँ-ओए सोनाँ !’

-और तुम धीरे से जब पलके उठाओगी ना, उस वक़्त
दूर ठहरे हुए पानी से सहर1 खोलेगी आँखें
सुबह हो जाएगी तब सुबह ज़मीं पर

 

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1.    सबेरा

 

ज़िक़्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना

 

--ग़ालिब

 

‘ज़िक़्र उस परीवश1 का-’
जिसके गालों में टिप्पे पड़ते हैं
जिसके दाँतों में बर्क़2 रखी है
खिलखिलाकर वह जब भी हँसती है
नाक भी फड़फड़ाके हँसती है

उसके कानों में सुर्ख़ बेर लटकाकर
जो मयस्सर थी कायनात3 उसमें
और दो सय्यारे ढूँढ़े हैं

ज़िक़्र उस परीवश का
और फिर बयाँ अपना..
मेरे शेरों में झाँकते हैं लोग
चुप रहूँ मैं तो खाँसते हैं लोग

 

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1.परी जैसा 2.बिजली 3.सृष्टि, ब्रह्मांड

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